हकीकत : क्या था फारुकी साहब की मौत का कारण?

फा रुकी साहब के खानदान के हमारे पुराने संबंध थे. वे पुश्तैनी रईस थे. अच्छे इलाके में दोमंजिला मकान था. उन के 2 बेटे थे, जमाल और कमाल. एक बेटी सुरैया थी, जिस की शादी भी अच्छे घर में हुई थी.

फारुकी साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे थे. सुनते हैं कि उन की बीवी नवाब खानदान की हैं. उम्र 72-73 साल होगी. वे अकसर बीमार रहती हैं. जमाल व कमाल भी शादीशुदा व बालबच्चेदार हैं. उन का भरापूरा परिवार है. सुरैया से मुलाकात हो जाती थी. उन के भी एक बेटी व एक बेटा है. दोनों की भी शादी हो गई है.

उन्हीं दिनों कमाल साहब के यहां से शादी का कार्ड आया. उन के दूसरे बेटे की शादी थी. कार्ड देख कर बड़ी खुशी हुई. कार्ड उन की अम्मी दुरदाना बेगम के नाम से छपा था. नीचे भी उन्हीं का नाम था. अच्छा लगा कि आज भी लोग बुजुर्गों की इतनी कद्र और इज्जत करते हैं.

शादी में जाने का मेरा पक्का इरादा था. इस तरह अम्मी व सुरैया आपा से भी मुलाकात हो जाती, पर मुझे फ्लू हो गया. मैं शादी में न जा सकी. फिर कहीं से खबर मिली कि कमाल साहब की अम्मी बीमार हैं. उन्हें लकवे का असर हो गया है.

एक दिन मैं कमाल साहब के यहां पहुंच गई. दोनों भाई बड़े ही अपनेपन से मिले. नईर् बहू से मिलाया गया, खूब खातिरदारी हुई.

मैं ने कहा, ‘‘कमाल साहब, मुझे अम्मी से मिलना है. कहां हैं वे?’’

कमाल साहब का चेहरा फीका पड़ गया. वे कहने लगे ‘‘दरअसल, अम्मी सुरैया के यहां गई हुई हैं. वे एक ही जगह पर रहतेरहते बोर हो गई थीं.’’

मैं वहां से निकल कर सीधी सुरैया आपा के यहां पहुंच गई. वे मुझे देख कर बेहद खुश हो गईं, फिर अम्मी के कमरे में ले गईं.

खुला हवादार, साफसुथरा महकता कमरा. सफेद बिस्तर पर अम्मी लेटी थीं. वे बड़ी कमजोर हो गई थीं. कहीं से नहीं लग रहा था कि यह एक मरीज का कमरा है.

अम्मी मुझ से मिल कर खूब खुश हुईं, खूब बातें करने लगीं. उन्हीं की बातों से पता चला कि वे तकरीबन डेढ़ साल से सुरैया आपा के पास हैं. जब उन पर लकवे का असर हुआ था. उस के तकरीबन एक महीने बाद ही कमाल और जमाल, दोनों भाई अम्मी को यह कह कर सुरैया आपा के पास छोड़ गए थे कि हमारे यहां अम्मी को अलग से कमरा देना मुश्किल है और घर में सभी लोग इतने मसरूफ रहते हैं कि अम्मी की देखभाल नहीं हो पाती.

तब से ही अम्मी सुरैया आपा के पास रहने लगी थीं. सुरैया आपा और उन की बहू बड़े दिल से उन की खिदमत करतीं, खूब खयाल रखतीं.

मैं ने सुरैया आपा से कहा, ‘‘अम्मी डेढ़ साल से आप के पास हैं, पर 3-4 महीने पहले कमाल भाई के बेटे की शादी का कार्ड आया था, उस में तो दावत देने वाले में अम्मी का नाम था और दावत भी अम्मी की तरफ से ही थी.’’

सुरैया आपा हंस कर बोलीं, ‘‘दोनोें भाइयों के घर में अम्मी के लिए जगह न थी, पर कार्ड में तो बहुत जगह थी. कार्ड तो सभी देखते हैं और वाहवाह करते हैं, घर आ कर कौन देखता है कि अम्मी कहां हैं? दुनिया को दिखाने के लिए यह सब करना पड़ा उन्हें.’’

मारे गए गुलफाम : हिमानी ने दिखाया हुस्नजाल

मुंबई के इंदिरा नगर में बनी वह चाल बड़ी सड़क से समकोण बनाती एक पतली गली के दोनों ओर आबाद थी. इस के दोनों ओर 15-15 खोलियां बनी हुई थीं. इन खोलियों में ज्यादातर वे लोग रहते थे, जो या तो छोटेमोटे धंधे करते थे या किसी के घर में नौकर या नौकरानी का काम करते थे.

इस चाल के आसपास गंदगी थी. गली में जगहजगह कूड़ेकचरे के ढेर नजर आते थे. कहींकहीं खोलियों की नालियों का गंदा पानी बहता दिखलाई पड़ता था.

इन खोलियों में रहने वाले लोगों का स्वभाव भी उन की खोलियों की तरह अक्खड़ और गंदा था. वे बातबात पर गालीगलौज करते थे और देखते ही देखते मरनेमारने पर उतारू हो जाते थे.

इन्हीं खोलियों में से एक खोली सुभद्राबाई की भी थी, जो जबान की कड़वी, पर दिल की नेक थी. वह लोगों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी और इसी से अपना गुजारा करती थी.

मुंबई में तो वैसे ही घर में काम करने वाली बाई मुश्किल से मिलती है, ऊपर से सुभद्राबाई जैसी नेक और ईमानदार बाई का मिलना तो किसी चमत्कार जैसा ही था. यही वजह थी कि सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन के मालिक उस के साथ बहुत अच्छा बरताव करते थे और उस की छोटीमोटी मांग तुरंत मान लेते थे.

सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन में एक घर प्रताप का भी था. उन का महानगर में रेडीमेड गारमैंट्स का कारोबार था, जो खूब चलता था.

प्रताप की उम्र तकरीबन 55 साल थी और उन की पत्नी नंदिनी भी तकरीबन उन्हीं की उम्र की थीं. घर में पतिपत्नी ही रहते थे, क्योंकि उन के दोनों बेटे दूसरे शहरों में नौकरी करते थे और अपने परिवार के साथ वहीं सैटल हो गए थे.

नंदिनी अकसर अपने बेटों के पास जाया करती थीं, जबकि प्रताप को अपने कारोबार के चलते इस का मौका कम ही मिलता था.

जब भी नंदिनी अपने बेटों के पास जातीं, सुभद्राबाई की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं. ऐसे में उसे घर का काम करने के अलावा प्रताप के लिए खाना भी बनाना पड़ता. पर सुभद्राबाई खुशीखुशी यह जिम्मेदारी संभालती. प्रताप और नंदिनी भी इस के बदले उसे छोटेमोटे तोहफे और नकद पैसे देते रहते थे.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. महानगर की बत्तियां जल उठी थीं, तभी एक टैक्सी इस गली के मुहाने पर आ कर रुकी. टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और उस में से तकरीबन 25 साला एक खूबसूरत लड़की उतरी. शर्ट और जींस में सजी वह दरमियाने कद की एक सुगठित बदन वाली लड़की थी.

टैक्सी की दूसरी ओर का दरवाजा खोल कर तकरीबन 30 साला एक हैंडसम नौजवान निकला.

उस नौजवान ने टैक्सी का किराया चुकाया और जब टैक्सी आगे बढ़ गई, तो वे दोनों गली में दाखिल हो गए.

सुभद्राबाई थोड़ी देर पहले अपने काम से लौटी थी और अब खोली में पड़ी चारपाई पर लेट कर अपनी कमर सीधी कर रही थी. बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा देर तक काम करने पर उस की कमर अकड़ जाती थी और ऐसे में उस के लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता था.

अचानक किसी ने उस की खोली का दरवाजा खटखटाया. पहले तो वह चौंकी, फिर उठ कर दरवाजा खोल दिया. पर दरवाजा खोलते ही उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. दरवाजे पर 2 अनजान लोग खड़े थे.

‘‘किस से मिलना है आप को?’’ सुभद्राबाई उन्हें गहरी नजरों से देखती हुई बोली.

‘‘क्या आप सुभद्राबाई हैं?’’ लड़की ने पूछा.

‘‘हां,’’ सुभद्राबाई बोली.

‘‘फिर तो हमें आप से ही मिलना है.’’

‘‘पर, मैं ने तो आप लोगों को पहचाना नहीं. कौन हैं आप लोग?’’

‘‘मेरा नाम हिमानी है और ये शमशेर. जहां तक आप का हमें पहचानने का सवाल है, तो उस के पहले हम मिले ही नहीं.’’

‘‘फिर आज?’’

‘‘क्या हमें सारी बातें यहीं दरवाजे पर ही बतलानी पड़ेंगी?’’

‘‘आइए, अंदर आ जाइए,’’ सुभद्राबाई झोंपते हुए बोली.

अंदर सुभद्राबाई ने उन्हें चारपाई पर बिठाया, फिर खोली का दरवाजा बंद कर उन के पास खोली के फर्श पर ही बैठ गई.

‘‘आप भी चारपाई पर बैठिए,’’ उसे फर्श पर बैठता देख लड़की बोली.

‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘आप बोलिए, आप को मुझ से क्या काम है?’’

‘‘काम तो है, वह भी बहुत जरूरी,’’ पहली बार लड़के ने मुंह खोला, ‘‘पर, इस के पहले हम आप को यह बता दें कि हमें आप के बारे में सबकुछ मालूम है. आप किनकिन लोगों के पास काम करती हैं और उन से आप को क्या पगार मिलती है?’’

‘‘यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है.’’

‘‘हम आप के सवाल का जवाब देंगे, पर इस के पहले आप हमारे एक सवाल का जवाब दीजिए.’’

‘‘कौन से सवाल का?’’

‘‘सुभद्राबाई, आप का शरीर जब तक ठीक है, आप लोगों के घरों में काम कर के अपना गुजारा कर लेती हैं, पर जिस दिन आप का शरीर थक जाएगा, उस दिन आप क्या करेंगी?’’

‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझ.’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि क्या आप अपने काम से इतना पैसा कमा लेती हैं कि अपना बुढ़ापा सही ढंग से बिता सकें?’’

सुभद्राबाई के चेहरे पर परेशानी के भाव उभरे. पिछले कई दिनों से वह भी यही बात सोच रही थी.

‘‘आप चुप क्यों हैं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़का बोला.

‘‘मुझे अपने काम से जो पैसा मिलता है, वह खानेपहनने और खोली का किराया देने में ही खर्च हो जाता है. मैं लाख कोशिश करती हूं कि हर महीने कुछ पैसे बचा लूं, ताकि बुढ़ापे में काम आएं, पर बचा नहीं पाती.’’

‘‘और कभी बचा भी नहीं पाएंगी, क्योंकि मुंबई में हर चीज इतनी महंगी है कि मेहनतमजदूरी करने वाला इनसान कुछ बचा ही नहीं सकता.’’

‘‘तुम बिलकुल ठीक कहते हो बेटा,’’ सुभद्राबाई एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘पर, किया भी क्या जा सकता है?’’

‘‘हम औरों के लिए तो नहीं, पर आप के लिए इतना जरूर कह सकते हैं कि बहुतकुछ किया जा सकता है.’’

‘‘कौन करेगा मेरे लिए और क्यों?’’

‘‘यहां कोई दूसरे के लिए कुछ नहीं करता, अपना भविष्य संवारने के लिए इनसान को खुद ही कुछ करना पड़ता है. अगर आप अपना बुढ़ापा संवारना चाहती हैं, तो आप को ही इस की कोशिश करनी होगी.’’

‘‘पर क्या…’’

‘‘पहले आप यह बतलाइए कि क्या आप अपने भविष्य के लिए कुछ पैसे जोड़ना चाहती हैं?’’

‘‘भला कौन नहीं चाहेगा?’’

‘‘मैं आप की बात कर रहा हूं.’’

‘‘हां.’’

‘‘हम आप को पूरे 50 हजार रुपए देंगे.’’

‘‘50 हजार…?’’ सुभद्राबाई हैरान हो कर बोली.

‘‘हां, पूरे 50 हजार.’’

‘‘इस के लिए मुझे करना क्या होगा?’’

