जंजाल – भाग 3: मां की आशिकी ले डूबी बेटी को

‘‘ठीक है. ये लो 25,000 रुपए. पीछे के दरवाजे से बाहर चले जाओ,’’ आंटी ने हुक्म दिया.

रवि ने रुपए संभाल कर रख लिए. वह चुपचाप कोठे से बाहर निकल गया.

सोनम कमरे में अकेली बैठी थी. आंटी ने उसे नमकीन और चाय दी.

‘‘रवि को भी बुलाइए. वह कहां है?’’ सोनम ने कहा.

‘‘रवि थोड़ी देर में आएगा, तब तक तुम नाश्ता करो. मैं ने उसे दुकान से पान लाने भेजा है,’’ आंटी ने चतुराई से कहा.

सोनम ने अनमने ढंग से नमकीन खा कर चाय पी ली थी.

2 घंटे बीत गए, लेकिन रवि नहीं आया. सोनम अब घबराने लगी. तभी आंटी कमरे में आई.

‘‘रवि अभी तक नहीं आया. वह कहां है?’’ सोनम ने पूछा.

‘‘अब वह नहीं आएगा. तुझे बेच कर चला गया,’’ आंटी ने बेदर्दी से कहा.

सोनम आंटी की बात सुन कर हैरान रह गई. रवि इतना बड़ा धोखेबाज निकला. बेबसी में उस की आंखों में आंसू छलक आए.

‘‘अब रोने से कुछ नहीं होगा. कोठे पर ग्राहकों को खुश करना होगा,’’ आंटी ने आंखें तरेर कर कहा.

‘‘मोहिनी, अंजू, डौली यहां आना तो,’’ आंटी ने आवाज लगाई.

आंटी के अगलबगल आ कर कई लड़कियां खड़ी हो गईं.

‘‘यह सोनम है. कोठे पर नई आई है. कोठे के सारे कायदे इसे समझा दो,’’ कह कर आंटी कमरे से बाहर चली गई.

लड़कियां ग्राहकों को खुश करने के गुर सोनम को सिखाने लगीं. वे सोनम को कोठे की जरूरी पाठ पढ़ा कर अपने धंधे में लग गईं.

सोनम कमरे में डरीसहमी बुत

सी बैठी थी. वह किसी चिडि़या की तरह पिंजरे में कैद थी. आंटी के

खौफ से कोठे की लड़कियां डरीसहमी रहती थीं.

आंटी ने सोनम पर निगरानी रखी हुई थी. खिड़की के पास आंटी खड़ी थी. तभी कोठे पर एक ग्राहक आया था. आंटी सोनम को दिखा कर ग्राहक को बताने लगी, ‘‘यह लड़की आज ही कोठे पर आई है. बड़ी कमसिन है. छुईमुई है बाबू. छूने पर मुरझा जाएगी.’’

ग्राहक ने सोनम को ऊपर से नीचे तक देखा. उस की कामुक नजर से सोनम घबरा गई. उसे लगा कि वह कोठे के पिंजरे को तोड़ कर कहीं भाग जाए, पर वह बेबस थी.

ग्राहक ने रुपए आंटी को दे दिए. सोनम के साथ रात बिताने को अब वह तैयार था.

‘‘इस के साथ उस कमरे में चली जाओ,’’ आंटी ने सोनम की तरफ इशारा कर के कहा.

ग्राहक सोनम का हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए कमरे में ले गया. आंटी रुपए गिनते हुए अपने कमरे में चली गई.

ग्राहक ने सोनम से कहा, ‘‘कपड़े उतार दो.’’

सोनम ने धीमे से कहा, ‘‘धीरज रखो, मैं बाथरूम से 2 मिनट में आती हूं. उस के बाद कपड़े उतारूंगी.’’

ग्राहक उस की बात मान गया.

सोनम का दिमाग बड़ी तेजी से काम कर रहा था. उस ने बाहर निकल कर कमरे की सिटकनी धीरे से बंद कर दी. इधरउधर ताक कर वह दबे पैर कोठे से बाहर निकल गई. बाहर 2-3 शोहदे बैठे थे. शोहदों के सामने से निकलना आसान नहीं था.

सोनम शोहदों से छिपते हुए कोठे के पिछवाड़े चली गई. वहां घना अंधेरा

था. अंधेरे में वह कोठे की चारदीवारी फांद गई.

अब सोनम सड़क पर थी. वह बेतहाशा भागने लगी. वह रास्ते से तो अनजान थी, लेकिन कोठे से दूर निकल जाना चाहती थी. उसे डर था कि कहीं आंटी के पाले हुए गुंडे उसे दबोच न ले.

सोनम सुनसान सड़क पर भागी जा रही थी. कुछ दूर जाने पर उसे एक चौराहा मिला. चौराहे पर स्ट्रीट लाइट की भरपूर रोशनी थी.

सोनम बस का इंतजार करने लगी. तभी एक बस आ कर रुकी.

‘‘यह बस कहां जा रही है?’’ सोनम ने कंडक्टर से पूछा.

‘‘बस पटना जाएगी. चलना है क्या?’’ कंडक्टर ने पूछा.

‘‘हां, मुझे जाना है,’’ कह कर सोनम बस में चढ़ गई और एक खाली सीट पर बैठ गई.

बस में सोनम सुकून महसूस कर रही थी. उस ने दहशत के माहौल को बहुत पीछे छोड़ दिया था.

सोनम जब कुछ देर तक कमरे में नहीं आई, तब ग्राहक दरवाजा पीटने लगा. आवाज सुन कर आंटी दौड़ी आई. उस ने झटपट कमरे की सिटकनी

खोल दी.

‘‘सोनम कहां है?’’ आंटी ने ग्राहक से पूछा.

‘‘बाथरूम जाने का बहाना कर वह भाग गई,’’ ग्राहक ने कहा.

यह सुन कर आंटी के पसीने छूट गए. जाल में फंसी चिडि़या उड़ गई थी.

‘‘असलम, गौतम, रमेश…’’ आंटी ने जोर से चिल्ला कर शोहदों को पुकारा. शोहदे आंटी की आवाज सुन कर

दौड़े आए.

‘‘जो नई लड़की आई थी, वह कोठे से भाग गई है. पकड़ कर लाओ उसे. मैं उस की खाल उधेड़ दूंगी,’’ आंटी गुस्से में बोली.

शोहदे सड़कों पर इधरउधर खाक छानते रहे, लेकिन सोनम नहीं मिली.

शोहदे सिर झुकाए आंटी के पास खड़े थे.

‘‘सब जगह देखा. वह लड़की नहीं मिली, ‘‘एक ने कहा.

आंटी ने यह सुन कर अपना सिर पीट लिया.

रात के 11 बज रहे थे. पटना के बसअड्डे पर आ कर बस रुक गई थी. सोनम रिकशे से अपनी गली के नुक्कड़ पर उतर गई.

आसपास के घरों की बत्तियां बुझी हुई थीं. लोग सो गए थे. गली में अंधेरा था. वह तेज कदमों से घर तक पहुंच गई.

सोनम ने अपने घर का दरवाजा खटखटाया. आवाज सुन कर उस की मां जाग गई.

‘‘कौन है इतनी रात को?’’ मां ने डर कर पूछा.

‘‘मैं सोनम हूं मां. दरवाजा खोलो.’’

मां ने दरवाजा खोल दिया, तब तक उस के बापू भी जाग गए थे.

सोनम मां से लिपट कर रोने लगी, ‘‘मां, मुझे माफ कर दो.’’

‘‘कहां चली गई थी इतने दिन?’’ मां ने पूछा.

‘‘रवि ने मुझ से शादी करने का नाटक किया. धोखे से कोठे पर ले जा कर मुझे बेच दिया. किसी तरह कोठे से जान बचा कर भाग आई,’’ सोनम सुबकने लगी.

‘‘रवि कहां रहता है? मैं उसे छोड़ूंगा नहीं,’’ बापू ने कड़क कर कहा.

‘‘वह गंगा किनारे की झोंपड़पट्टी में रहता है. गैराज में गाड़ी साफ करने का काम करता है,’’ सोनम ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं उसे देखता हूं,’’ बापू ने गुस्से में कहा. सोनम अपनी मां के पास सो गई.

सुबह हुई. केशव और सुहागी के लिए यह सुबह खुशियां लाई थी. उन की लापता बेटी घर लौट आई थी.

अगले दिन सोनम स्कूल गई. मां उसे स्कूल तक छोड़ने गई. अब वह काम पर से लौटती, तब स्कूल से सोनम को साथ ले कर घर आती.

