जला हुआ तेल खाना, जानें कैसे आपके लिए हो सकता है खतरनाक

जले हुए तेल का साइड इफेक्ट इतना है कि दिल की तीनों नलियों ब्लौक हो जाती है और मरीज की जान पर बन जाती है. IGIMS में ऐसी ही 50 महिलाओं की एंजियोप्लास्टी करनी पड़ी. इनमें ज्यादातर महिलाएं ग्रामीण इलाके की हैं. बिहार के एक गांव में तो एक बाप-बेटे को जला हुआ तेल खाने से उनके दिल को इतना नुकसान हुआ कि दोनों की एंजियोप्लास्टी करनी पड़ी. ये तथ्य आईजीआईएमएस की कैथ लैब में पिछले दो साल में मरीजों पर किए गए परीक्षण में सामने आया है.

संस्थान के हृदय रोग विभाग के डाक्टरों का कहना है कि कैथ लैब में आने वाले मरीजों के परीक्षण में पाया गया कि ज्यादातर मरीज अनियमित दिनचार्या, दूषित भोजन, मधुमेह और ब्लडप्रेशर से पीड़ित थे. इस वजह से उनके दिल में खराबी आई. दो साल में 3000 मरीजों की एंजियोग्राफी, 800 को एंजियोप्लास्टी व 350 मरीजों में पेस मेकर लगाया गया जबकि 50 के दिल के छेद को बंद किया गया. आश्चर्यजनक बात यह रही कि जिन 800 महिलाओं की एंजियोग्राफी की गई उसमें 50 ऐसी थी जिनका दिल जले हुए तेल को खाने से खराब हुआ था.

डाक्टरों का कहना है कि प्राय: यह माना जाता है कि मेनोपौज के बाद हार्मोन के कारण महिलाओं का दिल ठीक रहता है लेकिन उनमें ऐसा नहीं हुआ. डाक्टरों का कहना है कि 2005-06 में प्रदेश में शहरी क्षेत्र में दिल के मरीजों की संख्या 5-7 प्रतिशत तथा ग्रामीण इलाके में 2-3 प्रतिशत होती थी लेकिन 2016 में इस आंकड़े में बदलाव हो गया है. अब शहरी क्षेत्र में आठ से दस तथा ग्रामीण इलाके में सात प्रतिशत तक दिल से पीड़ित मरीज हैं.

यह तथ्य सामने आए हैं
शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में मरीजों की संख्या का फासला कमा
दूषित भोजन व तंबाकू के सेवन से कमजोर हो रहा हृदय
दो साल में 3 हजार मरीजों की एंजियोग्राफी हुई
50 मरीजों के हृदय के छेद को बंद किया गया

क्या होता है जले हुए तेल में
अध्ययन टीम में शामिल डाक्टर का कहना है कि तेल जलने के बाद उसमें ट्रांस फैटी एसिड की मात्रा बढ़ जाती है. तेल जितनी बार जलेगा उतना ही ट्रांस फैटी एसिड की मात्रा बढ़ेगी. यह पदार्थ हृदय में चर्बी को बढ़ा देता है, जिससे खून प्रवाहित होने वाली मुख्य तीन नलियों में ब्लौकेज आ जाती है. डाक्टरों ने लोगों को ज्यादा तिसी का तेल नहीं खाने की सलाह दी है क्योंकि इसमें फैचुरेटेड फैट की मात्रा अधिक होती है जिससे हृदय की खून की नलियां ब्लॉक हो जाती हैं.

ना करें सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग, हो सकती हैं ये गंभीर बीमारियां

देश की ज्यादातर आबादी आज भी खुले में शौच करती है. जहां भी सार्वजनिक शौचालय मौजूद भी हैं उनकी हालत भी खराब है. इन शौचालयों में शौचालय सीट गंदगी से भरी हुई होती हैं और फ्लश में पानी नहीं आता. पर सवाल ये है कि क्‍या सार्वजनिक शौचालय प्रयोग करने के लिये ठीक होते हैं?

तो जवाब है नहीं, सार्वजनिक शौचालय प्रयोग करने के लिए बिल्‍कुल भी अच्‍छे नहीं होते, क्‍योंकि ये पूरी तरह से संक्रमण से भरे हुए होते हैं. इनका प्रयोग करने से आपको तमाम तरह की जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं. जरूरी है कि सार्वजनिक शौचालयों के प्रयोग के बाद आप अपने हाथ अच्छे से धो लें. इस खबर में हम आपको बताएंगे कि सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग करने से आपको कौन सी बीमारियां हो सकती हैं.

  • सेक्शुअली ट्रांसमिटेड डिजीज (एसटीडी)

सार्वजनिक शौचालयों के इस्तेमाल से कई यौन बीनारियों के होने का खतरा होता है. गंदे शौचालय को यदि कोई एस टी डी का रोगी प्रयोग कर ले तो यह रोग फैलने के चांस बढ जाते हैं. यदि आपको इस रोग से बचना है तो शौचालय प्रयोग करने के बाद अपने हाथों को धोना बिल्‍कुल ना भूलें. इसके अलावा शौचालय की चीजों को केवल शौचालय पेपर से ही छूएं.

  • डायरिया

सार्वजनिक शौचालय में पाए जाने वाले बैक्‍टीरिया की वजह से पेट में दर्द और खूनी डायरिया हो सकता है.

  •  संक्रमण

यदि पबलिक शौचालय को कोई संक्रमित व्‍यक्‍ति प्रयोग करे, तो आंत का संक्रमण होने की संभावना हो सकती है. असके अलावा इसके प्रयोग से आपको गले और त्‍वचा का संक्रमण भी लग सकता है.

  • यूटीआई

गंदे शौचालय को प्रयोग करने से मूत्र संक्रमण बड़ी तेजी से फैलता है. ये समस्या महिलाओं में ज्‍यादा पाई जाती है. इस लिए शौचालय की सीट पर बैठने से पहले एक बार फ्लश जरुर चलाएं.

19 दिन 19 टिप्स: सेक्स चाहिए बच्चा नहीं

विवाह के बाद जोड़े सेक्स का तो जम कर लुत्फ उठाते हैं पर बच्चा पैदा करने से परहेज करते हैं. कई युवा ऐसे भी हैं जो विवाह किए बगैर सेक्स का मजा लेते रहते हैं. कई युवा कंडोम, कौपर टी, गर्भनिरोधक गोलियों आदि का इस्तेमाल कर जिस्मानी रिश्ते बना रहे हैं. इस के पीछे उन का मकसद केवल सेक्स का मजा लेना ही होता है न कि बच्चे को जन्म देना. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो वे उसे गिराने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं.

सेक्स का आनंद नैचुरल और सेफ तरीके से उठाया जाए तो मजा दोगुना हो जाता है. ऐसा नहीं करने से कई तरह की बीमारियों और परेशानियों में फंसने की गुंजाइश रहती है.

आजकल मातृत्व और पितृत्व की भावना कम होती जा रही है. औरत और मर्द का रिश्ता केवल सेक्ससुख का ही रह गया है. इसी वजह से यह चलन चल पड़ा है कि लोग मांबाप बनने से कतराते हैं. समाजविज्ञानी हेमंत राव कहते हैं कि महज सेक्स का सुख उठाने वाले जोड़े 30-35 साल की उम्र तक तो यह आनंद उठा सकते हैं लेकिन उस आयु तक अगर बच्चा पाने से परहेज किया जाए तो तरहतरह की जिस्मानी और दिमागी परेशानियां शुरू हो जाती हैं. कई ऐसे मामले हैं जहां लंबे समय तक बच्चे न चाहने वाले जोड़ों को बाद में काफी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं.

हर चीज का समय होता है. बारबार गर्भपात कराने पर बच्चेदानी कमजोर हो जाती है, उस के फटने के आसार भी बढ़ जाते हैं. बारबार गर्भपात कराने से बां झपन की समस्या के होने का भी खतरा होता है. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो जन्म लेने वाले बच्चे के कमजोर और बीमार होने का खतरा बना रहता है. कई ऐसे उदाहरण हैं जहां देर से बच्चा होने पर वह दिमागी और जिस्मानी तौर पर बहुत कमजोर होता है. उस के कई अंगों का ठीक से विकास नहीं हो पाता है.

आज के युवा बच्चे को ऐसेट नहीं बल्कि लाइबिलिटी मानते हैं. यही वजह है कि ‘सेक्स का मजा लो और फिर अपने काम में लग जाओ’ की सोच बढ़ती जा रही है. अब वंश आगे बढ़ाने और मांबाप बनने का आनंद उठाना गुजरे जमाने की बात जैसी होती जा रही है. पहले के लोग बच्चे को बुढ़ापे का सहारा मानते थे पर आज के लोगों की सोच ऐसी नहीं है. उन की सोच है कि पैसा है तो सबकुछ खरीदा जा सकता है. कैरियर बनाओ, पैसा कमाओ और सेक्स का भरपूर मजा उठाओ, यही आज के युवाओं की सोच है.

हमारे देश में आज भी शादी की तमाम रस्मों और हनीमून की प्लानिंग तो की जाती है पर बच्चों की नहीं, जिस का नतीजा अनचाहा गर्भ या गर्भपात ही होता है. डा. नीरू अरोरा कहती हैं, ‘‘गर्भनिरोधक यानी कौंट्रासैप्टिव के चुनाव के मामले में आज कई दंपती यह तय ही नहीं कर पाते हैं कि कौन सा गर्भनिरोधक उन के लिए उपयुक्त है.’’

गर्भनिरोधकों के बारे में महिलाओं के मन में अनेक गलत धारणाएं रहती हैं, जैसे गर्भनिरोधक गोली से भविष्य में गर्भधारण में समस्या होगी, सेक्स की चाहत नहीं रहेगी, कैंसर की संभावना बढ़ेगी, वजन बढ़ जाएगा वगैरह. ये सारी धारणाएं गलत हैं.