‘‘कुछ खास नहीं,’’ लड़के के बदले लड़की बोली, ‘‘आप को सिर्फ एक महीने के लिए मुझे प्रताप के घर बतौर नौकरानी रखवाना होगा. वह भी तब, जब वह घर में अकेला हो.’’

‘‘पर, क्यों?’’

‘‘तुम 50 हजार रुपए कमाना चाहती हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर वह करो, जो हम चाहते हैं.’’

‘‘लेकिन, तुम बतौर नौकरानी वहां एक महीने रह कर करना क्या चाहती हो?’’

‘‘कुछ न कुछ तो करूंगी ही, पर यह बात हम तुम्हें नहीं बताएंगे.’’

सुभद्राबाई खामोश हो गई. उस के चेहरे पर चिंता की रेखाएं खिंच आई थीं. 50 हजार रुपए की बात सुन कर उस के मन में लालच की भावना जाग उठी थी, पर दूसरी ओर वह उन लोगों की तरफ से दुखी भी थी. न जाने वे प्रताप के साथ क्या करना चाहते थे.

‘‘अब तुम क्या सोचने लगीं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़की बोली.

‘‘पर, तुम कहीं से भी काम वाली बाई नहीं लगती हो,’’ सुभद्राबाई लड़की को सिर से पैर तक देखते हुए बोली.

‘‘यह हमारी सिरदर्दी है. तुम यह बताओ कि तुम यह काम कर सकती हो या नहीं?’’

‘‘तुम्हारा इरादा प्रतापजी को कोई नुकसान पहुंचाना तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘फिर ठीक है,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘पर, पैसे?’’

‘‘उस दिन तुम्हें पैसे मिल जाएंगे, जिस दिन तुम मुझे बतौर नौकरानी प्रताप के घर रखवा दोेगी.’’

‘‘अरे सुभद्रा, तुम…’’ सुभद्राबाई ने हिमानी के साथ जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, प्रताप बोला, ‘‘पूरे 4 दिन कहां रहीं? तुम सोच भी नहीं सकतीं कि इन 4 दिनों में मुझे कितनी परेशानी उठानी पड़ी. तुम्हें तो मालूम ही है कि तुम्हारी मालकिन आजकल बेटे के पास गई हैं.’’

‘‘मालूम है मालिक,’’ सुभद्राबाई अपने चेहरे पर दर्द का भाव लाती हुई बोली, ‘‘पीठ दर्द से मेरा उठनाबैठना मुश्किल है. डाक्टर को दिखाया, तो दवाओं के साथसाथ पूरे एक महीने तक बैडरैस्ट करने की सलाह दी है.’’

‘‘एक महीना?’’

‘‘पर, आप फिक्र न करें, आप को इस दरमियान कोई तकलीफ न होगी,’’ सुभद्राबाई हिमानी को आगे करते हुए बोली, ‘‘यह मेरी भतीजी हिमानी है. जब तक मैं नहीं आती, यही आप के घर का सारा काम करेगी.’’

प्रताप ने हिमानी पर एक गहरी नजर डाली. खूबसूरत और जवान हिमानी को देख उस की आंखों में एक अनोखी चमक जागी.

‘‘इसे सबकुछ समझ दिया है न?’’ प्रताप ने पूछा.

‘‘जी मालिक?’’

हिमानी प्रताप के घर काम करने आने लगी थी. उसे यहां पर काम करते हुए

10 दिन बीत गए थे. इस बीच उस ने बड़ी मेहनत और लगन से प्रताप के घर का काम किया था और उस की सुखसुविधा का बेहतर खयाल रखा था. उस के इस बरताव से प्रताप बड़े खुश हुए थे. वे हिमानी के साथ बड़ा ही कोमल और अपनापन भरा बरताव करते थे.

सच तो यह था कि हिमानी की खूबसूरती और जवानी ने उन के अधेड़ बदन में एक नई उमंग जगा दी थी और उन्हें हिमानी का साथ मिलने से एक अजीब खुशी मिलती थी.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. प्रताप अपने बैडरूम में पलंग पर बैठे थे. हिमानी घुटने के बल झुकी उस के कमरे की सफाई कर रही थी. ऐसे में उस के भारी और गोरे उभारों का ज्यादातर भाग उस के ब्लाउज से बाहर झांक रहा था. प्रताप की निगाहें रहरह कर उस के इन कयामती उभारों की ओर उठ जाया करती थीं और जब भी ऐसा होता, उन के तनबदन में एक हलचल सी मच जाती थी.

हिमानी कहने को तो काम कर रही थी, पर उस का पूरा ध्यान प्रताप की हरकतों पर था. उस की नजरों का भाव समझ कर वह मन ही मन खुश हो रही थी. उसे लग रहा था कि वह जल्द ही प्रताप को अपने शीशे में उतार लेगी और ऐसा होते ही अपना उल्लू सीधा कर यहां से रफूचक्कर हो जाएगी.

हिमानी सफाई का काम कर खड़ी हुई और ऐसा होते ही प्रताप की नजरों से वह नजारा गायब हो गया. इस के बावजूद उन के बदन में जो कामनाओं की आग भड़की थी, उस ने उन्हें हिला दिया था.

प्रताप पलंग से उतरे, फिर आगे बढ़ कर हिमानी को अपनी बांहों में भर लिया. उन की इस हरकत से हिमानी चौंकी, फिर बांहों में कसमसाते हुए बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हैं साहब?’’

‘‘हिमानी, तुम बहुत ही खूबसूरत हो,’’ प्रताप जोश से कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारी इस खूबसूरती ने मेरे तनबदन में आग लगा दी है. तुम से लिपट कर मैं अपने तन की इसी आग को बुझाने की कोशिश कर रहा हूं.’’

‘‘पर, यह गलत है.’’

‘‘कुछ गलत नहीं,’’ प्रताप उसे बुरी तरह चूमते, सहलाते हुए बोले.

मन ही मन मुसकराती हिमानी कुछ देर तक उन की बांहों से छूटने का नाटक करती रही, फिर अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. ऐसा होते ही प्रताप ने उसे उठा कर पलंग पर डाला, फिर उस पर सवार हो गए.

भावनाओं का तूफान जब गुजर गया, तो हिमानी रोते हुए बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? मुझे तो बरबाद कर दिया?’’

पलभर तक तो प्रताप के मुंह से बोल न फूटे, फिर वे शर्मिंदा हो कर बोले, ‘‘हिमानी, मुझ से गलती हो गई. मैं अपने आपे में नहीं था. जो कुछ हुआ, उस का मुझे अफसोस है. प्लीज, यह बात सुभद्राबाई को न बतलाना.’’

‘‘आप ने मेरा सबकुछ लूट लिया और अब कह रहे हैं कि बूआ से यह बात न कहूं.’’

‘‘मैं तुम्हें इस की कीमत देने को तैयार हूं.’’

‘‘कीमत…?’’ हिमानी ने गुस्से वाली निगाहों से प्रताप को देखा.

बदले में प्रताप ने तकिए के नीचे से चाबियों का गुच्छा निकाला, फिर कमरे में रखी अलमारी की ओर बढ़ गए. ऐसा होते ही हिमानी के होंठों पर शातिराना मुसकान रेंग उठी. पर जैसे ही उन्होंने सेफ खोली, उस की निगाहें उस पर जम गईं. अलमारी बड़े नोटों और गहनों से भरी थी.

प्रताप हिमानी के करीब आए और तकरीबन जबरदस्ती नोट की गड्डी उस के हाथ पर रखते हुए बोले, ‘‘प्लीज, सुभद्राबाई को कुछ न बतलाना.’’

हिमानी उन्हें पलभर घूरती रही, फिर अपने कपड़े ठीक करने के बाद नोटों की गड्डी ब्लाउज में रखते हुए कमरे से निकल गई.

उस रात प्रताप पूरी रात ढंग से सो न सके. उन्हें यह बात परेशान करती रही कि कहीं हिमानी उन की करतूत सुभद्राबाई को न बतला दे. अगर ऐसा हो गया, तो वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहने वाले थे.

पर दूसरे दिन उन्हें तब हैरानी और खुशी का झटका लगा, जब हिमानी हमेशा की तरह काम पर लौट आई. वह बिलकुल सामान्य थी और उसे देख कर ऐसा हरगिज नहीं लगता था कि उस के साथ कुछ ऐसावैसा घटा है.

जब 5 दिन तक सबकुछ ठीक रहा, तो छठे दिन रात को प्रताप ने हिमानी को हिम्मत कर के एक बार फिर अपनी बांहों में समेट लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’ हिमानी चौंकने का नाटक करती हुई बोली, ‘‘आप ने वादा किया था कि आप दोबारा ऐसी गलती नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं क्या करूं हिमानी…’’ प्रताप कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारे हुस्न और जवानी ने मुझे ऐसा पागल किया है कि मैं अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा हूं. प्लीज, मुझे रोको मत… मुझे मेरी प्यास बुझ लेने दो.’’

हिमानी ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. अगले ही पल दोनों के बदन एकदूसरे से चिपक कर पलंग पर अठखेलियां कर रहे थे. इस बार हिमानी भी पूरे जोश के साथ प्रताप का साथ दे रही थी.

हिमानी ने चालाकी से प्रताप को अपने हुस्नजाल में फांस लिया था. जब उसे यकीन हो गया कि शिकार पूरी तरह उस के जाल में फंस गया है, तो एक रात उस ने उस के खाने में बेहोशी की दवा मिलाई और उस की पूरी अलमारी खाली कर रफूचक्कर हो गई.

प्रताप को जब सवेरे होश आया और उस ने अपनी अलमारी देखी, तो सिर पीट लिया. लोकलाज के डर से वे पुलिस में भी इस की शिकायत न कर सके.

 

हार : गाय की चमड़ी का चमत्कार

आबादी इतनी बढ़ गई है कि सड़क के दोनों किनारों तक शनीचरी बाजार सिमट गया है. चारों ओर मकान बन गए हैं. मजार और पुलिस लाइन के बीच जो सड़क जाती है, उसी सड़क के किनारे शनीचरी बाजार लगता है. तहसीली के बाद बाजार शुरू हो जाता है, बल्कि कहिए कि तहसीली भी अब बाजार के घेरे में आ गई है.

शनीचरी बाजार के उस हिस्से में केवल चमड़े के देशी जूते बिकते हैं. यहीं पर किशन गौशाला का दफ्तर भी है. अकसर गौशाला मैनेजर की झड़प मोचियों से हो जाती है. मोची कहते हैं कि उन के पुरखे शनीचरी बाजार में आ कर हरपा यानी सिंधोरा, भंदई, पनही यानी जूते बेचते रहे. तब पूरा बाजार मोचियों का था. जाने कहां से कैसे गौसेवक यहां आ गए. अगर सांसद के प्रतिनिधि आ कर बीचबचाव न करते तो शायद दंगा ही हो जाता.

लेकिन सांसद का शनीचरी बाजार में बहुत ही अपनापा है इसलिए मोचियों का जोश हमेशा बढ़ा रहता है. अपनापा भी खरीदबिक्री के चलते है. सांसद रहते दिल्ली में हैं, मगर हर महीने तकरीबन 25-30 जोड़ी खास देशी जूते, जिसे यहां भंदई कहा जाता है, दिल्ली में मंगाते हैं.

भंदई के बहुत बड़े खरीदार हैं सांसद महोदय. मोची तो उन्हें पहचानते ही नहीं, क्योंकि वे खुद तो आ कर भंदई नहीं खरीदते, पर उन के लोग भंदई खरीद कर ले जाते हैं.

गौशाला चलाने वाले भी सांसद का लिहाज करते हैं. आखिर उन्हीं की मेहरबानी से गौशाला वाले नजदीक की बस्ती जरहा गांव में 20 एकड़ जमीन जबरदस्ती कब्जा सके थे.

किशन गौशाला शहर के करीब बसे जरहा गांव में है. इस गौशाला में सांसद कई बार जा चुके हैं. पहले गौशाला वालों ने 10 एकड़ जमीन गांव के किसानों से खरीदी. वहां कुछ गायों को रखा. कृष्ण जन्माष्टमी के दिन एक कार्यक्रम हुआ था, जिस में सांसद चीफ गैस्ट बने थे. सरपंच के दोस्तों ने दही लूटने का कमाल दिखाया, फिर अखाड़े का करतब हुआ.

गांव वाले बहुत खुश हुए कि चलो गांव में गौमाता के लिए एक ढंग का आसरा तो बना.

