मानसून स्पेशल: एक रिश्ता ऐसा भी – भाग 2

‘‘भई हम ने क्या बहुतों ने देखा और देखते आ रहे हैं. दरअसल लिखने वाले ने लिखा ही इसलिए है कि लोग देखें.’’

‘‘मिसेज जयराज, प्लीज इसे किसी तरह…’’ मिस मृणालिनी ठाकुर गिड़गिड़ाईं.
तभी मिसेज आशीष और मिस रचना मिस मृणालिनी ठाकुर को विचित्र नजरों से देखती हुई स्टाफरूम में दाखिल हुईं.

कुछ ही देर के बाद रामलाल चपरासी झाड़न संभाले अपनी ड्यूटी निभाने आया तो मिस मृणालिनी ठाकुर फौरन उस की ओर लपकीं और कानाफूसी वाले लहजे में बोलीं, ‘‘रामलाल यह झाड़न ले कर जाओ और चाक से मेनगेट पर जो कुछ लिखा है मिटा आओ.’’

‘‘हैं जी,’’ रामलाल ने बेवकूफों की तरह उन का चेहरा तकते हुए कहा.
‘‘जाओ, जो काम मैं ने कहा वो फौरन कर के आओ,’’ मिस मृणालिनी ठाकुर की आवाज फंसीफंसी लग रही थी.

‘‘घबराइए मत मिस ठाकुर, यह बात तो लड़कों में आप की पसंदीदगी की दलील है.’’ मिस चेरियान के लहजे में व्यंग्य साफ तौर पर झलक रहा था.

‘‘अब तो यूं ही होगा भई, लड़के तो आप के दीवाने हैं,’’ मिस तरन्नुम का लहजा दोधारी तलवार की तरह काट रहा था.
मिस शमा अपना गाउन संभाले मुसकराती हुई अंदर दाखिल हुईं और मिस मृणालिनी के नजदीक आ कर राजदारी से बोलीं, ‘‘मिस मृणालिनी ठाकुर गेट पर…’’

मिस मृणालिनी ठाकुर को अत्यंत भयभीत पा कर मिसेज जयराज ने उन के करीब आ कर उन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं मृणालिनी, टीचर और स्टूडेंट में तो आप के कथनानुसार एक आत्मीय संबंध होता है.’’

फिर उन्होंने मिस तरन्नुम की ओर देख कर आंख दबाई और बोलीं, ‘‘कुछ स्टूडेंट इजहार के मामले में बड़े फ्रैंक होते हैं और होना भी चाहिए. क्यों मृणालिनी, आप का यही विचार है न कि हमें स्टूडेंट्स को अपनी बात कहने की आजादी देनी चाहिए.’’

मिसेज जयराज की इस बात पर मिस मृणालिनी का चेहरा क्रोध से दहकने लगा.
‘‘शशि सिंह वही है न बी सैक्शन वाला. लंबा सा लड़का जो अकसर जींस पहने आता है.’’ मिस रौशन ने पूछताछ की.

मिसेज गोयल ने उन के विचार को सही बताते हुए हामी भरी.
‘‘वह तो बहुत प्यारा लड़का है.’’ मिसेज गुप्ता बोलीं.

‘‘बड़ा जीनियस है, ऐसेऐसे सवाल करता है कि आदमी चकरा कर रह जाए,’’ मिसेज कपाडि़या जो फिजिक्स पढ़ाती थीं बोलीं.

मिसेज जयराज ने मृणालिनी को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मृणालिनी आप तो अपने स्टूडेंट्स को उन लोगों से भी अच्छी तरह जानती होंगी, आप की क्या राय है उस के बारे में?’’

‘‘वह वाकई अच्छा लड़का है, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने उस के नाम की आड़ में शरारत की है.’’
‘‘हां ऐसा संभव है.’’ मिसेज गुप्ता ने उन की बात का समर्थन किया.

‘‘सिर्फ संभव ही नहीं, यकीनन यही बात है क्योंकि लिखने वाला इस तरह ढिठाई से अपना नाम हरगिज नहीं लिख सकता था,’’ मिसेज जयराज ने फिर अपनी चोंच खोली.यह बात मिस मृणालिनी को भी सही लगी.

शशि सिंह के बारे में मिस मृणालिनी ठाकुर की राय बहुत अच्छी थी. हालांकि सेशन शुरू हुए 3 महीने ही गुजरे थे, लेकिन इस दौरान जिस बाकायदगी और तन्मयता से उस ने क्लासेज अटेंड की थीं वह शशि सिंह को मिस मृणालिनी के पसंदीदा स्टूडेंट्स में शामिल कराने के लिए काफी थीं. ‘

 

वारिस- भाग 1: कौन-सी मुक्ति का इंतजार कर रही थी ममता

सुरजीत के घर में अनजान औरत को देख नरेंद्र चौंक गया. पूछने पर मालूम हुआ कि वह ‘कुदेसन’ है. रहरह कर उसे अपने घर में रह रही उस औरत का खयाल आने लगा. कहीं वह भी ‘कुदेसन’ तो नहीं.

होश संभालने के साथ ही नरेंद्र उस औरत को अपने घर में देखता आ रहा था. वह कौन थी, उसे नहीं पता था.

बचपन में जब भी वह किसी से उस औरत के बारे में पूछता था तो वह उस को डांट कर चुप करा देता था.

घर के बाईं ओर जहां गायभैंस बांधे जाते थे उस के करीब ही एक छोटी सी कोठरी बनी हुई थी और वह औरत उसी कोठरी में सोती थी.

मां का व्यवहार उस औरत के प्रति अच्छा नहीं था जबकि उस का बाप  बलवंत और बूआ सिमरन उस औरत के साथ कुछ हमदर्दी से पेश आते थे.

नरेंद्र की मां बलजीत का सलूक तो उस औरत के साथ इतना खराब था कि वह सारा दिन उस से जानवरों की तरह काम लेती थी और फिर उस के सामने बचाखुचा और बासी खाना डाल देती थी. कई बार तो लोगों का जूठन भी उस के सामने डालने में बलवंत परहेज नहीं करती थी. लेकिन जैसा भी, जो भी मिलता था वह औरत चुपचाप खा लेती थी.

होश संभालने के बाद नरेंद्र ने घर में रह रही उस औरत को ले कर एक और भी अजीब चीज महसूस की थी. वह हमेशा नरेंद्र की तरफ दुलार और हसरत भरी नजरों से देखती थी. वह उसे छूना और सहलाना चाहती थी. पर घर के किसी सदस्य के होने पर उस औरत की नरेंद्र के करीब आने की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन जब कभी नरेंद्र उस के सामने अकेले पड़ जाता और आसपास कोई दूसरा नहीं होता तो वह उस को सीने से लगा लेती और पागलों की तरह चूमती.

ऐसा करते हुए उस की आंखों में आंसुओं के साथसाथ एक ऐसा दर्द भी होता था जिस को शब्दों में जाहिर करना मुश्किल था.

‘कुदेसन’ शब्द को नरेंद्र ने पहली बार तब सुना था जब उस की उम्र 14-15 साल की थी.

गांव के कुछ दूसरे लड़कों के साथ नरेंद्र जिस सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था वह गांव से कम से कम 2 किलोमीटर की दूरी पर था.

