Women’s Day- अपना घर: शादी के बाद क्यों बदला जिया का व्यवहार

Women’s Day- अपना घर: भाग 1

औफिस की घड़ी ने जैसे ही शाम के 5 बजाए जिया जल्दी से अपना बैग उठा तेज कदमों से मैट्रो स्टेशन की तरफ चल पड़ी. आज उस का मन एकदम बादलों की तरह उड़ रहा था. उड़े भी क्यों न, आज उसे अपनी पहली तनख्वाह जो मिली थी. वह घर में सब के लिए कुछ न कुछ लेना चाहती थी. रोज शाम होतेहोते उस का मन और तन दोनों थक जाते थे पर आज उस का उत्साह देखते ही बनता था. आइए अब जिया से मिल लेते हैं…जिया 23 वर्षीय आज के जमाने की नवयुवती है. सांवलासलोना रंग, आम की फांक जैसी आंखें, छोटी सी नाक, बड़ेबड़े होंठ. सुंदरता में उस का कहीं कोईर् नंबर नहीं लगता था पर फिर भी उस का चेहरा पुरकशिश था. घर में सब की लाडली, जीवन से अब तक जो चाहा वह मिल गया. बहुत बड़े सपने नहीं देखती थी. थोड़े में ही खुश थी.

वह तेज कदमों से दुकानों की तरफ बढ़ी. अपने 2 साल के भतीजे के लिए उस ने एक रिमोट से चलने वाली कार खरीदी. पापा के लिए उन की पसंद का परफ्यूम, मम्मी व भाभी के लिए सूट और साड़ी और भैया के लिए जब उस ने टाई खरीदी तो उस ने देखा कि बस उस के पास अब कुछ ही पैसे बचे हैं. अपने लिए वह कुछ न खरीद पाई. अभी पूरा महीना पड़ा था. बस उस के पास कुछ हजार ही बचे थे. उसे उन में ही अपना खर्चा चलाना था. मांपापा से वह कुछ नहीं लेना चाहती थी.

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जैसे ही वह शोरूम से निकली, बाजू वाली दुकान में उसे आसमानी और फिरोजी रंग के बहुत खूबसूरत परदे दिखाई दिए. बचपन से उस का अपने घर में इस तरह के परदे लगाने का मन था. दुकानदार से जब दाम पूछा तो उसे पसीना आ गया. दुकानदार ने मुसकराते हुए कहा कि ये चंदेरी सिल्क के परदे हैं, इसलिए दाम थोड़ा ज्यादा है पर ये आप के कमरे को एकदम बदल देंगे.

कुछ देर तक खड़ी वह सोचती रही. फिर उस ने वे परदे खरीद लिए. जब वह दुकान से निकली तो बहुत खुश थी. बचपन से वह ऐसे परदे अपने घर में लगाना चाहती थी, पर मां के सामने जब भी बोला उस की इच्छा घर की जरूरतों के सामने छोटी पड़ गई. आज उसे ऐसा लगा जैसे वह वाकई में स्वतंत्र हो गई है.

जब वह घर पहुंची तो रात हो चुकी थी. सब रात के खाने के लिए उस का इंतजार कर रहे थे. भतीजे को चूम कर उस ने सब के उपहार टेबल पर रख दिए. सब उत्सुकता के साथ उपहार देखने लगे. अचानक मां बोली, ‘‘तुम, अपने लिए क्या लाई हो?’’

जिया ने मुसकराते हुए परदों का पैकेट उन की तरफ बढ़ा दिया. परदे देख कर मां बोलीं, ‘‘यह क्या है…? इन्हें तुम पहनोगी?’’

जिया मुसकुराते हुए बोली, ‘‘मेरी प्यारी मां इन्हें हम घर में लगाएंगे.’’

मां ने परदे वापस पैकेट में रखे और फिर बोलीं, ‘‘इन्हें अपने घर लगाना.’’

जिया असमंजस से मां को देखती रही. उस की समझ में नहीं आया कि इस का क्या मतलब है. उस की भूख खत्म हो गई थी.

भाभी ने मुसकरा कर उस के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘मैं आज तक नहीं समझ पाई, मेरा घर कौन सा है? जिया तुम अपना घर खुद बनाना,’’ और फिर भाभी ने बहुत प्यार से उस के मुंह में एक निवाला डाल दिया.

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आज पूरा घर पकवानों की महक से महक रहा था. मां ने अपनी सारी पाककला को निचोड़ दिया था. कचौरियां, रसगुल्ले, गाजर का हलवा, ढोकले, पनीर के पकौड़े, हरी चटनी, समोसे और करारी चाट. भाभी लाल साड़ी में इधर से उधर चहक रही थीं. पापा और भैया पूरे घर का घूमघूम कर मुआयना कर रहे थे. कहीं कुछ कमी न रह जाए. आज जिया को कुछ लोग देखने आ रहे थे. एक तरह से जिया की पसंद थी, जिस पर आज उस के घर वालों को मुहर लगानी थी. अभिषेक उस के औफिस में ही काम करता था. दोनों में अच्छी दोस्ती थी जिसे अब वे एक रिश्ते का नाम देना चाहते थे.

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ठीक 5 बजे एक कार उन के घर के सामने आ कर रुकी और उस में से 4 लोग उतरे. सब ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. जिया ने परदे की ओट से देखा. अभिषेक जींस और लाइट ब्लू शर्ट में बेहद खूबसूरत लग रहा था.

Women’s Day- नपुंसक: भाग 2

‘‘शायद बेटे की चाह या कहें औरत की लत पड़ जाने की वजह से मेरे पिता का मन अर्चना से भी दूर होता चला गया. उन की नजर अब एक विधवा पर थी जिस के पहले से 2 बच्चे थे. एक बेटा और एक बेटी. रूपरंग में वह विधवा सुंदर थी, उस की सुंदरता पर मेरे पिता रीझ उठे और उस से तीसरा विवाह कर लिया.

‘‘3 कमरों के छोटे से घर में वह 3 प्राणी और आ गए. मौसी और उस औरत में खूब लड़ाई होती थी. उस लड़ाई में मैं और मेरी छोटी बहन बिलकुल दब कर रह गईं. उस समय मेरी उम्र कोई 12 साल की रही होगी. मैं अकसर रोतीरोती अपनी मां की तसवीरें बनाती रहती थी. नतीजा यह निकला कि मैं चित्रकला में निपुण होती चली गई.

‘‘उस कच्ची उम्र में मुझे पता चला कि मेरी तीसरी मां, जिस का नाम किरण था, ने बच्चे बंद होने का आपरेशन पहले से ही करवा रखा था. किरण के कई पुरुषों से शारीरिक संबंध रह चुके थे और इसी बात को ले कर वह अकसर मेरे पिता से पिट जाया करती थी.

‘‘कुछ समय बाद ही मेरे पिता का तबादला जयपुर हो गया. जयपुर जाते समय वह बहुत खुश थे…शायद अर्चना और किरण भी. किरण को अपनी आजादी प्रिय थी और अर्चना को अपने पति से अकसर पिटने का डर था. पिता तो चले गए पर जाते समय उन्होंने एक नजर भी हमारी ओर नहीं देखा.

‘‘हम दोनों बहनें फिर से अकेली हो गईं. अर्चना मौसी कभीकभी हमें कोसतीं, कभीकभी प्यार करतीं. बस, यों ही समय बीतता गया. पिता का मन जयपुर में लग गया था, क्योंकि उन्हें वहां एक और औरत मिल गई थी. वह उन्हीं के आफिस में कार्यरत थी और उन से वरिष्ठ थी.