‘गर्भनिरोधक गोलियों के प्रयोग से ओवेरियन कैंसर व सिस्ट के चांसेस कम होते हैं. इन के प्रयोग से घबराना नहीं चाहिए.’’

गर्भनिरोधक 2 प्रकार के होते हैं, प्राकृतिक व कृत्रिम.

A. प्राकृतिक गर्भनिरोधक

प्राकृतिक गर्भनिरोधक तरीकों का प्रयोग करते समय किसी भी तरह की गर्भनिरोधक दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता. इस के खास तरीके में सिर्फ मासिक चक्र को ध्यान में रखते हुए ‘सेफ पीरियड’ में ही सेक्स किया जाता है.

1 सुरक्षित मासिक चक्र :

परिवार नियोजन के प्राकृतिक तरीकों में से एक सुरक्षित मासिक चक्र है. इस तरीके के तहत ओव्यूलेशन पीरियड के दौरान शारीरिक संबंध न रखने की सावधानियां बरती जाती हैं.

आमतौर पर महिलाओं में अगला पीरियड शुरू होने के 14 दिन पहले ही ओव्यूलेशन होता है. ओव्यूलेशन के दौरान शुक्राणु व अंडे के फर्टिलाइज होने की ज्यादा संभावना होती है. दरअसल, शुक्राणु सेक्स के बाद 24 से 48 घंटे तक जीवित रहते हैं, जिस से इस दौरान गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है.

फायदा :

इस में न किसी दवा की, न किसी कैमिकल की और न ही किसी गर्भनिरोधक की जरूरत होती है. इस में किसी भी तरह का रिस्क या साइडइफैक्ट का डर भी नहीं रहता.

नुकसान :

यह तरीका पूरी तरह से कामयाब नहीं कहा जा सकता. यदि पीरियड समय पर नहीं होता तो गर्भधारण की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है.

2 कैलेंडर वाच :

प्राकृतिक तरीकों में एक कैलेंडर वाच है, जिसे सालों से महिलाएं प्रयोग में लाती हैं. इस में ओव्यूलेशन के संभावित समय को शरीर का टैंप्रेचर चैक कर के जाना जाता है और उसी के अनुसार सेक्स करने या न करने का निर्णय लिया जाता है. इस में महिलाओं को तकरीबन रोज ही अपने टैंप्रेचर को नोट करना होता है. जब ओव्यूलेशन होता है तो शरीर का तापमान आधा डिगरी बढ़ जाता है.

फायदा :

इस में किसी भी प्रकार की दवा या कैमिकल का उपयोग नहीं होता. इस से कोई साइड इफैक्ट नहीं पड़ता और न सेहत के लिए ही कोई नुकसान होता.

नुकसान :

यह उपाय भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है, खासकर उन महिलाओं के लिए जिन की माहवारी नियमित नहीं होती.

3 स्खलन विधि :

इस विधि में स्खलन से पहले सेक्स क्रिया रोक दी जाती है, ताकि वीर्य योनि में न जा सके.

फायदा : इस का कोई भी साइड इफैक्ट नहीं है.

नुकसान : सहवास के दौरान हर पल दिमाग में इस की चिंता रहती है. लिहाजा, सेक्स का पूरापूरा आनंद नहीं मिल पाता. इस के अलावा शुरू में निकलने वाले स्राव में कुछ मात्रा में स्पर्म्स भी हो सकते हैं. इसलिए यह विधि कामयाब नहीं है.

B. कृत्रिम गर्भनिरोधक

प्रैग्नैंसी रोकने की जिम्मेदारी अकसर महिलाओं को ही उठानी पड़ती है. इसलिए उन्हें इस के लिए इस्तेमाल होने वाले कौंट्रासैप्टिव की जानकारी होना बेहद जरूरी है.

  1. गर्भनिरोधक गोलियां : गर्भनिरोधक गोलियां भी कई प्रकार की होती हैं :

साइकिल गर्भनिरोधक गोली : इस का पूरा कोर्स 21 दिन का होता है. इस की 1 गोली माहवारी के पहले दिन से ही रोज ली जाती है. इस के साथ ही 3 हफ्ते तक बिना नागा यह गोली लेनी चाहिए.

फायदा :

इस के उपयोग से माहवारी के समय दर्द से भी आराम मिलता है.

नुकसान :

आप यदि एक दिन भी गोली खाना भूल गईं तो प्रैग्नैंट हो सकती हैं, साथ ही सिरदर्द, जी मिचलाना, वजन बढ़ना आदि समस्याएं भी हो जाती हैं.

ओनली कौंट्रासैप्टिव पिल :

इसे ओसीपी भी कहा जाता है. इस का भी कोर्स 21 दिनों का होता है, जिस में 7 गोलियां हीमोग्लोबिन की भी होती हैं. इस तरीके से महिलाओं को एनीमिया की शिकायत नहीं होती क्योंकि इस में प्रोजेस्टेरोन और इस्ट्रोजन हार्मोन होते हैं.

आपातकालीन गोलियां: असुरक्षित सहवास के बाद अनचाहे गर्भ से बचने के लिए इस का इस्तेमाल किया जाता है.

फायदा :

इस गोली का सेवन यौन संबंध बनाने के 72 घंटों के अंदर किया जाता है तो यह 96 फीसदी तक प्रभावशाली होती है.

नुकसान :

इस का प्रयोग करना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है.

2. कौपर टी :

गर्भनिरोधक के रूप में यह विश्व में सब से ज्यादा इस्तेमाल होती है. यह अंगरेजी के टी (ञ्ज) अक्षर के शेप की होती है और इस में पतला सा तार लगा होता है. इसे गर्भाशय के भीतर लगाया जाता है. इस से गर्भ नहीं ठहर पाता. जब भी बच्चे की चाहत हो इसे निकलवाया जा सकता है.

फायदा :

इस में 99 फीसदी तक फायदा है. एक बार बच्चा होने के बाद दूसरा बच्चा होने के समय में गैप के लिए कौपर टी एक अच्छा जरिया है.

नुकसान :

कौपर टी लगाने के बाद 2-3 महीने तक माहवारी ज्यादा आती है, लेकिन बाद में ठीक हो जाती है. इसे डाक्टर के द्वारा ही लगाया और निकलवाया जाता है.

3. गर्भनिरोधक इंजैक्शन :

यह इस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरौन का इंजैक्शन है. यह 2 महीने या 3 महीने में लगाया जाता है. यह ओव्यूलेशन रोकता है, जिस से गर्भ नहीं ठहरता.

फायदा :

इस का 99 फीसदी फायदा होता है. माहवारी भी कम दिनों तक होती है और माहवारी में दर्द नहीं होता.

नुकसान :

इस से वजन बढ़ जाता है. इस इंजैक्शन के बाद नियमित व्यायाम और खानपान में संतुलित आहार जरूरी है.

शादी से पहले बेहद जरूरी हैं ये 8 हेल्थ टैस्ट

कई फिल्मों में शादी के लिए कुंडली मिलान बहुत जरूरी बताया जाता है और कुंडली न मिलने पर पक्का रिश्ता भी टूट जाता है, लेकिन अधिकतर देखा गया है कि कुंडली मिला कर की गई शादियों में भी तलाक की दर बहुत अधिक है, इसलिए अब लोगों की सोच बदलने लगी है और उन्हें लगता है कि शादी के लिए कुंडली से ज्यादा जरूरी है कि दोनों एकदूसरे के लायक हों और शारीरिक रूप से फिट हों ताकि शादी के बाद किसी तरह की कोई परेशानी न आए.

शादी से पहले युवकयुवती को एकदूसरे के बारे में सबकुछ पता हो तो आगे चल कर सिचुएशन हैंडिल करने में काफी आसानी रहती है और दोनों एकदूसरे को उस की कमियों के साथ स्वीकारने की हिम्मत रखते हैं तो ऐसा रिश्ता काफी मजबूत बनता है. इसलिए दूल्हादुलहन शादी से पहले कई तरह के मैडिकल टैस्ट कराने से भी नहीं हिचकिचाते. आइए जानें, ये मैडिकल टैस्ट कौन से हैं और कराने क्यों जरूरी हैं :

1. एचआईवी टैस्ट

यदि युवक या युवती में से किसी एक को भी एचआईवी संक्रमण हो तो दूसरे की जिंदगी पूरी तरह से बरबाद हो जाती है. इसलिए शादी से पहले यह टैस्ट करवाना बहुत जरूरी है.  इस में आप की सजगता और समझदारी है.

2. उम्र का परीक्षण

कई बार शादी करने में काफी देर हो जाती है और उम्र अधिक होने के कारण युवतियों में अंडाणु बनने कम हो जाते हैं तथा बच्चे होने में परेशानी आ सकती है. इसलिए यदि बढ़ती उम्र में शादी कर रहे हैं तो टैस्ट जरूर कराएं.

3. प्रजनन क्षमता की जांच जरूरी

जिन कपल्स को शादी के बाद बच्चे पैदा करने में समस्या आती है, उन्हें प्रजनन क्षमता का टैस्ट जरूर कराना चाहिए ताकि पता चल सके कि कमी युवक में है या युवती में. वैसे तो यह टैस्ट शादी से पहले ही होना चाहिए, जिस से पता चल सके कि वे दोनों संतान पैदा करने योग्य हैं भी या नहीं.

4. ओवरी टैस्ट

इस टैस्ट को युवतियां कराती हैं ताकि पता चल सके कि उन्हें मां बनने में कोई मुश्किल तो नहीं है. कई युवतियां इस टैस्ट को कराने में हिचकिचाती हैं कि यदि कोईर् कमी पाई गई तो उन का रिश्ता होना मुश्किल हो जाएगा, जबकि ऐसा नहीं है. आज तो मैडिकल साइंस में हर चीज का इलाज है. अच्छा तो यह है कि समय रहते आप को प्रौब्लम के बारे में पता चल जाएगा. यदि टैस्ट सही आया तो आप को वैवाहिक जीवन में कोई तकलीफ नहीं होगी.

