सुबह जब गुलशन की आंख खुली तो सुमन मादक अंगड़ाई ले रही थी. पति को देख कर उस ने नशीली मुसकान फेंकी, जिस से कहते हैं कि समुद्र में ठहरे जहाज भी चल पड़ते हैं. अचानक गुलशन गहरी ठंडी सांस छोड़ने को मजबूर हो गया.
‘काश, पिछले 20 वर्ष लौट आते,’’ गुलशन ने सुमन का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा.
‘‘क्या करते तब?’’ सुमन ने हंस कर पूछा.
गुलशन ने शरारत से कहा, ‘‘किसी लालनीली परी को ले कर बहुत दूर उड़ जाता.’’
सुमन सोच रही थी कि शायद गुलशन उस के लिए कुछ रोमानी जुमले कहेगा. थोड़ी देर पहले जो सुबह सुहावनी लग रही थी और बहुतकुछ मनभावन आशाएं ले कर आई थी, अचानक फीकी सी लगने लगी.
‘‘मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं?’’ सुमन ने शब्दों पर जोर देते हुए पूछा, ‘‘आज के दिन भी नहीं?’’
‘‘तुम ही तो मेरी लालनीली और सब्जपरी हो,’’ गुलशन अचानक सुमन को भूल कर चादर फेंक कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘अरे बाबा, मैं तो भूल ही गया था.’’
सुमन के मन में फिर से आशा जगी, ‘‘क्या भूल गए थे?’’
‘‘बड़ी जरूरी मीटिंग है. थोड़ा जल्दी जाना है,’’ कहतेकहते गुलशन स्नानघर में घुस गया.
सुमन का चेहरा फिर से मुरझा गया. गुलशन 50 करोड़ रुपए की संपत्ति वाले एक कारखाने का प्रबंध निदेशक था. बड़ा तनावभरा जीवन था. कभी हड़ताल, कभी बोनस, कभी मीटिंग तो कभी बोर्ड सदस्यों का आगमन. कभी रोजमर्रा की छोटीछोटी दिखने वाली बड़ी समस्याएं, कभी अधकारियों के घोटाले तो कभी यूनियन वालों की तंग करने वाली हरकतें. इतने सारे झमेलों में फंसा इंसान अकसर अपने अधीनस्थ अधिकारियों से भी परेशान हो जाता है. परामर्शदाताओं ने उसे यही समझाया है कि इतनी परेशानियों के लिए वह खुद जिम्मेदार है. वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों में पूरा विश्वास नहीं रखता. वह कार्यविभाजन में भी विश्वास नहीं रखता. जब तक स्वयं संतुष्ट नहीं हो जाता, किसी काम को आगे नहीं बढ़ने देता. यह अगर उस का गुण है तो एक बड़ी कमजोरी भी.
जल्दीजल्दी उस ने एक टोस्ट खाया और एक गिलास दूध पी कर ब्रीफकेस उठाया. सुमन उस के चेहरे को देख रही थी शायद अभी भी कुछ कहे. पर पति के चेहरे पर केवल तनाव की रेखाएं थीं, कोमल भावनाओं का तो नामोनिशान तक न था. गलशन की कार के स्टार्ट होने की आवाज आई. सुमन ने ठंडी सांस ली. जब गुलशन छोटा अधिकारी था और वेतन भी मामूली था, तब उन का जीवन कितना सुखी था. एक अव्यक्त प्यार का सुखद प्रतीक था, आत्मीयता का सागर था. परंतु आज सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं. दोपहर के 12 बजे थे. प्रेमलता ने घर का सारा काम निबटा दिया था. सुमन भी नहाधो कर बालकनी में बैठी एक पत्रिका देख रही थी. प्रेमलता ने कौफी का प्याला सामने मेज पर रख दिया था.
टैलीफोन की घंटी ने उसे चौंका तो दिया पर साथ ही चेहरे पर एक मुसकान भी ला दी. सोचा, शायद साहब को याद आ ही गया. सिवा गुलशन के और कौन करेगा फोन इस समय? पास रखे फोन को उठा कर मीठे स्वर में कहा, ‘‘हैलो.’’
‘‘हाय, सुमन,’’ गुलशन ही था.
‘‘सुनो,’’ सुमन ने कहना चाहा.
