हम तीन- भाग 1: आखिर क्या हुआ था उन 3 सहेलियों के साथ?

स्नेही ने कालेज से आते ही मुझे बताया, ‘‘मां, शनिवार को हमारी 10वीं कक्षा का रियूनियन है, बहुत मजा आएगा, मैं बहुत एक्साइटेड हूं. नीता, रिंकी, मोना से मिले हुए बहुत समय हो गया. वे लोग भी कोटा से इस प्रोग्राम के लिए विशेषरूप से आ रही हैं. एक

बड़े होटल में पार्टी है, डिनर है, बहुत मजा आएगा मां.’’

मैं उसे चहकते देख रही थी. उस की खास सहेलियां नीता, रिंकी, मोना कोटा में इंजीनियरिंग कर रही हैं.

स्नेहा फिर बोली, ‘‘कुछ बोलो न मां… बहुत मजा आता है पुराने दोस्तों से मिल कर… है न मां?’’

न चाहते हुए भी मेरे मुंह से ठंडी सी सांस निकली, ‘‘हां, आता तो है.’’

स्नेहा मेरे पास बैठ गई. बोली, ‘‘मां, आप की भी तो सहेलियां, दोस्त रहे होंगे… आप को उन की याद नहीं आती?’’

‘‘आती तो है, लेकिन शादी के बाद लड़कियां अपनीअपनी गृहस्थी में खो जाती हैं. चाह कर भी कहां एकदूसरे से मिल पाती हैं.’’

‘‘नहीं मां, दोस्तों से मिलना इतना मुश्किल तो नहीं है. आप नानी के यहां जाती हैं तो किसी से मिलने की कोशिश नहीं करतीं?’’

‘‘हां, मैं जाती हूं तो वे लोग थोड़े ही होती हैं वहां. वे अपने हिसाब से प्रोग्राम बना कर मायके आती हैं.’’

‘‘अरे मां, कोशिश तो करो, अपनी पुरानी सहेलियों से मिलने की. आप को भी बहुत

मजा आएगा… आप की लाइफ में भी एक चेंज होगा. मेरी मानो तो एक रियूनियन आप भी रख ही लो.’’

स्नेहा तो कह कर फ्रैश होने चली गई, 2 चेहरे मेरी आंखों के आगे तैर गए. क्यों न मैं भी सुकन्या और अनीता से मिलूं, लेकिन मैं यहां मुंबई में, सुकन्या इलाहाबाद में और अनीता दिल्ली में है. 20 साल से तो कोई संपर्क है नहीं. मां के यहां जाती हूं तो मां से ही उन के बारे में पता चल जाता है. अब थोड़ा अजीब तो लगेगा. अब किस का कितना स्वभाव बदल गया होगा, पता नहीं. कोई मिलने में रुचि दिखाएगी भी या नहीं… खैर पहल तो कर के देखनी चाहिए. एक कोशिश करने में क्या हरज है.

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बस, मन इसी बात में उलझ कर रह गया. अमित औफिस से आए. मुझे थोड़ी देर देखते रहे, फिर बोले, ‘‘मीनू, क्या हुआ, किसी सोच में डूबी लग रही हो?’’

मैं ने उन्हें कुछ नहीं कह कर टाल दिया. डिनर के समय स्नेहा और राहुल ने भी मुझे टोका, ‘‘क्या हुआ मां?’’

मैं ने उन्हें भी टाल दिया. मैं अभी किसी को कुछ नहीं बताना चाहती थी. पहले अपनी सहेलियों का पता तो कर लूं.

अगले दिन सब के जाने के बाद मैं ने मुजफ्फरनगर मां को

फोन कर उन्हें अपने मन की बात बताई.

वे हंस पड़ीं. बोलीं, ‘‘बहुत अच्छा सोचा. बना लो प्रोग्राम.’’

‘‘मेरे पास उन दोनों के नंबर नहीं हैं.’’

‘‘परेशान क्यों हो रही हो? मैं उन के घर से फोन नंबर ला कर तुम्हें बता दूंगी.’’मैं बेफिक्र हो गई. आधे घंटे में ही मां ने मुझे दोनों के फोन नंबर लिखवा दिए. सुकन्या हमारी गली में ही तो रहती थी और अनीता

2 गलियां छोड़ कर. मैं दोनों से बात करने के लिए बेचैन हो गई. मेरी आवाज दोनों नहीं पहचानीं, लेकिन जब उस उम्र के खास कोडवर्ड, खास किस्सों का संकेत दिया तो दोनों चहक उठीं. हम ने कितने गिलेशिकवे किए, कभी याद न करने के उलाहने दिए और फिर मैं ने अपना प्रोग्राम बताया तो दोनों एकदम तैयार हो गईं. लेकिन परेशानी यह थी कि अनीता अब टीचर थी और सुकन्या मेरी तरह हाउसवाइफ. यह तय हुआ कि अनीता छुट्टियों में मुजफ्फरनगर आ सकेगी. रात को जब हम चारों साथ बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘अमित, आप से कोई जरूरी बात करनी है.’’

बच्चों के भी कान खड़े हो गए.

अमित ने कहा, ‘‘कहो न, क्या हुआ?’’

‘‘मुझे भी अपनी सहेलियों से मिलने मां के यहां जाना है… मेरा भी रियूनियन का प्रोग्राम बन गया है.’’

तीनों जोर से हंस पड़े. मैं झेंप गई तो अमित ने स्नेहा से कहा, ‘‘स्नेहा, तुम अपनी मम्मी को क्या पट्टी पढ़ा देती हो… वे सीरियस हो जाती हैं.’’

‘‘क्यों, उन की भी लाइफ है. सारा दिन क्या हमारे आगेपीछे घूमती रहें? उन का भी फ्रैंड सर्कल रहा होगा. उन का भी मन करता होगा. मां, आप बताओ, क्या सोचा आप ने?’’

मैं ने तीनों को सुकन्या और अनीता से हुई बातचीत के बारे में बता दिया. हंसीखुशी मेरा प्रोग्राम बन गया.

राहुल को अलग ही चिंता हुई. बोला, ‘‘मम्मी, हमारे खाने का क्या होगा?’’

‘‘लताबाई से बात कर ली है. वह दोनों टाइम आ कर खाना बना देगी. अमित ने 2-3 दिन बाद ही मेरी फ्लाइट बुक कर दी. मैं ने सुकन्या और अनीता को भी बता दिया. अब हम तीनों फोन पर संपर्क में रहतीं. बहुत अच्छा लगने लगा है. सुकन्या के पति सुधीर बिजनैसमैन हैं. उस की भी 1 बेटी और 1 बेटा है. अनीता के पति विनय डाक्टर हैं और उन का इकलौता बेटा नागपुर में इंजीनियरिंग कर रहा है.’’

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‘‘हम तीनों एक ही कालेज में पढ़ी हैं. 12वीं कक्षा तक तो हम एक ही क्लास में थीं. बाकी लड़कियां हमें 3 देवियां कहती थीं. 12वीं कक्षा के बाद बीए में हमारे विषय अलगअलग हो गए थे. सुकन्या का विवाह तो बीए के बाद ही हो गया था. अनीता और मेरा एमए करने के बाद. अनीता ने अंगरेजी में एमए किया था और मैं ने ड्राइंग ऐंड पेंटिंग में.’’

जीने की राह- भाग 3: उदास और हताश सोनू के जीवन की कहानी

Writer- संध्या 

स्निग्धा का इंटरव्यू लगभग साढे़ 10 बजे खत्म हो गया था. उस के बाद वे दोनों खाली थे. उन के कदम साउथ इंडियन कौफी हाउस में जा कर रुके. वहां एकांत होने के साथसाथ नीम अंधेरा रहता था. वे दोनों खुल कर अपने मन की गांठें खोल सकते थे और एकदूसरे की आंखों के रास्ते मन की बातें जान सकते थे. कोल्ड कौफी का और्डर देने के बाद निशांत ने उस के सूखे उदास चेहरे की तरफ देखा. वह तो जैसे लगातार उसे ही देखे जा रही थी. वे दोनों एकदूसरे को देख तो रहे थे परंतु उन के मन में संकोच था. बातचीत का सिलसिला कहां से आरंभ हो, कौन पहल करे, यही बात उन दोनों के मन में घुमड़ रही थी.

तब तक कोल्ड कौफी के लंबेलंबे 2 गिलास उन के सामने रखे जा चुके थे.

स्निग्धा वैसे चंचल रही थी परंतु आज चुप थी. निशांत स्वभाव से ही अंतर्मुखी था. अंतर्मुखी नहीं होता तो स्निग्धा आज उस की होती. तब वह अपने मन की बात उस से नहीं कह पाया था. क्या आज कह पाएगा? आज स्निग्धा के पास समय भी था और वह उस के सामने बैठी थी, उस की बात सुनने के लिए परंतु एक रुकावट थी जो बारबार निशांत को परेशान किए जा रही थी. स्निग्धा पहले से ही राघवेंद्र की है. उस को छोड़ कर क्या वह उस की हो सकती थी? ऐसा संभव तो नहीं था. स्निग्धा के विद्रोही स्वभाव से वह परिचित था. वह जो ठान लेती थी उसे कर के ही मानती थी. भले ही बाद में उसे नुकसान उठाना पड़े.

कई पल खामोशी से गुजर गए. यह खामोशी उबाऊ लगने लगी तो स्निग्धा ने ही कहा, ‘क्या हम यहां ऐसे ही बैठने के लिए आए हैं? कुछ मन की नहीं कहेंगे?’

‘आप ही कुछ बताओ,’ उस ने ऐसे कहा जैसे उसे कुछ बोलना नहीं था. वह केवल उस की बातें सुनने के लिए ही उस के साथ आया था. वैसे वह उस के विगत जीवन के बारे में जानने का इच्छुक नहीं था, परंतु जाने बिना उसे कैसे पता चल सकता था कि इलाहाबाद और राघवेंद्र को छोड़ कर वह दिल्ली में क्या कर रही थी? आजकल किस के साथ रह रही थी? ऐसी लड़कियां क्या एक पल के लिए अकेली रह सकती हैं? एक मर्द छोड़ती हैं तो दूसरा पकड़ लेती हैं. इस तरह के संबंधों में कोई प्रतिबद्धता नहीं होती, न एकदूसरे के प्रति कोई जिम्मेदारी और लगाव यही तो आधुनिकता है.

‘मुझे विश्वास नहीं होता हम यहां एकसाथ,’ कह कर स्निग्धा ने बात आरंभ की.

निशांत ने यह नहीं पूछा कि उसे किस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था, फिर उस के मुंह से निकला, ‘और मुझे भी.’

वह मुखर हो उठी. एक बार बात शुरू हो जाए तो स्निग्धा की जबान को पर लग जाते थे. उस ने कहा, ऐसी ही घटनाओं से लगता है कि दुनिया वाकई बहुत छोटी है. जीवन के एक मोड़ पर हम अलग होते हैं तो अगले मोड़ पर फिर मिल जाते हैं.’

स्निग्धा बातें करते हुए अब काफी प्रफुल्लित लग रही थी. कुछ देर पहले की उदासी उस के चेहरे से गायब हो गई थी. ऐसा लग रहा था, जैसे उसे अपनी खोई हुई बहुत कीमती चीज मिल गई थी. उस के बदन में थिरकन आ गई थी और आंखों की पुतलियां नाचने लगी थीं.

निशांत उसे एकटक देखता जा रहा था. उस ने सोचा, वह इसी तरह खुश रहेगी तो शायद उस का खोया हुआ यौवन और सौंदर्य एक दिन वापस आ जाएगा.

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वह दिल की धड़कन को संभाले बैठा रहा. फिर भी विचार उमड़घुमड़ रहे थे. स्निग्धा जैसी लड़की उस के साथ, बिलकुल उस के सामने बैठी हो और वह निरपेक्ष व निस्पृह रहे, क्या ऐसा संभव था?

वह स्निग्धा के चेहरे के चढ़तेउतरते और बदलते भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था कि अचानक स्निग्धा ने पूछ लिया, ‘क्या तुम ने शादी कर ली?’ वह अवाक् रह गया. स्निग्धा पहली बार अनौपचारिक हुई थी. उस ने निशांत को ‘तुम’ कहा था.

निशांत ने अपना चेहरा नीचे झुका लिया, ‘अभी शादी के बारे में सोचा नहीं है. नौकरी मिलने के बाद अपने पांव जमाने का प्रयास कर रहा हूं. जिस दिन लगेगा कि अब जीवन में हर प्रकार का स्थायित्व आ गया है, आर्थिक और सामाजिक, तो शादी के बारे में सोचूंगा.’

