सुभद्रा देवी अकेली बैठी कुछ सोच रही थीं कि अचानक सुमि की आवाज आई, ‘‘बूआजी.’’
पलट कर देखा तो सुमि ही खड़ी थी. अपने दोनों हाथ पीछे किए मुसकरा रही थी.
‘‘क्या है री, बड़ी खुश नजर आ रही है?’’
‘‘हां, बूआजी, मुंह मीठा कराइए तो एक चीज दूं.’’
‘‘अब बोल भी, पहेलियां न बुझा.’’
‘‘ऊंह, पहले मिठाई,’’ सुमि मचल उठी.
‘‘तो जा, फ्रिज खोल कर निकाल ले, गुलाबजामुन धरे हैं.’’
‘‘ऐसे नहीं, अपने हाथ से खिलाइए, बूआजी,’’ 10 वर्ष की सुमि उम्र के हिसाब से कुछ अधिक ही चंचल थी.
‘‘अब तू ऐसे नहीं मानेगी,’’ वे उठने लगीं तो सुमि ने खिलखिलाते हुए एक भारी सा लिफाफा बढ़ा दिया उन की ओर, ‘‘यह लीजिए, बूआजी. अमेरिका से आया है, जरूर विकी के फोटो होंगे.’’
उन्होंने लपक कर लिफाफा ले लिया, ‘‘बड़ी शरारती हो गई है तू. लगता है, अब तेरी मां से शिकायत करनी पड़ेगी.’’
‘‘मैं गुलाबजामुन ले लूं?’’
‘‘हांहां, तेरे लिए ही तो मंगवा कर रखे हैं,’’ उन्होंने जल्दीजल्दी लिफाफा खोलते हुए कहा.
उन के एकाकी जीवन में एक सुमि ही तो थी जो जबतब आ कर हंसी बिखेर जाती. मकान का निचला हिस्सा उन्होंने किराए पर उठा दिया था, अपने ही कालेज की एक लेक्चरर उमा को. सुमि उन्हीं की बेटी थी. दोनों पतिपत्नी उन का बहुत खयाल रखते थे. उमा के पति तो उन्हें अपनी बड़ी बहन की तरह मानते थे और ‘दीदी’ कहा करते थे. इसी नाते सुमि उन्हें बूआ कहा करती थी.
लिफाफे में विकी के ही फोटो थे. वह अब चलने लगा था. ट्राइसाइकिल पर बैठ कर हाथ हिला रहा था. पार्क में फूलों के बीच खड़ा विकी बहुत सुंदर लग रहा था. उस के जन्म के समय जब वे न्यूयार्क गई थीं, हर घड़ी उसे छाती से लगाए रहतीं. लिंडा अकसर शिकायत करती, ‘आप इस की आदतें बिगाड़ देंगी. यहां बच्चे को गोद में लेने को समय ही किस के पास है? हम काम करने वाले लोग…बच्चे को गोद में ले कर बैठें तो काम कैसे चलेगा भला?’
विक्रम का भी यही कहना था, ‘हां, मां, लिंडा ठीक कहती है. तुम उस की आदतें मत खराब करो. तुम तो कुछ दिनों बाद चली जाओगी, फिर कौन संभालेगा इसे? झूले में डाल दो, पड़ा झूलता रहेगा.’ विक्रम खुद ही विकी को झूले में डाल कर चाबी भर देता, ‘अब झूलने दो इसे, ऐसे ही सो जाएगा.’
गोलमटोल विकी को देख कर उन का मन करता कि उसे हर घड़ी गोद में ले कर निहारती रहें, फिर जाने कब देखने को मिले. जन्म के दूसरे दिन जब नामकरण की समस्या उठी तो विक्रम ने कहा, ‘नाम तो अम्मा तुम ही रखो, कोई सुंदर सा.’
और तब खूब सोचसमझ कर उन्होंने नाम चुना था, ‘विवेक.’ ‘विवेक बन कर हमेशा तुम लोगों को राह दिखाता रहेगा.’
विक्रम हंसने लगा था, ‘खूब कहा मां, हमारे बीच विवेक की ही तो कमी है. जबतब बिना बात के ही ठन जाती है आपस में.’
‘और क्या, अब इस तरह लड़नाझगड़ना बंद करो. वरना बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा.’
पूरे 5 वर्ष हो गए थे विक्रम का विवाह हुए. इंजीनियरिंग की डिगरी लेने के बाद अमेरिका गया एमटेक करने तो वहीं रह गया.
पत्र में लिखा था, ‘यहां अच्छी नौकरी मिल गई है, मां. यहां रह कर मैं हर साल भारत आ सकता हूं, तुम से मिलने के लिए. वहां की कमाई में क्या रखा है. घुटघुट कर जीना, जरूरी चीजों के लिए भी तरसते रहना.’
उस का पत्र पढ़ कर जवाब में सुभद्रा देवी लिख नहीं सकीं कि हां बेटे, वहां हर बात का आराम तो है पर अपना देश अपना ही होता है.
उन्हें लगा कि आजकल सिद्धांत की बातें भला कौन सुनता है. इस भौतिकवादी युग में तो बस सब को सिर्फ पैसा चाहिए, आराम और सुख चाहिए. देश के लिए प्यार और कुरबानी तो गए जमाने की बातें हो गईं.