केशव कुछ दिनों तक मजदूरी करने नहीं गया. वह झोंपड़पट्टी के इलाके में जा कर रवि पर नजर रखता था. एक दिन केशव को थाने में जाते देखा गया. किसी को नहीं मालूम कि उस ने थाने में क्या कहा.

शाम में सोनम और उस की मां बैठे हुए थे. उसी समय केशव घर में आया. आते ही उस ने खुशखबरी सुनाई, ‘‘रवि को पुलिस पकड़ कर ले गई है. चोरी की मोटरसाइकिल खरीदने और बेचने के जुर्म में पुलिस ने उसे जेल भेज

दिया है.’’

यह सुन कर सोनम मारे खुशी के मां से लिपट गई, ‘‘रवि को सजा मिल गई मां. आज मुझे बड़ी खुशी मिली है.’’

केशव को अनूठी मजदूरी मिली थी. वह बेहद खुश था. सुहागी के दिल का डर खत्म हो गया था. सोनम अब बेफिक्र हो कर स्कूल जा सकेगी.

दूसरे दिन सुहागी महेश के घर काम करने गई थी. जब उस का काम खत्म हो गया, तब वह घर जाने लगी. तभी महेश ने सुहागी का हाथ पकड़ लिया. अपनी ओर खींचते हुए महेश ने सुहागी को चूमना चाहा, लेकिन सुहागी ने उस की पकड़ से खुद को छुड़ा लिया.

‘‘नहीं साहब, अब और नहीं.’’

‘‘क्यों…? ये 1,000 रुपए हैं. रख लो,’’ महेश साहब ने रुपए दिखाते हुए कहा.

‘‘साहब, ये रुपए मुझे नहीं चाहिए. महीने की पगार से मेरा काम चल जाता है,’’ सुहागी यह कह कर दरवाजे से बाहर निकल गई.

 

बींझा- भाग 3 : सोरठ का अमर प्रेम

इसी तरह 6 महीने गुजर गए. राव खंगार ने सोरठ के प्यार में डूब कर राजकाज का सारा काम छोड़ दिया. राज्य व्यवस्था बिगडऩे लगी. आखिर उस की खुमारी टूटी तो उस ने सोरठ से कहा, ‘‘तुझे छोड़ कर जाने का मन तो नहीं करता, लेकिन मजबूर हूं, राज्य का काम तो संभालना ही पड़ेगा. मेरे आने तक तेरा दिल कैसे बहलेगा?’’

“आप ऊदा ढोली को हुकुम देते जाओ, दिनरात मेरे महल के नीचे बैठा रहे, मुझे गाना सुनाए.’’ सोरठ ने कहा. राव खंगार देश भ्रमण के लिए रवाना हो गया. एक दिन सोरठ अपने महल में बैठी सिर गुंथवा रही थी, नीचे ऊदा ढोली मांड राग में विरह का गीत ‘ओलू घणी आवै…’ गा रहा था. सोरठ ने झरोखे से देखा, उसे चौक में बींझा नजर आया. इतने में ऊदा

ढोली ने दोहा गाया, ‘जिन सांचे सोरठ घड़ी, घडिय़ो राव खडग़ार. वो सांचो तो गल गई, लद ही गई लुहार. (जिस सांचे में सोरठ जैसी स्त्री और राव खंगार जैसा आदमी गढ़ा, वह सांचा ही गल गया और उस सांचे को बनाने वाला लुहार ही मर गया.)

दोहा सुनते ही सोरठ के आग लग गई. ‘कहां तो जवानी से भरपूर सुघड़ बींझा और कहां आधा बूढ़ा राव खंगार. मेरी जोड़ी का तो बींझा है, राव खंगार नहीं.’ सोरठ ने बींझा को बुलावा भेजा, बींझा हिचकिचाया. सोरठ ने दूसरा बुलावा भेजा. तब बींझा सोरठ के महलों में आया. सोरठ ने कहा, ‘‘बींझा, तेरे विरह की वेदना मुझ से अब सही नहीं जा रही है. तू नित्य मेरे महल में आयाजाया कर.’’

उस ने बींझा से अपने मन की दशा बताई, ‘‘राव खंगार ने मुझे अपने महल में रख रखा है. वह मेरे शरीर का मालिक हो सकता है, मेरे दिल का नहीं. शरीर का मालिक मन का मालिक नहीं होता. हकीकत यह है कि मन का मालिक ही सब का स्वामी होता है.’’

यह सुन कर बींझा को लगा कि जैसे आकाश में अमृत की वर्षा हो रही है, धन्य हो कर बींझा ने सोरठ का हाथ अपने हाथ में ले लिया. सोरठ ने कहा, ‘‘हाथ तो पकड़ रहे हो, उम्र भर प्रीत निभा पाओगे?’ भस्म हो कर बींझा की राख में मिल गई सोरठ

बींझा ने भी सूरज को साक्षी बनाते हुए प्रीत निभाने का वचन दिया. सोरठ और बींझा तो एकदूसरे से ऐसे मिल गए, जैसे फूल और सुगंध. “सोरठ, तुझ में अनेक गुण हैं, लेकिन एक बड़ा भारी अवगुण भी है. जिस पुरुष के मन में तू बस जाती है, उस के शरीर पर रक्त और मांस नहीं चढ़ता, वह तेरे विरह में सूखता ही जाता है.’’ बींझा ने कहा. सोरठ ने यह सुनते ही नाक चढ़ाई तो बींझा ने फिर कहा, ‘‘मुझे चाहे मारो या जिंदा रखो, आप मालिक हो, आप की मरजी.’’

राव खंगार अब क्या करता भला? उसे एक तरकीब सूझी. बींझा को देश निकाला दे देना चाहिए. दूसरे ही दिन बींझा को काली पोशाक पहना कर और काले घोड़े पर बैठा कर देश निकाला दे दिया. सिपाहियों को हुकुम दिया कि उसे गिरनार की सीमा पार निकाल कर आओ.

सोरठ अपने महल के झरोखे में खड़ी बींझा को जाते अपलक देखती रही. उस के वियोग में सोरठ ने खानापीना छोड़ दिया. सिर में तेल लगाए महीनों बीत गए. नाइन उबटन करने आती तो उसे उलटे पांव लौटा देती. माली हारगजरे लाए तो उन्हें कमरे के कोने में फिंकवा देती. सुगंधित इत्र की शीशियां भिजवाई जातीं तो उन्हें फोड़वा देती. तंबोलन पान ले कर आए तो उन्हें बंटवा देती.

उस के मुंह पर सावन की घटा जैसी उदासी छाई रही, आंखों से सावनभादों जैसी आंसुओं की झड़ी लगी रहती. आखिर उस से रहा नहीं गया. ऊदा ढोली को बुला कर बींझा को संदेश भेजा. ऊदा ने जा कर बींझा के सामने दोहा गाया, ‘‘सोरठ नागण को रही, ज्यू छेड़े ज्यू खाय. आजा बड़ा गारनड़ी, ले जा कंठ लगाय (तेरे प्रेम में उन्मत सोरठ नागिन हो रही है. जो छेड़ता है, उसे डस रही है. बींझारूपी गरुड़ अपनी नागिन को कंठ से लगा कर ले जाए).

यह दोहा सुनते ही बींझा पागल हो गया. उसे भलीबुरी ठीकगलत कुछ नहीं सूझी. सीधा सिंध के नवाब के पास पहुंचा. बींझा ने नवाब से सारी बातें कह सुनाईं. नवाब उसी समय बींझा की मदद को तैयार हो गया. सिंध के नवाब ने गढ़ गिरनार को जा घेरा. घमासान युद्ध हुआ. नवाब की ओर से बींझा बहुत बहादुरी से लड़ा. राव खंगार की हार हुई. बींझा सोरठ को लेने उस के महल पहुंचा, लेकिन नवाब ने पहले ही सोरठ को अपने कब्जे में कर लिया था. उस ने

बींझा को उसे देने से इनकार कर दिया. बींझा निराश हो कर पागल सा हो गया. सोरठ के महल की दीवारों से सिर पटकपटक कर मरणासन्न हो कर गिर पड़ा. नवाब ने सोरठ को बहुत लालच दिया. उसे डराया- धमकाया, लेकिन बींझा के प्रेम पर उसे अटल देख नवाब ने उस के सामने सिर झुका दिया.