5. सीमन टैस्ट

इस टैस्ट में युवकों के वीर्य की जांच होती है कि वह बच्चा पैदा करने के लिए पूरी तरह से सक्षम है या नहीं और अगर कोई प्रौब्लम है तो उस का इलाज करवा कर पूरी तरह स्वस्थ हुआ जा सकता है. यह टैस्ट इसलिए करवाया जाता है ताकि पहले ही परेशानी के बारे में पता चल जाए और उसी के हिसाब से इलाज करवा कर बंदा शादी के लिए पूरी तरह से परफैक्ट हो जाए.

6. यौन परीक्षण

कुछ बीमारियां संक्रमित होती हैं, जो शारीरिक संपर्क के दौरान बढ़ती हैं. इन बीमारियों को सैक्सुअली ट्रांसमिटेड बीमारियां कहा जाता है और ये संभोग के बाद पार्टनर को भी बड़ी आसानी से लग जाती हैं. इसलिए ऐसी किसी भी बीमारी से बचने के लिए शादी से पहले ही यह जांच करवा लें ताकि भविष्य में किसी गंभीर बीमारी से पार्टनर और आप दोनों ही बच सकें.

7. ब्लड टैस्ट

ब्लड टैस्ट कराने से पता चल जाता है कि कहीं ब्लड में कोई ऐसी प्रौब्लम तो नहीं है, जिस का सीधा असर होने वाले बच्चे पर पड़ेगा. हीमोफीलिया या थैलेसीमिया ऐसे खतरनाक रोगों में से एक हैं जिन में बच्चा पैदा होते ही मर जाता है. इस में दोनों के ब्लड की जांच कराना आवश्यक है जिस से आर एच फैक्टर की सकारात्मकता व नकारात्मकता का पता चल सके. यह टैस्ट शादी से पहले कराना अतिआवश्यक है.

8. जैनेटिक टैस्ट

इस तरह के टैस्ट को परिवार की मैडिकल हिस्ट्री भी कहा जाता है. इस से जीन के विषय में पता चल जाता है कि आप को जैनेटिक डिजीज है भी या नहीं. इस टैस्ट से आनुवंशिक बीमारियों के बारे में भी पता चल जाता है जो पार्टनर को कभी भी हो सकती हैं.

अपने बच्चे को बेबी एलीफैंट न बनाएं

उस दिन माया बाजार में मोमोज वाले के ठेले पर अपनी दोनों नन्हीं बेटियों के साथ चिकेन मोमोेज खा रही थी. तभी उसकी आठ साल की बेटी मानवी उसके हाथ से कोल्ड ड्रिंक की बोतल छीनते हुए पीजा खाने की जिद करने लगी. माया ने समझाया कि नहीं, अभी घर जाकर खाना भी खाना है, पर मानवी ने जिद्द पकड़ ली कि उसे तो पीजा भी खाना है. माया के मना करने पर मानवी मचल गयी और सड़क पर ही मां के ऊपर चीखने-चिल्लाने व हाथ चलाने लगी. ठेले के आसपास खड़े लोग भी बच्ची की हरकतों को मजे लेकर देखने लगे. मानवी तब तक प्रलाप करती रही जब तक उसकी मां उसको बगल के ठेले से पीजा खिलाने के लिए राजी नहीं हो गयी. माया की बेटियों की उम्र आठ साल और पांच साल है. दोनों गोरी-चिट्टी हैं मगर दोनों के थुलथुल शरीर और जरूरत से ज्यादा चबी चीक्स उन्हें न तो क्यूट बच्चा बनाते हैं, और न ही खूबसूरत. उन्हें देखकर मुंह से निकल ही जाता है – बेबी एलीफैंट.

मानवी और उसकी छोटी बहन सोनवी को उनके स्कूल के दोस्त भी बेबी एलीफैंट के नाम से चिढ़ाते हैं. कभी हिप्पो तो कभी छोटा भीम भी कहते हैं. दोनों के मन-मस्तिष्क पर इन बातों का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. उन्हें न तो कोई खेल में अपने साथ रखना चाहता है और न ही कोई उनके साथ अपना टिफिन बॉक्स शेयर करता है क्योंकि एक तो मोटापे के कारण दोनों से दौड़ा-भागा नहीं जाता, वहीं कोई बच्चा उनसे अपना टिफिन शेयर करे तो दोनों दूसरे का टिफिन तो चट से साफ कर जाती हैं, मगर अपने टिफिन में से उन्हें कुछ खाने को नहीं देतीं. इसकी वजह है कि दोनों को सामान्य से कहीं ज्यादा भूख लगती है. इन्हीं कारणों से वह स्कूल में अलग-थलग पड़ गयी हैं. दूसरे बच्चे जहां अपनी पॉकेटमनी से छोटे-छोटे गेम्स, कॉमिक्स या पतंग-कंचे वगैरह खरीदते हैं, वहीं मानवी और सोनवी बस खाने की चीजें ही खरीदती हैं. चाट, कोल्ड ड्रिंक, बर्गर, मोमोज जैसे फास्ट फूड उनको रोज चाहिए. इसके चलते ही दोनों के शरीर थुलथुल हो गये हैं. वे पढ़ाई में भी लगातार पिछड़ती जा रही हैं क्योंकि मोटापे के कारण आलस्य और नींद हर वक्त उन पर हावी रहती है. शाम के वक्त जहां कॉलोनी के सारे बच्चे पार्क में खेलते-कूदते हैं, वहीं मानवी और सोनवी अपने ड्राइंगरूम के सोफे पर पसर कर कुछ न कुछ खाते हुए कार्टून चैनल्स देखती रहती हैं.

माया को शिकायत है कि उसकी दोनों बेटियां हाथ से निकली जा रही हैं. दोनों बेहद जिद्दी, चिड़चिड़ी और बदतमीज हो गयी हैं. मन की चीज पूरी न हो तो चीख-चीख रोती हैं और पूरा घर सिर पर उठा लेती हैं. न पढ़ाई में दिल लगता है न खेलकूद में. दाल, सब्जी, फल, दूध के नाम पर दोनों को बुखार चढ़ जाता है, बस हर वक्त चट्टू-पट्टू चीजें खाने को मांगती हैं. मानवी तो मां की नजर बचा कर फोन से फास्ट फूड का आर्डर भी प्लेस कर देती है. अब डिलीवरी ब्यॉय दरवाजे पर आ खड़ा हो तो माया को आर्डर की हुई चीज लेनी ही पड़ती है. दोनों बेटियों की परवरिश में माया को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. मगर इसकी दोषी वह खुद है. छोटे शहर से महानगर आयी माया के पति की जब एक इंटरनेशनल कम्पनी में नौकरी लगी तो उसकी आय तिगुनी हो गयी. माया के हाथ में पैसा आने लगा तो बाहर के खाने का चस्का भी लग गया.  इस चस्के में उसकी खाना पकाने की खूबी खत्म होती चली गयी. मायके में जहां आये-दिन नई-नई रेसेपीज सीखती और पकाती थी, वहीं पति के घर के ऐशो-आराम में उसके सारे शौक बदल गये. अब न वह सिलाई-कढ़ाई करती है, न घर सजाने-संवारने में उसे कोई रुचि है और न ही वह किचेन में स्वादिष्ट और पौष्टिक खाना बनाने की इच्छा होती है. सब काम के लिए नौकर है. बच्चों को भी उसने बचपन से ही बाहर के खाने की लत लगा दी थी. अब उनका और अपना मोटापा देखकर पछता रही है.

फास्ट फूड की तरफ बढ़ता बच्चों का तीव्र आकर्षण और उसकी वजह से बढ़ती परेशानियों का सामना आज महानगरों में ज्यादातर मां-बाप कर रहे हैं. मगर इसके जिम्मेदार भी मां-बाप ही हैं, जो अपने बच्चों में सही खानपान की आदतें नहीं डाल पाते हैं. कभी मजबूरी में तो कभी लापरवाही के कारण. स्नेहा और उसके पति दोनों मल्टीनैशनल कम्पनी में काम करते हैं. उनका एक ग्यारह साल का बेटा है – हर्ष. हर्ष छठी कक्षा का विद्यार्थी है, मगर उसका डील-डौल देखें तो दसवीं क्लास का छात्र लगता है. अपनी कक्षा में वह अन्य बच्चों से बहुत बड़ा नजर आता है. जिसके कारण कुछ बच्चे उसे चिढ़ाते हैं, तो कुछ उससे डरते भी हैं. उसके अंग्रेजी के टीचर तो उसको ‘ही-मैन’ कह कर बुलाते हैं. हर्ष के मोटापे का कारण है फास्ट फूड. काम की अधिकता की वजह से उसकी मां स्नेहा सुबह के नाश्ते में अंडा, ब्रेड, जूस, नट्स आदि तो डायनिंग टेबल पर सजा देती है, मगर दोपहर का खाना पति-पत्नी जहां अपने-अपने ऑफिस की कैंटीन में खाते हैं, वहीं हर्ष को भी स्कूल की कैंटीन से खाने के लिए पैसे देते हैं. स्कूल से घर लौटने पर फ्रिज में सॉफ्ट ड्रिंक्स, केक, पैटीज, आइस्क्रीम, पेस्ट्री आदि भी मिल जाती है. उसके माता-पिता ऑफिस से देर रात लौटते हैं. ऐसा कभी-कभी ही होता है कि स्नेहा ऑफिस से लौटकर रात का खाना बनाये, वरना महीने में बीस-बाइस दिन तो तीनों रात का खाना भी बाहर ही खाते हैं. बर्गर, पीजा, चिकेन रोल्स, कोल्ड ड्रिंक, चिकेन टिक्का, बिरयानी खा-खाकर तीनों का मोटापा बढ़ रहा है.