सांसद ने उस दिन गांव के मोचियों को भी इस समारोह में बुलाया. जरहा गांव शहर से सट कर बसा है. गौशाला का दफ्तर शहर में है और गौशाला है जरहा गांव में.

दफ्तर के पास जरहा गांव, बोरिद, अकोली के मोची चमड़े का सामान बेचने शनिवार को आते हैं, पर बाकी दिन वे गांव में भंदई बनाते हैं. जाने कब से यह सिलसिला इसी तरह चल रहा है.

लेकिन जब से सांसद भोलाराम भंदई खरीद कर दिल्ली ले जाने लगे हैं, तभी से मोचियों का कारोबार कुछ नए रंग पर आ गया है. ऊपर से सांसद ने अपनी सांसद निधि से जरहा गांव में मोची संघ के लिए पिछले साल 3 लाख रुपए दिए थे. वे गांवगांव में अलगअलग मंचों के लिए सांसद निधि से खूब पैसे देते हैं, मगर इन दिनों मंचों की धूम है.

इस इलाके में दलितों की तादाद ज्यादा है, इसलिए सांसद अपने हिसाब से अपना भविष्य पुख्ता करते चल रहे हैं. मोची मंचों का भी लगातार फैलाव हो रहा है, तो गौशाला का भला हो रहा है.

गौशाला के कर्ताधर्ता सब दूसरे राज्य के हैं. वे शहर के जानेमाने कारोबारी हैं. सब ने थोड़ाथोड़ा पैसा लगा कर 10 एकड़ जमीन ले ली और किशन गौशाला खोल कर गांव में घुस गए. वहां 2 दुकानें भी अब इसी तबके की खुल गई हैं. एक स्कूल भी जरहा गांव में चलता है, जिसे किशनशाला नाम दिया गया है.

इस स्कूल में सभी टीचर सेठों के  जानकार लोग हैं. सांसद सेठों और मोचियों में बराबर से इज्जत बनाए हुए हैं. सब को पार लगाते हैं, चूंकि सब उन्हें पार लगाते हैं. लेकिन इधर जब से बाबरी मसजिद ढही है, जरहा गांव में दूसरा दल भी हरकत में आ गया है. सेठ सांसद के विरोधी दल को पसंद करते हैं. जिले में 2 ही झांडे असर में हैं, तिरंगा और भगवा. 2 ही चिह्न यहां पहचाने जाते हैं, पंजा और कमल.

गौप्रेमी सभी सेठ कमल पर विराजने वाली लक्ष्मी मैया के भगत हैं, वहीं मोची, लुहार, धोबी, कुम्हार, कुर्मी,  तेली, इन्हीं जातियों की तादाद इस इलाके में ज्यादा है, इसीलिए आजादी के बाद कांग्रेस को भी इलाके के लोगों ने अपना समर्थन दिया. लेकिन जब से बाबरी मसजिद को ढहा कर जरहा गांव का नौजवान गांव लौटा है, कमल की नई रंगत देखते ही बन रही है.

लेकिन सांसद भोलाराम परेशान नहीं होते. वे जानते हैं कि सेठों को इस लोक पर राज करने के लिए धंधा प्यारा है और परलोक सुधारने के लिए है ही किशन गौशाला. दोनों के फायदे में है कि वे कभी भोलाराम का दामन न छोड़ें.

ये भोलाराम भी कमाल के आदमी हैं. एक बड़े किसान के घर में पैदा हुए. मैट्रिक पास कर आगे पढ़ना चाहते थे, लेकिन उन के पिताजी ने पैरों में बेड़ी पहनाने की ठान ली.

शादी की सारी तैयारी हो गई, लेकिन बरात निकलने के ठीक पहले दूल्हा अचानक ही गायब हो गया और प्रकट हुआ दिल्ली में. यह बात साल 1946 की है. सालभर में भोलाराम ने दिल्ली के एक बडे़ अखबार में अपने लिए जगह बना ली.

भोलाराम दल के लोग तो चुनाव के समय रोरो कर यह भी बताते हैं कि भोलारामजी तब रिपोर्टिंग के लिए गांधीजी की अंतिम प्रार्थना सभा में भी गए थे. नाथूराम ने जब गोलियां चलाईं, तो गांधीजी ‘हे राम’ कह कर भोलारामजी की गोद में ही गिरे थे.

भोलाराम के खास लोग तो यह भी कहते हैं कि भोलारामजी का खून से सना कुरता आज भी गांधी संग्रहालय में हैं. जिसे देखना हो दिल्ली जा कर देख आए.

इलाके के लोगों में वह कुरता देखने की कभी दिलचस्पी नहीं रही. भोलाराम लगातार आगे बढ़ते गए और दिल्ली में एक नामी पत्रकार हो गए.

एक दिन इंदिरा गांधी ने उन्हें इस इलाके का सांसद बना दिया. इस इलाके के लोग नेताओं की बात नहीं टालते.

इंदिरा गांधी ने पहली चुनावी सभा में कहा, ‘‘यह इलाका भोलेभाले लोगों का है. यहां भोलाराम ही सच्चे प्रतिनिधि हो सकते हैं.’’

इंदिरा गांधी से आशीर्वाद ले कर भोलाराम भी उस दिन जोश से भर गए. उन्होंने मंच पर ही कहा, ‘‘इंदिरा गांधी की बात हम सभी को माननी है. अगर विरोधियों के भालों से बचना है, तो भोले को समर्थन जरूर दीजिए.’’

भोले और भाले का ऐसा तालमेल इंदिरा गांधी को भी भा गया. उन्होंने मुसकरा कर भोलाराम को और अतिरिक्त अंक दे दिया.

तब से लगातार 5 बार भोलाराम ही यहां के सांसद बने. वे इलाके के बड़े लोगों की बेहद कद्र करते हैं, इसीलिए भोलाराम की बात भी कोई नहीं टालता.

महीनाभर पहले शनीचरी बाजार में हंगामा मच गया. हुआ यह कि भोलाराम अपने टोपीधारी विशेष प्रतिनिधि के साथ बाजार आए. चैतराम मोची की दुकान बस अभी लगी ही थी कि दोनों नेता उस के आगे जा कर खड़े हो गए.

चैतराम ने इस से पहले कभी भोलाराम को देखा भी नहीं था. वह केवल साथ में आए गोपाल दाऊ को पहचानता था.

गोपाल दाऊ ने ही चैतराम को भोलाराम का परिचय दिया. खादी का कुरतापाजामा और गले में लाल रंग का  गमछा.

भोलाराम तकरीबन 70 बरस के हैं, मगर चेहरा सुर्ख लाल है. चुनाव जीतने के बाद उन का सूखा चेहरा लाल होता गया और वे 2 भागों में बंट गए.

भोलाराम दिल्ली में रहते तो सूटबूट पहनते. गले में लाल रंग का गमछा तो खैर रहा ही. दिल्ली में रहते तो दिल्ली वालों की तरह खातेपीते, लेकिन अपने संसदीय इलाके में मुनगा, बड़ी, मछरियाभाजी, कांदाभाजी ही खाते.

अपने इलाके में भंदई प्रेमी सांसद भोलाराम को सामने पा कर चैतराम को कुछ सूझ नहीं. भोलाराम ने उस के कंधे पर हाथ रख दिया.

चैतराम ने भोलाराम के पैरों में अपने हाथों की बनी भंदई रख दी. भंदई छत्तीसगढ़ी सैंडल को कहते हैं. मोची गांव में मरे मवेशियों के चमड़े से इसे बनाते हैं. सूखे दिनों की भंदई अलग होती है, जबकि बरसाती भंदई अलग बनती है.

अपने हाथ की बनी भंदई पहने देख भोलाराम के सामने चैतराम झक गया. भोलाराम ने कहा, ‘‘भाई, मुझे पता लगा है कि तुम्हीं मुझे भंदई बना कर देते हो, इसलिए मिलने चला आया. इस बार 100 जोड़ी भंदई चाहिए.’’

‘‘100 जोड़ी…’’ चैतराम का मुंह खुला का खुला रह गया.

भोलाराम ने कहा, ‘‘हां, 100 जोड़ी. दिल्ली में अपने दोस्तों को तुम्हारे हाथ की भंदई बहुत बांट चुका हूं. इस बार विदेशी दोस्तों का साथ होने वाला है.

‘‘मैं जब भी विदेश जाता हूं, तो वहां भंदई पर सब की नजर गड़ जाती है. सोचता हूं कि इस बार एकएक जोड़ी भंदई उन्हें भेंट करूं. बन जाएगी न?’’

चैतराम ने पूछा, ‘‘कब तक चाहिए मालिक?’’

‘‘2 महीने में.’’

‘‘2 महीने में… मालिक?’’

‘‘हांहां, 2 महीने में तुम्हें देनी है. मैं खुद आऊंगा तुम्हारे गांव में भंदई ले जाने के लिए.’’

‘‘मालिक, गांवभर के सारे मोची मिलजुल कर बनाएंगे. मैं गांव जा कर सब को तैयार करूंगा.’’

‘‘तुम जानो तुम्हारा काम जाने. मुझे तो भंदई चाहिए बस.’’

इतना सुनना था कि पास में दुकान लगाए उसी गांव के 2 और मोची एकसाथ बोल पड़े, ‘‘दाऊजी, आप की मेहरबानी से सब ठीकठाक है. हम सब मिल कर बना देंगे भंदई.

‘‘मगर मालिक, ये गौशाला वाले गांव में 20 एकड़ जमीन पर कब्जा कर के बैठ गए हैं. पिछले 2 साल से यहां के किसान अपने जानवरों को रिश्तेदारों के पास पहुंचाने लगे हैं.

‘‘हुजूर, यह जगह जानवरों के चरने के लिए थी, मगर सेठ लोगों ने घेर कर कब्जा कर लिया है.

‘‘2 साल से हम सब लोग फरियाद कर रहे हैं, पर कोई सुनता ही नहीं. अब आप आ गए हैं, तो कुछ तो रास्ता निकालिए. छुड़ाइए गायभैंसों के लिए उस 20 एकड़ जमीन को. गौशाला के नाम से सेठ लोग गाय के चरने की जगह को ही लील ले गए साहब. अजब अंधेर है.’’

भोलाराम को इस बेजा कब्जे की जानकारी तो थी, मगर वे यही सोच रहे थे कि सेठ लोग सब संभाल लेंगे. यहां तो पासा ही पलट सा गया है. भंदई का शौक अब उन्हें भारी पड़ रहा था. फिर भी उन्होंने चैतराम को पुचकारते हुए कहा, ‘‘मैं देख लूंगा. तुम लो ये एक हजार रुपए एडवांस के.’’

‘‘इस की जरूरत नहीं है मालिक,’’ हाथ जोड़ कर चैतराम ने कहा.

‘‘रख लो,’’ भोलाराम ने कहा.

चैतराम ने रखने को तो अनमने ढंग से एक हजार रुपए रख लिए, मगर सौ जोड़ी भंदई बना पाना उसे आसान नहीं लग रहा था.

गांव जा कर उस ने अपने महल्ले के लोगों को इकट्ठा किया. 4 लोगों ने 25-25 जोड़ी भंदई बनाने का जिम्मा ले लिया. चैतराम का जी हलका हुआ.

लेकिन सेठों को भी खबर लग गई कि गांव के मोची किशन गौशाला का विरोध सांसद भोलाराम से कर रहे थे. वे बहुत भन्नाए. उन्होंने गांव के अपने पिछलग्गू सरपंच, पंच और कुछ खास लोगों से बात की और गांव में बैठक हो गई. सरपंच ने मोची महल्ले के लोगों के साथ गांव वालों को भी बुलवाया.

सरपंच ने कहा, ‘‘देखो भाई, आज की बैठक बहुत खास है. गाय की वजह से बैठी है यह सभा.’’

चैतराम ने कहा, ‘‘मालिक, गाय का चारागाह सब गौशाला वाले दबाए बैठे हैं. चारागाह नहीं रहेगा, तो गौधन की बढ़ोतरी कैसे होगी?’’

चैतराम का इतना कहना था कि बाबरी मसजिद तोड़ने गई सेना में शामिल हो कर लौटे जरहा गांव का एकलौता वीर सुंदरलाल उठ खड़ा हुआ. उस ने कहा, ‘‘वाह रे चैतराम, तू कब से हो गया गौ का शुभचिंतक?’’