नवाब ने सोरठ से पूछा, ‘‘बोल, तू कहां जाना चाहती है राव खंगार के पास, अपने बाप चंपा कुम्हार के पास या रूढ़ बनजारे के पास?’’ सोरठ ने रोते हुए कहा, ‘‘कहीं नहीं. जहां बींझा है, मुझे भी वहीं भेज दो आप की बड़ी मेहरबानी होगी.’’ सुन कर नवाब बोला, ‘‘बींझा तो तुम्हारी याद में पागल हो कर सिर दीवारों से पटक कर मर चुका है. उस का तो अंतिम

क्रियाकर्म भी कब का हो गया. अब भी बींझा के पास जाना चाहोगी?’ “हां, मुझे उसी जगह पर ले जा कर छोड़ दो, जहां पर बींझा को जलाया गया.’नवाब ने सोरठ को छोड़ दिया. वह उस जगह पर पहुंची और सूर्य के सामने खड़ी हो कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘हे सूर्य, तू सर्वव्यापी है, तेरे से कोई चीज छिपी हुई नहीं है. मैं ने बींझा से मन, वचन और कर्म से प्रेम किया है. अगर तू मुझे शुद्ध और

सती मानता है तो तू अग्नि प्रकट कर के मुझे अपने बींझा के पास पहुंचा दे.’’ कहते हैं कि उसी वक्त सूरज की किरणों से अग्नि प्रज्जवलित हुई, बींझा की भस्म के साथ सोरठ भी भस्म में मिल गई. ऊदा ढोली जब तक जिंदा रहा, गांवगांव में घूम कर सोरठ-बींझा के गीत गाए और उन के प्यार की कहानी को अमर कर दिया. राजस्थान में ढोली लोग आज भी बींझा-सोरठ के दोहे अकसर सुनाते हैं. दोहे व प्रेम कहानी सुन कर ऐसा लगता है जैसे यह कल की ही कहानी है.

डायन – भाग 3 : बांझ मनसुखिया पर बरपा कहर

शादी के 5 साल बाद भी मनसुखिया की कोख खाली थी. इसी बीच सांप के काटने से उस के पति हजारू की मौत हो गई. गांव वालों और एक बाबा ने मनसुखिया को डायन बता कर उस के साथ बदसुलूकी की. इस के बाद मनसुखिया एक ट्रेन में बैठ गई. आगे क्या हुआ…?

‘‘अस्पताल में भरती होने की दूसरी रात अचानक उस की तबीयत नाजुक हो गई थी. तब वह बड़बड़ा रही थी. उस समय मैं वहीं था. वह बोल रही थी, ‘लड्डुइया बाबा तुझे छोड़ेंगे नहीं… तू ने मेरे पति हजारू की हत्या की है… मुझे विधवा बनाया है… तेरा पाखंड ज्यादा समय तक नहीं चलने वाला… मैं तुझे जेल भिजवा कर दम लूंगी…’’’

यह सुन कर रेशमा और फूलो की आंखें भर आईं.

तब डाक्टर शिव मांझी ने कहा, ‘‘इस के साथ बहुत गलत हुआ है. मैं ने डायन उन्मूलन संस्था की अध्यक्ष ममता सोलंकी, संगम विहार के थाना प्रभारी राजेश कुमार और मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष सुमनजी को फोन कर दिया है. उन के आने के बाद कोर्ट में सोना का बयान दर्ज होगा.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा कदम है सर,’’ रेशमा ने कहा.

तभी मानवाधिकार आयोग, प्रशासनिक टीम समेत दूसरे पदाधिकारी भी वहां पहुंच गए. सोना से पूछताछ कर उस का वीडियो बनाया गया.

इसी बीच डाक्टर शिव मांझी ने अपने टेबल की दराज से एक छोटा

सा बैग निकाला. उसे खोल कर दिखाया और बोले, ‘‘देखिए सर, ये टूटेफूटे मंगलसूत्र, नथ, चूडि़यां, पाजेब पीडि़ता सोना के हैं. ये हैं उस की इंजरी के कागजात और खून से सना पेटीकोट, साड़ी, ब्लाउज वगैरह दूसरा सामान.’’

‘‘ओके डाक्टर साहब,’’ थाना प्रभारी राजेश कुमार ने कहा.

पुलिस ने पीडि़ता की सभी चीजों को जब्त कर लिया. साथ ही, फूलो के साथ सोना को ले कर अदालत चली गई, ताकि अदालत के सामने उसे पेश किया जा सके.

प्रशासनिक टीम के जाने के बाद सोना को ले कर रेशमा गहरी सोच में डूब गई, तभी डाक्टर शिव मांझी ने उस से कहा, ‘‘चिंता मत करो, जो होगा सब अच्छा होगा.’’

एक नदी पथभ्रष्टा- भाग 3 : अनजान डगर पर मानसी

शुभा चुपचाप मानसी के भीतर जमे हिमखंड को पिघलते देखती रही. मानसी फिर खोएखोए स्वर में बोलने लगी, ‘‘मैं यही तो नहीं जानती कि पत्थर की मूर्ति में भगवान बसते हैं या नहीं. अम्मा का बेजान मूर्ति के प्रति दृढ़ विश्वास और आस्था मेरे भी मन में जड़ जमाए बैठी थी. मोहित को समर्पित होते समय भी मेरे मन में किसी छलफरेब की कोई आशंका नहीं थी. अम्मा तो पत्थर को पूजती थीं, किंतु मैं ने तो एक जीतेजागते इंसान को देवता मान कर पूजा था. फिर समझ में नहीं आता कि कहां क्या कमी रह गई, जो जीताजागता इंसान पत्थर निकल गया.’’ यह कह कर वह सूनीसूनी आंखों से शून्य में ताकती बैठी रही.

शुभा कुछ देर तक उस का पथराया चेहरा देखती चुप बैठी रही. फिर कोमलता से उस के हाथों को अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘तो क्या मोहित धोखेबाज…’’

‘‘नहीं. उसे मैं धोखेबाज नहीं कहूंगी,’’ फिर होंठों पर व्यंग्य की मुसकान भर कर बोली, ‘‘वह तो शायद प्रेम की तलाश में अभी भी भटकता फिर रहा होगा. यह और बात है कि इस कलियुग में ऐसी कोई सती सावित्री उसे नहीं मिल पाएगी, जो पुजारिन बनी उसे पूजती हुई जोगन का बाना पहन कर उस के थोथे अहं को तृप्त करती रहे. बस, यही नहीं कर पाई मैं. अपना सबकुछ समर्पित करने के बदले में उस ने भी मुझ से एक प्रश्न ही तो पूछा था, मात्र एक प्रश्न, जिस का जवाब मैं तो क्या दुनिया की कोई नारी किसी पुरुष को नहीं दे पाई है. मैं भी नहीं दे पाई,’’ मानसी की आंखें फिर छलक आईं, जैसे बीता हुआ कल फिर उस के सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘जाने दे मानू, जो तेरे योग्य ही नहीं था, उस के खोने का दुख क्यों?’’ शुभा ने उसे सांत्वना देने के लिए कहा. लेकिन मानसी अपने में ही खोई बोलती रही, ‘‘आज भी मेरे कानों में उस का वह प्रश्न गूंज रहा है, मैं यह कैसे मान लूं कि जो लड़की विवाह से पहले ही एक परपुरुष के साथ इस हद तक जा सकती है, वह किसी और के साथ…’’

‘‘छि:,’’ शुभा घृणा से सिहर उठी.

उस के चेहरे पर उतर आई घृणा को देख कर मानसी हंस पड़ी, ‘‘तू घृणा तो कर सकती है, शुभी, मैं तो यह भी नहीं कर सकी थी. आज सोचती हूं तो तरस ही आता है खुद पर. जिसे मैं देवता मान रही थी, वह तो एक मानव भी नहीं था. और हम मूर्ख औरतें… क्या है हमारा अस्तित्व? हमारे ही त्याग और समर्पण से विजेता बना यह पुरुष हमारी कोमल भावनाओं को कुचलने के लिए, बस, एक उंगली उठाता है और हम औरतों का अस्तित्व कुम्हड़े की बत्तिया जैसे नगण्य हो जाता है.’’ आवेश से मानसी का चेहरा तमतमा उठा.

अपने गुस्से को पीती हुई मानसी आगे बोली, ‘‘जानती है शुभा, उस दिन उस के प्रश्न के धधकते अग्निकुंड में मैं ने अपना अतीत होम कर दिया था और साथ ही भस्म कर डाला था अपने मन में पलता प्रेम और निष्ठा. पुरुष जाति के प्रति उपजी घृणा, संदेह और विद्वेष का बीज मेरे मन में जड़ जमा कर बैठ गया.’’

‘‘तो फिर यह नित नए पुरुषों के साथ…’’ शुभा हिचकिचाती हुई पूछ बैठी.

