Short Story: कोरोना और अमिताभ

मैं मॉर्निंग वॉक करके आया तो वाशबेसिन में हाथ धोने खड़ा हो गया, साबुन लगाया… हाथ धोने लगा, आंखों के आगे अचानक  अमिताभ बच्चन आकर खड़े हो गए… मुस्कुरा कर देख रहे थे.. मैं चौका और संभल कर,  दिखाने के लिए, तन्मय हाथ धोते रहा, मैं सोच रहा था अमिताभ जी सामने खड़े हैं और देख रहे हैं कि मैं हाथ ठीक से, उनके कथनानुसार  धो रहा हूं कि नहीं , मैं जरा सकपकाया, भाई! सदी के महानायक हैं! कह रहे हैं 20 सेकंड हाथ धोना है, तो धो लो!!

अमिताभ बच्चन मेरी ओर देख रहे हैं, मैं हाथ धो रहा हूं उनके चेहरे पर गंभीर भाव था बोले- ” हूं…बीस सेकेंड हाथ धोना है , दो गज की दूरी बनाए रखना, मास्क पहनना है, ओके.”

मैंने कहा-” अमिताभ जी! देखो, मैं तो आपका कहना मान रहा हूं आपने कहा है तो पालन तो करना ही है, मगर एक  बात अभी अभी मेरे दिमाग में आई है, कृपया उसका जवाब दीजिए.”

अमिताभ बच्चन के चेहरे पर स्मित मुस्कुराहट खेलने लगी, बोले-” हां हां भाई, पूछो.”

यह उन्होंने अपने खास अंदाज में कहा जैसे अक्सर कहते हैं, मैंने गला साफ करते हुए कहा-” आपने कहा है 20 सेकंड हाथ धोना है, है ना! यह आपको कैसे पता कि 20 सेकंड हाथ धोना है, इससे कोरोना संक्रमण खत्म हो जाता है.”

अमिताभ बच्चन की आंखें बड़ी बड़ी हो गई वक्र दृष्टि से देखने लगे फिर शांत भाव से अपने ही अंदाज में बोले,- “भाई! यह तो सामान्य बात है, मुझे स्क्रिप्ट दी गई, मैंने अपने अंदाज में पढ़ दी है… और हां, याद आया, यह डब्ल्यूएचओ का कहना है उसका मार्गदर्शन है, मेरी कोई कोरी कल्पना नहीं है भाई.”अमिताभ निश्चल हंसी हंसने लगे

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अमिताभ ने मुझे बड़ी अच्छी तरह समझाया था और शांत भाव से मेरे चेहरे की ओर देखने लगे मानो पढ़ रहे हो कि मैं संतुष्ट हुआ कि नहीं, मैंने चेहरे पर कोई भी भाव लाय बिना सहजता से पुनः सवाल किया-” अमिताभ जी, आप तो महानायक हैं, मैं तो आपका फैन हूं आप की फिल्में देखता हूं , आप जो कहते हैं मैं मान लूंगा मगर…”

” फिर मगर, भाई!” अमिताभ बोले

“यह कोरोना 20 सेकंड में मर जाएगा, इसकी क्या गारंटी है.” मैंने डरते डरते पूछा

“यह तो गलत बात है, भाई! जब हम कह रहे हैं.” उन्होंने अधिकार पूर्वक  कहा

“नहीं! मैं यह सोच रहा हूं, मान लो कोरोना का स्टैंन अब बढ़ गया हो, आपने यह बात तो बहुत पहले कही थी, अभी स्टैंन    बदल गया हो, फिर क्या करूं…”

“क्या मतलब?”

“देखिए, माफ करिए अमिताभ जी! मैं आपका बहुत बहुत बड़ा फैन हूं मगर मेरे दिमाग में पता नहीं यह सवाल क्यों उठ रहा है कि मान लीजिए अब कोरोनावायरस 20 सेकंड में ही नहीं मरता हो ! अब हो सकता है उसकी ऊर्जा बढ़ गई हो 21 या 22 सेकंड हाथ धोने पर मरे, तब क्या होगा!”

अमिताभ बच्चन मेरी बाल बुद्धि पर  हंसे, फिर कहा,-” तो भाई! 22 सेकंड हाथ धो लो 25 सेकंड हाथ धो लो, अच्छी बात है.. ”

“अच्छा, हो सकता है 25 सेकंड में  वायरस नहीं मरता हो 30 सेकंड हाथ धोने पर खत्म हो तब…” मैंने बड़ी मासूमियत से कहा

” अरे! यह क्या बात है! तुम तो…”

” हो सकता है, अब 60 सेकंड यानी 1 मिनट हाथ धोने पर ही वायरस खत्म हो रहा हो, फिर क्या करूं.”

अमिताभ बच्चन बोले-” हां तो ठीक है, पूरे 60 सेकंड हाथ धो लो.”

“मगर मुझे पता नहीं क्यों लग रहा है वायरस की शक्ति बढ़ गई होगी, जिस तरह प्रकोप मचा हुआ है, लोग मर रहे हैं 2 मिनट हाथ धोना चाहिए तब ही कोरोनावायरस खत्म होगा.” मैंने भोलेपन से कहा

“देखो भाई…” अमिताभ बच्चन अपनी शैली में समझाते हुए बोले,-” अभी कुछ अनुसंधान चल रहे हैं, वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं, यह ध्यान में रखते हुए बस हाथ धोते रहो, मैं तो बस यही कहूंगा.”

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“मगर? ”

“अरे भाई, तुम तो हमारा दिमाग ही चट कर जाओगे , मुझे और भी फ्रेंड के पास जाना है, तुम अपनी समझदारी से हाथ धोते रहो… जब तक तसल्ली ना हो जाए… बस धोते रहो, ठीक है .” और अमिताभ बच्चन मेरी आंखों के सामने से अचानक अदृश्य हो गए.

Mother’s Day Special: आंचल भर दूध

आखिर क्या गलती थी नसरीन की, यही कि वह 3 बेटियां पैदा कर चुकी थी? मगर एक दिन जब एक और पैदा हुई फूल सी बच्ची चल बसी तो घर के लोग गम नहीं, उसे एक परंपरा निभाने को मजबूर कर रहे थे…

बाहर चबूतरे पर इक्कादुक्का लोग इधरउधर बैठे हैं. सब के सब लगभग शांत. कभीकभार हांहूं… कर लेते. कुछ बच्चे भी हैं, कुछ न कुछ खेलने का प्रयास करते हुए….और इन्हीं बच्चों में नसरीन की 3 बेटियां भी हैं.

सुबह से बासी मुंह… न मुंह धुला है, न हाथ. इधरउधर देख रही हैं. किसी ने तरस खा कर बिस्कुट के पैकेट थमा दिए. ये नन्हीं जान सुखदुख से अनजान हैं. इन्हें क्या पता कि क्या हुआ है?

घर के अंदर नसरीन को समझाया जा रहा है कि वह दूध बख्श दे, पर उस से दूध नहीं बख्शा जाता. ऐसा लगता है जैसे उस की जबान तालू से चिपक गई है या उस के होंठ परस्पर सिल गए हैं. वह बिलकुल बुत बनी बैठी है.

उस के सामने उस की नवजात बच्ची मृत पड़ी है और उस की गोद में 1 और बच्चा है, उस के स्तन से सटा हुआ. ये दोनों बच्चे जुड़वां पैदा हुए थे. इन में से यह गोद वाला बच्चा, जो जीवित है, अपनी मृत बहन से 5 मिनट बड़ा है.

सुबह से ही औरतों का तांता लगा हुआ है. जो भी औरत देखने आती है वह नसरीन को समझाती है कि वह दूध बख्श दे, पर उस की समझ में नहीं आता कि वह दूध बख्शे भी तो कैसे?

उस की सास उसे समझातेसमझाते हार गई हैं. मोहल्ले भर की मुंहबोली खाला हमीदा भी मौजूद हैं. हमीदा खाला का रोज का मामूल यानी दिनचर्या है, सुबह उठ कर सब के चूल्हे झांकना. यह पता लगाना कि किस के यहां क्या बन रहा है, क्या नहीं. किस के यहां सासबहू में बनती है, किस के यहां आपस में तनातनी रहती है. किस के लड़केलड़की की शादी तय हो गई है, किस की टूट गई है. किस की लड़की का चक्कर किस लड़के से है… वगैरहवगैरह…

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बाल की खाल निकालने में माहिर हमीदा खाला ऐसे शोक के अवसर पर भी बाज नहीं आतीं, अपना भरसक प्रयास करती हैं. जानना चाहती हैं कि मामला क्या है और नसरीन दूध क्यों नहीं बख्श रही?

वह नसरीन को समझाती हुई कहती हैं, ‘‘बहू, आखिर तुम्हें दिक्कत क्या है? तुम क्या सोच रही हो? दूध क्यों नहीं बख्श रही हो?”

हमीदा खाला थोड़ी देर शांत रहीं, फिर नसरीन की सास से बोलीं, ‘‘2 दिन पहले कितनी खुशी थी. सब के चेहरे कितने खिलेखिले थे…और आज…सब कुदरत की मरजी…वही जिंदगी देता है, वही मौत… बेचारी की जिंदगी इतनी ही थी…

नसरीन की सास चुपचाप बैठी रहीं. ना हूं किया, ना हां.

हमीदा खाला फिर से नसरीन की तरफ मुड़ीं,”क्यों रूठी हो बहू? यह कोई रूठने का वक्त है…देखो, तुम्हारे ससुर खफा हो रहे हैं… बाहर आदमी लोग इंतजार में बैठे हैं… बच्ची को कफन दिया जा चुका है और तुम झमेला फैलाए बैठी हुई हो?

दूसरी औरतें भी हमीदाखाला की हां में हां मिलाती हैं और नसरीन को दूध बख्शने की नसीहत देती हैं.

कहती हैं,”सिर्फ 3 मरतबा कह दे, ‘मैं ने दूख बख्शा, मैं ने दूख बख्शा, मैं ने दूख बख्शा…'”

पर वह टस से मस नहीं होती. बस एकटक अपनी मृत बच्ची को देखे जा रही है. ऐसा लगता है कि उसे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा है.

नहीं, उसे सबकुछ सुनाई पड़ रहा है और दिखाई भी…

शोरशराबा, धूमधाम… उस की सास खुशी से फूले नहीं समा रही हैं. ससुर पोते का मुंह देख कर खुश हैं और अख्तर, उस का तो हाल ही मत पूछो, वह शादी के बाद संभवतया  पहली बार इतना खुश हुआ है.

इस से पहले के अवसरों पर नसरीन के कोई करीब नहीं जाता था. अजी, उसे तो छोड़ ही दो, पैदा होने वाली बच्ची की भी तरफ कोई रुख नहीं करता था. न सास, न ससुर और न ही नन्दें.

अख्तर का व्यवहार तो बहुत ही बुरा होता था. वह कईकई हफ्ते नसरीन से बोलता नहीं था और जब बोलता तो बहुत बदतमीजी से. ऐसा लगता जैसे लड़की के पैदा होने में सारा दोष नसरीन की ही है.

पर इस बार अख्तर बहुत मेहरबान है. वह नसरीन पर सबकुछ लुटाने को तैयार है. मगर वह करे भी तो क्या? उस की जेब खाली है. इन दिनों उस का काम नहीं चल रहा है. बरसात का मौसम जो ठहरा.

इस मौसम में सिलाई का काम कहां चलता है? वैसे तो वह दिल्ली चला जाता था, पर अब रजिया उसे दिल्ली जाने कहां देती है…

रजिया से बहुत प्यार करता है वह और रजिया भी उसे. अख्तर के लिए ही रजिया अपनी ससुराल नहीं जाती. उस का शौहर उसे लेने कई बार आया था, पर उस ने उस की सूरत तक देखना गंवारा नहीं किया.