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‘‘पापा ने उस औरत को अपने मोहजाल में फंसाया और उस से विवाह रचा लिया. वह औरत मेरे पापा के प्यार में ऐसी पागल हुई कि अपना मकान भी उन के नाम कर दिया.

‘‘तब से ले कर अब तक वह जयपुर में हैं. सुना है, वहां पापा के 3 बच्चे हैं, 2 लड़के और 1 लड़की…’’

‘‘क्या तुम्हें कभी उन की कमी महसूस नहीं होती?’’ अनिरुद्ध ने बीच में टोकते हुए कहा.

‘‘सर…’’

वह उस की बात का जवाब देने वाली थी कि अनिरुद्ध बोल पड़ा, ‘‘तुम ने मुझे फिर सर कहा.’’

‘‘जब तक हम दोनों किसी रिश्ते में नहीं बंध जाते तब तक आप मेरे लिए सर ही रहेंगे.’’

‘‘तो तुम भी मेरे साथ बंधना चाहती हो?’’ उस ने आरुषी की आंखों में आंखें डाल कर पूछा.

‘‘कोई जबरदस्ती नहीं है, सर. मैं जिस परिवार से हूं, उस परिवार के किसी भी सदस्य से समाज का कोई व्यक्ति संबंध बनाना तो दूर, साथ खड़ा होना पसंद नहीं करता. जिस लड़की के बाप ने 4  शादियां कर रखी हों उस लड़की को लोग देखना तक पसंद नहीं करते पर उस का इस्तेमाल जरूर कर लेते हैं.’’

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अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हुए आरुषी बोली, ‘‘हमारी मौसी ने भले ही हमें मन से पसंद न किया हो पर हमें संभाल कर रखा. इस उम्र में आ कर समझ में आता है कि उन का दबाव, रौब ठीक ही था. उन्हें एक बात का दुख जरूर रहता है कि वह हमारी शादी नहीं कर पाईं. पैसे की कमी अच्छेअच्छों को तोड़ देती है. शुरूशुरू में तो पिताजी पैसे भेजते थे, पर कुछ समय बाद उन्होंने पैसे भेजना एकदम बंद कर दिया. सुनने में आया था कि मेरी तीसरी मां किरण ने पापा को खर्चे के लिए नोटिस भेजा था, पापा ने हम तीनों का खर्चा बंद कर के उन तीनों का शुरू कर दिया.

‘‘पहले तो मौसी घर से दूर एक कालोनी के कुछ घरों में काम करती थीं, पर जब यह बात महल्ले में फैल गई तो उन्होंने वह काम बंद कर के कपड़े सिलना शुरू कर दिया. तब तक हम दोनों बहनें भी बड़ी हो गई थीं. हम ने ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया.

‘‘मेरा मन शायद चित्रकार बनने का इंतजार कर रहा था, इस में मेरी मदद की, मेरी मौसी, बहन और मेरे जनून ने. नतीजा तुम्हारे सामने है. पर अब लगता है मेरी उम्र कुछ ज्यादा ही हो गई. मेरे साथ की लड़कियों के बच्चे भी 15-16 साल के हो गए हैं. एक मैं हूं, अभी भी वहीं हूं जहां 20 साल पहले थी.

‘‘आज मेरे पास सभी कुछ है. एक मां सौतेली ही सही, छोटा सा अपना घर, पर नहीं है तो प्यार. छोटी बहन ने भी कोर्ट मैरिज कर के अपना घर बसा लिया और खुशी से रह रही है. मौसी ने मेरा घर बसाने की कोशिश तो की पर मेरी फोटो से पहले मेरे पापा के कारनामे वहां पहुंच जाते थे.

‘‘लड़कों की देखादेखी में मेरी उम्र 30 से ऊपर की हो चली थी. मैं ने मौसी को शादी करने से साफ इनकार कर दिया था. मौसी मुझ से पूछती थीं कि आरुषी, सारी जिंदगी अकेली कैसे गुजारोगी तो मेरा जवाब होता था कि मौसी, तुम तो शादी कर के भी अकेली रह रही हो, मैं बिना शादी के रह लूंगी. कम से कम इतनी तसल्ली तो है कि मुझे कोई धोखा नहीं दे रहा. बेचारी मौसी भी निरुत्तर हो जाया करती थीं.’’

‘‘आरुषी, तुम ने अपने पापा को वापस बुलाने के लिए या खर्चे के लिए कोर्ट का सहारा नहीं लिया?’’

‘‘जिस औरत के पास हमारी किताबों के पैसे तक नहीं होते थे वह वकील के पैसे कहां से लाती,’’ आरुषी ने लाचारी जाहिर करते हुए कहा, ‘‘सर, आप को मैं ने अपनी जिंदगी के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया है. मेरे जीवन का एकएक पन्ना आप के सामने खुल गया है. आप जो भी फैसला करेंगे मुझे खुशीखुशी मंजूर होगा.’’

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‘‘आरुषी, तुम ने तो अपने पन्ने मेरे सामने खोल कर रख दिए पर मेरा भी एक पन्ना है, जो किसी के भी सामने नहीं खुला है. मैं तुम्हें पहले ही बता दूं कि तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं है, तुम्हारी जिंदगी है और तुम अपनी जिंदगी की स्वयं मालिक हो. बस, इतनी सी प्रार्थना है कि मुझ से दोस्ती कभी मत तोड़ना,’’ इतना कहते हुए अनिरुद्ध की आंखों में पानी आ गया.

Women’s Day- नपुंसक: कैसे टूटने लगे आरुषी के सपने

Women’s Day- गांव की इज्जत: हजारी ने कैसे बचाई गांव की इज्जत

शालिनी देवी जब से गांव की सरपंच चुनी गई थीं, गांव वालों को राहत क्या पहुंचातीं, उलटे गरीबों को दबाने व पहुंच वालों का पक्ष लेने लगी थीं.

शालिनी देवी का मकान गांव के अंदर था, जहां कच्ची सड़क जाती थी.

सड़क को पक्की बनाने की बात तो शालिनी देवी करती थीं, पर अपना नया मकान गांव के बाहर मेन रोड के किनारे बनाना चाहती थीं, इसलिए वे गरीब गफूर मियां पर मेन रोड वाली सड़क पर उन की जमीन सस्ते दाम पर देने का दबाव डालने लगी थीं.

गफूर मियां को यह बात अच्छी नहीं लगी. वे हजारी बढ़ई के फर्नीचर बनाने की दुकान में काम करते थे. मेहनताने में जोकुछ भी मिलता, उसी से अपना परिवार चलाते थे.

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बड़ों के सामने गफूर मियां की बोली फूटती न थी. एक बार गांव के ही एक बड़े खेतिहर ने उन का खेत दबा लिया था, पर हजारी ने ही आवाज उठा कर गफूर मियां को बचाया था.

गफूर मियां हजारी बढ़ई को सबकुछ बता देते थे. उन्होंने बताया कि शालिनी देवी अपना नया मकान बनाने के लिए उन की जमीन मांग रही हैं.

इस बात पर हजारी बढ़ई खूब बिगड़े और बोले, ‘‘यह तो शालिनी देवी का जुल्म है. यह बात मैं मुखिया राधे चौधरी के पास ले जाऊंगा.’’

हजारी बढ़ई जानते थे कि मुखिया इंसाफपसंद तो हैं, पर शालिनी देवी के मामले में वे कुछ नहीं बोलेंगे. दबी आवाज में यह बात भी उठी थी कि शालिनी देवी का मुखिया से नाजायज संबंध है.

