फिर तो दीपक के साथ हमारी भी शामत आ गई. दादीजी गुस्से से तमतमाते हुए बोलीं, ‘‘बहू, इस गंदी नाली के कीड़े को हमेशा के लिए इस घर से निकाल दो. इस ने सारे घर को ‘अपवित्र’ कर दिया है. इतना मारो इस कुत्ते को कि दोबारा कभी इधर मुंह भी न करे... नहीं तो मैं ही यहां से कहीं दूर चली जाऊंगी.’’
मां का पारा भी सातवें आसमान को छूने लगा था. उन्होंने शहतूत की छड़ी ले कर पहले हम दोनों भाईबहन को पीटा. फिर जोरजोर से दीपक को पीटने लगीं. वह रोया, गिड़गिड़ाया और दया की भीख मांगता रहा, परंतु उस की एक न सुनी गई.
मां उसे खींच कर बाहर ले गई और बोलीं, ‘‘भाग जा यहां से, नहीं तो तुझे जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’ मां का ऐसा चेहरा मैं ने पहली बार देखा था. दीपक चिल्लाता हुआ दौड़ कर गेट से बाहर भाग गया था. उस की किताबकापियां, कपड़े और दूसरे सामान कमरे में ही रह गए थे.
पिताजी चुपचाप देखते रहे और चाह कर भी मां को रोक न सके. उस के बाद दीपक कभी भी हमारे घर लौट कर नहीं आया. इतने सालों बाद दीपक को अब मैं अफसर की कुरसी पर बैठे हुए देख रही थी. मुझे बहुत खुशी हो रही थी.
तभी वह लौट आया और मुझे खामोश देख कर बोला, ‘‘आशाजी, आप चुप क्यों हो गई हैं? और सुनाओ, क्या हालचाल हैं? चाचाजी और चाचीजी कैसे हैं?’’ ‘‘सब ठीक हैं,’’ मैं उस से नजर नहीं मिला पाई. इसी बीच चपरासी चाय और बिसकुट ले आया था. हम चाय पीने लगे थे.
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