रजिया का एक बेटा भी है, उसी शौहर से. बहुत खूबसूरत. 8 बरस का. अख्तर को पापा कहता है. उस के पापा कहने पर नसरीन के कलेजे पर मानों सांप लोट जाता है और जब वह रजिया से कहती है कि वह समीर को मना करे कि वह अख्तर को पापा न कहे, तो रजिया नसरीन के घर घुस कर उस की पिटाई कर देती है और रहीसही कसर अख्तर पूरी कर देता है.

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लातघूसों के साथ गंदीगंदी गालियां देता है. तर्क देता है कि खुद बेटा पैदा नहीं कर सकतीं, ऊपर से किसी का बेटा मुझे पापा या अंकल कहे, तो उसे बुरा लगता है.

नसरीन कह सकती है, पर वह नहीं कहती कि रजिया का ही लड़का तुम्हें पापा क्यों कहता है?

मोहल्ले में और भी तो लड़के हैं. वह नहीं कहते पर जबानदराजी करे, तो क्या और पिटे? इसलिए वह बरदाश्त करती है. बरदाश्त करने के अतिरिक्त कोई और चारा भी तो नहीं है. उस के एक के बाद एक बेटी जो पैदा होती गई…

सास और नन्दों के ही नहीं, बल्कि सासससुर और शौहर के ताने सुनसुन कर वह अधमरी सी हो गई. अब तो सूख कर कांटा हो गई है वह. कहां उस का चेहरा फूल सा खिलाखिला रहता था और अब तो मुरझाया सा, बेरौनकबेनूर…

और इस बार बेटा पैदा हुआ भी, तो अकेला नहीं, अपने साथ अपनी एक और बहन को लेता आया. क्या उसे बहनों की कमी थी?

अरे, पैदा होना है, तो वहां हो, जहां रूपएपैसों की कोई कमी नहीं है. हम जैसे फटीचरों के यहां पैदा होने से क्या लाभ? लेकिन तुम को इस से क्या? तुमलोग तो बिना टिकट, बिना पास भागती चली आती हो.

अब देखो ना, एक बच्चे का बोझ उठाना कितना कठिन है. ऊपर से तुम भी…अरे, तुम्हारी क्या जरूरत थी? तुम क्यों चली आईं? किसी ऊंची बिल्डिंग में जा गिरतीं. पर वहां तुम कैसे पहुंच पातीं? वहां तो सारे काम देखभाल कर होते हैं. जांचपरख कर होते हैं…..और हम जैसे गरीबों के यहां तो बस अंधाधुंध, ताबड़तोड़…

अब तुम आई भी थीं, तो अपने साथ रूपयापैसा भी लेती आतीं. भला यह कहां हो सकता था. ऊपर से और कमी हो गई. इस बार मेरे पास आंचलभर दूध भी तो नहीं है. हो भी कैसे? मन भी बहुत खुश रहता है. ऊपर से भरपेट भोजन जो मिलता है…अरे, यह तुम्हारा भाई, कुछ न कुछ कर के अपना पेट पाल ही लेगा. लड़का है, कुछ भी न करे, तो भी खानदान की नस्ल तो बढ़ाएगा ही और तुम…

“बहू…”

हमीदा खाला की आवाज से नसरीन का ध्यान भग्न हुआ,”बहू, क्यों देर करती हो….क्यों जिद खाए बैठी हो? कोई बात हो तो बताओ… आखिर तुम्हें दूध बख्शने में कैसी शर्म… कुछ बोलो भी, क्या बात है? किसी से नाराज हो? किसी ने कुछ कहा है? क्या अख्तर मियां ने…?”

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नसरीन की सास को गुस्सा आ गया, बोलीं, ‘‘क्यों समझाती हो खाला? यह बहुत ढीठ है… कभी किसी की कोई बात मानी भी है, जो आज मानेगी। हमेशा अपने मन की करे है…मन हो, तो बोलेगी….ना हो, तो ना…’’

हमीदा खाला बोल पड़ीं, ‘‘अरे, ऐसी भी मनमानी किस काम की? बच्ची मरी पड़ी है और यह है कि फूली बैठी है।”

तभी अम्मां की आवाज सुन कर अख्तर अंदर आया और बड़े तैश में बोला, ‘‘क्या नौटंकी फैलाए बैठी हो?क्यों सब को परेशान करे है? दूध क्यों नहीं बख्शती?’’

अख्तर की दहाड़ का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा,”नसरीन बोल पड़ी, ‘‘हम इसे दूध पिलाए हों, तो बख्शें.’’

Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 3

‘‘आप के पास उस का जो पता था, वह गलत था. शहर की एक  झोंपड़पट्टी का उस ने जो पता दिया था, वह फर्जी निकला. वह कहीं और रहती थी.

‘‘अब यह बिलकुल आईने की तरफ साफ हो चुका है कि इस अपहरण में उस का ही हाथ है, तभी तो आप के जेवरात और बैंक खाते के बारे में बदमाशों को गहरी जानकारी थी.’’

पुलिस अब अगली कार्यवाही में जुट गई थी. उस ने अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया था.

मिनट घंटों में और घंटे दिन में बदल रहे थे. पुलिस भी पास के जिलों के जंगलपहाड़ों तक में खाक छान रही थी. 2 दिन बीत चुके थे और अभी तक गुडि़या का कोई सुराग, कोई अतापता नहीं था.

शाम के समय वनिता के पास फिर से बदमाशों का फोन आया. वह उलटे उन्हें ही डांटने लगी, ‘‘मैं रुपए ले कर बैठी हूं और तुम यहांवहां घूम रहे हो. मैं शाम को शहर के बौर्डर पर बागडि़या टैक्सटाइल फैक्टरी के पास बने आउट हाउस में अटैची ले कर अपनी एक सहेली के साथ रहूंगी.

‘‘और हां, तुम भी पुलिस को कुछ न बताना और मेरी बेटी को छोड़ कर रुपए ले जाना.’’

‘अरे, पुलिस को कुछ न बताने की बात तो मेरी थी.’

‘‘और, मु झे भी अपनी इज्जत प्यारी है, इसलिए कह रही हूं.’’

शहर के उस एरिया में एक पुराना इंडस्ट्रियल ऐस्टेट था जिस में पुरानी खंडहर उजाड़ फैक्टिरियां थीं. वनिता ने अपनी गाड़ी निकाली और सुमन के साथ अटैची ले कर बैठ गई.

कई एकड़ में फैली उस फैक्टरी में कोई आताजाता नहीं था. उस के ठीक नीचे नाला बह रहा था. वे दोनों वहीं एक दीवार की ओट में बैठ गईं, जहां से चारों तरफ का मंजर दिखता था.

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अचानक उस उजाड़ फैक्टरी की एक बिल्डिंग के अंदर से 2 आदमी बाहर निकले. उन के पीछे नौकरानी भुंगी भी गुडि़या को लिए दिखाई दी.

उन दोनों में से एक के हाथ में पिस्तौल थी. वह पिस्तौल को जेब में रखते हुए बोला, ‘‘अब इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ वह अटैची लेने के लिए आगे बढ़ा.

अचानक बिजली की तेजी से वनिता ने उसे अटैची देते वक्त जोरों का धक्का दिया तो वह आदमी अटैची को लिए हुए ही नाले में जा गिरा.

उसे गिरता देख कर दूसरा आदमी एकदम से भाग खड़ा हुआ. सुमन दौड़ कर गुडि़या की ओर लपकी, तो भुंगी उसे छोड़ कर भाग निकली.

वनिता और सुमन ने जल्दी गुडि़या के बंधन खोले. गुडि़या उन से चिपट कर रोने लगी.

‘‘आप ने तो कमाल कर दिया वनिताजी…’’ पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस की तारीफ करने लगा था, ‘‘हमें मालूम पड़ा कि आप इधर आ रही हैं, तो हम ने भी आप का पीछा किया और यहां तक आ पहुंचे.’’

थोड़ी देर में उस घायल मुजरिम के साथ पुलिस आती दिखी जो नाले में जा गिरा था. एक पुलिस वाले के हाथ में अटैची भी थी.

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने अटैची खोली तो उसे हंसी आ गई. अटैची में पुरानी किताबें, पत्रिकाएं और अखबार भरे थे. उस भारी अटैची को समेट न पाने के चलते ही वह आदमी वनिता के एक धक्के से नाले में लुढ़क गया था.

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‘‘आप के इस साहस से न सिर्फ आप को अपनी बेटी मिली है, बल्कि हमें भी एक खतरनाक मुजरिम मिला है. अब इस के जरीए सारे मुजरिम हवालात में होंगे. मैं आप के इस साहस की तारीफ करता हूं. फिलहाल तो आप अपनी बेटी को ले कर घर जाइए, बाकी औपचारिकताएं बाद में होंगी.’’

‘‘अरे भाई, वनिता के साहस के कायल हम भी हैं…’’ करीम भाई बोला, ‘‘तभी तो औफिस की खास फाइलें इन्हीं के पास आती हैं.’’

‘‘वनिता एक मां भी हैं करीमजी. और एक मां अपनी औलाद के लिए शेर को भी माल दे सकती है…’’ सुमन बोल पड़ी, ‘‘वनिता, अब घर चलो. गुडि़या को सामान्य करते हुए तुम्हें खुद भी सामान्य होना है. आगे का काम पुलिस पूरा कर लेगी.’’

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Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 1

मां उसे सम झा रही थीं, ‘‘दामादजी सिंगापुर जा रहे हैं. ऐसे में तुम नौकरी पर जाओगी तो बच्चे की परवरिश ठीक से नहीं हो पाएगी. वैसे भी अभी तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है. दामादजी भी अच्छाखासा कमा रहे हैं. तुम्हारा अपना घर है, गाड़ी है…’’

‘‘तुम साफसाफ यह क्यों नहीं कहती हो कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तुम भी क्या दकियानूसी बातें करती हो मां,’’ वनिता बिफर कर बोली, ‘‘इतनी मेहनत और खर्च कर के मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की है, वह क्या यों ही बरबाद हो जाने दूं. तुम्हें मेरे पास रह कर गुडि़या को नहीं संभालना तो साफसाफ बोल दो. मेरी सास भी बहाने बनाने लगती हैं. अब यह मेरा मामला है तो मैं ही सुल झा लूंगी. भुंगी को मैं ने सबकुछ सम झा दिया है. वह यहीं मेरे साथ रहने को राजी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है वनिता…’’ मां उसे सम झाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अब हम लोगों की उम्र ढल गई है. अपना ही शरीर नहीं संभलता, तो दूसरे को हम बूढ़ी औरतें क्या संभाल पाएंगी. सौ तरह के रोग लगे हैं शरीर में, इसलिए ऐसा कह रही थी. बच्चे की सिर्फ मां ही बेहतर देखभाल कर सकती है.’’

‘‘मैं फिर कहती हूं कि मैं ने इतनी मेहनत से पढ़ाईलिखाई की है. मु झे बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है, जिस के लिए हजारों लोग खाक छानते फिरते हैं और तुम कहती हो कि इसे छोड़ दूं.’’

‘‘मांजी का वह मतलब नहीं था, जो तुम सम झ रही हो…’’ शेखर बीच में बोला, ‘‘अभी गुडि़या बहुत छोटी है. और मांजी अपने जमाने के हिसाब से बातें समझा रही हैं. गुडि़या की चंचल हरकतें बढ़ती जा रही हैं. 2 साल की उम्र ही क्या होती है.’’

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‘‘तुम तो नौकरी छोड़ने के लिए बोलोगे ही… आखिर मर्द हो न.’’

‘‘अब जो तुम्हारे जी में आए सो करो…’’ शेखर पैर पटकते हुए वहां से जाते हुए बोला, ‘‘परसों मु झे सिंगापुर के लिए निकलना है. महीनेभर का कार्यक्रम है. बस, मेरी गुडि़या को कुछ नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मेम साहब, मैं बच्ची देख लूंगी…’’ भुंगी पान चबाते हुए बीच में आ कर बोली, ‘‘आखिर हमें भी तो अपना पेट पालना है.’’

