Short Story: तितली… रंगबिरंगी

लेखक-  नीरज कुमार मिश्रा

रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मी और पापा के आपसी झगड़ों की कड़वी आवाज़ों से हुई . सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी ,चिकचिक सुनकर उसने चादर सर से ओढ़ ली ,आवाज़ पहले से कम तो हुई पर अब भी कानो से टकरा रही थी .

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गयी थी पास में पड़े मोबाइल को टटोलकर उसमें एयरफोन लगाकर बड्स को कानो में कसकर ठूंस लिया और वॉल्यूम को फुल कर दिया .

अट्ठारह वर्षीय सियाली के लिए ये कोई नयी बात नहीं थी ,उसके माँबाप आये दिन ही झगड़ते रहते थे जिसका सीधा कारण था  उन दोनों के संबंधों में खटास का होना  …..ऐसी खटास जो एक बार जीवन में आ जाये तो आपसी रिश्तों की परिणिति उनका खात्मा ही होती है .

सियाली के माँबाप प्रकाश यादव और निहारिका यादव के संबंधों में ये खटास कोई एक दिन में नहीं आई बल्कि ये तो एक मध्यमवर्गीय परिवार के कामकाजी दम्पत्ति के आपसी सामंजस्य  बिगड़ने के कारण धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी   .

सियाली का पिता अपनी पत्नी के चरित्र पर शक करता था उसका शक करना भी एकदम जायज था क्योंकि निहारिका का अपने आफिसकर्मी के साथ संबंध चल रहा था ,पतिपत्नी के हिंसा और शक समानुपाती थे ,जितना शक गहरा हुआ उतना ही प्रकाश की हिंसा बढ़ती गई और जिसका परिणाम परपुरुष के साथ निहारिका का प्रेम बढ़ता गया .

“जब दोनो साथ नहीं रह सकते तो तलाक क्यों नहीं दे देते … एक दूसरे को ”सियाली बिस्तर से उठते हुए झुंझुलाते हुए बोली

सियाली जब अपने कमरे से बाहर आई तो  दोनो काफी हद तक शांत हो चुके थे, शायद वे किसी निर्णय तक पहुच गए थे.

“तो ठीक है मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूँ …..पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?” प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए कहा

“मैं समझती हूं ….सियाली को तुम मुझसे बेहतर सम्भाल सकते हो” निहारिका ने कहा ,उसकी इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया

“हाँ …तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो ताकि तुम अपने उस ऑफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारो तरफ एक गार्ड बनकर घूमता रहूँ ”

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प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा कि “मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक माँ की ही होती है ?”

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली

“हाँ …वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है ….एकदो दिन मेरे साथ रहेगी तो मुझे भी ऐतराज़ नहीं होगा ”निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था

सियाली कभी माँ की तरफ देख रही थी तो कभी अपनी पिता की तरफ ,उससे कुछ कहते न बना पर इतना समझ गयी थी कि माँबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उसका अस्तित्व एक पेंडुलम से अधिक नहीं है  जो दोनो के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है  .

माँबाप के बीच इस रोज़रोज़ के झगड़े ने एक अजीब से विषाद से भर दिया था सियाली को  और इस विषाद का अंत शायद तलाक जैसी चीज से ही सम्भव था इसलिए सियाली के मन में कहीं न कहीं चैन की सांस ने प्रवेश किया कि चलो आपस की कहा सुनी अब खत्म हुई और अब सबके रास्ते अलगअलग है .

शाम को कॉलेज से लौटी तो घर में एक अलग सी शांति थी ,पापा भी सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे ,चाय जो उन्होंने खुद ही बनाई थी ,उनके चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की वो शिकन गायब थी ,सियाली को देखकर उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश भी करी

“देख ले…. तेरे लिए चाय बची होगी ….ले ले मेरे पास आकर बैठकर पी ”

सियाली पापा के पास आकर बैठी तो पापा ने अपनी सफाई में काफी कुछ कहना शुरू किया. “मैं बुरा आदमी नहीं हूँ पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था उसके कर्म  ही ऐसे थे कि मुझे उसे देखकर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी माँ ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी  ”

पापा की बातें सुनकर सियाली से भी नहीं रहा गया. “मैं नहीं जानती कि आप दोनो में से कौन सही है और कौन गलत पर इतना ज़रूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाये तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है ” दोनो बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुलकर बात करी थी ,पापा की बातों में माँ के प्रति नफरत और द्वेष ही छलक रहा था जिसे चुपचाप सुनती रही थी सियाली .

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर माँ का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना एड्रेस देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को माँ के पास जाने की सूचना भी उसने अपने पापा को दे दी जिस पर पापा को भी कोई ऐतराज नहीं हुआ .

शाम को “शालीमार अपार्टमेंट” में पहुच गई थी सियाली ,पता नहीं क्या सोचकर उसने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था ,फ्लैट नंबर एक सौ ग्यारह में सियाली पहुच गई थी.

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कॉलबेल बजाई ,दरवाज़ा माँ ने  खोला था , अब चौकने की बारी सियाली की थी माँ गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थी ,माँग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर तिलक की शक्ल में लगाई हुई बिंदी ,सियाली को याद नहीं कि उसने माँ को कब इतनी अच्छी तरह से श्रंगार किये हुए देखा था ,हमेशा सादे वेश में ही रहती थी माँ और टोकने पर दलील देती

“अरे हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो है नहीं जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें ….हम पिछड़ी जाति वालों के लिए सिंपल रहना ही अच्छा है ”

तो फिर आज माँ को ये क्या हो गया ?

उनकी सिम्पलीसिटी आज श्रंगार में कैसे परिवर्तित हो गई थी और क्यों वो जाति की दलीलें देकर सही बात को छुपाना चाह रही थी .

सियाली ने बुके माँ को दे दिये ,माँ ने बहुत उत्साह से बुके ले लिए और कोने की मेज पर सज़ा दिए .

“अरे अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से “माँ के पीछे से आवाज़ आई ,आवाज़ की दिशा में नज़र उठाई तो देखा कि सफेद कुर्ता और पाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा था ,सियाली उसे पहचान गई ये माँ का सहकर्मी देशवीर था ,माँ इसे पहले भी घर भी ला चुकी थी .

माँ ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया जिसपर सियाली ने कहा, “जानती हूँ माँ ….पहले भी तुम इनसे मिला चुकी हो मुझे ”

“पर पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे  पर आज मेरे सब कुछ हैं….हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे  ”

मुस्कुराकर रह गयी थी सियाली

सबने एक साथ खाना खाया , डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था ,माँ के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी और ये चमक कृत्रिम या किसी फेशियल की नहीं थी ,उनके मन की खुशी उनके चेहरे पर झलक रही थी .

सियाली रात में माँ के साथ ही सो गई और सुबह वहीँ से कॉलेज के लिए निकल गयी ,चलते समय माँ ने उसे दो हज़ार रुपये देते हुए कहा

“रख ले…घर जाकर पिज़्ज़ा आर्डर कर देना  ”

कल से लेकर आज तक माँ ने सियाली के सामने एक आदर्श माँ होने के कई उदाहरण प्रस्तुत किये थे पर सियाली को ये सब नहीं भा रहा था और न ही उसे समझ में आ रहा था कि ये माँ का कैसा प्यार है जो उसके पिता से अलग होने के बाद और भी अधिक छलक रहा है.

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फिलहाल तो वो अपनी ज़िंदगी खुलकर जीना चाहती थी इसलिए माँ के दिए गए पैसों से सियाली  उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गयी .

“पर सियाली आज तू ये किस खुशी में पार्टी दे रही है ?”महक ने पूछा

“बस यूँ समझो …आज़ादी की ”मुस्कुरा दी थी सियाली.

सच तो ये था कि माँबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलेक्स महसूस कर रही थी ,रोज़रोज़ की टोकाटाकी से अब उसे मुक्ति मिल चुकी थी और सियाली अब अपनी ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी इसीलिए उसने अपने दोस्तों से  अपनी एक इच्छा बताई .

“यार मैं एक डांस ट्रूप (नृत्य मंडली ) जॉइन करना चाहती हूं ताकि मैं अपने जज़्बातों को डांस के द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं ”सियाली ने कहा जिसपर उसके दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए जिनसे वो अपने आपको व्यक्त कर सकती थी जैसे ड्राइंग,सिंगिंग,मिट्टी के बर्तन बनाना पर सियाली तो मज़े और मौजमस्ती के लिए डांस ट्रूप जॉइन करना चाहती थी इसलिए उसे  बाकी के ऑप्शन नहीं अच्छे लगे .

अपने शहर के डांस ट्रूप “गूगल” पर खंगाले तो  “डिवाइन डांसर” नामक एक डांस ट्रूप ठीक लगा जिसमे चार मेंबर लड़के  थे और एक लड़की थी  ,सियाली ने तुरंत ही वह ट्रूप जॉइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रेक्टिस के लिए जाने लगी ,सियाली अपना सारा तनाव अब डांस के द्वारा भूलने लगी और इस नई चीज का मज़ा भी लेने लगी .

डिवाइन डांसर नाम के इस ट्रूप को परफॉर्म करने का मौका भी मिलता तो सियाली भी साथ में जाती और स्टेज पर सभी परफॉर्मेंस देते जिसके  बदले सियाली को भी ठीकठाक पैसे मिलने लगे ,इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था ,वह निरंकुश हो चुकी थी न माँबाप का डर और न ही कोई टोकाटोकी करने वाला ,जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था उसके माँबाप  का तलाक क्या हुआ सियाली तो एक आज़ाद चिड़िया हो गई जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आज़ाद थी .

सियाली का फोन बज उठा था ,ये पापा का फोन था .

“सियाली….कई दिन से घर नहीं आई तुम…क्या बात है?…..हो कहां तुम?”

“पापा मैं ठीक हूँ…..और डांस सीख रही हूँ”

“पर तुमने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो ”

“ज़रूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं …..आप लोग अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं इसलिए मैं भी अब अपने हिसांब से ही जियूंगी”

फोन काट दिया था सियाली ने,पर उसका मन एक अजीब सी खटास से भर गया था .

डांस ट्रूप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी पर पराग नाम के लड़के से उसकी कुछ ज्यादा ही पटने लगी .

पराग स्मार्ट भी था और पैसे वाला भी ,वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और ख़िलातापिलाता ,उसकी संगत में सिहाली को भी सुरक्षा का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रेस्तराँ में गए ,पराग ने अपने लिए एक बियर मंगाई

“तुम तो सॉफ्ट ड्रिंक लोगी सियाली ”पराग ने पूछा

“खुद तो बियर पियोगे और मुझे बच्चों वाली ड्रिंक …..मैं भी बियर पियूंगी ”एक अजीब सी शोखी सियाली के चेहरे पर उतर आई थी .

सियाली की इस अदा पर पराग भी बिना मुस्कुराए न रह सका और उसने एक और बियर आर्डर कर दी .

सियाली ने बियर से शुरुआत जरूर करी थी पर उसका ये शौक धीरेधीरे व्हिस्की तक पहुच गया था .