‘‘देखो, सुबह मैं भूल गया था. और अब मुझे समय नहीं मिलेगा. मिक्की को फोन कर देना. आज उस का जन्मदिन है न,’’ गुलशन ने प्यार से कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छी हो.’’ गुलशन ने फोन रख दिया था. सुमन हाथ में पकड़ी उस निर्जीव वस्तु को देखते हुए सोचने लगी, ‘बस, इतना ही याद रहा कि मिक्की का जन्मदिन है.’ मिक्की गुलशन की बहन है. यह एक अजीब संयोग था कि आज सुमन का भी जन्मदिन था. दिन तो दोनों का एक ही था, बस साल अलगअलग थे. शुरू में कई वर्षों तक दोनों अपने जन्मदिन एकसाथ बड़ी धूमधाम से मनाती थीं. बाद में तो अपनअपने परिवारों में उलझती चली गईं. साल में एक यही ऐसा दिन आता है, जब कोई अकेला नहीं रहना चाहता. भीड़भाड़, शोरगुल और जश्न के लिए दिल मचलता है. मांबाप की तो बात ही और है, पर जब अपना परिवार हो तो हर इंसान आत्मीयता के क्षण सब के साथ बांटना चाहता है. गुलशन के साथ बिताए कई आरंभिक जन्मदिन जबजब याद आते, पिछले कुछ वर्षों से चली आ रही उपेक्षा बड़ी चोट करती.
आज भी हमेशा की तरह…
‘कोई बात नहीं. तरक्की और बहुत ऊंचा जाने की कामना अनेक त्याग मांगती है. इस त्याग का सब से पहला शिकार पत्नी तो होगी ही, और अगर स्त्री ऊंची उड़ान भरती है तो पति से दूर होने लगती है,’ सुमन कुछ ऐसी ही विचारधारा में खोई हुई थी कि फोन की घंटी ने उस की तंद्रा भंग कर दी.
‘‘हैलो,’’ उस ने उदास स्वर में कहा.
‘‘हाय, मां,’’ अलका ने खिलते फूल की तरह उत्साह से कहा, ‘‘जन्मदिन मुबारक हो.’’
बेटी अलका मसूरी में एक स्कूल में पढ़ती है और वहीं होस्टल में रहती है.
‘‘धन्यवाद, बेटी,’’ सुमन ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘कैसी है तू?’’
‘‘अरे, मुझे क्या होगा मां, पहले यह बताओ, क्या पक रहा है जन्मदिन की खुशी में?’’ अलका ने हंस कर पूछा, ‘‘आ जाऊं?’’
‘‘आजा, बहुत याद आ रही है तेरी,’’ सुमन ने प्यार से कहा.
‘‘मां, मुझे भी तुम्हारी दूरी अब अच्छी नहीं लग रही है,’’ अलका ने चौंकने के स्वर में कहा, ‘‘अरे, साढ़े 12 बजने वाले हैं. चलती हूं, मां. कक्षा में जाना है.’’
‘‘ठीक है, बेटी, अच्छी तरह पढ़ना. अच्छे नंबरों से पास होना. अपनी सेहत का ध्यान रखना और रुपयों की जरूरत हो तो फोन कर देना,’’ सुमन ने जल्दीजल्दी से वह सब दोहरा दिया जिसे दोहराते वह कभी थकती नहीं.
अलका खिलखिला पड़ी, ‘‘मां, क्या सारी माएं तुम्हारी तरह ही होती हैं? कभी तो हम मूर्ख संतानों को अपने हाल पर छोड़ दिया करो.’’
‘‘अभी थोड़ी समझेगी तू…’’
अलका ने बात काटते हुए कहा, ‘‘जब मां बनेगी तो जानेगी. अरे मां, बाकी का संवाद मुंहजबानी याद है. ठीक है, जा रही हूं. देर हो रही है.’’ सुमन के चेहरे पर खिन्न मुसकान थी. ‘ये आजकल के बच्चे तो बस.’ धीरे से सोचते हुए फोन बंद कर के रख दिया, ‘कम से कम बेटी को तो याद आई. इतनी दूर है, पर मां का जन्मदिन नहीं भूलती.’ संध्या के 5 बज रहे थे. ‘क्या गुलशन को जल्दी आने के लिए फोन करे? पर नहीं,’ सुमन ने सोचा, ‘जब पति को न तो याद है और न ही इस के प्रति कोई भावना, तो उसे याद दिला कर अपनी मानहानि करवाएगी.’