व्रत – भाग 2 : वर्षा को क्या समझ आई पति की अहमियत

एक दिन वर्षा ने साईं बाबा का व्रत रखा हुआ था. उस दिन अनिल की छुट्टी थी और वह घर पर ही था. उस दिन वर्षा न अन्न ग्रहण करती थी और न किसी खट्टी चीज को हाथ ही लगाती थी. कोई 3 बजे के करीब वर्षा का सिर चकराने लगा और दिल घबराने लगा. अनिल ने उसे फल लेने को कहा, किंतु उस का व्रत तो व्रत ही होता था. व्रत वाले दिन वह कोई भी चीज ग्रहण नहीं करती थी और उस के कथनानुसार, वह पक्का व्रत रखती थी.

वर्षा को शौचालय जाना था. जाते समय उसे जोर से चक्कर आया और वहीं गिर गई. अनिल ने किसी चीज के गिरने की आवाज सुनी तो दौड़ा. उस ने देखा कि वर्षा जमीन पर गिरी पड़ी है. उस के सिर पर चोट लग गई थी और सिर से खून बह रहा था. उस ने उसे अपनी बांहों में उठाया और पलंग पर लिटा दिया. उसे हिलायाडुलाया, किंतु उसे जरा भी होश न था. उस ने शीघ्रता से थोड़े से पानी में ग्लूकोस घोल कर चम्मच से उस के मुंह में डाला. 4-5 चम्मच ग्लूकोस उस के गले से नीचे उतरा तो वर्षा ने आंखें खोल दीं. जैसे ही उसे यह ज्ञात हुआ कि उस के मुंह में ग्लूकोस डाला गया है, वह रोने लगी और अनिल को कोसने लगी कि उस ने उस का व्रत खंडित कर दिया है और उसे पाप लगेगा.

‘‘पाप लगता है तो लगे, मैं तुम्हें भूखी नहीं मरने दूंगा,’’ अनिल ने कहा.

‘‘व्रत रख कर भूखी मर जाऊंगी तो मोक्ष प्राप्त होगा. जन्ममरण के बंधन से मुक्त हो जाऊंगी,’’ वर्षा ने श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा.

‘‘तुम्हें चक्कर क्यों आया, यह भी जानती हो? तुम्हारे पेट में कुछ नहीं था, इसीलिए चक्कर आया था.’’

‘‘मुझे ग्लूकोस पिला कर तुम ने मेरा व्रत तोड़ दिया है, अब संतोषी मां के 10 व्रत और रखने पड़ेंगे.’’

‘‘मैं पूछता हूं कि ये साईं बाबा पहले कहां थे? पहले तो हम ने इस देवता का कभी नाम भी नहीं सुना था. ये अचानक कहां से आ गए? और फिर इन के भक्तों का भी पता नहीं चलता. आंखें मूंद कर भेड़चाल चलने लग जाते हैं अंधविश्वासी कहीं के,’’ अनिल ने तर्क दे कर कहा. उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि वर्षा कैसे भूखी रह लेती है. हफ्ते में 7 दिन होते हैं और इतने ही वह व्रत रख लेती है. मंगल को व्रत, शुक्रवार को व्रत. इस बीच सोमवती अमावस्या, पूर्णमासी, एकादशी, द्वादशी, करवाचौथ, महालक्ष्मी…सभी तो व्रत रख लेती है वह. व्रत…व्रत…व्रत…हर रोज व्रत. वह बहुत दुखी हो चुका था वर्षा के व्रतों से.

साल में 2 बार नवरात्रे आते. उन दिनों में अनिल की शामत आ जाती. घर में खेती कर दी जाती और सब्जीतरकारी में प्याज का इस्तेमाल बंद हो जाता, जिस से अनिल को तरकारी में जरा भी स्वाद नहीं आता था. वहीं, जरा सी ही कोई प्यार की बात की तो उसे कोप से डराया जाता. उसे खेती से दूरदूर रहने का आदेश दिया जाता. चाहे कितनी भी सर्दी हो, उन दिनों वर्षा अवश्य ही तड़के सुबह स्नान करती और अनिल को भी नहाने के लिए मजबूर कर देती. एक तो वर्षा का शरीर पहले ही कमजोर था, उस पर ठंडे पानी से स्नान. कई बार उसे जुकाम हुआ, सर्दी लग कर बुखार भी हुआ, किंतु उस ने नहाना न छोड़ा.

कई बार अनिल ने वर्षा से गंभीर हो कर व्रत रखने के लाभ पूछे. वह यही जवाब देती, ‘इस से पुण्य होता है, देवीदेवता खुश होते हैं.’ क्या पुण्य होता है, यह वह कभी न बता पाती. हां, लक्ष्मी के व्रत रखने से धन की प्राप्ति होती है, यह अवश्य बता दिया करती थी. किंतु दफ्तर के मासिक वेतन के अतिरिक्त अनिल को कभी और कहीं से धन की प्राप्ति नहीं हुई थी.

एक बार उस ने वर्षा से पूछा, ‘‘तुम पूर्णमासी का जो व्रत रखती हो और सत्यनारायण की कथा सुनती हो, इस में है क्या? इस में सत्यनारायण की कथा नाम की तो कोई चीज ही नहीं है. सिवा इस के कि अमुक ने सत्यनारायण का प्रसाद नहीं लिया तो उसे अमुक कष्ट हुआ. इस के अतिरिक्त इस कथा में कुछ भी नहीं लिखा है?’’

‘‘यही तो कथा है. अगर तुम भी पूर्णमासी का व्रत रख कर सत्यनारायण की कथा सुनो तो तुम्हारी तरक्की हो सकती है, धनदौलत में वृद्धि हो सकती है,’’ वर्षा ने समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे इस की जरूरत नहीं है. तरक्की बारी आने पर ही होती है. जब बारी आएगी तो हो जाएगी. इस से पहले कभी नहीं हो सकती चाहे तुम कितने ही व्रत रखो. और तुम देवीदेवताओं के जो व्रत रखती आ रही हो, उन का चमत्कार मैं ने तो आज तक नहीं देखा,’’ अनिल ने टिप्पणी की.

‘‘कैसा चमत्कार देखना चाहते हो?’’

‘‘ऐसा चमत्कार कि असंभव संभव हो जाए, जैसे कि तुम्हारी लौटरी निकल आए, मुझे कहीं से बनाबनाया मकान मिल जाए, मेरी अचानक तरक्की हो जाए.’’?

‘‘ऐसे चमत्कार नहीं होते.’’

‘‘तो फिर व्रत रखरख कर अपने शरीर को कष्ट देने से क्या लाभ? जो मिलना होगा, वह अवश्य मिलेगा. जो नहीं मिलना, वह नहीं मिलेगा.’’

‘‘तुम फिर नास्तिकों वाली बातें करने लगे?’’

‘‘मेरा तो यही कहना है कि व्रतों में कुछ नहीं रखा है, श्राद्धों में कुछ नहीं धरा है. इंसान को अच्छे काम करने चाहिए, उन का फल हमेशा अच्छा होता है.’’

‘‘मैं भी इस से सहमत हूं.’’

‘‘तो फिर व्रत…’’ अभी अनिल की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि वर्षा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘अच्छा, अब तुम मुझे व्रत रखने के लिए रोक मत देना. मेरी हर देवीदेवता में श्रद्धा है और उन पर पूरी आस्था है. मेरी आस्था तुड़वाने की कोशिश मत करना.’’ इतना कह कर वह गुस्से में उठ कर चली गई.

उस दिन करवाचौथ का व्रत था. हर ब्याहता स्त्री पति की लंबी उम्र के लिए यह व्रत रखती है. इस व्रत में तड़के 4 बजे खाना खाया जाता है. सारा दिन पानी तक ग्रहण करने की मनाही होती है. यह व्रत कड़ा व्रत माना जाता है. रात को जब चांद निकलता है, तब औरतें चांद को देख कर अर्ध्य देती हैं और फिर अन्नजल ग्रहण करती हैं. वर्षा ने सुबह उठ कर स्नान किया, फिर सरगी खाई. अनिल को भी उठाया. उस ने भी थोड़ाबहुत खाया और फिर दोनों सो गए. सुबह व्रत आरंभ हो चुका था. चूंकि अनिल ने सुबह कुछ खा लिया था, इसलिए खाने की इच्छा नहीं थी. वर्षा तो पूजा करने बैठ गई, अनिल ने स्वयं ही एक कप चाय बनाई और पी कर दफ्तर चला गया.

शाम को दफ्तर से छुट्टी कर के वह एक्टिवा पर आ रहा था कि पीछे से एक ट्रक वाले ने उसे टक्कर मारी. उस की एक्टिवा ट्रक के भारी पहियों के नीचे आ कर चकनाचूर हो गई और वह उछल कर पटरी पर जा गिरा. पत्थर से सिर टकराया और खून के फौआरे छूट पड़े. वह गिरते ही बेहोश हो गया. लोगों की भीड़ लग गई. ट्रकचालक को पकड़ लिया गया. पुलिस आई और चालक को पकड़ कर थाने ले गई. अनिल को तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया. किसी ने उस की जेब में से मोबाइल ढूंढ़ निकाला और पत्नी को फोन कर दिया. वर्षा ने अपने पति की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखा था. उस से यह दुखद समाचार सहन न हो सका. एक तो वह दिनभर की भूखीप्यासी थी, ऊपर से यह वज्रपात. दुर्घटना का समाचार सुनते ही वह बेहोश हो कर गिर पड़ी. उस की पड़ोसिनों को जब पता चला तो सभी दौड़ी आईं. बड़ी मुश्किल से उसे होश में लाया गया. जब उस की हालत कुछ सुधरी तो एक पड़ोसिन के साथ वह अस्पताल पहुंची. अनिल की हालत नाजुक थी. वह अभी तक अचेत पड़ा था. वर्षा दहाड़े मारमार कर रोने लगी. डाक्टरों ने अनिल को होश में लाने की कोशिश की. 3 घंटे बाद उस ने आंखें खोलीं. दर्द के मारे वह चिल्लाने लगा. पीठ और टांगों पर प्लास्टर बांध दिया गया और सिर में 3 टांके लगे.

