कर्जा : जब लल्लू ने दिया खाने का न्योता फिर क्या हुआ?

खेतीबारी में उलझा लल्लू खुद तो नहीं पढ़ पाया, पर अपने बेटों को खूब पढ़ाया. उस के 2 बड़े बेटे गुजरात में कमाई कर रहे थे.

वे वापस गांव आए, तो लल्लू ने गांव वालों को भोज का न्योता दिया. इस के बाद क्या हुआ?

लल्लू बेचारा गरीब ब्राह्मण था. गांव में सब से अलग. वह बचपन से ही पढ़ना चाहता था. शहर के लोगों को देखता, तो बोलता था, ‘‘वहां के लोग वीआईपी होते हैं.’’

पर गरीबी और मजबूरी से घर का खर्चा ही निकालना मुश्किल था, लल्लू पढ़ता कहां से. लेकिन पूरे गांव में वह नंबर एक की खेती करता था. पूरी जिंदगी खेतों में खप कर यही सोचता, ‘मैं नहीं पढ़ सका तो क्या हुआ, अपने बेटों को जरूर शहर पढ़ने भेजूंगा.’

समय बीता. लल्लू के 3 बेटे और 2 बेटियां हुईं. बेटियों की शादी कर समय से उन को ससुराल भेज अब कर्जा ले कर बेटों की पढ़ाई में लग गया.

अब रातदिन लल्लू के खेतों में ही कटते थे. पूरे गांव में सब से अव्वल खेती करता था. सब पूछने आते कि इतनी बढि़या खेती कैसे की है काका, हमें भी बताओ?

लल्लू सब को बड़े मन से बताता, जैसे किसी शहर का कृषि वैज्ञानिक हो.

लल्लू अब रातदिन मेहनत कर के अपने बेटों को सैट कर चुका था और उन की शादी कर के हर जिम्मेदारी से फारिग हो चुका था.

गांव के लोग आतेजाते बोलते, ‘काका, अब तुम्हारी मौज है. फारिग हो गए हो हर जिम्मेदारी से, अब तो आराम करने के दिन हैं…’

लल्लू भी हंस कर बोलता, ‘हां भाई, आखिर बहुत मेहनत की है आज का दिन देखने के लिए.’

एक दिन मुखियाजी लल्लू से बोले, ‘लल्लू, अभी पिछले जन्म का कर्जा बचा है, जो बेटे बन कर तुम से पूरा कराने आए हैं.’

लल्लू बोला, ‘‘अरे नहीं मुखियाजी, मेरे बेटे ऐसे नहीं हैं. वे तो मेरा सहारा हैं, मुझे बहुत आराम देंगे…’’

कोई कुछ बोलता, इस से पहले ही लल्लू वहां से चला गया, अपनेआप में ही बोलता हुआ, ‘‘मेरे बेटे बुढ़ापे का सहारा हैं. आज भी उन के ऊपर हुए खर्चे का कर्जा भर रहा हूं अनाज बेच कर… नहींनहीं, मेरे बेटे अच्छे हैं.’’

लल्लू के 2 बेटे गुजरात में रहते थे. उन्होंने वहीं अपने मकान बनवा लिए थे. इसी साल बड़े बेटे के बेटा हुआ था. पूरा परिवार गांव में जमा था. लल्लू ने गांव वालों को भोज का न्योता दिया था. नाच, बैंडबाजा, डीजे, जनरेटर, शामियाना, हलवाई सब का इंतजाम था. हैसियत से ज्यादा खर्च किया गया था.

किसी ने टोका, ‘‘अभी पिछला कर्जा सिर पर है, इतना ज्यादा क्यों खर्च कर रहे हो?’’

लल्लू बड़े गर्व से बोला, ‘‘मेरे 2 बेटे शहर में कमाते हैं, अब मुझे कोई चिंता नहीं हैं.’’

लल्लू के 3 बेटे थे, जिन में से बड़ा व मंझला बेटा गुजरात में रहते थे. छोटा बेटा घर पर रह कर खेतीबारी का काम देखता था.

शुरुआत में तो गुजरात में रहने वाले दोनों बेटे महीने में लल्लू को 2-4 हजार रुपए भेजा करते थे, लेकिन बाद में वे भी बंद कर दिए.

सब ने लल्लू को आगाह करना चाहा, तो वह बोलता, ‘‘अरे, देंगे नहीं तो जाएंगे कहां… अभी नएनए शहर गए हैं, घरगृहस्थी जम जाए, फिर पूरा खर्च उन से ही कराऊंगा.’’

लल्लू अब चिंतामुक्त हो गया है, इसलिए जी भर कर खर्चा कर रहा है. पूरे गांव को दिल खोल कर खिलाना चाहता है. बुरे समय में इन्हीं गांव वालों ने उस की मदद की थी.

भोज की रात में काका के घर की सजावट किसी शादीब्याह वाले घर को भी पीछे छोड़ रही थी. एक तरफ डीजे बज रहा था, तो वहीं दूसरी तरफ नाच का स्टेज सजा हुआ था. नाचने वाली भी आई थी, इसलिए उसे देखने के लिए 1000 से भी ज्यादा लोग पहुंचे थे.

4 घंटे तक भोज चला. बहुत से लोग तो खाना बांध कर घर भी ले गए. जिस  ने भी खाया, वह 2-3 दिन तक उस के स्वाद का बखान करता रहा.

महेश भी इस भोज का गवाह बना था. उस की शहर में नौकरी थी. फिलहाल वह गांव में था. कुछ महीने की बात है कि सब के खेत हरे हो गए थे. गेहूं के फसल की पहली सिंचाई हो गई थी, पर इन हरेहरे

खेतों के बीच एक खेत किसी गंजे के सिर की तरह दिखाई दे रहा था.

यह खेत लल्लू काका का था. यह उन का बड़ा खेत था, जिस का रकबा 7 बीघा था. इस खेत के गेहूं और धान की फसल से काका का घर भर जाता था, पर ऐसा क्या हुआ कि लल्लू काका का सूखा पड़ा था?

महेश इसी सोच में डूबा था कि सामने से लल्लू आता दिखाई दे गया.

महेश ने पूछना चाहा, तो लल्लू ने रोक दिया, फिर कुछ देर तक रोने के बाद उस ने बताया, ‘‘बेटों का कर्जा भर रहा हूं. तुम सब सही बोलते थे… भोज के अगले दिन ही शहर वाले दोनों बेटे अपनेअपने परिवार के साथ चले गए. उन का रिजर्वेशन था. शाम को जब वे लोग रेलवे स्टेशन जाने के लिए गाड़ी में बैठ रहे थे, तब शामियाना और जनरेटर वाले अपने रुपए लेने के लिए आ गए.

‘‘इतना सुनते ही बड़े बेटे ने कहा, ‘सारा हिसाब बाबूजी करेंगे. इन्हीं से आप लोग अपना पैसा ले लीजिएगा.’

‘‘मैं ने हैरान होते हुए कहा, ‘‘मगर, मेरे पास रुपए कहां हैं… अभी खेतों में पानी चलाना है, खादबीज लाना है.

‘‘इस पर मं?ाला बेटा बोला, ‘तो हम क्या करें… खेती से उपजा हम एक दाना अपने साथ नहीं ले जाते हैं. इन खेतों से जो घर बैठे मौज कर रहा है, उस से ले लीजिए.’

‘‘किसी तरह इंतजाम कर के जनरेटर और शामियाना का पैसा दिया. अभी जनरेटर वाले के 5,000 रुपए बकाया हैं,’’ लल्लू जब तक बोलता रहा, तब तक उस की आंखें झरना बनी रहीं.

‘‘छोड़िए काका,’’ महेश ने कहा.

‘‘मैं इस के लिए नहीं रो रहा हूं बेटा, पर जातेजाते मंझली बहू अपना हिस्सा अलग करने को कह गई है. मैं तो इस खेत को अपने दिल के टुकड़े की तरह रखता था, कैसे इस को टुकड़ों में अलग करूंगा, यही सोच कर रो रहा हूं,’’ लल्लू बोला.

काका को समझबूझ कर महेश घर चला आया. पूरे रास्ते और घर आने के बाद भी वह यही सोचता रहा कि सब से बड़ा कर्जा बेटों का होता है, जो बाप पूरी जिंदगी भरता है, फिर भी वह खत्म नहीं होता.

जात: एक दलित पेंटर का दर्द

गांव में एक शानदार मंदिर बनाया गया. मंदिर समिति ने एक बैठक कर के मंदिर में रंगरोगन और चित्र सज्जा के लिए एक अच्छे पेंटर को बुलाना तय किया. सब ने शहर के नामचीन पेंटर को बुला कर काम करने की सहमति दी. दूसरे दिन मंदिर समिति द्वारा चुने गए 2 लोग शहर के नामचीन पेंटर की दुकान पर पहुंचे, जिस ने कई मंदिरों और दूसरी जगहों को अपनी कला से निखारा था.

मंदिर समिति के लोगों ने उस पेंटर को बताया कि मंदिर में कौनकौन सी मूर्तियां लगेंगी और उन देवीदेवताओं की लीलाओं से संबंधित चित्र बनाने हैं और रंगरोगन करना है. उस पेंटर ने हामी भरी, तो मंदिर समिति के सदस्यों ने उसे 2,000 रुपए एडवांस दे दिए.

दूसरे दिन वह पेंटर अपने रंगों व ब्रश के अलावा दूसरे तामझाम के साथ गांव पहुंच गया. मंदिर में सामान रख कर वह एक दीवार को चित्रकारी के लिए तैयार कर ही रहा था कि मंदिर समिति का एक सदस्य वहां आया और चित्रकार से बोला, ‘‘पेंटर साहब, बापू साहब ने कहा है कि अभी कुछ दिन काम नहीं करना है, इसलिए आप अभी जाओ. काम कराना होगा तो बुला लेंगे.’’

वह पेंटर अपना काम रोक कर सामान को समेटते हुए वापस शहर अपनी दुकान पर लौट आया. 4-5 दिन बाद गांव के कुछ खास लोग उस की दुकान पर पहुंचे और उन में से एक बोला, ‘‘पेंटर साहब, अभी काम बंद रखना है, इसलिए मंदिर की तरफ से जो पेशगी दी थी, वह वापस दे दो.’’

पेंटर ने उन्हें वह राशि लौटा दी. सब चले गए. दूसरे दिन शहर में मंदिर समिति का एक सदस्य दिखाई दिया, तो उस पेंटर ने इज्जत के साथ बुला कर उस से काम न कराने की वजह जाननी चाही,

तो उस सदस्य ने समिति में हुई चर्चा बताते हुए कहा, ‘‘आप छोटी जाति के हो और मंदिर में उन का घुसना मना है, इसलिए आप को मना किया व दूसरे पेंटर को काम दे दिया.’’

यह सुन कर वह पेंटर बोला, ‘‘पर, मैं न तो शराब पीता हूं, न मांस खाता हूं और न ही बीड़ीसिगरेट पीता हूं… मैं तो दोनों समय मंदिर जाता हूं.’’

इस पर वह आदमी बोला, ‘‘वह सब तो ठीक है और बहुत सारे मंदिरों में आप ने बहुत अच्छा काम भी किया है, पर हमारे यहां बापू साहब ने मना किया, तो किस की हिम्मत जो आप के लिए बोले.’’

प्रेम की भोर : कैसे थे भोर के भइया-भाभी

भोर के मातापिता की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी. भैयाभाभी ने भोर की जिम्मेदारी संभाल ली थी. भोर आकाशवाणी में काम करना चाहती थी, पर भैया के बिस्तर पर आ जाने से उस के सपने बिखर गए. ऊपर से भाभी अलग ही चालें चल रही थीं. क्या भोर की जिंदगी में कभी उजाला हो पाया?

मां बाप ने उस का नाम भोर रखा था, पर भोर की जिंदगी में अभी तक  अंधियारा ही छाया हुआ था. आज भोर 20 साल की हो गई थी, पर अपने जन्मदिन की उस के मन में बिलकुल भी खुशी नहीं थी. बारबार उस का मन रोने को कर रहा था, क्योंकि आज से 4 साल पहले जब वह 16 साल की थी, तभी उस के मम्मीपापा एक सड़क हादसे में गुजर गए थे.

मम्मीपापा की मौत के बाद भोर के एकलौते बड़े भाई विपिन ने उस की पढ़ाईलिखाई और पालनपोषण की जिम्मेदारी ले ली थी और तब से आज तक भोर अपने भैयाभाभी के साथ ही रह रही थी.

भोर के भैया विपिन एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे और भाभी नमिता हाउसवाइफ थीं. मम्मीपापा के गुजर जाने के बाद भोर की पढ़ाईलिखाई और पालनपोषण का जिम्मा जब उस के भैयाभाभी ने उठाया, तब पूरे महल्ले में विपिन और नमिता की खूब तारीफ हुई थी.

‘विपिन ने एक बड़े भाई का फर्ज निभाते हुए अपनी छोटी बहन को अपने पास रख लिया है. कितना अच्छा है विपिन. आजकल के जमाने में ऐसे भाईभाभी मिलते ही कहां हैं…’ पूरे महल्ले में ऐसी बातें होने लगी थीं.

शुरुआत में जब भोर मासूम थी, तब उसे भी लगा था कि भाभी उस का बहुत ध्यान रख रही हैं और वह अगर भोर से घर का काम कराती भी हैं, तो क्या हुआ? थोड़ा बहुत काम तो हर लड़की को करना ही पड़ता है. पर समय बीतने के साथसाथ यह थोड़ाबहुत काम ढेर सारे काम में बदल गया और नमिता भोर से पूरे घर का काम कराने लगीं.

नमिता का एक 6 साल का बेटा भी था, जिसे संभालने और नीचे घुमाने की जिम्मेदारी भी भोर को दे दी गई थी. भोर की जरा सी गलती पर ही नमिता उस पर बरस पड़ती थीं और काम ठीक से न कर पाने पर नसीहत भी देती थीं.

1-2 बार नमिता ने विपिन के सामने ही जब भोर को डांटा, तो विपिन ने प्यार से फुसफुसाते हुए नमिता से कहा, ‘‘अरे, इस सोने के अंडे देने वाली मुरगी को ऐसे मत धमकाओ, नहीं तो सारा किएधरे पर पानी फिर जाएगा.’’

‘‘आप को तो यही लगता है कि मैं उसे बुराभला कहती हूं, पर आप मेरा भोर के लिए प्यार नहीं देखते, कितना ध्यान रखती हूं मैं उस का…’’ इठलाते हुए फिल्मी अंदाज में जब नमिता ने यह बात कही, तो विपिन और नमिता दोनों एकदूसरे को आंख मार कर हंसने लगे.

विपिन और नमिता ने भोर को इसलिए अपने पास रखा हुआ था, ताकि एक न एक दिन वे लोग भोर के नाम पर आई हुई जायदाद को जबरदस्ती या धोखे से अपने नाम कर लें, पर तब तक उन्हें भोर को अपने पास इस तरह रखना था, ताकि वह किसी से विपिन और नमिता की बुराई न कर सके और न ही किसी नातेरिश्तेदारों को भैयाभाभी की हकीकत का पता चल सके.

लखनऊ शहर के प्रवास ऐनक्लेव में रहने वाली भोर हर दिन के साथ बड़ी होती जा रही थी. उस की आवाज बहुत अच्छी थी, इसलिए वह चाहती थी कि आकाशवाणी लखनऊ में काम करे.

पर यह सब कैसे होगा, यह तो भोर को पता ही नहीं था और अब तक भोर अपनी भाभी का रवैया भी समझ गई थी और फिलहाल तो उसे अपनी भाभी के रंगढंग देख कर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था कि वे उसे आगे पढ़ने या घर से बाहर का कोई काम करने देंगी, पर मन के किसी कोने में अपने बड़े भाई पर भरोसा था कि वे उसे पढ़ाई में सहयोग करेंगे और इसी भरोसे के साथ भोर हर कष्ट हंसीखुशी सहे जा रही थी.

भोर आगे पढ़ सके, इसलिए उस के बड़े भाई विपिन का सहयोग भोर के लिए बहुत जरूरी था, पर अभी भोर के लिए सबकुछ आसान नहीं होने वाला था, क्योंकि एक दिन अचानक विपिन सड़क हादसे में अपाहिज हो कर बिस्तर पर आ गया था.

विपिन की नौकरी तो प्राइवेट थी, जो कुछ महीने बाद जाती रही. बैंक में जो पैसे थे, वे सब तो विपिन के इलाज में लग गए थे और अब घरखर्च के लिए पैसों की जरूरत थी.

भाभी नमिता हमेशा परेशान रहती थीं. भोर वैसे भी नमिता को फूटी आंख नहीं सुहाती थी, इसलिए वे भोर को खरीखोटी सुनाती रहती थीं और विपिन की इस हालत के लिए भी भोर को जिम्मेदार मानती थीं, ‘‘तू पहले तो अपने मांबाप को खा गई और अब मेरे पति के प्राण जातेजाते बचे… कितनी अपशुकनी है तू…’’

भोर अच्छी तरह समझ रही थी कि भैया विपिन की नौकरी जाने के बाद उस के लिए जिंदगी की राह और मुश्किल हो गई है, इसलिए अब उसे अपने कैरियर के सपने देखने बंद करने होंगे और पैसे कमाने के लिए कोई रोजगार ढूंढ़ना होगा.

