लेखक- कृष्णकांत
पद्मजा उस दिन घर पर अकेली गुमसुम बैठी थीं. पति संपत कैंप पर थे तो बेटा उच्च शिक्षा के लिए पड़ोसी प्रदेश में चला गया था और बेटी समीरा शादी कर के अपने ससुराल चली गई. बेटी के रहते पद्मजा को कभी कोई तकलीफ महसूस नहीं हुई. वह बड़ी हो जाने के बाद भी छोटी बच्ची की तरह मां का पल्लू पकड़े, पीछेपीछे घूमती रहती थी. एक अच्छी सहेली की तरह वह घरेलू कामों में पद्मजा का साथ देती थी. यहां तक कि वह एक सयानी लड़की की तरह मां को यह समझाती रहती थी कि किस मौके पर कौन सी साड़ी पहननी है और किस साड़ी पर कौन से गहने अच्छे लगते हैं.
ससुराल जाने के बाद समीरा अपनी सूक्तियां पत्रों द्वारा भेजती रहती जिन्हें पढ़ते समय पद्मजा को ऐसा लगता मानो बेटी सामने ही खड़ी हो.
उस दिन पद्मजा बड़ी बेचैनी से डाकिए की राह देख रही थीं और मन में सोच रही थीं कि जाने क्यों इस बार समीरा को चिट्ठी लिखने में इतनी देर हो गई है. इस बार क्या लिखेगी वह चिट्ठी में? क्या वह मां बन जाने की खुशखबरी तो नहीं देगी? वैसी खबर की गंध मिल जाए तो मैं अगले क्षण ही वहां साड़ी, फल, फूलों के साथ पहुंच जाऊंगी.
तभी डाकिया आया और उन के हाथ में एक चिट्ठी दे गया. पद्मजा की उत्सुकता बढ़ गई.
चिट्ठी खोल कर देखा तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. कारण, चिट्ठी में केवल 4 ही पंक्तियां लिखी थीं. उन्होंने उन पंक्तियों पर तुरंत नजर दौड़ाई.
‘‘मां,
तुम ने कई बार मेरी घरगृहस्थी के बारे में सवाल किया, लेकिन मैं इसलिए कुछ भी नहीं बोली कि अगर तुम्हें पता चल जाए तो तुम बरदाश्त नहीं कर पाओगी. मां, हम धोखा खा चुके हैं. वह शराबी हैं, जब भी पी कर घर आते हैं, मुझ से झगड़ा करते हैं. कल रात उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठाया. अब मैं इस नरक में एक पल भी नहीं रह पाऊंगी. इसलिए सोचा कि इस दुनिया से विदा लेने से पहले तुम्हारे सामने अपना दिल खोलूं, तुम से भी आज्ञा ले लूं. मुझे माफ करो, मां. यह मेरी आखिरी चिट्ठी है. मैं हमेशाहमेशा के लिए चली जा रही हूं, दूर…इस दुनिया से बहुत दूर.
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-समीरा.’’
पद्मजा को लगा मानो उन के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. ऐसा लगा मानो एक भूचाल आया और वह मलबे के नीचे धंसती जा रही हैं.
‘क्या यह सच है? उन के दिल ने खुद से सवाल पूछा, क्योंकि ‘समीरा के लिए जब यह रिश्ता पक्का हुआ था तो वह कितनी खुश थी. समीरा तो फूली न समाई. लेकिन ऐसा कैसे हो गया?’
अतीत की बातें सोच कर पद्मजा का मन बोझिल हो गया. उन की आंखें डबडबाने लगीं.
वह फिर सोचने लगीं कि इस वक्त घर पर मैं अकेली हूं. अब कैसे जाऊं? ट्रेन या बस से जाने पर तो कम से कम 5-6 घंटे लग ही जाएंगे.’ तभी उन के दिमाग में एक उपाय कौंध गया और तुरंत उन्होंने अपने पति के मित्र केशवराव का नंबर मिलाया.
‘‘भैया, मुझे फौरन आप की गाड़ी चाहिए. मुझे अभीअभी खबर मिली है कि समीरा की हालत बहुत खराब है. आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी,’’
केशवराव ने तुरंत ड्राइवर सहित अपनी गाड़ी भेज दी. गाड़ी में बैठते ही पद्मजा ने ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, जरा गाड़ी तेज चलाना.’’
गाड़ी नेशनल हाईवे पर दौड़ रही थी. पीछे वाली सीट पर बैठी पद्मजा का मन बेचैन था. रहरह कर उन्हें अपनी बेटी समीरा की लाश आंखों के सामने प्रत्यक्ष सी होने लगती थी.