‘‘तुम्हें अपने बनावसिंगार से फुरसत हो तब तो तुम बच्ची को देखोगी…’’ वनिता की सास बीच में आ कर बोलीं, ‘‘हम जरा बीमार क्या हुए, फालतू हो गए. घर में सौ तरह के काम हैं. सब तरफ से भरेपूरे हैं हम. एक बच्चे की कमी थी, वह भी पूरी हो गई. हमें और और क्या चाहिए.’’

‘‘देखिए बहनजी, आप ही इसे सम झाएं कि ऐसे में कोई जरूरी तो नहीं कि यह नौकरी करे…’’ अब वे वनिता की मां से मुखातिब थीं, ‘‘4 साल तो नौकरी कर ली. अब यह  झं झट छोड़े और चैन से घर में रहे.’’

‘‘अब मैं आप लोगों के मुंह नहीं लगने वाली. मैं साफसाफ कहे देती हूं कि मैं नौकरी नहीं छोड़ने वाली. मु झे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है. मु झे भी अपनी आजादी चाहिए. मैं आम औरतों की तरह नहीं जी सकती.’’

‘‘मु झे भी तो काम और पैसा चाहिए मेम साहब…’’ भुंगी खीसें निपोर कर बोली, ‘‘आप निश्चिंत हो कर चाकरी करो. मैं भी चार रोटी खा कर यहीं पड़ी रहूंगी. घर और गुडि़या को देख लूंगी.’’

‘‘भुंगी, मु झे तुम पर पूरा यकीन है…’’ वनिता चहकते हुए बोली, ‘‘ये पुराने जमाने के लोग हैं. आगे की क्या सोचेंगे. मु झ में हुनर है, तो मु झे इस का फायदा मिलना ही चाहिए. औफिस में मेरा नाम और इज्जत है. आखिर नाम कमाना किस को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘पता नहीं, कहां से आई है यह भुंगी…’’ वनिता की मां उस की सास से बोलीं, ‘‘न पता, न ठिकाना. मु झे इस के लक्षण भी ठीक नहीं दिखते. पता नहीं, क्या पट्टी पढ़ा दी है कि इस वनिता की तो मति मारी गई है.’’

भुंगी इस महल्ले में  झाड़ूपोंछे का काम करती थी. उस ने वनिता के घर में भी काम पकड़ लिया था. अब वह वनिता की भरोसेमंद बन गई थी. काम के बहाने वह ज्यादातर यहीं रह कर वनिता की हमराज भी बन गई थी. वनिता उसे पा कर खुश थी.

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घर में बूढ़े सासससुर थे, मगर वे अपनी ही बीमारी के चलते ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. शेखर अपने संस्थान के खास इंजीनियर थे. सिंगापुर की एक नामी यूनिवर्सिटी में एक महीने की खास ट्रेनिंग के लिए उन का चयन किया गया था. इस ट्रेनिंग के पूरा होने के बाद उन की डायरैक्टर के पद पर प्रमोशन तय था. मगर उन का नन्ही सी गुडि़या को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था. वे उस की हिफाजत और देखभाल के लिए आश्वस्त होना चाहते थे, इसलिए वनिता ने अपनी मां को यहां बुलाना चाहा था. मगर मां ने साफतौर पर मना कर दिया तो वनिता को निराशा हुई. अब वह भुंगी के चलते आश्वस्त थी कि सबकुछ ठीकठाक चल जाएगा.

दसेक दिन तो ठीकठाक ही चले. भुंगी के साथ गुडि़या हिलमिल गई थी और उस के खानपान और रखरखाव में अब कोई परेशानी नहीं थी.

Mother’s Day Special- मां का साहस: भाग 2

एक दिन शाम को वनिता औफिस से घर लौटी तो उसे घर में सन्नाटा पसरा दिखा. आमतौर पर उस के घर आते ही गुडि़या उछल कर उस के सामने चली आती थी, मगर आज न तो उस का और न ही भुंगी का कोई अतापता था.

वनिता ने ससुर के कमरे में जा कर  झांका. वहां सास बैठी थीं और वे ससुर के तलवे पर तेल मल रही थीं.

‘‘आप ने गुडि़या को देखा क्या?’’ वनिता ने सवाल किया, ‘‘भुंगी भी नहीं दिखाई दे रही है.’’

‘‘वह अकसर उसे पार्क में घुमाने ले जाती है…’’ सास बोलीं, ‘‘आती ही होगी.’’

वनिता हाथमुंह धोने के बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. अभी तक उन लोगों का कोई पता नहीं था. आमतौर पर औफिस से आने पर वह गुडि़या से बातें कर के हलकी हो जाती थी. तब तक भुंगी चायनाश्ता तैयार कर उसे दे देती थी.

वनिता उठ कर रसोईघर में गई. चाय बना कर सासससुर को दी और खुद चाय का प्याला पकड़ कर ड्राइंगरूम में टीवी के सामने बैठ गई.

थोड़ी देर बाद ही शेखर का फोन आया. औपचारिक बातचीत के बाद शेखर ने पूछा, ‘‘गुडि़या कहां है?’’

‘‘भुंगी उसे कहीं घुमाने ले गई है…’’ वनिता ने उसे आश्वस्त किया, ‘‘बस, वह आती ही होगी.’’

बाहर अंधेरा गहराने लगा था और अब तक न भुंगी का कोई पता था और न ही गुडि़या का. वनिता बेचैनी से उठ कर घर में ही टहलने लगी. पूरा घर जैसे सन्नाटे से भरा था. बाहर जरा सी भी आहट हुई नहीं कि वह उधर ही देखने लगती थी.

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अब वनिता ने पड़ोस में जाने की सोची कि वहीं किसी से पूछ ले कि गुडि़या को साथ ले कर भुंगी कहीं वहां तो नहीं बैठी है कि अचानक उस का फोन घनघनाया.

वनिता ने लपक कर फोन उठाया.

‘तुम्हारी बच्ची हमारे कब्जे में है…’ उधर से एक रोबदार आवाज आई, ‘बच्ची की सलामत वापसी के लिए 30 लाख रुपए तैयार रखना. हम तुम्हें 24 घंटे की मोहलत देते हैं.’

‘‘तुम कौन हो? कहां से बोल रहे हो… अरे भाई, हम 30 लाख रुपए का जुगाड़ कहां से करेंगे?’’

‘हमें बेवकूफ सम झ रखा है क्या… 5 लाख के जेवरात हैं तुम्हारे पास… 10 लाख की गाड़ी है… तुम्हारे बैंक खाते में 7 लाख रुपए बेकार में पड़े हैं… और शेखर के खाते में 12 लाख हैं. घर में बैठा बुड्ढा पैंशन पाता है. उस के पास भी 2-4 लाख होंगे ही.

‘‘हम ज्यादा नहीं, 30 लाख ही तो मांग रहे हैं. तुम्हारी गुडि़या की जान की कीमत इस से कम है क्या…

वनिता को धरती घूमती नजर आ रही थी. बदमाशों को उस के घर के हालात का पूरा पता है, तभी तो बैंक में रखे रुपयों और जेवरात की उन्हें जानकारी है. उस ने तुरंत अपने मम्मीपापा को फोन किया. इस के अलावा कुछ दोस्तों को भी फोन किया.

देखते ही देखते पूरा घर भर गया. शेखर के दोस्त राकेश ने वनिता को सलाह दी कि उसे शेखर को फोन कर के सारी जानकारी दे देनी चाहिए, मगर वनिता के दफ्तर में काम करने वाली सुमन तुरंत बोली, ‘‘यह हमारी समस्या है, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. हम औरतें हैं तो क्या हुआ, जब हम औफिस की बड़ीबड़ी समस्याएं सुल झा सकती हैं तो इसे भी हमें ही सुल झाना चाहिए. जरा सब्र से काम ले कर हम इस समस्या का हल निकालें तो ठीक होगा.’’

‘‘मेरे खयाल से यही ठीक रहेगा,’’ राकेश ने अपनी सहमति जताई.

‘‘तो अब हम क्या करें?’’ वनिता अब खुद को संतुलित करते हुए बोली, ‘‘अब मु झे भी यही ठीक लग रहा है.’’

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‘‘सब से पहले हम पुलिस को फोन कर के सारी जानकारी दें…’’ सुमन बोली, ‘‘हमारे औफिस के ही करीम भाई के एक परिचित पुलिस में इंस्पैक्टर हैं. उन से मदद मिल जाएगी.’’

‘‘तो फोन करो न उन्हें…’’ राकेश बोला, ‘‘उन्हीं के द्वारा हम अपनी बात पुलिस तक पहुंचाएंगे.’’

वनिता ने करीम भाई को फोन लगाया तो वे आधी रात को ही वहां पहुंच गए.

‘‘मैं ने अपने कजिन अजमल को, जो पुलिस इंस्पैक्टर है, फोन कर दिया है. वह बस आता ही होगा,’’ करीम भाई ने कहा.

करीम भाई ने वनिता को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो. तुम्हारी बेटी को अजमल जल्द ही ढूंढ़ निकालेगा.’’

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने आते ही वनिता से कुछ जरूरी सवाल पूछे. नौकरानी भुंगी की जानकारी ली और सब को पुलिस स्टेशन ले गए.

एफआईआर दर्ज करने के बाद इंस्पैक्टर अजमल बोले, ‘‘वनिताजी, इस समय यहां एक रैकेट काम कर रहा है. यह वारदात उसी की एक कड़ी है. हम उन लोगों तक पहुंचने ही वाले हैं. दिक्कत बस यही है कि इसे राजनीतिक सरपरस्ती मिली हुई है, इसलिए हमें फूंकफूंक कर कदम रखना है. अभी आप घर जाएं और जब अपहरण करने वालों का फोन आए तो उन से गंभीरतापूर्वक बात करें.’’

वनिता की आंखों में नींद नहीं थी. इतना बड़ा हादसा हो और नींद आए तो कैसे. रात जैसे आंखों में कट गई. इतनी छोटी सी बच्ची कहां, किस हाल में होगी, पता नहीं. सासससुर का भी रोतेरोते बुरा हाल था. मां उसे अलग कोस रही थीं, ‘‘और कर ले नौकरी. मैं कह रही थी न कि बच्चों की देखभाल मां ही बेहतर कर सकती है. मगर इसे तो अपने समाज की इज्जत और रोबरुतबे का ही खयाल था.’’

वनिता ने अपने कमरे में जा कर अटैची निकाली. अलमारी खोल कर पैसे देखने लगी कि उस का मोबाइल फोन बजने लगा.

‘क्या हुआ…’

‘‘रुपयों का इंतजाम कर रही हूं…’’ वह बोली, ‘‘तुम कहां हो? जल्दी बोलो कि मैं वहां आऊं.’’

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‘अभी इतनी जल्दी क्या है,’ उधर से हंसने की आवाज आ कर बंद हो गई.

अचानक पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस के घर में आए और दोबारा जब उस से भुंगी के फोन और पते की बात पूछी तो वह घबरा गई.

‘‘वह तो इस महल्ले में कई साल से रहती थी.’’

Short Story: कोरोना का खौफ

मैं पिछले 2 वर्षों से दिल्ली में अपनी चाची के यहां रह कर पढ़ाई कर रही हूं. चाची का घर इसलिए कहा क्योंकि घर में चाचू की नहीं, बल्कि चाची की चलती है. मेरे अलावा घर में 7 साल का गोलू, 14 साल का मोनू और 47 साल के चाचू हैं. गोलू और मोनू चाचू के बेटे यानी मेरे चचेरे भाई हैं.

मार्च 2020 की शुरुआत में जब कोरोना का खौफ समाचारों की हैडलाइन बनने लगा तो हमारी चाचीजी के भी कान खड़े हो गए. वे ध्यान से समाचार पढ़तीं और सुनती थीं. कोरोना नाम का वायरस जल्दी ही उन का जानी दुश्मन बन गया जो कभी भी चुपके से उन के हंसतेखेलते घर की चारदीवारी पार कर हमला बोल सकता था. इस अदृश्य मगर खौफनाक दुश्मन से जंग के लिए चाची धीरेधीरे तैयार होने लगी थीं.