भोर ने अपने कुछ खास दोस्तों से नौकरी के बारे में बात की, तो भोर को उस की अच्छी आवाज के चलते एक काल सैंटर में काम मिल गया. पर वह यह भी जानती थी कि आजकल पढ़ाईलिखाई की बड़ी अहमियत है, इसलिए वह थोड़ाबहुत समय पढ़ाई के लिए भी निकाल ही लेती थी.

भोर को जब भी तनख्वाह मिलती, तो वह सैलेरी क्रेडिट हो जाने के मैसेज का स्क्रीनशौट खुशीखुशी विपिन को दिखाती और एटीएम से पैसे निकाल कर नमिता को दे देती.

भोर की दरियादिली देख कर विपिन का दिल पिघलने लगा, पर नमिता का मन भोर के लिए अब भी साफ नहीं था, बल्कि वे लगातार इस फिराक में थीं कि कैसे भोर के नाम पर जमा फंड और बाकी की जायदाद अपने नाम की जाए.

अपने इस प्लान को अमलीजामा पहनाने के लिए नमिता के मन में यह प्लान आया कि अगर वे अपने 25 साल के सगे भाई अमन की शादी भोर के साथ करा दें, तो भोर के सारे पैसों पर अमन का हक हो जाएगा और उस के बाद अमन और नमिता मिल कर भोर के पैसों पर मौज कर सकेंगे.

जब नमिता ने यह बात अमन से शेयर की, तो बेरोजगार और आलसी अमन को यह आइडिया बहुत जम गया और उस ने शादी के लिए तुरंत हां कर दी.

भोर की शादी अमन से करवाने के लिए विपिन को भी अपने प्लान में शामिल करना जरूरी था, इसलिए जब नमिता ने यह बात विपिन को बताई, तब विपिन को यह सब थोड़ा नागवार गुजरा… आखिर विपिन भोर का सगा बड़ा भाई था.

‘‘अरे नहीं, आज भोर अकेले ही हमारा खर्चा उठा रही है. हम जानबू?ा कर उस के साथ गलत नहीं कर सकते, बल्कि हमें तो उस के लिए खुद कोई अच्छा सा लड़का तलाशना होगा.’’

विपिन की इस बात से नमिता चिढ़ गईं और उन्होंने विपिन को चेताया कि अगर भोर इस घर से चली गई, तो आमदनी का जरीया बंद हो जाएगा. उन की इस बात ने विपिन को थोड़ा सोचने पर मजबूर कर दिया.

अगली सुबह भोर को अपने काम पर जाने के लिए देर हो गई और कैब भी आने में देर कर रही थी. उसे परेशान देख फौरन ही नमिता ने अमन को फोन कर के अपने फ्लैट पर बुला लिया और भोर को काल सैंटर तक छोड़ आने को कहा.

उस दिन के बाद से नमिता ने लगातार ऐसी कई कोशिशें करनी शुरू कर दीं, जिस से भोर और अमन में निकटता बढ़ जाए और उन दोनों के बीच प्यार का रिश्ता कायम हो जाए.

अमन ने भी भोर को पटाने के लिए कई हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए और फिर एक दिन नमिता ने मौका देख कर भोर से अपने मन की बात कह ही दी, ‘‘अमन तो तुझे भी अच्छा लगता ही है. तू कहे तो तुम दोनों की शादी करा दूं?’’

नमिता की यह बात सुन कर भोर सिर्फ फीके मन से मुसकरा दी.

इसी बीच भोर की दोस्ती उस के साथ काल सैंटर में काम करने वाले एक लड़के प्रज्ञान से हो गई थी. 23 साल का प्रज्ञान एक दलित नौजवान  था. प्रज्ञान की कई भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी, इसलिए भोर और उस में अच्छी बनती थी. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को पसंद भी करने लगे थे, पर अभी किसी ने खुल कर अपने प्यार का इजहार नहीं किया था.

नमिता धीरेधीरे भोर पर अमन से शादी करने का दबाव बना रही थीं, पर भोर इस बात को लगातार टाल रही थी.

आज भोर की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी, इसलिए वह घर पर ही आराम कर रही थी. नमिता ने अमन को फोन कर के दवा लाने को कहा और नमिता ने खुद ही बड़े प्यार से भोर को दवा खिला दी.

दवा खाते ही भोर सो गई. अगले दिन जब वह उठी, तो उस का सिर भारी हो रहा था. नमिता ने उसे चाय पिलाई. 2 दिन बाद भोर एकदम ठीक हो गई थी.

एक शाम को नमिता भोर के पास आई और उसे कुछ तसवीरें दिखाईं, जिन में अमन भोर से चिपका हुआ था और भोर के कपड़े अस्तव्यस्त थे.

‘‘अब भी समय है, अमन से शादी कर ले, वरना पूरे शहर में तुझे इतना बदनाम कर दूंगी कि तुझ से कोई शादी नहीं करेगा,’’ नमिता ने भोर को धमकी दी.

अपनी ऐसी गंदी तसवीरें देख कर भोर सन्न रह गई थी और उस की समझ में आ चुका था कि रात में अमन से दवा मंगवाना इसी साजिश का हिस्सा है, पर उस की भाभी इस हद तक गिर जाएंगी, उसे उम्मीद नहीं थी. और फिर आखिर भाभी उस की शादी अमन से जबरदस्ती क्यों कराना चाहती हैं, यह उस की समझ से परे था.

भोर कई दिन तक घर से बाहर नहीं निकली. प्रज्ञान भी भोर के काम पर न आने से परेशान था. कई बार फोन किया, पर कोई जवाब नहीं. भला प्रज्ञान क्या करता? पर सबकुछ ठीक नहीं है, यह बात वह जान गया था.

एक दिन जब भोर काल सैंटर गई, तो उस का रंगरूप ही बिगड़ा हुआ था. तनाव से उस का सिर भारी हो रहा था और उस की आंखें सूजी हुई थीं.

‘‘क्या हुआ…? तुम इतनी परेशान क्यों हो भोर?’’ प्रज्ञान ने पूछा, तो भोर सारी शर्मोहया भूल कर उस से लिपट गई और रोते हुए अपना सारा हाल कह सुनाया.

प्रज्ञान ने उस के आंसू पोंछे और उसे चुप कराते हुए अखबार में निकला इश्तिहार दिखाया, जिस पर लखनऊ आकाशवाणी में एक सुरीली आवाज वाली एंकर की जरूरत थी.

प्रज्ञान ने भोर से कहा कि वह सारा तनाव छोड़ कर इस नौकरी के लिए इंटरव्यू की तैयारी करे और बाकी सब उस पर छोड़ दे. भोर ने पलकें ?ाका कर अपनी सहमति दे दी.

प्रज्ञान वहां से सीधा अपने एक दोस्त मैसी के पास पहुंचा, जो एक जिम चलाता था और उस के पापा पुलिस महकमे में सबइंस्पैक्टर थे. प्रज्ञान ने उन्हें भोर की कहानी सुनाते हुए मदद मांगी और उन्होंने मदद देने का वादा भी किया.

प्रज्ञान के लिए सब से मुश्किल काम भोर को मानसिक रूप से मजबूत बनाना था. वह भोर को ‘मानसरोवर महल’ में ले कर गया. यह एक ऐसी जगह थी, जहां पर पानी को भर कर एक बड़ा सा तालाब बनाया गया था, जिस में लोग बोटिंग कर रहे थे और चारों तरफ हरियाली फैली हुई थी.

प्रज्ञान ने भोर से कहा, ‘‘न जाने ऐसे कितने वीडियो के डर से लड़कियां खुदकुशी कर लेती हैं, पर तुम धमकी से मत डरो. अगर अमन तुम्हारी कोई तसवीर या वीडियो इंटरनैट पर डालता है, तो उसे डालने दो.

‘‘अगर लोग तुम्हें पहचान भी लें तो यह शर्म की बात अमन के लिए है, तुम्हारे लिए नहीं, क्योंकि तुम्हें नशे की गोली दे कर बेहोश किया गया और फिर वीडियो बनाई गई.’’

भोर को प्रज्ञान की बात समझ आ रही थी और धीरेधीरे उस के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक लौट रही थी.

प्रज्ञान लगातार भोर को समझ रहा था कि उसे अपने खिलाफ बने हुए हालात का सामना भाग कर नहीं, बल्कि डट कर सामना करना है.

भोर ने प्रज्ञान को भरोसा दिलाया कि वह ऐसा ही करेगी. प्रज्ञान ने देखा कि भोर ने अपने मोबाइल के बैक कवर में लगा हुआ वह इश्तिहार निकाल लिया था, जिस पर आकाशवाणी में एंकर की नौकरी के लिए इंटरव्यू की डिटेल लिखी हुई थी.

मैसी के पापा ने अमन और उस की बहन नमिता को एक लड़की का वीडियो बना कर उसे धमकाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था और अमन के पास से वीडियो ले कर डिलीट कर दिए थे.

आज जब भोर आकाशवाणी में एंकर का इंटरव्यू दे कर आई, तो बहुत खुश थी. उस ने घर पहुंचते ही अपने भैया विपिन को गले लगा लिया था, क्योंकि उसे आकाशवाणी में एंकर की नौकरी मिल गई थी. अब तो विपिन समेत बहुत सारे लोग रेडियो पर भोर की सुरीली आवाज सुन सकेंगे.

अभी विपिन और भोर अपनी खुशियां बांट ही रहे थे कि वहां पर प्रज्ञान आ गया. उस ने विपिन का आशीर्वाद लिया और सीधे शब्दों में विपिन से भोर का हाथ मांग लिया, साथ ही प्रज्ञान ने विपिन को यह भी बता दिया कि वह दलित है.

‘‘जातियां तो हम इनसान बनाते हैं प्रज्ञान. हमारी असली पहचान तो इनसान होना है और हमें एकदूसरे की मदद और प्यार करना आना ही चाहिए,’’ यह कहते हुए विपिन ने देखा कि भोर की आंखों में प्रज्ञान के लिए प्यार तैर रहा था.

आज आकाशवाणी लखनऊ पर भोर की सुरीली आवाज एक प्रोग्राम में गूंज रही थी, जिस में भोर महिलाओं को निडर हो कर हर हालात से लड़ने के हौसले के बारे में बता रही थी. विपिन और प्रज्ञान एकसाथ बैठे हुए रेडियो पर भोर की आवाज सुन रहे थे. भोर की जिंदगी में अब सचमुच भोर आ चुकी थी.

तरक्की : श्वेता की मां क्यों हैरान थी

श्वेता की नौकरी को आज पूरे 2 साल हो गए थे, पर वही तनख्वाह, वही ओहदा, कोई तरक्की नहीं. श्वेता एक सीधीसादी लड़की थी. कम बोलना, बेवजह किसी को फालतू मुंह न लगाना उस की आदत में ही शामिल था. दफ्तर के मालिक मनोहर साहब जब भी उसे बुलाते, वह नजरें झुकाए हाजिर हो जाती.

‘‘श्वेता…’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तुम काम खत्म हो जाने पर फुरसत में मेरे पास आना.’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता दरवाजा खोलती और बाहर अपने केबिन की तरफ बढ़ जाती. उस ने कभी भी मनोहर साहब की तरफ ध्यान से देखा भी नहीं था कि उन की आंखों में उस के लिए कुछ है.

अगले महीने तरक्की होनी थी. पूरे दफ्तर में मार्च के इस महीने का सब को इंतजार रहता था.

मनोहर साहब अपने दफ्तर में बैठे श्वेता के बारे में ही सोच रहे थे कि शायद 2 साल के बाद वह उन से गुजारिश करेगी. पिछले साल भी उन्होंने उस की तरक्की नहीं की थी और न ही तनख्वाह बढ़ाई थी, जबकि उस का काम बढ़िया था.

इस बार मनोहर साहब को उम्मीद थी कि श्वेता के कहने पर वे उस की तरक्की कर उसे अपने करीब लाएंगे, जिस से वे अपने मन की बात कह सकेंगे, पर श्वेता की तरफ से कोई संकेत न मिलने की वजह से वे काफी परेशान थे. आननफानन उन्होंने मेज पर रखी घंटी जोर से दबाई.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ चपरासी विपिन हाजिर हो गया.

‘‘विपिन, देखना श्वेता क्या कर रही है? अगर वह खाली हो तो उसे मेरे पास भेज दो.’’

मनोहर साहब ने बोल तो दिया, पर वे सम झ नहीं पा रहे थे कि उस से क्या कहेंगे, कैसे बात करेंगे. वे अपनी सोच में गुम थे कि तभी श्वेता भीतर आई.

मनोहर साहब उस के गदराए बदन को देखते हुए हड़बड़ा कर बोले, ‘‘अरे, बैठो, तुम खड़ी क्यों हो?’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता कुरसी पर बैठ गई.

मनोहर साहब बोले, ‘‘देखो श्वेता, तुम काबिल और सम झदार लड़की हो. तुम इतनी पढ़ाईलिखाई कर के टाइप राइटर पर उंगलियां घिसती रहो, यह मैं नहीं चाहता.

‘‘मैं तुम्हें अपनी सैक्रेटरी बनाना चाहता हूं.’’

‘‘क्या,’’ इस शब्द के साथ श्वेता का मुंह खुला का खुला रह गया. वह अपने भीतर इतनी खुशी महसूस कर रही थी कि मनोहर साहब के चेहरे पर उभरे भावों को देख नहीं पा रही थी.

‘‘ठीक है सर. कब से काम संभालना है?’’ यह पूछते हुए श्वेता के चेहरे पर बिखरी खुशी की लाली उस की खूबसूरती में निखार ला रही थी, जिस का मजा उस के मनोहर साहब भरपूर उठा रहे थे.

‘‘कल से ही तुम यह काम संभाल लो,’’ यह कहते हुए मनोहर साहब को ध्यान भी नहीं रहा कि अभी इस महीने में 5 दिन बाकी हैं, उस के बाद पहली तारीख आएगी.

मनोहर साहब के ‘कल से’ जवाब के बदले में श्वेता ने कहा, ‘‘ठीक है सर…’’ और जाने के लिए कुरसी छोड़ कर खड़ी हो गई, पर सर की आज्ञा का इंतजार था.

थोड़ी देर बाद मनोहर साहब बोल पड़े, ‘‘ठीक है, तुम जाओ.’’

श्वेता को मानो इसी बात का इंतजार था. वह अपनी इस खुशी को अपने परिवार में बांटना चाहती थी. वह अपना पर्स टटोलते हुए अपने केबिन में पहुंची और वहां सभी कागज वगैरह ठीक कर के घर के लिए चल पड़ी.

श्वेता अपने परिवार के पसंद की खाने की चीजें ले कर घर पहुंची. रास्ते में उस के जेहन में वे पल घूम रहे थे, जब 3 साल पहले उस के पिताजी की मौत हो गई थी. एक साल तक मां ही परिवार की गाड़ी चलाती रही थीं.

श्वेता ने बीए पास करते ही नौकरी शुरू कर दी थी, ताकि उस की दोनों छोटी बहनें पढ़ सकें. एक छोटा भाई सागर था, जो अभी तीसरी क्लास में था.

श्वेता के 12वीं के इम्तिहान के बाद ही सागर का जन्म हुआ था. तीनों बहनों का लाड़ला था सागर, पर पिता का प्यार उसे नहीं मिल सका था.

श्वेता को अपनी सोच में गुम हुए पता न चला कि घर आ चुका था.

‘‘रोको भैया, रोको, मुझे यहीं उतरना है,’’ कहते हुए श्वेता ने पैकेट संभाले हुए आटोरिकशा का पैसा चुकता किया और घर की सीढ़ियों पर चढ़ते ही घंटी बजाई.

छोटी बहन संगीता ने दरवाजा खोला. सब से छोटी बहन सरोज भी उस के साथ थी. दीदी के हाथों में पैकेट देख कर दोनों बहनें हैरान थीं.

अभी वे कुछ कहतीं, उस से पहले श्वेता बोल पड़ी, ‘‘लो सरोज, आज हम सब बाहर का खाना खाएंगे.’’

इस के बाद वे तीनों भीतर आ कर मां के पास बैठ गईं.

मां भी श्वेता कोे देख रही थीं, तभी वह बोली, ‘‘मां, आज मैं बहुत खुश हूं. अब आप को चिंता नहीं करनी पड़ेगी. आप खुले हाथों से खर्च कर सकती हैं. अब मुझे 10,000 रुपए तनख्वाह मिला करेगी.’’

श्वेता की बातें सुन कर मां और ज्यादा हैरान हो गईं.

श्वेता ने आगे कहा, ‘‘मैं अपनी बहनों को इंजीनियर और डाक्टर बनाऊंगी. अब इन की पढ़ाई नहीं रुकेगी,’’ कहते हुए श्वेता के चेहरे पर ऐसे भाव आ गए जो पिता की मौत के बाद कालेज छोड़ते हुए आए थे.