वर्षा को जब यह पता चला कि अब उस का पति खतरे से बाहर है तो उस ने अनदेखी शक्ति का इस बात के लिए धन्यवाद किया कि उस ने उस के पति की जान बख्श दी. फिर करवाचौथ के व्रत की महानता का गुणगान करने लगी जिस के कारण उस के पति की आयु सचमुच लंबी हो गई थी. यह भगवान कैसा है जो पहले उस के पति को ट्रक से टक्कर लगवा कर अस्पताल भिजवाता है और अब धन्यवाद का पात्र बनता है. धन्यवाद तो डाक्टर व अस्पताल को देना चाहिए जिन्होंने उस के पति की जान बचा ली. वह घर पहुंची. चांद कभी का निकल चुका था. उस ने चांद को अर्ध्य दिया और मुंह में केवल सेब का एक टुकड़ा ही डाला और व्रत खोल लिया. रातभर उसे किसी करवट चैन न मिला. वह रातभर रोती रही और अपने पति की सेहत के लिए चिंतित रही. वह रात उस की सब से दुखद रात थी.

औकात से ज्यादा: क्या करना चाहती थी निशा

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परी हूं मैं – भाग 1 : तरुण ने दिखाई मुझे मेरी औकात

जिस रोज वह पहली बार राजीव के साथ बंगले पर आया था, शाम को धुंधलका हो चुका था. मैं लौन में डले झूले पर अनमनी सी अकेली बैठी थी. राजीव ने परिचय कराया, ‘‘ये तरुण, मेरा नया स्टूडैंट. भोपाल में परी बाजार का जो अपना पुराना घर था न, उसी के पड़ोस में रमेश अंकल रहते थे, उन्हीं का बेटा है.’’ सहजता से देखा मैं ने उसे. अकसर ही तो आते रहते हैं इन के निर्देशन में शोध करने वाले छात्र. अगर आंखें नीलीकंजी होतीं तो यह हूबहू अभिनेता प्राण जैसा दिखता. वह मुझे घूर रहा था, मैं हड़बड़ा गई.

‘‘परी बाजार में काफी अरसे से नहीं हुआ है हम लोगों का जाना. भोपाल का वह इलाका पुराने भोपाल की याद दिलाता है,’’ मैं बोली.

‘‘हां, पुराने घर…पुराने मेहराब टूटेफूटे रह गए हैं, परियां तो सब उड़ चुकी हैं वहां से’’, कह कर तरुण ने ठहाका लगाया. तब तक राजीव अंदर जा चुके थे.

‘‘उन्हीं में से एक परी मेरे सामने खड़ी है,’’ लगभग फुसफुसाया वह…और मेरे होश उड़ गए. शाम गहराते ही आकाश में पूनम का गोल चांद टंग चुका था, मुझे

लगा वह भी तरुण के ठहाके के साथ खिलखिला पड़ा है. पेड़पौधे लहलहा उठे. उस की बात सुन कर धड़क गया था मेरा दिल, बहुत तेजी से, शायद पहली बार.

उस पूरी रात जागती रही मैं. पहली बार मिलते ही ऐसी बात कोई कैसे कह सकता है? पिद्दा सा लड़का और आशिकों वाले जुमले, हिम्मत तो देखो. मुझे गुस्सा ज्यादा आ रहा था या खुशी हो रही थी, क्या पता. मगर सुबह का उजाला होते मैं ने आंखों से देखा.

उस की नजरों में मैं एक परी हूं. यह एक बात उस ने कई बार कही और एक ही बात अगर बारबार दोहराई जाए तो वह सच लगने लगती है. मुझे भी तरुण की बात सच लगने लगी.

और वाकई, मैं खुद को परी समझने लगी थी. इस एक शब्द ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. इस एक शब्द के जादू ने मुझे अपने सौंदर्य का आभास करा दिया और इसी एक शब्द ने मुझे पति व प्रेमी का फर्क समझा दिया.

2 किशोरियों की मां हूं अब तो. शादी हो कर आई थी तब 23 की भी नहीं थी, तब भी इन्होंने इतनी शिद्दत से मेरे  रंगरूप की तारीफ नहीं की थी. परी की उपमा से नवाजना तो बहुत दूर की बात. इन्हें मेरा रूप ही नजर नहीं आया तो मेरे शृंगार, आभूषण या साडि़यों की प्रशंसा का तो प्रश्न ही नहीं था.

तरुण से मैं 1-2 वर्ष नहीं, पूरे 13 वर्ष बड़ी हूं लेकिन उस की यानी तरुण की तो बात ही अलहदा है. एक रोज कहने लगा, ‘मुझे तो फूल क्या, कांटों में भी आप की सूरत नजर आती है. कांटों से भी तीखी हैं आप की आंखें, एक चुभन ही काफी है जान लेने के लिए. पता नहीं, सर, किस धातु के बने हैं जो दिनरात किताबों में आंखें गड़ाए रहते हैं.’

‘बोरिंग डायलौग मत मारो, तरुण,’ कह कर मैं ने उस के कमैंट को भूलना चाहा पर उस के बाद नहाते ही सब से पहले मैं आंखों में गहरा काजल लगाने लगी, अब तक सब से पहले सिंदूर भरती थी मांग में.

तरुण के आने से जानेअनजाने ही शुरुआत हो गई थी मेरे तुलनात्मक अध्ययन की. इन की किसी भी बात पर कार्य, व्यवहार, पहनावे पर मैं स्वयं से ही प्रश्नोत्तर कर बैठती. तरुण होता तो ऐसे करता, तरुण यों कहता, पहनता, बोलता, हंसताहंसाता.

बात शायद बोलनेबतियाने या हंसतेहंसाने तक ही सीमित रहती अगर राजीव को अपने शोधपत्रों के पठनपाठन हेतु अमेरिका न जाना पड़ता. इन का विदेश दौरा अचानक तय नहीं हुआ था. पिछले सालडेढ़साल से इस सैमिनार की चर्चा थी यूनिवर्सिटी में और तरुण को भी पीएचडी के लिए आए इतना ही वक्त हो चला है.

हालांकि इन के निर्देशन में अब तक दसियों स्टूडैंट्स रिसर्च कंपलीट कर चुके हैं मगर वे सभी यूनिवर्सिटी से घर के ड्राइंगरूम और स्टडीहौल तक ही सीमित रहे किंतु तरुण के गाइड होने के साथसाथ ये उस के बड़े भाई समान भी थे क्योंकि तरुण इन के गृहनगर भोपाल का होने के संग ही रमेश अंकल का बेटा जो ठहरा. इस संयोग ने गुरुशिष्य को भाई के नाते की डोर से भी बांध दिया था.

औपचारिक तौर पर तरुण अब भी भाभीजी ही कहता है. शुरूशुरू में तो उस ने तीजत्योहार पर राजीव के और मेरे पैर भी छुए. देख कर राजीव की खुशी छलक पड़ती थी. अपने घरगांव का आदमी परदेस में मिल जाए, तो एक सहारा सा हो जाता है. मानो एकल परिवार भरापूरा परिवार हो जाता है. तरुण भी घर के एक सदस्य सा हो गया था, बड़ी जल्दी उस ने मेरी रसोई तक एंट्री पा ली थी. मेरी बेटियों का तो प्यारा चाचू बन गया था. नन्हीमुन्नी बेटियों के लिए उन के डैडी के पास वक्त ही कहां रहा कभी.

यों तो तरुण कालेज कैंपस के ही होस्टल में टिका है पर वहां सिर्फ सामान ही पड़ा है. सारा दिन तो लेबोरेट्री, यूनिवर्सिटी या फिर हमारे घर पर बीतता है. रात को सोने जाता है तो मुंह देखने लायक होता है.

3 सप्ताहों का दौरा समाप्त कर तमाम प्रशंसापत्र, प्रशस्तिपत्र के साथ ही नियुक्ति अनुबंध के साथ राजीव लौटे थे. हमेशा की तरह यह निर्णय भी उन्होंने अकेले ही ले लिया था. मुझ से पूछने की जरूरत ही नहीं समझी कि ‘तुम 3 वर्ष अकेली रह लोगी?’

मैं ने ही उन की टाई की नौट संवारते पूछा था, ‘‘3 साल…? कैसे संभालूंगी सब? और रिद्धि व सिद्धि…ये रह लेंगी आप के बगैर?’’

‘‘तरुण रहेगा न, वह सब मैनेज कर लेगा. उसे अपना कैरियर बनाना है. गाइड हूं उस का, जो कहूंगा वह जरूर करेगा. समझदार है वह. मेरे लौटते ही उसे डिगरी भी तो लेनी है.’’