सुंदरलाल का इतना कहना था कि चैतराम के साथ उस के महल्ले के सभी लोग उठ खड़े हुए. उस ने कहा, ‘‘मालिक हो, मगर बात संभल कर नहीं कर सकते. हम मरे हुए गायभैंसों का चमड़ा उतारते हैं, आप लोग तो जीतीजागती गाय की जगह दबाने वालों के हाथों खेल गए.’’

ऐसा सुन कर सुंदरलाल सिटपिटा सा गया. तभी भोलाराम दल के एक जवान रामलाल ने कहा, ‘‘राजनीति करो, मगर धर्म बचा कर. आदिवासियों को गाय बांटने का झांसा तुम लोग देते हो और गांव की जमीन, जिस में गाएं चरती थीं, उसे पैसा ले कर बाहर से आए सेठों को भेंट कर देते हो.’’

सुंदरलाल ने कहा, ‘‘100 जोड़ी भंदई के लिए गायों को जहर दे कर मरवाओगे क्या…?’’

उस का इतना कहना था कि ‘मारोमारो’ की आवाज होने लगी और लाठीपत्थर चलने लगे.

गांव में यह पहला मौका था, जब बैठक में लाठियां चल रही थीं.

3 मोचियों के सिर फट गए. चैतराम का बायां हाथ टूट गया.

अखबार में खबर छप गई. सांसद भोलाराम ने जरहा गांव का दौरा किया. उन्होंने मोचियों से कहा, ‘‘तुम लोग एकएक घाव का हिसाब मांगने का हक रखते हो. यह गुंडागर्दी नहीं चलेगी. मैं सब देख लूंगा.’’

भाषण दे कर जब भोलाराम अपनी कार में बैठ रहे थे, तभी उन्हीं की उम्र के एक आदमी ने उन्हें आवाज दे कर रोका. भोलाराम ने पूछा, ‘‘कहो भाई?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘भोला भाई, अब आप न भोले हैं, न भाले हैं. मैं पहले चुनाव से आप का संगी हूं. जहां भाला बनना चाहिए, वहां आप भोला बन जाते हैं. जहां भोला बनना चाहिए, वहां भाला, इसलिए सबकुछ गड्डमड्ड हो गया.

‘‘भाई मेरे कोई जिंदा गाय की राजनीति कर रहा है, तो कोई मरी हुई गाय की चमड़ी का चमत्कार बूझ रहा है. हैं दोनों ही गलत. मगर हमारी मजबूरी है कि 2 गलत में से एक को हर बार चुनना पड़ता है. इस तरह हम ही हर बार हारते हैं.’’

कणकण का हिसाब : महंगा पड़ा मुखिया का लालच

‘‘कुदरत किसी के साथ बेइंसाफी नहीं होने देती. लेकिन हम उस की बारीकियों को समझ नहीं पाते. हमारे नजरिए में ही खोट होती है, तभी हम उस के कानून की खिल्ली उड़ाते हैं. अगर आप का जिस्म ताकतवर है, तो जोरदार ठोकर का भी कोई असर नहीं होता… पर अगर कमजोर है तो मामूली सा झटका भी बहुत बड़ा भूचाल लगता है.

‘‘इसी तरह वह जब साथ देता है, तब मिट्टी छुओ तो सोना बन जाती है. लेकिन, जब हालात ठीक नहीं होते, तो जोकुछ भी दांव पर लगाओ, वह भस्म हो जाता है. केवल मेहनत से कमाया हुआ पैसा, यश ही जिंदगी में साथ देता है.’’

‘‘चोर, डाकू, ठग तो लाखों का हाथ मारते हैं, लेकिन फिर भी कलपते रहते हैं और रातदिन बेचैन रहते हैं. वहीं दूसरी ओर एक मजदूर दिनभर मिट्टी, कूड़ा, ईंट, गारा का काम कर के जब सोता है, तो उसे सूरज की किरणें ही जगाती हैं,’’ इतना कह कर मास्टर रामप्रकाश ने जीत सिंह से विदा मांगी.

जीत सिंह ने मास्टरजी की बात काटते हुए कहा, ‘‘मेहनत से पैदा की हुई दौलत तो आदमी के पास रहनी ही चाहिए. बड़ेबड़े राजाओं ने दूसरों के देश, सूबे जीते और भोगे, उन का क्या हुआ?’’

‘‘मुखियाजी, यह सिर्फ दिल का भरम और थोड़ी देर का संतोष होता है. महाराजा अशोक को इस से वैराग भी तो उपजा था?’’ इतना जवाब दे कर मास्टरजी चले गए.

जीत सिंह बमरौली गांव के मुखिया थे. गांव में उन का अच्छाखासा रोब था. उन की पत्नी गीता कुछ घमंडी थी. वे 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. एक बेटा कमलेश सिंह अभी कुंआरा था. घर का कामकाज वही चलाता था. मुखियाजी सूद पर रुपया उठाते थे. उन्होंने 2-3 गुंडे पाल रखे थे जो उन का बिगड़ा काम बनाते थे.

बमरौली गांव से 5-6 किलोमीटर दूर झुमरी अपने 2 बैलों को जानवरों की मंडी में बेचने आया था. रात काफी हो चुकी थी. जिन्होंने कुछ बेचा था, उन के पास रुपए थे. जिन्होंने खरीदा था, वे खाली थे. जिन के पास धन था, वे थोड़े परेशान थे कि उन्हें कोई लूट सकता है.

झुमरी भी उन्हीं परेशान लोगों में से एक था. सोचा, कुछ जलेबी खा कर पेट भर लिया जाए और फिर घर जाने की सोचे. पावभर जलेबी ले कर वह वहीं दुकान पर खाने लगा. फिर पास रखी पानी की टंकी से पानी पी कर जेब से बीड़ी निकाली और उसी हलवाई की दुकान पर जलती भट्ठी से बीड़ी को सुलगाया. 2-4 बार निगाहें चारों तरफ फेंकी.

फिर झुमरी धीरेधीरे अपने गांव की ओर बढ़ा. रास्ते में उस ने सोचा, ‘क्यों न आज बमरौली गांव के मुखिया के यहां रात काटी जाए और सुबह 4 बजे उठ कर बस पकड़ कर घर पहुंचा जाए.’

मुखिया के घर पहुंच कर वह चौपाल पर पड़े तख्त पर बैठ गया. कमलेश ने पिता को जा कर कहा, ‘‘कोई आदमी आया है और तख्त पर बैठा है.’’

जीत सिंह बाहर आए और पूछा, ‘‘क्या काम है? किस से मिलना है? कहां से आए हो?’’

झुमरी ने बताया, ‘‘मालिक, मैं विलमंडे का रहने वाला हूं. बैल बेचने आया था, सो बिक गए. रात काफी हो गई… सुबह 4 बजे वाली बस से चला जाऊंगा. आज रात यहां ठहरना चाहता हूं.’’

‘‘इस में क्या मुश्किल है… यहीं तख्त पर सो जाओ. यहां कोई खतरा नहीं,’’ जीत सिंह ने इतना कह कर अपनी मंजूरी दे दी, फिर पूछा, ‘‘कुछ खाओगे?’’

‘‘नहीं मालिक, मंडी से खा कर आया हूं,’’ झुमरी ने जवाब दिया.

जीत सिंह ने एक दरी और एक चादर ला कर झुमरी को दी और कहा, ‘‘इसे बिछा लो.’’

‘‘अच्छा मालिक,’’ कह कर झुमरी ने दोनों चीजें ले लीं और धोती के फेंटे से रुपए निकाल कर बोला, ‘‘यह रुपए रख लीजिए, सुबह चलते समय ले लूंगा.’’

‘‘कितने हैं?’’ जीत सिंह ने पूछा.

‘‘10,000 में 20 कम,’’ झुमरी ने कहा.

जीत सिंह रुपए ले कर गीता के पास गए और कहा, ‘‘रुपए संदूक में रख दो, सुबह देने हैं.’’

गीता ललचाई नजरों से उन नोटों को ले कर काफी समय तक देखती ही रही. गीता कभी चौके में जाती, तो कभी कमरे में, जैसे कोई लालच उसे डगमगा रहा हो. आखिर उस ने जीत सिंह को बुलाया और कहा, ‘‘घर आई ‘लक्ष्मी’ जाने न पाए.’’

‘‘क्या कहती हो, बड़प्पन कमाया है. सब मिट्टी में मिल जाएगा,’’ जीत सिंह ने गुस्से से कहा.

‘‘अपने घर में कुछ करना ही नहीं,’’ गीता ने समझाया, ‘‘दूसरों को इतनी अक्ल देते हो, खुद के लिए इतना सा काम भी नहीं कर सकते.’’

जीत सिंह काफी देर तक सोचते रहे कि काम इस तरह करना चाहिए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. थोड़ी देर बाद वह उठे और भीतर से बंदूक उठा कर घर से निकल पड़े.

रात के अंधेरे में केवल पीपल के पत्ते ही कुछ बोल रहे थे और जुगनू रोशनी दे रहे थे. तकरीबन 2 फर्लांग पर हलकी सी रोशनी थी. वह भीखू का घर था, जहां मिट्टी का दीया जल रहा था. जीत सिंह जल्दी से भीखू के घर के पास पहुंच गए. भीखू खाट पर पड़ापड़ा बीड़ी के कश खींच रहा था.

‘‘भीखू, क्या कर रहे हो?’’ जीत सिंह ने आवाज दी.

‘‘जी मालिक, क्या हुक्म है?’’ भीखू ने बीड़ी को पैर से कुचलते हुए हाथ जोड़ कर पूछा.

‘‘थोड़ा बाहर आओ… कुछ बात करनी है,’’ जीत सिंह घर से थोड़ी दूर अंधेरे में भीखू को ले गए और कुछ बात की. फिर खुद खाली हाथ घर वापस आ गए.

गीता और जीत सिंह को रातभर नींद नहीं आई. घड़ी का हर घंटा कई घंटों के बराबर लग रहा था. जैसेतैसे कर के रात के 2 बजे जीत सिंह ने झुमरी को जगाया और कहा, ‘‘उठो, तुम्हारे जाने का समय हो गया, नहीं तो बस छूट जाएगी.’’

झुमरी ने दरी समेट कर तख्त पर रख दी. इतने में जीत सिंह नोटों का बंडल ले आए और दे कर कहने लगे, ‘‘लो, गिन लो इन्हें.’’

‘‘अरे मालिक, आप के पास क्या कमी है… आप हमें शर्मिंदा कर रहे हैं,’’ झुमरी नोटों की गड्डी ले कर बाहर निकला. बाहर सन्नाटे में उस ने चारों ओर नजरें घुमाईं. फिर आगे बढ़ा. वह 5-6 कदम ही बढ़ा होगा कि एक आदमी ने उस को रोका और कहा, ‘‘अभी केवल 3 बजे हैं… बहुत रात बाकी है. मेरे घर चलो.’’

झुमरी का खून सूख गया. अंधेरा और बढ़ गया. मुंह का बोल रुक गया. सिर्फ आंखें ही बोल और कह रही थीं. पूरे जिस्म को जैसे लकवा मार गया था. झुमरी ने उस से कुछ सवाल ही नहीं किया कि तुम कौन हो? तुम्हारा क्या इरादा है?

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं न कोई चोर हूं, न डाकू और न तुम्हारा दुश्मन. मुझे अपना हमदर्द समझो… मुझ पर यकीन करो.’’

झुमरी डर से कांप रहा था. लगभग 10 मिनट बाद उस आदमी का घर आ गया. दोनों भीतर घुसे और दरवाजा बंद कर लिया. दोनों ही डरे हुए थे. इस कारण दीया भी न जलाया. दोनों नीचे ही बैठ गए.

‘‘देखो, मेरा नाम हरिनाथ है. मैं यहां मेहनत कर के अपना गुजारा करता हूं. कभी किसी खेत पर तो कभी किसी खेत पर. मेरे आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं, मर जाऊंगा तो गांव वाले मुझे गांव से बाहर फूंक देंगे.’’

‘‘रात से ही मेरा पेट खराब था. मुझे शौच के लिए बाहर जाना पड़ा. मैं गड्ढे में बैठा था कि मुखिया जीत सिंह भीखू के घर से निकल कर अंधेरे में बैठ गया. उस ने तुम्हें मारने की योजना बनाई है और भीखू को बंदकू दी है… जैसे ही तुम पगडंडी पर पहुंचते, तुम्हें गोली मार दी जाती और पैसा छीन लिया जाता. यह सच मैं ने सुन लिया और मैं जल्दी ही घर भागा. मैं सोया नहीं. अब तुम दिन निकले, तभी जाना,’’ इतना कह कर वह चुप हो गया.

