लेखक- प्रीतम सिंह
उसे देखने के लिए उस ने अपनी गरदन घुमाई, तो बस देखती ही रह गई. वह खुशी से चिल्लाती हुई बोली, ‘‘प्रशांत, तुम!’’
प्रशांत ने घबरा कर उस की ओर देखा. ‘‘अरे, नीतू, इतने सालों बाद. कैसी हो?’’ और वह सवाल पर सवाल करने लगा.
‘‘मैं अच्छी हूं. तुम कैसे हो?’’ नीतू ने जवाब दे कर प्रश्न किया. उसे इतनी खुशी हो रही थी कि वह सोचने लगी कि अब यह बस 2 घंटे भी ले ले, तो भी कोई बात नहीं.
‘‘मैं ठीक हूं. और बताओ, क्या करती हो आजकल?’’
‘‘वही, जो स्कूल के इंटरवल में
करती थी.’’
‘‘अच्छा, वह चित्रों की दुनिया.’’
‘‘हां, चित्रों की दुनिया ही मेरा सपना. और मैं ने अपना वही सपना अब पूरा कर लिया है.’’
‘‘सपना, कौन सा? अच्छी स्कैचिंग करने का.’’
‘‘हां, स्कैचिंग करतेकरते मैं एक दिन अलंकार मैगजीन में इंटरव्यू दे आई थी. बस, उन्होंने रख लिया मुझे.’’
‘‘बधाई हो, कोई तो सफल हुआ.’’
‘‘और तुम क्या करते हो? जौब लगी या नहीं?’’
‘‘जौब तो नहीं लगी, हां, एक प्राइवेट कंपनी में जाता हूं.’’
तभी प्रशांत को कुछ याद आता है, ‘‘एक मिनट, क्या बताया तुम ने, अभी कौन सी मैगजीन?’’
‘‘अलंकार मैगजीन,’’ नीतू ने बताया.
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‘‘अरे, उस में तो…’’
नीतू उस की बात बीच में ही काटती हुई बोली, ‘‘कहानी भेजी थी. और संयोग से वह कहानी मैं आज ही पढ़ कर आई हूं, स्कैच बनाने के साथसाथ.’’
‘‘पर, तुम्हें कैसे पता चला कि वह कहानी मैं ने ही भेजी थी. नाम तो कइयों के मिलते हैं.’’
‘‘सिंपल, तुम्हारी हैंडराइटिंग से.’’
‘‘क्या? मेरी हैंडराइटिंग से, तो
क्या तुम्हें मेरी हैंडराइटिंग भी याद है
अब तक.’’
‘‘हां, मिस्टर प्रशांत.’’
‘‘ओह, फिर तो अब तुम पूरे दिन चित्र बनाती होगी और कोई डिस्टर्ब भी न करता होगा मेरी तरह. है न?’’
‘‘हां, वह तो है.’’
‘‘देख ले, सब जनता हूं न मैं?’’
‘‘लेकिन, तुम एक बात नहीं जानते प्रशांत.’’
‘‘कौन सी बात?’’
बारबार मुझे स्कूल की बातें याद आ रही थीं. मैं ने सोचा कि बता देती हूं. क्या पता, फिर ऊपर वाला ऐसा मौका दे या न दे, यह सोच कर नीतू बोल पड़ी, ‘‘प्रशांत, मैं तुम्हें पसंद करती हूं.’’
‘‘क्या…?’’ प्रशांत ऐसे चौंका जैसे उसे कुछ पता ही न हो.
‘‘तब से जब हम स्कूल में पढ़ते थे और मैं यह भी जानती हूं कि तुम भी मुझे पसंद करते हो. करते हो न?’’
प्रशांत ने शरमाते हुए हां में अपनी गरदन हिलाई.
तभी बस एक स्टाप पर रुकी. हम खामोश हो कर एकदूसरे को देखने लगे.
‘‘तेरी शादी नहीं हुई अभी तक?’’ प्रशांत ने प्रश्न किया.
‘‘नहीं. और तुम्हारी?’’
‘‘नहीं.’’
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न जाने क्यों मेरा मन भर आया और मैं ने बोलना बंद कर दिया.
‘‘क्या हुआ नीतू? तुम चुप क्यों हो गईं?’’
‘‘प्रशांत, शायद मेरी जिंदगी में तुम हो ही नहीं, क्योंकि कल मेरी एंगेजमैंट है और तुम इतने सालों बाद आज
मिले हो.’’
इतना सुनते ही प्रशांत का गला भर आया. वह बस, इतना ही बोला, ‘‘क्या,
कल ही.’’
दोनों एक झटके में ही उदास हो गए.
कुछ देर खामोशी छाई रही.
‘‘कोई बात नहीं नीतू. प्यार का रंग कहीं न कहीं मौजूद रहता है हमेशा,’’ प्रशांत ने रुंधे मन से कहा.
‘‘मतलब?’’ नीतू ने पूछा.
‘‘मतलब यह कि हम चाहे साथ रहें न रहें, तुम्हारे चित्र और मेरे शब्द तो साथ रहेंगे न हमेशा कहीं न कहीं,’’ प्रशांत हलकी सी मुसकान भरते हुए बोला.
‘‘मुझे नहीं पता था प्रशांत कि तुम इतने समझदार भी हो सकते हो.’’
तभी कंडक्टर की आवाज सुनाई दी, ‘‘पंजाबी बाग.’’
‘‘ओके प्रशांत, मेरा स्टौप आ गया है. अब चलती हूं. बायबाय.’’
‘‘बाय,’’ प्रशांत ने भी अलविदा कहा.
वह बस से उतरी और जब तक आंखों से ओझल न हो गए, तब तक दोनों एकदूसरे को देखते रहे.