श्वेता की तरक्की से पूरा दफ्तर हैरान था. काम्या तो इस बात से हैरान थी कि श्वेता ने कैसे मनोहर साहब से अपनी तरक्की करवा ली. अगर उसे पता होता कि ‘मनोहर साहब’ भी मैनेजर जैसे हैं, तो वह अपना ब्रह्मपाश मनोहर सर पर

ही चलाती. वह फालतू ही मैनेजर के चक्कर में पड़ गई. उसे अपनेआप पर गुस्सा आ रहा था.

काम्या चालबाज लड़की थी. उस ने आते ही मैनेजर को अपने मायाजाल में फांस कर अपनी तरक्की करा ली थी, पर यह सब दफ्तर का कोई मुलाजिम नहीं जानता था. वह वहां सामान्य ही रहती थी, भले ही अपनी पूरी रात मैनेजर के साथ बिताती थी.

एक दिन काम्या ने श्वेता से कह दिया कि बहुत लंबा तीर मारा है तुम ने सीधीसादी बन कर, पर श्वेता उस का मतलब न सम झ पाई.

4 महीने बीत चुके थे. एक दिन किसी समारोह में श्वेता भी मनोहर साहब के साथ गई. साहब बहुत खुश नजर आ रहे थे. दफ्तर का ही कार्यक्रम था. श्वेता से उन की खुशी छुपी नहीं रही. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, आज कोई खास बात है क्या?’’

‘‘हां श्वेता, तुम्हारे लिए खुशखबरी है,’’ कहते हुए वे मुसकराने लगे.

‘‘मेरे लिए क्या…’’ हैरान श्वेता देखती रह गई.

समारोह खत्म होने पर ‘तुम साथ चलना’ कहते हुए श्वेता का जवाब जाने बिना मनोहर साहब दूसरी तरफ चले गए. पर वह विचलित हो गई कि आखिर क्या बात होगी?

समारोह तकरीबन 4 बजे खत्म हुआ और साहब के साथ गाड़ी में चल पड़ी, वह राज जानने जो उस के साहब को खुश किए था और उसे भी कोई खुशी मिलने वाली थी. एक फ्लैट के सामने गाड़ी रुकी और साहब ताला खोलने लगे.

अंदर हाल में दीवान बिछा था, सोफे भी रखे थे. ऐसा लग रहा था कि यहां कोई रहता है. सभी चीजें साफसुथरी लग रही थीं.

‘‘बैठो,’’ मनोहर साहब ने कहा तो वह भी बैठ गई और साहब की तरफ देखने लगी.

‘‘देखो श्वेता, तुम बहुत ही सम झदार लड़की हो. अब मैं जो भी कहने जा रहा हूं, उसे ध्यान से सुनना और सम झना. अगर तुम्हें मेरी बातें या मैं बुरा लगूं तो तुम मेरा दफ्तर छोड़ कर आराम से जा सकती हो. अब मेरी बातें बड़े ही ध्यान से सुनो…’’

श्वेता मनोहर साहब की बातें सम झ नहीं पा रही थी कि वे क्या कहना चाहते हैं और उस से क्या चाहते हैं. कानों में मनोहर साहब की आवाज पड़ी, ‘‘सुनो श्वेता, मैं तुम से पतिपत्नी का रिश्ता बनाना चाहता हूं. तुम मु झे अच्छी लगती हो. तुम में वे सारे गुण मौजूद हैं, जो एक पत्नी में होने चाहिए. मेरा एक 3 साल का बेटा है, उसे मां की जरूरत है. अगर तुम मेरी बात मान लोगी तो यहां जिंदगीभर राज करोगी. सोचसमझ कर मुझे अभी आधे घंटे में बताओ. तब तक मैं कुछ चायकौफी का इंतजाम करता हूं,’’ कहते हुए वे कमरे से बाहर जा चुके थे.

श्वेता क्या करे, इनकार की गुंजाइश बिलकुल नहीं थी. दूसरी नौकरी तलाशने तक घर तबाह हो जाएगा, हां कहती है तो बिना जन्म दिए मां का ओहदा मिल जाएगा. तरक्की के इतने सारे अनचाहे उपहारों को वह संभाल पाएगी. उस ने अपनेआप से सवाल किया.

‘‘लो, चाय ले लो,’’ कहते हुए वे उस के करीब बैठ चुके थे और उस की पीठ पर हाथ फेरने लगे. उस ने विरोध भी नहीं किया. उसे अपनी बहनों को डाक्टर और इंजीनियर जो बनाना था.

शरीर की हलचल पर काबू न रखते हुए वह मनोहर साहब की गोद में लुढ़क गई. आखिर उसे भी तो कुछ देना था साहब को, उन की इतनी मेहरबानियों की कीमत.

थोड़े देर में वे दोनों एकदूसरे में डूब गए. श्वेता को कुछ भी बुरा नहीं लग रहा था.

मनोहर साहब की पत्नी मर चुकी थी. वे किसी ऐसी लड़की की तलाश में थे, जो उस के बच्चे को अपना कर उसे प्यार दे सके. श्वेता में उसे ये गुण नजर आए, वरना उस की औकात ही क्या थी.

3 हफ्ते में दोनों की शादी हो गई. शादी में पूरा दफ्तर मौजूद था. सभी मनोहर साहब की तारीफ कर रहे थे कि चलो रिश्ता बनाया तो निभाया भी, वरना आजकल कौन ऐसा करता है.

काम्या भीतर ही भीतर हाथ मल रही थी और पछता रही थी. उस से रहा नहीं गया. श्वेता के कान में शब्दों की लडि़यां उंड़ेल दीं. ‘‘श्वेता, लंबा हाथ मारा है, नौकर से मालकिन बन बैठी.’’

श्वेता के चेहरे पर हलकी सी दर्द भरी मुसकान रेंग गई. वह खुद नहीं सम झ पा रही थी कि ‘लंबा हाथ मारा है’ या ‘लुट गई है’.

‘‘मम्मी, गुड इवनिंग,’’ यह आवाज एक मासूम बच्चे सौरभ की थी, जो बहुत ही प्यारा था. मनोहर साहब उस का हाथ पकड़े खड़े थे. शायद मांबेटे का एकदूसरे से परिचय कराने के लिए, पर बिना कुछ पूछे श्वेता ने सौरभ को उठा कर अपने सीने से लगा लिया, क्योंकि उसे अपनी तरक्की से कोई गिला नहीं था. उसे तरक्की में मिले तोहफों से यह तोहफा अनमोल था.

शिकार : काव्या की दुख भरी कहानी

वह एक बार फिर उस के सामने खड़ा था. लंबाचौड़ा काला भुजंग. आंखों से  झांकती भूख. एक ऐसी भूख जिसे कोई भी औरत चुटकियों में ताड़ जाती है. उस आदमी के लंबेचौड़े डीलडौल से उस की सही उम्र का पता नहीं लगता था, पर उस की उम्र 30 से 40 साल के बीच कुछ भी हो सकती थी.

वहीं दूसरी ओर काव्या गोरीचिट्टी, छरहरे बदन की गुडि़या सी दिखने वाली एक भोलीभाली, मासूम सी लड़की थी. मुश्किल से अभी उस ने 20वां वसंत पार किया होगा. कुछ महीने पहले दुख क्या होता है, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती तक न थी.

मांबाप के प्यार और स्नेह की शीतल छाया में काव्या बढि़या जिंदगी गुजार रही थी, पर दुख की एक तेज आंधी आई और उस के परिवार के सिर से प्यार, स्नेह और सुरक्षा की वह पिता रूपी शीतल छाया छिन गई.

अभी काव्या दुखों की इस आंधी से अपने और अपने परिवार को निकालने के लिए जद्दोजेहद कर ही रही थी कि एक नई समस्या उस के सामने आ खड़ी हुई.

उस दिन काव्या अपनी नईनई लगी नौकरी पर पहुंचने के लिए घर से थोड़ी दूर ही आई थी कि उस आदमी ने उस का रास्ता रोक लिया था.

एकबारगी तो काव्या घबरा उठी थी, फिर संभलते हुए बोली थी, ‘‘क्या है?’’

वह उसे भूखी नजरों से घूर रहा था, फिर बोला था, ‘‘तू बहुत ही खूबसूरत है.’’

‘‘क्या मतलब…?’’ उस की आंखों से  झांकती भूख से डरी काव्या कांपती आवाज में बोली.

‘‘रंजन नाम है मेरा और खूबसूरत चीजें मेरी कमजोरी हैं…’’ उस की हवस भरी नजरें काव्या के खूबसूरत चेहरे और भरे जिस्म पर फिसल रही थीं, ‘‘खासकर खूबसूरत लड़कियां… मैं जब भी उन्हें देखता हूं, मेरा दिल उन्हें पाने को मचल उठता है.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो…’’ अपने अंदर के डर से लड़ती काव्या कठोर आवाज में बोली, ‘‘मेरे सामने से हटो. मु झे अपने काम पर जाना है.’’

‘‘चली जाना, पर मेरे दिल की प्यास तो बुझा दो.’’

काव्या ने अपने चारों ओर निगाह डाली. इक्कादुक्का लोग आजा रहे थे. लोगों को देख कर उस के डरे हुए दिल को थोड़ी राहत मिली. उस ने हिम्मत कर के अपना रास्ता बदला और रंजन से बच कर आगे निकल गई.

आगे बढ़ते हुए भी उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ऐसा लगता था जैसे रंजन आगे बढ़ कर उसे पकड़ लेगा.

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस ने कुछ दूरी तय करने के बाद पीछे मुड़ कर देखा. रंजन को अपने पीछे न पा कर उस ने राहत की सांस ली.

काव्या लोकल ट्रेन पकड़ कर अपने काम पर पहुंची, पर उस दिन उस का मन पूरे दिन अपने काम में नहीं लगा. वह दिनभर रंजन के बारे में ही सोचती रही. जिस अंदाज से उस ने उस का रास्ता रोका था, उस से बातें की थीं, उस से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि रंजन की नीयत ठीक नहीं थी.

शाम को घर पहुंचने के बाद भी काव्या थोड़ी डरी हुई थी, लेकिन फिर उस ने यह सोच कर अपने दिल को हिम्मत बंधाई कि रंजन कोई सड़कछाप बदमाश था और वक्ती तौर पर उस ने उस का रास्ता रोक लिया था.

आगे से ऐसा कुछ नहीं होने वाला. लेकिन काव्या की यह सोच गलत साबित हुई. रंजन ने आगे भी उस का रास्ता बारबार रोका. कई बार उस की इस हरकत से काव्या इतनी परेशान हुई कि उस का जी चाहा कि वह सबकुछ अपनी मां को बता दे, लेकिन यह सोच कर खामोश रही कि इस से पहले से ही दुखी उस की मां और ज्यादा परेशान हो जाएंगी. काश, आज उस के पापा जिंदा होते तो उसे इतना न सोचना पड़ता.

पापा की याद आते ही काव्या की आंखें नम हो उठीं. उन के रहते उस का परिवार कितना खुश था. मम्मीपापा और उस का एक छोटा भाई. कुल 4 सदस्यों का परिवार था उस का.

उस के पापा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करते थे और उन्हें जो पैसे मिलते थे, उस से उन का परिवार मजे में चल रहा था. जहां काव्या अपने पापा की दुलारी थी, वहीं उस की मां उस से बेहद प्यार करती थीं.

उस दिन काव्या के पापा अपनी कंपनी के काम के चलते मोटरसाइकिल से कहीं जा रहे थे कि पीछे से एक कार वाले ने उन की मोटरसाइकिल को तेज टक्कर मार दी.

वे मोटरसाइकिल से उछले, फिर सिर के बल सड़क पर जा गिरे. उस से उन के सिर के पिछले हिस्से में बेहद गंभीर चोट लगी थी.

टक्कर लगने के बाद लोगों की भीड़ जमा हो गई. भीड़ के दबाव के चलते कार वाले ने उस के घायल पापा को उठा कर नजदीक के एक निजी अस्पताल में भरती कराया, फिर फरार हो गया.

पापा की जेब से मिले आईकार्ड पर लिखे मोबाइल से अस्पताल वालों ने जब उन्हें फोन किया तो वे बदहवास अस्पताल पहुंचे, पर वहां पहुंच कर उन्होंने जिस हालत में उन्हें पाया, उसे देख कर उन का कलेजा मुंह को आ गया.

उस के पापा कोमा में जा चुके थे. उन की आंखें तो खुली थीं, पर वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे.

फिर शुरू हुआ मुश्किलों का न थमने वाला एक सिलसिला. डाक्टरों ने बताया कि पापा के सिर का आपरेशन करना होगा. इस का खर्च उन्होंने ढाई लाख रुपए बताया.

किसी तरह रुपयों का इंतजाम किया गया. पापा का आपरेशन हुआ, पर इस से कोई खास फायदा न हुआ. उन्हें विभिन्न यंत्रों के सहारे एसी वार्ड में रखा गया था, जिस की एक दिन की फीस 10,000 रुपए थी.

धीरेधीरे घर का सारा पैसा खत्म होने लगा. काव्या की मां के गहने तक बिक गए, फिर नौबत यहां तक आई कि उन के पास के सारे पैसे खत्म हो गए.

बुरी तरह टूट चुकी काव्या की मां जब अपने बच्चों को यों बिलखते देखतीं तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता, पर अपने बच्चों के लिए वे अपनेआप को किसी तरह संभाले हुए थीं. कभीकभी उन्हें लगता कि पापा की हालत में सुधार हो रहा है तो उन के दिल में उम्मीद की किरण जागती, पर अगले ही दिन उन की हालत बिगड़ने लगती तो यह आस टूट जाती.

डेढ़ महीना बीत गया और अब ऐसी हालत हो गई कि वे अस्पताल के एकएक दिन की फीस चुकाने में नाकाम होने लगे. आपस में रायमशवरा कर उन्होंने पापा को सरकारी अस्पताल में भरती कराने का फैसला किया.

पापा को ले कर सरकारी अस्पताल गए, पर वहां बैड न होने के चलते उन्हें एक रात बरामदे में गुजारनी पड़ी. वही रात पापा के लिए कयामत की रात साबित हुई. काव्या के पापा की सांसों की डोर टूट गई और उस के साथ ही उम्मीद की किरण हमेशा के लिए बुझ गई.

फिर तो उन की जिंदगी दुख, पीड़ा और निराशा के अंधकार में डूबती चली गई. तब तक काव्या एमबीए का फाइनल इम्तिहान दे चुकी थी.

बुरे हालात को देखते हुए और अपने परिवार को दुख के इस भंवर से निकालने के लिए काव्या नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उसे एक प्राइवेट बैंक में 20,000 रुपए की नौकरी मिल गई और उस के परिवार की गाड़ी खिसकने लगी. तब उस के छोटे भाई की पढ़ाई का आखिरी साल था. उस ने कहा कि वह भी कोई छोटीमोटी नौकरी पकड़ लेगा, पर काव्या ने उसे सख्ती से मना कर दिया और उस से अपनी पढ़ाई पूरी करने को कहा.

20 साल की उम्र में काव्या ने अपने नाजुक कंधों पर परिवार की सारी जिम्मेदारी ले ली थी, पर इसे संभालते हुए कभीकभी वह बुरी तरह परेशान हो उठती और तब वह रोते हुए अपनी मां से कहती, ‘‘मम्मी, आखिर पापा हमें छोड़ कर इतनी दूर क्यों चले गए जहां से कोई वापस नहीं लौटता,’’ और तब उस की मां उसे बांहों में समेटते हुए खुद रो पड़तीं.

धीरेधीरे दुख का आवेग कम हुआ और फिर काव्या का परिवार जिंदगी की जद्दोजेहद में जुट गया.

समय बीतने लगा और बीतते समय के साथ सबकुछ एक ढर्रे पर चलने लगा तभी यह एक नई समस्या काव्या के सामने आ खड़ी हुई.

काव्या जानती थी कि बड़ी मुश्किल से उस की मां और छोटे भाई ने उस के पापा की मौत का गम सहा है. अगर उस के साथ कुछ हो गया तो वे यह सदमा सहन नहीं कर पाएंगे और उस का परिवार, जिसे संभालने की वह भरपूर कोशिश कर रही है, टूट कर बिखर जाएगा.

काव्या ने इस बारे में काफी सोचा, फिर इस निश्चय पर पहुंची कि उसे एक बार रंजन से गंभीरता से बात करनी होगी. उसे अपनी जिंदगी की परेशानियां बता कर उस से गुजारिश करनी होगी

कि वह उसे बख्श दे. उम्मीद तो कम थी कि वह उस की बात सम झेगा, पर फिर भी उस ने एक कोशिश करने का मन बना लिया.

अगली बार जब रंजन ने काव्या का रास्ता रोका तो वह बोली, ‘‘आखिर तुम मु झ से चाहते क्या हो? क्यों बारबार मेरा रास्ता रोकते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं,’’ रंजन उस के खूबसूरत चेहरे को देखता हुआ बोला, ‘‘मेरा यकीन करो. मैं ने जब से तुम्हें देखा है, मेरी रातों की नींद उड़ गई है. आंखें बंद करता हूं तो तुम्हारा खूबसूरत चेहरा सामने आ जाता है.’’

‘‘सड़क पर बात करने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम किसी रैस्टोरैंट में चल कर बात करें.’’