झुमरी ने हरिनाथ से पानी मांग, तो उस ने उसे पानी का गिलास दिया. पानी पीते ही झुमरी का जैसे नया जन्म हो गया. उस का चेहरा खिल उठा.

इसी वक्त बंदूक के छूटने की आवाज आई और झुमरी व हरिनाथ फिर डर गए.

‘‘यह क्या हो रहा है?’’ यह सवाल दोनों के दिमाग पर हथौड़े चला रहा था. गांव वालों ने सोचा, ‘शायद डाकू आ गए हैं…’ सब ओर सन्नाटा था.

जीत सिंह समझ गए कि अपना काम हो गया. सोचा, ‘भीखू को 500 रुपए देंगे और बाकी सब अपने हो गए.’

जब काफी देर हो गई, तब जीत सिंह ने सोचा, ‘इतनी देर क्यों हो रही है? न तो कमलेश वापस आया और न भीखू. चलता हूं, हरामखोर को गरम करूंगा.’

‘2 बजे मैं ने झुमरी को भेजा. केवल पगडंडी तक 5 मिनट का रास्ता है.

4 बजे कमलेश को… दोनों ही फरार हो गए होंगे.’

जीत सिंह तेज कदमों से भीखू के घर पहुंचे.

‘‘भीखू, भीखू… आए क्यों नहीं?’’ जीत सिंह ने गुस्से से पूछा.

‘‘मालिक, उस के पास कुछ निकला ही नहीं,’’ भीखू ने जवाब दिया.

‘‘तुम झूठ बकते हो. तुम्हें अभी गोली से उड़ा दूंगा,’’ जीत सिंह ने धमकाते हुए कहा.

‘‘नहीं मालिक, आप से झूठ बोल कर कहां जाऊंगा?’’ भीखू ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘चल मेरे साथ, देखता हूं क्या गड़बड़ है,’’ जीत सिंह ने इतना कह कर भीखू को साथ ले लिया.

दोनों ही तेज चाल से चले जा रहे थे. दोनों की सांसें फूल रही थीं. 3-4 मिनट के बाद वे उस जगह पहुंच गए, तब तक कुछ उजाला होने लगा था. नजदीक पहुंच कर देखा. एकदम से यकीन नहीं हुआ. आंखें पथरा गईं.

जीत सिंह ने जोर से चीख मारी, ‘‘अरे, यह तो मेरा कमलेश है… तू ने किसे मार डाला बैरी.’’

‘‘मालिक, अंधेरे में मुंह तो दिखा नहीं,’’ भीखू ने कांपती आवाज में कहा.

सवेरा हुआ तो गांव में यह खबर बिजली की तरह फैल गई.

उधर झुमरी हरिनाथ को अपने साथ ले गया. उम्रभर साथ निभाने का पीपल के नीचे खड़े हो कर प्रण किया.

जीत सिंह सिसकियां भरतेभरते बेटे की लाश के पास बैठ गए. सुबह शौच के लिए जाते हुए लोग रुकरुक कर यह सब देख कर हैरान थे. कुछ पूछते नहीं बनता था.

जीत सिंह को उस बूढ़े रामप्रकाश मास्टर की बात याद आ रही थी. उन्होंने ठीक ही कहा था, ‘कुदरत कणकण का हिसाब रखती है, लेकिन आदमी उस को समझ नहीं पाता.’

जीत सिंह ने फिर सोचा, ‘अगर मैं उस बात को समझ जाता, तो यह बरबादी न होती… मेरे लालच ने ही मेरे बेटे की जान ले ली.’

वारिस : नकारा सेठ की मदमाती सेठानी

अकसर शाम को मैं ने उसे गांव के अंदर से बाहर शौच को जाते समय देखा था. सिंदूर की बड़ी सी सुर्ख बिंदी लगाए हुए. उस के नीचे हमेशा चंदन का टीका लगा रहता था. यही कोई होगी साढ़े 5 फुट लंबी. गांव में औरतें इतनी लंबी कम ही होती हैं.

वैसे तो उसे बहुत खूबसूरत नहीं कहा जा सकता, पर गोरी होने के चलते मोटे नैननक्श भी ज्यादा बुरे नहीं लगते थे. बड़ी सी सिंदूर वाली बिंदी उस पर खूब फबती है. शायद इसलिए ही उस की ओर ध्यान खिंच जाता है सब का खासकर मर्द तो एक बार पलट कर देखता जरूर था, फिर चाहे कोई जवान हो या बुजुर्ग. इतनी खूबसूरत न होने पर भी कशिश तो थी, ऊपर से हंस कर बोल जाती तो थोड़ी खुरदरी जबान भी फूल ही बिखेरती आदमी जात पर.

एक बात और यह कि अपनेआप को ज्यादा खूबसूरत दिखाने के लिए वह शायद काली प्रिंट की साड़ियां ज्यादा ही पहनती है, पर वे उस पर जमती भी हैं. अरे, एक खासीयत और रह गई न उस की बाकी, वह अपने पैर बहुत ही साफसुथरे रखती है.

गांव में अकसर औरतों के पैर गंदे और एड़ियां फटी ही देखी हैं, पर लगता है कि वह दिन में कई बार रगड़ती होगी, इसलिए ही तो कांच सी चमकदार हुई रहती हैं उस की एड़ियां ऊपर से, जिन में चांदी की बड़ीबड़ी पाजेब पहने रहती है. झनकझनक चलती तो दूर से पहचान हो जाती और ऊपर से इठलाइठला कर चलना तो लगता कहर ही है.

हां, यही सही में सेठजी की घरवाली है. सेठ धनपत लाल की शादी के तकरीबन 10 बरस बाद भी उस का मूंग भी मैला नहीं हुआ. जैसी आई थी, अब भी वैसी ही है. न मोटी हुई, न पतली.

इतनी धनदौलत है कि चाहे तो धन के कुल्ले करे धनपत लाल. उस के पास बस कमी है तो आंगन में खेलने वाले की, नन्ही किलकारी के गुंजन की. अरे मतलब, अब तक सेठानी की गोद खाली है. शुरू के 5-6 साल तो खेलतेखाते निकल ही गए, मगर अब सेठजी की मां आएदिन ताने देती रहती है.

लोग भी बीच रास्ते में कानाफूसी करते हैं कि सेठ दूसरी औरत लाने के जुगाड़ में है. आतेजाते लोग सेठजी की तारीफ में चुटकी लेले कर कह ही देते हैं कि धनपत लाल तो तराजू पर ध्यान देते हैं, घरवाली पर नहीं.

कुछ लोग बोलते कि गढ़ी के दरवाजे के पास सट्टे हवेली से सुबह अंधेरे एक औरत को निकलते देखा. साफसाफ तो नहीं दिख रही थी, कदकाठी से धनपत लाल की ही घरवाली लग रही थी.

किसी ने सवाल किया कि वह तो लखन सिंह का घर है, वहां क्या करने जाएगी सेठ धनपत की घरवाली? इसी तरह बात आईगई हो गई, पर जब भी मैं उसे देखती, मुझे लगता कि वह अपना दर्द शायद बड़ी सी बिंदी के पीछे छिपाए घूम रही थी.

सुनने में आ रहा था कि अकसर धनपत लाल और उस की घरवाली के बीच कुछ महीनों से झगड़े बढ़ रहे हैं. आए 2-4 दिन में वह देर रात झगड़ा कर कहीं चली जाती है. सास अपनी बहू को ढूंढ़ती रहती है और भोर होते ही वह वापस आ जाती है.

कुछ महीनों तक तो वही सब चलता रहा, अचानक एक दिन सुनने में आया कि इतने बरसों के बाद धनपत लाल की घरवाली के पैर भारी हैं. पूरे गांव में खुशी की लहर है. जहां देखो, वहां वही चर्चा. दुकान पर तो जो भी गया, मिठाई खाए बगैर कैसे आ जाता भला.

अब लड़ाईझगड़े खत्म हो गए थे. रूठ कर जानाआना तो शायद बरसों पहले की बात हो गई. सुना है कि सास तो बहू की सेवा में हाजिर ही खड़ी रहती है. बढ़ते पेट के साथ खुशी में देखतेदेखते कब 9 महीने निकल गए, पता ही नहीं चला.

आज जब गांव में पटाखे चले, बंदूकें चलीं तो पता चला कि सेठ धनपत के बेटा हुआ है.

समय पंख लगा कर उड़ गया. मैं ने आज अचानक देखा, वही बड़ी सी बिंदी लगाए नीचे चंदन का तिलक लगा कर वही की वही शाम को काले फ्लौवर वाली प्रिंट की साड़ी पहने आ रही थी धीरेधीरे.

पल्लू पकड़े एक गोराचिट्टा गोलमटोल सिर पर जूड़ा बांधे आंखों में काजल लगाया हुआ बालक. काजल इतना बड़ा शायद इसलिए कि किसी की नजर न लग जाए उस के अनमोल लाल को.

वह मस्त मदमाती हथिनी सी चल रही थी. उसे देख कर लग रहा था कि जो भी चमक आज उस की बिंदिया में है, वह मां बन कर आ गई या फिर सेठ धनपत लाल को वारिस दे कर.

धंधा बना लिया : लक्ष्मी ने ललचाया चंपा को

‘‘सुनती हो चंपा?’’

‘‘क्या बात है? दारू पीने के लिए पैसे चाहिए?’’ चंपा ने जब यह बात कही, तब विनोद हैरानी से उस का मुंह ताकता रह गया.

विनोद को इस तरह ताकते देख चंपा फिर बोली, ‘‘इस तरह क्या देख रहा है? मु झे पहले कभी नहीं देखा क्या?’’

‘‘मतलब, तुम से बात करना भी गुनाह है. मैं कोई भी बात करूं, तो तुम्हें लगता है कि मैं दारू के लिए ही पैसा मांगता हूं.’’

‘‘हां, तू ने अपना बरताव ही ऐसा कर लिया है. बोल, क्या कहना चाहता है?’’

‘‘लक्ष्मी होटल में धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘हां, मु झे मालूम है. एक दिन यही होना था. वही क्या, पूरी 10 औरतें पकड़ी गई हैं. क्या करें, आजकल औरतों ने अपने खर्चे पूरे करने के लिए यह धंधा बना लिया है. लक्ष्मी खूब बनठन कर रहती थी. वह धंधा करती है, यह बात तो मुझे पहले से मालूम थी.’’

‘‘तु झे मालूम थी?’’ विनोद हैरानी से बोला.

‘‘हां, बल्कि वह तो मुझ से भी यह धंधा करवाना चाहती थी.’’

‘‘तुम ने क्या जवाब दिया?’’

‘‘उस के मुंह पर थूक दिया,’’ गुस्से से चंपा बोली.

‘‘यह तुम ने अच्छा नहीं किया?’’

‘‘मतलब, तुम भी चाहते थे कि मैं भी उस के साथ धंधा करूं?’’

‘‘बहुत से मरद अपनी जोरू से यह धंधा करा रहे हैं. जितनी भी पकड़ी गईं, उन में से ज्यादातर को धंधेवाली बनाने में उन के मरदों का ही हाथ था,’’ विनोद बोला.

‘‘वे सब निकम्मे मरद थे, जो अपनी जोरू की कमाई खाते हैं. आग लगे ऐसी औरतों को…’’ कह कर चंपा झोंपड़ी से बाहर निकल गई.

चंपा जा जरूर रही थी, मगर उस का मन कहीं और भटका हुआ था.

चंपा घरों में बरतन मांजने का काम करती थी. जिन घरों में वह काम करती है, वहां से उसे बंधाबंधाया पैसा मिल जाता था. इस से वह अपनी गृहस्थी चला रही थी.

चंपा की 4 बेटियां और एक बेटा है. उस का मरद निठल्ला है. मरजी होती है, उस दिन वह मजदूरी करता है, वरना बस्ती के आवारा मर्दों के साथ ताश खेलता रहता है. उसे शराब पीने के लिए पैसा देना पड़ता है.

चंपा उसे कितनी बार कह चुकी है कि तू दारू नहीं जहर पी रहा है. मगर उस की बात को वह एक कान से सुनता है, दूसरे कान से निकाल देता है. उस की चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि चंपा की कड़वी बातों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता है.