अगले दिन डांस क्लास में जब दोनो मिले तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया

“सियाली मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ”घुटनो को मोड़कर ज़मीन पर बैठते हुए पराग ने कहा  सभी लड़के लड़कियाँ इस बात पर तालियाँ बजाने लगे.

सियाली ने भी मुस्कुराकर गुलाब पराग के हाथों से ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, “लेकिन मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज़ के बंधन में नहीं बढ़ना चाहती …..शादी एक सामाजिक तरीका है दो लोगों को एक दूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए  जीवन बिताने का पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं ?”सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुनकर डांस ट्रूप के लड़केलड़कियाँ शांत से दिख रहे थे.

सियाली ने रुककर कहना शुरू किया, “मैने अपनी माँबाप को उसके  शादीशुदा जीवन में हमेशा ही लड़ते हुए देखा है जिसकी परिणिति तलाक के रूप में हुई और अब मेरी माँ अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रहीं है और पहले से कहीं अधिक खुश है  ”

पराग ये बात सुनकर तपाक से बोला कि वो भी सियाली के साथ लिवइन में रहने को तैयार है अगर सियाली को मंज़ूर हो तो,पराग की बात सुनकर उसके साथ लिवइन के रिश्ते को झट से स्वीकार कर लिया था सियाली ने.

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और कुछ दिनों बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे ,जहां पर दोनो जी भरकर अपने जीवन का आनंद ले रहे थे ,पराग के पास आय के स्रोत के रूप में एक बड़ा जिम था, जिससे पैसे की कोई समस्या नहीं आई

पराग और सियाली ने अब भी डांस ट्रूप को जॉइन कर रखा था और लगभग हर दूसरे दिन ही दोनो क्लासेज के लिए जाते और जी भरकर नाचते .

इसी डांस ट्रूप में गायत्री नाम की लड़की थी उसने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया

“सियाली ….तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है ….और इतनी जल्दी किसी के साथ …..आई मीन….लिवइन में रहना ….कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हे ?”

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कुराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए फिर सियाली ने अपने आपको संयत करते हुए कहा

“जब मेरे माँबाप ने सिर्फ अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं करी तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूँ……और…गायत्री  ….ज़िन्दगी मस्ती करने के लिए बनी है इसे न किसी रिश्ते में बांधने की ज़रूरत है और न ही रोरोकर गुज़ारने की ….और मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूँ ….और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ…..  उम्र का तो सोचो ही मत ….इनजॉय योर लाइफ यार…”

सियाली ये कहते हुए वहां से चली गयी थी जबकि गायत्री  अवाक सी खड़ी हुई थी .

तितलियाँ कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठी ,वे कभी एक फूल के पराग पर बैठती है तो कभी दूसरे फूल के पराग पर….और तभी तो इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है तितली …रंगबिरंगी तितली ….जीवन से भरपूर तितली.

अपाहिज सोच: क्या जमुना ताई अपनी बेटी की भविष्य के लिए समाज से लड़ पाई

लेखिका- पारुल बंसल
एक ओर हमारा समाज पुराने रीतिरिवाज छोड़ नहीं पा रहा, वहीं दूसरी ओर इस वजह से हमारी सोच भी संकीर्ण  होती रही है. बेटी की पढ़ाई को ले कर हमारा समाज आज भी दोहरी सोच रखता है. क्या जमुना ताई अपनी बेटी कजरी की पढ़ाई को ले कर अपने पति भवानी सिंह और समाज से पंगा ले पाईं? क्या वह अपनी बेटी को ऊंची तालीम दिला पाईं?
मुरगे के बांग देते ही मानो गांवदेहात की अलार्म घड़ी बज जाती है. सभी लोग लोटे के साथ चल पड़ते हैं, खुले में शौच करने, जो उन का जन्मसिद्ध अधिकार है. भारत में न जाने कितने ही शौचालय बन चुके हैं, फिर भी उतने ही बनने अभी बाकी है. अरे, कुछ जगह तो यह आलम है कि उन्हें बंद किवाड़ के पीछे उतरती ही नहीं है. अब इन शौचालयों के बनने से औरतों और लड़कियों को तो जैसे जीवनदान ही मिल गया है. जमुना की तो जान में जान आ गई है, क्योंकि उस की बेटी कजरी अब बड़ी जो हो रही है.
वह नहीं चाहती थी कि जो समस्याएं गांव की कठोर जिंदगी में उस ने भुगती हैं, उन का सामना कजरी भी करे.
एक दिन सुबहसुबह कजरी अपने बिस्तर पर बैठी खूब रोए जा रही थी. उस का बापू भवानी सिंह घर के बाहर चबूतरे पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था. यह उस का खानदानी शौक रहा है और ऐसा शौक हरियाणा के हर गांव के मर्द की फितरत में शामिल है.
यह शौक वहां के मर्दों की शान को बढ़ा देता है. वहां के मर्दों को न तो कभी कोई काम करना होता है, सारा दिन यों ही चौपाल पर आदमी इकट्ठे करना और फालतू की चर्चाएं करना. जैसे देश के सारे बड़े कर्णधार यहीं पैदा हुए हैं. न खेती करना, न गायभैंस की देखभाल करना और न ही खेतखलिहानों को संभालना. बस, सारा दिन मुंह से मुंह जोड़ कर गपें हांकना.

कजरी की आवाज जैसे ही भवानी सिंह के कानों में पड़ी, उतनी ही तेज आवाज में वह जमुना को कोसने लगा, “अरे कहां मर गई… अपने साथ इसे भी ले जाती… यह क्यों मेरे कान पर भनभना रही है…”

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भवानी सिंह की नाराजगी जमुना के लड़का न जन पाने के चलते बनी हुई थी. जमुना के अंदर इन जलीकटी बातों से खून उबाल मार रहा था.
हालांकि ऐसी बातें उस के लिए कोई नया किस्सा नहीं थीं, मानो भवानी सिंह पति की जगह सास का किरदार निभा रहा हो. हमेशा बैठेबैठे मूंछों पर ताव देता रहता और जीभ से जहर उगलता रहता.
जमुना के दिल की सुनें, तो उस के हिसाब से भवानी सिंह उस की जिंदगी में सांप की तरह कुंडली मार बैठा था, जिसे छेड़े बिना ही डसने को तैयार रहता.
जमुना मन मसोस कर और जबान पर ताला डाल कर भवानी सिंह की पुकार की वजह जानने के लिए हाजिर हुई.
“अरे, आज तुम्हारी छोरी क्यों सुबक रही है?” भवानी सिंह ने पूछा.
यह सुन कर जमुना कजरी की ओर लंबेलंबे डग भरते हुए पहुंची.
कजरी एक कोने में खुद में सिमटी हुई सी पड़ी थी. उस ने अपने मुंह को घुटनों में ऐसे छिपा रखा था मानो कोई अपराध किया हो.
“ऐसे में रोते नहीं हैं… यह तो हर जनानी के साथ होता है.”
“पर मां, यह सब… गंदा…”
हांहां, ऐसा ही होता है. जब लड़की बड़ी होती है…”
“मैं समझी नहीं…”
“मतलब यह कि अब तुम सयानी हो गई हो. अब ये सब बातें बाद में, पहले तुम स्नानघर में जा कर नहा लो और यह कपड़ा इस्तेमाल करो.”
“अच्छा मां… पर एक दिन मैं ने चंपा को घासफूस और कुछ सूखे पत्ते इकट्ठे करते हुए देखा था. मैं ने उस से पूछा तो वह बोली थी कि तुझे भी समय आने पर सब पता चल जाएगा.
“बेटी, गरीब लोगों के पास इतना कपड़ा नहीं होता, जो माहवारी के मुश्किल दिनों में इस्तेमाल कर सकें, इसीलिए वे घासफूस, सूखे पत्ते का सहारा ही बहते हुए खून को रोकने के लिए करते हैं और यही बीमारी की वजह बनता है.”
“अरे, दोनों मांबेटी खुसुरफुसुर ही करती रहोगी या मेरे हुक्के में कोई कोयला भी डालेगा?” भवानी सिंह चिल्लाया.
“मेरा बस चले तो कोयला सीधे इन की चिता में ही डालूं. काम के न काज के दुश्मन अनाज के…”
“कहां है कजरी… ऐ छोरी… क्या मेहंदी लगी है?”
“वह आराम करेगी 2 दिन…”
“क्या हुआ…?”
“अरे वही… अब छोरी सयानी हो रही है.”
“अच्छा.”
“कजरी के बापू एक बात कहूं…”
“हां… हां, कहो, क्या कहना चाहती हो?”

“हमारी छोरी बड़ी होशियार है. अब उसे बड़े स्कूल जाना होगा. मास्टर साहब आए थे कल. कह रहे थे कि यह छोरी तुम्हारा नाम रोशन कर सकती है.”

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“भेजे में अक्ल नहीं है तेरे क्या… हमारे घर की छोरियां चूल्हाचौका सीखती हैं, काले अक्षर नहीं… अब बस  कोई अच्छा सा लड़का देख कर इस का ब्याह कर दूंगा,” भवानी सिंह बोला.
इतने में मास्टर साहब वहां आ गए और बोले, “मैं ने कजरी का फार्म मंगा लिया है.”
“अरे मास्टर साहब, आप तो सब जानते हैं, फिर भी… औरतें हमारे पैर की जूती हैं और जूती को कभी सिर पर नहीं रखा जाता. आज हमारा छोरा होता, तो हम उसे पढ़ने विदेश भी भेज देते.”
जमुना का मन अपने पति को जी भर कर गाली देने को हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘इस गांव के किसी मर्द ने कभी एक फली के दो टूक भी किए हैं… सब अपनी जनानियों के कामकाज पर निर्भर हैं. इन की मर्दानगी तो बस धोती में ही है. मूंछें तो इन को मुंड़वा ही देनी चाहिए. मर्द कहलाने के लायक ही नहीं हैं.
‘बेटा न हो पाने का सारा इलजाम मुझ पर मढ़ते रहते हैं. अब इन्हें कौन समझाए कि बेटा या बेटी पैदा होने में औरत और मर्द दोनों ही बराबर के हिस्सेदार होते हैं, पर कुसूर हम जनानियों का ही ठहराया जाता है.’
अपनी बेटी को बाहर पढ़ाने की जिद पूरी कराने को जमुना गांव की कई औरतों को इकट्ठा कर लाई और धरने पर बैठ गई. गांव के प्रधान तक खबर पहुंच गई. आज भवानी सिंह के घर पर पंचायत बैठेगी.
औरतों ने गांव की छोरियों को पाठशाला से बड़े स्कूल भेजने की बात रखी. बड़ा ही वादविवाद हुआ.
प्रधान जमुना से बोले, “यह नई रीति क्यों? हमारे गांव के बस छोरे पढ़े हैं, न कि छोरी.”
जमुना बोली, “यहां के छोरों ने आज तक एक चूहा भी मारा है? अब बारी छोरियों की है. ये अपने करतब दिखाएंगी. आप इन्हें एक मौका दे कर तो देखिए.”
भवानी सिंह को प्रधान की मरजी के साथ अपनी रजामंदी भी देनी पड़ी. अब जमुना दिन दूनी रात चौगुनी काम करने लगी, जिस से पढ़ाई के लिए पैसा इकट्ठा हो सके.
लेकिन भवानी सिंह को हुक्का गुड़गुड़ाने से ही फुरसत न थी. जमुना उस समय 8वीं पास थी. अंगूठाटेक जनानियों के बीच जब वह बैठती, तो वे उसे अध्यापिका का दर्जा देतीं, पर भवानी सिंह को इस की कोई कदर न थी.
इधर कजरी अपने नाम की तरह रूपरंग में सांवलीसलोनी थी, पर कजरी की पढ़ाईलिखाई ने उस के रंगरूप को बहुत पीछे कर दिया था.
कुछ सालों बाद एक गाड़ी भवानी सिंह के गांव में आ कर रुकी, जिस में से एक महिला अफसर उतरी.
यह देख कर भवानी सिंह भौचक्का रह गया कि एक औरत की इतनी इज्जत कैसे…?