नरेंद्र के साथ गांव के 7-8 लड़कों का समूह एकसाथ स्कूल के लिए जाता था और रास्ते में अगर कोई झगड़ा न हुआ तो एकसाथ ही वे स्कूल से वापस भी आते थे.

सुबह स्कूल जाने से पहले सारे लड़के गांव की चौपाल पर जमा होते थे. एकसाथ मस्ती करते हुए स्कूल जाने में रास्ते की दूरी का पता ही नहीं चलता था और जब कभी समूह का कोई लड़का वक्त पर चौपाल नहीं पहुंचता था तो उस की खोजखबर लेने के लिए किसी लड़के को उस के घर दौड़ाया जाता था. हमारे साथ स्कूल जाने वाले लड़कों में एक सुरजीत भी था जिस के साथ नरेंद्र की खूब पटती थी. दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे. नरेंद्र कई बार सुरजीत के घर भी जा चुका था.

एक दिन जब स्कूल जाते समय  सुरजीत गांव की चौपाल पर नहीं पहुंचा तो उस की खोजखबर लेने के लिए नरेंद्र उस के घर पहुंच गया.

पहले तो घर में दाखिल हो कर नरेंद्र ने देखा कि सुरजीत को बुखार है. वह वापस मुड़ा तो उस की नजर सुरजीत के घर में एक औरत पर पड़ी जो उस के लिए अनजान थी.

वह जवान औरत गांव में रहने वाली औरतों से एकदम अलग थी, बिलकुल उसी तरह जैसे उस के अपने घर में रह रही औरत उसे नजर आती थी. चूंकि नरेंद्र को स्कूल जाने की जल्दी थी इसलिए उस ने इस बारे में सुरजीत से कोई बात नहीं की.

2 दिन बाद सुरजीत स्कूल जाने वाले लड़कों में फिर से शामिल हो गया तो छुट्टी के बाद गांव वापस लौटते हुए नरेंद्र ने उस से उस अजनबी औरत के बारे में पूछा था. इस पर सुरजीत ने कहा, ‘बापू ने ‘कुदेसन’ रख ली है.’

‘‘कुदेसन, वह क्या होती है?’’ नरेंद्र ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता. लेकिन ‘कुदेसन’ के कारण मां और बापू में रोज झगड़ा होने लगा है. मां कुदेसन को घर में एक मिनट भी रखने को तैयार नहीं, लेकिन बापू कहता है कि भले ही लाशें बिछ जाएं, कुदेसन यहीं रहेगी,’’ सुरजीत ने बताया.

‘‘मगर तेरा बापू इस कुदेसन को लाया कहां से है?’’

‘‘क्या पता, तुम को तो मालूम ही है कि मेरा बापू ड्राइवर है. कंपनी का ट्रक ले कर दूरदूर के शहरों तक जाता है. कहीं से खरीद लाया होगा,’’ सुरजीत ने कहा.

सुरजीत की इस बात से नरेंद्र को और ज्यादा हैरानी हुई थी. उस ने जानवरों की खरीदफरोख्त की बात तो सुनी थी मगर इनसानों को भी खरीदा या बेचा जा सकता है यह बात वह पहली बार सुरजीत के मुख से सुन रहा था.

‘कुदेसन’ शब्द एक सवाल बन कर नरेंद्र के जेहन में लगातार चक्कर काटने लगा था. उस को इतना तो एहसास था कि ‘कुदेसन’ शब्द में कुछ बुरा और गलत था. किंतु वह बुरा और गलत क्या था? यह उस को नहीं पता था.

‘कुदेसन’ शब्द को ले कर घर में किसी से कोई सवाल करने की हिम्मत उस में नहीं थी. बाहर किस से पूछे यह नरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था.

असमंजस की उस स्थिति में अचानक ही नरेंद्र के दिमाग में अमली चाचा का नाम कौंधा था.

अमली चाचा का असली नाम गुरबख्श था. अफीम के नशे का आदी (अमली) होने के कारण ही गुरबख्श का नाम अमली चाचा पड़ गया था. गांव के बच्चे तो बच्चे जवान और बड़ेबूढे़ तक गुरबख्श को अमली चाचा कह कर बुलाते थे. दूसरे शब्दों में, गुरबख्श सारे गांव का चाचा था.

गांव की चौपाल के पास ही अमली चाचा पीपल के नीचे जूतों को गांठने की दुकानदारी सजा कर बैठता था. वह अकेला था, क्योंकि उस की शादी नहीं हुई थी. एकएक कर के उस के अपने सारे मर गए थे. आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं था अमली चाचा के. गांव के हर शख्स से अमली चाचा का मजाक चलता था.

बड़े तो बड़े, नरेंद्र की उम्र के लड़कों के साथ भी उस का हंसीमजाक चलता था. आतेजाते लड़के अमली चाचा से छेड़खानी करते थे और वह इस का बुरा नहीं मानता था. हां, कभीकभी छेड़खानी करने वाले लड़कों को भद्दीभद्दी गालियां जरूर दे देता था.

शरारती लड़के तो अमली चाचा की गालियां सुनने के लिए ही उस को छेड़ते थे.

क्या आपका बिल चुका सकती हूं

क्या आप का बिल चुका सकती हूं : भाग 2

‘‘दिस इज माई च्वाइस. अकेलेपन की उदासी अकसर बहुत करीबी दोस्त होती है हमारी. हां, राशा तो वहां से अगले दिन घर लौट गई थी. हमारी एक सैलानी टोली है, पर मैं उन के शोर में ज्यादा देर नहीं टिक पाती.’’

हम दोनों कोने में लगी बेंच पर जा बैठे. झील में परछाइयां फैल रही थीं.

मैं ने उस दिन राशा की विदाई वाला किस्सा उसे सुनाया तो वह संजीदा हो उठा, ‘‘आप लोग बड़ी हैं तो भी इतना सम्मान देती हैं…वरना मैं तो बहुत मामूली व्यक्ति हूं.’’

‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं कि आप करते क्या हैं?’’

‘‘इस तरह की जगहों के बारे में लिखता हूं और उस से कुछ कमा कर अपने घूमने का शौक पूरा करता हूं. कभीकभी आप जैसे अद्भुत लोग मिल जाते हैं तो सैलानी सी कहानी भी कागज पर रवानी पा लेती है.’’

‘‘वंडरफुल.’’

मैं ने उसे राशा का पता नोट करने को कहा तो वह बोला, ‘‘उस से क्या होगा? लेट द थिंग्स गो फ्री…’’

मैं चुप रह गई.

‘‘पता छिपाने में मेरी रुचि नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘फिर मैं तो एक लेखक हूं जिस का पता चल ही जाता है.’’

‘‘फिर…पता देने में क्या हर्ज है?’’

‘‘बंधन और रिश्ते के फैलाव से डरता हूं… निकट आ कर सब दूर हो जाते हैं…अकसर तड़पा देने वाली दूरी को जन्म दे कर…’’

‘‘उस रोज भी शायद तुम डरे थे और जल्दी से भाग निकले थे.’’

‘‘हां, आप के कारण.’’

मैं बुरी तरह चौंकी.

‘‘उस रोज आप को देखा तो किसी की याद आ गई.’’

‘‘किस की?’’

‘‘थी कोई…मेरे दिल व दिमाग के बहुत करीब…दूरदूर से ही उसे देखता रहा और उस के प्रभामंडल को…’’ कहतेकहते वह कहीं खो गया.