काव्या के इस प्रस्ताव पर पहले तो रंजन चौंका, फिर उस की आंखों में एक अनोखी चमक जाग उठी. वह जल्दी से बोला, ‘‘हांहां, क्यों नहीं.’’

रंजन काव्या को ले कर सड़क के किनारे बने एक रैस्टोरैंट में पहुंचा, फिर बोला, ‘‘क्या लोगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो लेना होगा.’’

‘‘तुम्हारी जो मरजी मंगवा लो.’’

रंजन ने काव्या और अपने लिए कौफी मंगवाईं और जब वे कौफी पी चुके तो वह बोला, ‘‘हां, अब कहो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘देखो, मैं उस तरह की लड़की नहीं हूं जैसा तुम सम झते हो,’’ काव्या ने गंभीर लहजे में कहना शुरू किया, ‘‘मैं एक मध्यम और इज्जतदार परिवार से हूं, जहां लड़की की इज्जत को काफी अहमियत दी जाती है. अगर उस की इज्जत पर कोई आंच आई तो उस का और उस के परिवार का जीना मुश्किल हो जाता है.

‘‘वैसे भी आजकल मेरा परिवार जिस मुश्किल दौर से गुजर रहा है, उस में ऐसी कोई बात मेरे परिवार की बरबादी का कारण बन सकती है.’’

‘‘कैसी मुश्किलों का दौर?’’ रंजन ने जोर दे कर पूछा.

काव्या ने उसे सबकुछ बताया, फिर अपनी बात खत्म करते हुए बोली, ‘‘मेरी मां और भाई बड़ी मुश्किल से पापा की मौत के गम को बरदाश्त कर पाए हैं, ऐसे में अगर मेरे साथ कुछ हुआ तो मेरा परिवार टूट कर बिखर जाएगा…’’ कहतेकहते काव्या की आंखों में आंसू आ गए और उस ने उस के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘इसलिए मेरी तुम से विनती है कि तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो.’’

पलभर के लिए रंजन की आंखों में दया और हमदर्दी के भाव उभरे, फिर उस के होंठों पर एक मक्कारी भरी मुसकान फैल गई.

रंजन काव्या के जुड़े हाथ थामता हुआ बोला, ‘‘मेरी बात मान लो, तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो जाएगा. मैं तुम्हें पैसे भी दूंगा और प्यार भी. तू रानी बन कर राज करेगी.’’

काव्या को सम झते देर न लगी कि उस के सामने बैठा आदमी इनसान नहीं, बल्कि भेडि़या है. उस के सामने रोने, गिड़गिड़ाने और दया की भीख मांगने का कोई फायदा नहीं. उसे तो उसी की भाषा में सम झाना होगा. वह मजबूरी भरी भाषा में बोली, ‘‘अगर मैं ने तुम्हारी बात मान ली तो क्या तुम मु झे बख्श दोगे?’’

‘‘बिलकुल,’’ रंजन की आंखों में तेज चमक जागी, ‘‘बस, एक बार मु झे अपने हुस्न के दरिया में उतरने का मौका दे दो.’’

‘‘बस, एक बार?’’

‘‘हां.’’

‘‘ठीक है,’’ काव्या ने धीरे से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया, ‘‘मैं तुम्हें यह मौका दूंगी.’’

‘‘कब?’’

‘‘बहुत जल्द…’’ काव्या बोली, ‘‘पर, याद रखो सिर्फ एक बार,’’ कहने के बाद काव्या उठी, फिर रैस्टोरैंट के दरवाजे की ओर चल पड़ी.

‘तुम एक बार मेरे जाल में फंसो तो सही, फिर तुम्हारे पंख ऐसे काटूंगा कि तुम उड़ने लायक ही न रहोगी,’ रंजन बुदबुदाया.

रात के 12 बजे थे. काव्या महानगर से तकरीबन 3 किलोमीटर दूर एक सुनसान जगह पर एक नई बन रही इमारत की 10वीं मंजिल की छत पर खड़ी थी. छत के चारों तरफ अभी रेलिंग नहीं बनी थी और थोड़ी सी लापरवाही बरतने के चलते छत पर खड़ा कोई शख्स छत से नीचे गिर सकता था.

काव्या ने इस समय बहुत ही भड़कीले कपड़े पहन रखे थे जिस से उस की जवानी छलक रही थी. इस समय उस की आंखों में एक हिंसक चमक उभरी हुई थी और वह जंगल में शिकार के लिए निकले किसी चीते की तरह चौकन्नी थी.

अचानक काव्या को किसी के सीढि़यों पर चढ़ने की आवाज सुनाई पड़ी. उस की आंखें सीढि़यों की ओर लग गईं.

आने वाला रंजन ही था. उस की नजर जब कयामत बनी काव्या पर पड़ी, तो उस की आंखों में हवस की तेज चमक उभरी. वह तेजी से काव्या की ओर लपका. पर उस के पहले कि वह काव्या के करीब पहुंचे, काव्या के होंठों पर एक कातिलाना मुसकान उभरी और वह उस से दूर भागी.

‘‘काव्या, मेरी बांहों में आओ,’’ रंजन उस के पीछे भागता हुआ बोला.

‘‘दम है तो पकड़ लो,’’ काव्या हंसते हुए बोली.

काव्या की इस कातिल हंसी ने रंजन की पहले से ही भड़की हुई हवस को और भड़का दिया. उस ने अपनी रफ्तार तेज की, पर काव्या की रफ्तार उस से कहीं तेज थी.

थोड़ी देर बाद हालात ये थे कि काव्या छत के किनारेकिनारे तेजी से भाग रही थी और रंजन उस का पीछा कर रहा था. पर हिरनी की तरह चंचल काव्या को रंजन पकड़ नहीं पा रहा था.

रंजन की सांसें उखड़ने लगी थीं और फिर वह एक जगह रुक कर हांफने लगा.

इस समय रंजन छत के बिलकुल किनारे खड़ा था, जबकि काव्या ठीक उस के सामने खड़ी हिंसक नजरों से उसे घूर रही थी.

अचानक काव्या तेजी से रंजन की ओर दौड़ी. इस से पहले कि रंजन कुछ सम झ सके, उछल कर अपने दोनों पैरों की ठोकर रंजन की छाती पर मारी.

ठोकर लगते ही रंजन के पैर उखड़े और वह छत से नीचे जा गिरा. उस की लहराती हुई चीख उस सुनसान इलाके में गूंजी, फिर ‘धड़ाम’ की एक तेज आवाज हुई. दूसरी ओर काव्या विपरीत दिशा में छत पर गिरी थी.

काव्या कई पलों तक यों ही पड़ी रही, फिर उठ कर सीढ़ियों की ओर दौड़ी. जब वह नीचे पहुंची तो रंजन को अपने ही खून में नहाया जमीन पर पड़ा पाया. उस की आंखें खुली हुई थीं और उस में खौफ और हैरानी के भाव ठहर कर रह गए थे. शायद उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की मौत इतनी भयानक होगी.

काव्या ने नफरत भरी एक नजर रंजन की लाश पर डाली, फिर अंधेरे में गुम होती चली गई.

साहब : महरू कामवाली बाई

महरू कामवाली बाई थी. बहुत ही ईमानदार. कपड़े इतने सलीके से पहनती थी कि अगर पोंछा या  झाड़ू लगाने के लिए  झुके तो मजाल है शरीर का कोई नाजुक हिस्सा दिख जाए. वह कई घरों में काम करती थी. उम्र होगी तकरीबन 42 साल.

रमेश अकेले रहते थे. उन्होंने शादी नहीं की थी और न करने की इच्छा थी. पिछले 4 सालों में महरू रमेश के बारे में और वे महरू के बारे में बहुतकुछ जान चुके थे.

अनपढ़ महरू ने जाति के बाहर शादी की थी. उस का पति शादी के पहले तो ठीक था, पर बाद में शराब पीने की लत लग गई थी. उस ने काम करना छोड़ दिया था. दिनरात शराब में डूबा रहता.

इस बीच महरू के एक बेटी हो गई. घर चलाने के लिए महरू को काम करना पड़ा. उस ने लोगों के घरों में  झाड़ूपोंछा लगाने और बरतन धोने का काम शुरू कर दिया. उसे जो मजदूरी मिलती थी, पति छीन कर शराब पी जाता था.

शराब के नशे में बहकते कदमों के चलते एक दिन महरू का पति सड़क हादसे में मारा गया. अब महरू को अपनी बेटी के लिए जीना था.

महरू जब रमेश के घर काम मांगने आई तो वे उस की सादगी से प्रभावित हुए थे. उन्होंने उस से साफ शब्दों में कहा था कि वे अकेले रहते हैं. घर पर कोई औरत नहीं है. खाना बाहर खाते हैं तो बरतन तो धोने के लिए निकलते नहीं. अब बचा  झाड़ूपोंछा, चाहो तो कर सकती हो.

पहले महरू को कुछ डर हुआ, फिर पड़ोस की एक औरत ने उसे रमेश के अच्छे चरित्र के बारे में बताया. उसे काम की जरूरत भी थी. लिहाजा, वह काम करने को तैयार हो गई.

शुरूशुरू में जब महरू काम करने आती और रमेश उस के सामने पड़ते तो उस के चेहरे पर डर सा तैर जाता. अकेले होने की वजह से कुछ संकोच रमेश को भी होता और कभीकभार यह खयाल भी आता कि पता नहीं रुपएपैसे ऐंठने के चक्कर में महरू उन पर कौन सा आरोप लगा दे. महरू जिस कमरे में होती, रमेश दूसरे कमरे में चले जाते.

आज होटल के भोजन में न जाने क्या था कि रमेश का सिर चकराने लगा. बुखार आ गया. उलटियां भी होने लगीं. वे रातभर बिस्तर पर पड़े रहे. घर के मैडिकल किट में बुखार और पेटदर्द की जो दवाएं थीं, वे खा चुके थे, लेकिन उन की हालत में कोई फर्क नहीं आया.

सुबह महरू ने जब दरवाजे की डोर बैल बजाई, तब रमेश ने बड़ी मुश्किल से दरवाजा खोला. महरू ने जब उन की हालत देखी तो वह घबरा गई. पूरा घर गंदा पड़ा था.

महरू ने सब से पहले गंदगी साफ की. रमेश के सिर पर हाथ रखा और देखा कि तेज बुखार था. उस ने अपने सस्ते से मोबाइल से फोन लगा कर अपनी बेटी को बुलाया.

जब तक महरू की बेटी वहां नहीं पहुंची, तब तक वह साफसफाई करती रही और रमेश को सुना कर बड़बड़ाती रही, ‘‘अकेले कब तक जिएंगे. कोई तो साथ चाहिए. शादी कर के घर बसा लेते तो एक देखभाल करने वाली होती. मैं नहीं आती तो पड़े रहते, पता भी नहीं चलता किसी को.’’

इस के बाद महरू ने रमेश को सहारा दे कर उठाया. उन के हाथमुंह धुलवाए. कपड़े बदलवाए और डाक्टर के पास ले जाने के लिए तैयार कर लिया.

तभी एक आटोरिकशा आ कर रुका. महरू की बेटी उस में से उतरी. बिलकुल फूल सी. गोरी दूध सी.

उम्र 15-16 साल. महरू ने उस से कहा, ‘‘तू यहीं रहना. मैं आती हूं साहब को डाक्टर से दिखा कर.’’

‘‘क्या हो गया?’’ रमेश की हालत देख कर बेटी ने अपनी मां से पूछा.

‘‘कुछ नहीं. अभी आती हूं. तू घर देखना,’’ महरू ने कुछ तेज आवाज में कहा. फिर बेटी ने कुछ न पूछा.

महरू ने रमेश को सहारा दे कर आटोरिकशा में बिठाया और डाक्टर के पास ले गई. इलाज करवाया. घर वापस लाई. जब तक वे ठीक नहीं हुए तब तक वह उन की देखरेख करती रही. वह अपने घर से दलिया बना कर लाती. समय से दवा देती.

अब महरू रमेश के लिए महज औरत शरीर न रही और न रमेश उस के लिए मर्द शरीर. यह फर्क मिट चुका था. संकोच खत्म हो चुका था. अब वे दोनों एकदूसरे के लिए इनसान थे, मर्दऔरत होने से पहले. भरोसा था एकदूसरे पर.

महरू ने प्रस्ताव रखा कि वह झाड़ूपोंछा करने के साथसाथ खाना भी बना दिया करेगी, ताकि रमेश को अच्छा भोजन मिल सके.

रमेश ने पूछा, ‘‘भोजन बनेगा तो बरतन भी साफ करने होंगे. उन का अलग से कितना देना होगा?’’ हो सकता है, उसे बुरा लगा हो. कुछ पल तक वह कुछ नहीं बोली. शायद यह सोच रही हो कि इतने अपनेपन के बाद भी पैसों की बात कर रहे हैं.

रमेश ने सुधार कर अपनी बात कही, ‘‘पैसों की जरूरत तो सब को होती है. दुनिया का हर काम पैसे से होता है. फिर तुम्हारी अपनी जरूरतें, तुम्हारी बेटी की पढ़ाईलिखाई. इन सब के लिए पैसों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मैं मुफ्त में कोई काम कराऊं, यह मु झे खुद भी अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘जो आप को देना हो, दे देना.’’

‘‘फिर भी कितना…? मु झे साफसाफ पता रहे ताकि मैं अपना बजट उस हिसाब से बना सकूं.’’

रमेश की बजट वाली बात सुन कर महरू ने कहा, ‘‘साहब, ऐसा करते हैं कि एक की जगह 3 लोगों का खाना बना लेंगे. समय और पैसे की भी बचत होगी. मैं अपने और बेटी के लिए खाना यहीं से ले जाऊंगी.’’

रमेश ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’

इस के बाद जिस दिन महरू न आ पाती, उस की बेटी आ जाती. वह खाना बना कर रमेश को खिलाती और साफसफाई कर के अपने और मां के लिए भोजन ले जाती. रमेश को मांबेटी से लगाव सा हो गया था.

एक दिन महरू की बेटी आई. उस का चेहरा कुछ पीला सा दिख रहा था.

रमेश ने पूछा, ‘‘आज क्या हो गया मां को?’’

‘‘बाहर गई हैं. नानी बीमार हैं.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘दीपाली.’’

दीपाली धीरेधीरे  झाड़ूपोंछा करने लगी. बीचबीच में उस के कराहने की आवाज से रमेश चौंक गए.

‘‘क्या बात है? क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं साहब,’’ दीपाली कराहते हुए बोली.

थोड़ी देर में आह के साथ दीपाली के गिरने की आवाज आई. रमेश भाग कर रसोईघर में गए. दीपाली जमीन पर पड़ी थी. वे घबरा गए. उन्होंने उस के माथे पर हाथ रखा. माथा गरम था. वे सम झ गए कि इसे तेज बुखार है.

रमेश ने उसे अपने हाथों से उठा कर अपने ही बिस्तर पर लिटा कर अपनी चादर ओढ़ा दी. तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने आ कर दीपाली को एक इंजैक्शन लगाया और कुछ दवाएं दीं.

रमेश के पास डबल बैड का एक ही बैडरूम था. दीपाली तेज बुखार में पड़ी हुई थी. वे दिनभर उस के पास बैठे रहे. उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखते रहे. उस के लिए दलिया बनाया. उस के चेहरे को देखते रहे.

रमेश के मन में मोहमाया के फल खिलने लगे. सालों से बंद दिल के दरवाजे खुलने लगे. रेगिस्तान में बारिश होने लगी. जब उस के प्रति उन का लगाव जयादा होने लगा तो वे वहां से हट गए. लेकिन उस की चिंता उन्हें फिर खींच कर उस के पास ले आती.

रमेश ने अपनेआप को संभाला और डबल बैड के दूसरी ओर चादर ओढ़ कर खुद भी सो गए.

दीपाली तेज बुखार में तपती ‘मांमां’ बड़बड़ाने लगी. उस की आवाज से रमेश की नींद खुल गई. वे उस के पास पहुंचे और उस के माथे पर हाथ रख कर उसे बच्चे की तरह सहलाने लगे.

तभी दीपाली का चेहरा रमेश के सीने में जा धंसा. उस का एक पैर उन के पैर पर था. वह ऐसे निश्चिंत थी, मानो मां से लिपट कर सो रही हो.

रमेश की हालत कुछ खराब थी. आखिर उन की इतनी उम्र भी नहीं हुई थी कि 16 साल की लड़की उन की देह में दौड़ते खून का दौरा न बढ़ाए.

रमेश के शरीर में हवस की चींटियां रेंगने लगीं. अच्छी तो वह उन्हें पहले भी लगती थी, लेकिन प्यार की नजर से कभी नहीं देखा था. लेकिन आज जब इस तनहाई में एक कमरे में एक बिस्तर पर एक 16 साल की सुंदरी रमेश से लिपट कर सो रही थी, तो मन में बुरे विचार आना लाजिमी था.

रमेश उसे लिपटाए नींद की गोद में समा गए. सुबह जब उन की नींद खुली तो दीपाली बिस्तर पर नहीं थी. रमेश ने आवाज दी तो वह हाथ में  झाड़ू लिए सामने आ गई.

‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘ झाड़ू लगा रही हूं.’’

‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘मैं अब ठीक हूं.’’

रमेश ने उसे पास बुला कर उस के माथे पर हाथ रखा. बुखार उतर चुका था.

‘‘अभी 2 दिन की दवा लेनी और बाकी है. अगर दवा पूरी नहीं ली, तो बुखार फिर से आ सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर दीपाली काम में लग गई.

कभी ऐसा होता है कि मरीज पहली खुराक में ही ठीक हो जाता है, फिर इस में स्नेह भी काम करता है.

‘‘साहब, खाना लगा दिया है,’’ जब दीपाली ने यह कहा तो रमेश खाने की टेबल पर पहुंच गए. उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारी मां तो है नहीं. तुम भी यहीं खाना खा लो.’’

‘‘मैं बाद में खा लूंगी,’’ दीपाली ने शरमाते हुए कहा.

‘‘क्यों… कल तो मु झ से लिपटी थी. अब साथ में खाना खाने में शर्म आ रही है…’’

यह सुन कर दीपाली शरमा गई, पर कुछ नहीं बोली. फिर ज्यादा जोर देने पर वह साथ खाने बैठ गई.

‘‘दवा पूरी खाना,’’ रमेश ने खाना खाते हुए कहा.

‘‘जी.’’

‘‘कौन सी क्लास में पढ़ती हो?’’

‘‘12वीं क्लास में.’’

‘‘पढ़ाई कैसी चल रही है?’’

‘‘जी, ठीक चल रही है.’’

‘‘क्या बनने का इरादा है?’’

‘‘साहब, आगे तो अभी कालेज की पढ़ाई है. आगे क्या पता? मां पढ़ा पाएंगी या नहीं… हो सकता है, मां मेरी शादी करा दें.’’

‘‘हां, यह भी हो सकता है.’’

दीपाली ने रमेश से कहा, ‘‘साहब, मैं आप से कुछ पूछ सकती हूं… बुरा तो नहीं मानेंगे आप?’’

‘‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो?’’

‘‘आप ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘सब वक्त की बात है. किसी को मैं पसंद नहीं आया, कोई मु झे पसंद नहीं आई. फिर शादी के लिए मैं किसे आगे करता. न मातापिता, न भाईबहन. लोग अकेले लड़के को अपनी लड़की देने में कतराते हैं.’’

‘‘आप बहुत अच्छे हैं साहब.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘कल रात मु झे आप में अपनी मां और पिता दोनों दिखाई दिए.’’

‘‘क्या मेरी उम्र भी है मातापिता की उम्र जैसी?’’

‘‘उम्र नहीं, गुण हैं आप में ऐसे. पहले मैं आप को केवल साहब की नजर से देखती थी…’’

‘‘और अब?’’

‘‘अब मैं आप को आदर की नजर से देखती हूं.’’

रमेश ने दीपाली से कहा तो नहीं, लेकिन मन ही मन सोचा, ‘प्यार की नजर से तो कोई नहीं देखता. प्यार भी कहा होता तो अच्छा लगता. दिल को तसल्ली मिलती.’

अब दीपाली रोज काम करने आती.

एक दिन रमेश ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां अभी तक नहीं आई?’’

‘‘वे तो कब की आ चुकी हैं, लेकिन बीमार हैं.’’

रमेश ने कई बार सोचा कि महरू को देखने जाएं, लेकिन वे कभी भूल जाते, तो कभी कोई और काम आ जाता.

एक दिन घबराई हुई दीपाली रमेश के पास आई और बोली, ‘‘साहब, मां की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है. वे आप को बुला रही हैं.’’

दीपाली की घबराहट से रमेश सम झ गए कि बात गंभीर है. उन्होंने तुरंत तैयार हो कर उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाया और जैसे वह बताती गई, वे उसी रास्ते पर मोटरसाइकिल घुमा देते.

रमेश ने दीपाली के कहने पर एक छोटी सी गंदी बस्ती में एक कच्चे मकान के सामने मोटरसाइकिल रोकी.

दीपाली ने उतरते हुए कहा, ‘‘अंदर आइए साहब.’’

रमेश ने अंदर जा कर देखा. महरू का शरीर बिलकुल सूख चुका था. रमेश को देख कर उस के चेहरे पर खुशी

तैर गई. उस ने उठने की कोशिश की, लेकिन उठ न सकी.

‘‘लेटी रहो,’’ रमेश ने कहा. दीपाली अपनी मां के पास बैठ गई.

‘‘क्या हो गया है तुम को? तुम तो मायके गई थीं?’’

‘‘साहब…’’ महरू ने उखड़ती सांसों के साथ कहा, ‘‘डाक्टर ने मु झे 1-2 दिन का मेहमान बताया है. मु झे अपनी बेटी की चिंता है. मेरे अलावा इस का कोई नहीं है. न कोई सगेसंबंधी, न रिश्तेदार. इस घर में इस का अकेले रहने का मतलब है कि कभी भी…’’ आगे वह चुप रही, फिर थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘साहब, आप से एक गुजारिश है. आप भले आदमी हैं. आप मेरी बेटी को अपना लीजिए. चाहे नौकरानी सम झ कर, चाहे…’’ फिर वह रुक गई, ‘‘आप भी अकेले हैं. यह आप का घर संभाल लेगी. अपनी औकात से बड़ी बात कर रही हूं, लेकिन मैं किसी और पर भरोसा भी नहीं कर सकती.

‘‘आप को इस के भविष्य के लिए जो अच्छा लगे, करना. मैं इसे आप के सहारे छोड़ कर जा रही हूं…’’ और एक हिचकी के साथ महरू ने दम तोड़ दिया.

दीपाली जोरजोर से रोने लगी. बस्ती के बहुत से लोग जमा हो गए. रमेश ने दीपाली को हौसला दिया. महरू का अंतिम संस्कार कराने के बाद वे उसे अपने साथ ले आए.

महरू रमेश पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप कर चली गई थी. इस लड़की से वे क्या रिश्ता बनाएं? उम्र का भी इतना बड़ा फासला है. कैसे इस से शादी कर लें. बिना शादी किए किस रिश्ते से रखें? लोग क्या कहेंगे? कामवाली बाई की इतनी कम उम्र की लड़की की गरीबी का फायदा उठा कर शादी कर ली. फिर कानूनन वह नाबालिग थी.

बहुत सोचविचार के बाद रमेश ने दीपाली को गर्ल्स होस्टल में दाखिला दिला दिया. वह न केवल उन पर आश्रित थी, बल्कि उसे उन से लगाव भी था. मना करने के बाद भी वह खाना बनाने आ जाती थी. उन के और दीपाली के बीच बहुत सी बातें होतीं. एक तरह से रमेश उस के गार्जियन बन चुके थे.

दीपाली अब 18 साल से ऊपर की हो चुकी थी. अपनी पढ़ाई में बिजी होने के चलते वह आ नहीं पाती थी. अब तो  छुट्टी के दिन भी वह नहीं आ पाती थी.

रमेश को लगा कि दीपाली अब उन से कतराने लगी है.

एक दिन एक अनजान नंबर से फोन आया, ‘साहब, आप कैसे हैं?’

‘‘अरे, कौन…? दीपाली? मैं ठीक हूं. तुम कैसी हो?’’ रमेश ने पूछा.

‘साहब, मैं ठीक हूं. क्या आप को मैं पसंद नहीं?’

‘‘ऐसा क्यों पूछ रही हो तुम?’’

‘तो फिर आप ने शादी के लिए क्यों नहीं कहा?’

‘‘देखो दीपाली, मैं तुम से प्यार करता हूं. शादी जिंदगीभर का बंधन होता है और मैं तुम से उम्र में भी बहुत बड़ा हूं. तुम्हें बाद में परेशानी होगी. फिर क्या करोगी?’’

‘मैं मैनेज कर लूंगी. आप के साथ मैं हमेशा खुश रहूंगी. एक लड़की को इस से ज्यादा क्या चाहिए. जो समस्या होगी, वह हम दोनों की होगी.

‘साहब, आप मन से सारे संकोच निकाल कर मुझे अपना लीजिए.’

‘‘तुम बालिग हो गई हो दीपाली. मेरी जिंदगी में तुम्हारा स्वागत है.’’

रमेश की मुर झाती जिंदगी में फिर से बहार आ गई. शादी के इतने साल बाद भी दीपाली रमेश को साहब ही कहती है.

गूंगी : लालाजी की कंपनी के सभी चालक थे

महेंद्र सिंह को थाने का काम संभाले हुए अभी 3 दिन ही हुए थे कि तभी कत्ल की वारदात हो गई. मरने वाला शहर का मशहूर गुंडा राणा था, जो एक ढाबा चलाता था.

उस ढाबे की ओट में राणा और भी कई गैरकानूनी धंधे करता था. रात में ढाबा बंद कर के वहीं सामने ही चारपाई डाल कर वह सोया करता था. रात में भी लेनदेन करने वाले लोग आते रहते थे. उन से माल ले कर अंदर रखना या अंदर रखा हुआ माल निकाल कर देना और रकम वसूल करना, ये काम वह रात में भी करता रहता था.

उस रात भी राणा अपनी चारपाई पर सोया हुआ था. तभी न जाने कौन आदमी उस पर ट्रक चढ़ा कर चला गया. ट्रक के अगले पहिए के नीचे राणा और उस की चारपाई का कचूमर निकला पड़ा था. रुपएपैसे को किसी ने छुआ भी नहीं था. इस से यह बात साफ थी कि हत्यारे का मकसद केवल राणा की हत्या करना ही था.

दिन निकल आया था. राणा की लाश को देखने के लिए भीड़ बढ़ती जा रही थी. राणा को मरा देख कर सभी खुश थे. उसी भीड़ में एक आदमी ऐसा भी था, जो डर से थरथर कांप रहा था. वह था उस ट्रक का चालक, जिस से राणा को कुचला गया था.

राणा के ढाबे के सामने काफी बड़ा खुला मैदान था. ट्रक चालक रात में खाना खा कर अपनेअपने ट्रक वहीं खड़े कर के खुद ट्रक चालक संघ के दफ्तर में सोने के लिए चले जाते थे. रात में राणा तकरीबन जागता ही रहता था. उस के रहते कोई भी आदमी किसी ट्रक को चुराने की हिम्मत नहीं कर सकता था.

उस ट्रक चालक के बयान के मुताबिक, रात में राणा के ढाबे में खाना खा कर अपना ट्रक वहीं खड़ा कर के वह सोने चला गया था. सवेरे नहाधो कर जब वह आगे का सफर तय करने के लिए वहां पहुंचा, तो ट्रक को राणा पर चढ़ा हुआ पाया. उस के साथ रात में सोए दूसरे ट्रक चालकों ने उस के बयान को सही बताया.

एक बात साफ मालूम पड़ रही थी कि उस ट्रक चालक के बयान में रत्तीभर भी झूठ नहीं था. यह बात भी साफ थी कि राणा को मारने वाला आदमी ट्रक चलाने के तरीके का पूरा जानकार था. तभी तो चाबी न रहने पर भी तारें जोड़ कर उस ने ट्रक चालू कर लिया था.

आसपास की दुकानों में लोगों से पूछताछ करने से भी कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि रात में सभी लोग घर चले जाते थे. वहां केवल राणा ही सोता था.

भीड़ बढ़ती जा रही थी. अचानक भीड़ को चीर कर एक अधपगली गूंगी लड़की बारबार लाश तक पहुंचने की कोशिश कर रही थी. सिपाही उसे पीछे धकेलते, लेकिन वह फिर आगे पहुंच जाती.

कहीं वह राणा की कोई दूरदराज की रिश्तेदार तो नहीं या कातिल के बारे में कुछ जानती तो नहीं, अपना यह शक दूर करने के लिए महेंद्र सिंह ने उसे अपने पास बुलाया, पर उस से नजरें मिलते ही वह अधपगली सिपाहियों के हाथ से छूट कर ऐसी दूर भागी कि वापस आने का नाम नहीं लिया.

आसपास के ढाबे वालों ने बताया कि वह कोई पागल गूंगी लड़की है. वह यहीं घूमती रहती है. ढाबे वाले उसे रोटी दे देते हैं. पिछले 3 दिनों से राणा के ढाबे की ओर इशारे करकर के वह लगातार रोए जा रही थी. आज वह बिलकुल चुप है. जितने मुंह उतनी बातें.

भीड़ में से कुछ लोगों ने यह भी कहा कि वह गूंगी लड़की कोई पहुंची हुई लड़की है. उसे राणा की मौत का अंदाजा 3 दिन पहले ही लग गया था. तभी तो वह उस की ओर इशारे करकर के रो रही थी. यह बात अलग थी कि उस बेजबान की बात कोई आदमी नहीं समझ सका.

महेंद्र सिंह का वह दिन कागजात तैयार करने में ही बीत गया. रात में बिस्तर पर लेटते ही गूंगी का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. सूरत जानीपहचानी लग रही थी. पहले शायद कभी सफर के दौरान किसी रेलवे प्लेटफार्म पर देखा होगा. उसे देख कर वह भागी क्यों?

शायद महेंद्र सिंह की वरदी से वह डर गई, लेकिन वरदी पहने तो और भी सिपाही वहां मौजूद थे. वह उन से क्यों नहीं डरी? कहीं उस ने कातिल को देखा या कत्ल की योजना बनाने वालों की 3 दिन पहले बातचीत सुनी तो नहीं है? ऐसे ही अनेक सवालों के जवाब सोचतेसोचते न जाने कब महेंद्र सिंह को नींद आ गई.

सवेरे देर से महेंद्र सिंह की नींद उस समय टूटी, जब खिड़की के शीशों में से सूरज की किरणें मुंह पर पड़ने लगीं. आंखें खुलते ही खिड़की के पीछे किसी की मौजूदगी का एहसास हुआ. महेंद्र सिंह ने तुरंत खिड़की का दरवाजा खोला, तो गूंगी को दौड़ कर भागते पाया.

क्या वह उसे कुछ बताना चाहती थी? अगर हां, तो फिर भाग क्यों गई? महेंद्र सिंह उसे दूर तक दौड़ते हुए देखता रहा.

इस के बाद भी कई बार महेंद्र सिंह को एहसास हुआ कि वह गूंगी लड़की उस की खिड़की के पीछे है, लेकिन धीरेधीरे उस ने इस ओर ध्यान देना कम कर दिया. उस ने सोचा कि एक गूंगी अधपगली लड़की अगर इस कत्ल के बारे में कुछ जानती भी होगी, तो अपनी मरजी से ही बताएगी. मानमनौव्वल या जोरजबरदस्ती करने से कोई फायदा तो है नहीं. उधर राणा का भी कोई अपना आदमी कातिल को सजा दिलवाने में दिलचस्पी नहीं ले रहा था.

उस इलाके में राणा जैसे अनेक अपराधी थे. रोज किसी न किसी की धरपकड़ चलती ही रहती थी. सब की पहुंच बहुत ऊपर तक थी. जमानत पर छूट कर वे फिर अपने धंधे में लग जाते थे. ऐसे ही एक अपराधी को एक दिन हथकड़ी पहनानी पड़ गई. जमानत पर छूट कर जाते समय वह धमकी भी दे गया.

महेंद्र सिंह रात में अपने क्वार्टर में सोया हुआ था, तभी किसी ने जोरजोर से दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया. बारबार पूछने पर भी कोई जवाब नहीं दे रहा था. कहीं गूंगी तो कुछ बताने नहीं चली आई?

तंग आ कर महेंद्र सिंह को दरवाजा खोलना ही पड़ा. दरवाजा खोलते ही 4 गुंडों ने उसे जकड़ लिया. उन का सरगना वही अपराधी था, जो सवेरे जमानत पर छूट कर जाते समय उसे धमकी दे गया था.

सरगना के इशारे पर वे लोग महेंद्र सिंह को रस्सी से बांध कर एक ट्रक, जो कुछ दूरी पर सड़क पर खड़ा था, तक घसीटते हुए ले जाने लगे. उस की कुहनी और घुटने छिलने लगे, सहने की ताकत जवाब देने लगी.

तभी एक अनसोची घटना घटी. उन के ट्रक की रोशनी उन पर पड़ने लगी, जिसे देख कर वे हैरान रह गए, यह सोच कर कि वे सब तो यहां हैं, फिर ट्रक चला कर उन के पास कौन ला रहा है?

इस से पहले कि वे किसी फैसले पर पहुंचते, तेजी से आते हुए ट्रक से उन में से एक आदमी कुचला गया. अब बाकी चारों आदमी भागने लगे, लेकिन ट्रक भी उस ऊबड़खाबड़ रास्ते पर उन के पीछे लगा हुआ था.

इसी बीच महेंद्र सिंह ने खुद को रस्सी की जकड़ से आजाद किया और उस ट्रक के पीछे भागने लगा. उस के चारों दुश्मन भागतेभागते सड़क पर चढ़ गए. ट्रक चालक ने उन के पीछे ही ट्रक को सड़क पर चढ़ा लिया. अब उन्हें अपनी जान बचाने का एक ही उपाय नजर आया.