मैं पल्लू थामे खड़ी रह गई. पक्के सौदागर की तरह राजीव मुसकराए और मेरा गाल थपथपाते यूनिवर्सिटी चले गए, मगर लगा ऐसा जैसे आज ही चले गए. घर एकदम सुनसान, बगीचा सुनसान, सड़कें तक सुनसान सी लगीं. वैसे तो ये घर में कोई शोर नहीं करते मगर घर के आदमी से ही तो घर में बस्ती होती है.

इन के जाने की कार्यवाही में डेढ़ माह लग गए. किंतु तरुण से इन्होंने अपने सामने ही होस्टलरूम खाली करवा कर हमारा गैस्टरूम उस के हवाले कर दिया. अब तरुण गैर कहां रह गया था? तरुण के व्यवहार, सेवाभाव से निश्ंिचत हो कर राजीव रवाना हो गए.

वैसे वे चाहते थे घर से अम्माजी को भी बुला लिया जाए मगर सास से मेरी कभी बनी ही नहीं, इसलिए विकल्प के तौर पर तरुण को चुन लिया था. फिर घर में सौ औरतें हों मगर एक आदमी की उपस्थिति की बात ही अलग होती है. तरुण ने भी सद्गृहस्थ की तरह घर की सारी जिम्मेदारी उठा ली थी. हंसीमजाक हम दोनों के बीच जारी था लेकिन फिर भी हमारे मध्य एक लक्ष्मणरेखा तो खिंची ही रही.

इतिहास गवाह है ऐसी लक्ष्मणरेखाएं कभी भी सामान्य दशा में जानबूझ कर नहीं लांघी गईं बल्कि परिस्थिति विशेष कुछ यों विवश कर देती हैं कि व्यक्ति का स्वविवेक व संयम शेष बचता ही नहीं है.

परिस्थितियां ही कुछ बनती गईं कि उस आग ने मेरा, मुझ में कुछ छोड़ा ही नहीं. सब भस्म हो गया, आज तक मैं ढूंढ़ रही हूं अपनेआप को.

आग…सचमुच की आग से ही जली थी. शिफौन की लहरिया साड़ी पहनने के बावजूद भी किचन में पसीने से तरबतर व्यस्त थी कि दहलीज पर तरुण आ खड़ा हुआ और जाने कब टेबलफैन का रुख मेरी ओर कर रैगुलेटर फुल पर कर दिया. हवा के झोंके से पल्ला उड़ा और गैस को टच कर गया.

बस, एक चिनगारी से भक् से आग भड़क गई. सोच कर ही डर लगता है. भभक उठी आग. हम दोनों एकसाथ चीखे थे. तरुण ने मेरी साड़ी खींची. मुझ पर मोटे तौलिए लपेटे हालांकि इस प्रयास में उस के भी हाथ, चेहरा और बाल जल गए थे.

व्रत – भाग 1: वर्षा को क्या समझ आई पति की अहमियत

साल में 2 बार नवरात्रे आते हैं. उन दिनों में अनिल की शामत आ जाती. घर में खेती कर दी जाती औसब्जीतरकारी में प्याज का इस्तेमाल बंद हो जाता. वहीं, जरा सी ही कोई प्यार की बात की तो उसे माता रानी के कोप से डराया जाता. अनिल के दिल में यह अरमान ही रहा कि कभी उस की पत्नी उसे प्यार करने के लिए उत्साहित करे. उस ने हमेशा अनिल का तिरस्कार ही किया. अनिल कपड़े पहन कर दफ्तर जाने के लिए तैयार हो चुका था. दूसरे कमरे में उस की पत्नी वर्षा गीता का पाठ करने में मग्न थी. वह दिल ही दिल में खीझ रहा था कि उसे दफ्तर को देर हो रही है और वर्षा पाठ करने में लगी हुई है. सत्ता में नरेंद्र मोदी का फरमान लागू है, समय पर दफ्तर पहुंचने के कड़े आदेश हैं, किंतु वर्षा है कि उसे कुछ परवा ही नहीं. खाना बनने की प्रतीक्षा करूं तो देर हो जाएगी और अधिकारियों की झाड़ सुननी पड़ेगी, भूखा ही जाना होगा आज भी. उस ने एक्टिवा पर कपड़ा मारा और बाहर निकाल कर खड़ी कर दी.

वापस कमरे में आ कर बोला, ‘‘मैं आज भी भूखा ही दफ्तर चला जाऊं या कुछ खाने को मिलेगा?’’

वर्षा ने कोई उत्तर न दिया और पाठ करती रही. अनिल ने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की, फिर बड़बड़ाता हुआ एक्टिवा उठा कर भूखा ही दफ्तर चला गया. अनिल के लिए यह नई बात नहीं थी. उस की पत्नी रोज ही सुबह नहाधो कर पूजा करने बैठ जाती और वह नाश्ते के लिए चिल्लाता रहता, किंतु उस पर कोई असर न होता. उस की शादी को 8 साल हो चुके थे, किंतु अभी तक उन के यहां कोई संतान नहीं हुई थी.

पहले वह अपने मातापिता के साथ रहता था. वर्षा सुबह उठ कर पूजापाठ में लग जाती और उस की मां उसे खाना बना कर दे दिया करती थी. कुछ समय बाद उसे सरकारी फ्लैट मिल गया और वह अपनी पत्नी को ले कर फ्लैट में चला आया था. यहां आ कर उसे नई समस्या का सामना करना पड़ रहा था. अनिल को अकसर रोज भूखे ही दफ्तर जाना पड़ता था क्योंकि वर्षा पूजापाठ में लगी रहती थी, खाना कौन बनाता? उस ने कई बार उस से कहा भी था, किंतु वह कब मानने वाली थी. वह तो अपना धर्मकर्म छोड़ने को बिलकुल तैयार न थी. अनिल का विचार था कि इंसान को भगवान की आराधना नहीं, अपनी रोजीरोटी की चिंता करनी चाहिए.

वह वर्षा के रोजरोज के व्रत से भी बहुत परेशान था. आज क्या है? आज पूर्णमासी का व्रत है. आज सोमवती अमावस्या का व्रत है. आज मंगल का व्रत है. यह कहना शायद गलत न होगा कि रोज ही कोई न कोई व्रत होता था और वर्षा उसे अवश्य रखा करती थी. अनिल की उम्र 22 साल की थी और वर्षा की 20 साल. जवानी की उम्र थी, अनिल के दिल में अरमान थे, कुछ उमंगें थीं. वह अपनी पत्नी से प्यार करना चाहता था, किंतु जब भी वह उस से प्यार जताता या उसे छू भर देता तो वर्षा कहती, ‘मुझे हाथ मत लगाओ, जी, मैं आज अमुक व्रत में हूं. मुझे तो पाप लगेगा ही, तुम को भी पाप का भागीदार बनना पड़ेगा,’ बेचारा अनिल दिल मसोस कर रह जाता.

कभी अनिल जोरजबरदस्ती पर उतर आता तो वह अपना पल्ला छुड़ा कर दूसरे कमरे में चली जाती और रामायण या गीता ऊंचीऊंची आवाज में पढ़ने लग जाती. वह उस समय उसे क्या कहता. इन रोजरोज के व्रतों से वह खिन्न रहने लगा था. एक दिन अनिल ने निर्णयात्मक लहजे में कहा, ‘‘वर्षा, यह रोजरोज के व्रत रखने से भला तुम्हें क्या लाभ होता है? क्यों भूखी रहरह कर तुम अपने शरीर को दुर्बल बनाती जा रही हो? कभी अपनी शक्ल भी देखी है आईने में? आंखों के नीचे गड्ढे पड़ गए हैं, रंग पीला पड़ता जा रहा है.’’

इस पर वर्षा बोली, ‘‘व्रत रखने से बड़ा पुण्य मिलता है.’’

‘‘क्या पुण्य मिलता है? तुम वर्षों से नित्य ही कोई न कोई व्रत रखती आ रही हो. कोई परिवर्तन हुआ है घर में? वही दो वक्त की रोटी नसीब होती है, वही नपीतुली तनख्वाह है. तुम्हारे भोलेनाथ ने हमें क्या दिया? महालक्ष्मी ने धन की कौन सी वर्षा कर दी? तुम लौटरी के इतने टिकट लेती हो, कभी तुम्हारी महालक्ष्मी से यह तक तो हुआ नहीं कि एक पैसे का भी इनाम निकलवाया हो.’’

‘‘लौटरीवौटरी तो दूसरी बातें हैं.’’

‘‘फिर यह कथाकीर्तन और व्रत रख कर भूखे मरने से क्या लाभ? भगवान और देवताओं की चापलूसी, खुशामद का क्या फायदा?’’

‘‘इंसान को कर्म तो करना ही चाहिए.’’

‘‘अवश्य करना चाहिए.’’

लेकिन फिर भगवान, देवीदेवता बीच में कहां से कूद पड़े? जैसा कर्म करें वैसा ही उस का नतीजा होगा. मेहनत करेंगे तो पैसा आएगा ही और फिर इस का यह मतलब नहीं कि पति भूखा ही दफ्तर चला जाए और तुम पूजापाठ करती रहो. मुझे एक बूंद देसी घी नसीब नहीं होता और तुम हो कि पूरा एक किलो देसी घी का डब्बा जोत जलाजला कर ही बरबाद कर देती हो?’’

‘‘क्यों नास्तिकों जैसी बातें करते हो?’’