मैं हथेलियों पर अपना चेहरा ले कर कुहनियों के बल मेज पर झुकी रही.

‘‘कुछ लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं…और साथ में इतने अद्भुत कि हर पल उन का ही ध्यान रहता है? और इतने अपवाद क्यों?…कि या तो किताबों में मिलें या ख्वाबों में…या मिल ही जाएं तो बिछड़ जाने को ही मिलें?’’ वह बोला.

मैं उस की आंखों में उभरती तरलता को देखती रही. वह कहता रहा…

‘‘हम जब किसी से मिलते हैं तो उस मिलन की उमंग को धीरेधीरे फीका क्यों कर देते हैं? जिंदा रहते भी उसे मार क्यों देते हैं?’’

‘‘अधिक निकटता और अधिक दूरी हमें एकदूसरे को समझने नहीं देती…’’ मैं उस से एक गहरा संवाद करने के मूड में आ गई, ‘‘हमें एक ऐसा रास्ता बने रहने देना होता है, जो खत्म नहीं होता, वरना उस के खत्म होते ही हम भी खत्म हो जाते हैं और हमारा वहम टूट जाता है.’’

उस ने मेरी आंखों में देखा और कहना शुरू किया, ‘‘जिन्हें जीना आता है वे किसी रास्ते के खत्म होने से नहीं डरते, बल्कि उस के सीमांत के पार के लिए रोमांचित रहते हैं. भ्रम तब तक बना रहता है जब तक हम आगे के दृश्यों से बचना चाहते हैं…सच तो यह है कि रास्ते कभी खत्म नहीं होते…न ही भ्रम…अनदेखे सच तक जाने के लिए भ्रम ही तो बनते हैं. किश्तियों के डूबने से पता नहीं हम डरते क्यों हैं?’’

मैं उसे ध्यान से सुनने लगी.

‘‘सुखी, संतुष्ट बने रहने के लिए हम औसत व्यक्ति बन जाते हैं, जबकि चाहतें अनंत हैं…दूरदूर तक.’’

‘‘कभीकभी हम सहमत हो कर भी अलग तलों पर नजर आते हैं…मैं तुम्हारी इस बात को शह दूं तो कहूंगी कि मैं वहां खत्म नहीं होना चाहती जहां मैं ‘मुझ’ से ही मिल कर रह जाऊं…मुझे अपनी हर हद से आगे जाना है. अपने कदमों को नया जोखिम देने के लिए अपनी हर पिछली पगडंडी तोड़नी है…’’

वह हंसा. कहने लगा, ‘‘पर इस लड़खड़ाती खानाबदोशी में हम जल्दबाज हो कर अपने को ही चूक जाते हैं. इसी में हमारी बेचैनियां आगे दौड़ने की लत पाल लेती हैं. क्या ऐसा नहीं?’’

मैं सोचने लगी कि अब हम एकदूसरे के साथ भी हैं और नहीं भी.

मुझे चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘विवाह को आप कैसे देखती हैं?’’

‘‘अनचाही चीज का पल्ले पड़ जाने वाली एक वाहियात रस्म.’’

वह फिर हंस कर बोला, ‘‘विवाहित या अविवाहित होना मुझे बाहर की नहीं, भीतर की घटना लगती है. जीना नहीं आता हो तो सारी इच्छाएं पूरी हो जाने पर भी बेमतलब के साथ से हम नहीं बच पाते. ज्यादातर लोग विवाहित हो कर ही इस से बच सकते हैं…या दूसरे को बचा सकते हैं, ऐसे ही किसी संबंध में आ कर. हालांकि मैं नहीं मानता कि मनुष्य नामक स्थिति की अभी रचना हो भी सकी है…मनुष्य जिसे कहा जाता है वह शायद भविष्य के गर्भ में है, वरना विवाह की या किसी भी स्थापित संबंध की जरूरत कहां है? हम अकसर अपने से ही संबंधित हो कर आकाश खोजते रह जाते हैं…’’

 

क्या आप का बिल चुका सकती हूं : भाग 3

फिर हम झील में बदलते नजारों में डूबने का अभिनय सा करते रहे.

चुप्पी लंबी हो गई तो मैं ने कहा, ‘‘उस रोज तुम ने मेरी पुकार नहीं सुनी और चले गए…मुझ से बचना चाहा तुम ने…मगर आज क्यों तुम ने मुझे पुकारा?’’

वह मेरे चेहरे को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘आप अकेली बैठी थीं. कितनी ही देर से आप के चेहरे पर अकेलेपन की मायूसी देखता रहा, कैसे न पुकारता? पुकारने से बचना और किसी मायूस से बच कर भागना एक ही बात है. कैसी विडंबना है…अब सोच रहा हूं, आप से यह भी नहीं पूछा कि आप करती क्या हैं?’’

मैं यह सोच कर हंसी कि फंस गए बच्चू, इस दुनिया में बहुत कुछ तय नहीं किया जा सकता. अगर किया भी जा सके तो अगले ही पल वह होता है जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

वह चुप रहा. काफी देर के बाद उस ने पूछा, ‘‘घर से निकलते वक्त आप के मन में क्या होता है?’’

‘‘अज्ञात ऐडवैंचर. मैं लगातार घूमती हूं. अपना खुद का तकिया और चादर भी साथ रखती हूं, ताकि देह जहां तक हो, बनी रहे लेकिन जानती हूं कि मेरे हाथ में कल नहीं है.’’

वह मुसकराया, ‘‘इस क्षण मेरे लिए क्या सोचती हैं आप?’’

मैं हंसी, ‘‘इतना तो तय हो ही सकता है कि मैं अपने खाएपिए के अपने हिस्से का हिसाब चुकता करूं…तुम्हें ‘आप’ कह कर तुम से मिला हुआ परिचय तुम्हें लौटाऊं और हम अपनाअपना रास्ता लें.’’

‘‘ऐसा रास्ता है क्या, जिस पर सामने ठिठक जाने वाले लोग मिलते ही नहीं? ऐसा परिचय होता है क्या जिसे समूचा पोंछा जा सके? और अनाम रिश्तों में ‘तुम’ से ‘आप’ हो जाने से क्या होता है?’’

‘‘बातें तो बहुत बड़ीबड़ी कर रहे हो…तुम्हारी उम्र क्या है?’’

‘‘दुनिया से दफा हो जाने तक की तो नहीं जानता, पर अगली 1 जून को 30 का हो रहा हूं.’’

मैं चौंकी, ‘‘तुम तो मुझ से बड़े निकले… लगते तो छोटे हो.’’

‘‘हां, अकसर इसी धोखे में बच्चा ही बना रह जाता हूं बड़ों में…’’

‘‘जैसा दिखते हो वैसा स्वभाव भी है तुम्हारा…इसे चलनेफलने दो.’’

‘‘ऐसा मैं भी सोचता रहा, पर…’’

‘‘पर क्या?’’ मैं बीच में बोल पड़ी, ‘‘यही न कि अगर मेरे जैसी कोई तुम्हें पसंद आए तो तुम ज्यादा बचाव न कर उस पर हक जमा सको.’’