सड़क के अगले मोड़ पर बाईं ओर एक गहरा गड्ढा था, जिस में ट्रक उतारना ट्रक चालक के लिए अपनी मौत को बुलाना था. वे चारों अपराधी उस गड्ढे में उतर गए. लेकिन अगले ही पल उन की भयंकर चीखें सुनाई देने लगीं.

दरअसल, चालक ट्रक को उसी गड्ढे में उतारने लगा था. वे लुढ़कते हुए गड्ढे के धरातल तक पहुंच गए. अब बचने का कोई रास्ता नहीं था. चारों की लंबी चीख सुनाई पड़ी और फिर शांति छा गई. वे चारों ट्रक के नीचे कुचले जा चुके थे.

अपने जीवनदाता उस कुशल ट्रक चालक को देखने के लिए महेंद्र सिंह गड्ढे में उतर गया. चालक की सीट पर नजर पड़ते ही महेंद्र सिंह की आंखें खुली की खुली रह गईं. चालक और कोई नहीं, वही गूंगी लड़की थी.

दरवाजा खोल कर ज्यों ही महेंद्र सिंह ने उस गूंगी को सीट से नीचे उतार कर नजदीक से ध्यान से देखा, तो अचानक उस के मुंह से ‘कल्लो’ निकल गया. यह सुन कर वह फूटफूट कर रोने लगी.

कमला ट्रांसपोर्ट कंपनी के मालिक लाला केदारनाथ की एकलौती बेटी थी. कमला को इस हालत में देख कर महेंद्र सिंह रो पड़ा. गड्ढे से बाहर ला कर महेंद्र सिंह उसे उस की झोंपड़ी तक छोड़ आया.

कुछ दिनों बाद महेंद्र सिंह अपना परिवार दिल्ली में छोड़ आया. राणा के साथसाथ उन 5 गुंडों का ट्रक के नीचे कुचले जाने का मामला धीरेधीरे ठंडा पड़ गया.

इस बीच महेंद्र सिंह की बदली दिल्ली हो गई. तब तक कल्लो अपने परिवार के हंसीखुशी भरे माहौल में रह कर सामान्य हो गई थी. अच्छे डाक्टरों से उस का इलाज करवाया, जिस से वह फिर बोलने लगी.

बाद में उसी की जबान से उस की जो कहानी सुनने को मिली, तब महेंद्र सिंह रोने लगा था. करोड़पति बाप की एकलौती बेटी कमला की परवरिश राजकुमारियों की तरह हुई थी. पढ़ने के साथसाथ वह खेलकूद में भी तेज थी. कालेज के दिनों में उस ने नैशनल लैवल की कई दौड़ प्रतियोगिताओं में पहला मैडल जीता था, इसीलिए वह कालेज में ‘उड़नपरी’ के नाम से जानी जाती थी.

पढ़ाई, खेलकूद के साथसाथ कमला को गाडि़यां चलाने का भी बहुत शौक था. लालाजी के लाख मना करने पर भी वह स्कूटर, कार, ट्रक वगैरह अच्छी तरह चला लेती थी.

लालाजी की कंपनी के सभी चालक, क्लीनर वगैरह उसे अपनी बहन या बेटी मानते थे. वह भी उन के साथ ट्रक की मरम्मत करने में मदद किए बिना नहीं मानती थी. उन के साथ हाथ बंटातेबंटाते वह खुद भी कुशल मिस्त्री बन गई थी.

इतने गुणों के बावजूद कमला में एक कमी भी थी. उस का रंग सांवला था, इसलिए बचपन में मैं उसे ‘कल्लो’ कह कर चिढ़ाया करता था.

महेंद्र सिंह के पिताजी भी उसी कंपनी में चालक थे. उन की मौत के बाद लालाजी ने महेंद्र सिंह को अपने बेटे की तरह पालापोसा और पढ़ायालिखाया था.

कमला को मां का प्यार महेंद्र सिंह की मां से मिला था, क्योंकि उस की मां की मौत तभी हो गई थी, जब वह 4 महीने की थी. वे दोनों सगे भाईबहन की ही तरह थे.

लालाजी को ‘कल्लो’ के लिए गरीब घर का एक होनहार लड़का राकेश मिल गया. ‘कल्लो’ ब्याह कर अपनी ससुराल चली गई और महेंद्र सिंह रोजीरोटी के चक्कर में दिल्ली आ कर बस गया.

कमला की शादी के कुछ दिनों बाद लालाजी की मौत हो गई. महेंद्र सिंह फिर कभी उधर गया नहीं. इस तरह ‘कल्लो’ से उस का नाता कई साल तक टूटा रहा.

लालाजी के मरते ही लाखों की दौलत देख कर कमला के पति राकेश के तेवर बदलने लगे. अब कमला उसे बदसूरत लगने लगी. वह अपनी रातें पैसे से खरीदी जाने वाली सुंदरियों के साथ गुजारने लगा. शराब के नशे में चूर हो कर वह कमला को तरहतरह के कष्ट देता.

एक रात तो सताने की हद ही पार हो गई. कमला अपनी जान बचा कर दौड़ी, लेकिन अपने बोलने की ताकत खो बैठी. दौड़तेदौड़ते वह रेलवे स्टेशन पर पहुंची और एक रेंगती गाड़ी में चढ़ गई.

दुनिया में लेदे कर महेंद्र सिंह ही उस का एक भाई था, जिस का कुछ पताठिकाना उसे मालूम नहीं था. न ही महेंद्र सिंह को कुछ पता चला कि ‘कल्लो’ के साथ क्या गुजर रही थी. धक्के खातीखाती वह किसी तरह राणा के ढाबे तक पहुंच गई, जहां और भी ढाबे थे. दो वक्त की रोटी उसे वहां मिल जाती और रात किसी झुग्गी में या बैंच पर गुजार लेती.

एक रात ठंड से बचने के लिए वह ढाबे की भट्ठी से चिपकी हुई सो रही थी, तभी राणा उस पर टूट पड़ा. वह बहुत चीखीचिल्लाई, लेकिन वहां उसे बचाने वाला कोई नहीं था.

वह लगातार 3 दिनों तक रोरो कर राणा की तरफ इशारे कर के अपनी फरियाद सुनाती रही, लेकिन किसी ने नहीं समझा. रोतेरोते उस के आंसू सूख गए.

एक दिन वह फटीफटी आंखों से रात के अंधेरे को निहार रही थी. उसे चारों ओर ट्रक ही ट्रक खड़े दिखाई दे रहे थे. वह एक ट्रक में चालक की सीट पर बैठ गई. चूंकि वहां चाबी नहीं थी, इसलिए उस ने 2 तारों को जोड़ कर ट्रक चालू कर लिया. ट्रक के अगले पहिए के नीचे राणा को चारपाई समेत कुचल दिया.

आज की एकलव्य: क्या था फातिमा की बेटी का मकसद

कहां चली जाती है यह लड़की. शाम हो चली है, मगर यह है कि घर आने का नाम ही नहीं लेती. रोटियां भी सूख गई हैं,’’ फातिमा ने कहा.

‘‘क्यों बेकार में परेशान होती हो? कहीं खेल रही होगी वह. मैं देख कर आता हूं,’’ मुनव्वर बोला, जो तबस्सुम का पिता था.

मुनव्वर की सड़क किनारे मोटरसाइकिलों की मरम्मत और पंचर लगाने की छोटी सी दुकान थी. उस के 2 बच्चे थे. 5 साल की तबस्सुम और 2 साल का अनवर.

मुनव्वर जयपुर जाने वाले हाईवे के किनारे रहता था. पास में ही निशानेबाजी सीखने वालों के लिए शूटिंग रेंज बनी हुई थी. गांव के ज्यादातर बच्चे गुल्लीडंडा और कंचे खेलने में मस्त रहते थे.

तबस्सुम निशानेबाजी देखे बिना नहीं रह पाती थी और सुबहसवेरे शूटिंग रेंज में चली जाती थी.

‘‘अच्छा, यहां चुपचाप बैठी है. तेरी मां घर पर इंतजार कर रही है,’’ मुनव्वर ने कहा, तो तबस्सुम चौंक पड़ी.

तबस्सुम बोली, ‘‘पापा, मु?ो भी बंदूक दिला दो न. मैं भी इन की तरह निशानेबाज बनूंगी.’’

‘‘चल उठ यहां से. बड़ी आई निशांची बनने. पता है, तेरी मम्मी कितनी परेशान हैं. एक तमाचा दूंगा, सब अक्ल ठिकाने आ जाएगी,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘महारानी कहां गई थीं. राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गईं,’’ घर की तरफ आते देख फातिमा उन दोनों की तरफ लपकी.

छोटी सी बच्ची क्या कहती, सो पापा के पैरों में लिपट गई.

मुनव्वर का दिल पसीज गया और बोला, ‘‘अब बस भी कर फातिमा. ऊपर से तो गुस्सा दिखाती है, पर मैं जानता हूं कि दोनों बच्चों के लिए तेरे मन में कितना प्यार है.’’

‘‘मैं कह देती हूं कि मु?ो बताए बिना तू कहीं नहीं जाएगी,’’ फातिमा ने तबस्सुम को पकड़ कर ?ाक?ोर दिया और पलट कर कहने लगी, ‘‘देखोजी, इसे सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भरती करा दो. कुछ जमात पढ़ लेगी, तो ठीक रहेगा.’’

‘‘बेटी तबस्सुम, हाथमुंह धो कर आ. बापबेटी और मम्मी तीनों मिल कर एकसाथ खाना खाएंगे,’’ मुनव्वर ने कहा, तो फातिमा ने ‘हां’ में सिर हिलाया और रोटियां, दालसब्जी फिर से गरम कर के कमरे में ले आई.

अगले दिन ही मुनव्वर पहली जमात की किताबें बाजार से खरीद लाया और तबस्सुम का दाखिला कराने के लिए उसे ले कर स्कूल पहुंचा.

स्कूल के सामने हैडमास्टर का कमरा था. मुनव्वर ने स्कूल में दाखिले के लिए कहा, तो हैडमास्टर ने फार्म भर कर देने और फीस जमा करने को कहा.

मुनव्वर अपना काम खत्म कर के तबस्सुम को स्कूल में ही छोड़ आया.

तबस्सुम धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. उस का मन अब पढ़ाई में नहीं लग रहा था. वह चुपचाप शूटिंग रेंज की तरफ निकल जाती और मास्टर उसे ढूंढ़ने के लिए बच्चों को इधरउधर दौड़ाते.

आखिरकार तंग आ कर क्लास टीचर ने मुनव्वर को बुलावा भेजा कि वह जल्दी से आ कर हैडमास्टर से मिले.

‘‘मुनव्वर, हम तबस्सुम को नहीं पढ़ा सकते. अच्छा होगा कि तुम इसे घर ले जाओ,’’ हैडमास्टर ने कहा.

हैडमास्टर का फैसला सुन कर मुनव्वर बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि तबस्सुम का मन पढ़ाई में नहीं लगता है. मगर इसे सुधरने का एक मौका दीजिए. शायद वह मन लगा कर पढे़गी.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. यह चुपके से शूटिंग रेंज की तरफ निकल जाती है. वहां बैठ कर घंटों तक निशानेबाजी देखती रहती है,’’ हैडमास्टर ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं कि इस का मन निशानेबाजी में लगता है. यह एकलव्य बनने का सपना संजोए हुए है. कच्ची उम्र की है. इस के लिए पढ़नालिखना ठीक है, न कि भारीभरकम बंदूक उठाना,’’ मुनव्वर ने कहा और हैडमास्टर को राजी कर लिया.

घर लौटा, तो फातिमा ने पूछ ही लिया, ‘‘क्यों री, कहां चली जाती है? स्कूल में पढ़ने भेजा जाता है या घूमनेफिरने? अरे, पढ़ लेगी, तो कुछ बन जाएगी, नहीं तो मेरी तरह चूल्हाचक्की में पिसती रहेगी.’’

‘‘मां, मैं पढ़ना नहीं चाहती, बंदूक चलाना सीखूंगी. मैं बड़ी हो कर निशानेबाजी की बड़ी प्रतियोगिताओं में भाग ले कर ढेर सारे मैडल जीतूंगी,’’ तबस्सुम ने कहा, जो छोटा मुंह बड़ी बात लग रही थी.

तबस्सुम धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. एक दिन मुनव्वर के साथ मेला देखने गई, तो खिलौना बंदूक के लिए मचल गई.

पिता को आखिरकार मजबूर हो कर वह खिलौना दिलाना पड़ा. अब वह चुपचाप घर के एक कोने में निशाना लगाया करती.

एक दिन तबस्सुम अकेले ही खिलौना बंदूक से निशानेबाजी की प्रैक्टिस कर रही थी. वह जब भी छर्रा छोड़ती, जो सीधा निशाने पर लगता. मुनव्वर और फातिमा सांस साधे चुपचाप उसे देख रहे थे.

‘शाबाश बेटी, क्या निशाना लगाती हो, एकलव्य की तरह. बिना किसी गुरु के,’ मुनव्वर और फातिमा बोले.

खिलौना बंदूक से ही तबस्सुम निशानेबाजी सीखती रही और माहिर होती रही. इस का पता उस के स्कूल के टीचरों को भी चल गया. वे भी तबस्सुम को निशानेबाजी के लिए बढ़ावा देते रहे.

कुछ दिन बीते. टीचरों को अखबार के जरीए जिलास्तरीय निशानेबाजी प्रतियोगिता के बारे में पता चला. टीचर संजय मुनव्वर के घर जा पहुंचे.

‘‘क्या बात है मास्टरजी, आज मु?ा गरीब के घर कैसे आए?’’ मुनव्वर बोला.

‘‘स्कूल के सभी टीचरों ने आप की बेटी तबस्सुम के हुनर को पहचाना है, इसीलिए सब ने मिल कर चंदा इकट्ठा किया है. मैं वह पैसा तुम्हें देने आया हूं. आप तबस्सुम को निशानेबाजी सीखने के लिए बंदूक खरीद कर दिला देना,’’ संजय बोले.

‘‘मगर मास्टरजी, आप खड़े क्यों हैं? अंदर आइए और चायपानी लीजिए,’’ मुनव्वर ने कहा.

टीचर संजय अंदर गए. मुनव्वर एक छोटा सा लकड़ी का बना हुआ स्टूल ले आया.

‘‘हैडमास्टर साहब अच्छी तरह जान चुके हैं कि तबस्सुम उन के स्कूल का नाम जरूर रोशन करेगी, इसीलिए मु?ो आप के पास चंदे का पैसा दे कर भेजा है,’’ संजय ने स्टूल पर बैठते हुए कहा.

‘‘आप की मेहरबानी हुई मु?ा गरीब पर, मगर मु?ो नहीं पता कि बंदूक कहां मिलेगी. आप खुद खरीद कर ले आते, तो अच्छा होता,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘मैं कल तबस्सुम को बंदूक ला कर दे दूंगा. मगर ध्यान रखना कि अगले हफ्ते 20 तारीख को उदयपुर में जिलास्तरीय प्रतियोगिता हो रही है. वहां तबस्सुम को ले जाना मत भूलना,’’ टीचर संजय ने सम?ाते हुए कहा.

अगले दिन संजय उदयपुर जा कर बंदूक ले आए और तबस्सुम को बंदूक दे दी. उस ने बंदूक को चूम लिया.

तबस्सुम बंदूक पा कर प्रैक्टिस में जुट गई. उसे खाना खाने तक की चिंता न रहती. लकड़ी के एक फट्टे पर काले रंग से गोले खींच लिए. उसे खड़ा कर के निशाना लगाती रहती.

‘‘पापा, मु?ो शूटिंग रेंज ले चलिए न. मैं शूटर बनना चाहती हूं,’’ तबस्सुम ने कहा.

‘‘छोटी सी उम्र में इतना बड़ा सपना,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘इस की दिमागी ताकत तो देखिए कितने गजब की है. इतनी तो बड़ों की भी नहीं होती है. मेरी मानो तो बच्ची की इच्छा को पूरा करना ही अच्छा रहेगा. इसे शूटिंग रेंज के अफसरों से मिल कर वहां भरती करवा दो,’’ फातिमा बोली.

‘‘मगर फातिमा, यह सब इतना आसान नहीं है, एक तो इस की उम्र कम है. दूसरे, हमारे पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि निशानेबाजी सीखने के लिए वहां फीस भर सकें. लेदे कर महीने में 2-3 हजार रुपए कमाता हूं,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘कुछ भी सही, बच्ची का दिल मत तोड़ो. उस की इच्छा है, तो चाहे कर्ज लेना पड़े, इसे किसी भी कीमत पर शूटिंग रेंज में भरती करवा दो,’’ फातिमा ने कहा, जो बच्ची का हुनर देख कर उस से प्रभावित हो चुकी थी.

‘‘तुम ठीक कह रही हो फातिमा. यह शूटर बन कर ही रहेगी. मगर क्या करूं, घर की माली हालत तो तुम देख रही हो. मैं मोटरसाइकिलों के पंचर लगा कर ही तो पैसे कमाता हूं. उसी छोटी सी आमदनी से घर का खर्च चला रहा हूं.’’

‘‘मैं तो कहती हूं, आप मुखियाजी से बात करो. शायद, कुछ बात बन जाए,’’ फातिमा बोली.