वहीं, आशीष की पत्नी रेनू दिन भर घर में रहने के बावजूद अपने बच्चों को पौष्टिक खाना नहीं खिलाती, बल्कि अपने आलसीपन के कारण बच्चों  के स्वास्थ्य से लगातार खिलवाड़ कर रही है. सुबह का नाश्ता ब्रेड-बटर और दोपहर में चाट-पकौड़ी, चाट-पापड़ी, भल्ले, गोलगप्पे, जो घर के सामने बैठे रेहड़ीवाले के पास से लगभग रोजाना पैक होकर आता है. दिन भर सोफे पर पसर कर टीवी देखना रेनू का शौक है. रात में बस एक बार ही वह घंटे भर के लिए रसोई में जाती है, ताकि बच्चों के पापा उसको ताने न मारें, मगर रोटी, सब्जी, दाल बनाने में उसको पसीना आ जाता है. वहीं हड़बड़ी और बेमन से बना ये खाना न तो स्वादिष्ट होता है और न ही किसी को पसन्द आता है. रेनू वही सब्जी बनाती है जिसे काटने-धोने में वक्त न लगे और फटाफट बन जाए. बाजार से सूखे प्याज के पैकेट और टमाटर की प्यूरी खरीद कर रख रखी है, जिनसे वह चटपट पनीर बना लेती है. अंडे की भुर्जी, उबले आलू की सब्जी, सोयाक्रम या फिर ऐसी चीज जो चटपट बन जाए. हरा साग या दूसरी सब्जियां जिन्हें साफ करने, काटने, बनाने में वक्त लगता है, रेनू न खरीदती है न बनाती है. उसके बच्चों को कभी करेला, मेथी, पालक, घिया, कद्दू, भिण्डी खाने को नहीं मिलता क्योंकि इन सब्जियों को बनाने में थोड़ा वक्त लगता है. फिर खाने के साथ न सलाद, न दही, न रायता और न ही कोई मीठी चीज जैसे खीर या हलवा. खाने की मेज पर बच्चे बमुश्किल एकाध रोटी ही गले से उतार कर उठ जाते हैं और फिर बिस्तर पर  चिप्स, चॉकलेट और कोल्ड ड्रिंक से बाकी की भूख शान्त करते हैं. रेनू का आलसी और लापरवाह व्यवहार खुद उसको ही नहीं, उसके बच्चों को भी बीमारी की राह पर ढकेल रहा है, मगर यह बात उसे समझ में ही नहीं आती है. खाना बनाने, खिलाने का उसे कोई शौक नहीं है.

महानगरों में वक्त की कमी के कारण मां-बाप अपने बच्चों को हरी सब्जियों, फल, दूध, अनाज का भोजन देने के बजाये फास्ट फूड की ओर ढकेल रहे हैं, जिसके चलते उनके शरीर में न सिर्फ अतिरिक्त चर्बी जमा हो रही है, बल्कि वे कई तरह की बीमारियों की चपेट में भी हैं. अपौष्टिक खाना उनके अन्दर जहां आलस्य को बढ़ा रहा है, वहीं वे उम्र से पहले ही परिपक्व भी हो रहे हैं. मोटापे या स्थूलता से ग्रस्त बच्चों में पहली समस्या यही है कि वे भावुक और मनोवैज्ञानिक रूप से समस्याग्रस्त हो जाते हैं. उनकी सोचने-समझने की शक्ति क्षीण होती है. वे बहुत ज्यादा कन्फ्यूज रहते हैं. बच्चों में मोटापा जीवन भर के लिए खतरनाक विकार भी उत्पन्न कर सकता है जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, अनिद्रा रोग, कैंसर और अन्य समस्याएं. कुछ अन्य विकारों में यकृत रोग, यौवन आरम्भ का जल्दी होना, या लड़कियों में मासिक धर्म का जल्दी शुरू होना, आहार विकार जैसे एनोरेक्सिया और बुलिमिया, त्वचा में संक्रमण और अस्थमा तथा श्वसन से सम्बन्धित अन्य समस्याएं शामिल हो सकती हैं. अध्ययनों से पता चला है कि अधिक वजन वाले बच्चों में व्यस्क होने पर भी अधिक वजन बने रहने की सम्भावना अधिक होती है. ऐसा भी पाया गया है कि किशोरावस्था के दौरान स्थूलता व्यस्क अवस्था में मृत्यु दर को बढ़ाती है. मोटे बच्चों को अक्सर उनके साथी चिढ़ाते हैं. ऐसे कुछ बच्चों के साथ तो खुद उनके परिवार के लोगों के द्वारा भेदभाव किया जाता है. इससे उनके आत्मविश्वास में कमी आती है और वे अपने आत्मसम्मान को कम महसूस करते हैं और अवसाद से भी ग्रस्त हो जाते हैं.

वर्ष 2008 में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि स्थूलता से पीड़ित बच्चों में कैरोटिड धमनियां समय से पहले इतनी विकसित हो जाती हैं जितनी कि तीस वर्ष की उम्र में विकसित होनी चाहिए, साथ ही उनमें कोलेस्ट्रॉल का स्तर भी असामान्य होता है. यह हृदय सम्बन्धि रोगों के कारक हैं. कैलोरी युक्त पेय और खाद्य पदार्थ बच्चों को आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. चीनी से भरी हुई सॉफ्ट-ड्रिंक्स का उपभोग बच्चों में मोटापे में बहुत अधिक योगदान देता है. 19 महीने तक 548 बच्चों पर किये गये एक अध्ययन में पाया गया है कि प्रतिदिन 600 मिलीग्राम सॉफ्ट ड्रिंक पीने से स्थूलता की सम्भावना 1.6 गुना तक बढ़ जाती है.

बाजार के लिए बच्चे सबसे बड़े उपभोक्ता हैं. फास्ट फूड मार्केट का पहला लक्ष्य ही बच्चे हैं. इस बाजार को बच्चों की सेहत से कोई लेना-देना नहीं है. उन्हें सिर्फ अपने उत्पाद की बिक्री से मतलब है. अत्यधिक कैलोरी युक्त स्नैक्स आज बच्चों को हर जगह आसानी से उपलब्ध है. युवा फास्ट फूड रेस्तरां में खाना बहुत पसंद करते हैं. अध्ययन में पाया गया है कि 7वीं से 12वीं कक्षा के 75 प्रतिशत छात्र फास्ट फूड खाते हैं. फास्ट फूड उद्योग बच्चों में मोटापे को बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान दे रहा है. अकेले मैकडॉनल्ड्स की तेरह वेबसाइटें हैं जिन्हें हर महीने 365,000 बच्चे और 294,000 किशोर देखते हैं. यह उद्योग लगभग 42 बिलियन डॉलर सालाना विज्ञापन पर खर्च करता है, जिसमें छोटे बच्चों को मुख्य रूप से लक्ष्य बनाया जाता है. इसके अतिरिक्त, फास्ट फूड रेस्तरां बच्चों को भोजन के साथ खिलौने देते हैं, जो बच्चों को लुभाने में मदद करता है. चालीस प्रतिशत बच्चे लगभग रोज अपने माता पिता को फास्ट फूड रेस्तरां ले जाने के लिए कहते हैं. फास्ट फूड रेस्तरां में मिलने वाले 3000 लोकप्रिय व्यंजनों में से केवल 13 ऐसे व्यंजन हैं जो छोटे बच्चों के लिए पोषण सम्बन्धी दिशा-निर्देशों का अनुपालन करते हैं, यह स्थिति को बदतर बनाने के लिए काफी है. फास्ट फूड के उपभोग और मोटापे के बीच सीधा सम्बन्ध है. ऐसे ही एक अध्ययन में पाया गया कि स्कूल के पास फास्ट फूड रेस्तरां का होना बच्चों में स्थूलता के जोखिम को बढ़ाता है. बाल्यकाल स्थूलता एक ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर में उपस्थित अतिरिक्त वसा बच्चे के स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है.

बच्चों में मोटापा एक महामारी की तरह आज दुनिया के बहुत-से देशों में फैलता जा रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया-भर में करीब 2 करोड़ 20 लाख बच्चों का वजन बहुत ज्यादा है, जिनकी उम्र 5 साल से भी कम है. अमरीका में पिछले तीन दशकों में 6 से 11 साल के मोटे बच्चों की गिनती तीन गुना बढ़ी है. विकासशील देशों में भी यह समस्या जोर पकड़ रही है. अंतर्राष्ट्रीय मोटापा कार्य समिति (इंटरनेशनल ओबेसिटी टास्क फोर्स) के मुताबिक, अफ्रीका के कुछ इलाकों में बच्चे कुपोषण से ज्यादा, मोटापे का शिकार हैं. सन् 2007 के बाद से मेक्सिको में मोटे बच्चों की गिनती इतनी बढ़ गयी है कि इस मामले में यह देश अमरीका के बाद विश्व में दूसरे नम्बर पर पहुंच गया है. मेक्सिको शहर में 70 प्रतिशत बच्चों और जवानों का या तो वजन ज्यादा है या वे मोटापे से जूझ रहे हैं. बाल शल्यचिकित्सक फ्रॉन्सिस्को गॉन्सॉलेस खबरदार करते हैं कि – ‘यह ऐसी पहली पीढ़ी होगी, जो मोटापे से होनेवाली बीमारियों की वजह से अपने मां-बाप से पहले मौत के मुंह में जा सकती है.’

दरअसल मोटापे के कारण बच्चों में डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और दिल की बीमारियां हो रही हैं. यह बीमारियां पहले बुजुर्गों को होती थीं. यह बच्चों के लिए खतरे की घंटी है. मोटापे के कारण बच्चों में हाई ब्लड प्रेशर जोर पकड़ रहा है. अगर इसे काबू नहीं किया जा सका तो दिल की खतरनाक बीमारियां उनको जकड़ लेंगी. बचपन में मोटापे के शिकार लोगों के लिए युवावस्था में डायबिटीज का खतरा कई गुना ज्यादा बढ़ ज्यादा है. इसके अलावा इन बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित होता है यानी उनमें मानसिक बीमारियों का जोखिम कहीं अधिक होता है.