‘तब सोचोगे?’ स्निग्धा ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘नौकरी मिलने के बाद भी क्या शादी के लिए सोचना पड़ता है? नौकरी ही तो हर प्रकार का स्थायित्व देती है. अब क्या सोचना. यहां तो लोग बिना किसी आय के शादी के बारे में सोचते हैं. मांबाप भी, चाहे बेटा बेरोजगार क्यों न हो, उस के जवान होते ही उस की शादी करने के लिए उतावले हो जाते हैं. फिर तुम तो हर प्रकार से सक्षम हो. बात कुछ मेरी समझ में नहीं आ रही है.’

इस संबंध में उस ने स्निग्धा को कोई स्पष्टीकरण देना उचित नहीं समझा. कोई आवश्यकता भी नहीं थी. वह चुप रहा तो स्निग्धा ने ही शरारती मुसकराहट के साथ कहा, ‘तुम अभी तक मुझे भूले नहीं हो, क्यों? है न यही बात?’

निशांत के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उस की आंखें स्निग्धा की आंखों से जा टकराईं, जैसे पूछ रही थीं, ‘तो तुम जानती थीं?’

स्निग्धा उस के भावों को समझते हुए बोली, ‘हां, मुझे पता था. मेरा जिस तरह का स्वभाव था और जिस प्रकार मैं यूनियन के कार्यों व खेलकूद में भाग लेती थी, हर प्रकार के व्यक्ति से मेरा वास्ता पड़ता था, किसी के व्यक्तित्व के बारे में जानना मेरे लिए मुश्किल नहीं था. उन दिनों लड़के जिस प्रकार मेरे लिए पागल थे, मैं महसूस करती थी. जो खुल कर मेरे सामने आते थे, उन को भी और जो चुपचाप अपने मन की बात मन की पर्तों में छिपा कर रखते थे, उन के बारे में भी जानती थी.

किसी लड़की के लिए लड़कों की निगाहों के भाव पढ़ना मुश्किल नहीं होता और फिर जिस प्रकार कक्षा में पीछे बैठ कर तुम मुझे देखा करते थे. डिपार्टमैंट के अंदर आतेजाते, सीढि़यां चढ़तेउतरते मुझे देख कर जिस प्रकार तुम्हारी आंखों में चमक आ जाया करती थी, वह मुझ से कभी छिपी नहीं रही थी. परंतु ये वे दिन थे जब सैकड़ों लड़के मेरे सौंदर्य के कायल थे और मेरा तनमन जीतने के युद्ध में सम्मिलित थे वैसी स्थिति में तुम्हारे जैसे सच्चे प्रेमी को नकार देना किसी भी लड़की के लिए बहुत आसान था. उस समय समझदार से समझदार लड़की भी यश और धन की चमक में खो कर सच्चा प्रेम नहीं पहचान पाती है. वह मगरूर हो जाती है और प्रेमियों की भीड़ में सच्चा प्यार खो देती है.’

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कहतेकहते उस ने निसंकोच निशांत का दाहिना हाथ पकड़ लिया और प्यार से उसे सहलाते हुए बोली, ‘मुझे खेद है कि मैं ने तुम्हारे जैसा हीरा खो दिया, परंतु अफसोस तो मुझे इस बात का अधिक है कि आजादी और समाज से विद्रोह के नाम पर परंपराओं को तोड़ने का जो नासमझी भरा कदम मैं ने इलाहाबाद जैसे पारंपरिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक शहर में किया था, वह मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल थी. उस भूल का परिणाम तुम देख ही रहे हो कि आज मैं कैसी हूं और कितनी तन्हा. इतनी तन्हा, जितना किसी गुफा का सन्नाटा हो सकता है.’

स्निग्धा की आंखों में आंसू छलक आए. निशांत ने उस की आंखों को देखा, परंतु उस ने उस के आंसू पोंछने का कोई प्रयास नहीं किया. बस, अपने हाथों को धीरे से उस के हाथों से अलग कर के कहा, ‘हर आदमी जीवन में कोई न कोई भूल करता है, परंतु उस के लिए अफसोस करने से दुख कम नहीं होता, बल्कि बढ़ता ही है,’ उस के स्वर में दृढ़ता थी.

‘सच कहते हो तुम,’ उस ने झटके से अपने आंसू पोंछ डाले और मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, ‘मैं अपना अतीत याद नहीं करना चाहती, परंतु उसे बताए बिना तुम मेरी बात नहीं समझ पाओगे. विगत की हर एक बात मैं तुम्हें नहीं बताऊंगी. बस, उतना ही जितने से तुम मेरे मन को समझ सको और यह समझ सको कि मैं ने अपने विद्रोही स्वभाव के कारण क्या पाया और क्या खोया.’

‘इतना भी आवश्यक नहीं है,’ वह गंभीरता से बोला, ‘तुम सामान्य बातें करोगी तो मुझे अच्छा लगेगा.’

‘मैं तुम्हारे मन की दशा समझ सकती हूं. तुम मेरे दुख से दुखी नहीं होना चाहते हो.’

‘मैं तुम्हारे सुख से सुखी होना चाहता हूं,’ उस ने स्पष्ट किया.

स्निग्धा को उस की बात से घोर आश्चर्य हुआ. वह हकबका कर बोली, ‘मैं कुछ समझी नहीं?’

‘जिस जगह तुम मुझे छोड़ कर गई थीं, उसी जगह पर मैं अभी तक खड़ा हो कर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं,’ उस ने निसंकोच कहा.

स्निग्धा के हृदय में मधुर वीणा के तारों सी झंकार हुई, ‘लेकिन तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं बिना शादी के राघवेंद्र के साथ रह रही थी. तुम्हें पता नहीं है कि पिछले 5 सालों में मेरे साथ क्याक्या गुजरा है?’

निशांत ने प्रश्नवाचक भाव से उस की तरफ देखा और अपने दोनों हाथों को मेज पर रख कर उस की तरफ झुकता हुआ बोला, ‘तुम चाहो तो बता सकती हो.’

स्निग्धा ने एक राहत भरी सांस ली और बोली, ‘मैं बहुत लंबा व्याख्यान नहीं दूंगी. मेरी बातों से ऊबने लगो तो बता देना.’

उस ने सहमति में सिर हिलाया और तब स्निग्धा ने धीरेधीरे उसे बताया, ‘मैं ने परंपराओं, सामाजिक मर्यादा और वर्जनाओं का विरोध किया. बिना शादी के एक युवक के साथ रहने लगी. परंतु जिसे मैं ने आजादी समझा था वह तो सब से बड़ा बंधन था. सामाजिक बंधन में तो फिर भी प्रतिबद्धता होती है, एकदूसरे के प्रति लगाव और कुछ करने की चाहत होती है परंतु बिना बंधन के संबंधों का आधार बहुत सतही होता है. वह केवल एक विशेष जरूरत के लिए पैदा होता है और जरूरत पूरी होते ही मर जाता है.

‘मैं राघवेंद्र के साथ रहते हुए बहुत खुश थी. हम दोनों साथसाथ घूमते, राजनीतिक पार्टियों में शामिल होते. मेरी अपनी महत्त्वाकांक्षा भी थी कि राघवेंद्र के सहारे मैं राजनीति की सीढि़यां चढ़ कर किसी मुकाम तक पहुंच जाऊंगी, परंतु यह मेरी भूल थी. 3 साल बाद ही मुझे महसूस होने लगा कि राघवेंद्र मुझे बोझ समझने लगा था. अब वह मुझे अपने साथ बाहर ले जाने से भी कतराने लगा था. बातबात पर खीझ कर मुझे डांट देता था.

मैं समझ गई, वह केवल अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए मुझे अपने साथ रखे हुए था. मेरा रस चूस लेने के बाद अब वह मुझे बासी समझने लगा था. वह मुरझाए फूल की तरह मुझे फेंक देना चाहता था. उस की बेरुखी से मैं ने महसूस किया कि हम जिस शादी के बंधन को बोझ समझते हैं, वह वाकई वैसा नहीं है. बिना शादी के भी तो 2 व्यक्ति वही सबकुछ करते हैं, परंतु बिना किसी जिम्मेदारी के और जब एकदूसरे से ऊब जाते हैं तो बड़ी आसानी से जूठी पत्तल की तरह फेंक देते हैं. लेकिन मान्यताप्राप्त बंधन में ऐसा नहीं होता.

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‘मैं ने भी अगले 2 साल तक और बरदाश्त किया, परंतु एक दिन राघवेंद्र ने मुझ से साफसाफ कह दिया कि मुझे अपना राजनीतिक कैरियर बनाना है. तुम अपने लिए कोई दूसरा रास्ता चुन लो. तुम्हारे साथ रहने से मेरी बदनामी हो रही है. अगला आम चुनाव आने वाला है. अगर तुम मेरे साथ रहीं तो मेरी छवि धूमिल हो जाएगी और मुझे टिकट नहीं मिलेगा.’

‘मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई. मेरी सारी शक्ति, समाज से बगावत करने का जोश जैसे खत्म हो गया. मैं समझ गई, नारी चाहे जितना समाज से विद्रोह करे, पुरुष के हाथों की कठपुतली न बनने का मुगालता पाल ले, परंतु आखिरकार वह वही करती है जो पुरुष चाहते हैं. वह पुरुष की भोग्या है. जानेअनजाने वह उस के हाथों से खेलती रहती है और सदा भ्रम में जीती है कि उस ने पुरुष को ठोकर मार कर आजादी हासिल कर ली है.

‘जिस समाज से मैं विद्रोह करना चाहती थी, जिस की मान्यताएं, परंपराओं और वर्जनाओं को तोड़ कर मैं आगे बढ़ना चाहती थी, उसी समाज के एक कुलीन और सभ्य व्यक्ति ने मेरा सतीत्व लूट लिया था या यों कहिए कि मैं ने ही उस के ऊपर लुटा दिया था. बताओ, एक शादीशुदा औरत और मुझ में क्या फर्क रहा? शादीशुदा औरत को भी पुरुष भोगता है और बिना शादी किए मुझे भी एक पुरुष ने भोगा. उस ने अपनी भूख मिटा ली. परंतु नहीं, हमारी जैसी औरतों और शादीशुदा औरतों में एक बुनियादी फर्क है. जहां शादीशुदा औरत यह सब कुछ एक मर्यादा के अंतर्गत करती है, हम निरंकुश हो कर वही काम करती हैं. एक पत्नी को शादी कर के परिवार और समाज की सुरक्षा मिलती है, परंतु हमारी जैसी औरतों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती. पत्नी के प्रति पति जिम्मेदार होता है, उस के सुखदुख में भागीदार होता है, जीवनभर उस का भरणपोषण करता है, परंतु हमें भोगने वाला व्यक्ति हर प्रकार की जिम्मेदारी से मुक्त होता है. वह हमें रखैल बना कर जब तक मन होता है, भोगता है और जब मन भर जाता है, ठोकर मार कर गलियों में भटकने के लिए छोड़ देता है.’

वह बड़ी धीरता और गंभीरता से अपनी बात कह रही थी. निशांत पूर्ण खामोशी से उस की बातें सुन रहा था. बीच में उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की, न कुछ बोला. अपनी बात खत्म करतेकरते स्निग्धा भावों के अतिरेक से विह्वल हो कर रोने लगी. परंतु निशांत ने उसे चुप नहीं कराया. कुछ देर बाद वह स्वयं शांत हो गई.

पता नहीं, निशांत क्या सोच रहा था. उस का सिर झुका हुआ था और लग रहा था जैसे वह स्निग्धा की सारी बातों को मन ही मन गुन रहा था, उन पर मनन कर रहा था. फिर और कई पल गुजर गए. इस बीच वेटर आ कर कई बार पूछ गया कि कुछ और चाहिए या बिल लाऊं. उस ने इशारे से उसे 2 और कोल्ड कौफी लाने को आदेश दे दिया था.

अपने अपने रास्ते- भाग 2: क्या विवेक औऱ सविता की दोबारा शादी हुई?

एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों में सभी दूरियां मिट गईं. सविता की औरत को एक मर्द की और विवेक के मर्द को एक औरत की जरूरत थी. अपने प्रौढ़ावस्था के पुराने खयालों के पति की तुलना में विवेक बतरा स्वाभाविक रूप से ताजादम और जोशीला था, दूसरी ओर विवेक बतरा के लिए कम उम्र की लड़कियों के मुकाबले एक अनुभवी औरत से सैक्स नया अनुभव था.

एक रोज सहवास के दौरान विवेक बतरा ने कहा, ‘‘मुझ से शादी करोगी?’’

इस सवाल पर सविता सोच में पड़ गई. विवेक उस से काफी छोटा था. उस को हमउम्र या छोटी उम्र की लड़कियां आसानी से मिल जाएंगी. अपने से उम्र में इतनी बड़ी महिला से वह क्या पाएगा?

‘‘क्या सोचने लगीं?’’ सविता को बाहुपाश में कसते हुए विवेक ने कहा.