जो 10 औरतें रैस्टहाउस के पकड़ी गई थीं, उन में से लक्ष्मी चंपा की बस्ती के मांगीलाल की जोरू है.

पुरानी बात है. एक दिन चंपा काम पर जा रही थी. कुछ देरी होने के चलते उस के पैर तेजी से चल रहे थे. तभी सामने से लक्ष्मी आ गई थी. वह बोली थी, ‘कहां जा रही हो?’

‘काम पर,’ चंपा ने कहा था.

‘कौन सा काम करती हो?’ लक्ष्मी ने ताना सा मारते हुए ऊपर से नीचे तक उसे घूरा था.

तब चंपा भी लापरवाही से बोली थी, ‘5-7 घरों में बरतन मांजने का काम करती हूं.’

‘महीने में कितना कमा लेती हो?’ जब लक्ष्मी ने अगला सवाल पूछा, तो चंपा सोच में पड़ गई थी. उस ने लापरवाही से जवाब दिया था, ‘यही कोई 4-5 हजार रुपए महीना.’

‘बस इतने से…’ लक्ष्मी ने हैरान हो कर कहा था.

‘तू सम झ रही है कि घरों में बरतन मांज कर 10-20 हजार रुपए महीना कमा लूंगी क्या?’ चंपा थोड़ी नाराजगी से बोली थी.

‘कभी देर से पहुंचती होगी, तब बातें भी सुननी पड़ती होंगी,’ जब लक्ष्मी ने यह सवाल पूछा, तब चंपा भीतर ही भीतर तिलमिला उठी थी. वह गुस्से से बोली थी, ‘जब तू सब जानती है, तब क्यों पूछ रही है?’

‘‘तू तो नाराज हो गई चंपा…’’ लक्ष्मी नरम पड़ते हुए बोली थी, ‘इतने कम पैसे में तेरा गुजारा चल जाता है?’

‘चल तो नहीं पाता है, मगर चलाना पड़ता है,’ चंपा ने जब यह बात कही, तब वह भीतर ही भीतर खुश हो गई थी.

‘अगर मेरा कहना मानेगी तो…’ लक्ष्मी ने इतना कहा, तो चंपा ने पूछा था, ‘मतलब?’

‘तू मालामाल हो सकती है,’ लक्ष्मी ने जब यह बात कही, तब चंपा बोली थी, ‘कैसे?’

‘अरे, औरत के पास ऐसी चीज है कि उसे कहीं हाथपैर जोड़ने की जरूरत नहीं पड़े. बस, थोड़ी मर्यादा तोड़नी पड़ेगी,’ चंपा की जवानी को ऊपर से नीचे देख कर जब लक्ष्मी मुसकराई, तो चंपा ने पूछा था, ‘क्या कहना चाहती है.’

‘नहीं सम झी मेरा इशारा…’ फिर लक्ष्मी ने बात को और साफ करते हुए कहा था, ‘अभी तेरे पास जवानी है. इन मर्दों से मनचाहा पैसा हड़प सकती है. ये मरद तो जवानी के भूखे होते हैं.’

‘तू मुझ से धंधा करवाना चाहती है?’ चंपा नाराज होते हुए बोली थी.

‘‘क्या बुराई है इस में? हम जैसी कितनी औरतें धंधा कर रही हैं और हजारों रुपए कमा रही हैं. फिर आजकल तो बड़े घरों की लड़कियां भी अपना खर्च निकालने के लिए यह धंधा कर रही हैं,’’ लक्ष्मी ने यह कहा, तो चंपा आगबबूला हो उठी और गुस्से से बोली थी, ‘एक औरत हो कर ऐसी बातें करते हुए तु झे शर्म नहीं आती?’

‘शर्म गई भाड़ में. अगर औरत इस तरह शर्म रखने लगी है, तो हमारे मरद हम को खा जाएं. एक बार यह धंधा अपना लेगी न, तब देखना तेरा मरद तेरे आगेपीछे घूमेगा,’ लक्ष्मी ने जब चंपा को यह लालच दिया, तब वह गुस्से से बोली थी, ‘ऐसी सीख मु झे दे रही है, खुद क्यों नहीं करती है यह धंधा?’

‘तू तो नाराज हो गई. ठीक है, अपने मरद के सामने सतीसावित्री बन. जब पैसे की बहुत जरूरत पड़ेगी न, तब मेरी यह बात याद आएगी,’ कह कर लक्ष्मी चली गई थी.

आज लक्ष्मी धंधा करती पकड़ी गई. धंधा तो वह बहुत पहले से ही कर रही थी. सारी बस्ती में यह चर्चा थी.

जब चंपा मिश्राइन के बंगले पर पहुंची, तब मिश्राइन और उस के पति ड्राइंगरूम में बैठे बातें कर रहे थे.

चंपा के पहुंचते ही मिश्राइन जरा गुस्से से बोली, ‘‘चंपा, आज तो तुम ने बहुत देर कर दी. क्या हुआ?’’

चंपा चुप रही. मिश्राइन फिर बोली, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया चंपा?’’

‘‘क्या करूं मेम साहब, आज हमारी बस्ती की लक्ष्मी धंधा करते हुए पकड़ी गई.’’

‘‘उस का अफसोस मनाने लगी थी?’’ मिश्राइन बोली.

‘‘अफसोस मनाए मेरी जूती…’’ गुस्से से चंपा बोली, ‘‘सारी बस्ती वाले उस पर थूथू कर रहे हैं. अच्छा हुआ कि वह पकड़ी गई.

‘‘तेरे आने के पहले उसी पर चर्चा चल रही थी…’’ मिश्राजी बोले, ‘‘लक्ष्मी भी क्या करे? पैसों की खातिर ऐसी झुग्गी झोंपड़ी वाली औरतों ने यह धंधा बना लिया है.’’

मिश्राजी ने जब यह बात कही, तब चंपा की इच्छा हुई कि कह दे, ‘आप जैसे अमीर घरों की औरतें भी गुपचुप तरीके से यह धंधा करती हैं,’ मगर वह यह बात कह नहीं सकी.

वह बोली, ‘‘क्या करें बाबूजी, हमारी बस्ती में एक औरत बदनाम होती है, यह धंधा करती है, मगर उस के पकड़े जाने पर सारी बस्ती की औरतें बदनाम होती हैं.’’ इतना कह कर चंपा बरतन मांजने रसोईघर में चली गई.

दलदल : सूर्या की ब्लाइंड डेट

सूर्या ने परफ्यूम की बोतल को ही तकरीबन खाली कर दिया. अगर वह किसी लड़की से मिलने जा रहा हो, तब तो कहने ही क्या. उसे ब्लाइंड डेट का रिवाज बेहद भाता है. आजकल कितनी ही औनलाइन साइटें हैं, जो इस तरह की डेट सैट करने में काफी मदद कर देती हैं.

सूर्या आज पहली बार ब्लाइंड डेट पर नहीं जा रहा है. हां, लेकिन आज की डेट का नाम उसे बहुत लुभा रहा है… चेरी. होटल के बेसमैंट में रैस्टोरैंट था. एक कोने की टेबल पहले ही रिजर्व थी. एक लड़की वहां पहले से ही बैठी थी.

‘‘माफ कीजिए चेरी, मुझे देर हो गई क्या? या फिर आप को मुझ से भी ज्यादा जल्दी थी?’’ तिरछी मुसकान लिए सूर्या फ्लर्ट करने में माहिर था.

‘‘नहीं, मैं ही कुछ जल्दी आ गई. वह नया फ्लाईओवर खुल गया है न, सो आने में समय ही नहीं लगा,’’ चेरी भी बातचीत करने लगी.

शाम का रंग बढ़ने लगा और अपना परिचय देने के बाद वे दोनों एकदूसरे की पसंदनापसंद पर बात करने लगे.

सूर्या एक प्राइवेट हवाईजहाज कंपनी में पायलट था और चेरी एक मैनेजमैंट इंस्टीट्यूट में बिजनैस मैनेजमैंट पढ़ाती थी.

‘‘तुम्हारा इतना लजीज नाम किस ने रखा वैसे, चेरी मेरा पसंदीदा फल है. देखते ही जी चाहता है कि गप से मुंह में रख लूं,’’ सूर्या अपनी आदत के मुताबिक फ्लर्ट किए जा हा था.

चेरी भी शरमाने के बजाय आग में घी डाल रही थी. वह बोली, ‘‘अपने मन को ज्यादा नहीं तरसाना चाहिए. लेकिन यहां सब के सामने नहीं. कहो तो होटल में चलते हैं. वहां जितना जी चाहे, उतनी ‘चेरी’ खा लेना.’’

सूर्या फटी आंखों से चेरी को ताकता रह गया, फिर आननफानन उठा और बोला, ‘‘तो चलो.’’

दोनों होटल में गए. सूर्या रिसैप्शन पर जाने लगा, तो चेरी ने हाथ पकड़ कर उसे रोक लिया और बोली, ‘‘मेरे नाम पर एक कमरा बुक है.’’

‘‘ओह, वैरी फास्ट,’’ जुमला कस कर सूर्या चेरी के पीछेपीछे हो लिया.

अब वे दोनों चेरी के कमरे में थे.

‘‘तुम बैठो, मैं हाथमुंह धो कर आई,’’ कहते हुए चेरी बाथरूम में चली गई.

सूर्या आया तो था सिर्फ एक दोस्ती भरी गपशप के लिए, लेकिन उस की अचानक लौटरी लग गई. लड़की खुद न्योता देते हुए उसे अपने कमरे तक ले आई थी.

सूर्या ने कमरे की खिड़की पर परदे डाल दिए और बत्तियां बंद कर दीं. अब कमरा हलकी पीली रोशनी से जगमगा रहा था.

तभी बाथरूम का दरवाजा खुला. चेरी एक छोटी सी लाल पोशाक में खड़ी इतराने लगी. सूर्या ने बांहें पसार दीं. चेरी मटकते हुए उन बांहों में समा गई. दोनों धप से बिस्तर पर गिरे.

सूर्या चेरी को बेतहाशा चूमने लगा. उस के हाथ चेरी के बदन पर दौड़ने लगे.

चेरी सूर्या की कमीज उतारने लगी. कुछ ही देर में सूर्या की कमीज और पैंट कमरे की कुरसी पर पड़े थे.

अब सूर्या की बारी थी. उस ने चेरी की पोशाक की जिप पर अपनी उंगली फिराई ही थी कि कमरे का दरवाजा खड़का.

उन दोनों के बिना खोले ही दरवाजा खुला और पुलिस की वरदी में एक आदमी सामने खड़ा था.

यह देख सूर्या हैरान रह गया. उस ने चेरी की ओर देखा. वह शांति से बिस्तर पर बैठी रही.

उस पुलिस वाले ने सूर्या के गाल पर एक तमाचा जड़ पर दिया. सूर्या का चेहरा झन्ना उठा.

‘‘हर जगह को बाजार समझ रखा है क्या? अच्छे घरों के लोगों का यह हाल है. बताओ, पढ़ेलिखे होते हुए भी…’’ कहते हुए वह पुलिस वाला कमरे की छानबीन करने लगा.

‘‘नहीं सर, आप गलत समझ रहे हैं. हम दोनों तो फ्रैंड हैं. वह तो बस यों ही थोड़ा भावनाओं में बह गए थे.

‘‘सौरी सर, गलती हो गई. आइंदा ऐसा नहीं होगा,’’ सूर्या बिना सांस लिए कहने लगा. वह इस मामले को रफादफा करना चाह रहा था.

पुलिस वाले ने चेरी के बालों को पकड़ कर उस का चेहरा ऊपर किया और अपना फोन निकाल कर वीडियो बनाने लगा, ‘‘कहां से पकड़ लाया इस छम्मकछल्लो को लड़की तो कम उम्र की लग रही है या…?’’ फिर उस ने अपने मोबाइल फोन का कैमरा सूर्या की ओर घुमा दिया.

‘‘अरे सर, क्या कर रहे हैं आप? मेरी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी. बदनामी होगी सो अलग,’’ सूर्या उस पुलिस वाले के हाथपैर जोड़ने लगा.

‘‘यह बात ठीक कही तू ने. जो होना था, हो लिया. अब तेरी नौकरी छीन कर मुझे क्या मिलेगा. देख भाई, तू ने अपने मजे ले लिए, अब मुझे भी कुछ मिल जाता तो…’’ पुलिस वाला लेनदेन पर उतर आया.