एक दिन हजारी बढ़ई गफूर मियां का पक्ष लेते हुए सरपंच शालिनी देवी से कहने लगे, ‘‘चाचीजी, हम लोग गरीब हैं. हमें आप से इंसाफ की उम्मीद है. आप गफूर मियां को दबा कर उन की जमीन सस्ते दाम में हड़पने की मत सोचिए, नहीं तो यह बात पूरे गांव में फैलेगी. विरोधी लोग आप के खिलाफ आवाज उठाएंगे. मैं नहीं चाहता कि अगले चुनाव में आप सरपंच का पद पाने से रह जाएं.’’

यह सुन कर शालिनी देवी गुस्से से कांप उठीं और बोलीं, ‘‘तुम उस गफूर की बात कर रहे हो, जो बिरादरी में छोटा है. उस की हिम्मत है, तो मुखिया के पास जा कर शिकायत करे.’’

हजारी बढ़ई बोले, ‘‘आप की नजर में तो मैं भी छोटा हूं… छोटे भी कभीकभी बड़ा काम कर जाते हैं.’’

शालिनी देवी एक दिन दूसरे सरपंचों से बोलीं, ‘‘क्या हमारा चुनाव इसलिए हुआ है कि हम दूसरे लोगों की धौंस से डर जाएं?’’

मुखिया राधे चौधरी ने शालिनी देवी को समझाया कि हजारी बढ़ई व गफूर मियां जैसे छोटे लोगों से डरने की जरूरत नहीं है.

शालिनी देवी खूबसूरत व चालाक थीं. उन की एक ही बेटी थी रेशमा, जो उन का कहना नहीं मानती थी. वह खेतखलिहानों में घूमती रहती थी.

शालिनी देवी के लिए अब एक ही रास्ता बचा था, जल्दी ही उस की शादी कर उसे ससुराल विदा कर दो.

जल्दी ही एक पड़ोसी गांव में उन्हें एक खेतिहर परिवार मिल गया. लड़का नौकरी के बजाय गांव की राजनीति में पैर पसार रहा था. भविष्य अच्छा देख कर शालिनी देवी ने रेशमा की शादी उस से तय कर दी.

शालिनी देवी ने हजारी बढ़ई को बुलाया और बोलीं, ‘‘मेरी बेटी रेशमा की शादी है. तुम उस के लिए फर्नीचर बना दो. मेहनताना व लकडि़यों के दाम मैं दे दूंगी.’’

इज्जत समझ कर हजारी बढ़ई ने गफूर मियां व मजदूरों को काम पर लगा कर अच्छा फर्नीचर बनवा दिया.

मेहनताना देते समय शालिनी देवी कतराने लगीं, ‘‘तुम मुझ से कुछ ज्यादा पैसे ले रहे हो. लकडि़यों की मुझे पहचान नहीं… सागवान है कि शीशम या शाल… कुछकुछ आमजामुन की लकड़ी भी लगती है.’’

हजारी बढ़ई बोला, ‘‘यह सागवान ही है. मेरे पेट पर लात मत मारिए. अपना समझ कर मैं ने दाम ठीक लिया है. मुझे मजदूरों को मेहनताना देना पड़ता है. फर्नीचर आप नहीं ले जाएंगी, तो दूसरे खरीदार न मिलने से मैं मारा जाऊंगा.’’

मौका देख कर शालिनी देवी बदले पर उतर आईं और बोलीं, ‘‘मैं औनेपौने दाम पर सामान नहीं लूंगी. मैं तो शहर से मंगाऊंगी.’’

तभी वहां मुखिया राधे चौधरी आ गए. वे भी शालिनी देवी का पक्ष लेते हुए बोले, ‘‘ज्यादा पैसा ले कर गफूर मियां का बदला लेना चाहते हो तुम?’’

हजारी बढ़ई तमक कर बोले, ‘‘मैं गलती कर गया. सुन लीजिए, जो मेरे दिल में कांटी ठोंकता है, उस के लिए मैं भी कांटी ठोंकता हूं… मैं बढ़ई हूं, रूखी लकडि़यों को छील कर चिकना करना मैं अच्छी तरह जानता हूं. आप का दिल भी रूखा हो गया है. मैं इसे छील कर चिकना करूंगा.

‘‘शालिनी देवी, आप की बेटी गांव के नाते मेरी बहन है. मैं बिना कुछ लिए यह फर्नीचर उसे देता हूं… आगे आप की मरजी…’’

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हजारी बढ़ई ने मजदूरों से सारा फर्नीचर उठवा कर शालिनी देवी के यहां भिजवा दिया.

शालिनी देवी को लगा कि हजारी उस के दिल में कांटी ठोंक गया है.

गांव में क्या हिंदू क्या मुसलिम, सभी हजारी को प्यार करते थे. एक गूंगी लड़की की शादी नहीं हो रही थी. हजारी ने उस लड़की से शादी कर गांव में एक मिसाल कायम की थी.

इस पर गांव के सभी लोग कहा करते थे, ‘हजारी जैसे आदमी को ही गांव का मुखिया या सरपंच होना चाहिए.’

शालिनी देवी के घर बरात आई. उसी समय मूसलाधार बारिश हो गई. कच्ची सड़क पर दोनों ओर से ढलान था. सड़क पर पानी भर गया था. कहीं से निकलने की उम्मीद नहीं थी. चारों तरफ पानी ही पानी नजर आने लगा.

‘दरवाजे पर बरात कैसे आएगी?’ सभी बराती व घराती सोचने लगे.

दूल्हा कार से आया था. ड्राइवर ने कह दिया, ‘‘कार दरवाजे तक नहीं जा सकती. कीचड़ में फंस जाएगी, तो निकालना भी मुश्किल होगा.’’

शालिनी देवी सोच में पड़ गईं.

मुखिया राधे चौधरी भी परेशान हुए, क्योंकि इतनी जल्दी पानी को भी नहीं निकाला जा सकता था.

गांव की बिजली भी चली गई थी. पंप लगाना भी मुश्किल था. पैट्रोमैक्स जलाना पड़ रहा था.

फिर कीचड़ तो हटाई नहीं जा सकती थी. उस में पैर धंसते थे, तो मुश्किल से निकलते थे… मिट्टी में गिर कर दोचार लोग धोतीपैंट भी खराब कर चुके थे.

बराती अलग बिगड़ रहे थे. एक बोला, ‘‘कार दरवाजे पर जानी चाहिए. दूल्हा घोड़ी पर नहीं चढ़ेगा. वह गोद में भी नहीं जाएगा.’’

दूल्हे के पिता बिगड़ गए और बोले, ‘‘कोई पुख्ता इंतजाम न होने से मैं बरात वापस ले जाऊंगा.’’

शालिनी देवी रोने लगीं, ‘‘इसीलिए मैं नया मकान मेन रोड पर बनाना चाहती थी. लेकिन जमीन नहीं मिलती. गफूर मियां अपनी जमीन नहीं देता. हजारी बढ़ई ने उसे चढ़ा कर रखा हुआ है.’’

शालिनी देवी ने अपनेआप को चारों ओर से हारा हुआ पाया. उन्हें मुखिया राधे चौधरी पर गुस्सा आ रहा था, जो कुछ नहीं कर पा रहे थे.

तभी हजारी बढ़ई गफूर मियां के साथ आए और बोले, ‘‘गांव की इज्जत का सवाल है. गांव की बेटी की शादी है… बरातियों की बात भी जायज है. कार दरवाजे तक जानी ही चाहिए…’’

शालिनी देवी हार मानते हुए बोल उठीं, ‘‘हजारी, कोई उपाय करो… समझो, तुम्हारी बहन की शादी है.’’

‘‘सब सुलट जाएगा. आप अपना दिल साफ रखिए.’’

शालिनी देवी को लगा कि हजारी ने एक बार फिर एक कांटी उन के दिल में ठोंक दी है.