‘‘कुछ नहीं, जरा तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार कर रही थी. मैं तुम से उम्र में बड़ी हूं. तलाकशुदा हूं. एक किशोर लड़की की मां हूं. तुम्हें तुम्हारी उम्र की लड़की आसानी से मिल जाएगी.’’

‘‘मैं ने सब सोच लिया है.’’

‘‘फिर भी फैसला लेने से पहले सोचना चाहती हूं.’’

इस के बाद विवेक और सविता काफी ज्यादा करीब आ गए. दोनों में व्यावसायिक संबंध काफी प्रगाढ़ हो गए. विवेक अन्य फर्मों को आयातनिर्यात के आर्डर देने से कतराने लगा, उस की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा काम सविता की कंपनी को मिले.

सविता भी उसे पूरी तरजीह देने लगी. उस ने अपने दफ्तर में विवेक के बैठने के लिए एक केबिन बनवा दिया जो उस के केबिन से सटा हुआ था. धीरेधीरे अनेक ग्राहकों को, जो पहले सविता के ग्राहक थे, विवेक अपने केबिन में बुला कर हैंडल करने लगा. आफिस स्टाफ को भी विवेक अधिकार के साथ आदेश देने लगा. मालकिन या मैडम का खास होने के कारण सभी कर्मचारी न चाहते हुए भी उस का आदेश मानने लगे.

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अभी तक विवेक, सविता से हर आर्डर पर कमीशन लेता था. सविता ने उस को कभी अपने व्यापार का हिसाबकिताब नहीं दिखाया था. मगर वह कभी कंप्यूटर से और कभी लेजर बुक्स से भी व्यापार के हिसाबकिताब पर नजर रखने लगा.

अभी तक विवेक फर्म का प्रतिनिधि और एजेंट ही था. उस को किसी सौदे या डील को फाइनल करने का अधिकार न था. ऐसा करने के लिए या तो वह फर्म का पार्टनर बनता या फिर उस के पास सविता का दिया अधिकारपत्र होता मगर एकदम से उस को यह सब हासिल नहीं हो सकता था. जो भी था आखिर वह एक एजेंट भर था, जबकि सविता फर्म की मालकिन थी.

वह एकदम से सविता से पावर औफ अटौर्नी देने को या पार्टनर बनाने को नहीं कह सकता था इसलिए वह अब फिर से सविता से विवाह के लिए कहने लगा था.

‘‘शादी किए बिना भी हम इतने करीब हैं फिर शादी की औपचारिकता की क्या जरूरत है?’’ सविता ने हंस कर कहा.

‘‘मैं चाहता हूं कि आप मेरी होममिनिस्टर कहलाएं. आप जैसी इतनी कामयाब और हसीन खातून का खादिम बनना समाज में बड़ी इज्जत की बात है,’’ विवेक ने सिर नवा कर कहा.

इस पर सविता खिलखिला कर हंस पड़ी. आखिर कोई स्त्री अपने रूपयौवन की प्रशंसा सुन कर खुश ही होती है. उस शाम विवेक उसे एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में खाना खिलाने ले गया. वहीं एक ज्वैलरी शोरूम से हीरेजडि़त एक ब्रेसलेट ले कर भेंट किया तो सविता और भी अधिक खुश हो गई.

उस शाम यह तय हुआ कि सविता 3 दिन के बाद अपना पक्का फैसला सुनाएगी.

इन 3 दिनों के बीच में किसी विदेशी फर्म को एक सौदे के लिए भारत आना था जिसे अभी तक सविता खुद ही हैंडल करती आई थी. विवेक भी इस फर्म के प्रतिनिधि के रूप में सविता के साथ उस फर्म के प्रतिनिधि से मिलना चाहता था.

इस बार का सौदा काफी बड़ा था. दोपहर को सविता के दफ्तर में मिस रोज, जो एक अंगरेज महिला थी, ने सविता और विवेक से बातचीत की. सौदा सफल रहा. विवेक ने भी अपने वाक्चातुर्य का भरपूर उपयोग किया. मिस रोज भी विवेक के व्यक्तित्व से खासी प्रभावित हुई.

फिर कांट्रैक्ट साइन हुआ. सविता कंपनी की मालकिन थी. अत: साइन उसी को करने थे. विवेक खामोशी से सब देखता रहा था.

मिस रोज विदा होने लगी तो सविता ने उस को सौदा फाइनल होने की खुशी में रात के खाने पर एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में आमंत्रित किया. मिस रोज ने खुशीखुशी आना स्वीकार किया.

उस शाम सविता ने आफिस जल्दी बंद कर दिया. फ्लैट पर नहा कर अपनी ब्यूटीशियन के यहां गई. नए अंदाज में मेकअप करवाने के बाद अब सविता और भी दिलकश लग रही थी.

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ब्यूटीपार्लर से निकल कर सविता अपने लवर के पास गई. आज विवेक को उसे अपना पक्का फैसला सुनाना था. ज्वैलर्स के यहां से विवेक को देने के लिए उस ने एक महंगी हीरेजडि़त अंगूठी खरीदी.

मिस रोज ठीक समय पर आ गई. वह नए स्टाइल के स्कर्ट, टौप में थी. उस ने हाईहील के महंगे सैंडिल पहने थे. गहरे रंग के स्कर्र्ट व टौप उस के सफेद दूधिया शरीर पर काफी फब रहे थे.

विवेक बतरा भी गहरे रंग के नए फैशन के इवनिंग सूट में था. अपने गोरे रंग और लंबे कद के कारण वह ‘शहजादा गुलफाम’ लग रहा था.

छोटी छोटी खुशियां- भाग 3: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

सुधा की जबान अभी भी कैंची की तरह चल रही थी, ‘‘सुन रहे हो न?’’ सुधा की कर्कश आवाज सुनते ही प्रताप की सोच टूटी. सुधा कह रही थी, ‘‘सुबह उठते ही किचन में घुस जाती हूं. तुम्हारे लिए चायनाश्ता और खाना बनाती हूं. एक दिन रसोई में जाओ तो पता चले. इस गरमी में खाने के साथ खुद सुलगते हुए तुम्हारे लिए रोटियां सेंकती हूं. इतना करने पर भी एहसान मानने के बजाय तुम…’’

प्रताप सिर झुकाए किसी तरह एकएक कौर मुंह में ठूंस रहा था. सुधा की बातों से प्रताप समझ गया था कि अभी तो यह शुरुआत है. पिछली रात भैयाभाभी आए थे. उन्होंने जो बातें की थीं, अभी तो वह मुद्दा पूरी उग्रता के साथ सामने आएगा. कोई बड़ा झगड़ा करने की शुरुआत सुधा छोटी बात से करती थी. उस के बाद मुख्य मुद्दे पर आती थी. प्रताप सुधा की लगभग हर आदत से परिचित हो चुका था.

‘‘और सुनो…’’ दाहिना हाथ आगे बढ़ा कर उंगली प्रताप की आंखों के सामने कर के सुधा तीखे स्वर में बोली, ‘‘मुझ से पूछे बगैर किसी को एक भी पैसा दिया तो मुझ से बुरा कोई न होगा. मुझ से हंस कर बातें करने में तो तुम्हारी नानी मरती है. कल भैयाभाभी आए थे तो किस तरह उछलउछल कर बातें कर रहे थे. मैं भी अनाज खाती हूं, घास नहीं खाती. सबकुछ अच्छी तरह समझती हूं मैं. मकान की मरम्मत करवानी है, इसलिए भिखारियों की तरह पैसा मांगने चले आए थे,’’ भैया ने जो बात कही थी, सुधा ने उस का ताना मारा, ‘‘80 हजार रुपए की जरूरत है. अपने स्टाफ कोऔपरेटिव से लोन दिला दो, तो बड़ी मेहरबानी होगी. हजार रुपए महीने दे कर धीरेधीरे अदा कर दूंगा.’’

फिर एक लंबी सांस ले कर आगे सुधा बोली, ‘‘कान खोल कर सुन लो, किसी को एक भी रुपया नहीं देना है. अपने भैया को फोन कर के बता दो कि स्टाफ सोसायटी में बात की थी. वहां से अभी लोन नहीं मिल सकता. गोलमोल जवाब देने के बजाय सीधे इनकार कर दो.’’

बड़े भाई के लिए सुधा ने जो बातें कही थीं, सुन कर प्रताप के बाएं हाथ की मुट्ठी कसती जा रही थी. दाहिने हाथ से वह खाना खा रहा था. उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो सुधा ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सुन रहे हो न तुम? फैक्टरी में फोन कर के साफसाफ मना कर देना,’’ फिर प्रताप की आंखों में आंखें डाल कर धमकीभरे स्वर में बोली, ‘‘यदि यह काम तुम न कर सको तो बोलो, मैं फोन कर के मना कर दूं.’’

मुंह का कौर प्रताप के गले में फंस गया. उसे उतारने के लिए उस ने पानी पिया. वाशबेसिन पर जा कर हाथ धोए और नैपकिन ले कर पोंछने लगा. इतना कहतेकहते जैसे सुधा थक गई थी, इसलिए वह डाइनिंग टेबल के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

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प्रताप मोजेजूते पहनने लगा. सुधा जलती नजरों से उसे ताक रही थी. प्रताप खाना खा रहा होता तो झगड़ा करने में शायद सुधा को कुछ अधिक ही मजा आता था. शुरूशुरू में दोचार बार ऐसा हुआ था तो वह थाली छोड़ कर खड़ा हो गया था. परंतु सुधा पर इस का कोई असर नहीं पड़ा था. पति ने खाना नहीं खाया है, इस बात का उस के लिए कोई महत्त्व नहीं था. धीरेधीरे प्रताप भी ढीठ हो गया था. वह खा रहा हो और सामने खड़ी सुधा कितना भी चीख रही हो, उस पर कोई असर नहीं होता था. वह चुपचाप बैठा खाता रहता था.

प्रताप जूते पहन कर खड़ा हुआ तो सुधा उस के पास आ कर चीखी, ‘‘एक बार फिर कह रही हूं, फोन कर के पैसे के लिए मना कर देना. यदि तुम ने मना नहीं किया, मैं किस तरह मना करूंगी, यह तुम अच्छी तरह जानते हो.’’

प्रताप का मन हुआ कि चटाकचटाक कई तमाचे उस के गोरेगोरे गालों पर जड़ दे. परंतु अगले ही क्षण उस की यह इच्छा म्यान में तलवार की तरह समा गई. 6-7 महीने पहले की घटना याद आ गई. एक छोटी सी बात पर सुधा बड़े भाई के घर पहुंच गई थी. वहां उस ने ऐसा बवाल मचाया था कि पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया था. उस ने स्कूटर की चाबी ली और घर के बाहर निकल गया. पिछले आधे घंटे में उस ने जो मानसिक कष्ट झेला था, उस का बदला निकाला दरवाजे से. पूरी ताकत से उस ने भड़ाक से दरवाजा बंद किया.

सीढि़यों से स्कूटर तक पहुंचने में उसे लग रहा था कि दिमाग की नसें फट जाएंगी. सुधा ने जब उस के भाई को भिखारी कहा था तो उस का मन हुआ था कि हंटर ले कर उस पर टूट पड़े, उस की जबान खींच ले. पर यह आक्रोश सिर्फ दिमाग की नसों में तनाव पैदा कर के ही रह गया था.

ससुर का यह फ्लैट तीनमंजिला भवन के फर्स्ट फ्लोर पर था. 15 साल पहले जब यह भवन बना था तो सुधा के पापा ने यह फ्लैट खरीदा था. शादी के बाद प्रताप का कमरा देख कर सुधा ने नाकभौं सिकोड़ा था. भीड़ और गंदगीभरी उस जगह पर सुधा का रहना मुश्किल था. उस ने यह बात अपने पापा से कही. वैसे भी वे लोग कोठी लेने की सोच रहे थे. सुधा की बात सुन कर उन्होंने कोठी खरीद ली थी और फ्लैट सुधा को दे दिया था.

प्रताप ने घड़ी देखी और स्कूटर के पास पहुंच गया. रोज की तरह आज भी स्कूटर के पास कचरा फैला हुआ था. स्कूटर की सीट पर गुटखे का खाली पाउच पड़ा था. रोज इसी तरह उस के स्कूटर पर ऊपर से कचरा फेंका जाता था. प्रताप ने हथेली से स्कूटर की सीट साफ की और ऊपर की ओर देखा. दोनों फ्लैटों की बालकनी में उस समय कोई नहीं था. मन हुआ कि पूरा कचरा एक थैली में भर कर उन के फ्लैटों में फेंक आए और उन्हें चार बातें भी सुना आए. पता नहीं ये लोग आदमी की तरह रहना कब सीखेंगे. परंतु ऐसा वह कर नहीं सकता था. 2-3 मिनट में ही सारा आक्रोश पानी की तरह बह गया, सिर्फ दिमाग की नसें तनी रहीं. प्रताप यहां रहने आया था तो यह बात उस ने सुधा को बताई थी. परंतु बातबात में प्रताप से उलझने वाली सुधा इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से चुप रही थी. उस के पापा 15 साल यहां रहे थे. सभी पड़ोसियों से उन के मधुर संबंध थे. शायद पुराने संबंधों की वजह से सुधा कुछ भी कहने को तैयार नहीं थी.

