पल्लव जी शायद अपने मन की बात बेतकल्लुफ से कह गए थे और तुरंत वे अपनी कुछ बातें वापस छिपाना चाहते थे. शरमा कर वे चुप से हो गए और अपनी उंगलियों को मरोड़ने लगे.
मुझे ही क्या, भाई को भी लग रहा था कि पल्लव जी ममा के साथ जिंदगी में आगे बढ़ना चाहते हैं. मैं ने जिम्मेदारी समझते हुए कहा- ‘अंकल, ममा की जिंदगी में आप जैसा कोई सीधासच्चा इंसान आ जाए, तो उन की जिंदगी संवर जाए. उन की 21 साल की शादी में…’
‘मैं जानता हूं हेमा का दुख, तुम्हारी ममा का…’ ‘अंकल, आप हेमा ही कहिए, हमें अच्छा ही लगेगा.’ पल्लव जी मुसकराए, उन की दुविधा हम ने कम जो कर दी थी.
वे बोले, ‘एक दोस्त की तरह उस ने अपनी जिंदगी मुझ से कुछ हद तक साझा की है. और मैं ने भी. लेकिन बच्चो, यह खेल नहीं है. हेमा का मन मैं अब तक नहीं समझ सका. वह ऐसे विषय से अब तक बचती रही है. क्या वह तुम्हारे पापा को पाना चाहती है? क्या मालूम…’ पल्लव जी कुछ अनजानी उदासी से घिर गए थे.
मैं अचानक उठी और पल्लव जी के पैर छू लिए. भाई को यह अव्वल दर्जे की नाटकीयता लगी. वह मुंह में भोंपू ठूंसे अवाक सा मुझे निहारता रहा. अंकल भी कुछ सकपका से गए. लेकिन मेरे हाथों को अपने हाथों में ले कर मेरे प्रति उन्होंने कृतज्ञता दिखाई.
मैं ने कहा, ‘अंकल, ममा मेरे पापा के पास लौट कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारेगी. सच तो यह भी है कि हम भी अब उस नरक में कभी वापस नहीं जाना चाहेंगे. पापा खुद के सिवा किसी को नहीं जानते, अंकल. और हमें ऐसा स्वभाव फूटी आंख नहीं सुहाता.’
‘वह तो ठीक है बेटा. लेकिन आप की ममा के लिए मैं क्या हूं, जब तक न यह समझूं, कैसे आगे बढ़ें. फिर कुंदन की क्या राय है?’
भाई बेचारे ने सिर झुका लिया. उस के आगे जैसे ढेरों दृश्य एकसाथ भागे जा रहे थे और वह सकपकाया खड़ा ताक रहा था.
मैं ने कहा- ‘अंकल, भाई अभी उतना समझ नहीं सकता. मेरी राय ही उस की राय है. मैं ममा का मन पता करने का दायित्व लेती हूं, आप निश्चिंत रहें. और जैसा मैं कहूं, आप वैसा करें.’
पल्लव जी राजी हो गए. और हम अपने कमरे में आ कर मंसूबों को सच करने की हिम्मत बांधने लगे. ममा वापस कालेज से आ कर सब की देखभाल में लग गई, जैसा घर पर भी किया करती थी. मैं एक अवसर की तलाश में थी जब पल्लव जी को ले कर ममा का मन जान सकूं. रात को डरडर कर छेड़ ही दिया मैं ने. ‘ममा, पल्लव अंकल बहुत अच्छे हैं.’ सो जाओ तुम दोनों,’ ममा रोक रही थी मुझे.
‘ममा, तुम अपनी जिंदगी से मुंह मोड़ रही हो. चलो वह भी सही लेकिन यह तो हमारी जिंदगी का भी सवाल है न.’ ‘मैं तुम लोगों के साथ एक किराए के कमरे में चली जाऊंगी. तुम लोग चिंतित मत हो. मैं अलग से ट्यूशन भी कर लूंगी.’ ‘ममा, तुम ने पल्लव अंकल का मन कभी पढ़ा है?’
‘कंकन, मैं ने एक का पढ़ा, तुम्हारे पापा का,बहुत पढ़ लिया. अब और नहीं. मैं खुश हूं अपनी इस जिंदगी में. मुझे ज्यादा की चाह नहीं.’
ममा तो बड़ी जिद्दी है. जो सोचेगी, वही करेगी. मगर मैं ने तो पल्लव जी को समझा है, फिर मेरी ममा को जिंदगी में कभी पति का प्रेम और सम्मान मिला नहीं, काटने को तो काट लेंगी जिंदगी, लेकिन हम दोनों भाईबहन के अपनी जिंदगी में बस जाने के बाद क्या ममा पीछे नहीं छूट जाएगी? कैसे समझूं ममा के दिल की सच्ची बात?
दूसरे दिन ममा के शाम को कालेज से वापस आने के बाद घर में कुहराम सा मचा था.
पहले तो सबकुछ शांत ही था. अचानक जैसे समंदर में ज्वार सा उठने लगा.
कालेज से आने के बाद ममा नहाधो कर पल्लव जी के कमरे में जाती थी. उन का प्लास्टर चढ़ा हुआ पैर देखती, दोपहर को नर्स या डाक्टर, जो भी आते, से फोन पर पल्लव जी का हाल पूछती, दवाई पूछती, फिर चाय के लिए जाती.
