कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

चिंता की बात तो है. पर ऐसी नहीं कि शांति, सुमन के मामा के साथ मिल कर मुझ पर बमबारी शुरू  कर दी. मेरी निगाहें तो कुमार पर जमी हैं. फंस गया तो ठीक है. वैसे, मैं ने तो एक अलग ही सपना देखा था. शायद वह पूरा होने वाला नहीं.

कल शाम पुणे से सुमन के मामा आए थे. अकसर व्यापार के संबंध में मुंबई आते रहते हैं. व्यापार का काम खत्म कर वह घर अवश्य पहुंचते हैं. आजकल उन को बस, एक ही चिंता सताती रहती है.

‘‘शांति, सुमन 26 पार कर गईर्र्र् है. कब तक इसे घर में बिठाए रहोगे?’’ सुमन  के मामा चाय खत्म कर के चालू हो गए. वही पुराना राग.

‘‘सुमन घर में नहीं बैठी है. वह आकाशवाणी में काम करती है, मामाजी,’’ मैं भी मजाक में सुमन  के मामा को मामाजी कह कर संबोधित किया करता था.

‘‘जीजाजी, आप तो समझदार हैं. 25-26 पार करते ही लड़की के रूपयौैवन  में ढलान शुरू हो जाता है. उस के अंदर हीनभावना घर करने लगती है. मेरे खयाल से तो….’’

‘‘मामाजी, अपनी इकलौती लड़की को यों रास्ता चलते को देने की मूर्खता मैं नहीं करूंगा,’’ मैं ने थोड़े गंभीर स्वर में कहा, ‘‘आप स्वयं देख रहे हैं, हम हाथ पर हाथ रखे तो बैठे नहीं हैं.’’

‘‘जीजाजी, जरा अपने स्तर को  थोड़ा नीचे करो. आप तो सुमन के  लिए ऐसा लड़का चाहते हैं जो शारीरिक स्तर पर फिल्मी हीरो, मानसिक स्तर पर प्रकांड पंडित तथा आर्थिक स्तर पर टाटाबाटा हो. भूल जाइए, ऐसा लड़का नहीं मिलना.  किसी को आप मोटा कह कर, किसी को गरीब खानदान का बता कर, किसी को मंदबुद्धि करार दे कर अस्वीकार कर देते हैं. आखिर आप चाहते क्या हैं?’’ मामाजी उत्तेजित हो गए.

मैं क्या चाहता हूं? पलभर को मैं चुप हो, अपने बिखरे सपने समेट, कुछ कहना ही चाहता था कि मामाजी ने अपना धाराप्रवाह भाषण शुरू कर दिया,

‘‘3-4 रिश्ते मैं ने बताए, तुम्हें एक भी पसंद नहीं आया. मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा. अभी तुम लड़कों को अस्वीकार कर रहे हो, बाद में लड़के सुमन को अस्वीकार करना शुरू कर देंगे. तब देखना, तुम आज की लापरवाही के लिए पछताओगे.’’

‘‘भैया, मैं बताऊं, यह क्या चाहते हैं?’’ शांति ने पहली बार मंच पर प्रवेश किया.

मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से शांति को ताका और विद्रूप स्वर में बोला, ‘‘फरमाइए, हमारे मन की बात आप नहीं तो और क्या पड़ोसिन जानेगी.’’

शांति मुसकराईर्. उस पर मेरे व्यंग्य का कोईर्र्र्र् प्रभाव नहीं पड़ा. वह तटस्थ स्वर में बोली, ‘‘भैया, इन्हें विदेशी वस्तुओं  की सनक सवार है. घर में भरे सामान को देख रहे हो. टीवी, वीसीआर, टू इन वन, कैमरा, प्रेस…सभी कुछ विदेशी है. यहां तक कि नया देसी फ्रिज खरीदने के बजाय इन्होंने एक विदेशी के घर से, इतवार को अखबार में प्रकाशित विज्ञापन के माध्यम से पुराना विदेशी फ्रिज खरीद लिया.’’

‘‘भई, बात सुमन की शादी की हो रही थी. यह घर का सामान बीच में कहां से आ गया?’’ मामाजी ने उलझ कर पूछा.

‘‘भैया, आम भारतवासियों की तरह इन्हें विदेशी वस्तुओं की ललक है. इन की सनक घरेलू वस्तुओं तक ही सीमित नहीं.  यह तो विदेशी दामाद का सपना देखते रहते हैं,’’ शांति ने मेरे अंतर्मन के चोर को निर्वस्त्र कर दिया.