सड़क पर आ कर प्रताप ने स्कूटर की गति बढ़ा दी थी. ब्रांच मैनेजर, दिलीप सिंह का खतरनाक कुत्ते जैसा चेहरा आंखों के सामने तैर उठा तो स्कूटर की गति थोड़ी और बढ़ा दी. इस मैनेजर को भी एक दिन सिखाना पड़ेगा. स्कूटर की गति के साथ प्रताप के विचारों की भी गति तेज हो गई थी. ब्रांच में उस की चमचागीरी करने वाला अशोक पूरे दिन शेयर बाजार का कारोबार करता रहता है. उसे कोई काम नहीं देता. कोई भी काम आ जाता है तो उसी को यह कह कर सौंप देता है, ‘मिस्टर प्रताप, प्लीज, जरा इसे भी कर देना…’

चौराहे पर ट्रैफिक जाम था. वह बेचैन हो उठा. आज गुरुवार है, उसे याद ही नहीं था. वह मन ही मन गालियां देने लगा. चौराहे पर ही शौपिंग सैंटर की एक दुकान में किसी धर्मभीरु ने साईं बाबा का मंदिर बना दिया था. इसलिए गुरुवार को दर्शनार्थियों की वजह से जाम लग जाता था. एक तो फूलमाला वाले पटरी पर दुकान लगा लेते थे, दूसरे, दर्शन करने वाले अपने वाहन इधरउधर खड़े कर देते थे. इधरउधर, तिरछासीधा कर के किसी तरह प्रताप ने चौराहा पार किया. आगे चलने वाले टैंपो काला जहरीला धुआं निकाल रहे थे. धुएं की गंध नाक में घुस रही थी और आंखें जल रही थीं. स्कूटर की गति बढ़ा कर वह आगे निकल गया. परंतु आगे चल कर बसें कुछ इस तरह खड़ी थीं कि आधी से अधिक सड़क बंद थी. इन बसों ने पूरी दिल्ली को परेशान कर रखा है. प्रताप की आंखों के सामने फिर से ब्रांच मैनेजर का चेहरा तैर गया. प्रताप बसों के बीच से स्कूटर निकाल कर आगे बढ़ा. ये बसें रोज इसी तरह परेशान करती हैं, परंतु बस वालों को न सरकार कुछ कहती है न ट्रैफिक पुलिस वाले. प्रताप के दिमाग की नसें तनती ही जा रही थीं.

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आज तो काफी देर हो चुकी है. मैनेजर साहब निश्चित ही बुला कर डांटेंगे. जितना संभव था, प्रताप ने स्कूटर की गति उतनी तेज कर दी. आगे के चौराहे पर उस ने लाइट की ओर देखा. ग्रीन लाइट देख कर उस ने स्कूटर की गति और तेज कर दी. उस चौराहे से 3-4 मिनट में ही वह बैंक पहुंच जाता. उस के आगे ट्रैफिक की भी कोई समस्या नहीं थी. वह बीच चौराहे में पहुंचता, उस से पहले ही पीली बत्ती जल गई. पीली बत्ती देख कर वह ठिठका, तब तक उस के पीछे से एक बस आगे निकल गई. उस ने भी अपना स्कूटर आगे बढ़ा दिया.

नश्तर- भाग 1: पति के प्यार के लिए वो जिंदगी भर क्यों तरसी थी?

पैरों की एडि़यां तड़कने लगी हैं, चेहरे की झुर्रियां भी जबतब कसमसाने लगी हैं. कितनी भी कोल्ड क्रीम घिसें, थोड़ी देर में ही जैसे त्वचा तड़कने लगती है. बूढ़े लोगों को देखना और बात है, लेकिन बुढ़ापे को अपने शरीर में महसूस करना और बात. सारी इंद्रियों की शक्ति धीरेधीरे जाने कहां लुप्त होने लगती है. बस, एक ही चीज खत्म नहीं होती, और वह है अंदर की चेतना.

कभीकभी उन्हें झुंझलाहट भी होती है कि सारी शक्ति की तरह यह चेतना भी क्षीण क्यों नहीं हो जाती. यदि ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो. सुबह उठ कर खाओपीओ, हलकेफुलके काम करो और सो जाओ, अवकाशप्राप्त जिंदगी में और है ही क्या, लेकिन ऐसा होता कहां है.

उन की चेतना के आंचल में ढेरों नश्तर घुसे हुए हैं. वे चाहती हैं कि उन्हें नोच कर बाहर फेंक दें. वे तो जमीन में उगे कैक्टस की मानिंद हैं, ऊपर से कितना भी काटो, फिर उग आएंगे. एक नश्तर तो उन की चेतना में पिरोए दिल की झिल्ली में जैसे बारबार दंश मारता रहता है.

अर्चना दीदी उन से 5 वर्ष छोटी हैं. वे गौरवर्णा, चिकनी त्वचा वाली गोलमटोल महिला हैं. अकसर ऐसी स्त्रियों के गाल उन्नत होते हैं और आंखें छोटीछोटी व कटीली. वे इन का इस्तेमाल करना भी खूब जानती हैं. कहने को तो वे विजयजी की दूर के रिश्ते की बहन हैं, लेकिन जब भी घर में कदम रखेंगी, आंखें नचा कर, तरहतरह के मुंह बना कर इस तरह बात करेंगी कि विजयजी हंसतेहंसते लोटपोट हो जाते हैं.

अपनी ही बात पर मोहित हो वे विजयजी के गले में बांहें डाल देंगी, ‘क्यों भैया, मैं ने ठीक कहा न?’

‘तुम गलत ही कब कहती हो,’ विजयजी उन की ब्लाउज व साड़ी के बीच की खुली कमर को अपनी बांहों में घेर कर उन्हें अपने पास खींच लेंगे.

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वे यह नाटक कुछ महीनों से देखती चली आ रही हैं. कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती. घर के किसी कोने में आंसू बहाती रहती हैं या कुढ़ती रहती हैं. इस गले लगाने या लिपटने से आगे भी उन दोनों के बीच कुछ और है, वे टोह नहीं ले पाई हैं. वैसे भी वे हर समय पति के पीछे थोड़े ही लगी रहती हैं.

कभीकभी उन्हें अपनेआप पर बेहद खीझ होती है कि क्यों उन्होंने खुद को दब्बू बना रखा है? शादी से पहले जब वे सोफे पर कूद कर ‘धम’ से बैठती तो मां बड़बड़ाया करती थीं, ‘क्या लड़कों जैसी उछलतीकूदती रहती है, जरा लड़कियों जैसी नजाकत से रहा कर.’

तीज से एक दिन पहले मां एक कटोरी में मेहंदी घोल कर बैठ जातीं. तब वे बहाना बनातीं, ‘मां, कल विज्ञान का टैस्ट है.’

‘तू हर साल बहाना करती है. लड़कियों को पता नहीं क्याक्या शौक होते हैं. नेलपौलिश लगाएंगी, लिपस्टिक लगाएंगी, चूडि़यां पहनेंगी. लेकिन एक तू…नंगे डंडे जैसे हाथ लिए घूमती रहती है. चल, आज तो मेहंदी का शगुन कर ले.’

बेहद खीझते हुए वे मां के सामने बैठ जातीं. मां मेहंदी में नीबू, चीनी, चाय का पानी और न जाने क्याक्या मिला कर उसे तैयार करतीं, पर मेहंदी लगवाते हुए वे शोर मचातीं, ‘मां, जल्दी करो, दुखता है.’

मां तो जैसे तीजत्योहारों पर तानाशाह बन जाती थीं, ‘चुपचाप बैठी रह. कल नहाने से पहले तुझे हरे रंग की चूडि़यां पहननी हैं.’

‘ठीक है, पहन लूंगी, लेकिन यह किस ने कानून बनाया है कि मेहंदी लगा कर उसे धो डालो. मुझे तो मेहंदी का हरा रंग ही लुभावना लगता है.’

‘तू बड़बड़ मत कर, मेहंदी बिगड़ जाएगी.’

मां के तानाशाही लाड़दुलार में जैसे उन का मन भीगभीग जाता था. वे हथियार डाल देती थीं. दूसरे दिन मेहंदी लगे हाथों में हरे रंग की चूडि़यों के साथ हरे रंग की साड़ी जैसेतैसे पिन लगा कर पहन लेतीं, मां निहाल हो उठतीं, ‘कैसी राजकुमारी सी लग रही है, जिस के घर जाएगी, वह धन्य हो जाएगा.’

अपनी शादी की दूसरी रात वे ऐसे ही तो नख से शिख तक तैयार हुई थीं. ननद व जेठानी उन्हें सजा कर स्वयं ठगी सी रह गई थीं.

लेकिन जिन के लिए सज कर वे बैठी थीं, उन्होंने बिना उन का चेहरा देखे रुखाई से कहा था, ‘जा कर कपड़े बदल लीजिए, भारी साड़ी में गरमी लग रही होगी.’

वे अपमान का घूंट पी दूसरे कमरे में जा कर सूती जरी की किनारी वाली साड़ी पहन कर आ गई थीं. उस निर्मोही ने फिर भी उन की तरफ नहीं देखा था. बत्ती बंद करते हुए कहा था, ‘शादी की भागदौड़ में आप भी थक गई होंगी, मैं भी थक गया हूं. मुझे जोरों की नींद आ रही है,’ 2 मिनट में ही करवट बदल कर गहरी नींद में सो गए थे.

विजयजी के साथ उन की शादी के शुरुआती 8 दिन ऐसे ही बीते थे. वे अनब्याही दुलहन की तरह मायके लौट आई थीं. घर में जरा भी एकांत मिलता तो अपनेआप झरझर आंसू बहने लगते. वे नहीं चाह रही थीं कि कोई उन के आंसू देखे, लेकिन मां की छठी इंद्रिय ने बेटी के मन की थाह को सूंघ ही लिया. एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया था, ‘तू अकेले में क्यों रोती है?’

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पहले तो वे सकुचाईं कि किस तरह कहें कि उन की देह को पति ने स्पर्श तक नहीं किया. फिर संकोच छोड़ कर सारी बात उन्हें बता दी.

‘यदि ऐसा था तो शर्म को त्याग कर उन से इस का कारण पूछना था.’

‘मैं ऐसी बात कैसे पूछ सकती थी?’

‘पतिपत्नी के संबंधों में संकोच कैसा? वैसे हम लोगों ने पैसा तो भरपूर दिया था, लेकिन हो सकता है कि कुछ लेनदेन के बारे में उन की नाराजगी हो?’

‘यदि वे ऐसे लालची हैं तो मैं वहां नहीं रहूंगी.’

‘बेटी, पहले तू पूछ कर तो देख.’

मां के प्रोत्साहन के कारण दूसरी बार ससुराल आ कर वे खुद को आश्वस्त महसूस कर रही थीं. जैसे ही विजयजी ने रात को बत्ती बुझानी चाही, उन्होंने उन का हाथ पकड़ लिया, ‘जरा, आज हम लोग बातचीत कर लें.’

विजयजी ने झुंझला कर हाथ छुड़ाया, ‘क्या बात करनी है? शादी हो गई, तुम इस घर की मालकिन बन गईं और क्या चाहिए?’

‘यदि मैं आप का मन नहीं जीत पाई तो मेरा इस घर में आना बेकार है.’

‘तुम औरतों को चाहिए क्या, कपड़ा और खाना. इन चीजों की तुम्हें जिंदगीभर कमी नहीं होगी,’ फिर उन्होंने स्विच की तरफ हाथ बढ़ाना चाहा. पर उन्होंने उन का हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया, ‘नहीं, आज मुझे इतना अधिकार दीजिए कि मैं आप से चंद बातें कर सकूं.’

वे बेमन पलंग पर तकिए के सहारे टिक कर बैठ गए, ‘अब कहो? मैं कहां नाराज हूं,’ वह उन्हें आग्नेय नेत्रों से देख कर बोले.

‘आप की आंखें तो कुछ और ही कह रही हैं,’ वे जैसे हर प्रहार के लिए कलेजा कड़ा कर के बैठी थीं.

‘मेरे चाचा से पूछो कि मेरी नाराजगी का कारण क्या है?’

‘मैं ने सुना तो था कि आप के पिताजी सीधेसादे हैं, शादी की हर बात तय करने के लिए आप के चाचा को आगे कर देते हैं.’

‘हां, उन्हीं चाचा ने रुपयों के लालच में मुझे तुम्हारे पिता के हाथों बेच दिया.’