हजारी बढ़ई गफूर मियां से बोले, ‘‘मुसीबत की घड़ी में दुश्मनी नहीं देखी जाती. दुकान में फर्नीचर के लिए जितने भी पटरे चीर कर रखे हुए हैं, सब उठवा कर मंगा लो और बिछा दो. उसी पर से बराती भी जाएंगे और कार भी जाएगी दरवाजे तक.

‘‘लकड़ी के पटरों पर से गुजरते हुए कार के कीचड़ में फंसने का सवाल ही नहीं उठता. बांस की कीलें ठोंक दो. कुछ गांव वालों को पटरियों के आसपास ले चलो…’’

सभी पटरियां लाने को तैयार हो गए, क्योंकि गांव की इज्जत का सवाल सामने था.

इस तरह हजारी बढ़ई, गफूर मियां और गांव वालों की मेहनत से एक पुल सा बन गया. उस पर से कार पार हो गई.

बराती खुश हो कर हजारी बढ़ई की तारीफ करने लगे.

शालिनी देवी की खुशी का ठिकाना न था. वे खुशी से झूम उठीं.

मुखिया राधे चौधरी हजारी बढ़ई की पीठ थपथपाते हुए बोले, ‘‘इस खुशी में मैं अपने बगीचे के 5 पेड़ तुम्हें देता हूं.’’

पता नहीं, मुखिया हजारी को खुश कर रहे थे या शालिनी देवी को.

शालिनी देवी ने देखा कि हजारी बढ़ई और गफूर मियां भोज खाने नहीं आए, तो लगा कि दिल में एक कांटी और ठुंक गई है.

बरात विदा होते ही शालिनी देवी हजारी बढ़ई के घर पहुंच गईं और आंसू छलकाते हुए बोलीं, ‘तुम ने मेरे यहां खाना भी नहीं खाया. इतना रूठ गए हो… क्यों मुझ से नाराज हो? मैं अब कुछ नहीं करूंगी, गफूर की जमीन भी नहीं लूंगी. हां, कच्ची सड़क को पक्की कराने की कोशिश जरूर करूंगी…

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‘‘सच ही तुम ने मेरे रूखे दिल को छील कर चिकना कर दिया है… तुम मेरी बात मानो…उखाड़ दो अपने दिल से कांटी… तब मुझे चैन मिलेगा.’’

हजारी बढ़ई बोला, ‘‘दरअसल, आप सरपंच होते ही हमें छोटा समझने लगी थीं. आप भूल गई थीं कि छोटी सूई भी कभी काम आती है.’’

तभी हजारी की गूंगी बीवी कटोरे में गुड़ और लोटे में पानी ले आई.

पानी पीने के बाद शालिनी देवी ने साथ आए नौकरों के सिर से टोकरा उतारा और गूंगी के हाथ में रख दिया. फिर वे हजारी से बोलीं, ‘‘शाम को अपने परिवार के साथ खाना खाने जरूर आना, साथ में अपने मजदूरों को लाना. मैं तुम सब का इंतजार करूंगी.’’

टोकरे में साड़ी, धोती, मिठाई, दही और पूरियां थीं. धोती के एक छोर में फर्नीचर के मेहनताने और लागत से भी ज्यादा रुपए बंधे हुए थे.

हजारी बढ़ई आंखें फाड़े शालिनी देवी को जाते देखते रहे, जिन का दिल चिकना हो गया था. अब कांटी भी उखड़ चुकी थी.

Women’s Day- नपुंसक: भाग 1

आरुषी ने अपनी कलाई घड़ी पर नजर डाली तो देखा साढ़े 8 बज चुके थे. उस का शरीर थक कर चूर हो गया था. उस ने हाल की दीवारों पर नजर डाली, तो पाया केवल 5 पेंटिंग्स बची थीं. उन में से भी 3 अनिरुद्ध के चाचाजी अपने फार्म हाउस पर ले जाएंगे. मन ही मन खुश होती आरुषी की नजर अनिरुद्ध पर पड़ी जो उस की तरफ पीठ किए हुए खड़ा था, पर तन, मन, धन से उस का साथ दे रहा था.

उस के मन ने खुद से सवाल किया, कैसे चुका पाऊंगी इस आदमी का उपकार? क्या नहीं किया इस ने मेरे लिए? उस के मन में अनिरुद्ध को ले कर जाने कैसेकैसे विचार आ रहे थे. तभी अनिरुद्ध का फोन बज उठा और आरुषी की विचार तंद्र्रा टूट गई. जैसे ही फोन पर बात समाप्त हुई, अनिरुद्ध उस के करीब आया और आंखों में आंखें डाल कर बोला, ‘‘कैसा लग रहा है आरुषी, पहली प्रदर्शनी में ही तुम ने झंडे गाड़ दिए. एक ही हफ्ते में तुम ने लाखों कमा लिए.’’

अनिरुद्ध का आप से तुम पर आना, आरुषी को अच्छा लगा. वह बोली, ‘‘अनिरुद्ध, यह तो तुम्हारी मेहनत का नतीजा है वरना मैं जिस परिवार से हूं उस के लिए तो यह सबकुछ करना संभव नहीं था.’’

आरुषी की आंखों के आगे चुटकी बजाते हुए अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘आरुषी, कहां खो जाती हो तुम? कोई परेशानी है क्या? इस तरह उदास रहोगी तो मैं तुम्हें पार्टी कैसे दे पाऊंगा. कल मैं तुम्हें तुम्हारी सफलता पर एक पार्टी दूंगा.’’

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‘‘सर, कल किस ने देखा है?’’ आरुषी बोली, ‘‘चलिए, आज ही मैं आप को पार्टी दे देती हूं.’’

‘‘पर तुम अपने घर खबर तो कर दो,’’ अनिरुद्ध अचकचा कर हैरानी से बोला.

‘‘मैं घर पर बता कर आई थी कि आज मुझे देर हो जाएगी,’’ आरुषी के चेहरे से साफ लग रहा था कि वह झूठ बोल रही है.

अनिरुद्ध ने फौरन आर्ट गैलरी से आरुषी की बनाई पेंटिंग्स सावधानी से उतरवा कर अपने आफिस में रखवा दीं. उस के बाद जेब से चाबी निकाल कर आर्ट गैलरी का ताला लगाया और आरुषी के साथ रेस्टोरेंट की ओर चल दिया.

कार में बैठी आरुषी मन ही मन सोच रही थी कि काश, रेस्टोरेंट और दूर हो जाए ताकि अनिरुद्ध के साथ यह सफर समाप्त न हो. उस के चेहरे पर रहरह कर मुसकराहट आ रही थी, पर उस ने खुद को परंपरा और आदर्शवाद के आवरण से ढक रखा था.

‘‘आरुषी, तुम्हें रात के 9 बजे मेरे साथ आते हुए डर नहीं लगा?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, शायद डरने की उम्र को मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूं.’’

‘‘तो क्या अब तुम्हें बिलकुल डर नहीं लगता?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात भी नहीं है, डर लगता है पर अभी तुम से नहीं लग रहा है,’’ अचानक आरुषी भी आप से तुम पर आ गई थी, उसे इस का आभास भी नहीं हुआ था. ऐसी ही बातें करते दोनों रेस्टोरेंट पहुंच गए.

पार्किंग में कार खड़ी कर के अनिरुद्ध आगे बढ़ा तो अचानक ही उस ने आरुषी का हाथ अपने हाथ में ले लिया. उस ने भी इस का विरोध नहीं किया बल्कि जो आवरण आरुषी ने ओढ़ रखा था, उसे उतार फेंका. उस की पकड़ को उस ने और कस कर पकड़ लिया.