‘‘हां, मैं नास्तिक हूं, वर्षा, यह कहां का न्याय है कि पति असंतुष्ट रहे, अप्रसन्न रहे, पत्नी देवीदेवताओं को प्रसन्न करने के चक्कर में लगी रहे. सुबह उठ कर खाना बना दिया करो, जिस से मैं खाना खा कर दफ्तर जा सकूं. शायद तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हारे

खाना न बनाने की वजह से मुझे रोज ही 100-200 रुपए की चपत लग जाती है. भूखे पेट तो मैं रह नहीं सकता. पूजापाठ करना हो तो दिन में किसी समय कर लिया करो,’’ अनिल ने गुस्से में कहा.

‘‘पूजापाठ तो सुबह ही किया जाता है, उसे कैसे छोड़ दूं?’’

‘‘मुझे चाहे भूखा रहना पड़े? देर से जाने पर मुझे भले ही नौकरी से निकाल दिया जाए?’’

‘‘तुम्हारी नौकरी कहीं नहीं जाती जी, बाबा बालकनाथ सब पर कृपा रखते हैं.’’

‘‘हां, अगर नौकरी से जवाब मिल गया तो तुम्हारे बाबा बालकनाथ की तरह मैं भी झोलीचिमटा ले कर हरिभजन कर लिया करूंगा. मांगने से दो रोटियां मिल ही जाया करेंगी.’’

‘‘तुम बाबा बालकनाथजी का निरादर कर रहे हो?’’ वर्षा ने चिढ़ कर कहा.

‘‘निरादर नहीं कर रहा हूं, मैं तो तुम्हें समझाने की चेष्टा कर रहा हूं. हैरानी है कि तुम्हारे समझ में कुछ नहीं आता.’’

और सचमुच अनिल के लाख समझाने पर भी वर्षा पर कोई असर नहीं हुआ. वह उसी प्रकार व्रत रखती रही, पूजा करती रही और नित्य ही अनिल भूखा दफ्तर जाता रहा. वर्षा का परिवार बेहद अंधविश्वासी था. मातापिता दोनों कईकई आश्रमों में जाते थे. वर्षा सुंदर थी, स्मार्ट थी पर पढ़ाई में साधारण थी और मातापिता व बाबाओं की बात आंख मूंद कर मान लेती थी. उस की शादी अनिल के साथ उस के मामा ने बड़ी भागदौड़ के बाद कराई थी क्योंकि मातापिता तो कहते थे कि बाबा अपनेआप करा देंगे. शादी के बाद अनिल को पता चला कि वर्षा कैसी अंधविश्वासी थी पर उस के अलावा वह हर तरह से ठीकठाक थी. हां, बच्चा न होने पर वह और भावुक हो गई. लेकिन डाक्टरों के पास जाने को वह तैयार नहीं हुई थी.

एक दिन रात के 11 बजे होंगे, अनिल के मन में तरंग उठी. वह उठ कर वर्षा के पलंग के पास जा कर बैठ गया. उस का बैठना था कि वर्षा की आंख खुल गई और वह झट से उठ कर बैठ गई. अनिल ने उसे मनाने की बहुत कोशिश की, किंतु उस ने उसे हाथ तक न लगाने दिया. कहने लगी, ‘‘देखो जी, मैं ने सवा महीने के लिए आप से अलग रहने का व्रत लिया है, अभी 10 दिन बाकी हैं.’’ और फिर उस ने अनिल से अपने कमरे में जा कर सो जाने को कहा. उस के दिल को बहुत गहरी चोट लगी और वह चुपचाप अपने कमरे में आ गया. उसे वर्षा पर बहुत गुस्सा आ रहा था. वह अपनी भूल पर पश्चात्ताप कर रहा था कि मैं ने वर्षा जैसी धर्मांध से क्यों शादी की? मेरा प्यार करने को दिल चाहता है तो मैं कहांजाऊं? उस के दिल में तो यह अरमान ही रहा कि कभी उस की पत्नी उसे प्यार करने के लिए उत्साहित करे, कभी मुसकरा कर उस का स्वागत करे. वर्षा ने हमेशा ही उस का तिरस्कार किया है. उस ने कई तरीकों से उसे समझाने की चेष्टा की, किंतु वर्षा ने अपना नियम न छोड़ा.

बिना शर्त – भाग 3: मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

‘कोई बात नहीं. आप अपने मम्मीपापा का कहना मानो. वैसे भी शर्तों के आधार पर जीवन में साथसाथ नहीं चला जा सकता,’ उस ने दुखी मन से कहा था.

‘सोच लेना, आभा, सारी रात है. कल मु झे जवाब दे देना.’

‘मेरा निर्णय तो सदा यही रहेगा कि जो मु झे मेरी बेटी से दूर करना चाहता है उस के साथ मैं सपने में भी नहीं रह सकती.’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा था.

कुछ देर बाद महेश उठ कर कमरे से बाहर निकल गया था.

विचारों में डूबतेतैरते आभा को नींद आ गई थी. सुबह आभा की आंख खुली तो सिर में दर्द हो रहा था और उठने को मन भी नहीं कर रहा था. रात की बातें याद आने लगीं. हृदय पर फिर से भारी बो झ पड़ने लगा. क्या महेश ऊपरी मन से मिन्नी को प्रेम व दुलार देता था? मिन्नी को बेटीबेटी कहना केवल दिखावा था. यदि वह पहले ही यह सब जान जाती तो महेश की ओर कदम ही न बढ़ाती. महेश भी तो मिन्नी को उस से दूर करना चाहता है.

नहीं, वह मिन्नी को कभी स्वयं से दूर नहीं करेगी. प्रशांत के जाने के बाद उस ने मिन्नी को पढ़ालिखा कर किसी योग्य बनाने का लक्ष्य बनाया था. पर जब महेश ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो वह स्वयं को रोक नहीं पाई थी.

दोपहर को आभा के मोबाइल की घंटी बजी. स्क्रीन पर महेश का नाम था. उस ने कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘आभा, आज आप औफिस नहीं आईं?’’ स्वर महेश का था.

‘‘हां, आज तबीयत ठीक नहीं है, औफिस नहीं आ पाऊंगी.’’

‘‘दवा ले लेना. मेरी जरूरत हो तो फोन कर देना. मैं डाक्टर के यहां ले चलूंगा.’’

‘‘ठीक है.’’

उधर से मोबाइल बंद हो गया. आभा मन ही मन तड़प कर रह गई. उस ने सोचा था कि शायद महेश यह कह देगा कि मिन्नी हमारे साथ ही रहेगी, पर ऐसा नहीं हुआ. अब वह एक अंतिम निर्णय लेने पर विवश हो गई. ठीक है जब महेश को उस की बेटी मिन्नी की जरा भी चिंता नहीं है तो उसे क्या जरूरत है महेश के बारे में सोचने की.

दोपहर बाद मांजी आभा के पास आईं और बोलीं, ‘‘अरे बेटी, आज तुम औफिस नहीं गईं?’’

‘‘मांजी, आज तबीयत कुछ खराब थी, इसलिए औफिस से छुट्टी कर ली.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ? मु झे बता देती. मैं कमल से कह कर दवा मंगा देती. कहीं डाक्टर को दिखाना है तो मैं शाम को तेरे साथ चलूंगी.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी. मामूली सा सिरदर्द था, अब तो ठीक भी हो गया है. आप चिंता न करें.’’

‘‘तू मेरी बेटी की तरह है. बेटी की चिंता मां को नहीं होगी तो फिर किसे होगी?’’ मांजी ने आभा की ओर देखते हुए कहा.

आभा मांजी की ओर देखती रह गई. ठीक ही तो कह रही हैं मांजी. बेटी की चिंता मां नहीं करेगी तो कौन करेगा. उस के चेहरे पर प्रसन्नता फैल गई. वह कुछ नहीं बोली.

‘‘बेटी, बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रही थी, पर डर रही थी कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ,’’ मांजी बोलीं.

‘‘मांजी, आप कहिए. मां की बात का बेटी भी कहीं बुरा मानती है क्या?’’

‘‘बेटी, तुम तो हमारे छोटे से घरपरिवार के बारे में जानती हो. कमल में कोई ऐब नहीं है. उस की आयु भी ज्यादा नहीं है. जब भी उस से दूसरी शादी की बात करती हूं तो मना कर देता है. उसे डर है कि दूसरी लड़की भी तेज झगड़ालू आदत की आ गई तो यह घर घर न रहेगा.’’

आभा सम झ गई जो मांजी कहना चाहती हैं लेकिन वह चुप रही.

मांजी आगे बोलीं, ‘‘बेटी, जब से तुम हमारे यहां किराएदार बन कर आई हो, मैं तुम्हारा व्यवहार अच्छी तरह परख चुकी हूं. राजू और मिन्नी भी आपस में हिलमिल गए हैं. तुम्हारे औफिस जाने के बाद दोनों आपस में खूब खेलते हैं. मैं चाहती हूं कि तुम हमारे घर में बहू बन कर आ जाओ. राजू को बहन और मिन्नी को भाई मिल जाएगा. कमल भी ऐसा ही चाहता है. मैं बहुत आशाएं ले कर आई हूं, निराश न करना अपनी इस मांजी को.’’

सुनते ही आभा की आंखों के सामने महेश और कमल के चेहरे आ गए. कितना अंतर है दोनों में. महेश तो अपने मम्मीपापा के कहने में आ कर बेटी मिन्नी को उस से दूर करना चाहता है जबकि मांजी मिन्नी को अपने पास ही रखना चाहती हैं. इस में तो कमल की भी स्वीकृति है.