‘‘यह भी मैं ने मोहित से ही सीखा था. शुरूशुरू में मैं जब हिचकती या झिझकती तो वह यही कहता था, ‘इस में इतनी शरम या झिझक की क्या बात है. जैसे भूख लगने पर खाना खाते हैं, वैसे ही देह की भूख मिटाना भी एक सहज धर्म है,’ सो उस के दिखाए रास्ते पर चलती हुई उसी धर्म का पालन कर रही हूं मैं,’’ रोती हुई मानसी कांपते स्वर में बोली, ‘‘जब भूख लगती है, ठहर कर उसे शांत कर लेती हूं, फिर आगे बढ़ जाती हूं.’’

शुभा के चेहरे पर नफरत के भाव को भांप कर मानसी पलभर चुप रही, फिर ठंडी सांस छोड़ती हुई बोली, ‘‘निष्ठा और प्रेम के कगारों से हीन मैं वह पथभ्रष्टा नदी हूं, जो एक भगीरथ की तलाश में मारीमारी फिर रही है. मैं ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है, फिर भी सोचती हूं कि इस अस्तित्वहीन हो चुकी नदी को उबारने के लिए कोई भगीरथ कहां से आएगा?’’

देर तक दोनों सखियां गुमसुम  अपनेअपने खयालों में खोई रहीं. फिर सहसा जैसे कुछ याद आ गया. मानसी एकदम से उठ खड़ी हुई, ‘‘अच्छा, चलती हूं.’’

‘‘कहां?’’ शुभा एकदम चौंक सी पड़ी.

अपने होंठों पर वही सम्मोहक हंसी छलकाती हुई मानसी इठलाते स्वर में बोली, ‘‘किसी भगीरथ की तलाश में.’’

उस के स्वर में छिपी पीड़ा शुभा को गहरे तक खरोंच गई. तेज डग भरती मानसी को देखती शुभा ने मन ही मन कामना की, ‘सुखद हो इस पथभ्रष्टा नदी की एकाकी यात्रा का अंत.’

 

संस्कारी बहू – भाग 3 : रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा की अय्याशी

यह याचिका शाम 6 बजे हाईकोर्ट के एक जज के पास पहुंची. साथ में वीडियो भी थे. जज उदार और सख्त थे. उन्होंने तुरंत और्डर टाइप कराया और जिला जज, जिला मजिस्ट्रेट और एसपी के साथ छापा मारने का हुक्म दिया.

तकरीबन 500 पुलिस वालों ने आश्रम घेर लिया. सेवादार भाग भी नहीं सके थे, क्योंकि पूर्णिमा की साथियों ने सारे कपड़े उठा कर नाले में फेंक दिए थे.

पूर्णिमा के परिवार के गायब होने की खोज पहले से चल रही थी. गुरुजी को पुख्ता सुबूतों के साथ पकड़ लिया गया. उस के बाद पूर्णिमा कहां गई किसी को पता नहीं लगा, पर उस की 4 साथियों ने मुकदमा लड़ा और गुरुजी को आजीवन कारावास की सजा मिली.

आश्रम से मिले कंकालों की गितनी इतनी थी कि डीएनए टैस्ट करने वालों को महीनों लगे.

उम्रकैद के दौरान रघुवीर गुरुजी की मौत हो गई, लेकिन पूर्णिमा कोढ़ की बीमारी से पीडि़त होने के बरसों बाद बस्ती में लौट आई. यह कोढ़ उसे एक सेवादार से लगा था. पूर्णिमा को अपने पर गर्व था, पर शायद ही कोई जानता था कि रघुवीर को जेल उसी ने पहुंचाया था.

उस पागल औरत ने धीधीरे मुझे यह सारी कहानी सुनाई थी, क्योंकि मैं रोज उसे खाना देने लगी थी, जबकि गांव वालों को भी बुरा लगता था और रघुवीर गुरुजी के उजड़े आश्रम के एक कोने को दबोचे था वह पंडितनुमा जना जो मुझे रोक रहा था.

पूर्णिमा ने बताया कि उस लड़के को 10 साल की उम्र में कहीं से पकड़ कर लाया गया था. पर वह सालों ड्रग्स लेने के चलते बहुत सी बातों को आज भी याद नहीं कर पा रहा.

एक सांकल सौ दरवाजे- भाग 3: क्या हेमांगी को मिला पति का मान

‘कहीं तुम्हारी पढ़ाई की फीस पर रोक लगाई तो?’ ममा चिंतित थी.

‘इतना भी न डरो. नानाजी का दिया 10 लाख रुपए तुम्हारे और मेरे नाम से जौइंट अकाउंट में है न ममा.’

‘हां, बस. अब डर की नहीं, हिम्मत की बात करूंगी,’ ममा की आंखों में विश्वास की ज्योति दिख रही थी मुझे.

जब उपयोगी शिक्षा हो, चाह हो, चेष्टा हो, प्रकृति की शक्ति साथ हो लेती है.

ममा को उस के दोस्त पल्लव ने अपने ही कालेज में इकोनौमिक्स के लैक्चरर के लिए बुला लिया.

रातोंरात ममा ने पैकिंग की, हमें खूब प्यार किया और भोपाल के लिए ट्रेन पकड़ने खंडवा स्टेशन जाने से पहले शायद आखरी बार के लिए पापा के पास गई.

घर में होते, तो पापा को इंटरनैट का एक ही प्रयोग आता था- चैटिंग और पोर्न फिल्मों का आदानप्रदान.

ममा के सामने खड़े होने के बावजूद उन्होंने फोन में अतिव्यस्तता दिखाते हुए लापरवाही से कहा, ‘कहो?’

सोचा ही नहीं था ममा कहेगी. लेकिन उस ने कहा, ‘मैं ने नौकरी ढूंढ ली है. इकोनौमिक्स में लैक्चरर का पद है. बाहर जाना है. अगर आप चाहें तो छुट्टी मिलने पर आ जाया करूंगी.’

पापा फोन छोड़ उठ बैठे थे, ‘मेरी नाक के नीचे यह क्या हो रहा है?’

‘यह नाक के ऊपर की बात है. आप नहीं समझेंगे. आप ने जितना समझा, या नहीं भी समझा, काफी है. आप ने जो इज्जत और प्यार दिया उस के तो क्या ही कहने. अब नौकरी करना ही आखरी विकल्प है.’

‘ऐसा? तुम कभी लौट कर आ नहीं पाओगी, समझ रही हो न? बच्चों से मिलना तो आसमानी ख्वाब ही समझ लो.’ शायद पापा को गुलामी करवाना पसंद था, इसलिए एक गुलाम को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते थे, पूरी ठसक के साथ.

‘सब जानती हूं. आप को समझना बाकी नहीं रहा.’

‘कहां चली? जगह कौन सी है?’

खोजखबर रखने की मंशा साफ झलक रही थी. हम दोनों मांबेटी पापा की रगरग पहचानते थे.

‘क्यों, क्या करेंगे जान कर जब कोई मतलब रखना ही नहीं है,’

‘घटिया स्वार्थी औरत, तुम्हें अपने बच्चों की भी फिक्र नहीं.’

‘क्यों? बच्चे अपने पापा के पास हैं, अपने दादा के घर में, जिन पर उन का भी पूरा हक है. आप कहना क्या चाहते हैं कि मेरे जाते ही आप उन पर अत्याचार करेंगे? उन्हें खाना नहीं देंगे? उन की पढ़ाई की फीस नहीं भरेंगे? पलपल पर नजर रखूंगी मैं. उन्हें जरा भी तकलीफ़ हुई, तो आप की भली प्रकार खबर लूंगी.’

पापा क्रोध से लाल हो गए थे. अब तक उन की जूती में दबी पत्नी उन की तौहीन कर रही थी और वे चाह कर भी अपना राक्षसी रूप नहीं दिखा पा रहे थे. खूंखार आदमी तब डराता है जब सामने वाला डरने के लिए तैयार हो या मजबूरी में बंधा हो.

हम भाईबहनों को आज पहली बार अपनी इज्जत वापस मिली महसूस हो रही थी.

ममा निकल गई.

भोपाल जा कर ममा अच्छी तरह व्यवस्थित हो गई थी. पल्लव जी ने ममा को कालेज होस्टल में ही रहने का इंतजाम कर दिया था.

ममा रोज रात को हमारी खबर लेती, वीडियो कौल करती. उस ने अपने कालेज और होस्टल का पता दे दिया था और हम हमारी परीक्षाएं समाप्त होने तक दोगुनी गति से पढ़ाई कर रहे थे.

पापा अपनी ही रौ में थे. वही, ममा को ले कर हमें खिझाना, व्यंग्य कसना, घर में कई तरह की औरतों को ला कर मौजमस्ती करना, देररात घर आना. यह अध्याय हमारे लिए बहुत दुखदाई था. बेसब्री से अपनी परीक्षाएं ख़त्म होने का हम इंतजार कर रहे थे.