‘‘नहीं…ऐसा तो नहीं, क्योंकि मैं स्वयं नहीं चाहता अपने पर किसी का ऐसा अधिकार…फिर जो भीतरबाहर से सुंदर और बहुत हट कर होते हैं, उन का मेरे जैसे घुमक्कड़ व्यक्ति के लिए सुलभ रहना संभव नहीं है.’’

‘‘अगर तुम्हें पता चले कि राशा कुछ महीने की मेहमान है तो?’’

‘‘मुझे ऐसा मजाक पसंद नहीं.’’

‘‘लेकिन मौत ऐसे मजाक पसंद करती है.’’

‘‘क्या राशा को कुछ हुआ है?’’

‘‘किस को कब क्या नहीं हो सकता? मैं इतना जानती हूं कि अगर अभी राशा को यह पता चल जाए कि तुम मेरे साथ हो तो वह हमें अपने पास बुला लेगी या खुद यहां चली आएगी.’’

‘‘मिलन को बुनती ज्यादातर बातें सच तो होती हैं पर झूठ हो जाने के लिए ही. सच तभी बनता है जब किसी आकस्मिक घटना पर सहसा हम कुछ करने को बेचैन हो उठते हैं. जैसे कि हमारा उस रोज का मिलना और अचानक आज मिलना…आप जिंदगी को वाक्यसूत्रों में नहीं पिरो सकतीं.’’

‘‘ओह…मैं भूल ही गई थी…मुझे जल्दी होटल पहुंचना है…’’ कह कर मैं काउंटर पर बिल देने के लिए जाने लगी तो वह मुझे रोक कर बोला, ‘‘आज का दिन मेरा है. प्लीज, यह बिल भी मुझे चुकाने दीजिए न.’’

‘‘किसी पर अधिकार जताने के मौके हमारे हाथ कितनी खूबसूरती से लग जाते हैं,’’ मेरे मुंह से निकला और हम दोनों हंस पड़े.

वह काउंटर पर जा कर लौटा तो मैं ने उस की तरफ हाथ बढ़ा कर कहा, ‘‘चलती हूं…कभी सहसा संयोग बना तो फिर मिलेंगे…बहुत अच्छे हो तुम…अच्छे यानी जैसे भी हो…’’

उस ने मेरे बढ़े हुए हाथ को देखा… मुसकरा कर हाथ जोड़े और बोला, ‘‘हाथ नहीं मिलाऊंगा.’’

उस ने मेरे लौटते हुए हाथ को अपने हाथ में सहेज लिया और मेरे साथ चल पड़ा. हम आगे तक निकल गए.

‘‘क्या करती हैं आप?’’ बहुत देर बाद मेरा हाथ छोड़ कर उस ने पूछा.

‘‘गलती से साइकिएट्रिस्ट हूं. मनोविद या मनोचिकित्सक कहलाना बहुत आसान है. इस दुनिया में जीने के लिए फलसफे और मन के विज्ञान नहीं, अनाम प्रेम चाहिए…या मजबूरी में कोई मौलिक जुगाड़.’’

वह मेरे होटल तक आया और चुपचाप खड़ा हो गया.

मैं सहसा हंस पड़ी.

वह भी हंसा.

‘‘अब क्या करें?’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘अलविदा और क्या?’’ उस ने हाथ बढ़ाया.

‘‘मैं मन में उस लड़की की तसवीर बनाने की कोशिश करूंगी, जिसे उस रोज मुझे देख कर तुम ने याद किया था…’’ मैं ने उस का हाथ बहुत आहिस्ता से छोड़ते हुए कहा.

‘‘कोई जरूरत नहीं…तिल भर का भी फर्क नहीं है. आप के पास आईना नहीं है क्या?’’ कह कर वह चला गया.

मैं देर तक ठगी सी खड़ी रह गई.

मंजिल पर अ बैठी थी. दूसरे एक विभाग की इंचार्ज डा. सविता मेरे साथ थी. तभी उस की एक सहयोगी आ कर बोली, ‘‘डाक्टर…आप की वह 14 नंबर की मरीज…उसे आज डिस्चार्ज करना है, मगर उस के बिल अभी तक जमा नहीं हुए…आपरेशन के बाद से अब तक 25 हजार की पेमेंट बकाया है.’’

‘‘ओह, इतनी नहीं होनी चाहिए. 30 हजार रुपए तो जमा कर चुके हैं बेचारे. बड़ा नाम सुन कर आए थे इस अस्पताल का…और ये लोग मजबूर मरीजों को लूट रहे हैं. उस का पति क्या कहता है?’’

‘‘कह रहा है कि उस ने अपनी जानपहचान वालों को फोन किए हैं…शायद कुछ उपाय हो जाएगा.’’

‘‘अभी कहां है?’’

‘‘बीवी के लिए फल लेने बाजार गया है…कुछ देर पहले उस से गजल सुन रहा था…’’

‘‘गजल?’’ मैं ने हैरत से पूछा.

‘‘हां…’’ डा. सविता बोली, ‘‘वह लड़की बंद आंखों में लेटेलेटे बहुत प्यारी गजलें गुनगुनाती रहती है. शायद अपने पति की लाचारी को व्यक्त करती है… और क्या तो गजब की किताबें पढ़ती है. चलो, देखते हैं…उस की फाइनल रिपोर्ट भी डा. प्रिया से साइन करानी है…’’

उन दोनों के साथ मैं भी नीचे आ गई. फिर हम सामने की बड़ी इमारत की ओर बढ़ीं और वहां एक अधबने कमरे में पहुंचीं.

देखा, एक युवती बेहद कमजोर हालत में बेड पर पड़ी छत की ओर देख रही है. कमजोरी में भी वह सुंदर लग रही थी. हमें देख कर वह किसी तरह उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी.

‘‘लेटी रहो,’’ मैं ने उस के सिरहाने बैठते हुए कहा और पास रखी ‘बुक औफ द हिडन लाइफ’ को हाथ में ले कर पलटने लगी. जीवन और मौत के रिश्ते को अटूट बताने वाली अनोखी किताब.

मैं उस से बतियाने लगी. थकी हुई सांसों के बीच उस ने बताया कि साल भर पहले एक हादसे में उस के घर के सब लोग मारे गए थे और उस के बचपन के एक साथी ने उस से शादी कर ली… ‘‘तभी पता चला कि मेरे अंदर तो भयंकर रोग पल रहा है…अगर मुझे पता होता तो मैं कभी उस से शादी न करती…बेचारा तब से जाने कहांकहां दौड़भाग कर के मेरा इलाज करा रहा है…साल होने को आया…’’

‘‘अब तुम रोग मुक्त हो,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ रखा, ‘‘सब ठीक हो जाएगा.’’

उस ने कातरता से मुझे देखा और आंखें बंद कर लीं. इसी में उस की आंखों में से कुछ बूंदें बाहर निकल आईं और कुछ शब्द भी… ‘‘हां, होता तो सब ठीक ही होगा…पर मुझे अपना जिंदा रहना ठीक नहीं लगता…हालांकि दिमागी तौर पर बिलकुल तंदुरुस्त हूं…जीना भी चाहती हूं…’’

डा. सविता उस की जांच कर के जा चुकी थीं. उसे स्पर्श की एक और तसल्ली दे कर मैं भी उठी. अभी कुछ ही कदम आगे निकली थी कि मेरे कानों में एक गुनगुनाहट पहुंची. देखा, वह आंखें बंद कर के गा रही है :

‘धुआं बना के फिजा में उड़ा दिया मुझ को,

मैं जल रहा था, किसी ने बुझा दिया मुझ को…

खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए,

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को…’

मैं खड़ी रही. उस की गुनगुनाहट धीमी होती चली गई और फिर उसे नींद आ गई. मुझे वे दिन याद आए जब मां के न रहने पर मैं बहुत अकेली पड़ गई थी और नींद में उतरने के लिए इसी तरह अपने दर्द को लोरी बना लेती थी.