उन का चेहरा भी तमतमा आया था, ‘मेरे पिता दूल्हा खरीदने नहीं निकले थे. उन्होंने तो अपनी जाति की प्रथा के हिसाब से रुपया दिया था. फिर मेरे पिता व्यापार करते हैं, उन के लिए 2 लाख रुपए अपनी मरजी से देना बड़ी बात नहीं थी.’

‘2 लाख? लेकिन चाचा ने तो हमें डेढ़ लाख रुपए ही दिए थे.’

‘नहीं, सच में मेरे पिता ने 2 लाख रुपए दिए थे.’

‘तो क्या मेरे चाचा झूठ बोलेंगे?’

‘इस बात का फैसला तो बाद में होगा. अब समसया यह है तो हम लोगों को सहज जीवन व्यतीत करना चाहिए.’

‘मैं तुम्हारे लिए बिका हूं, यह बात मुझे सहज नहीं होने दे रही.’

‘मैं आप को सहज कर दूंगी,’ कह कर उन्होंने स्वयं बिजली के बटन पर हाथ रख दिया. ऐसे में उन के कंगन बज उठे थे.

उन दिनों वे मन ही मन कितनी आहत होती थीं. पति तो नवविवाहिता पत्नी का दीवाना हो जाता है, लेकिन उन के हाथ में कुछ उलटा ही रचा था, जैसे कि उन्हें मेहंदी का भी उलटा रंग ही पसंद आता था. वे जबरदस्ती उन्हें अपने आकर्षण में बांध रही थीं. बस, ऐसे ही एक बेटे व बेटी की मां बन गई थीं.

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कभी उन्होंने सुना था कि यदि दूल्हे व दुलहन के मन में ब्याह के मंडप के नीचे कोई गांठ हो तो वह जिंदगीभर नहीं खुलती. क्या यह बात सच है? उसी मंडप में चाचाजी ने 50 हजार रुपए अपनी जेब में खिसका लिए थे. यह बात पंडित की बहुत खुशामद करने के बाद पता लगी थी.

उन्होंने लाख कोशिश कर के देख ली थी, पर पति के दिल को वे पूरी तरह जीत नहीं पाई थीं. इसीलिए पास के स्कूल में उन्होंने नौकरी कर ली थी. बच्चों के लिए एक आया रख ली थी. दोपहर के खाने के लिए विजयजी घर पर आते थे, आया उन्हें खाना खिला देती व घर की देखभाल भी कर लेती थी.

अब और नहीं- भाग 4: आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

Writer- ममता रैना

उस की फजूलखर्ची से भूपेश अब परेशान रहने लगा था. कभी उस पर झुंझला उठता तो उपासना उस का जीना हराम कर देती, तलाक और पुलिस की धमकी देती.

जो शारीरिक सुख उपासना से प्रेमिका के रूप में मिल रहा था वह उस के पत्नी बनते ही नीरस लगने लगा. इश्क का भूत जल्दी ही सिर से उतर गया.

दीपमाला के साथ शादी के शुरुआती दिनों की कल्पना कर के भूपेश के मन में बहुत से विचार आने लगे. वह एक बार फिर दीपमाला के संग के लिए उत्सुक होने लगा. खाने की थाली की तरह जिस्म की भूख भी स्वाद बदलना चाहती थी.

किसी तरह दीपमाला के घर और सैलून का पता लगा कर एक दिन वह दीपमाला के फ्लैट पर आ धमका. एक अरसे बाद अचानक उसे सामने देख दीपमाला चौंक उठी कि भूपेश को आखिर उस का पता कैसे मिला और अब यहां क्या करने आया है?

‘‘कैसी हो दीपमाला? बिलकुल बदल गई हो… पहचान में ही नहीं आ रही,’’ भूपेश ने उसे भरपूर नजरों से घूरा.

दीपमाला संजसंवर कर रहती थी ताकि उस के सैलून में ग्राहकों का आना बना रहे. अब वह आधुनिक फैशन के कपड़े भी पहनने लगी थी. सलीके से कटे बाल और आत्मनिर्भरता के भाव उस के चेहरे की रौनक बढ़ा रहे थे. उस का रंगरूप भी पहले की तुलना में निखर आया था.

कांच के मानिंद टूटे दिल के टुकड़े बटोरते उस के हाथ लहूलुहान भी हुए थे, मगर उस ने अपनी हिम्मत कभी नहीं टूटने दी. वह अब जीवन की हर मुश्किल का सामना कर सकती थी तो फिर भूपेश क्या चीज थी.

‘‘किस काम से आए हो?’’ उस ने बेहद उपेक्षा भरे लहजे में पूछा. उस की बेखौफी देख भूपेश जलभुन गया, लेकिन फौरन उस ने पलटवार किया, ‘‘मैं अपने बेटे से मिलने आया हूं. तुम ने मुझे मेरे ही बेटे से अलग कर दिया है.’’

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‘‘आज अचानक तुम्हें बेटे पर प्यार कैसे आ गया? इतने दिनों में तो एक बार भी खबर नहीं ली उस की,’’ एक व्यंग्य भरी मुसकराहट दीपमाला के अधरों पर आ गई.

‘‘तुम्हें क्या लगता है मैं अंशुल से प्यार नहीं करता? बाप हूं उस का, जितना हक तुम्हारा है उतना मेरा भी है.’’

‘‘तो तुम अब हक जताने आए हो? कानून ने तुम्हें बेशक हक दिया है, मगर वह मेरा बेटा है,’’ दीपमाला ने कहा.

बेटे से मिलना बस एक बहाना था भूपेश के लिए. उसे तो दीपमाला के साथ की प्यास थी. बोला, ‘‘सुनो दीपमाला, मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई… हो सके तो मुझे माफ कर दो.’’

भूपेश के तेवर अचानक नर्म पड़ गए. उस ने दीपमाला का हाथ पकड़ लिया.

तभी एक झन्नाटेदार तमाचा भूपेश के गाल पर पड़ा. दीपमाला ने बिजली की फुरती से फौरन अपना हाथ छुड़ा लिया.

भूपेश का चेहरा तमतमा गया. इस खातिरदारी की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी. वह कुछ बोलता उस से पहले ही दीपमाला गुर्राई, ‘‘आज के बाद दोबारा मुझे छूने की हिम्मत की तो अंजाम इस से भी बुरा होगा. यह मत भूलो कि तुम अब मेरे पति नहीं हो और एक गैरमर्द मेरा हाथ इस तरह नहीं पकड़ सकता, समझे तुम? अब दफा हो जाओ यहां से.’’

उसे एक भद्दी सी गाली दे कर भूपेश बोला, ‘‘सतीसावित्री बनने का नाटक कर रही हो. किसकिस के साथ ऐयाशी करती हो सब जानता हूं, अगर उन के साथ तुम खुश रह सकती हो तो मुझ में क्या कमी है? मैं अगर चाहूं तो तुम्हारी इज्जत सारे शहर में उछाल सकता हूं… इस थप्पड़ का बदला तो मैं ले कर रहूंगा और फिर दीपमाला को बदनाम करने की धमकी दे कर भूपेश वहां से चला गया.

कितना नीच और कू्रर हो चुका है भूपेश… दीपमाला की सहनशक्ति जवाब दे गई. वह तकिए पर सिर रख कर खुद पर रोती रही, जुल्म उस पर हुआ था, लेकिन कुसूरवार उसे ठहराया जा रहा था.

इस मुश्किल की घड़ी में उसे अमित की जरूरत होने लगी. उस के प्यार का मरहम उस के दिल को सुकून दे सकता था. उस ने अपने फोन पर अमित का नंबर मिलाया. कई बार कोशिश करने पर भी जब उस ने फोन नहीं उठाया तो वह अपना पर्स उठा कर उस से मिलने चल पड़ी.

भूपेश किसी भी हद तक जा सकता है, यह दीपमाला को यकीन था. वह चुप नहीं बैठेगा. अगर उस की बदनामी हई तो उस के सैलून के बिजनैस पर असर पड़ सकता है. वह अमित से मिल कर इस मुश्किल का कोई हल ढूंढ़ना चाहती थी. क्या पता उसे पुलिस की भी मदद लेनी पड़े.

अमित के औफिस में ताला लगा देख कर वह निराश हो गई. अमित उस के एक बार बुलाने पर दौड़ा चला आता था, फिर आज उस का फोन क्यों नहीं उठा रहा? उसे याद आया जब वह पहली बार अमित से मिली थी तो उसे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था. उस ने पर्स टटोला, कार्ड मिल गया. औफिस और घर का पता उस में मौजूद था. उस ने पास से गुजरते औटो को हाथ दे कर रोका और पता बताया. धड़कते दिल से दीपमाला ने फ्लैट की घंटी बजाई. एक आदमी ने दरवाजा खोला. दीपमाला ने उस से अमित के बारे में पूछा तो वह अंदर चला गया. थोड़ी देर बाद एक औरत बाहर आई. बोली, ‘‘जी कहिए, किस से मिलना है? लगभग उस की ही उम्र की दिखने वाली उस औरत ने दीपमाला से पूछा.’’

‘‘मैं अमित से मिलने आई हूं. क्या यह उन का घर है?’’ पूछते हुए उसे थोड़ा अटपटा लगा कि पता नहीं यह सही पता है भी या नहीं.

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‘‘मैं अमित की पत्नी हूं. क्या काम है आप को? आप अंदर आ जाइए,’’ अमित की पत्नी विनम्रता से बोली.

दीपमाला ने उस औरत को करीब से देखा. वह सुंदर और मासूम थी, मांग में सिंदूर दमक रहा था और चेहरे पर एक पत्नी का विश्वास.

कुछ रुक कर अपनी लड़खड़ाती जबान पर काबू पा कर दीपमाला बोली, ‘‘कोई खास बात नहीं थी. मुझे एक मकान किराए पर चाहिए था. उसी सिलसिले में बात करनी थी.’’

‘‘मगर आप ने अपना नाम तो बताया नहीं… मैं अपने पति को कैसे आप का संदेश दूंगी.’’

‘‘वे खुद समझ जाएंगे,’’ और दीपमाला पलट कर तेज कदमों से मकान की सीढि़यां उतर सड़क पर आ गई.

अजीब मजाक किया था कुदरत ने उस के साथ. उस ने शुक्र मनाया कि उस की आंखें समय रहते खुल गईं.

अमित ने भी वही दोहराया था जो भूपेश ने उस के साथ किया था. एक बार फिर से वह ठगी गई थी. मगर इस बार वह मजबूती से अपने पैरों पर खड़ी थी. जिस जगह पर कभी उपासना खड़ी थी, उसी जगह उस ने आज खुद को पाया. क्या फर्क था भला उस में और उपासना में? दीपमाला ने सोचा.

नहीं, बहुत फर्क है, उस का जमीर अभी मरा नहीं, वह इतनी खुदगर्ज नहीं हो सकती कि किसी का बसेरा उजाड़े. जो गलती उस से हो गई है उसे अब वह दोहराएगी नहीं. उस ने तय कर लिया अब वह किसी को अपने दिल से खेलने नहीं देगी. बस अब और नहीं.

जीने की राह- भाग 4: उदास और हताश सोनू के जीवन की कहानी

Writer- संध्या 

मैं ने स्वयं ही मन में एक संकल्प लिया कि मैं नीता और रिया की यादों को अपनी कमजोरी नहीं बनने दूंगा बल्कि उसे संबल बनाऊंगा और उस से प्रेरणा ले कर जिंदगी आगे जीऊंगा. एक पल बाद मैं सोचने लगा, मैं करूंगा क्या ऐसा, जिस से जीवन सार्थक महसूस हो. एकाएक सोनू की याद आ गई-तनहा, उदासीन, सोनू. मन में एक संकल्प उभर आया, हां, मैं नीता व रिया की अपनी यादों को अपने दिल में बसाए, अपने जीवन में संजोए, तनहा व उदासीन सोनू की जिंदगी संवारने की कोशिश करूंगा. इस उदास युवती को एक सामान्य खुशहाल जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करूंगा. अब मेरे जीवन का यही लक्ष्य होगा. मैं खुद को बेहद हलका महसूस करने लग गया, जीने की राह जो मुझे मिल गई थी.

