रामबन, कश्मीर घाटी का एक संवेदनशील जिला. ऊंचे पहाड़, दुर्गम रास्ते और गहरी खाइयों के बीच स्थित है यह छोटा सा इलाका. भोलेभाले ग्रामीण जो मौसम की मार सहने के तो आदी थे मगर हाल ही में हुईं आतंकी वारदातों की मार के उतने आदी नहीं थे. मन मार कर इस को भी झेलने के अलावा उन के पास कोई चारा न था. सभी अच्छे दिनों की कल्पना को मन ही मन संजो रहे थे इस यकीन के साथ कि दुखों की रात की कभी तो खुशियोंभरी सुबह होगी.
पूरे इलाके में रामबन में ही एक सरकारी स्कूल, छोटा सा डाकखाना और एक अस्पताल था. राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़े होने के चलते कभीकभी इन सेवाओं की अहमियत बढ़ जाती थी. हालांकि स्कूल था मगर शिक्षक नदारद थे, अस्पताल था मगर सुविधाएं ना के बराबर थीं, डाकखाना था जो डाकबाबू के रहमोकरम पर चल रहा था. मगर फिर भी उन की इमारतें उन के होने का सुबूत दे रही थीं.
उस दिन रामबन और आसपास के जिलों में मंत्रीजी का दौरा था. पूरा प्रशासन उन के स्वागत में एकपैर पर खड़ा था. सुरक्षाकर्मियों की नींद उड़ी हुई थी. आएदिन आतंकी घटनाओं ने वैसे भी सुरक्षा एजेंसियों की नाक में दम किया हुआ था, उस पर मंत्रीजी को अपने लावलशकर के साथ इलाके का दौरा करना उन के लिए किसी आपदा से कम न था. अस्पताल वालों को भी मुस्तैद रहने की हिदायत थी और सुरक्षाकर्मियों का वहां भी जमावड़ा था.
मैडिकल डाइरैक्टर अस्पताल के अफसर डाक्टर सारांश को समझा रहे थे कि मंत्रीजी का किस तरह से स्वागत करना है. डाइरैक्टर साहब कहे जा रहे थे और डा. सारांश हैरानी से उन्हें ताकते जा रहे थे.
‘‘सर, यह काम हमारा नहीं है, हमारा काम है मरीजों की तीमारदारी करना, उन का इलाज करना न कि आनेजाने वाले मंत्रियों की सेवा करना,’’ डा. सारांश ने अपनी बात कही तो मैडिकल डाइरैक्टर ने उन्हें समझाइश दी, ‘‘मैं जानता हूं डा. सारांश, मगर करना पड़ता है. यह हमारे सिस्टम का ही हिस्सा है.’’
‘‘तो बदल क्यों नहीं देते यह सिस्टम, सालों से चल रहे ऐसे सिस्टम को तिलांजलि क्यों नहीं दे देते हम,’’ डा. सारांश यह कहते हुए अपने कक्ष की तरफ बढ़ गए.
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इधर जहां सारा प्र्रशासन मंत्रीजी की फिक्र में घबराया हुआ सा था, वहीं महज कुछ ही मील दूर सेना की एक टुकड़ी औपरेशन विनाश की तैयारी में थी. फोनलाइन पर सीमापार से हो रही आतंकियों की बातचीत को सुना गया था. सूचना थी कि पाकिस्तान ने आतंकवादियों की एक टोली भारत की सीमा में ढकेल दी थी और आतंकियों ने रामबन के जंगलों में अपना आशियाना बनाया हुआ था. आतंकी पूरे असलहों और साजोसामान से लैस थे. वे एक बड़ी घटना को अंजाम देने की फिराक में थे.
खबर पक्की थी. सो, कमांडिंग अफसर ने कोई जोखिम नहीं लिया और अलगअलग टोलियां बना कर बीहड़ की अलगअलग दिशाओं में भेज दीं. उन्हीं में से एक टोली का नेतृत्व कर रहे थे मेजर बलदेव राज. मेजर बलदेव एक अच्छे खानदान से थे. उन के सारे भाईबहन विदेशों में अच्छी नौकरियों और बिजनैस से जुड़े थे. वतनपरस्ती के जज्बे ने उन्हें विदेशी शानोशौकत के बजाय फौज में पहुंचा दिया था जहां उन की गिनती जांबाज अफसरों में होती थी. लिहाजा, पाकिस्तान से आए 4 आतंकवादियों को पकड़ने के लिए उन्हें खास जिम्मेदारी दी गई थी.
पीठ पर वजनी साजोसामान, हाथ में बंदूक और सिर पर भारीभरकम हैलमेट पहने मेजर बलदेव के नेतृत्व में उन की टोली जंगल के चप्पेचप्पे की छानबीन कर रही थी. खबर पक्की थी कि आतंकवादी उन्हीं जंगलों में छिपे थे, इसलिए मेजर बलदेव गुप्त भाषा में अपने सिपाहियों को बारबार आगाह कर रहे थे. शाम का साया धीरेधीरे बादलों पर छा रहा था. तभी पत्तों की सरसराहट हुई और जवानों को आभास हो गया कि आतंकवादी आसपास ही थे.
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धीरेधीरे जवान उस ओर बढ़ने लगे जहां से सरसराहट हो रही थी. तभी अचानक दूसरी दिशा से अंधाधुंध फायरिंग शुरू हो गई. मेजर बलदेव को ऐसे ही किसी हमले की आशंका थी, लिहाजा, उन की टोली के कुछ सिपाहियों का रुख दूसरी ओर था.
अगले चंद मिनट आग के गोले, धुएं और शोर के बीच बीत गए. दूसरी ओर से फायरिंग बंद हो गई तो मेजर बलदेव समझ गए कि दुश्मन का खात्मा हो गया है. अगले ही पल धुआं छटा और अपने साथियों को करीब पा कर उन्होंने राहत की सांस ली. ‘‘सर, चारों आतंकवादी मारे गए हैं, आइए उन की लाशें देखिए और हैडक्वार्टर को इत्तला कर दीजिए.’’
मेजर बलदेव ने उठने की कोशिश की मगर उठ नहीं पाए. उन की दायीं टांग लहूलुहान थी, होंठों पर दर्द था मगर आंखों में विजय की मुसकान थी. उन्होंने बड़ी मुश्किल से हैडक्वार्टर को मैसेज भिजवाया और एक बार फिर ब्रिगेडियर साहब से भूरिभूरि प्रशंसा पाई.