इंडियन जर्नल ऑफ़ एंडोक्राइनोलॉजी एंड मेटाबोलिज्म के मुताबिक भारतीय बच्चों में मोटापे की समस्या तेजी से बढ़ रही है. भारत में 20 प्रतिशत स्कूली बच्चे मोटापाग्रस्त हैं. मोटापा बढ़ने के पीछे जाने-अनजाने में हमारी ही लापरवाहियां और सुस्ती जिम्मेदार है. हम चाहे तो एक्सरसाइज और पौष्टिक खाने को तवज्जो देकर अपनी और अपने बच्चों की फूड हैबिट्स को सुधार सकते हैं.

इतना मोटापा क्यों?

–  दुनिया भर में बच्चे जिस तरह मोटापे का शिकार हो रहे हैं, उसमें एक कारण उनके जींस और हार्मोंस भी हो सकते हैं, यानी मोटापा उन्हें आनुवांशिक रूप से प्राप्त हो रहा है. लेकिन इस कारण का प्रतिशत बहुत कम है.

–  मोटापे की खास वजह बच्चों में खानपान की गलत आदतें हैं. बच्चे खाते बहुत हैं और कसरत न के बराबर करते हैं.

–  नौकरीपेशा माता-पिता के पास खाना पकाने के लिए न तो समय होता है और न ही ताकत. नतीजा, वे फास्ट-फूड यानी झटपट तैयार खाने पर निर्भर होते जा रहे हैं.

– आज दुनिया-भर में जहां देखो वहां फास्ट-फूड रेस्तरां खुलते जा रहे हैं. एक अध्ययन से पता चला है कि अमरीका में 4 से 19 साल के एक तिहाई बच्चे हर दिन फास्ट-फूड पर ही जीते हैं. इस तरह के खाने में शक्कर और चिकनाई बहुत ज्यादा होती है. साथ ही, इन्हें इतनी बड़ी मात्रा में परोसा जाता है कि देखनेवालों की लार टपकने लगती है.

–  आज लोग दूध और पानी के बजाय सॉफ्ट-ड्रिंक पीना ज्यादा पसंद करते हैं. मिसाल के लिए, मेक्सिको में हर साल लोग उतना पैसा दस तरह के व्यंजनों पर भी खर्च नहीं करते, जितना वे सिर्फ सॉफ्ट-ड्रिंक पर खर्च कर देते हैं. हर दिन सिर्फ 600 मिलीलीटर सॉफ्ट-ड्रिंक पीने से साल-भर में एक व्यक्ति का वजन करीब 11 किलो तक बढ़ सकता है.

–  अध्ययन के अनुसार औसतन तीन साल के बच्चे हर दिन सिर्फ 20 मिनट ही खेल-कूद या किसी तरह की शारीरिक हरकत में बिताते हैं. बच्चों में बैठे-बैठे काम करते रहने की आदत आम होती जा रही है. जिसके कारण मोटापा शरीर में घर कर रहा है.

मोटापे से छुटकारा पाने के लिए क्या करें

  1. बच्चों को फास्ट फूड खिलाने के बजाय, फल, सलाद और सब्जियां ज्यादा खरीदें और खिलाएं.
  2. सॉफ्ट-ड्रिंक, शरबत और ज्यादा मीठे और चिकनाईयुक्त नाश्ते पर रोक लगाइए. इसके बजाय, बच्चों को पानी या बिना मलाईवाला दूध और पौष्टिक नाश्ता दीजिए.
  3. खाना पकाने के ऐसे तरीके अपनाइए, जिनमें घी-तेल का ज्यादा इस्तेमाल नहीं होता, जैसे सेंकना, भूनना या भाप में पकाना. खाना मन से बनाएं और स्वादिष्ट बनाएं. नई-नई रेसिपीज सीखें और खाने में ज्यादा स्वाद पैदा करें. एक जैसी सब्जी खाते-खाते बच्चे बोर हो जाते हैं.
  4. खाना कम परोसिए. खाना चबा-चबा कर धीरे-धीरे खाने और भूख से दो निवाले कम खाने का निर्देश बच्चों को दीजिए.
  5. कोई काम कराने और इनाम देने के नाम पर बच्चों को खाने की चीजें मत दीजिए.
  6. बिना नागा बच्चे को सुबह का नाश्ता जरूर कराइए. क्योंकि अगर वह नाश्ते से चूक गया है तो बाद में दुगना खाना खा सकता है.
  7. साथ बैठकर खाना खाइए. टीवी या कम्प्यूटर के सामने खाने से एक व्यक्ति को इसका अंदाजा नहीं लगता कि उसने कितना खा लिया है.
  8. कसरत करने को बढ़ावा दीजिए, जैसे साइकिल चलाना, गेंद से खेलना और रस्सी कूदना.
  9. ज्यादा देर तक टीवी देखने, कम्प्यूटर का इस्तेमाल करने या वीडियो गेम खेलने की इजाजत मत दीजिए.
  10. पूरा परिवार मिलकर कहीं बाहर घूमने की योजना बनाइए. जैसे कि चिड़ियाघर देखना, पार्क में खेलना या तैराकी के लिए जाना.
  11. बच्चे से कुछ मेहनत का काम करवाइए. घर की साफ-सफाई में उनकी मदद लीजिए. उनसे अपने कपड़े धोने को कहिए.
  12. बढ़िया खाना खाने और कसरत करने की अच्छी मिसाल बच्चों के सामने रखिए.

Edited By – Neelesh Singh Sisodia 

जानिए क्या होता है फोबिया और उसके प्रकार

भय किसी वास्तविक या आभासी खतरे की एक मानसिक प्रतिक्रिया है. लोगों में भय होना आम बात है और यह अकसर सामान्य ही होता है यानी किसी वस्तु या घटना को देख कर उपजी इस स्थिति में कोई नुकसान नहीं होता. मसलन, कई लोग मकड़ी को देख कर डर जाते हैं, इसे देख कर उन में हलकीफुलकी उत्तेजना का अनुभव होता है.

फोबिया यानी खौफ वाकई एक भयंकर डर है लेकिन भय और फोबिया के बीच अंतर को महज इस की तीव्रता से नहीं आंका जा सकता. फोबिया किसी व्यक्ति की मानसिकता पर इतना गहरा असर डालता है कि बहुत कम समय के लिए उस का मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है. यह एक बेवजह का तात्कालिक भय है.

भय सामान्य होता है और असल में यह हमारे रक्षातंत्र का ही एक हिस्सा होता है. कुछ ऐसी चीजें होती हैं जिन से हमें डर लगता है, इसलिए हम भाग खड़े होते हैं या ऐसे हालात की अनदेखी कर देते हैं. मसलन, किसी वास्तविक खतरे को देख कर भय का एहसास होना लाजिमी है. यदि कोई व्यक्ति आप के ऊपर बंदूक तान दे तो जाहिर है कि आप डर जाएंगे. लेकिन इस भय का आलम उतना खौफनाक नहीं होता. यदि हम वाकई किसी खतरे का एहसास करते हैं तो भय होना स्वाभाविक है.

लेकिन फोबिया की स्थिति में भय का स्तर खौफनाक होता है, इसलिए इस की तीव्रता अतार्किक होती है. यह फोबिया वास्तविक खतरे पर आधारित नहीं होता, इसलिए इस के प्रति इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया व्यक्त करने का कोई वास्तविक आधार नहीं होता.

फोबिया के प्रकार

फोबिया को 3 प्रकार से बांटा जा सकता है – सोशल फोबिया, स्पेसिफिक फोबिया, एगोराफोबिया.

सोशल फोबिया

सोशल फोबिया के दौरान पीडि़त कुछ हालात से डरने लगता है. वह उन सामाजिक कार्यों को नजरअंदाज करता है और कभीकभी ऐसे हालात में उसे शर्मिंदगी भी झेलनी पड़ती है.

इस में पीडि़त को हमेशा ऐसा लगता है कि लोग उस के बारे में बुरा सोचते हैं और उसे बहुत बुरा समझते हैं. लोग उस के पीठपीछे उस की बुराइयां करते रहते हैं. उस के ऊपर हंसते हैं. पीडि़त खुद को बहुत निम्न समझने लगता है. उस का आत्मविश्वास खो जाता है. किसी भी इंटरव्यू या फिर पब्लिक मीटिंग में वह बोल भी नहीं पाता है. उसे वहां खड़े होने में भी लड़खड़ाहट होने लगती है. हालांकि पीडि़त को यह पता होता है कि यह डर बेबुनियाद है लेकिन तब भी बेचैनी और घबराहट उस का पीछा नहीं छोड़ती है.

पीडि़त को किसी से बात करने और मिलने में भी डर लगता है. अगर वह किसी से बात कर ले तो उस के दिमाग में यही चलता रहता है कि अब तो लोग उस का मजाक उड़ाएंगे और दूसरों के साथ उस की तुलना करेंगे. बढ़तेबढ़ते हालात यहां तक पहुंच जाते हैं कि पीडि़त किसी शादीब्याह, मीटिंग या इंटरव्यू में जाना ही नहीं चाहता. ऐसे कार्यों को वह नजरअंदाज करने लगता है, जैसे नए लोगों से मिलना, सार्वजनिक शौचालयों का इस्तेमाल करना, कक्षा में अपना नाम बुलाए जाने पर, डेट पर जाना, किसी को फोन करना, औफिस में सब के सामने चुप रहना, अपनी बात को भी सब के सामने व्यक्त न कर पाना आदि.