अपने संकल्प की चर्चा मैं ने किसी से भी नहीं की थी. मैं ने कालेज भी जौइन कर लिया. मन में खयाल आया, अपने दुख के कारण विद्यार्थियों को हानि पहुंचाना गलत है, सो, अब सुबह कालेज जाने की व्यस्तता हो गई थी. सोनू ने भी स्कूल जौइन कर लिया था. दिन में हम अपनेअपने कार्यों में व्यस्त रहते थे किंतु शाम में अवश्य मौका निकाल कर हम मिल लेते थे. अचानक 5 दिनों के लिए उत्तम एवं भाभीजी को दिल्ली जाने का प्रोग्राम बनाना पड़ गया, परिवार में एक शादी पड़ गई थी. सोनू फ्लैट में अकेली रह गई थी, इसलिए मैं उस का ज्यादा खयाल रखने लगा था. अब वह भी मुझ से ज्यादा बातें करने लगी है. उस ने अपने मांपापा के विषय में विस्तार से बताया कि उस के मांपापा ने दोनों परिवारों के विरोध के बावजूद अंतर्जातीय विवाह किया था. इसलिए दोनों परिवार वालों ने उन लोगों से संबंध तोड़ लिए थे. उस ने बताया कि उस के मांपापा को उस से पहले भी एक बेटी हुई थी, जिस का नाम पापा ने बड़े प्यार से ‘संगम’ रखा था. 2 भिन्न जातिधर्म का संगम. उस की मां बहुत सरल स्वभाव की थीं, उन्होंने दोनों परिवारों को संगम के बहाने मिलाने का काफी प्रयास किया किंतु दोनों तरफ से कड़ा जवाब ही मिला कि वे संगम को नाजायज औलाद मानते हैं, उस के जन्म से उन्हें कोई खुशी नहीं है. सो, मेलमिलाप का तो सवाल ही नहीं उठता है. उस ने आगे बताया, ‘‘संगम 9 माह की हो कर खत्म हो गई. मां ने बताया था कि संगम को सिर्फ बुखार हुआ था, जो अचानक काफी तेज हो गया था. उसे डाक्टर के पास ले गए किंतु उस ने कम समय में ही आंखें उलट दीं एवं उस का शरीर ऐंठ गया. डाक्टर कुछ भी न कर सके.

‘‘मांपापा का प्यार सच्चा था, दोनों एकदूसरे का संबल बन एकदूसरे के लिए खुश रहते एवं एकदूसरे को खुश रखने की पूरी कोशिश करते. संगम की मृत्यु के 2 साल बाद मेरा जन्म हुआ. मां ने फिर दोनों परिवारों से मुझे स्वीकार करने की मिन्नतें कीं. उन्होंने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि इस नन्ही जान को स्वीकार कर लीजिए. आप लोगों ने मेरी पहली बच्ची को नहीं स्वीकारा, वह रूठ कर चली गई. किंतु मां की पुकार दोनों परिवारों के बीच की तपन को पिघला न सकी. दोनों परिवारों का एक ही जवाब था, जब हमारा तुम से ही कोई संबंध नहीं है तब तुम्हारी औलाद से हमें क्या मोह?

‘‘मां ने मुझे बताया था कि दोनों परिवारों के रुख के कारण पापा ने नाराज हो कर मां से वचन लिया था कि अब वह कभी भी दोनों परिवारों से मेलमिलाप का प्रयास नहीं करेगी. इस के बाद मां ने दोनों परिवारों के संबंध में सोचना बंद कर दिया,’’ मुझे यह सब बता कर सोनू फूटफूट कर रो पड़ी. मैं ने उसे सांत्वना देने के उद्देश्य से उस के कंधे थपथपाते हुए कहा, ‘‘सोनू, धैर्य रखो, आश्चर्य होता है लोग इतने निर्दयी क्यों हो जाते हैं जो अपने खून को पहचानने से, उसे स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं.’’ सोनू अपने आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘मनजी, मेरी समझ में नहीं आता, लोग प्यार से इतनी घृणा क्यों करते हैं. मेरे मांपापा अलगअलग जातिधर्म के थे, दोनों ने प्यार किया था, कोई अपराध तो नहीं किया था, किंतु दोनों परिवारों ने उन का बहिष्कार कर दिया. मां ने एक बार बताया था कि उन की मां ने उन्हें उलाहना देते हुए कहा था कि यह दिन दिखाने से तो अच्छा होता कि वे मर गई होतीं, तो उन्हें खुशी होती.’’

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सोनू की जीवनगाथा सुननेसुनाने में हमें समय का खयाल ही नहीं रहा. रात के साढ़े 8 बज चुके थे. मैं ने कहा, ‘‘सोनू, काफी देर हो चुकी है. अब तुम घर जाओ. हम कल मिलते हैं. अपना खयाल रखना.’’ वह बिना कुछ बोले, धीरे से बाय, गुडनाइट कह कर चल दी. रविवार का दिन था, सोनू का फोन आया, ‘‘मनजी, मेरे साथ मार्केट चलिएगा, घर का थोड़ा जरूरी सामान खरीदना है.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, 4 बजे तक चलते हैं.’’ हम नजदीक के मौल में चले गए. उस ने चादरें, तौलिया तथा किचन का काफी सामान लिया. मैं ने भी किचन की कुछ चीजें खरीद लीं. यह सब खरीदारी नीता ही किया करती थी. सो, मुझे थोड़ी असुविधा हो रही थी. सोनू से मुझे खरीदारी में काफी मदद मिली. खरीदारी करते हुए हमें 8 से ऊपर बज गए. सो हम ने डिनर भी बाहर ही कर लिया. सोनू का सामान कुछ ज्यादा था, इसलिए मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारा सामान तो ज्यादा है, इसलिए कुछ सामान मैं तुम्हारे घर तक पहुंचा देता हूं.’’ उस ने सहमति में सिर हिला दिया. उस का सामान पहुंचा कर मैं लौटने लगा तब वह बोली, ‘‘मनजी, मैं आप से कुछ कहना चाहती हूं.’’

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‘‘हांहां, बोलो,’’ मैं ने कहा.

वह झिझकते हुए बोली, ‘‘मनजी, अब हम एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं.’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘दरअसल, समान दुख के कारण हम एकदूसरे को जल्दी समझ सके.’’ ‘‘मनजी, हमें एकदूसरे को जानते हुए 6 माह से भी ऊपर हो चुके हैं. मैं इंतजार में थी कि आप ही इस संबंध में कुछ करते किंतु आप तो…’’ वह एक पल रुक कर मुसकराते हुए बोली, ‘‘मनजी, आप बहुत भले इंसान हैं. इतनी बातें मैं मांपापा के सिवा सिर्फ आप से करती हूं.’’ मैं ने भी उस की हां में हां मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं भी इतनी बातें सिर्फ नीता और रिया से करता था. हम दोनों बातें कर ही रहे थे कि उत्तम और भाभीजी दिल्ली से लौट आए. घर के सामने उन की टैक्सी आ चुकी थी, हम दोनों उन की अगवानी में लग गए. उत्तम से सारी बातें जानने के लिए मैं अधीर हो रहा था, क्योंकि मैं ने उस से विशेष आग्रह किया था कि वह दिल्ली में समय निकाल कर मेरे बड़े भैया एवं भतीजे सुमन से अवश्य मिल ले तथा मैं ने शादी संबंधी जो भैया एवं सुमन से सलाह मांगी थी, वह प्रत्यक्षत: उस संबंध में राय जान ले एवं उन की प्रतिक्रिया प्रत्यक्षत: देख कर, उन के विचार साफतौर पर समझ ले. उत्तम ने बताया कि दोनों ही मेरे विचारों से सहमत हैं तथा इस सिलसिले में इसी हफ्ते आ जाएंगे. अगले दिन सोनू शाम को मेरे घर पर आई थी. हम दोनों चाय पी रहे थे एवं बातें कर रहे थे कि बड़े भैया का फोन आया. जरूरी बातें कर, मैं ने उन से थोड़ी देर बाद बात करने की बात कह कर फोन काट दिया.

लौटती बहारें- भाग 3: मीनू के मायके वालों में क्या बदलाव आया

पिछली बार तो पगफेरे के समय वे साथ थे. मम्मीपापा, भाईबहन से ज्यादा बातें करने का अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि शेखर हर समय साथ रहते थे. अगले दिन वापस भी आ गए थे.

मन रोमांचित हो रहा था कि इस बार अपनी प्यारी सहेली चित्रा से भी मिलूंगी. रेनू और राजू मेरे बाद कितने अकेले हो गए होंगे. उन दोनों की चाहे पढ़ाई से संबंधित समस्या हो या कोई और, हल अपनी मीनू दीदी से ही पूछते थे. मम्मी का भी दाहिना हाथ मैं ही थी. पापा मुझे देख गर्व से फूले न समाते. यही सोचतेसोचते समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.

झटके से बस रूकी. मैं ने देखा सहारनपुर आ गया था. मैं पुलकित हो उठी. बस की खिड़की से झांका तो राजू तेज कदमों से बस की ओर आता दिखा. बस से उतरते ही राजू ने मेरा सूटकेस थाम लिया. उसे देख खुशी से मेरी आंखें भर आईं. 2 ही महीनों में राजू बहुत स्मार्ट हो गया था. नए स्टाइल में संवरे बाल, आंखों पर काला चश्मा लगा था.

घर पहुंचते ही ऐसे लगा मानो कोई खोई हुई चीज अचानक मिल गई हो. मैं सब से टूट कर मिली. मम्मीपापा ने पीठ पर हाथ फेर कर दुलारा. मुझे लगा कि मैं इस प्यार के लिए कितना तरस गई थी. मेरा और ससुराल का हालचाल

पूछ मम्मी किचन में चली गईं. मैं पापा की सेहत और रेनू व राजू की पढ़ाई के बारे में पूछताछ करने लगी.

बड़े अच्छे माहौल में खाना खत्म हुआ. राजू और रेनू मेरी अटैची के आसपास घूमने लगे. बोले, ‘‘बताओ दीदी, दिल्ली से हमारे लिए क्या लाई हो?’’

मैं शर्म से गड़ी जा रही थी कि किस मुंह से उपहार दिखाऊं. मैं अनिच्छा से ही उठी और उन दोनों के पैकेट निकाल कर दे दिए. पैकेट खोलते ही रेनू और राजू के मुंह उतर गए. दोनों मेरी ओर देखने लगे.

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रेनू बोली, ‘‘आप कमाल करती हैं दीदी… पूरी दिल्ली में यही घटिया चीजें आप को हमारे लिए मिलीं.’’

राजू भी बोल उठा, ‘‘दीदी, ऐसे चीप कपड़े तो हमार कामवाली बाई के बच्चे भी नहीं पहनते हैं.’’

शर्म और अपमान से मैं क्षुब्ध हो उठी. यह सही था. कपड़े उन के स्तर के नहीं थे, परंतु ऐसा व्यवहार तो मैं ने उन का पहली बार देखा था. दोनों पैकेटों को पलंग पर रख कमरे से बाहर निकल गए. मैं हैरानपरेशान उन्हें देखती रह गई.

जो भाईबहन मुझे इतना आदर और मान देते थे वही सस्ते से उपहारों के लिए इतना सुना गए. मन खिन्न हो उठा. बहुत थकी थी. वहीं पलंग पर लेट गई. न जाने कब आंख लग गई.

शाम को आंख खुली तो कानों में रेनू की आवाज सुनाई दी.

मैं ने बालकनी से नीचे देखा तो रेनू एक लड़के से बातें करती दिखाई दी. लड़का बाइक पर बैठा था. हावभाव और बातचीत से किसी निम्नवर्गीय परिवार का लग रहा था. अचानक उस ने बाइक स्टार्ट की और रेनू को फ्लाइंग किस देता हुआ तेज गति से चला गया.

यह सब देख मैं हैरान रह गई. अभी तो कालेज में रेनू का पहला वर्ष ही है. उस ने अपनी आयु के 18 वर्ष भी पूरे नहीं किए. अपरिपक्व है. अभी से यह किस रास्ते चल पड़ी? फिर मैं ने सोचा कि मौका देख कर बात करूंगी.

मम्मी कमरे में चाय ले कर आ गईं. मैं ने मम्मी का हाथ पकड़ कर, ‘‘मम्मी, आप यहीं बैठो,’’ कह कर मैं ने उन के लिए लाई साड़ी और पापा की शौल का पैकेट उन्हें पकड़ा दिया. मेरी आंखें शर्म से झुकी जा रही थीं.

उन्होंने साड़ी और शौल को उलटपुलट कर देखा, फिर बोलीं, ‘‘इस की क्या जरूरत थी. अभी तेरे पापा ने रिटायरमैंट के अवसर पर महंगी साडि़यां दिलवाई हैं,’’ और फिर पैकेट वहीं छोड़ किचन में चली गईं.

मैं शर्मिंदगी से उबर नहीं पा रही थी. मैं ने सारे तोहफे समेटे और अलमारी के कोने में रख दिए.

बड़ा नौर्मल सा दिखने का अभिनय करते हुए मैं मम्मी के पास किचन में चली गई.

मुझे देखते ही मम्मी बोली, ‘‘अरे, तू कमरे में ही आराम कर यहां कहां चली आई. अब तो तू हमारी मेहमान है.’’