रिसेप्शन पर पहुंची. वहां से अस्पताल के प्रबंध निदेशक को फोन कर के बिल के पेमेंट का जिम्मा लिया और लौट आई.

देखा, उस के सिरहाने बैठा एक युवक सेब काट कर प्लेट में रख रहा है. पुरानी पैंटशर्ट के भीतर एक दुबली काया. सिर पर उलझे हुए बाल. युवती शायद सो रही थी.

मैं धीमे कदमों से उस के निकट पहुंची.

वह युवक कह रहा था, ‘‘अब दोबारा मत कहना कि तुम से शादी कर के मैं बरबाद हो गया. नाउ यू आर ओ.के. …मेरे लिए तुम्हारा ठीक होना ही महत्त्वपूर्ण है…पैसों का इंतजाम नहीं हुआ…बट आई एम ट्राइंग माई बेस्ट…’’ उस की आवाज में पस्ती भी थी और उम्मीद भी.

मैं ने देखा, आंखें बंद किए पड़ी वह युवती उस की बात पर धीरेधीरे सिर हिला रही थी. अचानक मेरा हाथ उस युवक की ओर बढ़ा और उस के कंधे पर चला गया. इसी के साथ मेरे मुंह से निकला :

‘‘कैन आइ पे फौर यू?…आप का बिल चुका सकती हूं मैं?’’

वह चौंक कर पलटा और खड़ा हो गया, ‘‘आप?’’

अब मैं ने उस का चेहरा देखा… ‘‘ओह…शेषांत…तुम?’’

एक तूफान उमड़ा और उस ने हमें अपने में ले लिया.

मेरे कंधे से लगा वह सिसकता रहा और मेरे हाथ उस के सिर और पीठ पर कांपते रहे. मेरी आंखें सामने उस लड़की की आंखों से झरते आनंद को देखती रहीं. पता नहीं, कब से चट्टान हो चुकी मेरी आंखों में से कुछ बाहर आने को मचलने लगा.

‘‘राशा…ये हैं…जोया…’’ शेषांत ने मेरे कंधे से हट कर चश्मा उतारते हुए उस से कहा तो मैं चौंकी, ‘‘राशा?’’

वह लड़की अपनी खुशी को समेटती हुई बोली, ‘‘मेरा नाम राशि है…इन्होंने आप लोगों के बारे में बताया था तो मैं ने जिद की थी कि मुझे राशा ही कहा करें.’’

मैं चुप रही…सोचती रही…‘राशा तो अब नहीं है…पर तुम दोनों ने उसे सहेज लिया…बहुत अच्छे हो तुम दोनों.’

हम तीनों अपनीअपनी आंखें पोंछ रहे थे कि सामने से एक नर्स आई. उस ने हंस कर मेरे हाथ में बिलों के भुगतान की रसीद और राशि के डिस्चार्ज की मंजूरी थमाई और चली गई.

मेरी राशा तो खो गई थी पर उस बिल की रसीद के साथ एक और राशा मिल गई. लगा कि जिंदगी अब इतनी वीरान, अकेली न रहेगी. राशा, शेषांत और मैं…एक पूरा परिवार…

सफर कुछ थम सा गया

सफर कुछ थम सा गया- भाग 2 : क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

‘‘तुम भाभी की चिंता मत करो. मैं इन्हें घर ले जाता हूं.’’

सूरज चला गया. फिर थोड़ी देर बाद  जीप सूरज के घर के सामने रुकी.

‘‘आओ भाभी, गृहप्रवेश करो. चलो,

मैं ताला खोलता हूं. अरे, दरवाजा तो अंदर से बंद है.’’

दोस्त ने घंटी बजाई. दरवाजा खुला तो 25-26 साल की एक स्मार्ट महिला गोद में कुछ महीने के एक बच्चे को लिए खड़ी दिखी.

‘‘कहिए, किस से मिलना है?’’

दोस्त हैरान, जया भी परेशान.

‘‘आप? आप कौन हैं और यहां क्या कर रही हैं?’’ दोस्त की आवाज में उलझन थी.

‘‘कमाल है,’’ स्त्री ने नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मैं अपने घर में हूं. बाहर से आप आए और सवाल मुझ से कर रहे हैं?’’

‘‘पर यह तो कैप्टन सूरज का घर है.’’

‘‘बिलकुल ठीक. यह सूरज का ही घर है. मैं उन की पत्नी हूं और यह हमारा बेटा. पर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

दोस्त ने जया की तरफ देखा. लगा, वह बेहोश हो कर गिरने वाली है. उस ने लपक कर जया को संभाला, ‘‘भाभी, संभालिए खुद को,’’ फिर उस महिला से कहा, ‘‘मैडम, कहीं कोई गलतफहमी है. सूरज तो शादी कर के अभी लौटा है. ये उस की पत्नी…’’

दोस्त की बात खत्म होने से पहले ही वह चिल्ला उठी, ‘‘सूरज अपनी आदत से बाज नहीं आया. फिर एक और शादी कर डाली. मैं कब तक सहूं, तंग आ गई हूं उस की इस आदत से…’’

जया को लगा धरती घूम रही है, दिल बैठा जा रहा है. ‘यह सूरज की पत्नी और उस का बच्चा, फिर मुझ से शादी क्यों की? इतना बड़ा धोखा? यहां कैसे रहूंगी? बाबूजी को फोन करूं…’ वह सोच में पड़ गई.

तभी एक जीप वहां आ कर रुकी. सूरज कूद कर बाहर आया. दोस्त और जया को बाहर खड़ा देख वह हैरान हुआ, ‘‘तुम दोनों इतनी देर से बाहर क्यों खड़े हो?’’

तभी उस की नजर जया पर पड़ी. चेहरा एकदम सफेद जैसे किसी ने शरीर का सारा खून निचोड़ लिया हो. वह लपक कर जया के पास पहुंचा. जया दोस्त का सहारा लिए 2 कदम पीछे हट गई.

‘‘जया…?’’ इसी समय उस की नजर घर के दरवाजे पर खड़ी महिला पर पड़ी.

वह उछल कर दरवाजे पर जा पहुंचा,

‘‘आप? आप यहां क्या कर रही हैं? ओ नो… आप ने अपना वार जया पर भी

चला दिया?’’

औरत खिलखिला उठी.

थोड़ी देर बाद सभी लोग सूरज के ड्राइंगरूम में बैठे हंसहंस कर बातें कर रहे थे. वही महिला चाय व नाश्ता ले कर आई, ‘‘क्यों जया, अब तो नाराज नहीं हो? सौरी, बहुत धक्का लगा होगा.’’