आखिर इंतजार ख़त्म हुआ. अगर इस बारे में हम पापा से बात करते तो वे हम से ऐसी सख्ती करते कि शायद दोनों भाईबहन ही अलग कर दिए जाते. बिना मुरव्वत के हमारे साथ कुछ भी हो सकता था अगर उन्हें हमारी मंशा पता चलती.

तो, पापा के औफिस जाते ही हम भोपाल की उपलब्ध ट्रेन में बैठ गए. इस के लिए हमें बड़ी जुगत लगानी पड़ी. हम ने अपने साथ वे सामान रख लिए थे जिन से इस घर में जल्द वापस आए बिना हमारा काम चल जाए. ममा को हम ने इत्तला कर दिया था.

शाम 5 बजे हम ममा के होस्टल के दरवाजे पर थे. पर यहां, यह क्या, दरवाजे पर बड़ा सा ताला? नसों में हमारा खून जम सा गया. भाई घबरा गया था. उस की रोनी सूरत देख मेरा भी दिल बैठ गया. हम तो पापा को बिना बताए आ गए थे. कहीं ममा नहीं मिली तो? इतने बड़े शहर में हम दोनों रात कैसे बिताएंगे? फिर पापा के पास वापस जाना… मैं ने ममा को फोन लगाया. दो बार, तीन बार… लगातार बजती रही घंटी. शाम का डूबता सा सूरज हमें डराने लगा. भाई और हम एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे. दिमाग को डर के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था.

अचानक सामने से एक लड़की को आते देखा. होगी कोई 16-17 साल की.

रेगिस्तान में जैसे जल का सोता. काश, इसे ही कुछ मालूम हो. पर ऐसा क्यों होगा भला. दुखी और निराश मन से हम उस लड़की को देख रहे थे और वह हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.

‘मुझे आप की मां ने भेजा है. उधर औटो खड़ा है, आप लोग मेरे साथ चलिए.’

हमारे हाथों में चांदतारे आ गए थे.

मैं ने फिर भी उस से कुछ पूछना चाहा, तब तक लड़की ने कहा- ‘मैडम से यह लीजिए बात कर लीजिए,’ उस ने फोन लगा कर मुझे दिया.

‘ममा,’ मेरी टूटी हुई आवाज के बावजूद ममा ने जल्दीबाजी में कहा- ‘तुम लोग आओ पहले, फिर सब बताती हूं. तुम्हें जो ला रही है वह शुभा है, बहुत अच्छी है, बेटी जैसी. मिलते हैं.’

यह दोमंजिला बंगलानुमा बड़ा सा मकान था. अगलबगल 2 दरवाजे थे. बड़ा दरवाजा गैरेज के सामने खुलता था. मध्यम आकार का यह दरवाजा, जिस से हम अपने 2 सूटकेस के साथ अंदर आए थे, मकान के बरामदे के सामने था. गेट की सीध में पत्थर की बंधी सड़क थी, दोनों ओर फूलों के पेड़पौधे थे. हम इन्हें बाजू में छोड़ते हुए मकान के बरामदे पर स्थित दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे.

ममा से मिलने की अथाह उछाह में डूबते सूरज की सुरमई शाम ने अनिश्चित का जराजरा सा कंपन भर दिया था. मगर विश्वास का संबल भी साथ ही था.

अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक: भाग 3- क्या भरम से निकल पाया नरेन

नरेन उस के पास आ गया. लेकिन चेक देख कर चौंक गया, “यह चेक… तुम्हारे पास कहां से आ गया…? ये तो मैं ने स्वामीजी को दिया था.”

“नरेन, बहुत रुपए हैं न तुम्हारे पास… अपने खर्चों में हम कितनी कटौती करते हैं और तुम…” वह गुस्से में बोली. लेकिन नरेन तो किसी और ही उधेड़बुन में था, “यह चेक तो मैं ने सुबह स्वामीजी को ऊपर जा कर दिया था… यहां कैसे आ गया…?”

“ऊपर जा कर दिया था..?” रवीना कुछ सोचते हुए बोली, “शायद, स्वामीजी का चेला रख गया होगा…”

“लेकिन क्यों..?”

”क्योंकि, लगता है स्वामीजी को तुम्हारा चढ़ाया हुआ प्रसाद कुछ कम लग रहा है…” वह व्यंग्य से बोली.

“बेकार की बातें मत करो रवीना… स्वामीजी को रुपएपैसे का लोभ नहीं है… वे तो सारा धन परमार्थ में लगाते हैं… यह उन की कोई युक्ति होगी, जो तुम जैसे मूढ़ मनुष्य की समझ में नहीं आ सकती…”

“मैं मूढ़ हूं, तो तुम तो स्वामीजी के सानिध्य में रह कर बहुत ज्ञानवान हो गए हो न…” रवीना तैश में बोली, “तो जाओ… हाथ जोड़ कर पूछ लो कि स्वामीजी मुझ से कोई
अपराध हुआ है क्या… सच पता चल जाएगा.”

कुछ सोच कर नरेन ऊपर चला गया और रवीना अपने कमरे में चली गई. थोड़ी देर बाद नरेन नीचे आ गया.

“क्या कहा स्वामीजी ने..” रवीना ने पूछा.

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

“बोलो नरेन, क्या जवाब दिया स्वामीजी ने…”

“स्वामीजी ने कहा है कि मेरा देय मेरे स्तर के अनुरूप नहीं है…” रवीना का दिल
किया कि ठहाका मार कर हंसे, पर नरेन की मायूसी व मोहभंग जैसी स्थिति देख कर वह चुप रह गई.

“हां, इस बार घर आ कर तुम्हारे स्तर का अनुमान लगा लिया होगा… यह तो नहीं पता होगा कि इस घर को बनाने में हम कितने खाली हो गए हैं…” रवीना चिढ़े स्वर में बोली.

“अब क्या करूं…” नरेन के स्वर में मायूसी थी.

“क्या करोगे…? चुप बैठ जाओ… हमारे पास नहीं है फालतू पैसा… हम अपनी गाढ़ी कमाई लुटाएं और स्वामीजी परमार्थ में लगाएं… तो जब हमारे पास होगा तो हम ही लगा
लेंगे परमार्थ में… स्वामीजी को माघ्यम क्यों बनाएं,” रवीना झल्ला कर बोली.

“दूसरा चेक न काटूं…?” नरेन दुविधा में बोला.

“चाहते क्या हो नरेन…? बीवी घर में रहे या स्वामीजी… क्योंकि अब मैं चुप रहने वाली नहीं हूं…”
नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बहुत ही मायूसी से घिर गया था.

“अच्छा… अभी भूल जाओ सबकुछ…” रवीना कुछ सोचती हुई बोली, “स्वामीजी रात में ही तो कहीं नहीं जा रहे हैं न… अभी मैं खाना लगा रही हूं… खाना ले जाओ.”

वह कमरे से बाहर निकल गई, “और हां…” एकाएक वह वापस पलटी, “आज
खाना जल्दी निबटा कर हम सपरिवार स्वामीजी के प्रवचन सुनेंगे… पावनी व बच्चे भी… कल छुट्टी है, थोड़ी देर भी हो जाएगी तो कोई बात नहीं…”

लेकिन नरेन के चेहरे पर कुछ खास उत्साह न था. वह नरेन की उदासीनता का कारण समझ रही थी. खाना निबटा कर वह तीनों बच्चों सहित ऊपर जाने के लिए तैयार हो गई.

“चलो नरेन…” लेकिन नरेन बिलकुल भी उत्साहित नहीं था, पर रवीना उसे जबरदस्ती ठेल ठाल कर ऊपर ले गई. उन सब को देख कर, खासकर पावनी को देख कर तो उन दोनों के चेहरे गुलाब की तरह खिल गए.

“आज आप से कुछ ज्ञान प्राप्त करने आए हैं स्वामीजी… इसलिए इन तीनों को भी आज सोने नहीं दिया,” रवीना मीठे स्वर में बोली.

“अति उत्तम देवी… ज्ञान मनुष्य को विवेक देता है… विवेक मोक्ष तक पहुंचाता
है… विराजिए आप लोग,” स्वामीजी बात रवीना से कर रहे थे, लेकिन नजरें पावनी के चेहरे पर जमी थीं. सब बैठ गए. स्वामीजी अपना अमूल्य ज्ञान उन मूढ़ जनों पर उड़ेलने लगे. उन की
बातें तीनों बच्चों के सिर के ऊपर से गुजर रही थी. इसलिए वे आंखों की इशारेबाजी से एकदूसरे के साथ चुहलबाजी करने में व्यस्त थे.