‘‘दुश्मन को कभी भी कमजोर मत समझो. पूरी तैयारी से उस का सामना करो,’’ अखबार पढ़ती चाची ने अपना ज्ञान बघारना शुरू किया तो चाचू ने टोका, ‘‘कौन दुश्मन? कैसा दुश्मन?’’

‘‘अजी, अदृश्य दुश्मन जो पूरी फौज ले कर भारत में प्रवेश कर चुका है. हमले की तैयारी में है. चौकन्ने हो जाओ. हमें डट कर सामना करना है. उसे एक भी मौका नहीं देना है. कुछ समझे?’’

‘‘नहीं श्रीमतीजी. मैं कुछ नहीं समझा. स्पष्ट शब्दों में समझाओगी?’’

‘‘चाचू, कोरोना. कोरोना हमारा दुश्मन है. चाची उसी के साथ युद्ध की बात कर रही हैं.’’ मुसकराते हुए मैं ने कहा तो चाची ने हामी भरी, ‘‘देखो जी, सब से पहला काम, रसद की आपूर्ति करनी जरूरी है. मैं लिस्ट बना कर दे रही हूं. सारी चीजें ले आओ.’’

‘‘तुम्हारे कहने का मतलब राशन है?’’

‘‘हां, राशन भी है और उस के अलावा भी कुछ जरूरी चीजें ताकि हम खुद को लंबे समय तक मजबूत और सुरक्षित रख सकें.’’

इस के कुछ दिनों बाद ही अचानक लौकडाउन हो गया. अब तक कोरोना वायरस का खौफ चाची के दिमाग तक चढ़ चुका था. अखबार, पत्रिकाएं, न्यूज चैनल और दूसरे स्रोतों से जानकारियां इकट्ठी कर चाची एक बड़े युद्ध की तैयारी में लग गई थीं.

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वे दुश्मन को घुसपैठ का एक भी मौका देना नहीं चाहती थीं. इस के लिए उन्होंने बहुत से रास्ते अपनाए थे. आइए आप को भी बताते हैं कि कितनी तैयारी के साथ. वे किसी सदस्य को घर से बाहर भेजती और कितनी आफतों के बाद किसी सदस्य को या बाहरी सामान को घर में प्रवेश करने की इजाजत देती थीं.

सुबहसुबह चाचू को टहलने की आदत थी जिस पर चाची ने बहुत पहले ही कर्फ्यू लगा दिया था. मगर चाचू को सुबह मदर डेयरी से गोलू के लिए गाय का खुला दूध लेने जरूर जाना पड़ता है.

चाचू दूध लाने के के लिए सुबह ही निकलते तो चाची उन्हें कुछ ऐसे तैयार होने की ताकीद करतीं, ‘‘पाजामे के ऊपर एक और पाजामा पहनो. टीशर्ट के ऊपर कुरता डालो. पैरों में मोजा और चेहरे पर चश्मा लगाना मत भूलना. नाक पर मास्क और बालों को सफेद दुपट्टे से ढको. इस दुपट्टे के दूसरे छोर को मास्क के ऊपर कवर करते हुए ले जाओ.’’

चाची को डर था कि कहीं मास्क के बाद भी चेहरे का जो हिस्सा खुला रह गया है वहां से कोरोना नाम का दुश्मन न घुस जाए. इसलिए डाकू की तरह पूरा चेहरा ढक कर उन्हें बाहर भेजतीं.

जब चाचू लौटते तो उन्हें सीधा घर में घुसने की अनुमति नहीं थी. पहले चाचू का चीरहरण चाची के हाथों होता. ऊपर पहनाए गए कुरतेपाजामे और दुपट्टे को उतार कर बरामदे की धरती पर एक कोने में फेंक दिया जाता. फिर मोजे भी उतरवा कर कोने में रखवाए जाते. अब सर्फ का झाग वाला पानी ले कर उन के पैरों को 20 सैकंड तक धोया जाता. फिर चप्पल उतरवा कर अंदर बुलाया जाता.

इस बीच अगर उन्होंने गलती से परदा टच भी कर दिया तो चाची तुरंत परदा उतार कर उसी कोने में पटक देतीं.

अब चाचू के हाथ धुलाए जाते. पहले 20 सैकंड डिटौल हैंडवाश से ताकि कहीं किसी भी कोने में वायरस के छिपे रह जाने की गुंजाइश भी न रह जाए. इस के बाद उन्हें सीधे गुसलखाने में नहाने के लिए भेज दिया जाता.

अगर चाचू बिना पूछे कुछ ला कर कमरे या फ्रिज में रख देते, तो वे हल्ला करकर के पूरा घर सिर पर उठा लेतीं.

चाचू जब दुकान से दूध और दही के पैकेट खरीद कर लाते तो चाची उन्हें भी कम से कम दोदो बार 19-20 सैकंड तक साबन से रगड़रगड़ कर धोतीं.

एक बात और बता दूं, घर के सभी सदस्यों के लिए बाहर जाने के चप्पल अलग और घर के अंदर घूमने के लिए अलग चप्पल रखवा दी गई थीं. मजाल है कि कोई इस बात को नजरअंदाज कर दे.

सब्जी वाले भैया हमारी गली के छोर पर आ कर सब्जियां दे जाते थे. सब्जी खरीदने का काम चाची ने खुद संभाला था. इस के लिए पूरी तैयारी कर के वे खुद को दुपट्टे से ढक कर निकलतीं.

कुछ समय पहले ही उन्होंने प्लास्टिक के थैलों के 2-3 पैकेट खरीद लिए थे. एक पैकेट में 40-50 तक प्लास्टिक के थैले होते थे. आजकल यही थैले चाची सब्जियां लाने के काम में ला रही थीं.

सब्जी खरीदने जाते वक्त वे प्लास्टिक का एक बड़ा थैला लेतीं और एक छोटा थैला रखतीं. छोटे थैले में रुपएपैसे होते थे जिन्हें वे टच भी नहीं करती थीं. सब्जी वाले के आगे थैला बढ़ा कर कहतीं कि रुपए निकाल लो और चेंज रख दो.

अब बात करते हैं बड़े थैले की. दरअसल चाची सब्जियों को खुद टच नहीं करती थीं. पहले जहां वे एकएक टमाटर देख कर खरीदा करती थीं, अब कोरोना के डर से सब्जी वाले को ही चुन कर देने को कहतीं और खुद दूर खड़ी रहतीं. सब्जीवाला अपनी प्लास्टिक की पन्नी में भर कर सब्जी पकड़ाता तो वे उस के आगे अपना बड़ा थैला कर देती थीं जिस में सब्जी वाले को बिना छुए सब्जी डालनी होती थी.

सब्जी घर ला कर चाची उसे बरामदे में एक कोेने में अछूतों की तरह पटक देतीं. 12 घंटे बाद उसे अंदर लातीं और वाशबेसिन में एक छलनी में डाल कर बारबार धोतीं. यहां तक कि सर्फ का झाग वाला पानी 20 सैकंड से ज्यादा समय तक उन पर उड़ेलती रहतीं. काफी मशक्कत के बाद जब उन्हें लगता कि अब कोरोना इन में सटा नहीं रह गया और ये सब्जियां फ्रिज में रखी जा सकती हैं, तो धोना बंद करतीं. सब्जी बनाने से पहले भी हलके गरम पानी में नमक डाल कर उन्हें भिगोतीं.

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दिन में कम से कम 50 बार वे अपना हाथ धोतीं. अखबार छुआ तो हाथ धोतीं, सब्जी छू ली तो हाथ धोतीं. दरवाजे का कुंडा या फ्रिज का हैंडल छुआ तो भी हाथ धोतीं. हाथ धोने के बाद भी कोई वायरस रह न जाए, इस के लिए सैनिटाइजर भी लगातीं.

नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों में उन के हाथों की त्वचा ड्राई और सफेद जैसी हो गई. उन्हें चर्म रोग हो गया था. इधर पूरे दिन कपड़ों और बरतनों की बारात धोतेधोते उन्हें सर्दी लग गई. नाक बहने लगी, छींकें भी आ गईं.

अब तो चाची ने घर सिर पर उठा लिया. कोरोना के खौफ से वे एक कमरे में बंद हो गईं और खुद को ही क्वारंटाइन कर लिया. डर इतना बढ़ गया कि बैठीबैठी रोने लगतीं. 2 दिन वे इसी तरह कमरे में बंद रहीं.

तब मैं ने समझाया कि हर सर्दीजुकाम कोरोना नहीं होता. मैं ने उन्हें कुछ दवाइयां दीं और चौथे दिन वे बिल्कुल स्वस्थ हो गईं. मगर कोरोना के खौफ की बीमारी से अभी भी वे आजाद नहीं हो पाई हैं.

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Short Story- अपने हिस्से की ईमानदारी

लेखक: मंजर इमाम

प्रस्तुति: कलीम उल्लाह

नादिर गुलशन इकबाल के एक शानदार मकान में रहता था. उस के पास बहुत पैसा था. वह कोई काम नहीं करता था. बस, जरूरतमंद लोगों को पैसे ब्याज पर देता था. इस काम से उसे अच्छीखासी आमदनी थी और उस से बहुत आराम से गुजारा होता था. नादिर का कहना था कि यही उस का बिजनैस है और बिजनैस से मुनाफा लेना कोई बुरी बात नहीं है.

कर्ज के तौर पर दिए गए पैसों का ब्याज वह हर महीने वसूल करता था. नादिर ने पैसे वसूल करने के लिए कुछ कारिंदे भी रखे हुए थे. अगर कोई आदमी पैसे देने में आनाकानी करता था तो कारिंदे गुंडागर्दी पर उतर आते थे, कर्जदार के हाथपैर तोड़ देते थे और कभीकभी गोलियां भी मार देते थे. नादिर ने आसपास के थानेदारों को पटा रखा था.

एक दिन नादिर का दोस्त अकरम अपने एक परिचित युवक नोमान को ले कर उस के पास आया. नोमान एक शरीफ आदमी लग रहा था. उस के चेहरे से दुख और परेशानी झलक रही थी.

अकरम ने नादिर से नोमान का परिचय कराया और कहा, ‘‘नादिर भाई, ये आजकल कुछ परेशानी में फंसे हुए हैं. आप इन की मदद कर दीजिए. नोमान आप का पैसा जल्द वापस कर देंगे. इन का होजरी का कारोबार है.’’

‘‘अच्छा, कितने पैसों की जरूरत है आप को?’’ नादिर ने पूछा.

नोमान ने कहा, ‘‘नादिर भाई, मुझे 5 लाख की जरूरत है. मैं ने आज तक किसी से कर्ज नहीं लिया, लेकिन इस बार मजबूर हो

गया हूं.’’

‘‘लेकिन अकरम,’’ नादिर ने अपने दोस्त की तरफ देखते हुए पूछा, ‘‘इस बंदे की जमानत कौन लेगा?’’

‘‘नादिर साहब,’’ नोमान बोला, ‘‘मैं एक शरीफ आदमी हूं. सदर में मेरी दुकान और अल आजम स्क्वायर में मेरा फ्लैट है. मैं आप के पैसे ले कर कहीं भागूंगा नहीं.’’

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‘‘आप भाग ही नहीं सकते,’’ नादिर हंसते हुए बोला, ‘‘खैर, 5 लाख के लिए आप को हर महीने 50 हजार ब्याज देना पड़ेगा, आप को मंजूर है?’’

नोमान ने 50 हजार ब्याज देने से इनकार कर दिया. लेकिन अकरम के कहने पर नादिर 30 हजार महीना ब्याज पर राजी हो गया. नादिर ने कहा कि ब्याज की रकम कम करना उस के नियम के खिलाफ है लेकिन नोमान एक अच्छा आदमी लग रहा है, इसलिए इतनी छूट दे दी.