‘‘क्या सोच रही हो, बेटी? मु झे तुम्हारा उत्तर चाहिए. यदि तुम ने हमारे राजू को अपना बेटा बना लिया तो मेरी बहुत बड़ी चिंता दूर हो जाएगी,’’ मांजी ने आभा की ओर देखा.

आभा कुछ नहीं बोली. वह चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू सिर पर किया और मुड़ कर मांजी के चरण छू लिए.

मांजी को उत्तर मिल गया था. वे प्रसन्नता से गदगद हो कर बोलीं, ‘‘मु झे तुम से ऐसी ही आशा थी, बेटी. सदा सुखी रहो. तुम अपने मम्मीपापा को बुला लेना. उन से भी बात करनी है.’’

‘‘अच्छा मांजी.’’

‘‘और हां, आज रात का खाना हम सभी इकट्ठा खाएंगे.’’

‘‘खाना मैं बनाऊंगी, मांजी. मैं आप की और कमल की पसंद जानती हूं.’’

‘‘ठीक है, बेटी. अब मैं चलती हूं. कमल को भी यह खुशखबरी सुनाना चाहती हूं. उस से कह दूंगी कि औफिस से लौटते समय मिठाई का डब्बा लेता आए क्योंकि आज सभी का मुंह मीठा कराना है,’’ मांजी ने कहा और कमरे से बाहर निकल गईं.

अगले दिन सुबह जब आभा की नींद खुली तो 7 बज रहे थे. रात की बातें याद आते ही उस के चेहरे पर प्रसन्नता दौड़ने लगी. रात खाने की मेज पर कमल, मांजी, वह, राजू और मिन्नी बैठे थे. खाना खाते समय कमल व मांजी ने बहुत तारीफ की थी कि कितना स्वादिष्ठ खाना बनाया है. हंसी, मजाक व बातों के बीच पता भी न चला कि कब 2 घंटे व्यतीत हो गए. उसे बहुत अच्छा लगा था.

वह आंखें बंद किए अलसाई सी लेटी रही. बराबर में मिन्नी सो रही थी.

अगली सुबह आभा नाश्ता कर रही थी. तभी मोबाइल की घंटी बज उठी. उस ने देखा कौल महेश की थी.

‘‘हैलो,’’ वह बोली.

‘‘अब कैसी हो, आभा?’’

‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘मैं ने मम्मीपापा को मना लिया है. वे बहुत मुश्किल से तैयार हुए हैं. अब मिन्नी हमारे साथ रह सकती है.’’

‘‘आप को अपने मम्मीपापा को जबरदस्ती मनाने की जरूरत नहीं थी.’’

‘‘मैं कुछ सम झा नहीं?’’

‘‘सौरी महेश, आप ने थोड़ी सी देर कर दी. अब तो मैं अपनी मिन्नी के साथ काफी दूर निकल चुकी हूं. अब लौट कर नहीं आ पाऊंगी.’’

‘‘आभा, तुम क्या कह रही हो, मेरी सम झ में कुछ नहीं आ रहा है,’’ महेश का परेशान व चिंतित सा स्वर सुनाई दिया.

‘‘अभी आप इतना ही सम झ लीजिए कि मु झे बिना शर्त का रिश्ता यानी अपना घरपरिवार मिल गया है, जहां मिन्नी को ले कर कोई शर्त नहीं. मिन्नी भी साथ रहेगी. आप अविवाहित हैं, आप की शादी भी जल्द हो जाएगी. मैं आज औफिस आ रही हूं, बाकी बातें वहां आ कर सम झा दूंगी,’’ यह कह कर आभा ने मोबाइल बंद कर दिया और निश्चिंत हो कर नाश्ता करने लगी.

परी हूं मैं – भाग 2 : तरुण ने दिखाई मुझे मेरी औकात

मुझे अस्पताल में भरती करना पड़ा और तरुण के हाथों पर भी पट्टियां बंध चुकी थीं तो रिद्धि व सिद्धि को किस के आसरे छोड़ते. अम्माजी को बुलाना ही पड़ा. आते ही अम्माजी अस्पताल पहुंचीं.

‘देख, तेरी वजह से तरुण भी जल गया. कहते हैं न, आग किसी को नहीं छोड़ती. बचाने वाला भी जलता जरूर है.’ जाने क्यों अम्मा का आना व बड़बड़ाना मुझे अच्छा नहीं लगा. आंखें मूंद ली मैं ने. अस्पताल में तरुण नर्स के बजाय खुद मेरी देखभाल करता. मैं रोती तो छाती से चिपका लेता. वह मुझे होंठों से चुप करा देता. बिलकुल ताजा एहसास.

अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आई तो घर का कोनाकोना एकदम नया सा लगा. फूलपत्तियां सब निखर गईं जैसे. जख्म भी ठीक हो गए पर दाग छोड़ गए, दोनों के अंगों पर, जलने के निशान.

तरुण और मैं, दोनों ही तो जले थे एक ही आग में. राजीव को भी दुर्घटना की खबर दी गई थी. उन्होंने तरुण को मेरी आग बुझाने के लिए धन्यवाद के साथ अम्मा को बुला लेने के लिए शाबाशी भी दी.

तरुण को महीनों बीत चले थे भोपाल गए हुए. लेकिन वहां उस की शादी की बात पक्की की जा चुकी थी. सुनते ही मैं आंसू बहाने लगी, ‘‘मेरा क्या होगा?’’

‘परी का जादू कभी खत्म नहीं होता.’ तरुण ने पूरी तरह मुझे अपने वश में कर लिया था, मगर पिता के फैसले का विरोध करने की न उस में हिम्मत थी न कूवत. स्कौलरशिप से क्या होना जाना था, हर माह उसे घर से पैसे मांगने ही पड़ते थे.

तो इस शादी से इनकार कैसे करता? लड़की सरकारी स्कूल में टीचर है और साथ में एमफिल कर रही है तो शायद शादी भी जल्दी नहीं होगी और न ही ट्रांसफर. तरुण ने मुझे आश्वस्त कर दिया.

मैं न सिर्फ आश्वस्त हो गई बल्कि तरुण के संग उस की सगाई में भी शामिल होने चली आई. सामान्य सी टीचरछाप सांवली सी लड़की, शक्ल व कदकाठी हूबहू मीनाकुमारी जैसी.

एक उम्र की बात छोड़ दी जाए तो वह मेरे सामने कहीं नहीं टिक रही थी. संभवतया इसलिए भी कि पूरे प्रोग्राम में मैं घर की बड़ी बहू की तरह हर काम दौड़दौड़ कर करती रही. बड़ों से परदा भी किया. छोटों को दुलराया भी. तरुण ने भी भाभीभाभी कर के पूरे वक्त साथ रखा लेकिन रिंग सेरेमनी के वक्त स्टेज पर लड़की के रिश्तेदारों से परिचय कराया तो भाभी के रिश्ते से नहीं बल्कि, ‘ये मेरे बौस, मेरे गाइड राजीव सर की वाइफ हैं.’

कांटे से चुभे उस के शब्द, ‘सर की वाइफ’, यानी उस की कोई नहीं, कोई रिश्ता नहीं. तरुण को वापस तो मेरे ही साथ मेरे ही घर आना था. ट्रेन छूटते ही शिकायतों की पोटली खोल ली मैं ने. मैं तैश में थी, हालांकि तरुण गाड़ी चलते ही मेरा पुराना तरुण हो गया था. मेरा मुझ पर ही जोर न चल पाया, न उस पर.

मौसम बदल रहे थे. अपनी ही चाल में, शांत भाव से. मगर तीसरे वर्ष के मौसमों में कुछ ज्यादा ही सन्नाटा महसूस हो रहा था, भयावह चुप्पियां. आंखों में, दिलों में और घर में भी.

तूफान तो आएंगे ही, एक नहीं, कईकई तूफान. वक्त को पंख लग चुके थे और हमारी स्थिति पंखकटे प्राणियों की तरह होती लग रही थी. मुझे लग रहा था समय को किस विध बांध लूं?

तरुण की शादी की तारीख आ गई. सुनते ही मैं तरुण को झंझोड़ने लगी, ‘‘मेरा क्या होगा?’’

‘परी का जादू कभी खत्म नहीं होगा,’ इस बार तरुण ने मुझे भविष्य की तसल्ली दी. मैं पूरा दिन पगलाई सी घर में घूमती रही मगर अम्माजी के मुख पर राहत स्पष्ट नजर आ रही थी. बातों ही बातों में बोलीं भी, ‘अच्छा है, रमेश भाईसाहब ने सही पग उठाया. छुट्टा सांड इधरउधर मुंह मारे, फसाद ही खत्म…खूंटे से बांध दो.’

मुझे टोका भी, कि ‘कौन घर की शादी है जो तुम भी चलीं लदफंद के उस के संग. व्यवहार भेज दो, साड़ीगहना भेज दो और अपना घरद्वार देखो. बेटियों की छमाही परीक्षा है, उस पर बर्फ जमा देने वाली ठंड पड़ रही है.’

अम्माजी को कैसे समझाती कि अब तो तरुण ही मेरी दुलाईरजाई है, मेरा अलाव है. बेटियों को बहला आई, ‘चाची ले कर आऊंगी.’