मुनव्वर अगले दिन ही मुखिया के यहां जा पहुंचा. वहां मसजिद के इमाम हाफिज भी बैठे थे.

मुनव्वर हिम्मत बटोर कर धीरे से बोला, ‘‘मुखियाजी, मेरी बेटी निशानेबाज बनना चाहती है. मैं इसे शूटिंग रेंज में भरती कराना चाहता हूं. आप मेरी मदद करेंगे, तो मु?ो अच्छा लगेगा.’’

इस से पहले कि मुखियाजी कुछ कहते, इमाम हाफिज कहने लगे, ‘‘भाई मुनव्वर, यह ठीक है कि आप अपनी बेटी को शूटर बनाना चाहते हैं. मेरी मानो, तो अभी इस की उम्र शूटिंग सीखने की नहीं है.

‘‘अच्छा होगा कि आप इसे कुरान याद कराओ. नहीं तो इस की शादी कर दो. बुजुर्गों ने कहा है कि बेटी की

शादी करना मांबाप के लिए जन्नत जाने जैसा है…’’

‘‘हमें बच्ची के सपनों के बीच नहीं

आना चाहिए. मैं तेरे साथ चलने को तैयार हूं,’’ मुखिया ने इमाम की बात काटते हुए कहा.

थोड़ी देर में वे सब शूटिंग रेंज के अफसर के पास पहुंच गए.

अफसर अपने केबिन में बैठे थे. सामने मेहमानों के बैठने के लिए सोफा रखा था. उन के शूटरों ने प्रतियोगिताओं में जो ट्रौफियां जीती थीं, वे सब कांच की अलमारी में रखी थीं.

अफसर खुद मजबूत कदकाठी के थे. वे बोले, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

‘‘हम आप के पास एक गुजारिश ले कर आए हैं. अगर आप मान लेंगे, तो हम अपने को खुशनसीब सम?ोंगे,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘हां, हां कहो, क्या बात है?’’

‘‘मेरी बेटी तबस्सुम अच्छी निशानेबाज है. आप इसे शूटिंग रेंज में प्रैक्टिस करने की इजाजत दे दें, तो हमें अच्छा लगेगा,’’ मुनव्वर बोला.

अफसर ने तबस्सुम को एक नजर नीचे से ऊपर तक देखा. परखने के बाद वे बोले, ‘‘इस की उम्र क्या है?’’

‘‘8 साल.’’

‘‘इस लड़की की उम्र खेलनेकूदने की है, न कि बंदूक उठाने की.’’

यह सुन कर मुनव्वर का तो चेहरा ही उतर गया. वह हिम्मत बटोर कर बोला, ‘‘मैं जानता हूं सर, तबस्सुम कम उम्र

की है. मगर फिर भी आप उस की निशानेबाजी देख लें, उस के बाद किसी फैसले पर पहुंचें.’’

‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि मैं इस लड़की को प्रैक्टिस कराने और बंदूक साधने के लिए कोई आदमी लगा दूं?’’

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा.’’

‘‘फिर क्या मतलब है आप का?’’

‘‘तबस्सुम को निशानेबाजी में प्रैक्टिस की सख्त जरूरत है. इसे तकनीकी जानकारी चाहिए.’’

‘‘मुनव्वर मियां, इसे स्कूल में पढ़ने दो. इस के कंधों में इतनी ताकत नहीं है कि वे बंदूक का ?ाटका ?ोल सकें.’’

‘‘आप एक बार फिर अपने फैसले पर विचार करें और इसे प्रैक्टिस के लिए इजाजत दे दें,’’ मुखिया ने कहा, तो खेल अफसर ने सिर पकड़ लिया. वे बोले, ‘‘तुम्हारी यही जिद है, तो कल से इसे प्रैक्टिस के लिए भेज दो.’’

उस अफसर का फैसला सुन कर तबस्सुम उछल पड़ी. मुखिया, मुनव्वर और हाफिज के चेहरों पर मुसकान आ गई.

अगले दिन से मन लगा कर तबस्सुम निशानेबाजी की प्रैक्टिस करने लगी. उसे जिलास्तरीय प्रतियोगिता में भाग जो लेना था.

मुनव्वर तबस्सुम को ले कर निश्चित समय पर उदयपुर पहुंच गया. पर दिल्ली से आए कोच ने मना कर दिया, ‘‘तबस्सुम छोटी है और उस से बंदूक नहीं उठती है. उसे सहयोगी नहीं दिया जा सकता, इसलिए वह प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकती.’’

‘‘देखिए, मेरी बेटी को एक बार प्रतियोगिता में उतरने तो दीजिए. फिर देखना उस का हुनर,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘खेलों के भी कुछ नियम होते हैं. तुम्हारे लिए नियम बदले तो नहीं जा सकते,’’ कोच ने कहा.

‘‘मैं आप को सिर्फ इतना कहूंगा कि आप एक बार उस की निशानेबाजी देख लें. आप को शिकायत का मौका नहीं मिलेगा,’’ मुनव्वर ने कहा.

काफी मानमनौव्वल के बाद कोच राजी हो गया.

अगले दिन मुनव्वर समय से प्रतियोगिता की जगह पर पहुंच गया. तबस्सुम को टीम में शामिल कर लिया गया. वह क्या निशाने पर निशाना साधे जा रही थी. कोच ने दांतों तले उंगली दबा ली.

उसे प्रतियोगिता में भाग लेने की रजामंदी दे दी गई.

तबस्सुम ने प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल जीता. दिल्ली से आए कोच और खेल अफसर दोनों खुश थे. तबस्सुम, मुनव्वर और फातिमा के तो पैर जमीन पर नहीं टिक रहे थे.

 

रंगों के अरमान: क्या पूरे हो पाएं जमालुद्दीन के अरमान

आज 78 साल के जमालुद्दीन मियां बहुत खुश थे. यूक्रेन से उन का पोता कामरान सहीसलामत घर वापस आ रहा था. कामरान के साथ उस का दोस्त अभिनव भी था. अभिनव को टिकट नहीं मिलने के चलते कामरान भी 4 दिनों तक वहीं रुका रहा.

जमालुद्दीन मियां बाहर चौकी पर लेटे थे कि आटोरिकशा आ कर रुका. सैकड़ों लोगों ने आते ही उन्हें घेर लिया. ऐसा लग रहा था कि ये बच्चे जंग से जान बचा कर नहीं, बल्कि जंग जीत कर आ रहे हैं.

‘‘अस्सलामु अलैकुम दादू,’’ आते ही कामरान ने अपने दादा को सलाम किया. उस के बाद अभिनव ने भी सलाम दोहराया.

‘‘अच्छा, यही तुम्हारा दोस्त है,’’ जमालुद्दीन मियां ने कहा.

‘‘जी दादाजी.’’

जमालुद्दीन मियां को उन दोनों का चेहरा साफ नहीं दिख रहा था. नजर कमजोर हो चली थी. उन्होंने दोनों को चौकी पर बिठाया और बारीबारी से अपने हाथों से उन का चेहरा टटोला.

वे बहुत खुश हुए, फिर कहा, ‘‘सब लोग तुम्हारी बाट जोह रहे हैं. नहाखा कर आराम कर लो.’’

अम्मी कामरान को गले से लगा कर रोने लगीं. जैसे गाय अपने बछड़े को चूमती है, वैसे चूमने लगीं. दोनों बहनें भी अगलबगल से लिपट गईं.

अब्बू कुरसी पर बैठे इंतजार कर रहे थे कि उधर से छूटे तो इधर आए. कामरान की निगाहें भी अब्बू को ढूंढ़तेढूंढ़ते कुरसी पर जा कर ठहर गईं. अम्मी के आंसू थमने के बाद उस ने अब्बू के पास जा कर सलाम किया.

इधर कामरान की बहनें अभिनव के सत्कार में जुटी रहीं. अभिनव को अभी यहां से अपने घर जाना था. यहां से

40 किलोमीटर दूर उस का गांव था.

4 घंटे के बाद अभिनव के घर जाने के लिए दोनों निकले, तो दादाजी के पास दुआएं लेने के लिए ठहर गए.

‘‘अच्छा तो तुम्हें टिकट नहीं मिली थी?’’ जमालुद्दीन मियां ने अभिनव से सवाल किया.

अभिनव ने कहा, ‘‘जी दादाजी. मैं तो कामरान से कह रहा था कि तुम चले जाओ. जब मुझे टिकट मिलेगी तो आ जाऊंगा, पर यह मुझे छोड़ कर आने के लिए तैयार नहीं था.’’

इस पर जमालुद्दीन मियां ने कहा, ‘‘ऐसे कैसे छोड़ कर आ जाता. साथ पढ़ने गए थे, तो तुम्हें कैसे मौत के मुंह में छोड़ कर आ जाता. इसे दोस्ती नहीं मौकापरस्ती कहते हैं.’’

कामरान ने कहा, ‘‘दादाजी, होली सिर पर है. मैं ने सोचा कि मुझ से ज्यादा तो इस का घर जाना ज्यादा जरूरी है.’’

जमालुद्दीन मियां ने कहा, ‘‘अच्छा… होली आ गई है.

कब है?’’

अभिनव बोला, ‘‘18 मार्च को है…’’

जमालुद्दीन मियां ने दोहराया,

‘‘18 मार्च…’’ इतना कह कर उन की आंखें शून्य में कुछ ढूंढ़ने लगीं. उन्हें यह भी खयाल नहीं रहा कि पास में बच्चे बैठे हुए हैं. उन्होंने गमछा उठाया और चेहरे पर रख लिया.

यह देख कर कामरान ने पूछा, ‘‘क्या हुआ दादाजी?’’

जमालुद्दीन बोले, ‘‘कुछ नहीं हुआ बबुआ. तुम लोग जाओ, नहीं तो देर हो जाएगी.’’

कामरान चौकी पर दादाजी की पीठ से लग कर बैठ गया और पूछने लगा, ‘‘दादाजी, होली के बारे में सुन कर आप की आंखें क्यों भर आईं? होली से कोई याद जुड़ी है क्या?’’

जमालुद्दीन मियां ने जबरदस्ती की हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं बुड़बक.’’

अभिनव बोला, ‘‘दादाजी, अब तो हम आप का किस्सा सुन कर ही जाएंगे.’’

जमालुद्दीन मियां ने कहा, ‘‘अरे बुड़बक, तुम ने तो बात का बतंगड़ बना दिया है… पर जिद ही करते हो तो सुनो. कुसुम का बड़ा मन था हमारे साथ होली खेलने का.

बाकी हमारे घर के लोग बोले थे कि रंग छूना गुनाह है. रंग लगा

कर घर में घुस भी मत जाना, यह हराम है.

‘‘कुसुम के घर के लोग उस से बोले कि मियां के संग होली खेलना तो दूर, साथ होना भी पाप है. खबरदार जो होली के दिन जमलुआ के घर गई तो.’’

अभिनव ने पूछा, ‘‘फिर क्या हुआ?’’

जमालुद्दीन मियां ने आगे बताया, ‘‘होना क्या था. लगातार

3 साल तक हम दोनों ने होली खेलने की कोशिश की, पर मौका ही नहीं मिला. फिर उस की शादी हो गई. वह अपनी ससुराल चली गई और मन के अरमान मन में ही धरे रह गए.’’

कामरान ने पूछा, ‘‘फिर?’’

इस पर जमालुद्दीन मियां बोले, ‘‘अरे फिर क्या… कहानी खत्म.’’

अभिनव बोला, ‘‘उन की शादी कहां हुई थी?’’

जमालुद्दीन ने बताया, ‘‘अरे, यहां से 16 किलोमीटर दूर है मुसहरी टोला… वहीं.’’

अभिनव हैरान हो कर बोला, ‘‘मुसहरी टोला?’’

जमालुद्दीन ने कहा, ‘‘तब तो

नदी से हो कर जाते थे, अब पुल बन गया है.’’

अभिनव ने कहा, ‘‘दादाजी, आप की कुसुम मेरी दादी हैं.’’

यह सुन कर जमालुद्दीन मियां के साथसाथ कामरान भी हैरान रह गया.

जमालुद्दीन मियां ने पहलू बदलते हुए कहा, ‘‘भक बबुआ, यह क्या बोल रहे हो…’’

अभिनव ने कहा, ‘‘यह सच है दादाजी.’’

जमालुद्दीन ने पूछा, ‘‘अच्छा तो यह बताओ कि तुम्हारे दादाजी का नाम

क्या है?’’

अभिनव ने कहा, ‘‘रामाशीष… अब वे इस दुनिया में नहीं हैं.’’

जमालुद्दीन ने धीरे से कहा, ‘‘सही कह रहे हो. उस के पति का नाम रामाशीष ही है.’’

अभिनव बोला, ‘‘दादाजी, अब की होली में आप दोनों का अरमान जरूर पूरा होगा.’’

जमालुद्दीन मियां बोले, ‘‘नहीं बबुआ, बुड़बक जैसी बात न करो. यह किस्सा तो जमाना हुए खत्म हो

गया था.’’

अभिनव के मन में कुछ और ही था. उस ने कामरान का हाथ पकड़ कर उसे उठाया और दोनों वहां से चल दिए.

मुसहरी टोला में जैसे जश्न का माहौल था. गाजेबाजे के साथ उन का स्वागत किया गया. कोई फूलों का हार पहना रहा था, तो कोई उन्हें गोद में उठा रहा था.

रात होने के चलते कामरान वहीं रुक गया और अगली सुबह घर जाने के लिए तैयार हुआ.

अभिनव की मम्मी ने कामरान को झोला भर कर सौगात थमा दी, जिस

में खानेपीने की कई चीजें थीं.

फिर अभिनव ने दादी की कहानी अपनी मम्मी को सुनाई. मम्मी भी मुसकरा कर रह गईं. फिर अभिनव ने कामरान को बुलाया और वे तीनों आपस में कुछ बतियाने लगे. इस के बाद वे दादी के कमरे में गए.

कामरान ने अभिनव की दादी को सलाम करते हुए कहा, ‘‘दादी, अब की बार होली में अपने मायके चलो.’’

दादी बोलीं, ‘‘अब क्या रखा है गांव में. माईबाप, भाईभौजाई… कोई भी तो नहीं रहा.’’

कामरान ने कहा, ‘‘अरे दादी, हमारे घर में रहना.’’

दादी ने कहा, ‘‘अब 75 साल

की उम्र में कहीं भी जाना पहाड़

चढ़ने के बराबर है बबुआ. बिना

लाठी के सीधा खड़ा नहीं हुआ जाता अब तो.’’

अभिनव ने कहा, ‘‘दादी, मैं ले

कर चलता हूं. हम दोनों यार एकसाथ होली खेल लेंगे और तुम्हें गांव घुमा देंगे. क्या पता तुम्हारा कोई पुराना जानकार मिल जाए.’’

‘‘बहू, तुम्हारा क्या विचार है?’’ दादी ने अभिनव की मां से पूछा.

अभिनव की मम्मी ने कहा, ‘‘चले जाओ. बच्चों की बात मान लो. इसी बहाने मन बहल जाएगा.’’

दादी बोलीं, ‘‘अच्छा अभिनव, तू ले चल. देख लूं मैं भी मायके की होली. अब इस जिंदगी का क्या भरोसा.’’

फिर कामरान अपने गांव लौट गया.

17 तारीख की शाम को अभिनव अपनी दादी के साथ कामरान के घर

आ गया. रात हो चली थी. अगली

सुबह जब अजान हुई और कामरान की अम्मी नमाज पढ़ने लगीं, तब दादी को यह जान कर हैरानी हुई कि ये लोग तो मुसलमान हैं.

‘‘अरे, तुम लोग भी होली खेलते हो?’’ दादी के इस सवाल पर कामरान की अम्मी मुसकरा कर रह गईं. उन्होंने दादी को चाय बना कर पिलाई और बरामदे में ले आईं.

उधर नमाज से फारिग होने के बाद अभिनव और कामरान भी दादाजी को बरामदे में ले कर आ गए. दादाजी ने आते ही सवाल किया, ‘‘यह कौन नया मेहमान है?’’

अभिनव ने खुश हो कर कहा, ‘‘दादाजी, पहचाना?’’

जमालुद्दीन मियां बोले, ‘‘साफ दिखेगा तो ही पहचानूंगा न…’’

‘‘जमालु…’’ दादी की अचरज भरी आवाज सुन कर जमालुद्दीन मियां चौंके और बोले, ‘‘कुसुम… अच्छा… समझ गया. अभिनव के साथ आई हो. सब समझ गया…’’

तभी कामरान की दोनों बहनें

थाली में रंग और पिचकारी लिए हाजिर हो गईं.

यह देख कर दादी ने कहा, ‘‘यह तो तुम लोगों ने हमारे साथ बहुत धोखा किया है.’’

अभिनव बोला, ‘‘लोगों को गोली मार दादी, आगे बढ़ और हिम्मत कर.’’