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वह कजरी थी और आज जिला अधिकारी के पद पर कार्यरत थी.
यह देख कर भवानी सिंह ने अपनी मूंछों पर ताव दिया और बोला, “यह मेरी छोरी है. इस ने मेरा नाम रोशन कर दिया है…”
लेकिन भवानी सिंह की आंखें जमुना के आगे झुक जाती हैं, जिसे उस ने कभी सही माने में औरत का दर्जा ही नहीं दिया. हमेशा उसे कोल्हू का बैल ही समझा. पर, औरत में समाज को बदलने की ताकत होती जिसे भवानी सिंह जैसे निठल्ले, अनपढ़, जाहिल को समझने में शायद सदियां बीत जाएंगी.

Serial Story- ईद का चांद: भाग 1

उस दिन रमजान की 29वीं तारीख थी. घर में अजीब सी खुशी और चहलपहल छाई हुई थी. लोगों को उम्मीद थी कि शाम को ईद का चांद जरूर आसमान में दिखाई दे जाएगा. 29 तारीख के चांद की रोजेदारों को कुछ ज्यादा ही खुशी होती है क्योंकि एक रोजा कम हो जाता है. समझ में नहीं आता, जब रोजा न रखने से इतनी खुशी होती है तो लोग रोजे रखते ही क्यों हैं? बहरहाल, उस दिन घर का हर आदमी किसी न किसी काम में उलझा हुआ था. उन सब के खिलाफ हिना सुबह ही कुरान की तिलावत कर के पिछले बरामदे की आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई थी, थकीथकी, निढाल सी. उस के दिलदिमाग सुन्न से थे, न उन में कोई सोच थी, न ही भावना. वह खालीखाली नजरों से शून्य में ताके जा रही थी.

तभी ‘भाभी, भाभी’ पुकारती और उसे ढूंढ़ती हुई उस की ननद नगमा आ पहुंची, ‘‘तौबा भाभी, आप यहां हैं. मैं आप को पूरे घर में तलाश कर आई.’’ ‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ हिना ने उदास सी आवाज में पूछा.

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‘‘खास बात,’’ नगमा को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या कह रही हैं आप? कल ईद है. कितने काम पड़े हैं. पूरे घर को सजानासंवारना है. फिर बाजार भी तो जाना है खरीदारी के लिए.’’ ‘‘नगमा, तुम्हें जो भी करना है नौकरों की मदद से कर लो और अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी के लिए बाजार चली जाना. मुझे यों ही तनहा मेरे हाल पर छोड़ दो, मेरी बहना.’’

‘‘भाभी?’’ नगमा रूठ सी गई. ‘‘तुम मेरी प्यारी ननद हो न,’’ हिना ने उसे फुसलाने की कोशिश की.

‘‘जाइए, हम आप से नहीं बोलते,’’ नगमा रूठ कर चली गई. हिना सोचने लगी, ‘ईद की कैसी खुशी है नगमा को. कितना जोश है उस में.’

7 साल पहले वह भी तो कुछ ऐसी ही खुशियां मनाया करती थी. तब उस की शादी नहीं हुई थी. ईद पर वह अपनी दोनों शादीशुदा बहनों को बहुत आग्रह से मायके आने को लिखती थी. दोनों बहनोई अपनी लाड़ली साली को नाराज नहीं करना चाहते थे. ईद पर वे सपरिवार जरूर आ जाते थे. हिना के भाईजान भी ईद की छुट्टी पर घर आ जाते थे. घर में एक हंगामा, एक चहलपहल रहती थी. ईद से पहले ही ईद की खुशियां मिल जाती थीं.

हिना यों तो सभी त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाती थी मगर ईद की तो बात ही कुछ और होती थी. रमजान की विदाई वाले आखिरी जुम्मे से ही वह अपनी छोटी बहन हुमा के साथ मिल कर घर को संवारना शुरू कर देती थी. फरनीचर की व्यवस्था बदलती. हिना के हाथ लगते ही सबकुछ बदलाबदला और निखरानिखरा सा लगता. ड्राइंगरूम जैसे फिर से सजीव हो उठता. हिना की कोशिश होती कि ईद के रोज घर का ड्राइंगरूम अंगरेजी ढंग से सजा न हो कर, बिलकुल इसलामी अंदाज में संवरा हुआ हो. कमरे से सोफे वगैरह निकाल कर अलगअलग कोने में गद्दे लगाए जाते. उस पर रंगबिरंगे कुशनों की जगह हरेहरे मसनद रखती. एक तरफ छोटी तिपाई पर चांदी के गुलदान और इत्रदान सजाती. खिड़की के भारीभरकम परदे हटा कर नर्मनर्म रेशमी परदे डालती. अपने हाथों से तैयार किया हुआ बड़ा सा बेंत का फानूस छत से लटकाती.

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अम्मी के दहेज के सामान से पीतल का पीकदान निकाला जाता. दूसरी तरफ की छोटी तिपाई पर चांदी की ट्रे में चांदी के वर्क में लिपटे पान के बीड़े और सूखे मेवे रखे जाते.

हिना यों तो अपने कपड़ों के मामले में सादगीपसंद थी, मगर ईद के दिन अपनी पसंद और मिजाज के खिलाफ वह खूब चटकीले रंग के कपड़े पहनती. वह अम्मी के जिद करने पर इस मौके पर जेवर वगैरह भी पहन लेती. इस तरह ईद के दिन हिना बिलकुल नईनवेली दुलहन सी लगती. दोनों बहनोई उसे छेड़ने के लिए उसे ‘छोटी दुलहन, छोटी दुलहन’ कह कर संबोधित करते. वह उन्हें झूठमूठ मारने के लिए दौड़ती और वे किसी शैतान बच्चे की तरह डरेडरे उस से बचते फिरते. पूरा घर हंसी की कलियों और कहकहों के फूलों से गुलजार बन जाता. कितना रंगीन और खुशगवार माहौल होता ईद के दिन उस घर का. ऐसी ही खुशियों से खिलखिलाती एक ईद के दिन करीम साहब ने अपने दोस्त रशीद की चुलबुली और ठठाती बेटी हिना को देखा तो बस, देखते ही रह गए. उन्हें लगा कि उस नवेली कली को तो उन के आंगन में खिलना चाहिए, महकना चाहिए.

आज का इंसान: भाग 1

‘‘किसी के भी चरित्र के बारे में सहीसही अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल काम है. चेहरे पर एक और चेहरा लगाए आजकल हर इंसान बहुरूपिया नजर आता है. अंदर कुछ बाहर कुछ. इंसान को पहचान पाना आसान नहीं है.’’

विजय के इन शब्दों पर मैं हैरान रह गया था. विजय को इंसान की पहचान नहीं हो पा रही यही वाक्य मैं समझ नहीं पाया था. विजय तो कहता था कि चाल देख कर मैं इंसान का चरित्र पहचान सकता हूं. सिर्फ 10 मिनट किसी से बात करूं तो सामने वाले का आरपार सब समझ लूं. नजर देख कर किसी की नियत भांप जाने वाला इंसान यह कैसे कहने लगा कि उस से इंसान की पहचान नहीं हो पा रही.

मुझे तो यह सुन कर अच्छा नहीं लगा था कि हमारा पारखी हार मान कर बैठने वाला है वरना कहीं नई जगह जाते. नया रिश्ता बनता या नए संबंध बनाने होते तो हम विजय को साथ ले जाते थे. इंसान की बड़ी परख जो है विजय को और वास्तव में इंसान वैसा ही निकलता भी था जैसा विजय बताता था.

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‘‘आज का इंसान बहुत बड़ा अभिनेता होता जा रहा है, हर पल अभिनय करना ही जिस का चरित्र हो उस का वास्तविक रूप नजर आएगा भी कैसे. अपने सहज रूप में कोई है कहां. एक ही व्यक्ति तुम से मिलेगा तो राम लगेगा, मुझ से मिलेगा तो श्याम बन कर मिलेगा. मतलब होगा तो तुम्हारे पैरों के नीचे बिछ जाएगा, मतलब निकल जाएगा तो तुम्हारे पास से यों निकल जाएगा जैसे जानता ही नहीं. एक ही इंसान के चरित्र के इतने ज्यादा पहलू तो कैसे पहचाने कोई, और कैसे अपने दायित्व का निर्वाह करे कोई?’’

‘‘क्या हुआ? किसी ने कुछ चालाकी की है क्या तुम्हारे साथ?’’

‘‘मुझ से चालाकी कर के कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा. भविष्य के लिए उस ने अपना ही रास्ता बंद कर लिया है. सवाल चालाकी का नहीं बल्कि यह है कि दूसरी बार जरूरत पड़ेगी तो मेरे पास किस मुंह से आएगा जबकि मेरे जैसा इंसान अपनी जेब से पैसे खर्च कर के भी सामने वाले की मदद करने को तैयार रहता है. बदले में मैं किसी से क्या चाहता हूं…कोई प्यार से बात कर ले या नजर आने पर हाथ भर हिला दे बस. क्या मुसकरा भर देना भी बहुत महंगा होता है जो किसी का हाथ ही तंग पड़ जाए?’’

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘सुनयना की. मेरे साथ आफिस में है. 4-5 महीने पहले ही दिल्ली से ट्रांसफर हो कर आई थी. उस का घर भी मेरे घर के पास ही है. नयानया घर बसा है यही सोच कर हम पतिपत्नी देखभाल करते रहे. उस का पति भी जब मिलता बड़े प्यार से मिलता. एक सुबह आया और कहने लगा कि उस की मां बीमार है इसलिए उसे कुछ दिन छुट्टी ले कर घर जाना पड़ेगा, पीछे से सुनयना अकेली होगी, हम जरा खयाल रखें. हम ने कहा कोई बात नहीं. अकेली जान है हम ही खिलापिला दिया करेंगे.

‘‘मेरी श्रीमती ने तो उसे बच्ची ही मान लिया. 10-15 दिन बीते तो पता चला सुनयना का पांव भारी है. श्रीमती लेडी डाक्टर के पास भी ले गईं. हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई. नाश्ते का सामान भी हमारे ही घर से जाने लगा. अकेली लड़की कहीं भूखी ही न सो जाए… रात को रोटी भी हम ही खिलाते. महीना भर बीत गया, उस का पति वापस नहीं आया.