स्पेसिफिक फोबिया

स्पेसिफिक फोबिया में किसी खास वस्तु या व्यक्ति या हालात से डर लगता है. ऐसे में व्यक्ति कभीकभी जरूरत से ज्यादा खुश भी हो सकता है या अधिक दुखी भी.

यह एक ऐसा साधारण डर होता है जोकि किसी निर्धारित वस्तु या फिर हालात को देख कर पैदा होता है. जैसे ही पीडि़त उन हालात के बारे में सोचता है, परेशान सा होने लगता है. उसे अत्यंत घबराहट होने लगती है. इन हालात में पीडि़त काम भी नहीं कर पाता है. उस की कार्यशैली प्रभावित होने लगती है. कुछ विशिष्ट प्रकार के फोबिया ये हैं :

एनिमल फोबिया : जानवरों से लगने वाला डर यानी कुछ लोगों को कुत्तों, बिल्लियों, सांप, कीड़ेमकोड़ों आदि से बेहद डर लगता है.

सिचुएशनल फोबिया : कुछ खास हालात जैसे उड़ना, घुड़सवारी करना, गाड़ी चलाना, किसी एक जगह पर अकेले हो जाना आदि कुछ लोगों को भयभीत कर देता है.

नैचुरल एनवायरमैंट फोबिया : पानी, तूफान, ऊंचाई आदि से डरना.

ब्लड, इंजैक्शन, चोट आदि से फोबिया : कई लोगों को खून देनालेना, अपना या किसी का खून निकलते हुए देख लेने से भी चक्कर आ जाते हैं. इंजैक्शन देख कर ही उन के पसीने छूट जाते हैं.

एगोराफोबिया

एगोराफोबिया में पीडि़त को भीड़ में भी अकेलेपन का एहसास होता है. वह किसी भी सुपरमार्केट में अकेला महसूस करने लगता है और यह एहसास व्यक्ति को बेहद कचोटने लगता है. इस स्थिति को एगोराफोबिया कहते हैं. यह भयाक्रांत हुए मरीजों में से एकतिहाई को प्रभावित करता है.

कभीकभी एगोराफोबिया से ग्रस्त मरीज अकेला घर से बाहर नहीं निकल पाता और परिवार के किसी खास सदस्य या मित्र के साथ ही कहीं जाता है. अपनेआप को सुरक्षित क्षेत्र में कैद कर लेने के बावजूद एगोराफोबिया से पीडि़त बहुत से लोगों को कई बार दौरा पड़ ही जाता है.

एगोराफोबिया से ग्रस्त मरीज अपनी स्थिति के चलते गंभीर रूप से पंगु बन जाते हैं. कुछ मरीज अपना काम नहीं कर पाते और अपने परिवार के दूसरे सदस्यों पर पूरी तरह से आश्रित होने पर मजबूर हो सकते हैं जो उन के लिए न सिर्फ खरीदारी करते हैं और उन की पारिवारिक समस्याओं को न समझते हैं बल्कि उस के द्वारा बनाए गए सुरक्षित क्षेत्र से बाहर भी उस के साथ जाते हैं. इस तरह एगोराफोबिया से ग्रस्त व्यक्ति परजीवी हो जाता है और बड़ी ही परेशानी में अपना जीवनयापन करता है.

फोबिया के कारण

शोधकर्ता अभी फोबिया के सही कारणों के बारे में आश्वस्त नहीं हैं. हालांकि आम धारणा यही है कि जब कोई फोबिया होता है तो कुछ खास प्रकार के कारकों की समानता देखी जा सकती है. इन कारकों में शामिल हैं :

आनुवंशिक : शोध से पता चला है कि परिवार में किसी खास प्रकार का फोबिया होता है. मसलन, अलगअलग जगह पलेबढ़े बच्चों में एक ही प्रकार का फोबिया हो सकता है. हालांकि एक प्रकार के फोबिया वाले कई लोगों की परिस्थितियों का आपस में कोई संबंध नहीं होता.

सांस्कृतिक कारक : कुछ फोबिया किसी खास प्रकार के सांस्कृतिक समूहों में ही पाए जाते हैं. यह एक ऐसा भय है जिस में लोग सामाजिक परिस्थितियों के कारण दूसरों पर हमला करते हैं या उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं. यह परंपरागत सोशल फोबिया से बिलकुल अलग होता है क्योंकि सोशल फोबिया में पीडि़त व्यक्ति अपमानित होने पर व्यक्तिगत शर्मिंदगी झेलने की आशंका से ग्रसित रहता है. सो संभव है कि फोबिया विकसित करने में संस्कृति की भूमिका हो.

जिंदगी के अनुभव : कई प्रकार के फोबिया वास्तविक जिंदगी की घटनाओं से जुड़े होते हैं जिन्हें होशोहवास में याद किया भी जा सकता है और नहीं भी. मसलन, किसी कुत्ते का फोबिया, यह व्यक्ति को उसी वक्त से हो सकता है जब बहुत छोटी उम्र में वह कुत्ते का हमला झेल चुका हो. सोशल फोबिया नाबालिग उम्र के अल्हड़पन या बचपन की शैतानी से विकसित हो सकता है.

हो सकता है कि इन कारकों का एक मिश्रित रूप किसी फोबिया के विकसित होने का कारण बना हो लेकिन निर्णायक निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले अभी और ज्यादा शोध की आवश्यकता है. किसी व्यक्ति में कोई फोबिया बचपन से ही होता है या किसी को बाद की उम्र में पनप सकता है. कोई भी फोबिया बचपन, जवानी या किशोरावस्था के दौरान विकसित हो सकता है. फोबिया से ग्रस्त लोगों का ताल्लुक अकसर किसी डरावनी घटना या तनावपूर्ण माहौल से रहा है हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि कुछ खास प्रकार के फोबिया क्यों विकसित होते हैं.

फोबिया के इलाज

फोबिया से पीडि़त व्यक्ति की सोच में बदलाव लाने में मदद करते हुए उन के फोबिक लक्षणों को कौग्निटिव बिहेवियरल थैरेपी यानी सीबीटी से कमी लाने में बहुत हद तक सफलता मिली है. यह लक्ष्य हासिल करने के लिए सीबीटी का इस्तेमाल 3 तकनीकों से किया जाता है :

शिक्षाप्रद सामग्री : इस चरण में व्यक्ति को फोबिया व इस के इलाज के बारे में शिक्षित किया जाता है और उसे उपचार के लिए सकारात्मक उम्मीद बनाए रखने में मदद की जाती है. इस के अलावा फोबिया से पीडि़त व्यक्ति को सहयोग देने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है.

संज्ञानात्मक अवयव : इस से विचारों तथा कल्पनाओं की पहचान करने में मदद मिलती है, जिस से व्यक्ति का बरताव प्रभावित होता है, खासकर ऐसे लोगों का जो पहले से ही खुद को फोबियाग्रस्त होने की धारणा पाल बैठते हैं.

व्यावहारिक अवयव : इस के तहत फोबियाग्रस्त व्यक्ति को समस्याओं से अधिक प्रभावी रणनीतियों के साथ निबटने की शिक्षा देने के लिए व्यवहार संशोधन तकनीक इस्तेमाल की जाती है.

फोबिया कई बार अवसादरोधी या उत्तेजनारोधी उपचार से भी ठीक किया जाता है, जिस से प्रतिकूल स्थिति पैदा करने वाले शारीरिक लक्षणों में कमी लाई जाती है और शरीर में उत्तेजना का प्रभाव अवरुद्ध किया जाता है.

 

दमा निकाल देता है दम

दमा बीमारी को इंगलिश में अस्थमा कहा जाता है. इस में तेज खांसी, घरघराहट और मरीज को सांस लेने में तकलीफ होती है. दमा में सांस लेने की नली में सूजन आ जाती है. बलगम पैदा होने लगता है. इस से सांस लेना मुश्किल हो जाता है.

दमा को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता है. इलाज और बचाव से इस को कंट्रोल किया जा सकता है.

दमा अकसर समय के साथ बदलता है. दमा के लक्षण मामूली से गंभीर और हर किसी के लिए अलग हो सकते हैं. मरीज को बारबार दमा के दौरे पड़ सकते हैं. कई बार किसी एक निश्चित समय पर ही दमा के लक्षण दिखाई दे सकते हैं, जैसे कि कसरत करते समय यह तकलीफ ज्यादा दिखती है.

दमा को एक विकलांगता माना जाता है, क्योंकि यह लंबे समय तक शारीरिक दुर्बलता पैदा करता है. यह रोजमर्रा की जिंदगी की गतिविधियों में बाधा डाल सकता है, जो जिंदगी को और ज्यादा मुश्किल बना सकता है.

दमा में सीने में दर्द और सांस लेने में तकलीफ होती है. धीरेधीरे होने वाला दर्द तेज दर्द में बदल जाता है. ऐसा महसूस हो सकता है कि छाती पर कोई चट्टान रखी है.

इस बारे में डाक्टर मनोज श्रीवास्तव कहते हैं, “दमा का स्थायी इलाज नहीं है. ऐसे में बचाव और परहेज से ही इस को संभाला जा सकता है. ज्यादा दिक्कत होने पर डाक्टरी दवाओं से राहत मिलती है. मसला सांस से जुड़ा होता है तो लापरवाही खतरनाक साबित हो सकती है. धुआं, धूल और धूम्रपान से बच कर रहिए.”

दमा के लक्षण

दमा के लक्षणों में तेज सांस चलना, सांस फूलना, सीने में जकड़न या दर्द, सांस की तकलीफ, खांसी या घरघराहट के चलते नींद में परेशानी होती है. इस के साथ ही सांस छोड़ते समय सीटी सी बजना या घरघराहट की आवाज आना दमा की वजह मानी जाती है. खांसी या घरघराहट के दौरे सर्दी और बुखार में ज्यादा होने लगते हैं.