नादिर के दोस्त अकरम ने कहा, ‘‘नादिर भाई, मैं ने आप दोनों को मिलवा दिया है. अब जो भी मामला है, वह आप दोनों का है. आप हर तरह से तसल्ली करने के बाद इन्हें पैसा दें. फिर इन्होंने मूल रकम या ब्याज दिया या नहीं या आप ने इन के साथ कोई ज्यादती की, मुझे इस से कोई लेनादेना नहीं. आगे आप दोनों जानें.’’

‘‘ठीक है यार, मैं तुझ पर कोई इलजाम नहीं लगाऊंगा. अब यह मेरा मामला है, लेकिन मैं नोमान का मकान जरूर देखूंगा.’’ नादिर ने अकरम से कहा.

नोमान तुरंत बोला, ‘‘क्यों नहीं नादिर भाई, आप जब चाहें मकान देख लें बल्कि आप शुक्रवार को आ जाएं, मैं घर पर ही रहूंगा. दोनों एक साथ बैठ कर चाय पिएंगे.’’

अपनी संतुष्टि के लिए नादिर शुक्रवार को नोमान का घर देखने पहुंच गया. नोमान का फ्लैट बहुत अच्छा था. नोमान ने नादिर को देख कर फौरन फ्लैट का दरवाजा खोल दिया और कहा, ‘‘वेलकम नादिर भाई, मैं तो समझ रहा था कि शायद आप ने यूं ही कह दिया. आप तशरीफ नहीं लाएंगे.’’

‘‘क्यों नहीं आऊंगा. हमारे धंधे में जबान की बहुत अहमियत होती है. जो कह दिया, सो कह दिया.’’ नादिर बोला.

नोमान ने नादिर को ड्राइंगरूम में बिठा दिया. नादिर को पूरी तरह तसल्ली हो गई कि उस का पैसा कहीं नहीं जाएगा. वैसे भी नोमान शरीफ आदमी दिखाई दे रहा था.

‘‘माफ करना नादिर भाई, आज बेगम घर पर नहीं हैं, इसलिए आप को मेरे हाथ की चाय पीनी पड़ेगी.’’

‘‘अरे, इस की जरूरत नहीं है,’’ नादिर बोला.

‘‘यह तो हो ही नहीं सकता,’’ नोमान ने कहा, ‘‘मैं अभी हाजिर हुआ.’’

नोमान अंदर किचेन की तरफ चला गया. इस दौरान नादिर फ्लैट का निरीक्षण करता रहा. चाय और नमकीन आदि से निपटने के बाद नोमान ने पूछा, ‘‘तो फिर आप ने क्या फैसला किया?’’

‘‘ठीक है,’’ नादिर ने हामी भरी, ‘‘मुझे आप की तरफ से इत्मीनान हो गया है. मैं कल आऊंगा पैसे ले कर.’’

नोमान ने उस का शुक्रिया अदा किया और कहा, ‘‘यकीन करें, अगर इतनी जरूरत न होती तो मैं कभी पैसे नहीं लेता.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ नादिर मुसकरा दिया, ‘‘हम जैसों को जरूरत में ही याद किया जाता है. अब मैं चलता हूं.’’

नादिर अपने घर वापस आ गया. उस ने अपने दोस्त अकरम को फोन कर दिया, जिस ने नोमान का परिचय कराया था, ‘‘हां भाई, मुझे बंदा ठीक लगा. घर भी देख लिया है उस का. उसे कल पैसे दे दूंगा.’’

दूसरे दिन शाम को नादिर 5 लाख रुपए ले कर नोमान के घर पहुंच गया. दस्तक के जवाब में एक युवती ने दरवाजा खोला. वह एक सुंदर औरत थी. नादिर के अंदाज के अनुसार उस की उम्र 28-30 साल थी. वह प्रश्नसूचक नजरों से नादिर को देख रही थी.

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‘‘मुझे नोमान से मिलना है,’’ नादिर ने कहा, ‘‘मेरा नाम नादिर है.’’

‘‘ओह! आप नादिर साहब हैं. नोमान ने मुझे आप के बारे में बताया था. मैं उन की मिसेज अंबर हूं. आप अंदर आ जाएं. नोमान शावर ले रहे हैं. मैं उन्हें बता देती हूं.’’

नादिर अंदर जा कर बैठ गया, उसी ड्राइंगरूम में जहां कल बैठा था. नोमान की पत्नी अंदर चली गई. नादिर को वह स्त्री बहुत अच्छी लगी थी. वैसे तो वह बहुत ज्यादा सुंदर नहीं थी, लेकिन उस में एक खास किस्म की कशिश जरूर थी. नादिर ने बहुत कम औरतों में ऐसा आकर्षण देखा था.

कुछ देर बाद नोमान की पत्नी अंबर चाय आदि ले कर आई और नादिर से बोली, ‘‘ये लें, चाय पिएं. नोमान आ रहे हैं.’’

वैसे तो अंबर चाय दे कर चली गई थी, लेकिन नादिर के लिए वह अभी तक उसी ड्राइंगरूम में थी. उस के बदन की खुशबू से पूरा कमरा महक रहा था. नादिर उस स्त्री से बहुत प्रभावित हुआ.

कुछ देर बाद नोमान नहा कर आ गया. दोनों ने बहुत गर्मजोशी से हाथ मिलाया. नादिर बोला, ‘‘नोमान, मैं तुम्हारे 5 लाख रुपए ले आया हूं.’’

फिर उस ने अपनी जेब से नोटों की गड्डी निकाल कर मेज पर रख दी.

नोमान ने कहा, ‘‘बहुतबहुत शुक्रिया, मैं अभी आया.’’

‘‘तुम कहां चल दिए,’’ नादिर ने पूछा.

‘‘पहचान पत्र की फोटो कौपी लेने,’’ नोमान ने बताया.

‘‘अरे, रहने दो,’’ नादिर बेतकल्लुफी से बोला, ‘‘उस की जरूरत नहीं है.’’

फिर कुछ देर बाद वह चला गया.

नादिर लड़कियों और औरतों का शिकारी था. उसे अंदाजा हो गया था कि नोमान की पत्नी अंबर को हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं होगा. उस ने अंबर की आंखों के इशारे देख लिए थे, जो बहुत सामान्य लगते थे, लेकिन नादिर जैसे लोगों के लिए इतना ही बहुत था.

नादिर को एक महीने तक इंतजार करना था. उस ने नोमान से कहा था, ‘‘आप मेरे पास आने का कष्ट न करें. मैं स्वयं ही ब्याज की किस्त लेने आ जाया करूंगा. कुछ गपशप भी हो जाएगी और चाय भी चलती रहेगी.’’

ब्याज की किस्त वसूल करने के सिलसिले में नादिर बहुत कठोर था. वह मोहलत देने का विरोधी था. अगर वह मोहलत देता भी था, तो रोजाना के हिसाब से जुरमाना भी वसूल करता था. नादिर के साथ उस के गुंडे भी होते थे, इसलिए कोई इनकार नहीं करता था.

नादिर अपने समय पर नोमान के घर ब्याज की रकम लेने के लिए पहुंच गया. नोमान किसी काम से बाहर गया हुआ था. घर पर सिर्फ उस की बीवी थी. उस ने नादिर को प्रेमपूर्वक घर के अंदर बुला लिया. फिर उस के लिए चाय बना कर ले आई और खुद भी उस के सामने बैठ गई. चाय पीने के दौरान उस ने कहा, ‘‘नादिर साहब, अगर इस बार नोमान को पैसे देने में कुछ देर हो जाए तो बुरा तो नहीं मानेंगे.’’

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‘‘क्यों, खैरियत तो है?’’ नादिर ने पूछा.

‘‘कहां खैरियत, मेरी अम्मी बीमार हैं. नोमान ने इस बार के पैसे उन के इलाज में लगा दिए,’’ अंबर ने बताया.

‘‘अरे चलें, कोई बात नहीं, उस से कह देना फिक्र न करे.’’

‘‘नोमान कह रहे थे कि आप रोजाना के हिसाब से जुरमाना भी वसूल करते हैं,’’ नोमान की पत्नी बोली.

‘‘अरे, उस की फिक्र न करें. ऐसा होता तो है लेकिन यह उसूल, नियम सब के साथ नहीं होता. अपने लोगों को छूट देनी पड़ती है,’’ नादिर ने अपने लोगों पर खास जोर दिया.

नोमान की पत्नी अंबर मुसकरा दी. उस की मुसकराहट देख कर नादिर का दिल खुश हो गया. फिर चाय की प्याली समेटते हुए अंबर का हाथ नादिर के हाथ से टकरा गया. नादिर के पूरे वजूद में जैसे करंट सा दौड़ गया.

‘‘मुझे पैसों की ऐसी कोई जल्दी नहीं है,’’ नादिर ने चलते हुए कहा, ‘‘और नोमान को जुरमाना देने की भी जरूरत नहीं है.’’

‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया, हमारा कितना खयाल रखते हैं,’’ अंबर गंभीरता से बोली.

नादिर मदहोशी जैसी स्थिति में अपने घर वापस आ गया. शुरुआत हो गई थी. वह सोचने लगा काश! नोमान के पास कभी पैसे न हों और वह इसी तरह उस के घर जाता रहे.

10 दिन गुजर गए. नोमान की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला. नादिर सोचने लगा, ‘हो सकता है उस की सास की तबीयत ज्यादा खराब हो गई हो या कुछ इसी तरह की बात हो.’

नादिर स्थिति जानने के बहाने नोमान के फ्लैट पर पहुंच गया. दस्तक के जवाब में एक अजनबी आदमी ने दरवाजा खोला और प्रश्नसूचक नजरों से नादिर को देखने लगा.

‘‘मुझे नोमान से मिलना है,’’ नादिर ने कहा.

‘‘नोमान?’’ उस ने आश्चर्य से दोहराया, फिर तत्काल बोला, ‘‘अच्छा, आप शायद पिछले किराएदार की बात कर रहे हैं.’’

‘‘पिछला किराएदार?’’ नादिर को बड़ा आश्चर्य हुआ.

‘‘जी भाई, वह तो 3 दिन हुए फ्लैट खाली कर के चले गए,’’ उस ने बताया.

‘‘कहां गए हैं?’’ नादिर ने पूछा.

‘‘सौरी, मुझे यह नहीं मालूम,’’ उस ने जवाब दिया.

नादिर गुस्से से कांपता हुआ उस बिल्डिंग से बाहर आ गया. यह पहला मौका था कि किसी ने उस को इस तरह धोखा दिया था. उस ने एस्टेट एजेंट से मालूम करने की कोशिश की लेकिन वह भी यह नहीं बता सका कि नोमान ने कहां मकान लिया.

नादिर के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था. अगर नोमान की बीवी अंबर उस के हाथ लग जाती तो फिर यह कोई नुकसानदायक सौदा नहीं होता. लेकिन कमबख्त नोमान तो अपनी पत्नी और सामान के साथ गायब था.

नोमान ने यह भी नहीं बताया था कि सदर में उस की दुकान कहां है. फिर भी वह पूरे सदर में उस को तलाश करेगा. बस, यही एक सहारा था. लेकिन उसे उम्मीद नहीं थी कि वहां नोमान मिल जाएगा. ऐसा ही हुआ भी, सदर में नोमान नहीं मिला. लेकिन नादिर ने हिम्मत नहीं हारी. उस ने नोमान की तलाश जारी रखी. वह सोच रहा था कि नोमान कभी न कभी तो मिलेगा ही, शहर को छोड़ कर कहां जाएगा.

फिर एक दिन आखिर नोमान की पत्नी अंबर मिल ही गई. वह एक स्टोर से कुछ सामान खरीद रही थी. नादिर उस के बराबर में जा कर खड़ा हो गया. अंबर ने चौंक कर नादिर की तरफ देखा, ‘‘आप नादिर हैं न?’’ उस ने पूछा.