दोनों ने मन ही मन इस रिश्ते पर स्वीकृति की मुहर लगा दी. आरुषी के चेहरे पर वही भाव थे जो अब से 15 साल पहले तब आए थे जब राघव ने उसे 3 अक्षर के साथ प्रेम का इजहार किया था. वैसे ही आज उस का चेहरा खुशी से दमक उठा था, कनपटी लाल हो चुकी थी, कांपती उंगलियां बारबार चेहरे पर आ रही जुल्फों को पीछे कर रही थीं.

उस की जुल्फों को अनिरुद्ध ने कान के पीछे करते हुए कहा, ‘‘लो, मैं तुम्हारी कुछ मदद कर दे रहा हूं.’’

तब आरुषी को लगा, काश, उस का हाथ चेहरे पर ही रुक जाए, ऐसा सोचते हुए आरुषी ने अपनी आंखें बंद कर लीं.

‘‘अरु, अपनी आंखें खोलो. मुझे यह सब सपना लग रहा है. क्या तुम्हें भी कुछ ऐसा ही लग रहा है?’’

अनिरुद्ध की आवाज सुन कर मानो वह आकाश से उड़ती हुई जमीन पर आ लगी. उस की आंखें एक झटके में खुल गईं. वास्तविकता के धरातल पर आते ही उसे अपने से जुड़ी सभी बातें याद आने लगीं. अतीत की बातें याद आते ही आरुषी के माथे पर पसीने की छोटीछोटी बूंदें उभरने लगीं. उसे लगा उस के परिवार के बारे में जान कर अनिरुद्ध उसे तुरंत छोड़ देगा.

आरुषी की आंखों के आगे चुटकी बजाते हुए अनिरुद्ध बोला, ‘‘कहां खो जाती हो तुम?’’

‘‘सर, मैं आप को अपने बारे में कुछ बताना चाहती हूं,’’ आरुषी के चेहरे पर गंभीरता देख कर वह भी कुछ गंभीर हो गया और बोला, ‘‘कहो, क्या कहना चाहती हो?’’

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फीकी सी मुसकराहट के साथ आरुषी ने अपनी बात कहनी शुरू की :

‘‘मेरे पापा का नाम करण राजनाथ है. वह रिटायर सिविल इंजीनियर हैं. करीब 40 साल पहले उन का विवाह कनकलता नाम की एक लड़की से हुआ था. वह लड़की रूपरंग में बेहद साधारण थी. विवाह के कुछ समय बाद ही उस ने एक लड़की को जन्म दिया और उस के ठीक 1 साल बाद दूसरी लड़की को जन्म दिया. चूंकि कनकलता रूपरंग में साधारण थी और गंवार भी थी इसलिए करण राजनाथ का मन उस औरत से बिलकुल हट गया. जब वह तीसरी बार गर्भवती हुई तो करण ने उसे अपने गांव छोड़ दिया. गांव में तीसरे प्रसव के दौरान जच्चाबच्चा दोनों की मृत्यु हो गई.

‘‘अब करण राजनाथ की दोनों बेटियां अकेली रह गईं. करण राजनाथ की दोनों बेटियों में बड़ी बेटी मैं हूं और छोटी बेटी मेरी बहन है. मेरी मां को गुजरे अभी कुछ महीने ही बीते थे कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली. उन का नाम अर्चना है और हम उन्हें मौसी कह कर बुलाते हैं. पहले तो उन्होंने हमें प्यार नहीं किया पर जब पता चला कि वह मां नहीं बन सकतीं तो उन्होंने हमें प्यार देना शुरू कर दिया.

Women’s Day- अपना घर: भाग 3

चाह कर भी अभिषेक जिया के व्यवहार में जो बदलाव आया है उसे समझ नहीं पा रहा था. वह रात को भी घंटों लैपटौप पर बैठ कर न जाने क्या करती रहती. अभिषेक जैसे ही उसे आवाज देता, वह घबरा कर लैपटौप बंद कर देती. अभिषेक जितना उस के करीब जाने की कोशिश करता वह उतना ही उस से दूर जा रही थी.

न जाने वह क्या था जिस के पीछे जिया पागल हो रही थी. जिया के भाई ने भी उस दिन अभिषेक को फोन पर कहा, ‘‘आजकल जिया घर पर फोन ही नहीं करती. सब ठीक है न?’’

अभिषेक ने कहा, ‘‘नहीं आजकल औफिस में बहुत काम है.’’

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. अब अभिषेक और जिया दोनों के मातापिता की इच्छा थी कि वे अपने परिवार को आगे बढ़ाएं.

आज फिर से उन की शादी की सालगिरह का जश्न था पर आज लीला ने खुद दावत रखी थी. जिया ने एक बहुत ही खूबसूरत प्याजी रंग की स्कर्ट और कुरती पहनी हुई थी. अभिषेक की नजरें उस से हट ही नहीं रही थी. सब लोग उन्हें छेड़ रहे थे कि वे खुशखबरी कब दे रहे हैं.

रात को एकांत में जब अभिषेक ने जिया से कहा कि जिया मेरा भी मन है, तो जिया ने अनमने ढंग से कहा कि वह तैयार नहीं है.

रात में भी अभिषेक को ऐसा लगा जैसे उस के पास बस जिया का शरीर है. अभिषेक रातभर सो नहीं पाया.

आज वह हर हाल में जिया से बात करना चाहता था, पर जब वह सुबह उठा, जिया औफिस के लिए निकल चुकी थी. अभिषेक को कुछ समझ नहीं आ रहा था. ऐसा लगता था, जिया उस के साथ हो कर भी उस के साथ नहीं है, वह हर हफ्ते उस के साथ कोई न कोई प्लान बनाता पर जिया को तो रविवार में भी कोई न कोई औफिस का काम हो जाता था. उन दोनों के बीच एक मौन था, जिसे वह चाह कर भी नहीं तोड़ पा रहा था. अभिषेक को अपनी वह पुरानी जिया चाहिए थी पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था.

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देखते ही देखते फिर दीवाली आ गई. पूरा शहर रोशनी से जगमगा रहा था. आज अभिषेक को बहुत दिनों बाद जिया का चेहरा रोशनी से खिला दिखा.

जिया ने अभिषेक से कहा, ‘‘अभिषेक, आज मुझे तुम से कुछ कहना है और कुछ दिखाना भी है.’’

अभिषेक उस की तरफ प्यार से देखते हुए बोला, ‘‘जिया, कुछ भी बोलना बस यह मत बोलना तुम्हें मुझ से प्यार नहीं है.’’

जिया खिलखिला कर हंस पड़ी और फिर बोली, ‘‘तुम पागल हो क्या, तुम ने ऐसा सोचा भी कैसे?’’

अभिषेक मुसकरा दिया. बोला, ‘‘लेकिन तुम मुझे पिछले 1 साल से नैगलैक्ट कर रही हो, हम एकसाथ कहीं भी नहीं गए.’’

जिया बोली, ‘‘पता नहीं तुम्हें समझ आएगा या नहीं पर मैं पिछले 1 साल से अपनी पहचान और अपने वजूद, अपनी जड़ें ढूंढ़ रही थी?’’

अभिषेक को कुछ समझ नहीं आ रहा था. जिया ने गुलाबी और नारंगी चंदेरी सिल्क की साड़ी पहनी हुई थी. साथ में कुंदन का मेल खाता सैट, हीरे के कड़े और ढेर सारी चूडि़यां. आज उस के चेहरे पर ऐसी आभा थी कि सब लोग उस के आगे फीके लग रहे थे. रंगोली बनाने के बाद जिया ने अभिषेक को उस के साथ चलने को कहा, तो अभिषेक कार की चाबी उठा चल पड़ा.