आज भी जब पल्लव जी के कमरे में गई और पलंग पर उन्हें न पा कर सोचा, नौकर कविराज की मदद से जरूर वे बाथरूम गए होंगे.
जब आधा घंटा उन के इंतजार का हो गया और पल्लव जी बाथरूम से निकले नहीं, तो वह परेशान हर ओर ढूंढने लगी.
रसोइए ने अनभिज्ञता जताई. कविराज, शुभा और उसकी मां ने भी. हम दोनों भाईबहन तो पूछने के काबिल भी कहां थे. हमें तो 2 दिन ही हुए थे यहां आए. इस घर का ओरछोर तक हमें मालूम नहीं था. आखिर थकहार कर सब ओर ढूंढ कर ममा हमारे कमरे में आई और हम से पल्लव जी के बारे में पूछा.
मैं ने उलटा पूछा- ‘क्यों, इतनी भी क्या जल्दी है उन के मिलने की? गए होंगे कहीं. बच्चे तो नहीं है न, कोई उन्हें कहीं ले गया होगा.’
‘कोई नहीं है उन का मेरे सिवा. उन की पैर की हड्डी टूटी है, कैसे जाएंगे?’
‘तुम्हारे सिवा कोई नहीं है और उन्हें छोड़ कर तुम किराए के मकान में जाना चाहती हो.’
‘कंकन, तुम नहीं समझोगी. बताओ जल्दी, गए कहां वे?’
‘मैं क्या जानूं?’
ऊपरी मंजिल पर जबकि पल्लव जी का जाना दूभर था, फिर भी ममा उधर भी देख आई. मैं कमरे से अब बाहर आ कर ममा पर नजर रखे थी.
अंत में इतनी दौड़धूप के बाद उन की आंखों में आसूं आ गए. वह निचली मंजिल में अपने कमरे में जा कर दरवाजा भिड़ा कर अंदर हो गई.
मैं ने चुपके से दरवाजे की आड़ से देखा, वह अपने बिस्तर पर बैठी लगातार बह रहे आंसुओं को क्रोध से भरी हुई पोंछ रही थी.
मैं सूचित कर आई और अपना कविराज व्हीलचेयर ठेलता पल्लव जी को ले ममा के कमरे में हाजिर हुआ. मैं अधखुली खिड़की के बाहर खड़ी देख रही थी. पल्लव जी को ममा के सामने छोड़ कविराज निकलने को हुआ ही था कि ममा की नजर पल्लव जी पर पड़ी. वह उठ कर खड़ी हो गई. पहले तो ऐसा लगा कि वह पल्लव जी से लिपट कर रो पड़ेगी लेकिन वह खड़ी की खड़ी रह गई. फिर जैसे उन्हें होश आया और वह कविराज पर बिफर पड़ी.
कविराज को स्वीकारना पड़ा कि इस मकान के पीछे बने कविराज के अपने छोटे से कमरे में पल्लव जी रुके थे. और यह कि पूरा प्लौट कंकन यानी मेरा लिखा गया है.
कविराज मुझ पर पूरा नाटक चढ़ा कर मंच से उतर गया. अभी मैं अपने आगे के किरदार को समझ पाती, मेरे सामने एक अनुपम दृश्य आया. पल्लव जी अपनी हेमा की ओर अग्रसर हुए. उन की हेमा उन्हें निहारती स्थिर चित्र की तरह अपनी जगह खड़ी रही. पल्लव ने हेमा का हाथ अपने हाथ में लिया, कहा, ‘कहो, तुम मेरी फिक्र नहीं करतीं, मेरी चिंता नहीं करतीं. मुझे हमेशा के लिए भुला कर रह पाओगी?’
‘आप क्यों गए पल्लव उधर? मुझे तकलीफ़ देने की इच्छा हुई या मुझे परखना चाहते थे?’
‘नहीं तो, कभी नहीं. बिटिया ने कहा कि ममा समझ नहीं पा रही कि वह आप के बिना एक पल भी नहीं रह सकती. उन्हें यह बात समझाना होगा. और इसलिए बिटिया की बात मुझे माननी पड़ी.’
पल्लव ने अपनी प्रेयसी के गाल पर 2 उंगलियों से छेड़ते हुए कहा, ‘अब समझ रही हो न खुद को? अब मेरे बच्चों को मुझ से दूर तो न करोगी?’
व्हीलचेयर पर बैठे पल्लव की गोद में हेमा ने अपना सिर रख दिया था. पल्लव धीरेधीरे उस के सिर पर हाथ फिराने लगे.
सांकल खुल चुकी थी.
ममा ने बिना कुछ लिएदिए हमारे पापा अजितेश को तलाक दे दिया था. और कानूनी रूप से हेमा और पल्लव एक हो गए थे.
हमें एक मनोरम आज और प्यारा निश्चित कल मिला था.
मुझे खुशी थी कि मैं ने बंद कोठरी की एक सांकल खोलने की जिद की, तो स्वतंत्रता, सम्मान और प्रेम के लिए आगे के सौ पुश्तों के सौ दरवाजे भी खुल गए. आशा की सैकड़ों रश्मियों के लिए दरवाजे खुल गए.