यह सुन कर मेरी आंखें भर आईं. मैं मुंह फेर कर बरतनों को उलटपलट कर रखने लगी. मुझे वे दिन याद आने लगे, जब मेरे किचन में जाने पर मम्मी आश्वस्त हो बाहर निकल जाती थीं. दो घड़ी आराम कर लेती थीं. कल तो मौसियां, चाची, बूआ सब मेहमान आ जाएंगे. फिर तो मम्मी को जरा सी भी फुरसत नहीं मिलेगी. बड़ा मन कर रहा था कि मां की गोद में सिर रख कर खूब रो लूं, मन हलका कर लूं पर मां तो लगातार काम करती जा रही थीं. बीचबीच में ससुराल के मेरे अनुभव भी पूछती जा रही थीं. मुझे जो भी सूझता जवाब देती जा रही थी.

मम्मी ने रसोई में पड़ा स्टूल मेरी तरफ खिसका दिया और बोलीं, ‘‘थक जाएगी, बैठ जा.’’

उन का यह मेहमानों वाला व्यवहार मेरे सीने में किसी कांटे की तरह चुभ रहा था.

अगले दिन बहुत चहलपहल रही. घर में खूब रौनक हो गई थी. सब की केंद्र बिंदु मैं थी. सभी ससुराल के अनुभव, पति, घर वालों के स्वभाव के बारे में पूछ रहे थे. मैं दिल में टीस छिपाए रटेरटाए उत्तर देती जा रही थी. कैसे बताती कि मैं पेड़ से टूटी शाखा और शाखा से

टूटे पत्ते जैसी जिंदगी गुजार रही हूं. अपनापन पाने की कई परीक्षाएं दे चुकी पर हर बार असफल होती रही.

पापा का सेवानिवृत्ति का आयोजन बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया. सभी लोगों

ने उन की ईमानदारी की खूब प्रशंसा की. मैं ने देखा पापा ने चेहरे पर कृतिम खुशी का जो मुखौटा लगा रखा था वह कई बार खिसक जाता तो चेहरे पर चिंता की रेखाएं दिखने लगतीं. मैं जानती थी कि ये चिंताएं रेनू और राजू को ले कर हैं, जो अभी कहीं सैटल नहीं हैं. उन की शिक्षा, विवाह, नौकरी सभी कुछ बाकी है. यह तो पापा की दूरदर्शिता थी कि समय पर यह मकान बनवा लिया था, जिस की छत्रछाया में उन का परिवार सुरक्षित था. अब तो फंड और पैंशन से गुजारा चलाना था.

अगले दिन पापा कैटरिंग वालों का हिसाब कर रहे थे. उधर मेहमानों की विदाई भी हो रही थी.

मेहमानों के जाते ही घर में सन्नाटा सा छा गया. सब थके हुए थे. दोपहर को थकान उतारने के लिए आराम करने लगे.

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मैं ने इस आयोजन के दौरान एक बात और नोट की कि पूरे आयोजन में रेनू और राजू का सहयोग नगण्य था. रेनू काफी समय तो पार्लर में लगा आई बाकी समय मौसी, चाची और बूआ से गपशप करती रही. राजू भी मेहमानों के साथ मेहमान बना घूम रहा था. 1-2 बार तो मैं ने उसे बिलकुल पड़ोस वाली टीना, जो उस की ही हमउम्र थी, से इशारेबाजी करते भी देखा. देखने में ये बातें इस उम्र में नौर्मल होती है, परंतु इन्हें अपनी पढ़ाईलिखाई और जिम्मेदारी का पूरा ध्यान रखना चाहिए. उपहारों को ले कर किए इन दोनों के कटाक्ष एक बार फिर मेरी वेदना को बढ़ा गए. मन उचाट हो गया. मैं उठ कर अपने कमरे में चली गई.

रेनू और राजू घर पर नहीं थे. मम्मीपापा सोए हुए थे. मैं ने देखा पूरे कमरे की काया पलट हो चुकी थी. दीवारों पर आलिया भट्ट, वरुण धवन के पोस्टर लगे हुए थे.

फिर मैं ने अपनी अलमारी खोली. इस में मेरी बहुत सी यादें जुड़ी थी. अलमारी में रेनू के कपड़े और सामान रखा था. इधरउधर देखा, रेनू की अलमारी पर ताला लगा था. अचानक अलमारी के ऊपर रखी 2 गठरियां दिखाई दीं. उतार कर देखीं तो एक में मेरे कपड़े थे और एक में किताबें बंधी थीं. मैं उन्हें कहां रखूं, यह सोच ही रही थी कि रेनू के बाय कहने की आवाज आई.

बालकनी में जा कर देखा, रेनू उसी लड़के की बाइक से उतर कर

ऊपर आ रही थी. मुझे सामने पा कर चौंक गई. फिर नजरें बचा कर अंदर जाने लगी.

उसी समय राजू भी किसी से मोबाइल पर बातें करता ऊपर आ गया. मुझे देख मोबाइल छिपाते हुए अपने कमरे की ओर जाने लगा. मैं ने उसे आवाज दी तो वह अनसुना कर गया.

अब मेरा धैर्य भी जवाब देने लगा था.

फिर भी मैं ने यथासंभव खुद को सामान्य करते हुए बड़े प्यार से दोनों को पुकारा. रेनू तो अभी वहीं खड़ी थी. राजू मुंह फुलाए आकर खड़ा हो गया.

मैं ने बड़े प्यार से दोनों की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछा तो दोनों ने संक्षिप्त उत्तर दिए और जाने लगे.

मैं ने राजू से पूछा, ‘‘यह मोबाइल तुम ने नया खरीदा क्या?’’

‘‘पापा ने ले कर दिया?’’

राजू मुंह बना कर बोला ‘‘पापा क्या ले कर देंगे, यह मुंबई वाली मौसी का बेटा रजत अपना पुराना मोबाइल दे गया. मैं ने अपनी सिम डलवा ली.’’

सजा- भाग 1: तरन्नुम ने असगर को क्यों सजा दी?

असगर ने अपने दोस्त शकील से शर्त जीत कर तरन्नुम से निकाह तो कर लिया था लेकिन तरन्नुम को जब उस के विवाहित होने का पता चला तो उस ने आम औरतों की तरह सामंजस्य करने से इनकार कर दिया और असगर को वह सजा दी जिस की कल्पना भी वह नहीं कर सकता था.

असगर अपने दोस्त शकील की शादी में शरीक होने रामपुर गया. स्कूल के दिनों से ही शकील उस के करीबी दोस्तों में शुमार होता था. सो दोस्ती निभाने के लिए उसे जाना मजबूरी लगा था. शादी की मौजमस्ती उस के लिए कोई नई बात नहीं थी और यों भी लड़कपन की उम्र को वह बहुत पीछे छोड़ आया था.

शकील कालेज की पढ़ाई पूरी कर के विदेश चला गया था. पिछले कितने ही सालों से दोनों के बीच चिट्ठियों द्वारा एकदूसरे का हालचाल पता लगते रहने से वे आज भी एकदूसरे के उतने ही नजदीक थे जितना 10 बरस पहले.

असगर को दिल्ली से आया देख शकील खुशी से भर उठा, ‘‘वाह, अब लगा शादी है, वरना तेरे बिना पूरी रौनक में भी लग रहा था कि कुछ कसर बाकी है. तुझ से मिल कर पता लगा क्या कमी थी.’’

‘‘वाह, क्या विदेश में बातचीत करने का सलीका भी सिखाया जाता है या ये संवाद भाभी को सुनाने से पहले हम पर आजमाए जा रहे हैं.’’

‘‘अरे असगर, जब तुझे ही मेरे जजबात का यकीन न आ रहा हो तो वह क्यों करेगी मेरा यकीन, जिसे मैं ने अभी देखा भी नहीं,’’ शकील, असगर के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला.

बातें करतेकरते जैसे ही दोनों कमरे के अंदर आए असगर की निगाहें पल भर के लिए दीवान पर किताब पढ़ती एक लड़की पर अटक कर रह गईं. शकील ने भांपा, फिर मुसकरा दिया. बोला, ‘‘आप से मिलिए, ये हैं तरन्नुम, हमारी खालाजाद बहन और आप हैं असगर कुरैशी, हमारे बचपन के दोस्त. दिल्ली से तशरीफ ला रहे हैं.’’

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दुआसलाम के बाद वह नाश्ते का इंतजाम देखने अंदर चली गई. असगर के खयाल जैसे कहीं अटक गए. शकील ने उसे भांप लिया, ‘‘क्यों साहब, क्या हुआ? कुछ खो गया है या याद आ रहा है?’’

असगर कुछ नहीं बोला, बस एक नजर शकील की तरफ देख कर मुसकरा भर दिया.

शादी के सारे माहौल में जैसे तरन्नुम ही तरन्नुम असगर को दिखाई दे रही थी. उसे बिना बात ही मौसम, माहौल सभी कुछ गुनगुनाता सा लगने लगा. उस के रंगढंग देख कर शकील को मजा आ रहा था. वह छेड़खानी पर उतर आया. बोला, ‘‘असगर यार, अपनी दुनिया में वापस आ जाओ. कुछ बहारें देखने के लिए होती हैं, महसूस करने के लिए नहीं, क्या समझे? भई, यह औरतों की आजादी के लिए नारा बुलंद करने वालियों की अपने कालेज की जानीमानी सरगना है, तुम्हारे जैसे बहुत आए और बहुत गए. इसे कुछ असर होने वाला नहीं है.’’

‘‘लगानी है शर्त?’’ असगर ने चुनौती दी, ‘‘अगर शादी तक कर के न दिखा दूं तो मेरा नाम असगर कुरैशी नहीं.’’

शकील ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मियां, लोग तो नींद में ख्वाब देखते हैं, आप जागते में भी.’’

‘‘बकवास नहीं कर रहा मैं,’’ असगर ने कहा, ‘‘बोल, अगर शादी के लिए राजी कर लूं तो?’’

‘‘ऐसा,’’ शकील ने उकसाया, ‘‘जो नई गाड़ी लाया हूं न, उसी में इस की डोली विदा करूंगा, क्या समझा. यह वह तिल है जिस में तेल नहीं निकलता.’’

और इस चुनौती के बाद तो असगर तरन्नुम के आसपास ही नजर आने लगा. अचानक ही एक से एक शेर उस के होंठों पर और हर महफिल में गजलें उस की फनाओं में बिखर रही थीं.

शकील हैरान था. यह तरन्नुम, जो हर आदमी को, आदमी की जात पर लानत देती थी, कैसे अचानक ही बहुत लजीलीशर्मीली ओस से भीगे गुलाब सी धुलीधुली नजर आने लगी.

घर में उस के इस बदलाव पर हलकी सी चर्चा जरूर हुई. शकील के साथ तरन्नुम के अब्बाअम्मी उस से मिलने आए. शकील ने कहा, ‘‘ये तुम से कुछ बातचीत करना चाहते थे, सो मैं ने सोचा अभी ही मौका है फिर शाम को तो तुम वापस दिल्ली जा ही रहे हो.’’

असगर हैरान हो कर बोला, ‘‘किस बारे में बातचीत करना चाहते हैं?’’

‘‘तुम खुद ही पूछ लो, मैं चला,’’ फिर अपनी खाला शहनाज की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘खालू, देखो जो भी बात आप तफसील से जानना चाहें उस से पूछ लें, कल को मेरे पीछे नहीं पडि़एगा कि फलां बात रह गई और यह बात दिमाग में ही नहीं आई,’’ इस के बाद शकील कमरे से बाहर हो गया.

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असगर ने कहा, ‘‘आप मुझ से कुछ पूछना चाहते थे, पूछिए?’’

शहनाज बड़ा अटपटा महसूस कर रही थीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या सवाल करें. उन के शौहर रज्जाक अली ने चंद सवाल पूछे, ‘‘आप कहां के रहने वाले हैं. कितने बहनभाई हैं, कहां तक पढ़े हैं? सरकारी नौकरी न कर के आप प्राइवेट नौकरी क्यों कर रहे हैं? अपना मकान दिल्ली में कैसे बनवाया? वगैरहवगैरह.’’

असगर जवाब देता रहा लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी तहकीकात किसलिए की जा रही है. शहनाज खाला थीं कि उस की तरफ यों देख रही थीं जैसे वह सरकस का जानवर है और दिल बहलाने के लिए अच्छा तमाशा दिखा रहा है. खालू के चंदएक सवाल थे जो जल्दी ही खत्म हो गए.

शहनाज खाला बोलीं, ‘‘तो बेटा, जब तुम्हारे सिर पर बुजुर्गों का साया नहीं है तो तुम्हें अपने फैसले खुद ही करने होते होंगे, है न…’’

‘‘जी,’’ असगर ने कहा.

‘‘तो बताओ, निकाह कब करना चाहोगे?’’

‘‘निकाह?’’ असगर ने पूछा.