‘‘ ‘अब इस के पति को आ जाना चाहिए. उधर मां बीमार है इधर पत्नी भी अस्वस्थ रहने लगी है. इन्हें चाहिए पूरा परिवार एकसाथ रहे. ऐसी कौन सी कंपनी है जो 2-2 महीने की छुट्टी देती है…क्या इस के पति को नौकरी नहीं करनी है जो अपनी मां के पास ही जा कर बैठ गया है.’

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‘‘मेरी पत्नी ने जरा सा संशय जताया. पत्नी के मां बनने की खबर पर भी जो इंसान उसे देखने तक नहीं आया वह कैसा इंसान है? इस परदेस में उस ने इसे हमारे सहारे अकेले छोड़ रखा है यही सोच कर मैं भी कभीकभी पूछ लिया करता, ‘सुनयना, गिरीश का फोन तो आता रहता है न. भई, एक बार आ कर तुम से मिल तो जाता. उसे जरा भी तुम्हारी चिंता नहीं है… और उस की नौकरी का क्या हुआ?’

‘‘2 महीने बीततेबीतते लेडी डाक्टर ने अल्ट्रासाउंड कर बच्चे की जांच करने को कहा. श्रीमती 3-4 घंटे उस के साथ बंधी रहीं. पता चला बच्चा ठीक से बढ़ नहीं रहा. 10 दिन बाद दोबारा देखेंगे तब तक उस का बोरियाबिस्तर सब हमारे घर आ गया. सुनयना का रोनाधोना चालू हुआ जिस पर उस के पति पर हमें और भी क्रोध आता. क्या उसे अपनी पत्नी की चिंता ही नहीं. मैं सुनयना से उस के पति का फोन नंबर मांगता तो वह कहती, उस की घरेलू समस्या है, हमें बीच में नहीं पड़ना चाहिए. वास्तव में सुनयना के सासससुर यहां आ कर उन के साथ रहना ही नहीं चाहते जिस वजह से बेटा पत्नी को छोड़ उन की सेवा में व्यस्त है.

Women’s Day Special- नए मोड़ पर: निवेदिता ने कैसे किया ससुराल का कायापलट

कुमुदिनी चौकाबरतन निबटा कर बरामदे में खड़ी आंचल से हाथ पोंछ ही रही थी कि अपने बड़े भाई कपूरचंद को आंगन में प्रवेश करते देख वहीं ठगी सी खड़ी रह गई. अर्चना स्कूल गई हुई थी और अतुल प्रैस नौकरी पर गया हुआ था.

कपूरचंद ने बरामदे में पड़ी खाट पर बैठते हुए कहा, ‘‘अतुल के लिए लड़की देख आया हूं. लाखों में एक है. सीधासच्चा परिवार है. पिता अध्यापक हैं. इटावा के रहने वाले हैं. वहीं उन का अपना मकान है. दहेज तो ज्यादा नहीं मिलेगा, पर लड़की, बस यों समझ लो चांद का टुकड़ा है. शक्लसूरत में ही नहीं, पढ़ाई में भी फर्स्ट क्लास है. अंगरेजी में एमए पास है. तू बहुत दिनों से कह रही थी न कि अतुल की शादी करा दो. बस, अब चारपाई पर बैठीबैठी हुक्म चलाया करना.’’

कुमुदिनी ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ा. 6 साल हो गए उसे विधवा हुए. 45 साल की उम्र में ही वह 60 साल की बुढि़या दिखाई पड़ने लगी. कौन जानता था कि कमलकांत अकस्मात यों चल बसेंगे. वे एक प्रैस में प्रूफरीडर थे.

10 हजार रुपए पगार मिलती थी. मकान अपना होने के कारण घर का खर्च किसी तरह चल जाता था.

अतुल पढ़ाई में शुरू से ही होशियार न था. 12वीं क्लास में 2 बार फेल हो चुका था. पिता की मृत्यु के समय वह 18 वर्ष का था. प्रैस के प्रबंधकों ने दया कर के अतुल को 8 हजार रुपए वेतन पर क्लर्क की नौकरी दे दी.

पिछले 3 सालों से कुमुदिनी चाह रही थी कि कहीं अतुल का रिश्ता तय हो जाए. घर का कामकाज उस से ढंग से संभलता नहीं था. कहीं बातचीत चलती भी तो रिश्तेदार अड़ंगा डाल देते या पासपड़ोसी रहीसही कसर पूरी कर देते. कमलकांत की मृत्यु के बाद रिश्तेदारों का आनाजाना बहुत कम हो गया था.

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कुमुदिनी के बड़े भाई कपूरचंद साल में एकाध बार आ कर उस का कुशलक्षेम पूछ जाते. पिछली बार जब वे आए तो कुमुदिनी ने रोंआसे गले से कहा था, ‘अतुल की शादी में इतनी देर हो रही है तो अर्चना को तो शायद कुंआरी ही बिठाए रखना पड़ेगा.’

कपूरचंद ने तभी से गांठ बांध ली थी. जहां भी जाते, ध्यान रखते. इटावा में मास्टर रामप्रकाश ने जब दहेज के अभाव में अपनी कन्या के लिए वर न मिल पाने की बात कही तो कपूरचंद ने अतुल की बात छेड़ दी. छेड़ क्या दी, अपनी ओर से वे लगभग तय ही कर आए थे.

कुमुदिनी बोली, ‘‘भाई, दहेज की तो कोई बात नहीं. अतुल के पिता तो दहेज के सदा खिलाफ थे, पर अपना अतुल तो कुल मैट्रिक पास है.’’

कपूरचंद ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया था, पर अब अपनी बात रखते हुए बोले, ‘‘पढ़ाई का क्या है? नौकरी आजकल किसे मिलती है? अच्छेअच्छे डबल एमए जूते चटकाते फिरते हैं, फिर शक्लसूरत में हमारा अतुल कौन सा बेपढ़ा लगता है?’’

रविवार को कुमुदिनी कपूरचंद के साथ अतुल और अर्चना को ले कर लड़की देखने इटावा पहुंची. लड़की वास्तव में हीरा थी. कुमुदिनी की तो उस पर नजर ही नहीं ठहरती थी. बड़ीबड़ी आंखें, लंबे बाल, गोरा रंग, छरहरा शरीर, सरल स्वभाव और मृदुभाषी.

जलपान और इधरउधर की बातों के बाद लड़की वाले अतुल के परिवार वालों को आपस में सलाहमशवरे का मौका देने के लिए एकएक कर के खिसक गए. अतुल घर से सोच कर चला था कि लड़की में कोई न कोई कमी निकाल कर मना कर दूंगा. एमए पास लड़की से विवाह करने में वह हिचकिचा रहा था, पर निवेदिता को देख कर तो उसे स्वयं से ईर्ष्या होने लगी.

अर्चना का मन कर रहा था कि चट मंगनी पट ब्याह करा के भाभी को अभी अपने साथ आगरा लेती चले. कुमुदिनी को भी कहीं कोई कसर दिखाई नहीं दी, पर वह सोच रही थी कि यह लड़की घर के कामकाज में उस का हाथ क्या बंटा पाएगी?

कपूरचंद ने जब प्रश्नवाचक दृष्टि से कुमुदिनी की ओर देखा तो वह सहज होती हुई बोली, ‘‘भाई, इन लोगों से भी तो पूछ लो कि उन्हें लड़का भी पसंद है या नहीं. अतुल की पढ़ाई के बारे में भी बता दो. बाद में कोई यह न कहे कि हमें धोखे में रखा.’’

कपूरचंद उठ कर भीतर गए. वहां लड़के के संबंध में ही बात हो रही थी. लड़का सब को पसंद था. निवेदिता की भी मौन स्वीकृति थी. कपूरचंद ने जब अतुल की पढ़ाई का उल्लेख किया तो रामप्रकाश के मुख से एकदम निकला, ‘‘ऐसा लगता तो नहीं है.’’ फिर अपना निर्णय देते हुए बोले, ‘‘मेरे कितने ही एमए पास विद्यार्थी कईकई साल से बेकार हैं. चपरासी तक की नौकरी के लिए अप्लाई कर चुके हैं पर अधिक पढ़ेलिखे होने के कारण वहां से भी कोई इंटरव्यू के लिए नहीं बुलाता.’’

निवेदिता की मां को भी कोई आपत्ति नहीं थी. हां, निवेदिता के मुख पर पलभर को शिकन अवश्य आई, पर फिर तत्काल ही वह बोल उठी, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो, मां.’’

शायद उसे अपने परिवार की सीमाएं ज्ञात थीं और वह हल होती हुई समस्या को फिर से मुश्किल पहेली नहीं बनाना चाहती थी.

कपूरचंद के साथ रामप्रकाश भी बाहर आ गए. समधिन से बोले, ‘‘आप ने क्या फैसला किया?’’

कुमुदिनी बोली, ‘‘लड़की तो आप की हीरा है पर उस के योग्य राजमुकुट तो हमारे पास है नहीं.’’

रामप्रकाश गदगद होते हुए बोले, ‘‘गुदड़ी में ही लाल सुरक्षित रहता है.’’

कुमुदिनी ने बाजार से मिठाई और नारियल मंगा कर निवेदिता की गोद भर दी. अपनी उंगली में से एक नई अंगूठी निकाल कर निवेदिता की उंगली में पहना दी. रिश्ता पक्का हो गया.

3 महीने के बाद उन का विवाह हो गया. मास्टरजी ने बरातियों की खातिरदारी बहुत अच्छी की थी. निवेदिता को भी उन्होंने गृहस्थी की सभी आवश्यक वस्तुएं दी थीं.

शादी के बाद निवेदिता एक सप्ताह ससुराल में रही. बड़े आनंद में समय बीता. सब ने उसे हाथोंहाथ लिया. जो देखता, प्रभावित हो जाता. अपनी इतनी प्रशंसा निवेदिता ने पूरे जीवन में नहीं सुनी थी पर एक ही बात उसे अखरी थी- अतुल का उस के सम्मुख निरीह बने रहना, हर बात में संकोच करना और सकुचाना. अधिकारपूर्वक वह कुछ कहता ही नहीं था. समर्पण की बेला में उस ने ही जैसे स्वयं को लुटा दिया था. अतुल तो हर बात में आज्ञा की प्रतीक्षा करता रहता था.

पत्नी से कम पढ़ा होने से अतुल में इन दिनों एक हीनभावना घर कर गई थी. हर बात में उसे लगता कि कहीं यह उस का गंवारपन न समझा जाए. वह बहुत कम बोलता और खोयाखोया रहता.

1 महीने बाद जब निवेदिता दोबारा ससुराल आई तो विवाह की धूमधाम समाप्त हो चुकी थी.

इस बीच तमाशा देखने के शौकीन कुमुदिनी और अतुल के कानों में सैकड़ों तरह की बातें फूंक चुके थे.

कुमुदिनी से किसी ने कहा, ‘‘बहू की सुंदरता को चाटोगी क्या? पढ़ीलिखी तो है पर फली भी नहीं फोड़ने की.’’

कोई बोला, ‘‘कल ही पति को ले कर अलग हो जाएगी. वह क्या तेरी चाकरी करेगी?’’

किसी ने कहा, ‘‘पढ़ीलिखी लड़कियां घर के काम से मतलब नहीं रखतीं. इन से तो बस फैशन और सिनेमा की बातें करा लो. तुम मांबेटी खटा करना.’’