इस फौजी कालोनी में यह एक रिवाज सा बन गया था. किसी भी अफसर की शादी हो, लोग नई बहू की रैगिंग जरूर करते थे. सूरज की पत्नी बनी सरला दीक्षित और रीना प्रकाश ऐसे कामों में माहिर थीं. कहीं पहली पत्नी बन, तो किसी को नए पति के उलटेसीधे कारनामे सुना ऐसी रैगिंग करती थीं कि नई बहू सारी उम्र नहीं भूल पाती थी. इस का एक फायदा यह होता था कि नई बहू के मन में नई जगह की झिझक खत्म हो जाती थी.

जया जल्द ही यहां की जिंदगी की अभ्यस्त हो गई. शनिवार की शाम क्लब जाना, रविवार को किसी के घर गैटटुगैदर. सूरज ने जया को अंगरेजी धुनों पर नृत्य करना भी सिखा दिया. सूरज और जया की जोड़ी जब डांसफ्लोर पर उतरती तो लोग देखते रह जाते. 5-6 महीने बीततेबीतते जया वहां की सांस्कृतिक गतिविधियों की सर्वेसर्वा बन गई. घरों में जया का उदाहरण दिया जाने लगा.

खुशहाल थी जया की जिंदगी. बेहद प्यार करने वाला पति. ऐक्टिव रहने के लिए असीमित अवसर. बड़े अफसरों की वह लाडली बेटी बन गई. कभीकभी उसे वह पहला दिन याद आता. सरला दीक्षित ने कमाल का अभिनय किया था. उस की तो जान ही निकल गई थी.

2 साल बाद नन्हे उदय का जन्म हुआ तो उस की खुशियां दोगुनी हो गईं. उदय एकदम सूरज का प्रतिरूप. मातृत्व की संतुष्टि ने जया की खूबसूरती को और बढ़ा दिया. सूरज कभीकभी मजाक करता, ‘‘मेम साहब, क्लब के काम, घर के काम और उदय के अलावा एक बंदा यह भी है, जो घर में रहता है. कुछ हमारा भी ध्यान…’’

 

सफर कुछ थम सा गया- भाग 3 : क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

जया कह उठती, ‘‘बताओ तो, तुम्हारी अनदेखी कब की? सूरज, बाकी सब बाद  में… मेरे दिल में पहला स्थान तो सिर्फ तुम्हारा है.’’

सूरज उसे बांहों में भींच कह उठता, ‘‘क्या मैं यह जानता नहीं?’’

उदय 4 साल का होने को आया. सूरज अकसर कहने लगा, ‘‘घर में तुम्हारे जैसी गुडि़या आनी चाहिए अब तो.’’

एक दिन घर में घुसते ही सूरज चहका, ‘‘भेलपूरी,’’ फिर सूंघते हुए किचन में चला आया, ‘‘जल्दी से चखा दो.’’

भेलपूरी सूरज की बहुत बड़ी कमजोरी थी. सुबह, दोपहर, शाम, रात भेलपूरी खाने को वह हमेशा तैयार रहता.

सूरज की आतुरता देख जया हंस दी, ‘‘डाक्टर हो, औरों को तो कहते हो बाहर से आए हो, पहले हाथमुंह धो लो फिर कुछ खाना और खुद गंदे हाथ चले आए.’’

सूरज ने जया के सामने जा कर मुंह खोल दिया, ‘‘तुम्हारे हाथ तो साफ हैं. तुम खिला दो.’’

‘‘तुम बच्चों से बढ़ कर हो,’’ हंसती जया ने चम्मच भर भेलपूरी उस के मुंह में डाल दी.

‘‘कमाल की बनी है. मेज पर लगाओ. मैं हाथमुंह धो कर अभी हाजिर हुआ.’’

‘‘एक प्लेट से मेरा क्या होगा. और दो भई,’’ मेज पर आते ही सूरज ने एक प्लेट फटाफट चट कर ली.

तभी फोन की घंटी टनटना उठी. फोन सुन सूरज गंभीर हो गया, ‘‘मुझे अभी जाना होगा. हमारा एक ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो गया. हमारे कुछ अफसर, कुछ जवान घायल हैं.’’

जया भेलपूरी की एक और प्लेट ले आई और सूरज की प्लेट में डालने लगी तो ‘‘जानू, अब तो आ कर ही खाऊंगा. मेरे लिए बचा कर रखना,’’ कह सूरज बाहर जीप में जा बैठा.

ट्रक दुर्घटना जया की जिंदगी की भयंकर दुर्घटना बन गई. फुल स्पीड से जीप भगाता सूरज एक मोड़ के दूसरी तरफ से आते ट्रक को नहीं देख सका. हैड औन भिडंत. जीप के परखचे उड़ गए. जीप में सवार चारों लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया.

जया की पीड़ा शब्दों में बयां नहीं की जा सकती. वह 3 दिन बेहोश रही. घर मेहमानों से भर गया. पर चारों ओर मरघट सा सन्नाटा. घर ही क्यों, पूरी कालोनी स्तब्ध.

जया की ससुराल, मायके से लोग आए. उन्होंने जया से अपने साथ चलने की बात भी कही. लेकिन उस ने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया. सासससुर कुछ दिन ठहर चले गए.

जया एकदम गुमसुम हो गई. बुत बन गई. बेटे उदय की बातों तक का जवाब नहीं. वह इस सचाई को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी कि सूरज चला गया है, उसे अकेला छोड़. जीप की आवाज सुनते ही आंखें दरवाजे की ओर उठ जातीं.

इंसान चला जाता है पर पीछे कितने काम छोड़ जाता है. मृत्यु भी अपना हिसाब मांगती है. डैथ सर्टिफिकेट, पैंशन, बीमे का काम, दफ्तर के काम. जया ने सब कुछ ससुर पर छोड़ दिया. दफ्तर वालों ने पूरी मदद की. आननफानन सब फौर्मैलिटीज पूरी हो गईं.

इस वक्त 2 बातें एकसाथ हुईं, जिन्होंने जया को झंझोड़ कर चैतन्य कर दिया. सूरज के बीमे के क्व5 लाख का चैक जया के नाम से आया. जया ने अनमने भाव से दस्तखत कर ससुर को जमा कराने के लिए दे दिया.

एक दिन उस ने धीमी सी फुसफुसाहट सुनी, ‘‘बेटे को पालपोस कर हम ने बड़ा किया, ये 5 लाख बहू के कैसे हुए?’’ सास का स्वर था.

‘‘सरकारी नियम है. शादी के बाद हकदार पत्नी हो जाती है,’’ सास ने कहा.

‘‘बेटे की पत्नी हमारी बहू है. हम जैसा चाहेंगे, उसे वैसा करना होगा. जया हमारे साथ जाएगी. वहां देख लेंगे.’’

जया की सांस थम गई. एक झटके में उस की आंख खुल गई. ऐसी मन:स्थिति में उस ने उदय को अपने दोस्त से कहते सुना, ‘‘सब कहते हैं पापा मर गए. कभी नहीं आएंगे. मुझ से तो मेरी मम्मी भी छिन गईं… मुझ से बोलती नहीं, खेलती नहीं, प्यार भी नहीं करतीं. दादीजी कह रही थीं हमें अपने साथ ले जाएंगी. तब तो तू भी मुझ से छिन जाएगा…’’

पाषाण बनी जया फूटफूट कर रो पड़ी. उसे क्या हो गया था? अपने उदय के प्रति इतनी बेपरवाह कैसे हो गई? 4 साल के बच्चे पर क्या गुजर रही होगी? उस के पापा चले गए तो मुझे लगा मेरा दुख सब से बड़ा है. मैं बच्चे को भूल गई. यह तो मुरझा जाएगा.