‘‘और क्या,’’ खाला बोलीं, ‘‘भई, हमारे एक ही बेटी है. उस की शादी ही तो हमारी जिंदगी का सब से बड़ा अरमान है. फिर हमारे पास कमी भी किस चीज की है. जो कुछ है सब उसे ही तो देना है,’’ खाला ने खुलासा करते हुए कहा.

‘‘पर आप यह सब मुझ से क्यों कह रही हैं?’’

इस पर खालू ने कहा, ‘‘बात ऐसी है बेटा कि आज तक हमारी तरन्नुम ने किसी को भी शादी के लायक नहीं समझा. हम लोगों की अब उम्र हो रही है. अब उस ने तुम्हें पसंद किया है तो हमें भी अपना फर्ज पूरा कर के सुर्खरू हो लेने दो.’’

‘‘क्या?’’ असगर हैरान रह गया, ‘‘तरन्नुम मुझे पसंद करती है? मुझ से शादी करेगी?’’ असगर को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘हां बेटा, उस ने अपनी अम्मी से कहा है कि वह तुम्हें पसंद करती है और तुम्हीं से शादी करेगी. देखो बेटा, अगर लेनेदेने की कोई फरमाइश हो तो अभी बता दो. हमारी तरफ से कोई कसर नहीं रहेगी.’’

‘‘पर खालू मैं तो शादी,’’ असगर कुछ कहने के लिए सही शब्द सोच ही रहा था कि खालू बीच में ही बोले, ‘‘देखो बेटा, मैं अपनी बच्ची की खुशियां तुम से झोली फैला कर मांग रहा हूं, न मत कहना. मेरी बच्ची का दिल टूट जाएगा. वह हमेशा से ही शादी के नाम से किनारा करती रही है. अब अगर तुम ने न कर दी तो वह सहन नहीं कर सकेगी.’’

एक पल को असगर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप ने शकील से बात कर ली है.’’

‘‘हां,’’ खालू बोले, ‘‘उस की रजामंदी के बाद ही हम तुम से बात करने आए हैं.’’

शहनाज खाला उतावली सी होती हुई बोलीं, ‘‘तुम हां कह दो और शादी कर के ही दिल्ली जाओ. सभी इंतजाम भी हुए हुए हैं. इस लड़की का कोई भरोसा नहीं कि अपनी हां को कब ना में बदल दे.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप सही समझें करें,’’ असगर ने कहा.

शहनाज खाला ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी आंखों से लगाया, ‘‘बेटा, तुम तो मेरे लिए फरिश्ते की तरह आए हो, जिस ने मेरी बच्ची की जिंदगी बहारों से भर दी,’’ खुशी से गमकते वह और खालू घर के अंदर खबर देने चले गए.

उन के जाने के बाद शकील कमरे में आते हुए बोला, ‘‘तो हुजूर ने मुझे शह देने के लिए सब हथकंडे आजमाए.’’

असगर ने कहा, ‘‘तू डर मत, मैं जीत का दावा कार मांग कर नहीं कर रहा हूं.’’

‘‘तू न भी मांगे,’’ शकील ने कहा, ‘‘तो भी मैं कार दूंगा. हम मुगल अपनी जबान पर जान भी दे सकने का दावा करते हैं, कार की तो बात ही क्या.’’

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‘‘मजाक छोड़ शकील,’’ असगर ने कहा, ‘‘कल उसे पता लगेगा तब…’’

‘‘अब कुछ असर होने वाला नहीं है,’’ शकील ने कहा, ‘‘अपनेआप शादी के बाद हालात से सुलह करना सीख जाएगी. अपने यहां हर लड़की को ऐसा ही करने की नसीहत दी जाती है.’’

‘‘पर तू कह रहा था शकील कि वह आम लड़कियों जैसी नहीं है, बड़ी तेजतर्रार है.’’

छोटी छोटी खुशियां- भाग 4: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

उस ने जैसे ही चौराहा पार किया, सीटी बजाते हुए एक ट्रैफिक पुलिस वाला स्कूटर रोकने का इशारा करते हुए आगे आ गया. प्रताप को स्कूटर रोकना पड़ा. सिपाही ने कहा, ‘‘लाइसैंस?’’

प्रताप ने बिना कुछ कहे, जेब से लाइसैंस निकाल कर सिपाही की ओर बढ़ाया तो उस ने फुरती से लाइसैंस कब्जे में करते हुए कहा, ‘‘200 रुपए निकालो.’’

‘‘क्यों?’’ प्रताप ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘लाल बत्ती होने पर भी तुम ने स्कूटर नहीं रोका. इसलिए चालान तो कटवाना ही पड़ेगा,’’ सिपाही ने दांत निपोरते हुए कहा.

गुटखे से पीले हुए उस के दांत देख

कर प्रताप को चिढ़ हो गई. प्रताप की आंखों के सामने मैनेजर साहब का गुस्से से लालपीला होता चेहरा नाच रहा था. प्रताप ने आंखें फैला कर कहा, ‘‘भले आदमी, आधा चौराहा पार करने के बाद तो पीली लाइट जली. इस में मेरा क्या दोष, जो चालान कटवाऊं. फिर मेरे पीछे से जो बस गई, उसे तो तुम ने नहीं रोका?’’

‘‘तुम अपना चालान कटवाओ, दूसरे की चिंता मत करो,’’ सिपाही रसीद बुक निकाल कर बोला, ‘‘नाम?’’

प्रताप अपना समय बरबाद नहीं करना चाहता था. सुधा की किचकिच की वजह से गए 200 रुपए. प्रताप ने 200 रुपए दिए और रसीद ले कर जेब में रखी. किक मार कर स्कूटर स्टार्ट किया. पानी के रेले की तरह चल रहे वाहनों के बीच से रास्ता बनाते हुए उस ने स्कूटर की गति बढ़ा दी.

आगे ट्रैफिक ढीला था. प्रताप के दिमाग की नसें और तन गईं. इस सिपाही का भी कुछ करना होगा. कैसेकैसे लोग ट्रैफिक में भरती हो गए हैं. एकएक को सीधा करना पड़ेगा. मैं इन सब की शिकायत गृहमंत्री से करूंगा. जल्दी पहुंचने के चक्कर में उस ने स्कूटर की गति भयानक रूप से तेज कर दी. जब से उस ने स्कूटर चलाना शुरू किया था, इतनी तेज गति से पहली बार चलाया था. उसी वक्त एक घटना घट गई.

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अचानक एक लड़की उस के सामने आ गई. विचारों में खोया प्रताप एकदम से हकबका गया. उस लड़की को बचाने के लिए प्रताप स्कूटर की सीट पर लगभग आधा खड़ा हो गया. पूरी ताकत से उस ने ब्रेक दबाए. लेकिन तड़ाक से बे्रक वायर टूट गया. उस ने एकदम से स्कूटर को फर्स्ट गेयर में डाला. स्कूटर जोरदार झटके के साथ पलटा और आगे घिसट गया. दाहिने पैर का घुटना सड़क पर इस तरह रगड़ा कि पैंट तो फट ही गई, चमड़ी छिल कर अंदर का मांस भी दिखाई देने लगा. सिर डिवाइडर से टकरा गया, जिस की वजह से प्रताप की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

फिर कितनी देर तक प्रताप बेहोश रहा, उसे पता नहीं चला. होश में आया तो दिमाग की नसें अभी भी तनी हुई थीं. बड़ी मुश्किल से उस ने आंखें खोल कर अगलबगल देखा. बीच सड़क पर वह पड़ा हुआ था. उसे लोग घेरे हुए थे. जहां की त्वचा छिली थी, असहनीय जलन हो रही थी. भीड़ में से एक युवक ने आगे बढ़ कर पानी की बोतल प्रताप को पकड़ाई. ठंडा पानी पीने के बाद प्रताप को थोड़ी राहत महसूस हुई. उस युवक ने इशारे से एक युवक को बुलाया और प्रताप की बांह पकड़ कर बैठाया. प्रताप के घुटने में बहुत तेज जलन हो रही थी. फिर उन युवकों ने प्रताप को उठा कर खड़ा किया. पीड़ा होते हुए भी प्रताप को धीरेधीरे चलने में दिक्कत नहीं हो रही थी. भीड़ में से किसी ने आटो बुला दिया था. आभारी नजरों से सब की ओर ताकते हुए प्रताप आटो में बैठ गया. औफिस करीब ही था, फिर आटो वाला भी भला आदमी था, इसलिए उस ने प्रताप से पैसे नहीं लिए थे. चोट में जलन अभी भी वैसी ही थी. औफिस में फर्स्ट ऐड बौक्स है, प्रताप यह जानता था.

आटो से उतर कर लिफ्ट तक जाने में प्रताप को काफी तकलीफ हुई थी.

बैंक में पहुंच कर उस ने राहत की सांस ली. आज की एक छुट्टी तो बची. एक बार मैनेजर साहब को मुंह दिखा कर वह डाक्टर के पास जा कर पट्टी बंधवा लेगा. टिटनैस का इंजैक्शन भी लगवाना जरूरी है.

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प्रताप ने बैंक में प्रवेश किया. उपस्थिति रजिस्टर मैनेजर साहब की मेज पर रखा था. मैनेजर साहब कंप्यूटर पर काम कर रहे थे. उन के सामने पड़ी कुरसी पर प्रताप आराम से बैठ गया. इतना चलने के बाद उस के घुटने का दर्द और बढ़ गया था. उस ने हस्ताक्षर करने के लिए जैसे ही रजिस्टर उठाया, मैनेजर साहब का ध्यान उस की ओर गया. उन की भौंहें तन गईं. उन्होंने कहा, ‘‘मिस्टर प्रताप, यह भी कोई टाइम है आने का?’’

मैनेजर साहब यही कहेंगे, प्रताप पहले से ही जानता था. आज बाजी प्रताप के हाथ में थी, इसलिए वह आज मैनेजर साहब से पूरा का पूरा पुराना बदला ले लेना चाहता था. वह तल्ख लहजे में बोला, ‘‘इधर देखो, यह मेरा घुटना छिल गया है और आप मुझे समय बता रहे हैं. मैं किस तरह बैंक पहुंचा हूं, यह मैं ही जानता हूं.’’

प्रताप ने यह बात इतने जोर से कही थी कि बैंक का पूरा स्टाफ चौंक कर प्रताप और मैनेजर साहब को ताकने लगा था. मैनेजर साहब प्रताप के इस व्यवहार से हक्काबक्का रह गए थे. फिर तो प्रताप आक्रामक हो उठा, ‘‘आप आदमी हैं या शैतान? पूरा घुटना छिल गया है, खून भी बह रहा है. फिर भी मैं बैंक आया हूं,’’ सभी लोगों को दिखाई पड़े, इस तरह प्रताप ने अपना पैर उठाया. प्रताप की हालत देख कर मैनेजर साहब खिसिया गए. इस मुद्दे पर मैनेजर साहब को आज अच्छी तरह खींचा जा सकता है, यह सोच कर प्रताप थोड़ी तेज आवाज में बोला, ‘‘आप अफसर हैं तो खुद को महान मानने लगे हैं. अरे इंसान हैं, थोड़ी तो इंसानियत रखो. किसी को शौक नहीं है लेट आने का. कोई समस्या हो जाती है, तभी आदमी लेट होता है.’’

पूरा स्टाफ आश्चर्य से प्रताप को ताक रहा था. उस ने अपना पैर उठा कर सब को चोट दिखाई. फिर दांत भींच कर मैनेजर साहब को घूरा. अब मैनेजर साहब की हिम्मत उस से नजर मिलाने की नहीं हो रही थी. सिंह साहब को चुप देख कर प्रताप बोला, ‘‘इतनी तकलीफ सह कर भी मैं बैंक आया हूं. इस की कद्र करने के बजाय आप साहबगीरी दिखा रहे हैं. साहब, आप को शर्म आनी चाहिए.’’

मैनेजर साहब को काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई थी. उन्होंने धीमे से कहा, ‘‘सौरी.’’

‘‘यू हैव टू…’’ इतना कह कर प्रताप धीरेधीरे अपनी मेज की ओर बढ़ने लगा. एक नजर उस ने सहकर्मियों पर डाली. उसी एक नजर में उस ने भांप लिया था कि मैनेजर साहब के साथ आज उस ने जो बरताव किया है उस से सभी खुश हैं. वह अपनी सीट पर जा कर बैठा तो एकएक, दोदो कर के लोग उस के पास आ कर हालचाल पूछने लगे. मिश्राजी फर्स्ट ऐड बौक्स ले कर आए. रेखा ने घुटने पर डिटौल लगाई तो काफी तेज जलन हुई. होंठ भींच लिए प्रताप ने. फिर बीटाडीन लगा कर ऊपर से रुई रख कर पट्टी बांध दी. रेखा की ओर देखते हुए प्रताप ने कहा, ‘‘थैंक्यू, थैंक्यू वेरी मच, रेखाजी.’’

पट्टी बंधने के बाद प्रताप ने काफी राहत महसूस की.

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