कांता प्रसाद और राम प्रसाद की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी. कांता प्रसाद ने अतुल को इशारे से अपने करीब बुलाया और अपने पास बैठाते हुए कहा, "समझे. मैं जल्दी ही वकील से यह दुकान तुम्हारे नाम करवाने के लिए बात कर लूंगा.’’
अतुल बीच में बोल पड़ा, ‘‘नहीं ताऊजी, मेरी अपनी दुकान अच्छी चल रही है. प्लीज, आप ऐसा न करें.’’
‘‘अरे अतुल, मुझे पता है, तेरी दुकान कितनी अच्छी चलती है, एक कोने में तेरी छोटी सी दुकान है और अस्पताल से बहुत दूर भी. बस, तू मेरी बात मान ले. अपने ताऊजी से बहस न कर,’’ कांता प्रसाद ने मुसकराते हुए अतुल को डांट दिया.
‘‘भाईसाहब, आप ऐसा न करें, दुकान भले ही चलाने के लिए हमें किराए पर दे दें पर इसे अतुल के नाम पर न करें, सुमित...’’
राम प्रसाद भविष्य का विचार करते हुए सुझाव देने लगे तो कांता प्रसाद किंचित आवेश में बीच में बोल पड़े, ‘‘अरे रामू, यह मेरी प्रौपर्टी है, मैं चाहे जिसे दे दूं. सुमित से अब हम कोई नाता नहीं रखना नहीं चाहते हैं. अब वह हमारा नहीं रहा. सुमित ने तो अपनी अलग दुनिया बसा ली है. उसे हम दोनों की कोई जरूरत नहीं है. अब तो अतुल ही हमारा बेटा है.’’
कांता प्रसाद की आंखें फिर छलक गईं. राम प्रसाद ने इस समय बात को और आगे बढ़ाना उचित न समझा.
कुछ ही देर में निशा और दिशा किचन से नाश्ता ले कर बाहर आ गईं. रमा ने निशा और दिशा को अपने पास बैठाया. दोनों रमा के दाएंबाएं बैठ गईं. रमा ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘ये जुड़वां बहनें जब छोटी थीं तब दोनों छिपकली की तरह मुझ से चिपकी रहती थीं. रात को सरला बेचारी सो नहीं पाती थी. तब मैं एक को अपने पास सुलाती थी. इन का पालनपोषण करना सरला के लिए तार पर कसरत करने के समान था.
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