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‘‘हां, मैं नादिर हूं और तुम्हारा पति कहां है?’’

‘‘पति? कौन पति?’’ अंबर ने आश्चर्य से पूछा.

नादिर बोला, ‘‘मैं नोमान की बात कर रहा हूं.’’

‘‘वह मेरा पति नहीं है,’’ अंबर बोली.

‘‘क्या?’’ नादिर हैरान रह गया, ‘‘तो फिर कौन है?’’

‘‘बाहर आएं, बताती हूं,’’ अंबर बोली.

वह नादिर को ले कर स्टोर से बाहर आ गई.

‘‘हां, अब बताओ, तुम क्या कह रही थीं?’’ नादिर ने कहा.

‘‘मैं कह रही थी कि नोमान मेरा पति नहीं बल्कि कोई भी नहीं है. उस ने मुझे इस नाटक के लिए किराए पर लिया था. मैं एक कालगर्ल हूं. मेरा तो यही काम है. उस ने मुझे 25 हजार रुपए दिए थे. नोमान ने मुझ से कहा था कि मुझे उस की बीवी का रोल करना है. मैं ने अपनी ड्यूटी की. उस से मेहनताना

लिया, खेल खत्म. उस का रास्ता अलग,

मेरा अलग.’’

‘‘क्या तुम मुझे उस समय नहीं बता सकती थीं कि तुम उस की बीवी होने का नाटक कर रही हो?’’ नादिर ने गुस्से से पूछा.

‘‘नादिर साहब, हर धंधे का अपनाअपना उसूल होता है. मैं ने उसे जबान दी थी, फिर आप को यह सब कैसे बताती?’’ अंबर बोली.

‘‘अब वह कहां है?’’ नादिर बोला.

‘‘यह मैं नहीं जानती. मैं ने उस से अपना मेहनताना ले लिया था, अब वह कहीं भी जाए. मेरा उस से कोई लेनादेना नहीं है. हां, आप भी मेरा मोबाइल नंबर ले लें, अगर कभी आप को मेरी जरूरत पड़ जाए तो मैं हाजिर हो जाऊंगी.’’

नादिर अपने आप पर लानत भेजता हुआ घर वापस चला गया. आज जिंदगी में पहली बार उस ने बुरी तरह धोखा खाया था. और वह भी ऐसा जिस की चोट बरसों महसूस होती रहेगी. आखिर 5 लाख कम तो नहीं होते.

उसका गणित: कैसा था लक्ष्मी का गणित

मनोज हर दिन जिस मिनी बस में बैठता था, उसी जगह से लक्ष्मी भी बस में बैठती थी. आमतौर पर वे एक ही बस में बैठा करते थे, मगर कभीकभार दूसरी में भी बैठ जाते थे. उन दिनों उन के बस स्टौप से सिविल लाइंस तक का किराया 4 रुपए लगता था, मगर लक्ष्मी कंडक्टर को 3 रुपए ही थमाती थी. इस बात को ले कर उस की रोज कंडक्टर से बहस होती थी, मगर उस ने एक रुपया कम देने का जैसे नियम बना ही लिया था.

कभीकभार कोई बदतमीज कंडक्टर मिलता, तो लक्ष्मी को बस से उतार देता था. वह पैदल आ जाती थी, पर एक रुपया नहीं देती थी. लक्ष्मी मनोज के ही महकमे के किसी दूसरे सैक्शन में चपरासी थी. एक साल पहले ही अपने पति की जगह पर उस की नौकरी लगी थी.

लक्ष्मी का पति शंकर मनोज के महकमे में ड्राइवर था. सालभर पहले वह एक हादसे में गुजर गया था. लक्ष्मी की उम्र महज 25 साल थी, मगर उस के 3 बच्चे थे. 2 लड़के और एक लड़की.

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एक दिन मनोज पूछ ही बैठा, ‘‘लक्ष्मी, तुम रोज एक रुपए के लिए कंडक्टर से झगड़ती हो. क्या करोगी इस तरह एकएक रुपया बचा कर?’’ ‘‘अपनी बेटी की शादी करूंगी.’’

‘‘एक रुपए में शादी करोगी?’’ मनोज हैरान था. ‘‘बाबूजी, यों देखने में यह एक रुपया लगता है, मगर रोजाना आनेजाने के बचते हैं 2 रुपए. महीने के हुए

60 रुपए और सालभर के 730 रुपए. 10 साल के 7 हजार, 3 सौ. 20 साल के 14 हजार, 6 सौ.

‘‘5 सौ रुपए इकट्ठे होते ही मैं किसान विकास पत्र खरीद लेती हूं. साढ़े 8 साल बाद उस के दोगुने पैसे हो जाते हैं. 20 साल बाद शादी करूंगी, तब तक 40-50 हजार रुपए तो हो ही जाएंगे.’’ मनोज उस का गणित जान कर हैरान था. उस ने तो इस तरह कभी सोचा ही नहीं था. भले ही गलत तरीके से सही, मगर पैसा तो बच ही रहा था.

लक्ष्मी को खूबसूरत कहा जा सकता था. कई मनचले बाबू और चपरासी उसे पाने को तैयार रहते, मगर वह किसी को भाव नहीं देती थी. लक्ष्मी का पति शराब पीने का आदी था. दिनभर नशे में रहता था. यही शराब उसे ले डूबी थी. जब वह मरा, तो घर में गरीबी का आलम था और कर्ज देने वालों की लाइन.

अगर लक्ष्मी को नौकरी नहीं मिलती, तो उस के मासूम बच्चों का भूखा मर जाना तय था. पैसे की तंगी और जिंदगी की जद्दोजेहद ने लक्ष्मी को इतनी सी उम्र में ही कम खर्चीली और समझदार बना दिया था.

एक दिन लक्ष्मी ने न जाने कहां से सुन लिया कि 10वीं जमात पास करने के बाद वह क्लर्क बन सकती है. बस, वह पड़ गई मनोज के पीछे, ‘‘बाबूजी, मुझे कैसे भी कर के 10वीं पास करनी है. आप मुझे पढ़ालिखा कर 10वीं पास करा दो.’’ वह हर रोज शाम या सुबह होते ही मनोज के घर आ जाती और उस की पत्नी या बेटाबेटी में से जो भी मिलता, उसी से पढ़ने लग जाती. कभीकभार मनोज को भी उसे झेलना पड़ता था.

मनोज के बेटाबेटी लक्ष्मी को देखते ही इधरउधर छिप जाते, मगर वह उन्हें ढूंढ़ निकालती थी. वह 8वीं जमात तक तो पहले ही पढ़ी हुई थी, पढ़नेलिखने में भी ठीकठाक थी. लिहाजा, उस ने गिरतेपड़ते 2-3 सालों में 10वीं पास कर ही ली. कुछ साल बाद मनोज रिटायर हो गया. तब

तक लक्ष्मी को लोवर डिविजनल क्लर्क के रूप में नौकरी मिल गई थी. उस ने किसी कालोनी में खुद का मकान ले लिया था. धीरेधीरे पूरे 20 साल गुजर गए. एक दिन लक्ष्मी अचानक मनोज के घर आ धमकी. उस ने मनोज और उस की पत्नी के पैर छुए. वह उसे पहचान ही नहीं पाया था. वह पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई थी. उस का शरीर भी भराभरा सा लगने लगा था.

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लक्ष्मी ने चहकते हुए बताया, ‘‘बाबूजी, मैं ने अपनी बेटी की शादी कर दी है. दामादजी बैंक में बाबू हैं. बेटी बहुत खुश है. ‘‘मेरे बड़े बेटे राजू को सरकारी नौकरी मिल गई है. छोटा बेटा महेश अभी पढ़ रहा है. वह पढ़ने में बहुत तेज है. देरसवेर उसे भी नौकरी मिल ही जाएगी.’’

‘‘क्या तुम अब भी कंडक्टर को एक रुपया कम देती हो लक्ष्मी?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘नहीं बाबूजी, अब पूरे पैसे देती हूं…’’ लक्ष्मी ने हंसते हुए बताया, ‘‘अब तो कंडक्टर भी बस से नहीं उतारता, बल्कि मैडम कह कर बुलाता है.’’ थोड़ी देर के बाद लक्ष्मी चली गई, मगर मनोज का मन बहुत देर तक इस हिम्मती औरत को शाबाशी देने का होता रहा.

हैप्पी बर्थडे: कैसे मनाया गया जन्मदिन

आज भोर में दादीमां की नींद खुल गई थी. पास ही दादाजी गहरी नींद में सो रहे थे. कुछ दिन पहले ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. अब ठीक थे, लेकिन कभीकभी सोते समय नींद की गोली खानी पड़ती थी. दादाजी को सोता देख दादीमां के होंठों पर मुसकान दौड़ गई. आश्वस्त हो कर फिर से आंखें बंद कर लीं. थोड़ी देर में उन्हें फिर से झपकी आगई.

अचानक गाल पर गीलेपन का एहसास हुआ. आंख खोल कर देखा तो श्वेता पास खड़ी थी.

गाल पर चुंबन जड़ते हुए श्वेता ने कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे, दादीमां.’’

‘‘मेरी प्यारी बच्ची,’’ दादीमां का स्वर गीला हो गया, ‘‘तू कितनी अच्छी है.’’

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‘‘मैं जाऊं, दादीमां? स्कूल की बस आने वाली है.’’

श्वेता ने दादाजी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘कैसे सो रहे हैं.’’

दादीमां को लगा कि सच में दादाजी बरसों से जाग रहे थे. अब कहीं सोने को मिला था.

सचिन ने प्रवेश किया. हाथ में 5 गुलाबों का गुच्छा था. दादीमां को गुलाब के फूलों से विशेष प्यार था. देखते ही उन की आंखों में चमक आ जाती थी.

चुंबन जड़ते हुए सचिन ने फूलों को दादीमां के हाथ में दिया और कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे.’’

‘हाय, तू मेरा सब से अच्छा पोता है,’’ दादीमां ने खुश हो कर कहा, ‘‘मेरी पसंद का कितना खयाल रखता है.’’

सचिन ने शरारत से पूछा, ‘‘दादीमां, अब आप की कितनी उम्र हो गई?’’

‘‘चल हट, बदमाश कहीं का. औरतों से कभी उन की आयु नहीं पूछनी चाहिए,’’ दादीमां ने हंस कर कहा.

‘‘अच्छा, चलता हूं, दादीमां,’’ सचिन बोला, ‘‘बाहर लड़के कालिज जाने के लिए इंतजार कर रहे हैं.’’

दादीमां आहिस्ता से उठीं, खटपट से कहीं दादाजी जाग न जाएं. वह बाथरूम गईं और आधे घंटे बाद नहा कर बाहर आ गईं और कपड़े बदलने लगीं.

बेटे तरुण ने नई साड़ी ला कर दी थी. दादीमां वही साड़ी पहन रही थीं.

‘हाय मां,’’ तरुण ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘हैप्पी बर्थडे. आज आप कितनी सुंदर लग रही हैं.’’

‘‘चल हट, तेरी बीवी से सुंदर थोड़ी हूं,’’ दादीमां बहू के ऊपर तीर छोड़ना कभी नहीं भूलती थीं.

‘‘किस ने कहा ऐसा,’’ तरुण ने मां को गले लगाते हुए कहा, ‘‘मेरी मां से सुंदर तो तुम्हारी मां भी नहीं थीं. तुम्हारी मां ही क्यों, मां की मां की मां में भी कोई तुम्हारे जैसी सुंदर नहीं थीं.’’

‘‘चापलूस कहीं का,’’ दादीमां ने प्यार से चपत लगाते हुए कहा, ‘‘इतना बड़ा हो गया पर बात वही बच्चों जैसी करता है.’’

‘‘अब तुम्हारा तो बच्चा ही हूं न,’’ तरुण ने हंस कर कहा, ‘‘मैं दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा हूं. पापाजी को क्या हो गया? अभी तक सो रहे हैं.’’