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जिया हंस कर बोली, ‘‘आज मैं तुम्हें अपने साथ अपनी कार में ले कर चलना चाहती हूं.’’

अभिषेक चल पड़ा. थोड़ी ही देर में कार हवा से बातें करने लगी और कुछ देर बाद कार नई बस्ती की तरफ चलने लगी. कार ड्राइव करते हुए जिया बोली, ‘‘अभिषेक, आज मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. तुम ने हमेशा हर तरह से मेरा खयाल रखा पर बचपन से मेरा एक सपना था जो मेरी आंखों में पलता रहा. मांपापा ने कहा कि तुम्हारा घर वह होगा, जहां तुम जा कर एक घर बनाओगी. तुम मिले, तो लगा मेरा सपना पूरा हो गया, पर अभिषेक कुछ दिनों बाद समझ आ गया कि कुछ सपने होते हैं जो साझा नहीं होते. शादी का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे सपनों का बोझ तुम्हारा जीवनसाथी भी उठाए. मुझे तुम से या किसी से भी कोई शिकायत नहीं है. पर अभिषेक आज मेरा एक सपना पूरा हुआ है,’’ यह कह उस ने एक नई बनी सोसाइटी के सामने कार रोक दी. अभिषेक चुपचाप उस के पीछे चल पड़ा. एक नए फ्लैट के दरवाजे पर उस के नाम की नेमप्लेट लगी थी.

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अभिषेक हैरानी से देख रहा था. छोटा पर बेहद खूबसूरती से सजा हुआ प्लैट. तभी हवा का झोंका आया तो चंदेरी के फीरोजी परदे जिया के अपने घर में लहराने लगे, जहां पर उस का अधिकार घर पर ही नहीं वरन उस की आबोहवा पर भी था.

उतरन- भाग -2: पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

सपनों के साये तले रात और दिन बीतते रहे. समय पंख लगा कर उड़ रहा था. पर उस के दिमाग में रहरह कर यही सवाल कौंधता कि कौनकौन होगा उस के घर में… सोचती… पूछूं या नहीं?

परएक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘‘रचित, हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए हैं, पर अभी तक मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानती. अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न?’’

‘‘क्या जानना चाहती हो? यही न कि मैं शादीशुदा हूं या नहीं, बच्चे हैं या नहीं…? हां बच्चे हैं. पर शादीशुदा होते हुए भी मैं अकेला हूं, क्योंकि पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है. मेरे साथ मेरी मां और मेरा बेटा रहता है.’’

रूपा ने आंखें बंद कर लीं. यह सुख का क्षण था. सपने अभी जिंदा हैं… कुछ देर की मौन के बाद रचित ने पूछा, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’

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‘‘क्या तुम्हें पता है कि मेरी भी एक बेटी है? मैं एक तलाकशुदा हूं. क्या तुम्हारी फैमिली मुझे और मेरी बेटी को स्वीकार करेगी? सपनों की दुनिया बहुत कोमल होती है रचित. पर वास्तविकता का धरातल बहुत कठोर. अच्छी तरह सोच लो. फिर कोई निर्णय लेना,’’ इतना कहती गई, पर मन के किसी कोने में कुछ नया जन्म लेती महसूस कर रही थी रूपा.

कुछ तेरी कहानी है, कुछ मेरी कहानी है

हर बात खयाली है, हर बात रूहानी है

मिल जाए कभी जो हम, तो हर बात सुहानी है…

रूपा के गोरे से मुखड़े पर अठखेलियां करती लटों को हाथों हटाते हुए रचित ने उस के गालों को अपनी हथेलियों में समेट लिया और उस की मदभरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं अब तुम्हारे बगैर नहीं रह सकता रूपा. मैं सब ठीक कर दूंगा. बस तुम हां कर दो.’’

महीनों से चल रही मुलाकातों की फुहारें रूपा को आश्वासन की मधुर चासनी में सराबोर कर चुकी थीं. वह अपनेआप से अजनबी होती जा रही थी. कभी तो मन मचलता कि बारिश की बूंदों को अपनी हथेली में समेट ले. और कभी समंदर की लहरों के साथ विलीन हो जाने की विकलता. भावनाएं तूफान की तरह प्रचंड, उद्वेलित अंतर्मन की छटपटाहट ने आंखों में पानी का उबाल ला दिया. सामान्य गति से बीतते वक्त की चाल बहुत धीमी लग रही थी रूपा को, और सांसें धौंकनी की तरह तेज.

सांसों में बसे हो तुम

आंखों में बसे हो तुम

छूओ तो मुझे एकबार

धड़कन में बसे हो तुम…

समय गुजरते देर नहीं लगती. दोनों ने शादी कर ली. हालांकि रचित की मां बहुत मानमनुहार के बाद राजी हुई थीं और इस शर्त पर कि रूपा की बेटी कभी इस घर में नहीं आएगी. रूपा को बहुत बड़ा झटका लगा था. एक बार फिर से पुराने घावों का दर्द हरा हो गया था.

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अचानक ही आए इस झंझावात ने रूपा के सपनों को चकनाचूर कर दिया. विचलित सी वह सन्न रह गई. पर रचित ने यह समझा कर शांत कर दिया कि वक्त के साथ सब बदल जाते हैं. मां को हम दोनों मिल कर मना लेंगे. रूपा ने गहरी सांस ली. उस ने बड़ी मुश्किल से दिल को समझाया, होस्टल से तो बच्ची महफूज है ही. जब मन करेगा जा कर उस से मिल लूंगी. सुखद भविष्य की कामना लिए रूपा को क्या पता था कि नियति क्याक्या रंग दिखाने वाली है.

डूबता हुआ सुर्ख लाल सूरज उसे माथे की बिंदिया सी लग रही थी. एक बार फिर से सब भूल कर उस ने रचित के प्यार भरोसा कर लिया. सुख की अनुभूतियां वक्त का पता ही नहीं चलने देती. सपनों के हिंडोले में झूलते 10 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला.

‘‘कल घर लौटने का दिन है रूपा,’’ रचित ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘प्यार ने हम दोनों को बांध रखा है, वरना हम तो नदी के दो किनारे थे.’’

रूपा आसमान की ओर देखती हुई बुदबुदाई. रचित उस की आंखों में देखता कुछ पढ़ने की कोशिश करता रहा. फिर उस ने मन में अंदर चल रहे द्वंद्व को परे झटक कर रूपा की खूबसूरती को निहारने लगा. पलभर के लिए तो लगा कि काश, यह वक्त यही ठहर जाता. पर वक्त भी कभी ठहरता है भला.

साथ तुम्हारे चल कर यह अहसास हुआ

दरमियां हमारे सिर्फ प्यार, और कुछ नहीं…

अंधेरा चढ़ता गया और दोनों महकते एहसास के साथ सपनों सरीखे पलों की नशीली मादकता में विलीन. थकान से चूर कब दोनों की आगोश में समा गए, महसूस भी न हुआ. सुबह का सूरज नया दिन ले कर हाजिर हो गया. जल्दीजल्दी तैयार हो कर दोनों गाड़ी में बैठ गए और चल दिए घर की ओर.

घर पहुंचते ही सब से पहला सामना रचित के बेटे प्रथम से हुआ. उस की नजरें क्रोध और हिकारत से भरी हुई थीं. दोनों को देखते ही वह अंदर के कमरे में चला गया. रूपा के चेहरे पर सोच की लकीरें उभर आईं. तो क्या प्रथम की रजामंदी के बगैर शादी हुई है? जबकि मैं ने तो अपनी बेटी को बताया था कि रचित की मम्मी शादी के लिए तैयार हैं, पर शर्त रखी है कि तुम मेरे साथ उन लोगों के साथ नहीं रहोगी. ये सुन कर भी मेरी बेटी ने तो नाराजगी नहीं जताई. बल्कि उम्मीद से कहीं आगे बढ़ कर बोली, ‘‘मां, अभी भी तो हम साथ नहीं रहते. तुम मुझ से मिलने होस्टल तो वैसे भी आती रहती हो.’’