किसी ने टिप्पणी की, ‘‘तुम तो बस रूप पर रीझ गईं. नकदी के नाम क्या मिला? ठेंगा. कल को तुम्हें भी तो अर्चना के हाथ पीले करने हैं.’’

किसी ने कहा, ‘‘अतुल को समझा देना. तनख्वाह तुम्हारे ही हाथ पर ला कर रखे.’’

किसी ने सलाह दी, ‘‘बहू को शुरू से ही रोब में रखना. हमारीतुम्हारी जैसी बहुएं अब नहीं आती हैं, खेलीखाई होती हैं.’’

गरज यह कि जितने मुंह उतनी ही बातें, पड़ोसिनों और सहेलियों ने न जाने कहांकहां के झूठेसच्चे किस्से सुना कर कुमुदिनी को जैसे महाभारत के लिए तैयार कर दिया. वह भी सोचने लगी, ‘इतनी पढ़ीलिखी लड़की नहीं लेनी चाहिए थी.’

उधर अतुल कुछ तो स्वयं हीनभावना से ग्रस्त था, कुछ साथियों ने फिकरे कसकस कर परेशान कर दिया. कोई कहता, ‘‘मियां, तुम्हें तो हिज्जे करकर के बोलना पड़ता होगा.’’

कोई कहता, ‘‘भाई, सूरत ही सूरत है या सीरत भी है?’’

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कोई कहता, ‘‘अजी, शर्महया तो सब कालेज की पढ़ाई में विदा हो जाती है. वह तो अतुल को भी चौराहे पर बेच आएगी.’’

दूसरा कंधे पर हाथ रख कर धीरे से कान में फुसफुसाया, ‘‘यार, हाथ भी रखने देती है कि नहीं.’’

निवेदिता जब दोबारा ससुराल आई तो मांबेटे किसी अप्रत्याशित घटना की कल्पना कर रहे थे. रहरह कर नों का कलेजा धड़क जाता था और वे अपने निर्णय पर सकपका जाते थे.

वास्तव में हुआ भी अप्रत्याशित ही. हाथों की मेहंदी छूटी नहीं थी कि निवेदिता कमर कस कर घर के कामों में जुट गई. झाड़ू लगाना और बरतन मांजने जैसे काम उस ने अपने मायके में कभी नहीं किए थे पर यहां वह बिना संकोच के सभी काम करती थी.

महल्ले वालों ने पैंतरा बदला. अब उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘गौने वाली बहू से ही चौकाबरतन, झाड़ूबुहारू शुरू करा दी है. 4 दिन तो बेचारी को चैन से बैठने दिया होता.’’

सास ने काम का बंटवारा कर लेने पर जोर दिया, पर निवेदिता नहीं मानी. उसे घर की आर्थिक परिस्थिति का भी पूरा ध्यान था, इसीलिए जब कुमुदिनी एक दिन घर का काम करने के लिए किसी नौकरानी को पकड़ लाई तो निवेदिता इस शर्त पर उसे रखने को तैयार हुई कि अर्चना की ट्यूशन की छुट्टी कर दी जाए. वह उसे स्वयं पढ़ाएगी.

अर्चना हाईस्कूल की परीक्षा दे रही थी. छमाही परीक्षा में वह अंगरेजी और संस्कृत में फेल थी. सो, अतुल ने उसे घर में पढ़ाने के लिए एक सस्ता सा मास्टर रख दिया था. मास्टर केवल बीए पास था और पढ़ाते समय उस की कई गलतियां खुद निवेदिता ने महसूस की थीं. 800 रुपए का ट्यूशन छुड़ा कर नौकरानी को 500 रुपए देना महंगा सौदा भी नहीं था.

निवेदिता के पढ़ाने का तरीका इतना अच्छा था कि अर्चना भी खुश थी. एक महीने में ही अर्चना की गिनती क्लास की अच्छी लड़कियों में होने लगी. जब सहेलियों ने उस की सफलता का रहस्य पूछा तो उस ने भाभी की भूरिभूरि प्रशंसा की.

थोड़े ही दिनों में महल्ले की कई लड़कियों ने निवेदिता से ट्यूशन पढ़ना शुरू कर दिया. कुमुदिनी को पहले तो कुछ संकोच हुआ पर बढ़ती हुई महंगाई में घर आती लक्ष्मी लौटाने को मन नहीं हुआ. सोचा बहू का हाथखर्च ही निकल आएगा. अतुल की बंधीबंधाई तनख्वाह में कहां तक काम चलता?

गरमी की छुट्टियों में ट्यूशन बंद हो गए. इन दिनों अतुल अपनी छुट्टी के बाद प्रैस में 2 घंटे हिंदी के प्रूफ देखा करता था. एक रात निवेदिता ने उस से कहा कि वह प्रूफ घर ले आया करे और सुबह जाते समय ले जाया करे. कोई जरूरी काम हो तो रात को घूमते हुए जा कर वहां दे आए. अतुल पहले तो केवल हिंदी के ही प्रूफ देखता था, अब वह निवेदिता के कारण अंगरेजी के प्रूफ भी लाने लगा.

निवेदिता की प्रूफरीडिंग इतनी अच्छी थी कि कुछ ही दिनों स्थिति यहां तक आ पहुंची कि प्रैस का चपरासी दिन या रात, किसी भी समय प्रूफ देने आ जाता था. अब पर्याप्त आय होने लगी.

अर्चना हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी में पास हुई तो सारे स्कूल में धूम मच गई. स्कूल में जब यह रहस्य प्रकट हुआ कि इस का सारा श्रेय उस की भाभी को है तो प्रधानाध्यिपिका ने अगले ही दिन निवेदिता को बुलावा भेजा. एक अध्यापिका का स्थान रिक्त था. प्रधानाध्यिपिका ने निवेदिता को सलाह दी कि वह उस पद के लिए प्रार्थनापत्र भेज दे. 15 दिनों के बाद उस पद पर निवेदिता की नियुक्ति हो गई. निवेदिता जब नियुक्तिपत्र ले कर घर पहुंची तो उस की आंखों में प्रसन्नता के आंसू छलक आए.

निवेदिता अब दिन में स्कूल की नौकरी करती और रात को प्रूफ पढ़ती. घर की आर्थिक दशा सुधर रही थी, पर अतुल स्वयं को अब भी बौना महसूस करता था. प्यार के नाम पर निवेदिता उस की श्रद्धा ही प्राप्त कर रही थी.

एक रात जब अतुल हिंदी के प्रूफ पढ़ रहा था तो निवेदिता ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘सुनो.’’ अतुल का हृदय धकधक करने लगा.

‘‘अब आप यह प्रूफ संशोधन छोड़ दें. पैसे की तंगी तो अब है नहीं.’’

अतुल ने सोचा, ‘गए काम से.’ उस के हृदय में उथलपुथल मच गई. संयत हो कर बोला, ‘‘पर अब तो आदत बन गई है. बिना पढ़े रात को नींद नहीं आती.’’

निवेदिता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘वही तो कह रही हूं. अर्चना की इंटर की पढ़ाई के लिए सारी किताबें खरीदी जा चुकी हैं, आप प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में इंटर का फौर्म भर दें.’’

अतुल का चेहरा अनायास लाल हो गया. उस ने असमर्थता जताते हुए कहा, ‘‘इतने साल पढ़ाई छोड़े हो गए हैं. अब पढ़ने में कहां मन लगेगा?’’

निवेदिता ने उस के निकट खिसक कर कहा, ‘‘पढ़ते तो आप अब भी हैं. 2 घंटे प्रूफ की जगह पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ लेने से बेड़ा पार हो जाएगा. कठिन कुछ नहीं है.’’

अतुल 3-4 दिनों तक परेशान रहा. फिर उस ने फौर्म भर ही दिया. पहले तो पढ़ने में मन नहीं लगा, पर निवेदिता प्रत्येक विषय को इतना सरल बना देती कि अतुल का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

साथी ताना देते. कोईकोई उस से कहता कि वह तो पूरी तरह जोरू का गुलाम हो गया है. यही दिन तो मौजमस्ती के हैं पर अतुल सुनीअनसुनी कर देता.

इंटर द्वितीय श्रेणी में पास कर लेने के बाद तो उस ने स्वयं ही कालेज की संध्या कक्षाओं में बीए में प्रवेश ले लिया. बीए में उस की प्रथम श्रेणी केवल 5 नंबरों से रह गई.

कुमुदिनी की समझ में नहीं आता था कि बहू ने सारे घर पर जाने क्या जादू कर दिया है. अतुल के पिता हार गए पर यह पढ़ने में सदा फिसड्डी रहा. अब इस की अक्ल वाली दाढ़ निकली है.

बीए के बाद अतुल ने एमए (हिंदी) में प्रवेश लिया. इस प्रकार अब तक पढ़ाई में निवेदिता से जो सहायता मिल जाती थी, उस से वह वंचित हो गया. पर अब तक उस में पर्याप्त आत्मविश्वास जाग चुका था. वह पढ़ने की तकनीक जान गया था. निवेदिता भी यही चाहती थी कि वह हिंदी में एमए करे अन्यथा उस की हीनता की भावना दूर नहीं होगी. अपने बूते पर एमए करने पर उस का स्वयं में विश्वास बढ़ेगा. वह स्वयं को कम महसूस नहीं करेगा.

वही हुआ. समाचारपत्र में अपना एमए का परिणाम देख कर अतुल भागाभागा घर आया तो मां आराम कर रही थी. अर्चना किसी सहेली के घर गई हुई थी. छुट्टी का दिन था, निवेदिता घर की सफाई कर रही थी. अतुल ने समाचारपत्र उस की ओर फेंकते हुए कहा, ‘‘प्रथम श्रेणी, द्वितीय स्थान.’’

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और इस से पहले कि निवेदिता समाचारपत्र उठा कर परीक्षाफल देखती, अतुल ने आगे बढ़ कर उसे दोनों हाथों में उठा लिया और खुशी से कमरे में नाचने लगा.

उस की हीनता की गं्रथि चरमरा कर टूट चुकी थी. आज वह स्वयं को किसी से कम महसूस नहीं कर रहा था. विश्वविद्यालय में उस ने दूसरा स्थान प्राप्त किया है, यह गर्व उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था.

निवेदिता का चेहरा पहले प्रसन्नता से खिला, फिर लज्जा से लाल हो गया. आज पहली बार, बिना मांगे, उसे पति का संपूर्ण प्यार प्राप्त हुआ था. इस अधिकार की वह कितने दिनों से कामना कर रही थी, विवाह के दिन से ही. अपनी इस उपलब्धि पर उस की आंखों में खुशी का सागर उमड़ पड़ा.

Valentine’s Special- प्यार या संस्कार: अदिति की जिंदगी में प्यार का बवंडर

अदिति ने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद बेंगलुरु महानगर के एक नामीगिरमी कालेज में मैनेजमैंट कोर्स में ऐडमिशन लिया तो मानो उस के सपनों को पंख लग गए. उस के जीवन की सोच से ले कर संस्कार तथा सपनों से ले कर लाइफस्टाइल सभी तेजी से बदल गए. अदिति के जीवन में कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा, लेकिन अचानक उस के जीवन में उस के ही कालेज के एक छात्र प्रतीक की दस्तक के कारण जो मोड़ आया वह उस पहले प्यार के बवंडर से खुद को सुरक्षित नहीं रख पाई. अदिति बहुत जल्दी प्रतीक के प्यार के मोहपाश में इस तरह जकड़ गई मानो वह पहले कभी उस से अलग और अनजान नहीं थी.