‘‘सो कहां रहा हूं,’’ दादाजी ने आंखें खोलीं और उठते हुए कहा, ‘‘इतना शोर मचा रहे हो, कोई सो सकता है भला.’’

‘‘पापाजी, आप बहुत खराब हैं,’’ तरुण ने शिकायती अंदाज में कहा, ‘‘आप चुपकेचुपके मांबेटे की खुफिया बातें सुन रहे थे.’’

‘‘खुफिया बातें कान में फुसफुसा कर कही जाती हैं. इस तरह आसमान सिर पर उठा कर नहीं,’’ दादाजी ने चुटकी ली.

‘‘क्या करूं, पापाजी, सब लोग कहते हैं कि मैं आप पर गया हूं,’’ तरुण ने दादाजी को सहारा देते हुए कहा, ‘‘अब आप तैयार हो जाइए. वसुधा आप लोगों के लिए कोई विशेष व्यंजन बना रही है.’’

‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ दादाजी ने प्रश्न किया.

‘‘पापाजी, कोई खास बात नहीं, कहते हैं न कि सब दिन होत न एक समान. इसलिए सब के जीवन में एक न एक दिन तो खासमखास होता ही है,’’ तरुण ने रहस्यमयी मुसकान से कहा.

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‘‘तू दर्शनशास्त्र कब से पढ़ने लगा,’’ दादाजी ने कहा.

‘‘चलता हूं, पापाजी,’’ तरुण की आंखें मां की आंखों से टकराईं.

क्या सच ही इन को याद नहीं कि आज इन की पत्नी का जन्मदिन था जिस ने 55 साल पहले इन के जीवन में प्रवेश किया था? अब बुढ़ापा न जाने क्या खेल खिलाता है.

डगमगाते कदमों से दादाजी ने बाथरूम की तरफ रुख किया. दादीमां ने सहारा देने का असफल प्रयत्न किया.

दादाजी ने झिड़क कर कहा, ‘‘तुम अपने को संभालो. देखो, मैं अभी भी अभिनेता दिलीप कुमार की तरह स्मार्ट हूं. अपना काम खुद करता हूं. काश, तुम मेरी सायरा बानो होतीं.’’

दादाजी ने बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. अंदर से गाने की आवाज आ रही थी, ‘अभी तो मैं जवान हूं, अभी तो मैं जवान हूं.’

दादीमां मुसकराईं. बिलकुल सठिया गए हैं.

बहू वसुधा ने कमरे में आते ही कहा, ‘‘हाय मां, हैप्पी बर्थडे,’’ फिर उस की नजर साड़ी पर गई तो बोली, ‘‘तरुण सच ही कह रहे थे. इस साड़ी में आप खिल गई हैं. बहुत सुंदर लग रही हैं.’’

‘‘तू भी कम नहीं है, बहू,’’ यह कहते समय दादीमां के गालों पर लाली आ गई.

जातेजाते वसुधा बोली, ‘‘मां, मैं खाना लगा रही हूं. आप दोनों जल्दी से आ जाइए. गरमागरम कचौरी बना रही हूं.’’

दादीमां का बचपन सीताराम बाजार में कूचा पातीराम में बीता था. अकसर वहां की पूरी, हलवा, कचौरी और जलेबी का जिक्र करती थीं. जिस तरह दादीमां बखान करती थीं उसे सुन कर सुनने वालों के मुंह में पानी आ जाता था.

वसुधा मेरठ की थी और उसे ये सारे व्यंजन बनाने आते थे. दादीमां को अच्छे तो लगते थे लेकिन उस की प्रशंसा करने में हर सास की तरह वह भी कंजूसी कर जाती थीं. शुरूमें तो वसुधा को बुरा लगता था. लेकिन अब सास को अच्छी तरह पहचान लिया था.

थोड़ी देर बाद दादाजी और दादीमां बाहर आ कर कुरसी पर बैठ गए. उन के आने की आवाज सुन कर वसुधा ने कड़ाही चूल्हे पर रख दी.

सूजी का मुलायम खुशबूदार हलवा पहले दादीजी ने खाना शुरू किया. कचौरी के साथ वसुधा ने दहीजीरे के आलू बनाए थे.

दादाजी 2 कचौरियां खा चुके थे. दादीमां ने दादाजी से हलवे की तारीफ में कहा, ‘‘शुद्ध घी में बनाया है न… बना तो अच्छा है लेकिन हजम भी तो होना चाहिए.’’

‘‘अरे वाह, तुम ने तो और ले लिया,’’ दादाजी ने निराश स्वर में कहा.

उन दोनों की बातें सुन कर वसुधा हंस पड़ी, ‘‘पापा, मैं फिर बना दूंगी.’’

दिल का दौरा पड़ जाने से दादाजी को काफी परहेज करना व करवाना पड़ता था. दिन में दादीमां की दोनों बहनों व उन के परिवार के लोग फोन पर जन्मदिन की बधाई दे रहे थे. उन के भाईभाभी का कनाडा से फोन आया. बहुत अच्छा लगा दादीमां को. वह बहुत खुश थीं और दादाजी मुसकरा रहे थे.

रात को तो पूरा परिवार जमा था. बेटी और दामाद भी उपहार ले कर आ गए थे. खूब हल्लागुल्ला हुआ. लड़के-लड़कियां फिल्मी धुनों पर नाच रहे थे. तरुण अपने बहनोई से हंसीमजाक कर रहा था तो वसुधा अपनी ननद के साथ अच्छेअच्छे स्नैक्सबना कर किचन से भेज रही थी. बस, मजा आ गया.

‘‘दादीमां, आप का बर्थडे सप्ताह में कम से कम एक बार अवश्य आना चाहिए,’’ सचिन ने दादीमां से कहा, ‘‘काश, मेरा बर्थडे भी इसी तरह मनाया जाता.’’

दादीमां ने अचानक कहा, ‘‘आज मुझे सब लोगों ने बधाई दी. बस, एक को छोड़ कर.’’

‘‘कौन, मां?’’ तरुण ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘यह गुस्ताखी किस ने की?’’ सचिन ने कहा.

‘‘इन्होंने,’’ दादीमां ने पति की ओर देख कर कहा.

दादाजी एकदम गंभीर हो गए. ‘‘क्या कहा? मैं ने बधाई नहीं दी?’’

दादाजी अभी तक गुदगुदे दीवान पर सहारा ले कर बैठे थे कि अचानक पीछे लुढ़क गए. शायद धक्का सा लगा. ऐसे कैसे भूल गए. सब का दिल दहल गया.

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‘‘हाय राम,’’ दादीमां झपट कर दादाजी के पास गईं. लगभग रोते हुए बोलीं, ‘‘आंखें खोलो. मैं ने ऐसा क्या कह दिया?’’

दादाजी को शायद फिर से दिल का दौरा पड़ गया, ऐसा सब को लगा. दादीमां की आंखें नम हो गईं. उन्होंने कान छाती पर लगा कर दिल की धड़कन सुनने की कोशिश की. एक कान से सुनाई नहीं दिया तो दूसरा कान छाती पर लगाया.

‘‘हैप्पी बर्थडे,’’ दादाजी ने आंखें खोल कर मुसकरा कर कहा, ‘‘अब तो कह दिया न.’’

‘‘यह भी कोई तरीका है,’’ दादीमां ने आंसू पोंछते हुए कहा. अब उन के होंठों पर हंसी लौट आई थी.

सब हंस रहे थे. ‘‘तरीका तो नहीं है,’’ दादाजी ने उठते हुए कहा, ‘‘लेकिन याद तो रहेगा न.’’

‘‘छोड़ो भी,’’ दादीमां ने शरमा कर कहा.

‘‘वाह, इसे कहते हैं 18वीं सदी का रोमांस,’’ सचिन ने ताली बजाते हुए कहा.

फिर तो सारा घर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

घर और घाट: अपमानित करती बहू की कहानी

मेरे पति आकाश का देहांत हो गया था. उम्र 35 की भी नहीं हुई थी. उन्हें कोई लंबी बीमारी नहीं थी. बस, अचानक दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. अभी तक तो मित्रगण आते रहे थे, लेकिन पति के देहांत के बाद कोई नहीं आया. इस में उन का भी दोष नहीं. वहां की जिंदगी थी ही इतनी व्यस्त.

पहली 3 रातें मेरे साथ किरण सोई थी. अब से रातें अकेले ही गुजारनी थीं. शायद हफ्ता गुजरने तक दिन भी अकेले बिताने होंगे. क्या करूंगी, कहां रहूंगी, कुछ सोचा नहीं था.

यों तो कहने को मेरी ननद भी अमेरिका में ही रहती थीं लेकिन वह ऐसे मौके पर भी नहीं आई थीं. साल भर पहले कुछ देर के लिए आई थीं. तब मुझ से कह गई थीं, ‘रीता, आकाश बचपन से बड़ा विनोदप्रिय किस्म का है. तुम्हें दोष नहीं देती, लेकिन आकाश को कुछ हो गया तो भुगतोगी तुम ही. तुम लोगों की शादी को 10 बरस हो गए. देखती हूं पहले आकाश की हंसी जाती रही. फिर माथे पर अकसर बल पड़े रहने लगे. साथ ही वह चुप भी रहने लगा. 5 बरस से सिगरेट और शराब का सहारा भी लेने लगा है. रक्तचाप से शुरुआत हुई तनाव की. उस का कोलेस्ट्राल का स्तर ज्यादा है…’

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मुझे तो लगता है उन को और कुछ नहीं था, बस, दीदी ही की टोकाटाकी खा गई थी. उन से मेरा सुख नहीं देखा गया था.

रहरह कर अतीत मेरे दिमाग में घूमने लगा. मैं ने दशकों से बहुओं के ऊपर होते हुए अत्याचारों को देखतेसुनते मन में ठान ली थी कि मैं कभी अपने ऊपर किसी की ज्यादती नहीं होने दूंगी. अगर आप जुल्म न सहें तो कोई कर ही कैसे सकता है. इस तरह समस्या जड़ से ही उखड़ जाएगी.

लेकिन मैं जैसी शरीर की बेडौल हूं वैसी अक्ल की भी मोटी हूं. मेरी लंबाई कम और चौड़ाई ज्यादा है. जहां तक खूबसूरती का सवाल है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ होगी ही वरना क्यों आकाश जैसा खूबसूरत नौजवान, वह भी अमेरिका में बसा हुआ सफल इंजीनियर, मुझ 18 बरस की अल्हड़ को एक ही बार देख पसंद कर लिया था. ऊपर से उन्होंने न तो दहेज की मांग की थी, न ही खर्च की नोकझोंक हुई थी.

मेरे मांबाप भी होशियार निकले थे. उन्होंने एक बार की ‘हां’ के बाद आकाश और उस के कितने रिश्तेदारों के कहने पर भी उन्हें एक और झलक न मिलने दी थी. मां ने कह दिया था, ‘शादी के बाद सुबहशाम अपनी दुलहन को बैठा कर निहारना.’

डर तो था ही कि कहीं लेने के देने न पड़ जाएं. मां ने शादी के वक्त भी अपारदर्शी साड़ी में मुझ को नख से शिख तक छिपाए रखा था. क्या मालूम बरात ही न लौट जाए. खैर, जैसेतैसे शादी हो गई और मैं सजीधजी ससुराल पहुंच गई.

अभी तक तो घूंघट में कट गई. मरफी का सिद्धांत है कि यदि कुछ गलत होने की गुंजाइश है तो अवश्य हो कर रहेगा. मैं कमरे में आ कर बैठी ही थी कि ननद ने पीछे से आ कर घूंघट सरका दिया. मैं बुराभला सब सुनने को तैयार थी. मगर किसी ने कुछ कहा ही नहीं. मुंह दिखाई के नाम पर कुछ चीजें और रुपए मिलने अवश्य शुरू हो गए. दीदी तो अमेरिका से आई थीं. उन्होंने वहीं का बना खूबसूरत सैट मुझे मुंह दिखाई में दिया. बाकी रिश्तेदार और अड़ोसीपड़ोसी भी आते रहे.