‘‘बोलिए सर, क्या कर सकता हूं मैं आप के लिए?’’ कहते हुए सूर्या ने अपना पर्स निकाला और उस में जितने रुपए थे, सब उस को थमाने लगा.

‘‘यह क्या चिल्लर दे रहा है मुझे? एटीएम कार्ड थमा,’’ पुलिस वाले की नीयत का खोट अब सामने था.

सूर्या सकपका गया. एटीएम या क्रेडिट कार्ड का मतलब था बेहिसाब नुकसान. पर मरता क्या ना करता.

चेरी को वहीं छोड़ वे दोनों पास के एटीएम चल दिए. वहां पुलिस वाले ने एटीएम से 25 हजार रुपए निकाल कर अपनी जेब में रख लिए, फिर वह अपने रास्ते चलता बना.

सूर्या ने चैन की सांस ली. वह फौरन होटल के उसी कमरे में जा पहुंचा. कमरे में घुसा तो पाया कि चेरी कपड़े बदल कर कुरसी पर अपना सिर पकड़ कर बैठी थी.

चेरी के चेहरे की हवाइयां उड़ी देख सूर्या बोला, ‘‘गया वह पुलिस वाला. आई एम सो सौरी. मेरी वजह से आप… चलिए, जो हुआ उस पर तो अब कोई जोर नहीं. अब यहां से निकलना ही बेहतर होगा. चलिए, मैं आप को छोड़ देता हूं. बताएं, कहां जाना है आप को?’’

‘‘आप जाइए यहां से. मैं… मैं…’’ चेरी अभी भी घबराई हुई?थी.

‘‘घबराइए मत. मैं आप की मरजी के खिलाफ कुछ नहीं करूंगा. मुझ पर यकीन कीजिए. मैं तो बस आप को यहां से निकालना चाहता हूं.’’

‘‘मैं खुद चली जाऊंगी. आप जाइए यहां से, प्लीज,’’ चेरी के कहने पर सूर्या ने वहां से चले जाना ही ठीक समझा.

घर पहुंच कर सूर्या ने चैन की सांस ली. उस ने एक गिलास ठंडा पानी लिया और चुपचाप अपने बिस्तर पर निढाल पड़ गया. दिमाग थक चुका था और इसी वजह से शरीर भी थकावट महसूस कर रहा था. कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला.

जब आंख खुली, तब रात के 3 बज रहे थे. पेट में भूख के मारे गुड़गुड़ाहट हो रही थी. रसोई में जा कर फ्रिज से ब्रैड निकाल वह उस पर मक्खन लगाने लगा.

‘उफ, कहां फंस गया था आज. कम पैसों में ही जान छूट गई, वरना वह पुलिस वाला…’ मन अब भी उसी परेशानी में उलझा था. पर दिमाग खुद ही सारी घटना दोहरा कर सुलझाने की कोशिश में था.

चेरी के नाम पर उस होटल में कमरा रिजर्व क्यों था और उस के कपड़े भी थे उस कमरे में. उस ने तो बताया था कि वह किसी मैनेजमैंट इंस्टीट्यूट में टीचर है, तो फिर होटल में क्यों रहती है?

पुलिस वाले ने उसे इतनी आसानी से कैसे और क्यों छोड़ दिया और वह भी केवल यही जोर दे रही थी कि सूर्या वहां से चला जाए. तो क्या चेरी और उस पुलिस वाले की कोई मिलीभगत थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सब एक जाल हो पैसा ऐंठने के लिए?

‘खैर, जान बची और लाखों पाए. अब ब्लाइंड डेटिंग के बारे में सोचूंगा भी नहीं,’ यह सोच कर सूर्या एक बार फिर अपने रोजाना के कामों में मसरूफ हो गया था. पर अगले 2 दिन बाद ही सूर्या को उस पुलिस वाले का फिर फोन आया.

इस बार वह अपना मुंह बंद रखने के लिए 10 लाख रुपए की मांग कर रहा?था और कह रहा था, ‘और 2 लाख उस बेचारी लड़की के लिए भी लेते आना. उस बेचारी को तो तू ने कुछ भी न दिया.’

अब सूर्या को 2 दिन के अंदर ही 12 लाख रुपए का इंतजाम करना था. इंतजाम हो जाने पर सूर्या ने तथाकथित जगह पर एक थैले में रुपए छोड़ दिए.

कुछ दिन बाद एक सुबह सूर्या अपने काम के लिए हवाईअड्डे के लिए निकल रहा था कि टैक्सी की खिड़की से उसे चेरी दिखाई दी. उस के घर के पास के बाजार में कुछ खरीद रही थी.

सूर्या ने फौरन टैक्सी वहीं छोड़ी और चेरी का पीछा करने लगा. एक सुनसान सी गली में पहुंच कर उस ने आवाज दी, ‘‘चेरी.’’

चेरी ने अचकचा कर मुड़ कर देखा, तो उस के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं, ‘‘तुम मेरा पीछा क्यों कर रहे हो?’’

‘‘नहीं चेरी, मैं तो यहीं पास में ही रहता हूं. तुम्हें यहां देखा तो… खैर, क्या उस पुलिस वाले से तुम्हारा कोई सरोकार है? कौन हो तुम? क्या है तुम्हारी सचाई?’’ सूर्या के अंदर उबलते सवाल बाहर उफनने लगे.

चेरी चुप रही. सूर्या ने उस का रास्ता रोक लिया. गली में किसी और को न पा कर चेरी अचानक रो पड़ी, ‘‘तुम्हारी तरह मैं भी इस दलदल का शिकार हूं…’’

चेरी आगे कुछ बताती, इस से पहले गली में कुछ लोग आते दिखाई दिए. सूर्या ने जल्दी से अपना फोन नंबर चेरी को बताया और वहां से चलता बना.

शाम ढलने से पहले चेरी का फोन आ गया. उस का असली नाम दीप्ति था.

एक गरीब घर की दीप्ति बड़े शहरों की चकाचौंध में अंधी हो कर एक लड़के के साथ अपने कसबे से मुंबई भाग आई थी. उस समय वह महज 15 साल की थी.

फिर जो होता है, वही हुआ. उस लड़के ने दीप्ति को बेच दिया. कई हाथों में से घूमती हुई वह आखिरकार इस पुलिस वाले के हत्थे चढ़ गई.

जिस्म के बाजार में अनगिनत बार बिकी दीप्ति का तनमन सब बदल चुका था, यहां तक कि नाम भी.

वक्त की ठोकरें खाखा कर वह एक सख्त जान बन गई थी. पुलिस वाला उसे अपने लिए, अपने दोस्तोंयारों के लिए, अपना काम निकालने के लिए और अनजान लड़कों को बेवकूफ बना कर लूटने के लिए इस्तेमाल करता था. लेकिन सूर्या को लूट कर दीप्ति को बिलकुल अच्छा नहीं लगा था.

‘‘क्यों?’’ सूर्या के सवाल पर वह बोली, ‘‘क्योंकि तुम ने मेरे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की. और फिर तुम खुद धोखा खाने के बाद भी मुझे मेरे घर छोड़ने के लिए होटल आए.’’

‘‘तो क्या तुम मेरी मदद कर सकती हो?’’ सूर्या ने पूछा.

सूर्या इस दलदल से निकलना चाहता था, वरना वह पुलिस वाला जबतब उसे ब्लैकमेल करता रहेगा.

दीप्ति राजी हो गई. शायद उसे सूर्या से प्यार हो गया था. तन के साथ मन का घायल होना जरूरी नहीं. किसी ने पहली बार उसे एक लड़की के तौर पर इज्जत दी थी.

अगले कुछ दिनों में उस पुलिस वाले का फोन ही आ गया, ‘ओ भाई, जरा पैसे की सख्त जरूरत है. फटाफट 8 लाख रुपए का इंतजाम कर. जगह और दिन मैं फोन कर के बता दूंगा.’’

पैसे देने के लिए इस बार जो जगह और दिन बताया गया, उस की जानकारी सूर्या ने पूरी हिम्मत कर पुलिस स्टेशन जा कर एफआईआर में दर्ज कराई.

पुलिस ने उस की पूरी मदद की. उन का अपना साथी ऐसी हरकत कर रहा है, इस बात को जान कर उन्होंने ऐसी गंदी मछली को तालाब से निकाल फेंकने की योजना बनाई.

तथाकथित जगह और समय पर न केवल सूर्या पहुंचा, बल्कि पुलिस वाले भी पहुंचे और उस भ्रष्ट पुलिस वाले को धरदबोचा गया. पूछताछ करने पर दीप्ति के ठिकाने का भी पता चला और उसे नारी निकेतन भिजवा दिया गया.

दीप्ति की तृष्णा, पुलिस वाले के लालच और सूर्या की कामुकता ने उन तीनों को परेशानी के कीचड़ में उतार दिया था. आखिर में सचाई ही काम आई.

बूंदबूंद से घड़ा भरे : एक किसान की समझदारी

मा नस नदी के किनारे एक गांव बसा था राजपुरा. उस में आबाद 30 में से 25 घर छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों के थे. 2 घर दस्तकारों के और 3 खातेपीते किसानों के थे. वे खातेपीते किसान थे, रामसुख, हरदेव और सुखराम.

एक दिन उस गांव में एक नई और अजीब बात हुई. रामसुख शहर से ट्रैक्टर खरीद कर लाया था. नीले रंग का चमचमाता ट्रैक्टर जब गांव में आ कर रुका तो बच्चे खुशी के मारे उस के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए.

रामसुख ट्रैक्टर से नीचे उतरा ही था कि खेतों से लौटते हुए हरदेव से उस की मुलाकात हो गई.

रामसुख ने उसे ट्रैक्टर दिखाया और पूछा, ‘‘आप को कैसा लगा दादा?’’

‘‘बहुत अच्छा है, कितने में खरीदा?’’

‘‘तकरीबन साढ़े 6 लाख रुपए में पड़ा है.’’

कीमत सुन कर हैरानी से हरदेव की आंखें फैल गईं.

‘‘ऐसा है दादा कि 2 लाख रुपए तो मैं ने नकद दिए हैं, बाकी बैंक से कर्ज मिल गया है,’’ रामसुख ने बताया.

हरदेव की हैरानी फिर भी कम न हुई. उस की बराबर की हैसियत के रामसुख के पास 2 लाख रुपए नकद कहां से आ गए? उस के पास तो 50,000 रुपए भी जमा नहीं थे.

‘‘2 लाख रुपए क्या साहूकार से लिए हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ने जमा किए हैं.’’

हरदेव को रामसुख की बात पर यकीन तो नहीं हुआ, किंतु उसी वक्त सारी बातें पूछना ठीक न समझ वह चुप हो गया.

रात में हरदेव ठीक से सो नहीं पाया. रामसुख के घर सारी रात मेला सा लगा रहा. गांव में लड्डू बांटे गए. हरदेव सवेरे उठा तो रात में ठीकसे सो न पाने के चलते उस का सिर भारी था. नहाने के लिए वह नदी की ओर जा ही रहा था कि रामसुख मिल गया. वह जुताई के लिए ट्रैक्टर लिए जा रहा था.

‘‘आओ दादा, बैठ कर चलते हैं,’’ रामसुख ने पुकारा. उस ने सहारा दे कर हरदेव को ट्रैक्टर पर बिठा लिया.

ट्रैक्टर खेतों की ओर चल दिया. कल वाला सवाल आज भी हरदेव के दिमाग में घूम रहा था. वह रामसुख से पूछ ही बैठा. ‘‘रामू, एक बात बता. तू ने 2 लाख रुपए जोड़े कैसे?’’

‘‘सीधी सी बात है दादा, बूंदबूंद कर के खाली घड़ा भर जाता है और बूंदबूंद टपकाते रहो तो भरा घड़ा भी खाली हो जाता है.’’

‘‘समझा कर बता. यों पहेलियां न बुझा,’’ हरदेव बोला.

‘‘बात अच्छी न लगे तो बुरा तो न मानोगे. इसी डर से मैं ने अब तक आप को नहीं कहा था.’’

‘‘कह, तेरी बात का बुरा नहीं मानूंगा.’’

‘‘सच तो यह है कि हमारे गलत रीतिरिवाज हमें पनपने नहीं देते. मैं ने अपने को इन से बचा कर रखा और आप इन के शिकार हुए. मैं ने अपने पिता की मौत पर थोड़ा सा पैसा खर्च किया. लोगों की नाराजगी की परवाह नहीं की. भाई व बच्चों की शादी भी साधारण तरीके से कम खर्च में की. न ढेर सारे मेहमान बुलाए और न तरहतरह के पकवानों का भोज दिया.