बड़े भारी मन से भोपाल स्टेशन पर उतरी मैं. भोपाल के जिस तालाब को देख मैं पुलक उठती थी, आज मुंह फेर लिया, मानो मोतीताल के सारे मोती मेरी आंखों से बूंदें बन झरने लगे हों.

तरुण ने बांहों में समेट मुझे पुचकारा. आटो के साइड वाले शीशे पर नजर पड़ी, ड्राइवर हमें घूर रहा था. मैं ने आंसू पोंछ बाहर देखना शुरू कर दिया. झीलों का शहर, हरियाली का शहर, टेकरीटीलों पर बने आलीशन बंगलों का शहर और मेरे तरुण का शहर.

आटो का इंतजार ही कर रहे थे सब. अभी तो शादी को हफ्ताभर है और इतने सारे मेहमान? तरुण ने बताया, मेहमान नहीं, रिश्तेदार एवं बहनें हैं. सब सपरिवार पधारे हैं, आखिर इकलौते भाई की शादी है. सुन कर मैं ने मुंह बनाया और बहनों ने मुझे देख कर मुंह बनाया.

रात होते ही बिस्तरों की खींचतान. गरमी होती तो लंबीचौड़ी छत थी ही. सब अपनीअपनी जुगाड़ में थे. मुझे अपना कमरा, अपना पलंग याद आ रहा था. तरुण ने ही हल ढूंढ़ा, ‘भाभी जमीन पर नहीं सो पाएंगी. मेरे कमरे के पलंग पर भाभी की व्यवस्था कर दो, मेरा बिस्तरा दीवान पर लगा दो.’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि तरुण की बहनों की कोई इज्जत नहीं है और मां ठहरी गऊ, तो घर की बागडोर मैं ने संभाल ली. घर के बड़ेबूढ़ों और दामादों को इतना ज्यादा मानसम्मान दिया, उन की हर जरूरतसुविधा का ऐसा ध्यान रखा कि सब मेरे गुण गाने लगे. मैं फिरकनी सी घूम रही थी. हर बात में दुलहन, बड़ी बहू या भाभीजी की राय ली जाती और वह मैं थी.

सब को खाना खिलाने के बाद ही मैं खाना खाने बैठती. तरुण भी किसी न किसी बहाने से पुरुषों की पंगत से बच निकलता. स्त्रियां सभी भरपेट खा कर छत पर धूप सेंकनेलोटने पहुंच जातीं. तरुण की नानी, जो सीढि़यां नहीं चढ़ पाती थीं, भी नीम की सींक से दांत खोदते पिछवाड़े धूप में जा बैठतीं. तब मैं और तरुण चौके में अंगारभरे चूल्हे के पास अपने पाटले बिछाते और थाली परोसते.

आदत जो पड़ गई है एक ही थाली में खाने की, नहीं छोड़ पाए. जितने अंगार चूल्हे में भरे पड़े थे उस से ज्यादा मेरे सीने में धधक रहे थे. आंसू से बुझें तो कैसे? तरुण मनाते हुए अपने हाथ से मुझे कौर खिला रहे थे कि उस की भांजी अचानक आ गई चौके में गुड़ लेने…लिए बगैर ही भागी ताली बजाते हुए, ‘तरुण मामा को तो देखो, बड़ी मामीजी को अपने हाथ से रोटी खिला रहे हैं. मामीजी जैसे बच्ची हों. बच्ची हैं क्या?’

तरुण फुरती से दौड़ा उस के पीछे, तब तक तो खबर फैल चुकी थी. मैं कुछ देर तो चौके में बैठी रह गई. जब छत पर पहुंची तो औरतों की नजरों में स्पष्ट हिकारत भाव देखा और तो और, उस रोज से नानी की नजरें बदली सी लगीं. मैं सावधान हो गई.

ज्योंज्यों शादी की तिथि नजदीक आ रही थी, मेरा जी धकधक कर रहा था. तरुण का सहज उत्साहित होना मुझे अखर रहा था. इसीलिए तरुण को मेहंदी लगाती बहनों के पास जा बैठी. मगर तरुण अपने में ही मगन बहन से बात कर रहा था, ‘पुष्पा, पंजे और चेहरे के जले दागों पर भी हलके से हाथ फेर दे मेहंदी का, छिप जाएंगे.’

सुन कर मैं रोक न पाई खुद को, ‘‘तरुण, ये दाग न छिपेंगे, न इन पर कोई दूसरा रंग चढ़ेगा. आग के दाग हैं ये.’’

सन्नाटा छा गया हौल में. मुझे राजीव आज बेहद याद आए. कैसी निरापदता होती है उन के साथ, तरुण को देखो…तो वह दूर बड़ी दूर नजर आता है और राजीव, हर पल उस के संग. आज मैं सचमुच उन्हें याद करने लगी.

आखिरकार बरात प्रस्थान का दिन आ गया, मेरे लिए कयामत की घड़ी थी. जैसे ही तरुण के सेहरा बंधा, वह अपने नातेरिश्तेदारों से घिर गया. उसे छूना तो दूर, उस के करीब तक मैं नहीं पहुंच पाई. मुझे अपनी औकात समझ में आने लगी.

बिना शर्त – भाग 2 : मिन्नी के बारे में क्या जान गई थी आभा

शाम को वह मिन्नी के साथ रैस्टोरैंट में पहुंच गई थी जहां महेश उस की प्रतीक्षा कर रहा था. खाने के बाद जब वह घर वापस लौटी तो 10 बज रहे थे.

बिस्तर पर लेटते ही मिन्नी सो गई थी. पर उस की आंखों में नींद न थी. वह आज महेश के बारे में बहुतकुछ जान चुकी थी कि महेश के पापा एक व्यापारी हैं. वह अपने घरपरिवार में इकलौता है. मम्मीपापा उस की शादी के लिए बारबार कह रहे हैं. कई लड़कियों को वह नापसंद कर चुका है. उस ने मम्मीपापा से साफ कह दिया है कि वह जब भी शादी करेगा तो अपनी मरजी से करेगा.

वह सम झ नहीं पा रही थी कि महेश उस की ओर इतना आकर्षित क्यों हो रहा है. महेश युवा है, अविवाहित और सुंदर है. अच्छीखासी नौकरी है. उस के लिए लड़कियों की कमी नहीं. महेश कहीं इस दोस्ती की आड़ में उसे छलना तो नहीं चाहता? पर वह इतनी कमजोर नहीं है जो यों किसी के बहकावे में आ जाए. उस के अंदर एक मजबूत नारी है. वह कभी ऐसा कोई गलत काम नहीं करेगी जिस से आजीवन प्रायश्चित्त करना पड़े.

कमल उस का मकान मालिक था. उस का फ्लैट भी बराबर में ही था. वह एक सरकारी विभाग में कार्यरत था. परिवार के नाम पर कमल, मां और 5 वर्षीय बेटा राजू थे. कमल की पत्नी बहुत तेज व  झगड़ालू स्वभाव की थी. वह कभी भी आत्महत्या करने और कमल व मांजी को जेल पहुंचाने की धमकी भी दे देती थी. रोजाना घर में किसी न किसी बात पर क्लेश करती थी. कमल ने रोजाना के  झगड़ों से परेशान हो कर पत्नी से तलाक ले लिया था.

आभा मिन्नी को सुबह औफिस जाते समय एक महिला के घर छोड़ आती थी, जहां कुछ कामकाजी परिवार अपने छोटे बच्चों को छोड़ आते थे. शाम को औफिस से लौटते समय वह मिन्नी को वहां से ले आती थी.

एक दिन मांजी ने आभा के पास आ कर कहा था, ‘बेटी, तुम औफिस जाते समय मिन्नी को हमारे पास छोड़ जाया करो. वह राजू के साथ खेलेगी. दोनों का मन लगा रहेगा. हमारे होते हुए तुम किसी तरह की चिंता न करना, आभा.’

उस दिन के बाद वह मिन्नी को मांजी के पास छोड़ कर औफिस जाने लगी.

रविवार छुट्टी का दिन था. वह मिन्नी के साथ एक शौपिंग मौल में पहुंची. लौट कर बाहर सड़क पर खड़ी औटो की प्रतीक्षा कर रही थी, तभी एक बाइक उस के सामने रुकी, बाइक पर बैठे कमल ने कहा, ‘आभाजी, आइए बैठिए.’

वह चौंकी, ‘अरे आप? नहींनहीं, कोई बात नहीं, मैं चली जाऊंगी. थ्रीव्हीलर मिल जाएगा.’

‘क्यों, टूव्हीलर से काम नहीं चलेगा क्या? इस ओर मेरा एक मित्र रहता है. बस, उसी से मिल कर आ रहा हूं. यहां आप को देखा तो मैं सम झ गया कि आप किसी बस या औटो की प्रतीक्षा में हैं. आइए, आप जहां कहेंगी, मैं आप को छोड़ दूंगा.’

‘मु झे पलटन बाजार जाना है,’ उस ने बाइक पर बैठते हुए कहा.

‘ओके मैडम. घर पहुंच कर मां को मेरे लिए भी एक रस्क का पैकेट दे देना.’ उस ने रस्क के कई पैकेट खरीदे थे जो कमल ने देख लिए थे.

‘ठीक है,’ उस ने कहा था.

कमल उसे व मिन्नी को पलटन बाजार में छोड़ कर चला गया.

आभा कभीकभी मांजी व कमल के बारे में सोचती कि कितना अच्छा स्वभाव है दोनों का. हमेशा दूसरों की भलाई के बारे में सोचते हैं. दोनों ही बहुत मिलनसार व परोपकारी हैं.