कई बार दमा अचानक बहुत परेशान करता है. तत्काल राहत के लिए इनहेलर का इस्तेमाल करने की जरूरत पड़ती है. दमा से पीड़ित शख्स की जांच के लिए छाती का एक्सरे, सांस की जांच, स्पिरोमैट्री, नाइट्रिक आक्साइड टैस्ट, इमेजिंग टैस्ट और एलर्जी टैस्ट किया जाता है.

दमे का इलाज

सांस की तकलीफ बढ़ाने वाले काम कम करने चाहिए. बीमारी को कम करने या कंट्रोल में रखने की कोशिश करनी चाहिए. दूध और उस से बनी चीजों का इस्तेमाल कम करें. ज्यादातर लोगों में दमा की 60 फीसदी वजह दूध और दूध से बनी चीजें ही होती हैं. केला, कटहल और पकाई हुई चुकंदर न लें.

सरसों का तेल कपूर के साथ मिला कर इस्तेमाल कर सकते है. इस मिश्रण को छाती में हर जगह रगड़ें. तेल को लगाने से पहले गरम कर लें. यह तेजी से राहत देने में मदद करेगा. इस के साथ ही अदरक का इस्तेमाल खाने में या इस का रस चूसने में करें. इस से फायदा होता है.

कौफी में मौजूद कैफीन दमा के इलाज में मदद करता है. खट्टे फलों में विटामिन सी होता है जो सूजन को कम करता है, इसलिए अपने दैनिक आहार में नीबू को शामिल कर सकते हैं. दिन में कम से कम 8 गिलास पानी का सेवन लाभकारी होता है.

सब से जरूरी बात यह है कि माहिर डाक्टर की कही गई हिदायतों को नजरअंदाज मत करें और उस के कहे मुताबिक दवा का सेवन करें.

नपुंसकता: तन से नहीं मन से उपजा रोग

चिकित्सा की भाषा में नपुंसकता यानी इंपोटैंस उस स्थिति को कहते हैं जिस में व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से यौन क्रिया का आनंद नहीं ले पाता है. जरूरी नहीं कि यह बीमारी अधिक उम्र के पुरुष में ही हो, बल्कि कुछ नौजवान भी इस के शिकार हो जाते हैं. यह बीमारी प्रजननहीनता यानी इंफर्टिलिटी से अलग है जिस में व्यक्ति के वीर्य में या तो शुक्राणु नहीं होते या बहुत ही कम मात्रा में होते हैं जिस के कारण वह व्यक्ति यौन क्रिया तो सफलतापूर्वक कर लेता है लेकिन संतान उत्पन्न करने में असमर्थ होता है.

दरअसल, इस के पीछे शारीरिक व मानसिक दोनों कारण होते हैं. नए शोधों से पता चला है कि मधुमेह व हार्मोन के असंतुलन से नपुंसकता हो सकती है. शरीर में किसी प्रकार के संक्रमण के कारण व्यक्ति नपुंसकता का शिकार हो सकता है या फिर शरीर में चोट लगना, उच्च रक्तचाप, धूम्रपान व मदिरापान जैसे अन्य शारीरिक कारण भी हो सकते हैं.

हमारे जीवन में हार्मोंस का बहुत महत्त्व है या कहें कि हमारी दिनचर्या इन हार्मोंस के कारण ही संभव है. यदि किसी पुरुष में टेस्टोस्टेरोन का स्तर सामान्य हो तो उस के नपुंसक होने की संभावना काफी कम हो जाती है. दरअसल, सैक्स की इच्छा के लिए हार्मोन का शरीर में उचित अनुपात में बने रहना जरूरी है. आधुनिक अध्ययनों से साबित हो गया है कि नपुंसकता के 80 प्रतिशत मरीजों के पीछे मानसिक कारण होते हैं जबकि 20 प्रतिशत मरीज शारीरिक कारणों से जुड़े होते हैं. सही तरीके से खानपान व रहनसहन न होने से भी व्यक्ति नपुंसकता का शिकार हो सकता है.

आज की भागतीदौड़ती जिंदगी, बढ़ते तनाव, प्रदूषण और कई बुरी आदतों के साथ असमय खानपान व रहनसहन ने स्वास्थ्य की कई परेशानियों व बीमारियों को जन्म दिया है. इन में नपुंसकता भी है. हालांकि, यह कोई नई बीमारी नहीं है लेकिन आज यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि भारत में हर 10वां व्यक्ति यौनक्रिया में अक्षम है. मधुमेह जैसी कुछ बीमारियां भी नपुंसकता पैदा कर सकती हैं. चूंकि मधुमेह से तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है इसलिए अगर व्यक्ति मधुमेह को नियंत्रित नहीं रखता तो उस में 5-10 साल बाद नपुंसकता आ सकती है. लिंग में रक्त बहाव में अंतर आने या लिंग में चोट आ जाने से भी नपुंसकता आ जाती है.

इस के अलावा वीर्य का पतला या गाढ़ा होना निरंतर वीर्य स्खलन पर आधारित होता है और यह देखा जा सकता है कि कितने दिनों के बाद वीर्य स्खलित हुआ है. शीघ्रपतन में वीर्य स्खलन अगर स्त्री के चरमानंद के पूर्व या संभोग से पूर्व ही हो जाता है, तो यह यौन शक्ति की कमी का लक्षण है. जो लोग सहवास के समय अत्यधिक उत्तेजित हो जाते हैं और स्खलन को नियमित नहीं कर पाते हैं, इस समस्या से ग्रसित हो जाते हैं. इस समस्या के मुख्य कारण संभोग के समय अत्यधिक घबराहट, जल्दबाजी में यौन संबंध स्थापित करना है, लेकिन इस का नपुंसकता से कोई ताल्लुक नहीं है.

विभिन्न जांचों द्वारा थायराइड हार्मोन, प्रोलैक्टिन हार्मोन तथा टेस्टोस्टेरोन हार्मोन के स्तर का पता लगाया जाता है. सैक्सोलौजिस्ट सब से पहले यह पता लगाते हैं कि शरीर में किस हार्मोन की कमी है. उस के बाद उस हार्मोन को पूरा करने के लिए मरीज को हार्मोन दिए जाते हैं. मधुमेह के कुछ रोगियों या मानसिक रोगियों पर दवाएं प्रभावित नहीं होती हैं तो ऐसे मरीजों में सर्जरी की मदद से कभीकभी पेनाइल प्रोस्थेटिक डिवाइस के प्रत्यारोपण की सलाह दी जाती है. कुछ दवाएं भी इलाज के लिए सहायक होती हैं.

यह मरीज पर निर्भर करता है कि वह कितना जल्दी अपनेआप को मानसिक तौर पर तैयार कर लेता है. आजकल थोड़ी सी जागरूकता समाज में आई है, लेकिन लोग कई बार नीमहकीम के चक्कर में पड़ जाते हैं और अपनी जिंदगी से काफी हताश हो चुके होते हैं, इलाज करने पर वे ठीक हो जाते हैं. लेकिन रोग जितना पुराना हो जाता  है या मरीज स्वयं को जितना हताश कर लेता है, डाक्टर को रोग ठीक करने में उतनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. जब भी किसी व्यक्ति को नपुंसकता की संभावना लगे, तुरंत किसी सैक्सोलौजिस्ट से उचित सलाह ले लेनी चाहिए.

संसार में धूम मचा देने वाली वियाग्रा को ले कर भी कई विरोधाभास हैं. वियाग्रा के सकारात्मक परिणाम कम नकारात्मक परिणाम ज्यादा आ रहे हैं क्योंकि जिस व्यक्ति की आयु 40 से कम है और नपुंसकता का शिकार है उसी व्यक्ति को वियाग्रा की गोली डाक्टर की सलाह पर लेनी चाहिए. लेकिन आज 60 वर्ष से ऊपर के वृद्ध भी इस दवा को ले रहे हैं, चूंकि 60 वर्ष के बाद अकसर कामवासना क्षीण हो जाती है. ऐसे में अपनी सेहत के साथ जबरदस्ती करने से निश्चित तौर पर इस के दुष्परिणाम ही होंगे.

वैसे भी आजकल बाजार में नपुंसकता को ठीक करने के लिए ढेर सारी दवाएं मिल रही हैं. अगर व्यक्ति की समझ ठीक है तो दवा की कोई जरूरत नहीं है. यदि किसी व्यक्ति को कोई शंका हो तो डाक्टर की सलाह के बाद ही उसे किसी दवा का इस्तेमाल करना चाहिए.

आधुनिक लाइफस्टाइल के कारण?भी युवा पीढ़ी में नपुंसकता की समस्या बढ़ती जा रही है. युवा पीढ़ी में नपुंसकता होने का मूल कारण है सही जानकारी का न होना. मातापिता तथा बच्चों में सही तालमेल की कमी.

आजकल इलैक्ट्रौनिक मीडिया तरहतरह की तसवीरें दिखा कर नवयुवकों को उत्तेजित करता है. जहां तक यौन शिक्षा का प्रश्न है, इसे पाठ्यक्रम में जरूर शामिल करना चाहिए क्योंकि किशोरावस्था में शारीरिक विकास के साथसाथ मानसिक विकास भी होता है. युवाओं में जानकारी प्राप्त करने की जो इच्छा है वह सही रूप से, सही जगह से, सही तरीके से मिले.

आने वाली पीढ़ी को नपुंसकता की भयानक त्रासदी से बचाने के लिए बच्चों को सही जानकारी की शुरुआत मांबाप के द्वारा ही की जानी चाहिए. अगर बच्चा कोई गलत हरकत करता है तो मांबाप को उसे समझाना चाहिए. उसे यौन शिक्षा के बारे में जानकारी देनी चाहिए.

साथ ही स्कूल के अध्यापकों को यौन शिक्षा के बारे में बच्चों को बताना चाहिए. मीडिया अपना जितना समय सैक्स संबंधी प्रचार करने में बरबाद कर रहा है उस की जगह यदि अच्छी सेहत या स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम दिखाए तो लोगों में जागरूकता आ सकती है क्योंकि जनजागृति इस रोग का अहम निदान है.