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बच्ची को याद कर के रूपा की आंखें भर आईं. धीरेधीरे खुद को सामान्य कर सास के पास गई. लेकिन सास की बेरुखी ने तो दिल ही बैठा दिया. एक बार फिर से रूपा ने दिल को बहलाया. कोई बात नहीं. रचित तो समझता है न मुझे. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.

रूपा एक सपना देख रही है. वह है, उस की बच्ची है, रचित और प्रथम है. एक बहुत ही प्यारा सा, रंगीन सा प्रथम और बच्ची गोद में सोई है. रचित और मां उस के बगल में बैठे हैं. सभी बहुत खुश हैं.

अचानक नींद से जग जाती है रूपा. चारों तरफ देखती है…

ऐसा सपना, जिस का जाग्रत अवस्था से कोई संबंध नहीं. लेकिन सपने की खुशी उस के चेहरे पर झलक आती है. कभी न कभी यह सपना भी सच होगा, जरूर होगा.

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उतरन- भाग 1: पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

लेखिका- कात्यायनी सिंह

रहरहकर उस का दिल धड़क रहा था. मन में उठते कई सवाल उस के सिर पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. यह क्या हो गया? भूल किस से हुई? या भूल हुई भी तो क्यों हुई? मन में उभरते इन सवालों का दंश झेल पाना मुश्किल हो रहा था. अभी बेटी के होस्टल में पहुंचने में तकरीबन 3 घंटे का समय था. बस का झेलाऊ सफर और उस पर होस्टल से किया गया फोन कि आप की बेटी ने आत्महत्या करने की कोशिश की है…

अपने अंदर झांकने की हिम्मत नहीं हुई. स्मृति पटल पर जमी कई परतें, परत दर परत सामने आने और ओझल होने लगीं. दिल बैठा जा रहा था. अवसाद गहरा होता जा रहा था. तन का बोझ भी सहना मुश्किल और आंखों से बहती अविरल धारा…

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वह खिड़की के सहारे आंखें मूंदे, दिल और दिमाग को शांत करने की कोशिश करने लगी. पर एकएक स्मृति आंखों में चहलकदमी करती हुई सजीव होने लगी. वह घबरा कर खिड़की से बाहर देखने लगी. आंखों की कोरों पर बांधा गया बांध एकाएक टूट कर प्रचंड धारा बन गया. यों तो जिंदगी करवट लेती है, पर इस तरह की उस का पूरा वजूद दूसरी शादी के नाम पर स्वाह हो जाए. क्योंकि उस ने दूसरी शादी? क्या मिला उसे? स्वतंत्र वजूद की चाहत भी तो अस्तित्वहीन हो गई?

पर समाज का तो एक अलग ही नजरिया होता है. तलाकशुदा स्त्री को देख लोगों की आंखों में हिकारत का कांटा चुभ सा जाता है. और उस कांटे को निकालने के लिए ही तो रूपा ने दूसरी शादी की.

पहली शादी और तलाक को याद कर मन कसैला नहीं करना चाहती अब. पर न चाहने से क्या होता है. तलाक के 10 साल पहले ही बेटी उस की गोद में आ चुकी थी. शादी के 2 दिन बाद ही सपने बिखरने की आहट सुनाई देने लगी थी. सुनहरे दिन और सपनों में नहाई रात, सब इतनी भयावह कैसे हो गई? वह आज तक समझ नहीं पाई.

हर रोज की मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना उसे जिंदगी से बेजार करने लगी थी और उस के नीचे कराहता उमंगों भरा मन. पहलेपहल भरपूर विरोध किया रूपा ने. पर दिन, महीने और 7 साल बीतते चले गए और उस का धैर्य क्षीण होता रहा. पर एक दिन… उसी विरोध के महीन परतों के नीचे ज्वालामुखी के असंख्य कण फूट पड़े. और अंतत: उसे तलाक की पहल भी करनी पड़ गई…

2 साल लगे इस अनचाही पीड़ादायी परिस्थिति से नजात पाने में. तलाक के बाद बेटी को साथ ले कर वो एक अनजान सफर पर निकल गई. मंजिल उस को पता नहीं थी. इस असमंजस की स्थिति के बावजूद वह तनावमुक्त महसूस कर रही थी खुद को. आखिर 2 सालों के संघर्ष ने नारकीय जीवन से मुक्ति जो दिलाई थी. कुदरत ने मेहरबानी दिखाई और 1 हफ्ते में ही रेडियो स्टेशन में नौकरी लग जाने के कारण उसे कोई आर्थिक तंगी का एहसास नहीं हुआ. और फिर मायके का सहारा भी संबल बना.

उगते सूरज की लालिमा उस के गालों पर उतरने लगती थी, जब रेडियो स्टेशन में उसे एक पुरुष प्यार से देखता था. अच्छा लगता था उसे यों किसी का देखना. 2 वर्ष का अकेलापन ही था, जो अनजान पुरुष को देख कर पिघलने लगा.

पिछली यादों में तड़पता उस का मन कहता कि मुझे इस सुख की आशा नहीं करनी चाहिए अब. मेरे हिस्से में कहां है सुख… और अजीब सी उदासी मन को उद्वेलित करने लगती.

उफ्फ, यह अचानक आज मुझे क्या हो रहा है? 2 सालों के अकेलेपन में कभी भी इस तरह का खयाल नहीं आया. अकेलापन, उदासी, सबकुछ अपनी बेटी की मुसकान तले दब चुकी थी. फिर आज क्यों? जबकि उस ने तलाक के बाद किसी भी पुरुष को अपने दायरे के बाहर ही रखा. अंदर आने की इजाजत नहीं दी किसी को. पर आज इस पुरुष को देख कर क्यों तपते रेगिस्तान में बारिश की बूंदों जैसा महसूस हो रहा है.

‘क्या ये कोई स्वप्न है या फिर पिछले जन्म का साथ. क्यों मेरी नजरें बारबार उस की ओर उठ रही हैं? क्यों वह उसे अनदेखा नहीं कर पा रही है? मन में एक सवाल- क्या कुदरत को कुछ और खेल खेलना है? इसी उधेड़बुन में शाम हो गई,’ उस ने अपने बैग को कंधे पर लटकाया और बाहर निकल आई.

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पूस की सर्दी में भी उस के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला रही थीं. चेहरे पर शर्म भरी मुसकराहट खिल उठी. तो क्या उसे प्यार हो गया है? एकाएक उस की मुद्रा ने गंभीरता का आवरण ओढ़ लिया. सोचने लगी, ‘उस का मकसद तो सिर्फ और सिर्फ अपनी बेटी का भविष्य बनाना है. नहींनहीं, वह इन फालतू के बातों में नहीं पड़ेगी.’

तभी उसे एक आवाज ने चौंका दिया, ‘‘चलिए मैं आप को घर छोड़ देता हूं. कब तक यहां खड़ी रह कर रिकशे का इंतजार करेंगी. अंधेरा भी तो गहरा रहा है.’’

पलट कर देखा तो वही पुरुष था, जो उस के दिलोदिमाग पर छाया हुआ था. वैसे अंधेरे की आशंका तो उस के मन में भी थी. वह बिना कुछ जवाब दिए उस की कार में बैठ गई. मध्यम स्वर में गाना बज रहा था-

धीरेधीरे से मेरी जिंदगी में आना

धीरेधीरे से दिल को चुराना…

वह चुपचाप बैठ बाहर के अंधेरे में झांकने की असफल कोशिश रही थी. तभी उस ने हंस कर पूछा, ‘‘अंधेरे से लड़ रही हैं या मुझे अनदेखा कर रही हैं?’’