अकसर मांजी राजू को साथ ले कर उस के पास आ जाती थीं. राजू और मिन्नी खेलते रहते. वह मांजी के साथ बातों में लगी रहती.

एक दिन मांजी ने कहा था, ‘आभा, हमारे साथ तो कुछ भी ठीक नहीं हुआ. ऐसी  झगड़ालू बहू घर में आ गई थी कि क्या बताऊं. बहू थी या जान का क्लेश. हमें तो तुम जैसी सुशील बहू चाहिए थी.’

वह कुछ नहीं बोली. बस, इधरउधर देखने लगी.

धीरेधीरे उस के व महेश के संबंधों की दूरी घटने लगी थी. महेश ने उस से कह दिया था कि वह जल्द ही उस के जीवन का हमसफर बन जाएगा. उसे भी लग रहा था कि उस ने महेश की ओर हाथ बढ़ा कर कुछ गलत नहीं किया है.

आज शाम जब वह रसोई में थी तो महेश का फोन आ गया था, ‘मैं कुछ देर बाद आ रहा हूं. कुछ जरूरी बात करनी है.’ ऐसी क्या जरूरी बात है जो महेश घर आ कर ही बताना चाहता है. उस ने जानना भी चाहा, परंतु महेश ने कह दिया था कि वहीं घर आ कर बताएगा.

एक घंटे बाद महेश उस के पास आ गया.

‘क्या लोगे? ठंडा या गरम?’ उस ने पूछा था.

‘कुछ नहीं.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है? कोल्डडिं्रक्स ले लीजिए,’ कहते हुए वह रसोई की ओर चली गई. जब लौटी तो ट्रे में 2 गिलास कोल्डडिं्रक्स के साथ खाने का कुछ सामान था.

‘अब कहिए अपनी जरूरी बात,’ उस ने मुसकरा कर महेश की ओर देखते हुए कहा.

‘आज मम्मीपापा आए हैं दिल्ली से. मैं ने उन को सबकुछ बता दिया था. यह भी कह दिया था कि शादी करूंगा तो केवल आभा से. कल वे तुम से मिलने आ रहे हैं,’ महेश ने उस की ओर देखते हुए कहा था. उस के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएं फैलने लगीं.

‘मम्मीपापा ने इस शादी की स्वीकृति तो दे दी है, परंतु एक शर्त रख दी है.’

वह चौंक उठी, ‘शर्त, कैसी शर्त?’

‘वे कहते हैं कि शादी के बाद मिन्नी किसी होस्टल में रहेगी या नानानानी के पास रहेगी.’

यह सुन कर मन ही मन तड़प उठी थी वह. उस ने कहा, ‘यह तो मम्मीपापा की शर्त है, आप का क्या कहना है?’

‘देखो आभा, मेरी बात को सम झने की कोशिश करो. मिन्नी को अच्छे स्कूल व होस्टल में भेज देंगे. हम उस से मिलते भी रहेंगे.’

‘नहीं, महेश ऐसा नहीं हो सकता. मैं मिन्नी के बिना और मिन्नी मेरे बिना नहीं रह सकती.’

‘ओह आभा, तुम सम झती क्यों नहीं.’

‘मु झे कुछ नहीं सम झना है. मैं एक मां हूं. मिन्नी मेरी बेटी है. आप ने यह कैसे कह दिया कि मिन्नी होस्टल में रह लेगी. मैं अपनी मिन्नी को अपने से दूर नहीं कर सकती.’

‘तब तो बहुत कठिन हो जाएगा, आभा. मम्मीपापा नहीं मानेंगे.’

परी हूं मैं – भाग 3 : तरुण ने दिखाई मुझे मेरी औकात

असल औकात अन्य औरतों ने बरात के वापस आते ही समझा दी. उन बहन-बुआ के एकएक शब्द में व्यंग्य छिपा था-‘‘भाभीजी, आज से आप को हम लोगों के साथ हौल में ही सोना पड़ेगा. तरुण के कमरे का सारा पुराना सामान हटा कर विराज के साथ आया नया पलंग सजाना होगा, ताजे फूलों से.’’

छुरियां सी चलीं दिल पर. लेकिन दिखावे के लिए बड़ी हिम्मत दिखाई मैं ने भी. बराबरी से हंसीठिठोली करते हुए तरुण और विराज का कमरा सजवाया. लेकिन आधीरात के बाद जब कमरे का दरवाजा खट से बंद हुआ. मेरी जान निकल गई, लगा, मेरा पूरा शरीर कान बन गया है. कैसे देखती रहूं मैं अपनी सब से कीमती चीज की चोरी होते हुए. चीख पड़ी, ‘चोर, चोर,चोर.’

गुल हुई सारी बत्तियां जल पड़ीं. रंग में भंग डालने का मेरा उपक्रम पूर्ण हुआ. शादी वाला घर, दानदहेज के संग घर की हर औरत आभूषणों से लदी हुई. ऐसे मालदार घरों में ही तो चोरलुटेरे घात लगाए बैठे रहते हैं.

नींद से उठे, डरे बच्चों के रोने का शोर, आदमियों का टौर्च ले कर भागदौड़ का कोलाहल…ऐसे में तरुण के कमरे का दरवाजा खुलना ही था. उस के पीछेपीछे सजीसजाई विराज भी चली आई हौल में. चैन की सांस ली मैं ने. बाकी सभी भयभीत थे लुट जाने के भय से. सब की आंखों से नींद गायब थी. इस बीच, मसजिद से सुबह की आजान की आवाज आते ही मैं मन ही मन बुदबुदाई, ‘हो गई सुहागरात.’

लेकिन कब तक? वह तो सावित्री थी जिस ने सूर्य को अस्त नहीं होने दिया था. सुबह से ही मेहमानों की विदाई शुरू हो गई थी. छुट्टियां किस के पास थीं? मुझे भी लौटना था तरुण के साथ. मगर मेरे गले में बड़े प्यार से विराज को भी टांग दिया गया.

जाने किस घड़ी में बेटियों से कहा था कि चाची ले कर आऊंगी. विराज को देख कर मुझे अपना सिर पीट लेने का मन होता. मगर उस ने रिद्धि व सिद्धि का तो जाते ही मन जीत लिया.

10 दिनों बाद विराज का भाई उसे लेने आ गया और मैं फिर तरुण की परी बन गई. गिनगिन कर बदले लिए मैं ने तरुण से. अब मुझे उस से सबकुछ वैसा ही चाहिए था जैसे वह विराज के लिए करता था…प्यार, व्यवहार, संभाल, परवा सब.

चूक यहीं हुई कि मैं अपनी तुलना विराज से करते हुए सोच ही नहीं पाई कि तरुण भी मेरी तुलना विराज से कर रहा होगा.

वक्त भाग रहा था. मैं मुठ्ठी में पकड़ नहीं पा रही थी. ऐसा लगा जैसे हर कोई मेरे ही खिलाफ षड्यंत्र रच रहा है. तरुण ने भी बताया ही नहीं कि विराज ट्रांसफर के लिए ऐप्लीकेशन दे चुकी है. इधर राजीव का एग्रीमैंट पूरा हो चुका था. उन्होंने आते ही तरुण को व्यस्त तो कर ही दिया, साथ ही शहर की पौश कालोनी में फ्लैट का इंतजाम कर दिया यह कहते हुए, ‘‘शादीशुदा है अब, यहां बहू के साथ जमेगा नहीं.’’

मैं चुप रह गई मगर तरुण ने अब भी मुंह मारना छोड़ा नहीं था. तरुण मेरी मुट्ठी में है, यह एहसास विराज को कराने का कोई मौका मैं छोड़ती नहीं थी. जब भी विराज से मिलना होता, वह मुझे पहले से ज्यादा भद्दी, मोटी और सांवली नजर आती. संतुष्ट हो कर मैं घर लौट कर अपने बनावशृंगार पर और ज्यादा ध्यान देती.

फिर मैं ने नोट किया, तरुण का रुख उस के बजाय मेरे प्रति ज्यादा नरम और प्यारभरा होता, फिर भी विराज सहजभाव से नौकरी, ट्यूशन के साथसाथ तरुण की सुविधा का पूरा खयाल रखती. न तरुण से कोई शिकायत, न मांगी कोई सुविधा या भेंट.

‘परी थोड़ी है जो छू लो तो पिघल जाए,’ तरुण ने भावों में बह कर एक बार कहा था तो मैं सचमुच अपने को परी ही समझ बैठी थी. तब तक तरुण की थीसिस पूरी हो चुकी थी मगर अभी डिसकशन बाकी था.

और फिर वह दिन आ ही गया. तरुण को डौक्टरेट की डिगरी के ही साथ आटोनौमस कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर पद पर नियुक्ति भी मिल गई. धीरेधीरे उस का मेरे पास आना कम हो रहा था, फिर भी मैं कभी अकेली, कभी बेटियों के साथ उस के घर जा ही धमकती. विराज अकसर शाम को भी सूती साड़ी में बगैर मेकअप के मिडिल स्कूल के बच्चों को पढ़ाती मिलती.