इतने में ददिया सास आईं. दीदी झट बोलीं, ‘लता, जरा आगे बढ़ कर दादीजी के पैर छू लो.’

मैं ने वहीं बैठेबैठे जवाब दे दिया, ‘पैर छुआने का इतना ही शौक था तो ले आतीं गांव की गंवार. मैं तो बी.ए. पास शहरी लड़की हूं.’

दीदी को ऐसा चुप किया कि वह उलटे पांव लौट गईं. कुछ देर बाद एक कमरे के पास से गुजर रही थी तो खुसरफुसर सुनाई पड़ी, ‘इस को इतना गुमान है बी.ए. करने का. एक आकाश की मां एम.ए. पास आई थी, जिस के मुंह से आज तक भी कोई ऐसीवैसी बात नहीं सुनी.’

अब आप ही बताइए, सास के एम.ए. करने का मेरे पैर छूने से क्या सरोकार था? खैर, मुझे क्या पड़ी थी जो उन लोगों के मुंह लगती. मुझे कल मायके चले जाना था, उस के 4 दिन बाद आकाश के संग अमेरिका. वहां दीदी जरूर मेरी जान की मुसीबत बन कर 4 घंटे की दूरी (200 किलोमीटर) पर रहेंगी. मैं पहले दिन से ही संभल कर रहूंगी तो वह मेरा क्या बिगाड़ लेंगी. अनचाहे ही मुझे किसी कवि की लिखी पंक्ति याद आ गई, ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात.’

लेकिन देखूंगी, दीदी की क्षमा कब तक चलेगी मेरे उत्पात के सामने. बड़ी आई थीं मेरे से दादीजी के पैर छुआने. डाक्टर होंगी तो अपने लिए, मेरे लिए तो बस, एक सठियाई हुई रूढि़वादी ननद थीं.

सच पूछिए तो पिछले 4 दिन में मैं एक बार भी उन को याद नहीं आई थी. मैं पिछले दिनों अपनी एक सहेली के यहां गई थी. पूरा 1 महीना उस की देवरानी उस के घर रह कर गई थी. एक मेरी ननद थीं, जिन के चेहरे पर जवान भाई के मरने पर शिकन तक नहीं आई थी.

जब मैं 10 बरस पहले आकाश के साथ इस घर में घुसी थी तो गुलाब के फूलों का गुलदस्ता हमारे लिए पहले से इंतजार कर रहा था. उसे ननद ने भेजा था. आकाश ने मुझ को घर की चाबी थमा दी थी, लेकिन मुझे ताला खोलते हुए लगा था जैसे ननद वहां पहले से ही विराजमान हों.

घर क्या था, जैसे किसी राजकुमार की स्वप्न नगरी थी. मुझ को तो सबकुछ विरासत में ही मिला था. भले ही वह सब आकाश की 4 साल की कड़ी मेहनत का इनाम था. मैं इतनी खुश थी कि मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मेरे सब संबंधियों में इतना अच्छा घरबार उन के खयाल से भी दूर की चीज थी.

मैं ने गुलाब के फूल बैठक में सजा लिए. मगर दीदी का शुक्रिया तो क्या अदा करती, उन की रसीद तक नहीं पहुंचाई. दोचार दिन बाद उन का फोन आया तो कह दिया, ‘हां, मिल तो गए थे.’

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एक बार दीदी शुरू में सपरिवार आई थीं. वह रात को 9 बजे पहुंचने वाली थीं. भला इतनी रात गए तक कौन उन लोगों के लिए इंतजार करता. मैं ने 8 बजे ही खाना लगा दिया था. आकाश कुछ बोलते, इस से पहले ही मैं ने सुना कर कह दिया, ‘9 बजे आने के लिए कहा है. फिर भी क्या भरोसा, कब तक आएं? आप खाना खा लो.’

वह न चाहते हुए भी खाने बैठ गए थे. अभी खाना खत्म भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं बोली, ‘अब खाना खाते हुए तो मत उठो. पहले खाना खत्म कर लो फिर दरवाजा खोलना.’

खाना खा कर आकाश दरवाजा खोलने गए. मैं बरतन मांजने लगी. उधर न पहुंची तो 15 मिनट बाद ही दीदी रसोई में आ गईं और नमस्ते कर के लौट गईं. मैं ने उन सब का खाना लगा दिया.

दीदी ने हम से भी खाने को पूछा. फिर बोलीं, ‘इस देश में खाने की कमी नहीं है. हर चौराहे पर मिलता है. साथ न खाना था तो कह देते, हम खा कर आते.’

तो क्या मैं ने कहा था कि यहां आ कर खाएं या उन को किसी डाक्टर ने सलाह दी थी? मैं ने सिरदर्द का बहाना बनाया और ऊपर शयनकक्ष में चली गई. खुद ही निबटें अपने भाईजान से.

सुबह उठी तो दीदी चाय बना रही थीं, ‘क्या खालाजी का घर समझ रखा है, जो पूछने की भी जरूरत न समझी?’ मैं ने दीदी को लताड़ा, ‘आप ने क्या समझा था कि मैं आप को उठ कर चाय भी नहीं दूंगी.’

मेरी रसोई को अपनी रसोई समझा था. उस के बाद कभी दीदी को मेरी रसोई में घुसने की हिम्मत न हुई.

मैं ने दीदी को नहानेधोने के लिए 2 तौलिए दिए तो वह 2 बच्चों के लिए और मांग बैठीं. अपने घर में 4 तौलिए इस्तेमाल करें या 8, यहां एक दिन 2 तौलियों से काम नहीं चला सकती थीं? मैं ने एक पुराना सा तौलिया और दे दिया. आखिर मेरा घर है, जो चाहूंगी करूंगी.

उस के बावजूद कुछ ही दिनों बाद दीदी अचानक दोनों बच्चों के साथ मेरे यहां आ धमकीं. रात को देर तक आकाश से बातें करती रही थीं. वह पति महोदय से खटपट कर के आई थीं. मैं पूछ बैठी, ‘आप ने तो अपनी इच्छा से प्रेम विवाह किया था. फिर अब किस बात का रोना?’ दीदी से कुछ जवाब देते न बना.

मैं तो घबरा गई. कहीं दीदी जिंदगी भर मेरे घर डेरा न डाल लें. अगली सुबह आकाश दफ्तर गए और मैं सोती दीदी के पास ही पहुंच गई, ‘दीदी, वापस लौटने के बारे में क्या सोचा है?’

समझदार को इशारा काफी है. उन्होंने हमारे घर रह पति महोदय से बिलकुल बात न बढ़ाई. उसी दिन जीजाजी को फोन किया और शाम को वापस अपने घर लौट गईं. बस, समझ लीजिए तभी से उन का हमारे यहां आनाजाना कुछ खास नहीं रहा. हम ही उन के यहां साल में 2-3 दिन के लिए चले जाते थे. जाते भी क्यों न, वह बड़े आग्रह से बुलाती जो थीं. बुलातीं भी क्यों न, आखिर उन की पति से कम ही पटती थी. हम से भी नाता तोड़ लेतीं तो आड़े वक्त में कहां जातीं? कौन काम आता?

और फिर उन पर क्या जोर पड़ता था हमें बुलाने में. उन्होंने खाना बनाने को एक विधवा फुफेरी सास को साथ रखा हुआ था. घर की सफाई करने वाली अलग आती थी.

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एक बार दीदी भारत गईं तो मेरे लिए मां ने उन के साथ कुछ सामान भेजा. जब मुझे सामान मिला तो उस में से एक कटहल के अचार का डब्बा गायब था, ‘दीदी, अचार चाहिए था तो आप कह देतीं, मैं आप के लिए भी मंगा देती. चोरी करना तो बहुत बुरी बात है.’

बाद में मां ने बताया कि अचार का डब्बा भेजने से रह गया था. बात आईगई हो चुकी थी, तो मैं ने फिर दीदी से कुछ कहने की जरूरत न समझी.

अभी पिछले दिनों दीदी फिर भारत गई थीं. उन्होंने लौट कर फोन किया, ‘लता, तुम्हारे मांबाबूजी से मिल कर आ रही हूं. सब मजे में हैं. मगर तुम्हारे लिए कुछ नहीं भेजा है.’

‘हां, मैं ने ही मां को मना कर दिया था कि हर ऐरेगैरे के हाथ कुछ न भेजा करें. फिर भी मां किसी न किसी के हाथों सामान भेजती रहती हैं. एक पार्सल तो पिछले 8 बरस से आ रहा है. एक 6 महीने बाद मिला था.’

खैर, जो हुआ सो हुआ. मैं अतीत को भूल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. मुझ को अकेले नींद नहीं आ रही थी. रात के 2 बज गए थे. एक तरफ आंसू नहीं थम रहे थे और दूसरी तरफ डर भी लग रहा था इतने बड़े घर में. भूख लग रही थी मगर…मैं अकेली थी…बिलकुल अकेली. शरीर टूट सा रहा था.

मैं मां को भारत ट्रंककाल करने लगी, ‘‘मां, आप कुछ दिनों के लिए अमेरिका आ जाइए. मैं आप का टिकट भेज देती हूं.’’

मां अपनी मजबूरी सुनाने लगीं. विरासत में मिला सुख कुछ भी तो काम नहीं आ रहा था. पति के मरते ही कुछ भी अपना न रहा था. 10 बरस बाद भी उस घर में न तो कोई अपनापन था, न ही देश में.

आकाश 1 लाख डालर छोड़ कर मरे थे. मैं एअर इंडिया को फोन करने लगी, ‘‘मैं वापस भारत जाना चाहती हूं. अपने घर.’’

भारत लौट कर पीहर पहुंची तो वहां कुछ और ही नजारा पाया. भाई की शादी हो चुकी थी, सो एक कमरा भाईभाभी का और दूसरे में मेरे मांबाबूजी. मेरा बैठक में सोने का प्रबंध कर दिया था. मेरा सामान मां के साथ. सुबह बिस्तर समेटते ऐसा लगता था, जैसे उस घर में मैं फालतू थी. मैं ने सोचा, ‘सहना शुरू किया तो जिंदगी भर सहती ही रहूंगी. ऐसी कोई गईगुजरी स्थिति मेरी भी नहीं है. आखिर 10 लाख रुपए ले कर लौटी हूं. चाहूं तो इन चारों को खरीद लूं.’

एक दिन भाभीजान फरमाने लगीं, ‘‘दीदी, पूरी तलवाने में मदद कर दो न, मैं बेलती जाती हूं.’’

आखिर भाभी ने मुझे समझ क्या रखा था…मैं नौकरानी बन कर आई थी क्या वहां? इतना पैसा था मेरे पास कि 10 नौकर रख देती. लेकिन बात बढ़ाने से क्या फायदा था. मैं कुछ भी नहीं बोली थी. मदद नहीं करनी थी, सो नहीं की.

खाना खाने के वक्त भाभी ने अपना खाना परोसा और खाने लगीं. मैं ने भी ले तो लिया, मगर वह बात मेरे मन को चुभ गई. जब मांबाबूजी ही सब बातों में चुपी लगाए थे तो भाभी तो मेरी छाती पर मूंग दलेंगी ही.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे आने का तुम लोगों को इतना कष्ट हो रहा है तो मैं वापस चली जाती हूं. मेरे पास जितना पैसा है, मैं उतने में जिंदगी भर मजे से रहूंगी. न किसी से कहना, न सुनना.’’

कोई कुछ भी न बोला. मैं सन्नाटे में रह गई. मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरे मांबाबूजी ही इतने बेगाने हो जाएंगे. फिर ससुराल से ही क्या आशा करती.

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घर छोड़ते हुए मेरे आंसू टपक पड़े. मैं फिर अकेली हो गई थी. बिलकुल अकेली. बिलकुल धोबी का कुत्ता बन कर रह गई, न घर की न घाट की.

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