जवानी की दहलीज पर पहले प्यार की अनूठी कशिश में अदिति अपने जीवन के बीते दिनों तथा परिवार की चाहतों को पूरी तरह से विस्मृत कर चुकी थी. प्रतीक के प्यार में सुधबुध खो बैठी अदिति अपने सब से खूबसूरत ख्वाब के जिस रास्ते पर चल पड़ी वहां से पीछे मुड़ने का कोईर् रास्ता न तो उसे सूझा और न ही वह उस के लिए तैयार थी.

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गरमी की छुट्टी में जब अदिति अपने घर वापस आई तो उस के बदले हावभाव देख कर उस की अनुभवी मां को बेटी के बहके पांवों की चाल समझते देर नहीं लगी. जल्दी ही छिपे प्यार की कहानी किसी आईने की तरह बिलकुल साफ हो गई और मां को पहली बार अपनी गुडि़या सरीखी मासूम बेटी अचानक ही बहुत बड़ी लगने लगी.

अदिति ने अपनी मां से प्रतीक से शादी के लिए शुरू में तो काफी विनती की, लेकिन मां के इनकार को देखते हुए वह जिद पर अड़ गई. अदिति के पिता तो उसी वक्त गुजर गए थे जब अदिति ठीक से चलना भी नहीं सीख पाई थी. मां और बेटी के अलावा उस छोटे से संसार में प्रतीक के प्रवेश की तैयारी के लिए एक बड़ा द्वंद्व और दुविधा का जो माहौल तैयार हो गया था वह सब के लिए दुखदायी था, जिस की मद्घिम लौ में मां को अपनी बेटी के चिरपोषित सपनों की दुनिया जल जाने का मंजर साफ नजर आ रहा था.

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो? मैं प्रतीक से सच्चा प्यार करती हूं. वह ऐसावैसा लड़का नहीं है. वह अच्छे घर से है और निहायत शरीफ है. क्या बुरा है, यदि मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’’ अदिति ने बड़े साफ लहजे में अपनी मां को अपने विचारों से अवगत कराया.

मां  अपनी बेटी के इस कठोर निर्णय से    काफी आहत हुईं लेकिन खुद को संयमित करते हुए अदिति को अपने सांस्कारिक मूल्यों तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों का एहसास कराने की काफी कोशिश करती हुई बोलीं, ‘‘बेटी, मैं सबकुछ समझती हूं, लेकिन अपने भी कुछ संस्कार होते हैं. तुम्हारे पापा ने तुम्हारे लिए क्या सपने संजो रखे थे लेकिन तुम उन सपनों का इतनी जल्दी गला घोंट दोगी, इस बारे में तो मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था. अपनी जिद छोड़ो और अभी अपने भविष्य को संवारो. प्यारमुहब्बत और शादी के लिए अभी बहुत वक्त पड़ा है.’’

‘‘मां, आप समझती नहीं हैं, प्यार संस्कार नहीं देखता, यह तो जीवन में देखे गए सपनों का प्रश्न होता है. मैं ने प्रतीक के साथ जीवन के न जाने कितने खूबसूरत सपने देखे हैं, लेकिन मैं यह भूल गई थी कि मेरे इंद्रधनुषी सपनों के पंख इतनी बेरहमी से कुतर दिए जाएंगे. आखिर, तुम्हें मेरे सपनों के टूटने से क्या?’’

‘‘बेटी, सच पूछो तो प्रतीक के साथ तुम्हारा प्यार केवल तुम्हारे जीवन के लिए नहीं है. जीवन के रंगीन सपनों के दिलकश पंख पर बेतहाशा उड़ने की जिद में अपनों को लगे जख्म और दर्द के बारे में क्या तुम ने कभी सोचा है? प्यार का नाम केवल अपने सपनों को साकार होते देखनाभर नहीं है. वह सपना सपना ही क्या जो अपनों के दर्द की दास्तान की सीढ़ी पर चढ़ कर साकार किया गया हो.

‘‘आज तुम्हें मेरी बातें बचकानी लगती होंगी, लेकिन मेरी मानो जब कल तुम भी मेरी जगह पर आओगी और तुम्हारे अपने ही इस तरह की नासमझी की बातों को मनवाने के लिए तुम से जिद करेंगे तो तुम्हें पता चलेगा कि दिल में कितनी पीड़ा होती है. मन में अपनों द्वारा दिए गए क्लेश का शूल कितना चुभता है.’’

अदिति अपनी मां के मुंह से इस कड़वी सचाई को सुन कर थोड़ी देर के लिए सन्न रह गई. उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर अनजाने ही हाथ रख दिया हो. उस के जेहन में अनायास ही बचपन से ले कर अब तक अपनी मां द्वारा उस के लालनपालन के साथसाथ पढ़ाई के खर्चे के लिए संघर्ष करने की कहानी का हर दृश्य किसी सिनेमा की रील की भांति दौड़ता चला गया.

अनायास ही उस की आंखें भर आईं. मन पर भ्रम और दुविधा की लंबे अरसे से पड़ी धूल की परत साफ हो चुकी थी और सबकुछ किसी शीशे की तरह साफसाफ प्रतीत होने लगा था. लेकिन बीते हुए कल के उस दर्र्द के आंसू को अपनी मां से छिपाते हुए वह भाग कर अपने कमरे में चली गई. अपनी मां की दिल को छू लेने वाली बातों ने अदिति को मानो एक गहरी नींद से जगा दिया हो.

छुट्टियों के बाद अदिति अपने कालेज वापस आ गई और जीवन फिर परिवर्तन के एक नए दौर से गुजरने लगा. कालेज वापस लौटने के बाद अदिति गुमसुम रहने लगी. प्रतीक से भी वह कम ही बातें करती थी, बल्कि उस ने उसे शादी के बारे में अपनी मां की मरजी से भी अवगत करा दिया और इस तरह मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दोनों की राहें अलगअलग हो गईं.

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कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस सिलैक्शन में प्रतीक को किसी मल्टीनैशनल कंपनी में ट्रेनी मैनेजर के रूप में यूरोप का असाइनमैंट मिला और अदिति ने किसी दूसरी मल्टीनैशनल कंपनी में क्वालिटी कंट्रोल ऐग्जीक्यूटिव के रूप में अपनी प्लेसमैंट की जगह बेंगलुरु को ही चुन लिया.

अदिति अपनी मां के साथ इस मैट्रोपोलिटन सिटी में रह कर जीवन गुजारने लगी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. इसी बीच कंपनी ने अदिति को 1 वर्ष के फौरेन असाइनमैंट पर आस्ट्रेलिया भेजने का निर्णय लिया. अदिति अपनी मां के साथ जब आस्टे्रलिया के सिडनी शहर आई तो संयोग से वहीं पर एक दिन किसी शौपिंग मौल में उस की प्रतीक से मुलाकात हो गई. अदिति के लिए यह एक सुखद लमहा था, जिस की नरम कशिश में वर्षों पूर्व के संबंधों की यादें बड़ी तेजी से ताजी हो गईं. लेकिन भविष्य में इस संबंध के मुकम्मल न होने के भय ने उस के पैर वापस खींच लिए.

प्रतीक अपने क्वार्टर में अकेला रहता था और अकसर हर रोज शाम के वक्त वह अदिति के घर पर आ जाया करता था. मां को भी अपने घर में अपने देश के एक परिचित के रूप में प्रतीक का आनाजाना अच्छा लगता था, क्योंकि परदेश में उस के अलावा सुखदुख बांटने वाला और कोई भी तो नहीं था.

अचानक एक दिन औफिस से घर लौटते वक्त अदिति की औफिस कार की किसी प्राइवेट कार के साथ टक्कर हो गई और अदिति को सिर में काफी चोट आई. महीनेभर तक अदिति  हौस्पिटल में ऐडमिट रही और इस दौरान उस का और उस की मां का ध्यान रखने वाला प्रतीक के अलावा और कोई नहीं था. प्रतीक ने मुसीबत की इस घड़ी में अदिति और उस की मां का भरपूर ध्यान रखा और इसी बीच अदिति और प्रतीक फिर से कब एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि उन्हें इस का पता ही नहीं चला.

अदिति का यूरोप असाइनमैंट खत्म होने वाला था और उसे अब अपने देश वापस आना था. अदिति और उस की मां को छोड़ने के लिए प्रतीक भी बेंगलुरु आया था. प्रतीक के सेवाभाव से अदिति की मां अभिभूत हो गई थीं. प्रतीक सिडनी वापस जाने की पूर्व संध्या पर अपने मम्मीडैडी के साथ अदिति से मुलाकात करने आया था. अदिति का व्यवहार तथा शालीनता देख कर प्रतीक के पेरैंट्स काफी खुश हुए.

प्रतीक की अगले दिन फ्लाइट थी. एयरपोर्ट पर बोर्डिंग के समय जब अदिति का फोन आया तो उस के दिलोदिमाग में एक अजीब हलचल मच गई. पुराने प्यार की सुखद और नरम बयार में प्रतीक के मन का कोनाकोना सिहर उठा. प्रतीक ने अपनी फ्लाइट कैंसिल करवा ली. उस ने अपनी कंपनी को बेंगलुरु में ही उसे शिफ्ट करने के लिए रिक्वैस्ट भेज दी जो कुछ दिनों में अपू्रव भी हो गई. अदिति की मां प्रतीक के इस फैसले से काफी प्रभावित हुईं.

अदिति हमेशा के लिए अब प्रतीक की हो गई थी और वह मां के साथ ही बेंगलुरु में रहने लगी थी. प्रतीक अपनी खुली आंखों से अपने सपने को अपनी बांहों में पा कर खुशी से फूले नहीं समा रहा था. अदिति के पांव भी जमीं पर नहीं पड़ रहे थे. उसे आज जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि धरती की तरह सपनों की दुनिया भी गोल होती है और सितारे भले ही टूटते हों, लेकिन यदि विश्वास मजबूत हो तो सपने कभी नहीं टूटते.

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Valentine’s Special: क्या यही प्यार है- जेबा और राहिल की कहानी

जेबा की बरात आने वाली थी. सभी पूरी तैयारी के साथ बरात के आने का इंतजार कर रहे थे कि तभी जेबा का आशिक राहिल कहीं से अचानक आंगन में आ गया.

‘‘आप डरें नहीं. मैं कुछ गड़बड़ करने नहीं आया हूं. मैं तो सिर्फ जेबा से मिलने आया हूं. आज से वह किसी दूसरे की हो जाएगी. प्लीज, मुझे उस से आखिरी बार मिल लेने दें,’’ आंगन में खड़ी औरतों से इतना कहने के बाद राहिल सीधा जेबा के कमरे में घुस गया, जिस में वह दुलहन बनी बैठी थी.

‘‘जेबा, यह तो मेरी शराफत है, जो तुम्हें किसी और की होते देख रहा हूं, वरना किस में इतनी हिम्मत थी कि जो तुम को मुझ से जुदा कर देता.