“क्या बात है बालिके, ज्ञान की बातों में चित्त नहीं लग रहा तुम्हारा…” स्वामीजी
अतिरिक्त चाशनी उड़ेल कर पावनी से बोले, तो वह हड़बड़ा गई.

“नहीं… नहीं, ऐसी कोई बात नहीं…” वह सीधी बैठती हुई बोली. रवीना का ध्यान स्वामीजी की बातों में बिलकुल भी नहीं था. वह तो बहुत ध्यान से स्वामीजी व उन के चेले की पावनी पर पड़ने वाली चोर गिद्ध दृष्टि पर अपनी समग्र चेतना गड़ाए हुए थी और चाह रही थी कि नरेन यह सब अपनी आंखों से महसूस करे. इसीलिए वह सब को ऊपर ले कर आई थी. उस ने निगाहें नरेन की तरफ घुमाई. नरेन के चेहरे पर उस की आशा के अनुरूप हैरानी, परेशानी, गुस्सा, क्षोभ साफ झलक रहा था. वह मतिभ्रम जैसी स्थिति में
बैठा था. जैसे बच्चे के हाथ से उस का सब से प्रिय व कीमती खिलौना छीन लिया गया हो.

एकाएक वह बोला, “बच्चो, जाओ तुम लोग सो जाओ अब… पावनी, तुम भी जाओ…”

बच्चे तो कब से भागने को बेचैन हो रहे थे. सुनते ही तीनों तीर की तरह नीचे भागे.

पावनी के चले जाने से स्वामीजी का चेहरा हताश हो गया.

“अब आप लोग भी सो जाइए… बाकी के प्रवचन कल होंगे…” वे दोनों भी उठ गए.

लेकिन नरेन के चेहरे को देख कर रवीना आने वाले तूफान का अंदाजा लगा चुकी थी और वह उस तूफान का इंतजार करने लगी.

रात में सब सो गए. अगले दिन शनिवार था. छुट्टी के दिन वह थोड़ी देर से उठती
थी. लेकिन नरेन की आवाज से नींद खुल गई. वह किसी टैक्सी एजेंसी को फोन कर टैक्सी बुक करवा रहा था.

“टैक्सी… किस के लिए नरेन…?”

“स्वामीजी के लिए… बहुत दिन हो गए हैं… अब उन्हें अपने आश्रम चले जाना
चाहिए…”

“लेकिन,आज शनिवार है… स्वामीजी को शनिवार के दिन कैसे भेज सकते हो तुम…” रवीना झूठमूठ की गभीरता ओढ़ कर बोली.

“कोई फर्क नहीं पड़ता शनिवाररविवार से…” बोलतेबोलते नरेन के स्वर में उस के दिल की कड़वाहट आखिर घुल ही गई थी.

“मैं माफी चाहता हूं तुम से रवीना… बिना सोचेसमझे, बिना किसी औचित्य के मैं
इन निरर्थक आडंबरों के अधीन हो गया था,” उस का स्वर पश्चताप से भरा था.

रवीना ने चैन की एक लंबी सांस ली, “यही मैं कहना चाहती हूं नरेन… संन्यासी बनने के लिए किसी आडंबर की जरूरत नहीं होती… संन्यासी, स्वामी तो मनुष्य अपने उच्च आचरण से बनता है… एक गृहस्थ भी संन्यासी हो सकता है… यदि आचरण, चरित्र
और विचारों से वह परिष्कृत व उच्च है, और एक स्वामी या संन्यासी भी निकृष्ट और नीच हो सकता है, अगर उस का आचरण उचित नहीं है… आएदिन तथाकथित बाबाओं,
स्वामियों की काली करतूतों का भंडाफोड़ होता रहता है… फिर भी तुम इतने शिक्षित हो कर इन के चंगुल में फंसे रहते हो… जिन की लार एक औरत, एक लड़की को देख कर, आम कुत्सित मानसिकता वाले इनसान की तरह टपक
पड़ती है… पावनी तो कल आई है, पर मैं कितने दिनों से इन की निगाहें और चिकनीचुपड़ी बातों को झेल रही हूं… पर, तुम्हें कहती तो तुम बवंडर खड़ा कर देते… इसलिए आज प्रवचन सुनने का नाटक करना पड़ा… और मुझे खुशी है कि कुछ अनहोनी घटित होने से पहले ही तुम्हें समझ आ गई.”

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उठा और ऊपर चला गया. रवीना भी उठ कर बाहर लौबी में आ गई. ऊपर से नरेन की आवाज आ रही थी, “स्वामीजी, आप के लिए टैक्सी मंगवा दी है… काफी दिन हो गए हैं आप को अपने आश्रम से निकले… इसलिए प्रस्थान की तैयारी कीजिए…10 मिनट में टैक्सी पहुंचने वाली है…” कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह नीचे आ गया. तब तक बाहर टैक्सी का हौर्न बज गया. रवीना के सिर से आज मनों बोझ उतर गया था. आज नरेन ने पूर्णरूप से अपने अंधविश्वास पर विजय पा ली थी और उन बिला वजह के डर व भय से निकल कर आत्मविश्वास से भर गया था.

ऐतिहासिक कहानी – भाग 3 : हाड़ी रानी की अंतिम निशानी

विदाई मांगते समय पति का गला भर आया. यह हाड़ी रानी की तेज आंखों से छिपा न रह सका. यद्यपि चुंडावत सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की.

हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है. उस वीरबाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है, पर मोहग्रस्त हो कर. पति विजयश्री प्राप्त करे, इस के लिए उस ने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी.

वह पति से बोली, ‘‘स्वामी जरा ठहरिए. मैं अभी आई.’’ वह दौड़ीदौड़ी अंदर गई. आरती का थाल सजाया. पति के मस्तक पर टीका लगाया और आरती उतारी. वह पति से बोली, ‘‘मैं धन्य हो गई, ऐसा वीर पति पा कर. हमारा आप का तो जन्मजन्मांतर का साथ है. राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं. आप जाएं स्वामी. मैं विजय माला लिए द्वार पर आप की प्रतीक्षा करूंगी.’’

उस ने अपने नेत्रों से उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था. पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी. चलतेचलते पति उस से बोला, ‘‘प्रिय, मैं तुम को कोई सुख न दे सका, बस इस का ही दुख है. मुझे भूल तो नहीं जाओगी? यदि मैं न रहा तो…’’

राणा रतन सिंह का वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि हाड़ी रानी ने उन के मुख पर हथेली रख दी, ‘‘न न स्वामी, ऐसी अशुभ बातें न बोलो. मैं वीर राजपूतानी हूं. फिर वीर की पत्नी भी हूं. अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं, आप निश्चिंत हो कर प्रस्थान करें. देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें. यही मेरी प्रार्थना है.’’

चुंडावत सरदार रतन सिंह ने घोड़े को ऐड़ लगाई. रानी उसे एकटक निहारती रही, जब तक वह आंखों से ओझल न हो गया. उस के मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था, जिसे अभी तक उस ने बरबस रोक रखा था, वह आंखों से बह निकला.

चुंडावत सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बातें करता उड़ा जा रहा था. किंतु उस के मन में रहरह कर आ रहा था कि कहीं सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दे? वह मन को समझाता पर उस का ध्यान उधर ही चला जाता. अंत में उस से रहा न गया.

उस ने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों को हाड़ी रानी के पास भेजा. रानी को फिर से स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत, मैं जरूर लौटूंगा. संदेशवाहक को आश्वस्त कर रानी सलेहकंवर ने लौटाया.

दूसरे दिन एक और वाहक आया. फिर वही बात. तीसरे दिन फिर एक आया. इस बार वह रानी के पास चुंडावत सरदार का पत्र लाया था. पत्र में लिखा था, ‘‘प्रिय, मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं. अंगद के समान पैर जमा कर उन को रोक दिया है. मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं. यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है. पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. पत्र वाहक के साथ कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना. उसे ही देख कर मैं मन को हलका कर लिया करूंगा.’’

हाड़ी रानी पत्र को पढ़ कर सोच में पड़ गईं. युद्ध के मैदान में मुकाबला कर रहे पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा. उन के नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे. विजयश्री का वरण कैसे करेंगे? उस के मन में एक विचार कौंधा.

वह सैनिक से बोली, ‘‘वीर! मैं तुम्हें अपनी अंतिम सेनाणी (निशानी) दे रही हूं. इसे ले जा कर उन्हें दे देना. थाल में सजा कर सुंदर वस्त्र से ढक कर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना. किंतु इसे कोई और न देखे. वे ही खोल कर देखें. साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना.’’

हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था, ‘प्रिय, मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं. तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं. अब बेफिक्र हो कर अपने कर्तव्य का पालन करें. मैं तो चली… स्वर्ग में तुम्हारी राह देखूंगी.’

पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपनी कमर से तलवार निकाल एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया. वह धरती पर लुढ़क पड़ा. सैनिक के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली. कर्तव्य कर्म कठोर होता है, सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी सलेहकंवर के कटे सिर को सजाया, सुहाग के चुनर से उस को ढका. भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा.

उस को देख कर चुंडावत सरदार स्तब्ध रह गया. उसे समझ में न आया कि उस के नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? धीरे से वह बोला, ‘‘क्यों यदुसिंह रानी की निशानी ले आए?’’

 

यदु ने कांपते हाथों से थाल उन की ओर बढ़ा दिया. चुंडावत सरदार फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया. उस के मुख से केवल इतना निकला, ‘‘उफ, हाय रानी. तुम ने यह क्या कर डाला. संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली. खैर, मैं भी तुम से मिलने आ रहा हूं.’’

चुंडावत सरदार रतनसिंह के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे. वह पत्नी का कटा सिर गले में लटका कर शत्रु पर टूट पड़ा. इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उस की मिसाल मिलना बड़ा कठिन है. जीवन की आखिरी सांस तक वह लड़ता रहा. औरंगजेब की सहायक सेना को उस ने आगे बढ़ने ही नहीं दिया. जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़ कर भाग नहीं गया था.

इस के बाद चुंडावत रावत रतनसिंह ने पत्नी वियोग में अपना सिर तलवार से स्वयं काट कर युद्धभूमि में वीरगति पाई. वह हाड़ी रानी से अटूट प्रेम करते थे, इस कारण वह रानी के वियोग में जी नहीं सकते थे.

महारानी वीरांगना हाड़ी रानी की मृत्यु का कारण सिर्फ अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए एक बलिदान था. हाड़ी रानी ने अपने पति को रणभूमि में हारते हुए बचाने और अपनी प्रजा की रक्षा करने के लिए मौत को गले लगा लिया था.

धन्य है ऐसी वीरांगना हाड़ी रानी सलेहकंवर और धन्य है वो धरा जहां उन्होंने जन्म लिया और कर्तव्य पालन के लिए बलिदान दिया. चुंडावत मांगी सैनाणी, सिर काट दे दियो क्षत्राणी. यह लोकोक्ति हाड़ी रानी पर सटीक बैठती है.

चिनम्मा- भाग 2 : कौन कर रहा था चिन्नू का इंतजार ?

अन्ना और चिनम्मा का वार्त्तालाप जारी था. इसी बीच किसी ने 100 रुपए का एक नया नोट अन्ना को पकड़ाते हुए चिनम्मा के पीछे खड़े हो कर कहा, ‘‘अन्ना, एक ठंडी पैप्सी देना, बहुत प्यास लग रही है,’’ आवाज कुछ पहचानी सी लगी. पलट कर चिन्नू ने देखा तो उस से 3 कक्षा आगे पढ़ने वाला उस के स्कूल का सब से शैतान बच्चा साई खड़ा है. वह एकटक उसे देख कर सोचने लगी, यह यहां कैसे? स्कूल में सब कहते थे कि इसे तो इस की शैतानी से परेशान हो कर इस की विधवा अम्मा ने 3 साल पहले ही कहीं भेज दिया था किसी रिश्तेदार के घर.

उसे लगातार अपनी तरफ देख कर साई ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिनम्मा ही है न तू, क्या चंदा के माफिक चमकने लगी इन 3 सालों में, पहचान में ही नहीं आ रही तू तो.’’

एकदम से सकपका सी गई वह साई की इस बात को सुन कर. कहना तो वह भी चाहती थी, ‘तू भी तो बिलकुल पवन तेजा (तेलुगू फिल्मी हीरो) की माफिक स्मार्ट और सयाना बन गया है. पर पता नहीं क्यों बोलने में शर्म आई उसे. वह तेल ले, नजर ?ाका, घर भाग आई तेजी से.

अप्पा के आने का समय हो रहा था. ढिबरी जला कर जल्दीजल्दी सूखी मछली का शोरबा और चावल बनाया तथा थोड़ी लालमिर्च भी भून कर रख दी अलग से. अप्पा को भुनी मिर्च बहुत पसंद है. घर का सारा काम निबटा कर पढ़ने बैठ गई. पर पता नहीं क्यों सामने किताब खुली होने पर भी वह पढ़ नहीं पा रही थी आज.

इसी बीच, अप्पा के तेज खर्राटों की आवाज आनी शुरू हो गई. चिनम्मा ने करवट बदली. अम्मा भी बेसुध सो रही थी. खर्राटों की आवाज से उस का सोना मुश्किल हो रहा था. आज ढंग से पढ़ाई न कर पाने के कारण अपनेआप से खफा भी थी वह. चिनम्मा को तो बहुत सारी पढ़ाई करनी है, उसे वरलक्ष्मी मैडम की तरह टीचर बनना है जो उस के स्कूल में पढ़ाती हैं.

रोज साफसुथरी और सुंदरसुंदर साडि़यां पहन कर कंधे पर बड़ा सा बैग लटकाए जब मैडम स्कूल आती हैं तो उन्हें देखते ही बनता है. क्या ठाट हैं उन के? पढ़ाई के संबंध में अम्मा तो उसे कुछ ज्यादा नहीं कहती पर जब किताब खरीदने या स्कूल के मामूली खर्चे की भी बात आती तो अप्पा नाराज हो कर अम्मा से कहने लगता है, ‘देखो, लड़की बिगड़ न जाए ज्यादा पढ़ कर. ज्यादा पढ़ लेगी, तो हमारे मछुआरे समाज में कोई अच्छा लड़का शादी को भी तैयार नहीं होगा. फिर उसे पढ़ा कर फायदा भी क्या? कौन सा हम लोगों के बुढ़ापे का सहारा बनेगी, चली जाएगी दूसरे का घर भरने.’

काफी करवटें बदलने के बाद भी जब उसे नींद नहीं आई तो वह उठ कर ?ोंपड़ी की छोटी सी खिड़की से बाहर देखने लगी. रात के लगभग 10 बजे होंगे. पूरा गांव सो रहा था. बस, बीचबीच में कुत्तों के भूंकने की आवाज आ रही थी. चांद की दूधिया रोशनी से सारा समुद्र बहुत शांत और गंभीर लग रहा था. समुद्रतट पर रखी छोटीछोटी नावों को देख कर ऐसा महसूस हो रहा था मानो वे भी आराम कर रही हों.

मुंहअंधेरे (ढाई से 3 बजे के लगभग) गांव के अधिकांश मर्द अपना जाल समेटे, लालटेन लिए तीनचार समूह बना कर एकएक नाव में बैठ जाएंगे और निकल पड़ेंगे अथाह समुद्र में दूर तक मछलियां पकड़ने. दोचार मछुआरों के पास अपनी नावें हैं, नहीं तो ज्यादातर किराए की नावों का ही प्रयोग करते हैं. समुद्र में जाल डाल कर घंटों इंतजार करना पड़ता है उन्हें. कभी तो ढेर सारी मछलियां हाथ लग जाती हैं एकसाथ, पर कभीकभी खाली हाथ भी आना पड़ता है. वापस आतेआते 9-10 बज जाते हैं. औरतें खाना बना कर पति का इंतजार करती रहती हैं. जैसे ही नाव आनी शुरू हो जाती, शहर से आए थोक व्यापारी मोलभाव कर के सस्ते में मछलियां खरीद कर ले जाते हैं.

बची हुई पारा, सुरमई, पाम्फ्रेड, बांगडा, प्रौन आदि मिश्रित मछलियों को ले कर औरतें तुरंत निकल जाती हैं घरघर बेचने. मर्द खाना खा कर सो जाते हैं. जब तक मर्दों की नींद पूरी होती, तब तक औरतें मछलियां बेच कर मिले पैसों से घर का जरूरी सामान खरीद वापस आ जाती हैं. फिर शाम का खानापीना, शहर की लंबीलंबी बातें, फिल्मों की गपशप, हंसीमजाक और अकसर गालीगलौज भी.