‘‘झूठी शान और दिखावे के लिए शादियों में ढेर सारे गहने भी मैं ने नहीं चढ़ाए, न ही बैंडबाजे बजवाए. एक ओर मैं ने फालतू खर्च बंद किए, वहीं दूसरी ओर लगातार बचत की. बचत के रुपयों से मुझे ब्याज तो मिला ही, बैंक में मेरी साख भी बनी.

‘‘यही नहीं, खाद, बीज के लिए मुझे बैंक या साहूकार को ब्याज भी नहीं देना पड़ा. 2 लाख रुपए नकद देने के बाद भी अभी कुछ हजार रुपए मेरे बैंक खाते में जमा हैं.

‘‘उधर मेरे बराबर कमाई करने पर भी आप के पास रुपया इसलिए नहीं है कि आप ने अपने पिताजी का लंबाचौड़ा ‘मृत्युभोज’ किया. शादीब्याज खूब शान से किए. इन में दूरदूर के बहुत से मेहमान बुलाए. इस के लिए आप को साहूकार से कर्ज भी लेना पड़ा. फिर आप अपनी फसल वाजिब कीमत पर मंडी में बेचने के बजाय साहूकार को औनेपौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर हुए.

‘‘छोटेछोटे मौकों पर भी आप ने दिल खोल कर खर्च करने में अपनी शान समझी. इन से आप की आमद और खर्च बराबर होते रहे. बचत कुछ हुई नहीं. पैसे से पैसा नहीं बढ़ा.’’

‘‘हमारे देश में गरीबी होने की यह भी एक बड़ी वजह है कि हम दिखावों में अपनी गाढ़ी कमाई खर्च कर देते हैं. इसी कारण हम साहूकारों के हाथों लुटते रहते हैं. अमीर किसानों की देखादेखी गरीब किसानों व खेतिहर मजदूरों को भी अपना पेट काट कर और उधार ले कर ऐसे रीतिरिवाजों को निभाना पड़ता है. इसी वजह से हमारा दिखावा हमें बरबाद कर देता है.’’

‘‘तुम सच कहते हो रामसुख, अब मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ हरदेव ने सोचते हुए कहा.

हरदेव की आंखें तो खुलीं, पर खुलीं देर से. अब तक तो वह खेती की कमाई में रामसुख के बराबर था, पर अब वह पीछे रह जाएगा क्योंकि रामसुख ने अब तक की गई बचत के बल पर ट्रैक्टर खरीद लिया था.

 

अलीशेर : एक मुसलमान जो रामलीला में बनता था राम

मेला वाली बारी में रामलीला का मेला था. वह जगह बहुत साफसुथरी और हरीभरी थी. चारों तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़नुमा भीटे और लंबेलंबे खड़े पेड़ थे. बीच में एक सुंदर तालाब था. एक तरफ रामलीला वाली जगह थी, जहां रामलीला करने वाले लोग राम, लक्ष्मण, सीता और रावण आदि का स्वांग करते थे.

पहले गांव का हिसाब ही अलग था. राम का रोल कोई भी गोराचिट्टा लड़का अदा कर लेता था और सीता का रोल भी कोई कमसिन लड़का, जिसे दाढ़ीमूंछ न आई हो, अदा करता.

इस में हिंदू या मुसलमान होने के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता था. जो भी अच्छी तरह रामलीला का पाठ याद कर उस का सही स्वांग कर लेता, उसे वह रोल दे दिया जाता था. लोग इसे सिर्फ नाटक समझते थे और उसे नाटक की तरह करते थे.

हां, राम का रोल हमेशा अलीशेर अदा करते थे. समय के हिसाब से हर रोल आगेपीछे हो जाते थे या बदल दिए जाते थे, लेकिन अलीशेर को हमेशा रामलीला में राम बनाया जाता था, क्योंकि अलीशेर एक खूबसूरत जवान थे और उन्हें राम का पाठ जबानी याद था. जब सिर पर मुकुट लगाए वह स्टेज पर आते तो लोग मोहित हो जाते थे.

एक बार तो ऐसा भी हुआ कि राम और रावण दोनों का पाठ करने वाले मुसलमान ही थे, क्योंकि जिन लोगों को नौकरी मिल गई, वे शहर चले गए और गांव में एक मेहमान की तरह आने लगे.

लेकिन बाद में गांव का माहौल बदलने लगा. मुसलमानों का एक तबका रामलीला में मुसलिम नौजवानों व बच्चों के शामिल होने का विरोध करने लगा. मुल्लों ने फतवा जारी कर के इसे मजहब के खिलाफ बताया. फतवे में रामलीला में भाग लेना तो दूर इसे देखना भी गलत कहा गया.

इस फतवे का लोगों पर बुरा असर पड़ा. रात में रामलीला देखने वालों की संख्या कुछ कम हो गई. फिर भी रामलीला देखने के लिए मुसलमान बच्चे जाते रहे, लेकिन चोरीछिपे, खुलेआम नहीं.

अलीशेर के डीलडौल का गांव में कोई नौजवान नहीं था और उस पर वर्षों का अभ्यास, सारे पाठ जबानी याद. अत: जब भी राम का रोल उन्हें दिया गया, बिना रोकटोक के उन्होंने कर दिया. उन्होंने मुल्लेमौलवियों के फतवे की परवाह नहीं की और न उन्हें मुसलिम बिरादरी से बाहर कर दिए जाने का डर था. वे इसे गांव की इज्जत वाली बात मान कर एक कलाकार की तरह रामलीला में भाग लेते रहे.

वे हफ्ते में केवल जुमा की नमाज पढ़ते थे, वे भी आखिरी कतार में क्योंकि रामलीला के दिनों में वे मुसलमानों के बीच एक अच्छाखासा तमाशा बन जाते थे. कोईकोई तो उन्हें मसजिद में ही छेड़ देता, ‘‘अरे भाई रामचंद्रजी, आप यहां कैसे? रामचंद्रजी मुसलमान तो थे नहीं.’’ कोई दूसरा कहता, ‘‘अब तो इन्हें मंदिर में भी जगह नहीं मिलेगी…’’

वे चुपचाप किसी का जवाब दिए बगैर मसजिद से बाहर निकल जाते. उन्हें रामचंद्रजी का रोल एक खेल सा लगता और यह खेल वे गांव की इज्जत के लिए खेलते थे ताकि सारे इलाके में उन के गांव की धूम मच जाए.

कुछ दिनों के बाद हिंदुओं में एक नई पार्टी उभरी, जिस का नाम था ग्राम युवक संघ. उस ने सब से पहला काम यह किया कि अलीशेर को हमेशा के लिए रामलीला मंडली से बाहर निकाल दिया, क्योंकि वे मुसलमान थे और उन की जगह एक हिंदू को रखा गया.

अलीशेर तो कहीं के भी न रहे. मुसलमानों के बीच तो पहले ही मजाक विरोधी काम करने वाले के रूप में नफरत की निगाह से देखे जाते थे. अब बचे हिंदू, सो उन्होंने भी अलीशेर को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया. अब वे जाते भी तो किधर जाते. जहां जाते लोग उन का मजाक उड़ाते, ‘बेटा न राम के, न रहीम के… किधर जाओगे? बेहतर है, कलमा पढ़ कर दोबारा मुसलमान बन जाओ…’ या इसी तरह कुछ लोग कहते, ‘यार, तुम हिंदू हो जाओ. पहले भी तो तुम्हारे बापदादा हिंदू ही थे,’ अलीशेर इन तमाम बातों का जवाब केवल खामोशी से देते.

अलीशेर खानदानी जमींदार थे, लेकिन उन के चाचा के लड़कों ने चकबंदी में उन की अच्छी जमीन हथिया ली. बदले में उन्हें जो जमीन मिली, वह ऊसर थी. गरीबी की वजह से धीरेधीरे वह जमीन भी बिक गई.

अब उन्हें कोई सहारा नहीं था, इसलिए गांव में लोगों के गायबैल चराने लगे. इस के बदले उन्हें नाश्ता और खाना मिलने लगा. इस के अलावा वे गांव में फेरी भी लगाने लगे. वे कभी अमरूद, कभी कटहल और कभी गुड़ की ‘लकठो’ मिठाई बेचते.

गांव के बच्चों ने उन का नाम रखा था ‘राम मियां.’ बस वे इसी नाम से मशहूर हो गए. गांव के चाहे जिस छोर पर पूछिए, लोग बता देंगे. राम मियां के बाद महल्ले का नाम बताना जरूरी नहीं था.

जब उस दिन रामलीला का मेला लगा तो अलीशेर को बहुत बुरा लगा. कारण कि वह हिंदू लड़का जो राम बना था, लड़कियों जैसी आवाज में रामजी का संवाद बोलने लगा. खैर, अब तो वे बिलकुल इन चीजों से अलग हो चुके थे.

अलीशेर ने रामलीला मेले में तसवीरों की दुकान लगाने का निश्चय किया. कारण कि यदि तसवीर की कीमत 10 रुपए होगी, तो वह मेले में आसानी से 20 रुपए में बिक जाएगी.

बनारस जा कर अलीशेर ने बहुत सारी तसवीरें खरीदीं. राम की तसवीर, कृष्ण की तसवीर, गुरुनानक देव की तसवीर, दरगाह अजमेर शरीफ की तसवीर, मक्कामदीना की तसवीर और कुछ फिल्मी अभिनेताओं की तसवीरें. जब मेला आरंभ हुआ तो उस दुकान पर बच्चों की भीड़ लग गई. एकएक कर के सारी तसवीरें बिक गईं.

अलीशेर को अच्छा फायदा हुआ. बच्चे तो बच्चे होते हैं. उन्हें जो अच्छा लगा खरीद लिया. यदि अलीशेर से यह पूछा जाए कि कौन बच्चा कौन सी तसवीर ले गया, तो वे इस का जवाब नहीं दे सकते थे, क्योंकि भीड़ के आगे उन्हें अपनी तसवीरों को संभाल पाना भी मुश्किल हो गया था.

सूरज डूबने के बाद मेला उठने लगा. अलीशेर को दुकान से अच्छी आमदनी हुई. वह अपनी दुकान बंद कर के ज्यों ही नहर की पगडंडी पर पहुंचे, तो कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया, ‘‘अलीशेर मियां, आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ एक ने कहा.

‘‘तुम ने हमारे बच्चों को मक्कामदीना और अजमेर शरीफ की तसवीरें क्यों दीं? आखिर उन को इस से क्या लेनादेना. वे मुसलमान तो हैं नहीं,’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘अलीशेर भाई, आप ऐसे तो न थे. जरूर इस में किसी विदेशी देश का हाथ होगा. आप ही बताइए कि यदि आप के बच्चों को हम देवीदेवता की तसवीर दें, तो आप को कैसा लगेगा?’’ तीसरे ने कहा.

और इस के बाद कुछ लोगों का मुंह उन की तरफ चिल्लाते हुए दौड़ा, ‘मारोमारो…’ और फिर अलीशेर के ऊपर लाठियों का बरसना तब तक जारी रहा, जब तक वे मर नहीं गए. अलीशेर को अपनी सफाई में कुछ कहने का भी मौका नहीं दिया गया.

पुलिस की जांचपड़ताल के दौरान गांव के लोगों ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया. जिस गांव ने 10 साल तक अलीशेर को रामलीला में राम का पाठ करते हुए देखा था, उस दिन उस गांव का एक बच्चा भी उन्हें पहचान न सका. हां, एक पास के गांव का बच्चा, जो उस समय भी उन से खरीदी हुई तसवीर लिए उन्हें घूर रहा था, पुलिस के सामने आया और बोला, ‘‘मैं इन का नाम जानता हूं. इन का नाम है, राम मियां. सारे बच्चे इन्हें इसी नाम से पुकारते हैं.’’

बच्चे की बात सुनते ही पुलिस वाले को क्रोध आया और उस ने बच्चे को एक भद्दी सी गाली दी और कहा, ‘‘राम कब से मियां हो गए?’’

जो मरा उस का नाम एक सच था, जिस बच्चे ने उस का नाम बताया, वह भी एक सच था और पुलिस वाला, जिसे क्रोध आया, वह भी एक सत्य था. सबकुछ सच होते हुए भी एक आदमी की लाश लावारिस पड़ी थी, दूरदूर तक अजीब सी हवा बह रही थी.

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