वह भी मुसकरा दी, ‘‘अपने वजूद को तलाश रही हूं. आप घुसपैठिए की तरह

जबरदस्ती घुस आए हैं, इसी समस्या के निवारण में जुटी हूं.’’

खिलखिला कर हंस पड़ा वह. लगा जैसे चारों तरफ हरियाली बिखर गई हो. इन्हीं बातों के दरमियान घर आ गया और वह बिना कुछ कहे गाड़ी से उतर कर जाने लगी. तभी उस ने विनती भरे स्वर में उस का मोबाइल नंबर मांगा. पहले तो वह झिझकी, लेकिन फिर कुछ सोच कर नंबर दे दिया.

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दिन बीतने के साथ बातों का और फिर मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह नहीं चाहती थी कि रचित हर शाम उस से मिलने आए. क्योंकि एक तो बदनामी का डर और दूसरी तरफ बेटी जिस की नजरों का सामना करना मुश्किल होता. मन की आशंकाएं उसे परेशान करती कि उस के जानने के बाद, क्या वह बेझिझक उस के सामने जा पाएगी? पर दफ्तर के बाद का खाली समय उसे काटने दौड़ता. झिझक और असमंजस के बीच वह मिलने का समय होते ही उस के आने की राह भी देखती.

तेरे वादों पर हम एतबार कर बैठे

ये क्या कर बैठे, हाय क्या कर बैठे

एक बार मुसकरा कर देख क्या लिए

सारी जिंदगी हम तेरे नाम कर बैठे…

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उतरन- भाग 3: पुनर्विवाह के बाद क्या हुआ रूपा के साथ?

देखती है पलट कर रचित को. नींद में बच्चों सा मासूम, प्यार से अपने गुलाबी होंठ उस के माथे पर टिका देती है. रचित के माथे पर भावनाओं का गुलाबी अंकन देख कर खुद शरमा भी जाती है रूपा. फिर उठ कर चल देती है किचन की ओर. नजदीक पहुंचते ही बरतनों की आवाज सुन कर चौंक गई. अंदर घुसते ही देखती है कि रचित की मां नाश्ता बना रही हैं.

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‘‘मां, मैं बना देती हूं न…’’ सुनते ही सास किचन से बाहर निकल गई. सब समझते हुए भी रूपा ने खुद को संयत रख कर बाकी काम निबटाया और नाश्ता ले कर प्रथम के कमरे में दाखिल हुई. बेखबर सो रहे प्रथम को कुछ देर अपलक देखती रही. फिर बड़े प्यार से धीरेधीरे बाल सहलाते हुए बोली, ‘‘उठो प्रथम बेटा, स्कूल नहीं जाना क्या आज?’’ रूपा की आवाज कानों में पड़ते ही वह घबरा कर जाग गया और अजीब सी नजरों से घूरने लगा. पता नहीं क्यों इतना असहज कर रहा था उस का इस तरह घूरना? नफरत ऐसी कि आंखों में अंगारे दहक रहे हों.

‘‘आप फिर से मेरे कमरे में आ गईं? एक बात हमेशा याद रखिए कि आप सिर्फ पापा की पत्नी हैं, मेरी मम्मी नहीं. मेरी मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता. कोई भी नहीं.’’

स्तब्ध रह गई थी रूपा. रात का सुनहरा सपना ताश के पत्तों की तरह बिखरता नजर आ रहा था उसे. लगभग दौड़ती हुई वह कमरे से बाहर निकल गई.

ऊपर से सब कुछ सामान्य दिख रहा था, पर समय के साथ रचित में भी बदलाव आने लगा. दिनभर औफिस और घर के काम से थक कर चूर हो जाने के बावजूद रात में बिस्तर पर नींद का नामोनिशान तक नहीं. रचित से भी वो अब कुछ नहीं कहती. बस अपनी एक बात उसे अचंभित कर जाती थी. जिस घुटन और प्रताड़ना के विरुद्ध वह महीनों लड़ी, वह घुटन और प्रताड़ना अब उसे उतना विचलित नहीं करती थी. समय और उम्र समझौता करना सिखा देता है शायद.

आज सुबह से मन उद्विग्न हो रहा था बारबार. रहरह कर दिल में एक अजीब सी टीस महसूस हो रही थी. जैसेतैसे काम खत्म कर के चाय पीने बैठी ही थी कि दीया के होस्टल से फोन आ गया. चकोर को चांद मिल जाने खुशी मिल गई हो जैसे.

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लेकिन यह क्या, मोबाइल से बात करते हुए उस के चेहरे पर दर्द का प्रहार महसूस कर सकता था कोई भी. कुछ देर के लिए तो वह मोबाइल लिए हतप्रभ सी बैठी रही. फिर अचानक बदहवास सी उठी और निकल गई बस स्टैंड की ओर.

होस्टल के गेट पर पहुंची तो काफी भीड़ दिखी. अनहोनी की आशंका उस के दिलोदिमाग को आतंकित करने लगी. अंदर जा कर देखा तो बेटी को जमीन पर लिटाया गया था. बेसब्री के साथ पास में बैठ गई और बड़े प्यार से पुकारी,

‘‘दीया बेटे.’’

कोई जवाब नहीं…

शरीर पकड़ कर हिलाया.

रूपा को तो जैसे करंट लग गया हो. इतना ठंडा और अकड़ा हुआ क्यों लग रहा है दीया का बदन. तो क्या?

नहीं…

ऐसा कैसे हो सकता है?

क्यों…?

किंतु अशांत धड़कता दिल आश्वस्त नहीं हो पा रहा था. वह निर्निमेष भाव से अपनी प्यारी परी को देखे जा रही थी. वही मोहक चेहरा…

तभी किसी ने उस के हाथों में एक कागज का टुकड़ा थमा दिया. यह कह कर कि आप की बेटी ने आप के नाम पत्र लिखा है.

डबडबाई आंखों से पत्र पढ़ने लगी-

‘दुनिया की सब से प्यारी ममा…’

आप को खूब सारा प्यार

आप को खूब सारी खुशियां मिले. सौरी ममा, मैं आप से मिले बगैर जा रही हूं. ये दुनिया बहुत खराब है ममा. तुम्हारे तलाक और शादी को ले कर बहुत गंदीगंदी बातें करते थे स्कूल के स्टूडैंट्स. कहते थे तेरी मां… छोड़ न मां.

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मैं जानती हूं तुम्हारे बारे में. लेकिन मां, मैं तंग आ गई थी उन के तानों से.

तुझ से नहीं बताया कि तू इतनी खुश है, परेशान हो जाओगी ये सब जान कर. मां, अब मुझे कोई परेशान नहीं करेगा. और तुम भी शांति से रह पाओगी.

हमेशा खुश रहना मां.

‘-तुम्हारी परी दीया.’

वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. अचेत हो कर लुढ़क गई रूपा. पर उस अर्ध चेतनावस्था में भी वह मंदमंद मुसकरा रही थी.

वह अचानक उठ कर बैठ गई और खूब जोर से हंस पड़ी. उसे लगा वह तो न नए पति और उस के बच्चे की बन पाई न ही अपनी वाली को संभाल पाई. मां बनने की इतनी बड़ी कीमत देनी होगी इस का अंदाजा नहीं था.

दिल चिथड़े कर डालने वाली हंसी…

अगला दिन…

दुनिया के लिए एक सामान्य दिन जैसा ही सवेरा था.

सिवाय रूपा के…

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