उसी दिन एक बात और हुई. शाम को मेजर देशपांडे की मां जया से मिलने आईं. वे जया को बेटी समान मानती थीं. वे जया के कमरे में ही आ कर बैठीं. फिर इधरउधर की बातों के बाद बोलीं, ‘‘खबर है कि तुम सासससुर के साथ जा रही हो? मैं तुम्हारीकोई नहीं होती पर तुम से सगी बेटी सा स्नेह हो गया है, इसलिए कहती हूं वहां जा कर तुम और उदय क्या खुश रह सकोगे? सोच कर देखो, तुम्हारी जिंदगी की शक्ल क्या होगी? तुम खुल कर जी पाओगी? बच्चा भी मुरझा जाएगा.

‘‘तुम पढ़ीलिखी समझदार हो. पति चला गया, यह कड़वा सच है. पर क्या तुम में इतनी योग्यता नहीं है कि अपनी व बच्चे की जिंदगी संभाल सको? अभी पैसा तुम्हारा है, कल भी तुम्हारे पास रहेगा, यह भरोसा मत रखना. पैसा है तो कुछ काम भी शुरू कर सकती हो. काम करो, जिंदगी नए सिरे से शुरू करो.’’

जया ने सोचा, ‘दुख जीवन भर का है. उस से हार मान लेना कायरता है. सूरज ने हमेशा अपने फैसले खुद करने का मंत्र मुझे दिया. मुझे उदय की जिंदगी बनानी है. आज के बाद अपने फैसले मैं खुद करूंगी.’

4 साल बीत गए. जया खुश है. उस दिन उस ने हिम्मत से काम लिया. जया का नया आत्मविश्वासी रूप देख सासससुर दोनों हैरान थे. उन की मिन्नत, समझाना, उग्र रूप दिखाना सब बेकार गया. जया ने दोटूक फैसला सुना दिया कि वह यहीं रहेगी. सासससुर खूब भलाबुरा कह वहां से चले गए.

जया ने वहीं आर्मी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. इस से उसे घर भी नहीं छोड़ना पड़ा. जड़ों से उखड़ना न पड़े तो जीना आसान हो जाता है. अपने ही घर में रहते, अपने परिचित दोस्तों के साथ पढ़तेखेलते उदय पुराने चंचल रूप में लौट आया.

मेजर शांतनु देशपांडे ने उसे सूरज की कमी महसूस नहीं होने दी. स्कूल का

होमवर्क, तैरना सिखाना, क्रिकेट के दांवपेच, शांतनु ने सब संभाला. उदय खिलने लगा. उदय को खुश देख जया के होंठों की हंसी भी लौटने लगी.

शाम का समय था. उदय खेलने चला गया था. जया बैठी जिंदगी के उतारचढ़ाव के बारे में सोच रही थी. जिंदगी में कब, कहां, क्या हो जाए, उसे क्या पहले जाना जा सकता है? मैं सूरज के बगैर जी पाऊंगी, सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन जी तो रही हूं. छोटे उदय को मैं ने चलना सिखाया था. अब लगता है उस ने मुझे चलना सिखाया. देशपांडे ने सच कहा था जीवन को नष्ट करने का अधिकार मानव को नहीं है. इसे संभाल कर रखने में ही समझदारी है.

शुरू के दिनों को याद कर के जया आज भी सिहर उठी. वैधव्य का बोझ, कुछ करने का मन ही नहीं होता था. पर काम तो सभी करने थे. घर चलाना, उदय का स्कूल, स्कूल में पेरैंट टीचर मीटिंग, घर की छोटीबड़ी जिम्मेदारियां, कभी उदय बीमार तो कभी कोई और परेशानी. आई और शांतनु का सहारा न होता तो बहुत मुश्किल होती.

शांतनु का नाम याद आते ही मन में सवाल उठा, ‘पता नहीं उन्होंने अब तक शादी क्यों नहीं की? हो सकता है प्रेम में चोट खाई हो. आई से पूछूंगी.’

जया उठ कर अपने कमरे में चली आई पर उस का सोचना बंद नहीं हुआ. ‘मैं शांतनु पर कितनी निर्भर हो गई हूं, अनायास ही, बिना सोचेसमझे. वे भी आगे बढ़ सब संभाल लेते हैं. पिछले कुछ समय से उन के व्यवहार में हलकी सी मुलायमियत महसूस करने लगी हूं. ऐसा लगता है जैसे कोई मेरे जख्मों पर मरहम लगा रहा है. उदय का तो कोई काम अंकल के बिना पूरा नहीं होता. क्यों कर रहे हैं वे इतना सब?’

शाम को जया बगीचे में पानी दे रही थी. उदय साथसाथ सूखे पत्ते, सूखी घास निकालता जाता. अचानक वह जया की ओर देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मेरे सिर पर क्या सींग उग आए हैं?’’

उदय उत्तेजित सा उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मम्मी, मुझे पापा चाहिए.’’

जया स्तब्ध रह गई.

उस के कुछ कहने से पहले ही उदय कह उठा, ‘‘अब मैं शांतनु अंकल को अंकल नहीं पापा कहूंगा,’’ और फिर वह घर के भीतर चला गया.

उस रात जया सो नहीं पाई. उदय के मन में आम बच्चों की तरह पापा की कमी कितनी खटक रही है, क्या वह जानती नहीं. जब सूरज को खोया था उदय छोटा था, तो भी जो छवि उस के नन्हे से दिल पर अंकित थी, वह प्यार करने, हर बात का ध्यान रखने वाले पुरुष की थी. उस की बढ़ती उम्र की हर जरूरत का ध्यान शांतनु रख रहे थे. उन की भी वैसी ही छवि उदय के मन में घर करती जा रही थी.

आई और शांतनु भी यही चाहते हैं.

इशारों में अपनी बात कई बार कह चुके हैं. वही कोई फैसला करने से बचती रही है.

क्या करूं? नई जिंदगी शुरू करना गलत तो नहीं. शांतनु एक अच्छे व सुलझे इंसान हैं.

उदय को बेहद चाहते हैं. आई और शांतनु दोनों मेरा अतीत जानते हैं. शादी के बाद जब यहां आई थी, तब से जानते हैं. अभी दोनों परिवार बिखरे, अधूरेअधूरे से हैं. मिल जाएं तो पूर्ण हो जाएंगे.

वसंतपंचमी के दिन आई ने जया व उदय को खाने पर बुलाया. उदय जल्दी मचा कर शाम को ही जया को ले वहां पहुंच गया. जया ने सोचा, जल्दी पहुंच मैं आई का हाथ बंटा दूंगी.

आई सब काम पहले से ही निबटा चुकी थीं. दोनों महिलाएं बाहर बरामदे में आ बैठीं. सामने लौन में उदय व शांतनु बैडमिंटन खेल रहे थे. खेल खत्म हुआ तो उदय भागता

बरामदे में चला आया और आते ही बोला,

‘‘मैं अंकल को पापा कह सकता हूं? बोलो

न मम्मी, प्लीज?’’