कार की रफ्तार के साथ पद्मजा के विचार भी दौड़ रहे थे. उन का अतीत चलचित्र की भांति आंखों के सामने साकार होने लगा.
‘पद्मजा,’ तेरे मुंह में घीशक्कर. ले… लड़के वालों से चिट्ठी मिल गई. उन को तू पसंद आ गई,’ सावित्रम्मा का मन खुशी से नाच उठा.
‘मां, मैं कई बार तुम से कह चुकी हूं कि यह रिश्ता मुझे पसंद नहीं है. मैं ने शशिधर से प्यार किया है. मैं बस, उसी से शादी करूंगी. वरना…’ पद्मजा की आवाज में दृढ़ता थी.
‘चुप, यह क्या बक रही है तू. अगर कोई सुन लेता तो एक तो हम यह रिश्ता खो बैठेंगे और दूसरे तू जिंदगी भर कुंआरी बैठी रहेगी. मुझे सब पता है. शशिधर से तेरी जोड़ी नहीं बनेगी. वह तेरे लायक नहीं. हम तेरे मांबाप हैं. तुझ से ज्यादा हमें तेरी भलाई की चिंता है. हम तेरे दुश्मन थोड़े ही हैं,’ कहती हुई मां सावित्री गुस्से में वहां से चली गईं.
मां की बातों का असर पद्मजा पर बिलकुल नहीं पड़ा, उलटे उस का क्रोध दोगुना हो गया. वह सोचने लगी कि वह मां मां नहीं और वह बाप बाप नहीं जो अपनी संतान की पसंद, नापसंद को न समझे.
वैसे पद्मजा शुरू से ही तुनकमिजाज थी. उस में जोश ज्यादा था. जब भी कोई ऐसी घटना हो जाती थी जो उस के मन के खिलाफ हो, तो तुरंत वह आपे से बाहर हो जाती. वह अगले पल अपने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा बंद कर देती और पिता की नींद की गोलियां मुट्ठी भर ले कर निगल भी लेती थी.
सावित्रम्मा बेटी पद्मजा का स्वभाव अच्छी तरह से जानती थीं. इस से पहले भी एक बार मेडिकल में सीट न मिलने पर उस ने ब्लेड से अपनी एक नस काट दी थी. नतीजा यह हुआ कि उस की जान आफत में पड़ गई. इसी वजह से, सावित्रम्मा अपनी बेटी के व्यवहार पर नजर गड़ाए बैठी थीं. बेटी के अपने कमरे में घुसते ही उस ने यह खबर पति के कान में डाल दी. पतिपत्नी दोनों के बारबार बुलाने पर भी वह बाहर न आई. लाचार हो कर पतिपत्नी ने दरवाजा तोड़ दिया और पद्मजा को अस्पताल में दाखिल कर दिया.
‘पद्मा, यह तुम क्या कह रही हो? तुम्हारी मूर्खता रोजरोज बढ़ती जा रही है. पढ़ीलिखी हो कर तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए.’ संपत बड़ी बेचैनी से पत्नी पद्मजा से बोला.
पद्मजा एकदम बिगड़ गई.
‘हां…पढ़ीलिखी होने की वजह से ही मैं आप से यह पूछ रही हूं. मेरे साथ अन्याय हो तो मैं क्यों बरदाश्त करूं? और कैसे बरदाश्त करूं? मैं पुराणयुग की भोली अबला थोड़े ही हूं कि आप अपनी मनमानी करते रहें, बाहर गुलछर्रे उड़ाएं, ऐश करें और मैं चुपचाप देखती रहूं. आप कभी यह नहीं समझना कि मैं सीतासावित्री के जमाने की हूं और आप की हर भूल को माफ कर दूंगी. आखिर मैं ने क्या भूल की है? क्या अपने पति पर सिर्फ अपना ही हक मानना अपराध है? दूसरी महिलाओं से नाता जोड़ना, उन के चारों ओर चक्कर काटना तो क्या मैं चुपचाप देखती रहूं.’
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‘वैसा पूछना गलत नहीं हो सकता है लेकिन मैं ने वैसा किया कब था? यह सब तेरा वहम है. तेरे दिमाग पर शक का भूत सवार है. वह उठतेबैठते, किसी के साथ मिलते, बात करते मेरा पीछा कर रहा है. तेरी राय में मेरी कोई लेडी स्टेनो नहीं रहनी चाहिए. मेरे दोस्तों की बीवियों से भी मुझे बात नहीं करनी चाहिए… है न.’
‘ऐसा मैं ने थोड़े ही कहा है, जो कुछ मैं ने अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना वही तो बता रही हूं. सचाई क्या है, मैं जानती हूं. आप के इस तरह चिल्लाने से सचाई दब नहीं सकती.’