भांग का नशा है बड़ी सजा

सस्ता होने के चलते भांग का नशा बड़ी तेजी से नशेडि़यों के बीच मशहूर होता जा रहा है. वैसे तो भांग सरकारी ठेके से ही मिलती है, लेकिन बहुत बार लोग खुद ही भांग की पत्तियों को पीस कर, उन के गोले बना कर नशे के तौर पर इस्तेमाल करने लगते हैं.

आमतौर पर लोग सालभर भांग का नशा करते हैं, लेकिन होली के त्योहार में इस का शौकिया इस्तेमाल बहुत ज्यादा बढ़ जाता है. कई बार लोग भांग को मस्ती से जोड़ कर देखते हैं, पर असल में यह नशा मजा नहीं, बल्कि बड़ी सजा होता है.

भांग एक तरह का पौधा होता है, जिस की पत्तियों को पीस कर भांग तैयार की जाती है. भांग खासतौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में प्रचुरता से पाई जाती है.

भांग के पौधे 3-8 फुट ऊंचे होते हैं. इस के नर पौधे के पत्तों को सुखा कर भांग तैयार की जाती है. भांग के मादा पौधों के फूलों को सुखा कर गांजा तैयार किया जाता है. भांग की शाखाओं और पत्तों पर जमी राल के समान पदार्थ को चरस कहते हैं.

भारत में भांग की खेती बहुत समय से की जाती रही है. ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुमाऊं, उत्तराखंड में शासन स्थापित होने से पहले ही भांग के व्यापार को अपने हाथ में ले लिया था. उस ने काशीपुर के नजदीक डिपो की स्थापना कर ली थी. दानपुर, दसौली और गंगोली की कुछ जातियां भांग के पौधे के रेशे से कुथले और कंबल बनाती थीं.

इन्होंने किया भांग का प्रचार

भांग के नशे का मस्ती वाला रंग कई फिल्मों और गानों में भी दिखाई देता है. इस को देख कर लोगों को लगता है कि भांग के नशे में मजा ही मजा होता है. भांग को पीसते, उस में ड्राईफ्रूट्स, दूध मिलाते और इस को ठंडाई के रूप में पीते दिखाया जाता है. इसी तरह कुछ लोग इस को प्रसाद के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं.

असल में भांग का नशा अलग तरह का होता है. यह काफी हद तक शरीर के तंत्र पर मस्तिष्क की पकड़ को खत्म कर देता है. मेवों के साथ भांग को बारीक पीस कर बनाई गई ठंडाई स्वादिष्ठ होती है, जिस की वजह से लोग इस को ज्यादा पी जाते हैं.

नहीं रहता शरीर पर कंट्रोल

भांग का नशा करने वाला नशे के बाद जो भी काम करता है, उसी को बारबार करता रहता है. इस की वजह यह होती है कि भांग के नशे के चलते इनसान के दिमाग का कंट्रोल शरीर पर नहीं रहता है.

भांग के नशे के बाद मुंह और जीभ का स्वाद कड़वा सा हो जाता है. तब कुछ भी खाने पर उस का स्वाद महसूस नहीं होता. सोने पर ऐसा लगता है कि आप बिस्तर से ऊपर उठ कर उड़ते जा रहे हैं.

अगर भांग का ज्यादा नशा किया है, तो 2-3 दिनों तक इस का असर रहता है. कई बार हालत इतनी खतरनाक हो जाती है कि इनसान को अस्पताल तक ले जाना पड़ सकता है.

बना देता है मानसिक रोगी

‘द माइंड स्पेस’ क्लिनिक की साइकोलौजिस्ट डाक्टर अदिति जैन कहती हैं, ‘‘ये वे हालात हैं, जब दिमागी तौर पर शरीर का कंट्रोल खत्म होने लगता है. यह डिप्रैशन को बढ़ाने वाला होता है. इस वजह से ही भांग का नशा करने के बाद लोग या तो लगातार हंसते रहते हैं या फिर रोते रहते हैं.

‘‘भांग के लगातार सेवन से खतरे बढ़ जाते हैं. इस का असर दिमाग पर पड़ता है. यूफोरिया, एंजाइटी, याददाश्त का असंतुलित होना, साइकोमोटर परफौर्मेंस जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं. इस के साथ ही भांग के सेवन से दिमाग पर खराब असर पड़ता है. गर्भवती महिलाओं के भ्रूण पर बुरा असर पड़ता है. इस की वजह से याददाश्त कमजोर होने लगती है. भांग का नशा आंखों और पाचन क्रिया के लिए भी अच्छा नहीं होता है.’’

कुछ लोग भांग की पत्तियों को चिलम में डाल कर धूम्रपान करते हैं, तब यह खून में सीधे प्रवेश करते हुए दिमाग और शरीर के दूसरे भागों में पहुंच जाती है. यह सोचनेसमझने की ताकत को प्रभावित करता है.

भांग के नियमित इस्तेमाल से साइकोटिक एपिसोड या सीजोफ्रेनिया होने का खतरा दोगुना हो सकता है. भूख में कमी, नींद आने में दिक्कत, वजन घटना, चिड़चिड़ापन, आक्रामकता, बेचैनी और गुस्सा बढ़ना जैसे लक्षण शुरू हो जाते हैं.

अगर कोई आदमी 15 दिन तक लगातार भांग का सेवन करे, तो वह आसानी से मानसिक रोगों का शिकार हो सकता है. लिहाजा, इस नशे से बचें.

अगर आप भी कर रही हैं पार्टनर को सेक्स के लिए मना तो जरूर पढ़ें ये खबर

अगर आप की पार्टनर लंबे समय से सेक्स के लिए न कह रही है, तो यह चिंता की बात हो सकती है. यह संभव है कि आप की पार्टनर सेक्स के प्रति रुझान न होने की समस्या से जूझ रही हो. इसे महिला यौन अक्षमता भी कहा जाता है. इस शब्द का उपयोग उस व्यक्ति को परिभाषित करने के लिए किया जाता है, जो अपने साथी को सेक्स के दौरान सहयोग नहीं करता. महिलाओं में एफएसडी यानी फीमेल सैक्सुअल डिसफंक्शन होने के कई कारण हो सकते हैं, जैसे सेक्स के दौरान दर्द या मनोवैज्ञानिक कारण. ऐसे में डाक्टर से सलाह लेना बेहद जरूरी है.

इस समस्या के निम्न मुख्य कारण हैं:

मनोवैज्ञानिक कारण:  पुरुषों के लिए सेक्स एक शारीरिक मुद्दा हो सकता है, लेकिन महिलाओं के लिए यह एक भावनात्मक मुद्दा है. पिछले बुरे अनुभवों के चलते कुछ महिलाएं भावनात्मक रूप से टूट जाती हैं. वर्तमान में बुरे अनुभवों के कारण मनोवैज्ञानिक मुद्दे या फिर अवसाद इस का कारण हो सकता है.

और्गेज्म तक न पहुंच पाना: एफएसडी का दूसरा भाग ऐनौर्गेस्मिया कहलाता है. यह स्थिति तब होती है जब व्यक्ति को या तो कभी और्गेज्म नहीं होता या वह कभी इस तक पहुंच ही नहीं पाता. और्गेज्म तक पहुंचने में असमर्थता भी एक मैडिकल कंडीशन है. सेक्स में रुचि की कमी और और्गेज्म तक पहुंचने में असमर्थता दोनों ही स्थितियां गंभीर हैं.

ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि महिलाएं अधिक फोरप्ले पसंद करती हैं. अगर ऐसा नहीं होता है तो और्गेज्म तक पहुंचना मुश्किल है.

इस का मनोचिकित्सा के माध्यम से इलाज किया जा सकता है. महिलाओं को अपने रिश्ते में सेक्स के साथ समस्याएं होती हैं. यदि आप को भी ऐसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, तो आप को जल्द से जल्द ऐंड्रोलौजिस्ट से मिलना चाहिए ताकि समस्या संबंधों को प्रभावित न करे.

फीमेल सैक्सुअल डिसफंक्शन का इलाज और उपचार: जहां तक एफएसडी इलाज के घरेलू उपचार का सवाल है तो वास्तव में यह बहुत प्रभावी नहीं होता. बाजार में कई तरह की महिला वियाग्रा मौजूद हैं, लेकिन ये आमतौर पर मनचाहे नतीजे नहीं दे पातीं. महिलाएं लेजर के साथ योनि कायाकल्प ट्राई कर सकती हैं. आप चाहें तो प्लेटलेट रिच प्लाज्म (पीआरपी) थेरैपी भी अपना सकती हैं. इस क्षेत्र में ब्लड सर्कुलेशन में सुधार करने के लिए योनि के पास इंजैक्शन दिया जाता है. इसे ओशौट के रूप में जाना जाता है.

यदि आप यौन संबंध का आनंद नहीं ले पा रही हैं तो डाक्टर से मिलें. दोनों भागीदारों के लिए डाक्टर का यौन परामर्श उपयोगी हो सकता है. दिनचर्या बदलने और अलगअलग आसन अपना कर इसे और अधिक आनंदायक बनाया जा सकता है. योनि क्रीम का उपयोग भी किया जा सकता है.

ज्यादातर महिलाएं, विशेष रूप से जब उम्रदराज हो जाती हैं तो उन्हें संभोग से पहले अधिक फोरप्ले की आवश्यकता होती है. ज्यादातर महिलाओं को योनि प्रवेश के साथ संभोग के दौरान ज्यादा आनंद नहीं आता है. उन्हें अपने को संभोग करने में सक्षम बनाने के लिए अपने साथी से अपने यौनांगों को सहलाने के लिए कहना चाहिए. हस्तमैथुन या मौखिक सेक्स यौन गतिविधियां अपनाई जा सकती हैं.

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