जया शर्म से पानीपानी. उठ कर एकदम घर के भीतर चली आई. पीछेपीछे आई भी आ गईं. जया को अपने कमरे में ला बैठाया.

‘‘बिटिया, जो बात हम मां बेटा न कह सके, उदय ने कह दी. शांतनु तुम्हें बहुत

चाहता है. तुम्हारे सामने सारी जिंदगी पड़ी है. उदय को भी पिता की जरूरत है और मुझे भी तो बहू चाहिए,’’ आई ने जया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मना मत करना.’’

जया के सामने नया संसार बांहें पसारे खड़ा था. उस ने लजा कर सिर झुका लिया.

आई को जवाब मिल गया. उन्होंने अलमारी खोल सुनहरी साड़ी निकाल जया

को ओढ़ा दी और डब्बे में से कंगन निकाल पहना दिए.

जया मोम की गुडि़या सी बैठी थी.

उसी समय उदय अंदर आया. वहां का नजारा देख वह चकित रह गया.

आई ने कहा, ‘‘कौन, उदय है न? जा तो बेटा, अपने पापा को बुला ला.’’

‘‘पापा,’’ खुशी से चिल्लाता उदय बाहर भागा.

जया की आंखें लाज से उठ नहीं रही थीं. आई ने शांतनु से कहा, ‘‘मैं ने अपने

लिए बहू ढूंढ़ ली है. ले, बहू को अंगूठी पहना दे.’’

शांतनु पलक झपकते सब समझ गया. यही तो वह चाह रहा था.

मां से अंगूठी ले उस ने जया की कांपती उंगली में पहना दी.

‘‘पापा, अब आप मेरे पापा हैं. मैं आप को पापा कहूंगा,’’ कहता उदय लपक कर शांतनु के सीने से जा लगा.

सफर कुछ थम सा गया- भाग 1 : क्या जया के पतझड़ रूपी जीवन में फिर बहारें आ पाईं

हाथों में पत्रों का पुलिंदा पकड़े बाबूजी बरामदे के एक छोर पर बिछे तख्त पर जा बैठे. यह उन की प्रिय जगह थी.

पास ही मोंढ़े पर बैठी मां बाबूजी के कुरतों के टूटे बटन टांक रही थीं. अभीअभी धोबी कपड़े दे कर गया था. ‘‘मुआ हर धुलाई में बटन तोड़ लाता है,’’ वे बुदबुदाईं.

फिर बाबूजी को पत्र पढ़ते देखा, तो आंखें कुरते पर टिकाए ही पूछ लिया, ‘‘बहुत चिट्ठियां आई हैं. कोई खास बात…?’’

एक चिट्ठी पढ़तेपढ़ते बाबूजी का चेहरा खिल उठा, ‘‘सुनती हो, लड़के वालों ने हां कर दी. उन्हें जया बहुत पसंद है.’’

मां बिजली की गति से हाथ का काम तिपाई पर पटक तख्त पर आ बैठीं, ‘‘फिर से तो कहो. नहीं, ऐसे नहीं, पूरा पढ़ कर सुनाओ.’’

पल भर में पूरे घर में खबर फैल गई कि लड़के वालों ने हां कर दी. जया दीदी की शादी होगी…

‘‘ओ जया, वहां क्यों छिपी खड़ी है? यहां आ,’’ भाईबहनों ने जया को घेर लिया.

मांबाबूजी की भरीपूरी गृहस्थी थी.

5 बेटियां, 3 बेटे. इन के अलावा उन के चचेरे, मौसेरे, फुफेरे भाईबहनों में से कोई न कोई आता ही रहता. यहां रह कर पढ़ने के लिए

2-3 बच्चे हमेशा रहते. बाबूजी की पुश्तैनी जमींदारी थी पर वे पढ़लिख कर नौकरी में लग गए थे. अंगरेजों के जमाने की अच्छी सरकारी नौकरी. इस से उन का समाज में रुतबा खुदबखुद बढ़ गया था. फिर अंगरेज चले गए पर सरकारी नौकरी तो थी और नौकरी की शान भी.

मांबाबूजी खुले विचारों के और बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलाने के पक्ष में थे. बड़े बेटे और 2 बेटियों का तो विवाह हो चुका था. जया की एम.ए. की परीक्षा खत्म होते ही लड़के वाले देखने आ गए. सूरज फौज में कैप्टन पद पर डाक्टर था. ये वे दिन थे, जब विवाह के लिए वरदी वाले लड़कों की मांग सब से ज्यादा थी. कैप्टन सूरज, लंबा, स्मार्ट, प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला था.

शादी से 2 महीने पहले ही घर में उस की तैयारियां जोरशोर से होने लगीं. मां ने दोनों ब्याही बेटियों को महीना भर पहले बुला लिया. बेटाबहू तो यहां थे ही. घर में रौनक बढ़ गई. 15 दिन पहले ढोलक रख दी गई. तब तक छोटी मामी, एक चाची, ताई की बड़ी बहू आ चुकी थीं. रात को खानापीना निबटते ही महल्ले की महिलाएं आ जुटतीं. ढोलक की थाप, गूंजती स्वरलहरियां, घुंघरुओं की छमछम, रात 1-2 बजे तक गानाबजाना, हंसीठिठोली चलती.

सप्ताह भर पहले सब मेहमान आ गए. बाबूजी ने बच्चों के लीडर छोटे भाई के बेटे विशाल को बुला कर कहा, ‘‘सड़क से हवेली तक पहुंचने का रास्ता, हवेली और मंडप सजाने का जिम्मा तुम्हारा. क्रेप पेपर, चमकीला पेपर, गोंद वगैरह सब चीजें बाजार से ले आओ. बच्चों को साथ ले लो. बस, काम ऐसा करो कि देखने वाले देखते रह जाएं.’’

विशाल ने सब बच्चों को इकट्ठा किया. निचले तल्ले का एक कमरा वर्कशौप बना. कोई कागज काटता, कोई गोंद लगाता, तो कोई सुतली पर चिपकाता. विवाह के 2 दिन पहले सारी हवेली झिलमिला उठी.

‘‘मां, हम तो वरमाला कराएंगे,’’ दोनों बड़ी बेटियों ने मां को घेर लिया.

‘‘बेटी, यह कोई नया रिवाज है क्या? हमारे घर में आज तक नहीं हुआ. तुम दोनों के वक्त कहां हुआ था?’’

‘‘अब तो सब बड़े घरों में इस का

चलन हो गया है. इस में बुराई क्या है?

रौनक बढ़ जाती है. हम तो कराएंगे,’’ बड़ी बेटी ने कहा.

फिर मां ने बेटियों की बात मान ली तो जयमाला की रस्म हुई, जिसे सब ने खूब ऐंजौय किया.

सूरज की पोस्टिंग पुणे में थी. छुट्टियां खत्म होने पर वह जया को ले कर पुणे आ गया. स्टेशन पर सूरज का एक दोस्त जीप ले कर हाजिर था. औफिसर्स कालोनी के गेट के अंदर एक सिपाही ने जीप को रोकने का इशारा किया. रुकने पर उस ने सैल्यूट कर के सूरज से कहा, ‘‘सर, साहब ने आप को याद किया है. घर जाने से पहले उन से मिल लें.’’

सूरज ने सवालिया नजर से दोस्त की तरफ देखा और बोला, ‘‘जया…?’’

सहचारिणी

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