मंदिर पहुंचतेपहुंचते दोपहर हो चली थी. पुजारीजी अपने कमरे में एयरकंडीशनर चला कर आराम फरमा रहे थे. उन्हें अपने आराम में खलल अच्छा नहीं लगा. पहले तो उन्होंने रामदीन को पहचाना ही नहीं, फिर लक्ष्मी को देख कर खिल उठे.
अपने बिलकुल पास बिठा कर तांती को छूने के बहाने उस का हाथ पकड़ते हुए बोले, ‘‘अरे तुम... क्या, तुम्हारा दाग तो बढ़ रहा है.’’ ‘‘वही तो मैं भी जानना चाहता हूं. आप ने तो कितने भरोसे के साथ कहा था कि यह ठीक हो जाएगा,’’ रामदीन जरा तेज आवाज में बोला.
‘‘लगता है कि तुम ने तांती के नियमों की पालना नहीं की,’’ पुजारीजी ने अब भी लक्ष्मी का हाथ थाम रखा था. ‘‘अब इस में भी नियमकायदे होते हैं क्या?’’ इस बार लक्ष्मी अपना हाथ छुड़ाते हुए धीरे से बोली. ‘‘और नहीं तो क्या. क्या जो दक्षिणा तुम ने बाबा के चरणों में चढ़ाई थी वह दान का पैसा नहीं था?’’ पुजारी ने पूछा.
‘‘दान का पैसा... क्या मतलब?’’ रामदीन ने पूछा. ‘‘मतलब यह कि तांती दान के पैसे से ही बांधी जाती है, वरना उस का असर नहीं होता. तुम एक काम करो, अपने पासपड़ोसियों और रिश्तेदारों से कुछ दान मांगो और वह रकम दक्षिणा के रूप में यहां भेंट करो... तब तांती सफल होगी,’’ पुजारीजी ने समझाया.
‘‘यानी हाथ पर बंधी यह तांती बेकार हो गई,’’ कहते हुए लक्ष्मी परेशान हो गई. ‘‘हां, अब इस का कोई मोल नहीं रहा. अब तुम जाओ और जब दक्षिणा लायक दान जमा हो जाए तब आ जाना... नई तांती बांधेंगे. और हां, नास्तिक लोगों को जरा इस से दूर ही रखना,’’ पुजारी ने कहा तो रामदीन उस का मतलब समझ गया कि उस का इशारा किस की तरफ है.
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