मछुआरों में मुख्यतया हिंदू या ईसाई धर्मावलंबी हैं. पर उन सब का पहला धर्म यह है कि वे मछुआरे हैं. मछली पकड़ने भी रोज नहीं जाया जा सकता, मछुआरे समाज की मान्यता है कि ऐसा करने से समुद्र जल्दी ही खाली हो जाएगा और फिर देवता के कोप से उन्हें कोई बचा नहीं सकता. साल के लगभग 3 महीने जब मछलियों के ब्रीडिंग का समय होता है, मछुआरे समुद्र में मछली मारने नहीं जाते. यह उन का उसूल है. ऐसे समय छोटे मछुआरों के घरों की हालत और खराब हो जाती है. तब इन में से ज्यादातर मजदूरी करने विशाखापट्टनम या हैदराबाद जैसे शहरों में चले जाते हैं.

चिनम्मा का परिवार पहले हिंदू था. पर आर्थिक सहायता मिलने की आशा में अप्पा ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है. और हर रविवार को चर्च जरूर जाता है. घर में चाहे कितनी भी आर्थिक तंगी हो, चिनम्मा का अप्पा तो गांव छोड़ कर कभी कहीं नहीं जाता कमाने. उसे कमाने से ज्यादा पीने से मतलब है. जिस दिन कमाई के पैसे नहीं हों, तो घर का कोई बरतन ही बेच कर अपना काम चला लेता है. अम्मा बेचारी करे भी तो क्या करे? लड़ती?ागड़ती और अपने समय को कोसती हुई अप्पा को गालियां देती रहती है. उस ने तो गृहस्थी चलाने और पेट भरने के लिए डौल्फिन पहाड़ी पर बसी नेवी कालोनी में नौकरानी का काम शुरू कर दिया है.

अप्पा के खांसने की आवाज से चिनम्मा का ध्यान भंग हुआ, वह वापस आ कर लेट गई. सोचतेसोचते पता नहीं कब नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया. सुबह अम्मा की तेज आवाज से नींद खुली. साढ़े 6 बज गए. आज बिस्तर पर ही पड़ी रहेगी क्या चिन्नू? कौफी बना कर रख दी है, पी लेना. मैं काम पर जा रही हूं.

जीवन संघर्ष -भाग 2 : एक मां की दर्दभरी दास्तान

श्रेया इस बेमेल ब्याह से खुश नहीं थी, इसीलिए वह मेरे ब्याह में भी नहीं आई थी. केवल टैलीफोन पर बात होती थी.श्रेया ने कहा, ‘‘जो हुआ उसे मैं बदल नहीं सकती हूं. रिश्ते में तो आप मेरी चाची लगती हैं, मेरी मां जैसी, लेकिन हम दोस्त बन कर रहेंगी. दोस्त के साथ बहन की तरह,’’ इतना हौसला दे कर श्रेया चली गई.मेरे पति ने मुझे मोबाइल फोन दिलवा दिया था.

उन के मन में डर था कि मैं कहीं भाग न जाऊं. बुढ़ापे की शादी में आमतौर पर असंतुष्ट हो कर लड़कियां भाग जाती हैं. वे हमेशा मेरे टच में रहना चाहते थे. मेरी शादी को मुश्किल से 15 दिन हुए थे कि मुझे उलटी आई. अगले 15 दिन भी यही हालत रही. मेरी सासू मां ने अंदाजा लगा लिया कि उन के घर में पोता आने वाला है. पोती क्यों नहीं आ सकती? बस, इसी सवाल का जवाब नहीं मिलता है.

किसी ने मुझे डाक्टर के पास ले जाना जरूरी नहीं समझा. मैं इस हालत में भी मैं पूरे घर का काम करती रही, बिना किसी की हमदर्दी के. पति भी मेरे शरीर को नोचते और सो जाते. उन्हें अपनी संतुष्टि से मतलब था. केवल श्रेया सब से छिपा कर कभी चौकलेट, कभी कुल्फी, कभी कोल्ड ड्रिंक, तो कभी फल ला कर देती. वह कहती,

‘‘समय पर खाना खाया करो. जल्दी सोया करो. कुछ खाने का मन करे तो चाचाजी को बोल दिया करो. मैं दे जाया करूंगी.’’मैं रात को जल्दी सोने लगी.

पति रात को आते और सो जाते. 3 दिन तक यही चला रहा. तीसरे दिन वे उखड़ेउखड़े लगे. वजह मुझे पता नहीं चली. रात को पति ने कंधा पकड़ कर खड़ा किया. मैं हड़बड़ा कर उठ गई. उन्होंने कहा, ‘‘3 दिन से मैं तुम्हारा नाटक देख रहा हूं. तुम रोज जल्दी सो जाती हो. यह सब मुझे बरदाश्त नहीं है. हमारे यहां सभी रात के 10 बजे सोते हैं.’’मैं पति का यह रूप देख कर डर गई.

मैं रोते हुए बोली, ‘‘मुझे दिन में बहुत थकान महसूस होती है. सिरदर्द होता है. मैं सारे घर का काम कर के खुद खाना खा कर सोती हूं.’’पति ने कहा, ‘‘वह मैं कुछ नहीं जानता. कल से 10 बजे के बाद सोना.’’मैं समझ ही नहीं पाई कि यह कैसा पति है, जो अपनी पत्नी की तकलीफ को समझ ही नहीं पा रहा है. मेरे पास सहने के अलावा कोई चारा नहीं था.

मैं 10 बजे के बाद सोने लगी. मैं दिन में सो कर अपनी नींद पूरी कर लेती. इस हालत में मेरा अलगअलग चीजें खाने का दिल करता. कभी वे ला देते, कभी कहते कि पैसे नहीं हैं. इन चीजों में पैसे लगते हैं, फ्री में कुछ नहीं मिलता है.कभीकभार जब ननद अपनी ससुराल जाती तो पति मेरे लिए पानीपुरी, रसगुल्ले, मिर्ची बड़ा, फल वगैरह ला देते थे. पर ननद को पता चलता तो भी मुझे, कभी मेरे पति को डांटती रहती, ‘‘इतना सब खर्च करने की क्या जरूरत थी? खाएगी तो उलटी कर देगी.

पैसे बचाओगे तो काम आएंगे.’’मेरा मन गुस्से से भर जाता. मैं किचन में काम कर रही होती. मन होता कि हाथ की कड़छी ननद के सिर पर दे मारूं.धीरेधीरे मेरी डिलीवरी का समय नजदीक आने लगा. मुझे इस हालत में खाना खाने को नहीं मिलता था. एक दिन मुझे भयंकर दर्द हुआ. मेरे पति स्कूटर पर अस्पताल ले कर गए. इतना भी नहीं हुआ कि वे मुझे आटोरिकशा में ले जाते.डाक्टर को पता चला तो उन्होंने पति को जबरदस्त डांट लगाई,

‘‘इतनी तो समझ होनी चाहिए थी कि पत्नी को आराम से लाते हैं. बस, बच्चे पैदा करने आते हैं.’’मेरे पति कुछ बोल नहीं पाए थे. बोलते भी क्या? फिर धीरे से बोले, ‘‘मेरे घर में गाड़ी नहीं है.’’‘‘तो किराए की ले लेते. हालत देखी है इस की? कुछ हो जाता तो कौन जिम्मेदार होता?’’

डाक्टर ने फिर डांटा.डिलीवरी हुई. लड़का हुआ था. वह टुकुरटुकुर मेरी तरफ देख रहा था. यह देख कर मेरी छाती से दूध बह निकला. मैं करवट ले कर दूध पिलाने लगी.डिलीवरी के बाद मेरा बड़ा मन था कि अपने बच्चे को गुड़ या शहद चटाने की रस्म मैं करूं.

लेकिन मैं बेहोश थी. होश में आई तो ननद यह रस्म पूरी कर चुकी थी. मैं बहुत रोई. मेरे मन के भीतर की चाह सपना बन गई थी.मैं ने पति से कहा, ‘‘आप को इतना तो पता होना चाहिए था कि बच्चे को गुड़ या शहद चटाने की रस्म उस की मां करती है?’’पहली बार पति को मेरे भीतर के गुस्से का सामना करना पड़ा था. काफी देर तक वे बोल नहीं पाए थे, फिर कहा, ‘‘अब पूरी कर लो यह रस्म.

गुड़ भी है और शहद भी है.’’मैं डिलीवरी के बाद घर आई. मुश्किल से अभी 15 दिन हुए थे कि ननद घर में काम करने का गुस्सा छोटीछोटी बच्चियों पर निकालने लगी. एक वजह यह भी थी कि मेरे पहला ही बेटा हो गया था. इस में किसी का क्या कुसूर था?मेरी ननद मेरा सब से बड़ा सिरदर्द थी. उस की 3 लड़कियां थीं और लड़के की चाहत में लड़कियों की फौज इकट्ठी कर ली थी. उस की ससुराल में सासससुर थे, तो अकसर बीमार रहते थे. पति अच्छाखासा कमाता था.

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