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‘‘खैर, मैं तुम से यह कहने आया हूं कि हम दो जिस्म जरूर हैं, लेकिन जान एक है. कोई दूसरा तुम्हारे सिर्फ तन पर हक जमा सकता है, लेकिन मन पर नहीं. मुझे पूरा यकीन है कि तुम मुझे कभी नहीं भूलोगी…’’

इतना कहने के बाद राहिल अपना मुंह जेबा के कान के पास ले जा कर धीरे से बोला, ‘‘तुम अपनी मांग में कभी सिंदूर मत भरना. मैं भी तुम से वादा करता हूं कि जिंदगीभर किसी दूसरी लड़की की तरफ नजर नहीं उठाऊंगा.

‘‘अच्छा जेबा, अब मैं चलता हूं. तुम हमेशा खुश रहो,’’ इतना कह कर राहिल उस कमरे से चला गया.

राहिल के जाने के बाद सब ने राहत की सांस ली, मगर दिलों में यह खटका बना रहा कि वह कमबख्त कहीं निकाह के वक्त आ कर किसी तरह की हंगामेबाजी न शुरू कर दे.

इन हालात से निबटने के लिए जेबा के घर वालों ने पूरी तैयारी कर रखी थी. पर सबकुछ शांति से पूरा हो गया और जेबा अपने हमसफर शबाब के साथ एक नई जिंदगी शुरू करने के लिए रवाना हो गई.

वैसे तो सबकुछ ठीक हो गया था, लेकिन जेबा और उस के घर वाले अंदर ही अंदर काफी परेशान थे कि राहिल न जाने कब क्या कर बैठे.

जेबा और राहिल एकदूसरे को चुपकेचुपके चाहते आ रहे थे. इस सचाई से परदा तब उठा, जब जेबा की शादी शबाब के साथ तय कर दी गई.

राहिल को जब इस बात का पता चला, तो उस के दिल की धड़कन जैसे थम सी गई.

कभी जी चाहता कि जेबा को ले कर कहीं भाग जाए, तो कभी उस के बाप का खून कर देने का मन करता. कभी यह विचार आता कि वह अपना और जेबा का खात्मा कर डाले. वह तो जेबा की सूझबूझ थी, जो पागल हाथी जैसे राहिल को किसी तरह काबू में किए थी.

‘‘आखिर मुझ में क्या कमी है, जो जेबा को मुझ से दूर किया जा रहा है?’’ एक दिन राहिल जेबा के अब्बा हशमत अली से उलझ पड़ा.

‘‘कमी यह है कि तुम दिमाग से ज्यादा दिल की सुनते हो और जज्बाती हो. सब से बड़ी कमी तो तुम में यह है कि तुम दूसरों पर मुहताज हो. जो खुद मुहताज हो, वह भला दूसरों को क्या दे सकता है,’’ हशमत अली की साफगोई राहिल को बेहद कड़वी लगी, फिर भी जवाब में वह खामोश रहा.

राहिल एक बेरोजगार और भावुक किस्म का नौजवान था. बाप के पास जो दौलत थी, बस उसी पर उस की जिंदगी का दारोमदार था. वह अपनी जिंदगी के प्रति कभी संजीदा नजर नहीं आया.

शौहर के रूप में शबाब को पा कर जेबा बहुत खुश थी. एक भले व संजीदा शौहर की सारी खूबियां उस में कूटकूट कर भरी थीं.

शबाब जेबा का पूरा खयाल रखता कि उसे किसी तरह की तकलीफ न पहुंचने पाए. मगर जेबा ही इस मामले में नाकाम थी, क्योंकि वह पूरे तनमन से चाह कर भी अपने शौहर के आगे खुद को पेश नहीं कर पाती थी.

जेबा इस बात को ले कर डरीसहमी रहती कि अपने शौहर से पहले वह किसी और की थी. कभीकभी उसे राहिल के दीवानेपन से भी डर लगता. वह जानती थी कि राहिल जुनून में आ कर किसी भी हद को पार कर सकता है, इसीलिए वह चाह कर भी शबाब को अपने प्यार से दूर रखती थी.

सब से बड़ी बात तो यह थी कि जेबा ने आज तक शबाब के नाम का सिंदूर अपनी मांग में नहीं लगाया, जो शबाब को अच्छा नहीं लग रहा था.

राहिल ने जेबा को इस बात के लिए मना कर के उस की शादीशुदा जिंदगी पर कितना बड़ा जुल्म ढाया था. जेबा राहिल के गुस्से से शबाब को बचाने के लिए ही अपनी मांग को सिंदूर से नहीं सजाती थी.

शादी के 2 दिन बाद ही जेबा की सूनी मांग को देख कर शबाब पूछ बैठा, ‘‘अरे, यह क्या जेबा, तुम्हारी मांग में सिंदूर क्यों नहीं है?’’

जेबा ने बड़े प्यार से शबाब को समझाया, ‘‘असल में सिंदूर से मुझे एलर्जी है. बचपन में गुड्डेगुडि़यों का ब्याह रचाने के दौरान गुड्डे की अम्मां बनी लड़की ने खेलखेल में मेरी मांग में सिंदूर डाल दिया था. इस के कुछ समय बाद ही मेरे सिर में खुजली होने लगी थी और मैं चकरा कर गिर पड़ी थी. तब से मैं सिंदूर से काफी दूर रहने लगी हूं.’’

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जेबा की दलील सुन लेने के बाद शबाब चुप तो हो गया था, लेकिन उसे कुछ अटपटा सा जरूर लगा था.

सास व ननदें जेबा को मांग में सिंदूर डालने की कहतेकहते थक चुकी थीं, लेकिन उस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. इस बात को ले कर परिवार में मनमुटाव सा रहने लगा था.

इस से पहले कि जेबा की जिद और ससुराल वालों की नाराजगी कोई गंभीर रूप लेती, एक दिन अचानक घटी एक घटना ने जेबा की सारी उलझनों को पलभर में ही सुलझा दिया.

राहिल ने जेबा के किसी करीबी रिश्तेदार के हाथों उस के पास एक खत भेजा, जिस में लिखा था:

‘जेबा, मैं तुम्हारे दिलोदिमाग पर हुकूमत तो नहीं कर सका, लेकिन उस पर नाजायज ढंग से कब्जा कर के तुम्हें ब्लैकमेल जरूर करता रहा. अब इस बात का एहसास मुझे पूरी तरह से होने लगा है.

‘मुझे दुख है कि मेरी घटिया सोच का शिकार हो कर तुम घुटनभरी जिंदगी जी रही हो और धीरेधीरे अपने ससुराल वालों की नजरों में गिरती जा रही हो. मुझे माफ कर दो. तुम ने सही कहा था कि मेरा यह गैरसंजीदापन कभी मुझे महंगा पड़ सकता है.

‘एक खुशखबरी सुनो. मैं शादी करने जा रहा हूं. वह भी एक ऐसी लड़की के साथ, जो मुझ जैसे किसी सड़कछाप आशिक के जुल्म का शिकार हो चुकी है. जानती हो, इस तरह की लड़की को अपना हमसफर बना कर मैं क्या करना चाहता हूं? मैं अपने गुनाह की सजा कम करना चाहता हूं.

‘शादी के बाद भी तुम पर अपना नाजायज हक जमा कर मैं ने गुनाह नहीं तो और क्या किया है. तुम मेरी दीवानगी का खौफ अपने जेहन से बिलकुल निकाल दो और पूरे तनमन से शबाब की बीवी बन कर जिंदगी गुजारो. आज से अपनी मांग सूनी मत रखना.

‘तुम्हारा नाचीज, राहिल.’

खत पढ़ लेने के बाद जेबा खुद को इतना हलका महसूस कर रही थी, मानो उस की छाती पर से कोई बहुत बड़ा बोझ हट गया हो.

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Valentine’s Special: उसके लिए- क्या प्रणव की हो पाई अपूर्वा

वह मुंह फेर कर अपूर्वा के सामने खड़ा था. अपूर्वा लाइब्रेरी में सैल्फ से अपनी पसंद की किताबें छांट रही थी. पैरों की आवाज से वह जान गई थी कि प्रणव है. तिरछी नजर से देख कर भी अपूर्वा ने अनदेखा किया. सपने में यह न सोचा था कि दिलफेंक आशिक किसी दिन इस तरह से आ सकता है. दोनों का यह प्यार परवान तो नहीं चढ़ा, पर दिलफेंकों के लिए जलन का सबब रहा. प्रणव तो अपूर्वा की सीरत और अदाओं पर ही क्या काबिलीयत पर भी फिदा था. रिसर्च पूरी होने तक पहुंचतेपहुंचते एक अपूर्वा ही उस के मन चढ़ी. मन चढ़ने के प्रस्ताव को उस के साथ 2 साल गुजारते भी उगल न सका.

अपूर्वा प्रणव की अच्छी सोच की अपनी सहेलियों के सामने कई बार तारीफ कर चुकी थी. मनचले और मसखरे भी प्रणव को छेड़ते, ‘अपूर्वा तो बनी ही आप के लिए है.’

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कुछ मनचले ऐसा कहते, ‘यह किसी और की हो भी कैसे सकती है? यह ‘बुक’ है, तो सिर्फ आप के वास्ते.’

कुछ कहते, ‘इसे तो कोई दिल वाला ही प्यार कर सकता है.’

अपूर्वा के सामने आने का फैसला भी प्रणव का एकदम निजी फैसला था. यह सब उस ने अपूर्वा के दिल की टोह लेने के लिए किया था कि वह उसे इस रूप में भी पसंद कर सकती है या नहीं. प्रणव ने बदन पर सफेद कपड़ा पहन रखा था और टांगों पर धोतीनुमा पटका बांधा था. पैरों में एक जोड़ी कपड़े के बूट थे. माथे पर टीका नहीं था. अपूर्वा रोज की तरह लाइब्रेरी में किताबें तलाशने में मगन थी.

प्रणव दबे पैर उस के बहुत करीब पहुंचा और धीमे से बोला, ‘‘मिस अपूर्वा, मुझे पहचाना क्या?’’ अपूर्वा थोड़ा तुनकते हुए बोली, ‘‘पहचाना क्यों नहीं…’’ फिर वह मन ही मन बुदबुदाई, ‘इस रूप में जो हो.’

प्रणव ने कनैक्शन की गांठ चढ़ाने के मकसद से फिर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, मैं ने आप के पिताजी को अपनी कुछ कहानियों की किताबें आप के हाथ भिजवाई थीं. क्या आप ने उन्हें दे दी थीं?’’

‘‘जी हां, दे दी थीं,’’ वह बोली.

‘‘आप के पिताजी ने क्या उन्हें पढ़ा भी था?’’

‘‘जी हां, उन्होंने पढ़ी थीं,’’ अपूर्वा ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘तो क्या आप ने भी उन्हें पढ़ा था?’’

‘‘हां, मैं ने भी वे पढ़ी हैं,’’ किताबें पलटते व छांटते हुए अपूर्वा ने जवाब दिया और एक नजर अपने साथ खड़ी सहेली पर दौड़ाई.