तभी जमालुद्दीन मियां वहां से उठ कर निकलने की कोशिश करने लगे, लेकिन इतने में घर के सारे लोग कमरे से बाहर निकले और दरवाजा बंद कर दिया. वे खिड़की पर आ कर खड़े हो गए, फिर जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘कम औन दादी… कम औन दादा…’

बच्चों के कोलाहल के बीच दोनों बूढ़ाबुढि़या ने पिचकारी उठा लीं और आंखों में आंखें डाल कर रंगों की बौछार एकदूसरे पर न्योछावर कर दी.

तभी दरवाजा खुला, पर दादादादी को तब कोई शोर सुनाई नहीं दिया, न ही दरवाजा खुलने की आवाज सुनाई दी. सदियों की प्यासी चाह पूरी होने लगी और बच्चे जश्न मनाने लगे.

साधना कक्ष : क्या मां बन पाई अंजलि

अंजलि की शादी को 5 साल बीत चुके थे, लेकिन उसे मां बनने का सुख अब तक नहीं मिल पाया था. उस ने अपने पति मोहन से डाक्टर के पास चल कर चैकअप कराने के लिए कई बार कहा, लेकिन वह कन्नी काटता रहा.

बच्चा न ठहरने के चलते अंजलि को अकसर मोहन के ताने भी सुनने पड़ रहे थे इसलिए वह कुछ दिनों के लिए मायके में अपनी मां के पास चली आई.

मां को जब इस की वजह पता चली तो उस ने अंजलि से कहा कि वह एक पहुंचे हुए बाबा को जानती है जो बहुत सी औरतों की गोद हरी कर चुके हैं.

अंजलि झाड़फूंक करने वाले बाबाओं और पीरफकीरों पर जरा भी यकीन नहीं करती थी इसलिए उस ने मां को साफ मना कर दिया.

मां ने उस से कहा कि अगर वह बाबा के पास नहीं जाना चाहती है तो अपने पति के घर वापस लौट जाए.

जब अंजलि ने मोहन से बात की तो उस ने कहा कि वह उस से तलाक लेना चाहता है क्योंकि उसे बच्चा नहीं हो रहा है. ऐसे में अंजलि के पास मां की बात मानने के सिवा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा था.

एक दिन जब अंजलि मां के साथ बाबा के आश्रम पहुंची तो पता चला कि उस आश्रम में मर्दों के आने की मनाही थी. उस आश्रम में उस बाबा को छोड़ उस के तीमारदारों में सिर्फ औरतें ही शामिल थीं.

बाबा की शिष्याओं ने अंजलि से एक कागज के टुकड़े पर बिना किसी को दिखाए अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखने को कहा.

अंजलि को कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन वह मां की इच्छा रखने के लिए सबकुछ करती गई.

अंजलि ने उस कागज पर मनपसंद मिठाई का नाम लिख कर उसे एक डब्बे में रख दिया जिस में बाबा की शिष्याओं ने ताला लगा कर अंजलि को यह कहते हुए उस के हाथ में थमा दिया कि वह इस डब्बे को ले कर साधना कक्ष में जाए.

बाबा अपनी चमत्कारी ताकतों की बदौलत यह जान गए होंगे कि उस ने इस कागज में क्या लिखा है.

साधना कक्ष में पहुंचने पर उसे वही मिठाई खाने को मिलेगी, जो उस ने इस कागज पर लिखी है.

अंजलि जब बाबा के पास साधना कक्ष में जाने लगी तो उस की मां भी उस के साथ हो ली.

बाबा ने अंजलि को वही मिठाई खाने को दी जो उस ने उस कागज पर लिखी थी तो वह हैरान रह गई, क्योंकि अंजलि के सिवा किसी को भी यह नहीं पता था कि उस ने उस कागज पर क्या लिखा है. उस ने बहुत दिमाग दौड़ाया लेकिन गुत्थी सुलझ नहीं.

समस्या जान कर बाबा ने अंजलि से कहा, ‘‘अगर तुम पेट से होना चाहती हो तो तुम्हें रातभर इस कमरे में अकेले ही रहना होगा क्योंकि यह मेरा साधना कक्ष है. इस कक्ष में सोने से तुम्हारी गोद यकीनन हरी हो जाएगी.’’

अंजलि को इस कमरे में अकेले रात बिताने पर एतराज था. इस पर बाबा ने कहा, ‘‘इस कमरे में कोई और दरवाजा नहीं है और तुम अकेली ही रहोगी. तुम इस कमरे में अपने साथ लाए गए ताले को लगा लेना, जिस की एक चाबी तुम्हारी मां के पास रहेगी. कमरे में किसी के घुसने का सवाल ही नहीं उठता है.’’

अंजलि बेमन से कमरे में रात बिताने को तैयार हुई. बाबा और उस की मां जब कमरे से बाहर निकलने लगे तो बाबा बोला, ‘‘अंजलि, जो प्रसाद मैं ने तुम्हें दिया है, उसे अभी खा लो.’’

अंजलि ने मिठाई खा ली. बाबा ने बाहर निकलने के बाद कमरे में ताला लगा कर चाबी अंजलि की मां को दे दी.

उधर मिठाई खाने के बाद अंजलि पर अजीब सी खुमारी छाने लगी थी. वह अपनी सुधबुध खोने लगी थी और उस की नींद तब खुली, जब दूसरे दिन की सुबह उस की मां ने बंद कमरे का दरवाजा खोला.

अंजलि कमरे से बाहर निकलते समय सोच रही थी कि उस मिठाई में ऐसा क्या था, जिसे खाने के बाद उसे अजीब सी खुमारी छा गई और इस के बाद क्या हुआ, उसे पता नहीं चला. लेकिन वह बेफिक्र भी थी, क्योंकि उस कमरे की चाबी उस की मां के पास थी और कमरे में घुसने का कोई दूसरा दरवाजा भी नहीं था.

अंजलि को बाबा के आश्रम से लौटे 2 महीने बीत चुके थे कि एक दिन अचानक उसे उलटियां होने लगीं. उस ने अपने डाक्टर दोस्त रमेश से जब चैकअप कराया तो पता चला कि वह पेट से है.

डाक्टर रमेश की बात का अंजलि को यकीन ही नहीं हुआ क्योंकि उसे पति से अलग हुए 5 महीने से ऊपर बीत चुके थे, फिर वह पेट से कैसे हो सकती है?

अंजलि ने डाक्टर रमेश से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, आप एक बार फिर से रिपोर्ट देख लीजिए. कहीं ऐसा न हो कि जांच रिपोर्ट में कोई खामी हो.’’

लेकिन डाक्टर रमेश ने कहा कि उस की रिपोर्ट बिलकुल सही है और वह पेट से है.

घर पहुंचने पर अंजलि ने अपनी मां से पेट से होने की बात बताई तो मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन जब अंजलि बोली कि वह मोहन से 5 महीने से मिली ही नहीं है, तो ऐसा कैसे हो सकता है.

अंजलि बोली, ‘‘मां, बाबा के आश्रम में मेरे साथ रेप किया गया है. कहीं तुम ने बाबा के साधना कक्ष की चाबी किसी को दी तो नहीं थी?’’

मां बोली, ‘‘नहींनहीं, मैं ने सारी रात चाबी अपने पास ही रखी थी और सुबह दरवाजा भी मैं ने ही खोला था.’’

अंजलि यह बात मानने को तैयार न थी. उस का कहना था कि बाबा के आश्रम में ही रेप हुआ है, जिस के चलते वह पेट से हुई है. लेकिन उस की मां बाबा के खिलाफ एक बात सुनने को राजी न थी. वह तो इसे बाबा का चमत्कार मान रही थी.

अंजलि ने यह बात जब मोहन को फोन कर के बताई तो उस ने उस पर ही चरित्रहीन होने का लांछन लगा दिया और कभी भी फोन न करने की बात कह कर फोन काट दिया.

उधर अंजलि को अब पूरा यकीन हो चुका था कि उस रात बाबा के आश्रम में उस के साथ कोई तो हमबिस्तर हुआ था. हो न हो, उस कमरे में कोई गुप्त दरवाजा है जिस के रास्ते कोई उस कमरे में घुसता है और साधना कक्ष में पेट से होने के लालच में रात बिताने वाली औरतों के साथ रेप करता है.

अंजलि ने अब निश्चय कर लिया था कि वह उस पाखंडी बाबा की हकीकत दुनिया के सामने ला कर रहेगी.

अंजलि ने अपने मन की बात मां को बताई तो मां बाबा के खिलाफ जाने को तैयार न हुई, पर जब अंजलि ने अपनी जान देने की बात कही तो मां उस का साथ देने को तैयार हो गई.

अंजलि इस बार फिर बाबा के आश्रम पहुंची और उस ने बाबा को बताया कि वह उन के चमत्कार से पेट से तो हो गई है, लेकिन उस का पति उस से तलाक लेकर दूसरी शादी करने जा रहा है. ऐसे में वह नहीं चाहती है कि वह पेट से हो, इसलिए वह चमत्कार कर के उसे पेट से होने से रोक लें.

बाबा ने अंजलि को एक पुडि़या दे कर कहा, ‘‘तुम इस चमत्कारी भभूत का सेवन करो. इस से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे और पेट में पल रहा बच्चा भी अपनेआप छूमंतर हो जाएगा.’’

अंजलि बाबा के आश्रम से घर आई और उस बाबा द्वारा दी गई भभूत को डाक्टर रमेश के पास ले गई.

डाक्टर रमेश ने उस भभूत को लैब में टैस्ट के लिए भेजा तो उस में बच्चा गिराने की दवा निकली.

अब अंजलि को पूरा यकीन हो चुका था कि बाबा के आश्रम में औरतों के साथ जबरदस्ती सैक्स संबंध बनाने का खेल खेला जा रहा है.

अंजलि दोबारा उस बाबा के आश्रम में पहुंची और बाबा से बोली, ‘‘बाबा, आप की चमत्कारी भभूत के चलते पेट में पल रहा मेरा बच्चा अपनेआप छूमंतर हो गया है. मेरे पति मुझे अपनाने को तैयार हो गए हैं. उन्होंने एक शर्त रखी है कि इस बार मुझे वे तभी वापस ले जाएंगे, जब मैं वहां जाने पर पेट से हो जाऊं.

‘‘मैं चाहती हूं कि आप के चमत्कार से एक बार फिर मैं पेट से हो जाऊं, क्योंकि इस बार अगर मैं पेट से न हुई तो वे मुझे हमेशा के लिए छोड़ देंगे.’’

बाबा ने कहा, ‘‘तुम दोबारा पेट से हो सकती हो. बस, एक रात साधना कक्ष में गुजारनी होगी.’’

अंजलि साधना कक्ष में रात गुजारने को तैयार हो गई, पर इस बार उस ने पुलिस से मिल कर उस बाबा की असलियत बता दी थी. लेकिन पुलिस बिना सुबूत उस बाबा पर हाथ नहीं डाल सकती थी इसलिए पुलिस ने अंजलि को सुबूत इकट्ठा करने के लिए फिर से बाबा के पास जाने को कहा था.

इस बार अंजलि पूरी तैयारी के साथ बाबा के आश्रम में आई थी और बोली कि उस की माहवारी आने के बाद का 13वां दिन है.

साधना कक्ष में बैठा बाबा अंजलि के साथ आई दूसरी औरत को देख कर चौंक गया और पूछा, ‘‘यह कौन है?’’

अंजलि ने बताया, ‘‘ये मेरी मौसी हैं. आज मां की तबीयत खराब होने के चलते मौसी के साथ आना पड़ा.’’

हकीकत तो यह थी कि अंजलि के साथ आई वह औरत पुलिस वाली थी. बाबा के आश्रम में महिला पुलिस भी श्रद्धालुओं के रूप में फैली हुई थी.

बाबा ने अंजलि को फिर वही मिठाई खाने को दी जो उस ने परची पर लिखी थी. लेकिन इस बार अंजलि को जरा भी हैरानी नहीं हुई क्योंकि उसे यह पता चल चुका था कि बाबा को परची पर लिखी गई हर बात पता चल जाती है. इस के पीछे कोई न कोई राज जरूर था, जिस से आज परदा उठने वाला था.

अंजलि इसी सोच में डूबी थी कि बाबा की आवाज उस के कानों में गूंजी, ‘‘अब तुम रात बिताने को तैयार हो. जाओ और मिठाई खा कर आराम करो.’’

इतना कह कर बाबा बाहर चला आया और अंजलि के साथ आई मौसी से साधना कक्ष में ताला लगवा कर अपनी आरामगाह में चला गया.

साधना कक्ष में बंद अंजलि ने इस बार बाबा की दी हुई मिठाई नहीं खाई. वह बाबा का हर राज जान लेना चाहती थी. उस ने जब कमरे को बारीकी से देखा तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया जिस से उस कमरे में आने के दूसरे रास्ते के बारे में पता चल पाए.

तभी अंजलि की नजर बाबा के साधना कक्ष के कोने में रखी अलमारी पर गई. उस ने जैसे ही अलमारी के दरवाजे का हैंडल पकड़ कर खोला तो दरवाजा खुल गया.

यह देख कर अंजलि चौंक गई, क्योंकि वह नाममात्र की अलमारी थी. इस कमरे में घुसने का एक खुफिया दरवाजा था, जो दूसरे कमरे में जा कर खुलता था. बगल वाले कमरे में एक बड़ी सी स्क्रीन लगी हुई थी जो पूरे आश्रम का नजारा दिखा रही थी.

तभी अंजलि की नजर एक छोटी सी स्क्रीन पर गई. उस ने उस स्क्रीन पर चल रहे नजारों में जो देखा, उस के बाद उसे परची पर लिखी हर बात के बारे में बाबा को पता चल जाने का सारा राज सम?ा में आ गया था, क्योंकि जहां पर बैठ कर औरतें अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखती थीं, वहां आसपास छिपा हुआ कैमरा लगा था.

बाबा इस कमरे में बैठ कर जान लेता था कि किस ने कौन सी मिठाई का नाम लिखा है, फिर उस में वह बेहोशी की दवा मिला कर खुफिया दरवाजे से साधना कक्ष में आ जाता था.

अंजलि को उस कमरे में तरहतरह की मिठाइयां एक फ्रिज में रखी हुई भी मिल गई थीं. तभी उसे बगल के कमरे से कुछ खटपट की आवाज सुनाई दी. वह समझ गई कि इस कमरे में बाबा के आने का समय हो गया है. वह बड़ी सावधानी से साधना कक्ष में लौट आई. वह अपने साथ आई महिला पुलिस को फोन करना नहीं भूली.

अंजलि साधना कक्ष के बिस्तर पर बेहोशी का नाटक कर के पड़ी थी. बाबा साधना कक्ष में आ चुका था.

अंजलि सबकुछ कनखियों से देख रही थी. बाबा अपने कपड़े उतार चुका था. वह अंजलि के ऊपर झांकने ही वाला था कि अंजलि का झन्नाटेदार थप्पड़ बाबा के कान पर पड़ा.

बाबा खुद को संभालते हुए अंजलि पर झपटा लेकिन अंजलि का पैर बाबा के अंग वाले हिस्से पर पड़ा और वह गश खा कर गिर गया.

अंजलि जोर से चिल्लाई. इसी के साथ कमरे का दरवाजा भड़ाक से खुल गया और एकसाथ कई पुलिस वाले कमरे में धड़धड़ाते हुए घुस आए.

बाबा खुद को संभालते हुए खुफिया दरवाजे की तरफ लपका. पुलिस वाले भी उसे पकड़ने के लिए उस तरफ लपके, लेकिन तब तक बाबा कहां छूमंतर हो गया, पता ही नहीं चला.

पुलिस चारों तरफ से आश्रम को घेर चुकी थी लेकिन बाबा आश्रम में कहीं नहीं मिला. तभी आश्रम की एक साध्वी ने जो बताया, उस से पुलिस वाले भी चौंक गए.

उस साध्वी ने बताया, ‘‘मेरी बहन भी इस बाबा के चक्कर में पड़ कर इस की शिष्या बन गई थी. लेकिन वह एक दिन बाबा का राज जान गई और उस ने बाबा की सारी करतूतों का वीडियो भी बना लिया था. तभी बाबा को यह बात पता चल गई और उस ने मेरी बहन को गायब करा दिया.

‘‘तब से मैं अपनी बहन की खोज में यहां पर बाबा की शिष्या बन कर उस के खिलाफ सुबूत इकट्ठा कर रही हूं. इसी दौरान आश्रम में बनाए गए खुफिया ठिकानों के बारे में भी मुझे पता चला.

‘‘बाबा ने आश्रम के अंदर एक खुफिया कमरा बना रखा है जिस में वह खुद के खिलाफ जाने वालों को न केवल कैद करता है बल्कि उन की हत्या कर के उन्हें वहीं दफना भी देता है.’’

उस शिष्या ने पुलिस वालों को आश्रम के पीछे झड़झखाड़ में बने एक गुप्त रास्ते से उस खुफिया कमरे तक पहुंचा दिया. वहां छिपा बाबा धर दबोचा गया. उस कमरे से पुलिस को भारी मात्रा में हथियार और कैद की गई औरतें भी मिलीं. उस कमरे में कई कब्रें भी थीं जिन की खुदाई से कई औरतों की अस्थियां बरामद हुईं.

अंजलि की सूझबूझ से पाखंडी बाबा के साधना कक्ष में औरतों के पेट से होने का राज खुल चुका था.

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