इस महत्त्वाकांक्षा को नकारने की मैं ने कोई आवश्यकता महसूस नहीं की. मैं ने पूरे आत्मविश्वास के साथ शांति के द्वारा किए रहस्योद्घाटन का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘इस सपने में क्या खराबी है? आज अपने हर दूसरे मित्र या रिश्तेदार की बेटी लंदन, कनाडा, अमेरिका या आस्ट्रेलिया में है. जिसे देखो वही अपनी बेटीदामाद से मिलने विदेश जा रहा है औैर जहाज भर कर विदेशी माल भारत ला रहा है,’’ मैं ने गंभीर हो कर कहा.

‘‘विदेश में काम कर रहे लड़कों के बारे में कई बार बहुत बड़ा धोखा हो जाता है, जीजाजी,’’ मामाजी ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘मामाजी, ‘दूध के जले छाछ फूंकफूंक कर पीते हैं’ वाली कहावत में मैं विश्वास नहीं करता. इधर भारत में क्या रखा है सिवा गंदगी, बेईमानी, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के. विदेश में काम करो तो 50-60 हजार रुपए महीना फटकार लो. जिंदगी की तमाम भौतिक सुखसुविधाएं वहां उपलब्ध हैं. भारत तो एक विशाल- काय सूअरबाड़ा बन गया है.’’

मेरी इस अतिरंजित प्रतिक्रिया को सुन कर  मामाजी ने हथियार डाल दिए. एक दीर्घनिश्वास छोड़ वह बोले, ‘‘ठीक है, विवाह तो वहां तय होते हैं.’’

मामाजी की उंगली छत की ओर उठी हुई थी. मैं मुसकराया. मैं ने भी अपने पक्ष को थोड़ा बदल हलके स्वर में कहा, ‘‘मामाजी, मैं तो यों ही मजाक कर रहा था. सच कहूं, मैं ने सुमन को इस दीवाली तक निकालने का पक्का फैसला कर लिया है.’’

‘‘कब इंपोर्ट कर रहे हो एक अदद दामाद?’’ मामाजी ने व्यंग्य कसा.

‘‘इंपोर्टेड नहीं, देसी है. दफ्तर में मेरे नीचे काम करता है. बड़ा स्मार्ट और कुशाग्र  बुद्धि वाला है. लगता तो किसी अच्छे परिवार का है. है कंप्यूटर इंजीनियर, पर आ गया है प्रशासकीय सेवा में. कहता रहता है, मैं तो इस सेवा से त्यागपत्र दे कर अमेरिका चला जाऊंगा,’’ मैं ने रहस्योद््घाटन कर दिया.

शांति और मामाजी की आंखों में चमक आ गई.

दरवाजे पर दस्तक हुई तो मेरी तंद्रा टूट गई. मैं घर नहीं दफ्तर के कमरे में अकेला बैठा था.

दरवाजा खुला. सुखद आश्चर्य, मैं जिस की कल्पना में खोया हुआ था, वह अंदर दाखिल हो रहा था. मैं उमंग और उल्लास में भर कर बोला, ‘‘आओ कुमार, तुम्हारी बड़ी उम्र है. अभी मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था और तुम आ गए.’’

कुमार मुसकराया. कुरसी पर बैठते हुए बोला, ‘‘हुक्म कीजिए, सर. कैसे याद कर रहे थे?’’

मैं ने सोचा घुमाफिरा कर कहने की अपेक्षा सीधा वार करना ठीक रहेगा. मैं ने संक्षेप में अपनी इच्छा कुमार के समक्ष व्यक्त कर दी.

कुमार फिर मुसकराया और अंगरेजी में बोला, ‘‘साहब, मैं केवल बल्लेबाज ही नहीं हूं, मैं ने रन भी बटोरे हैं. एक शतक अपने खाते में है, साहब.’’

मैं चकरा गया. आकाश से पाताल में लुढ़क गया. तो कुमार अविवाहित नहीं,  विवाहित है. उस की शादी ही नहीं हुई है, एक बच्चा भी हो गया है. क्रिकेट की भाषा की शालीनता की ओट में उस ने मेरी महत्त्वाकांक्षा की धज्जियां उड़ा दीं. मैं अपने टूटे सपने की त्रासदी को शायद झेल नहीं पाया. वह उजागर हो गई.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...