सहेली टीना ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को यह कहते हुए रोका, ‘‘रसिक राज, उन्हें तो मैं ने भी चटकारे लेते गटक लिया था. लिखते तो आप अच्छा हो, यह मानना पड़ेगा. किसी लड़की को सस्ते में पटाने में तो आप माहिर हो. चौतरफा जकड़ रखी है मेरी सहेली अपूर्वा को आप ने अपने प्रेमपाश में.’’ प्रणव ने फिर हिम्मत जुटा कर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, क्या मैं उन किताबों की कहानियों में औरत पात्रों के मनोविज्ञान पर आप की राय ले सकता हूं? क्या मुझे आज थोड़ा वक्त दे सकती हैं?’’

अपूर्वा इस बार जलेकटे अंदाज में बोली, ‘‘आज तो मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं है. हां, कल आप से इस मुद्दे पर बात कर सकती हूं.’’

प्रणव टका सा जवाब पा कर उन्हीं पैरों लाइब्रेरी से बाहर आ गया. अगले कल का बिना इंतजार किए लंबा समय गुजर गया, साल गुजर गए. इस बीच बहुतकुछ बदला. अपूर्वा ने शादी रचा ली. सुनने में आया कि कोई एमबीबीएस डाक्टर था. खुद प्रोफैसर हो गई थी. बस…

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प्रणव ने सिर्फ शादी न की, बाकी बहुतकुछ किया. नौकरीचाकरी 3-4 साल. संतों का समागम बेहिसाब, महंताई पौने 4 साल. 65 साल का होने पर लकवे ने दायां हिस्सा मार दिया. लिखना भी छूट गया. नहीं छूटा तो अपूर्वा का खयाल.

लंगड़ातेलंगड़ाते भाई से टेर छेड़ता है अनेक बार. कहता है, ‘‘भाई साहब, वह थी ही अपूर्वा. जैसा काम, वैसा गुण. पढ़नेलिखने में अव्वल. गायन में निपुण, खेलकूद में अव्वल, एनसीसी की बैस्ट कैडेट, खूबसूरत. सब उस के दीवाने थे.

‘‘वह सच में प्रेम करने के काबिल थी. वह मुझ से 9 साल छोटी थी. मैं तो था अनाड़ी, फिर भी उस ने मुझे पसंद किया.’’

प्रणव का मन आज बदली हुई पोशाक में भी अपूर्वा के लिए तड़प रहा है. भटक रहा है. उसे लगता है कि अपूर्वा आज भी लाइब्रेरी की सैल्फ से किताबें तलाश रही है, छांट रही है. एनसीसी की परेड से लौट रही है. वह उसे चाय पिलाने के लिए कैंटीन में ले आया है. पहली बार पीले फूलदार सूट में देखी थी अपने छोटे भाई के साथ. रिसैप्शन पार्टी में उस ने सुरीला गीत गया था. श्रोता भौंचक्क थे. प्रणव ने कविता का पाठ किया था. इस के बाद पहली नजर में जो होता है, वह हुआ. कविताकहानियों की पोथियां तो आईं, पर रिसर्च पूरी नहीं हुई. वह अभी भी जारी है.

40-45 सालों के बाद भी ये सारे सीन कल की बात लगते हैं. बारबार दिलोदिमाग पर घूमते हैं. वह कल आज में नहीं बदल सकता, प्रणव यह बात अच्छी तरह जानता है. वह आज सिर्फ अपूर्वा की खैर मांगता है. उस की याद में किस्सेकहानियां गढ़ता है. उस की खुशहाली के गीत रचता है.

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अंत: क्या मंगल पांडे का अंत सिर्फ मौत रहा?

Short Story: गृहस्थी की डोर

लेखक- एन.के. सोमानी

मनीष उस समय 27 साल का था. उस ने अपनी शिक्षा पूरी कर मुंबई के उपनगर शिवड़ी स्थित एक काल सेंटर से अपने कैरियर की शुरुआत की, जहां का ज्यादातर काम रात को ही होता था. अमेरिका के ग्राहकों का जब दिन होता तो भारत की रात, अत: दिनचर्या अब रातचर्या में बदल गई.

मनीष एक खातेपीते परिवार का बेटा था. सातरस्ते पर उस का परिवार एक ऊंची इमारत में रहता था. पिता का मंगलदास मार्केट में कपड़े का थोक व्यापार था. मनीष की उस पुरानी गंदी गलियों में स्थित मार्केट में पुश्तैनी काम करने में कोई रुचि नहीं थी. परिवार के मना करने पर भी आई.टी. क्षेत्र में नौकरी शुरू की, जो रात को 9 बजे से सुबह 8 बजे तक की ड्यूटी के रूप में करनी पड़ती. खानापीना, सोनाउठना सभी उलटे हो गए थे.

जवानी व नई नौकरी का जोश, सभी साथी लड़केलड़कियां उसी की उम्र के थे. दफ्तर में ही कैंटीन का खाना, व्यायाम का जिमनेजियम व आराम करने के लिए रूम थे. उस कमरे में जोरजोर से पश्चिमी तर्ज व ताल पर संगीत चीखता रहता. सभी युवा काम से ऊबने पर थोड़ी देर आ कर नाच लेते. साथ ही सिगरेट के साथ एक्स्टेसी की गोली का भी बियर के साथ प्रचलन था, जिस से होश, बदहोश, मदहोश का सिलसिला चलता रहता.

शोभना एक आम मध्यम आय वाले परिवार की लड़की थी. हैदराबाद से शिक्षा पूरी कर मुंबई आई थी और मनीष के ही काल सेंटर में काम करती थी. वह 3 अन्य सहेलियों के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहती थी. फ्लैट का किराया व बिजलीपानी का जो भी खर्च आता वे तीनों सहेलियां आपस में बांट लेतीं. भोजन दोनों समय बाहर ही होता. एक समय तो कंपनी की कैंटीन में और दिन में कहीं भी सुविधानुसार.

रात को 2-3 बजे के बीच मनीष व शोभना को डिनर बे्रक व आराम का समय मिलता. डिनर तो पिज्जा या बर्गर के रूप में होता, बाकी समय डांस में गुजरता. थोड़े ही दिनों में दफ्तर के एक छोटे बूथ में दोनों का यौन संबंध हो गया. मित्रों के बीच उन के प्रेम के चर्चे आम होने लगे तो साल भर बीतने पर दोनों का विवाह भी हो गया, जिस में उन के काल सेंटर के अधिकांश सहकर्मी व स्टाफ आया था. विवाह उपनगर के एक हालीडे रिजोर्ट में हुआ. उस दिन सभी वहां से नशे में धुत हो कर निकले थे.

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दूसरे साल मनीष ने काल सेंटर की नौकरी से इस्तीफा दे कर अपने एक मित्र के छोटे से दफ्तर में एक मेज लगवा कर एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. उन दिनों रेडीमेड कपड़ों की पश्चिमी देशों में काफी मांग थी. अत: नियमित आर्डर के मुताबिक वह कंटेनर से कोच्चि से माल भिजवाने लगा. उधर शोभना उसी जगह काम करती रही थी. अब उन दोनों की दिनचर्या में इतना अंतराल आ गया कि वे एक जगह रहते हुए भी हफ्तों तक अपने दुखसुख की बात नहीं कर पाते, गपशप की तो बात ही क्या थी. दोनों ही को फिलहाल बच्चे नहीं चाहिए थे, अत: शोभना इस की व्यवस्था स्वयं रखती. इस के अलावा घर की साफसफाई तो दूर, फ्लैट में कपड़े भी ठीक से नहीं रखे जाते और वे चारों ओर बिखरे रहते. मनीष शोभना के भरोसे रहता और उसे काम से आने के बाद बिलकुल भी सुध न रहती. पलंग पर आ कर धम्म से पड़ जाती थी.

मनीष का रहनसहन व संगत अब ऐसी हो गई थी कि उसे हर दूसरे दिन पार्टियों में जाना पड़ता था जहां रात भर पी कर नाचना और उस पर से ड्रग लेना पड़ता था. इन सब में और दूसरी औरतों के संग शारीरिक संबंध बनाने में इतना समय व रुपए खर्च होने लगे कि उस के अच्छेभले व्यवसाय से अब खर्च पूरा नहीं पड़ता.

किसी विशेष दिन शोभना छुट्टी ले कर मनीष के साथ रहना चाहती तो वह उस से रूखा व्यवहार करता. साथ में रहना या रेस्तरां में जाना उसे गवारा न होता. शोभना मन मार कर अपने काम में लगी रहती.

यद्यपि शोभना ने कई बार मनीष को बातोंबातों में सावधान रहने व पीने, ड्रग  आदि से दूर रहने के संकेत दिए थे पर वह झुंझला कर सुनीअनसुनी कर देता, ‘‘तुम क्या जानो कमाई कैसे की जाती है. नेटवर्क तो बनाना ही पड़ता है.’’

एक बार मनीष ने एक कंटेनर में फटेपुराने चिथड़े भर कर रेडीमेड के नाम से दस्तावेज बना कर बैंक से रकम ले ली, लेकिन जब पोर्ट के एक जूनियर अधिकारी ने कंटेनर खोल कर तलाशी ली तो मनीष के होश उड़ गए. कोर्ट में केस न दर्ज हो इस के लिए उस ने 15 लाख में मामला तय कर अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन उस के लिए उसे कोच्चि का अपना फ्लैट बेचना पड़ा था. वहां से बैंक को बिना बताए वापस मुंबई शोभना के साथ आ कर रहने लगा. बैंक का अकाउंट भी गलत बयानी के आधार पर खोला था. अत: उन लोगों ने एफ.आई.आर. दर्ज करा कर फाइल बंद कर दी.

इस बीच मनीष की जीवनशैली के कारण उस के लिवर ने धीरेधीरे काम करना बंद कर दिया. खानापीना व किडनी के ठीक न चलने से डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि लिवर ट्रांसप्लांट के बिना अब कुछ नहीं हो सकता. इस बीच 4-6 महीने मनीष आयुर्वेदिक दवाआें के चक्कर में भी पड़ा रहा. लेकिन कोई फायदा न होता देख कर आखिर शोभना से उसे बात करनी पड़ी कि लिवर नया लगा कर पूरी प्रक्रिया में 3-4 महीने लगेंगे, 12-15 लाख का खर्च है. पर सब से बड़ी दुविधा है नया लिवर मिलने की.

‘‘मैं ने आप से कितनी बार मना किया था कि खानेपीने व ड्रग के मामले में सावधानी बरतो पर आप मेरी सुनें तब न.’’

‘‘अब सुनासुना कर छलनी करने से क्या मैं ठीक हो जाऊंगा?’’

सारी परिस्थिति समझ कर शोभना ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में जा कर अपने लिवर की जांच कराई. उस का लिवर ऐसा निकला जिसे मनीष के शरीर ने मंजूर कर लिया. अपने गहनेजेवर व फ्लैट को गिरवी रख एवं बाकी राशि मनीष के परिवार से जुटा कर दोनों अस्पताल में इस बड़ी शल्यक्रिया के लिए भरती हो गए.

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मनीष को 6 महीने लगे पूरी तरह ठीक होने में. उस ने अब अपनी जीवन पद्धति को पूरी तरह से बदलने व शोभना के साथ संतोषपूर्वक जीवन बिताने का निश्चय कर लिया है. दोनों अब बच्चे की सोचने लगे हैं, ता

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