ऐसे में हमारी आवभगत तरुण को ही करनी पड़ती. वह एकएक चीज का वर्णन चाव से करता…विराज ने गैलरी में ही बोनसाई पौधों के संग गुलाब के गमले सजाए हैं, साथ ही गमले में हरीमिर्च, हरा धनिया भी उगाया है. विराज…विराज… विराज…विराज…विराज ने मेरा ये स्वेटर क्रोशिए से बनाया है. विराज ने घर को घर बना दिया है. विराज के हाथ की मखाने की खीर, विराज के गाए गीत… विराज के हाथ, पैर, चेहरा, आंखे…

मैं गौर से देखने लगती तरुण को, मगर वह सकपकाने की जगह ढिठाई से मुसकराता रहता और मैं अपमान की ज्वाला में जल उठती. मेरे मन में बदले की आग सुलगने लगी.

मैं विराज से अकेले में मिलने का प्रयास करती और अकसर बड़े सहजसरल भाव से तरुण का जिक्र ही करती. तरुण ने मेरा कितना ध्यान रखा, तरुण ने यह कहा वह किया, तरुण की पसंदनापसंद. तरुण की आदतों और मजाकों का वर्णन करने के साथसाथ कभीकभी कोई ऐसा जिक्र भी कर देती थी कि विराज का मुंह रोने जैसा हो जाता और मैं भोलेपन से कहती, ‘देवर है वह मेरा, हिंदी की मास्टरनी हो तुम, देवर का मतलब नहीं समझतीं?’

परिवर्तन – भाग 2 : राहुल और कवि की कहानी

वह देर तक चिल्लाती रही. उस के साथ राहुल भी रोता रहा. चिल्लातेचिल्लाते उस का गला रुंध गया. थक कर वह चुप हो गई. जाने कहां हैं? कहां दबे पड़े हैं. इसी ढेर के नीचे…मेरे नीचे भी तो शायद यह छत है और मेरे ऊपर? हाथ से टटोल कर देखा तो कुछेक हाथ ऊपर एक दीवार को टिका पाया. मैं कहां दबी पड़ी हूं…अंधेरे में केवल टटोल सकती हूं.

राहुल रो रहा था. उसे शायद भूख लग आई थी. उस के मुंह में अपना स्तन दे कर कवि ने ऊपर की ओर देखा तो दीवार के एक छोटे से छेद से रोशनी छन कर भीतर आ रही थी. जितनी रोशनी अंदर आ रही थी उस से वह अपने इस नए घर को देख तो सकती ही थी.

सिर की तरफ एक 3-4 फुट ऊंची सीमेंट की कालम है. नीचे भी टेढ़े ढंग से दीवार है. इस तरह कुल 3 फुट की ऊंचाई की जगह और 2 हाथ चौड़ाई की जगह. जहां वह बैठ सकती है और किसी तरह पैर सिकोड़ कर लेट सकती है.

कवि अपने वर्तमान को समझने का प्रयास करती हुई यह नहीं जान पाई कि इस स्थिति में रहते हुए उसे कितने दिन गुजरे हैं. जो भी हो, यहां से तो निकलना ही होगा. कैसे निकलूं? कोई हो तो उसे आवाज दूं और वह जोर से चिल्लाई, ‘‘बचाओ… बचाओ…कोई है, कोई तो सुने.’’

काफी देर तक कवि चिल्लाती रही. बाहरी दुनिया को बताने की कोशिश की कि वह जिंदा है, मगर बेकार. कोई हो तो सुने. जब पूरा भुज शहर ही भूकंप की चपेट में जमीन से आ लगा है तो किसे पड़ी है कि वह उस की सुनेगा.

राहुल अपनी मां की चीखें सुन कर कुछ देर तक रोता रहा और फिर सो गया. कवि ने उसे पास से देखा. कितना प्यारा बच्चा है. कितना गोलमटोल, हाथपैर हिलाते हुए उस का राहुल कितना अच्छा लगता है. कवि के मन ने उस से ही प्रश्न पूछा, ‘तू ने अपने बेटे को इतने करीब से देखा ही कब है जो तुझे यह एहसास होता जो आज हो रहा है. तू तो हमेशा अपनी नौकरी नाम की गृहस्थी में ही व्यस्त रही है.’

सहसा कवि के दिमाग में प्रश्न कौंधा कि सातमंजिला इमारत ढह गई और मैं चौथी मंजिल वाली अपने दूध- पीते बेटे राहुल के साथ बिलकुल ठीकठीक जिंदा हूं. यह कैसे संभव हुआ? क्या इस के पीछे हेमंत का ईश्वर है या परिस्थितियों ने मुझे बचा लिया क्योंकि तब मैं दीवार के किनारे तक ही पहुंच पाई थी. फिर भी उस के कमजोर मन ने बेटी और पति के जिंदा रहने की दुआ तो मांगी थी. कवि को पहली बार पता चला कि कमजोर समय में लोग भगवान को क्यों याद करते हैं. शायद इसलिए कि उन के पास दूसरा कोई उपाय नहीं होता. मायूस हो कर ईश्वर को याद करते हैं. काम बन गया तो ठीक, नहीं बना तो ठीक.

मैं अपने और बच्चे के बचाव के लिए जब तक चिल्ला सकती थी चिल्लाती रही कि शायद शोर सुन कर कोई तो आवाज दे. अगलबगल दबे मेरी तरह जिंदा इनसान या फिर ऊपर बचाव वाला, कोई.

धीरेधीरे छेद से रोशनी कम होतीदेख कर कवि को लगा कि रात होने वाली है. वह सोचने लगी कि अंधेरा अकेला नहीं आता. वह अपने साथ लाता है तरहतरह के डर. डर चोरों का, डर अकेले होने का, डर इस खंडहर में सोने का, डर इस दीवार के गिरने का और सब से बड़ा डर खुद पर से विश्वास उठ जाने का.

कवि अपने बच्चे राहुल को सीने से लगाए हेमंत की पंक्तियां गुनगुनाने लगी, ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर न हो…’ पहली बार इन पंक्तियों को गुनगुनाते हुए कवि को ऐसा लगा जैसे उस के साथ कोई है. कोई ताकत उस के भीतर आ गई है. इस गाने में कितनी शक्ति है आज इसे वह महसूस कर रही है. और वह बड़ी देर तक बारबार इन पंक्तियों को गुनगुनाती रही.

राहुल भूख के मारे कुलबुलाने लगा. उस के मुंह में उस ने अपना स्तन दे दिया. उसे आश्चर्य इस बात का था कि उस के स्तनों में इतना दूध कहां से आ गया जबकि उस ने अपने बच्चे को दूध बहुत कम पिलाया है. वह तो जानबूझ कर पहले माह से ही बच्चे को ऊपर का दूध पिलाने पर आमादा थी पर हेमंत के बहुत आग्रह पर उस ने राहुल को पहले माह ही दूध पिलाया था. उस के बाद एकाध बार से ज्यादा उस ने राहुल को कभी दूध पिलाया हो यह उसे याद नहीं. सुंदरता को कायम रखने के चक्कर में बच्चे को दूध पिलाने में आनाकानी करती रही. जब 3 महीने से राहुल बिलकुल भी उस का दूध नहीं पी रहा है तो आज उस की छाती  से दूध कैसे उतर रहा है? और उस के मुंह का स्पर्श एक अजीब सी सिहरन पैदा कर रहा है. राहुल से हट कर जब उस का ध्यान गिरजा की तरफ गया तो मन में एक हूक सी उठी कि गिरजा को भी उस ने दूध कब पिलाया है. 1-2 महीने ही. बेचारी बच्ची, जाने कैसे बड़ी हो गई. मैं भी कैसी अभागिन मां हूं जो अपने सुख के चक्कर में अपने बच्चों को उन के सुख से वंचित रखा.

अपने बारे में सोचतेसोचते कवि कब सो गई उसे पता ही नहीं चला. जब जागी तो अपने चारों ओर अंधेरा देख कर सोचा अभी रात बाकी है. अब उसे सब से ऊपरी मंजिल पर रहने वाले हर्ष की याद आई. उस बेचारे की तो टांग भी टूटी हुई थी और बीवी भी बीमार थी. जाने अब कहां होगा वह परिवार. 7वीं मंजिल जब नीचे आई होगी तो वे कहां होंगे? यहीं कहीं मेरे ऊपर दबे होंगे. हर्ष तो बैड सहित ही नीचे आ गया होगा. वह जरूर बच गया होगा. छठी मंजिल वाली ऊषा का क्या हुआ होगा? अकेली लड़की, कोई नातेरिश्तेदार भी नहीं. पता नहीं जिंदा भी है या फिर…

बड़ी सुंदर है. हेमंत अकसर उस की तारीफ करता है. कहता है  कि क्या सुंदर कसे बदन की मलिका है यह लड़की. नितंब के अनुपात में ही छातियां. पतली कमर, कुल मिला कर विश्व सुंदरी वाला माप. उसे इस आफत की घड़ी में भी हेमंत की बातें याद कर हंसी आ गई कि क्या दिलफेंक इनसान है उस का पति.

यों तो वह मेरी तारीफ करते नहीं थकता. कहता है, ‘कवि, तुम सांचे में ढली हो. तुम्हारी ये आंखें मुझे हमेशा अपने पास बुलाती हैं. तुम्हारे ये रसीले होंठ बिना लाली के ही लाल हैं.’ और मेरे होंठों पर उस के अधीर चुंबन की सरसराहट दौड़ गई. ये मर्द होते ही ऐसे हैं जो जेहन में ऊषा जैसी औरत को रखेंगे और क्रिया करेंगे बीवी के साथ घर में…पर हेमंत वाकई मुझे प्यार करता है.

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