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लेखिका- डा. उषा यादव
राकेश हंस कर कहा करता था, ‘तुम ने इसे बहुत सिर चढ़ा रखा है, अम्मां. देखता हूं कि इस के सामने मेरी कदर घट गई है. यह पराए घर की लड़की तुम्हारी सगी हो गई है और मैं सौतेला हो गया हूं. इस चालाक बिल्ली ने सीधे मेरी दूध की हांडी पर मुंह मारा है,’ सुन कर वह भी हंस पड़ती थीं.
उन दिनों राकेश की आर्थिक स्थिति साधारण थी. घर में एक भी नौकर न था. अम्मां बहू की देखभाल करतीं, नवजात बच्ची को संभालती और घर की सारसंभाल करतीं. एक पांव बहू के कमरे में रहता था और एक रसोई में.
इन महारानी को तो बच्ची को झबला पहनाना तक नहीं आता था. बच्ची कपड़े भिगोती तो लेटेलेटे गुहार लगाती थीं, ‘अम्मांजी, जल्दी आना. अपनी नटखट पोती की कारस्तानी देखना.’
अब भी वही अम्मां थीं और वही बहूरानी. बदलाव आया था तो सिर्फ स्थितियों में. बहू अब हर महीने हजारों रुपए कमाने वाले अफसर की बीवी थी और अम्मां बूढ़ी व लाचार होने के कारण उस के किसी काम की नहीं रहीं. तभी तो घर के कबाड़ की तरह कोने में पटक दी गईं. अगर अब भी उन के बदन में अचार, मुरब्बे और बडि़यां बनाने की ताकत होती तो यह बहू अपनी मिसरी घुली आवाज में ‘अम्मांअम्मां’ पुकारते नहीं थकती.
अशक्त प्राणी को दया कर के परसी हुई थाली दे देती थी यही क्या कम था? पर बूढ़े आदमी की पेटभर रोटी के अलावा भी कोई जरूरत होती है, इसे बहू क्यों नहीं समझती? जिस अकेलेपन को भरने के लिए गांव छोड़ा, वही अकेलापन यहां भी कुंडली मार कर उन्हें अपनी गिरफ्त में लिए हुए था. इस वेदना को कौन समझता?
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अम्मां ठंडी सांस भर कर पलंग पर लेट जातीं. अपनेआप उन के कमरे में कोई नहीं आता. यदि वह उठ कर सब के बीच पहुंचतीं तो एकएक कर के सब खिसकने लगते. यों आपस में बहूबच्चे हंसते, कहकहे लगाते, पर अम्मां के आते ही सब को कोई न कोई काम जरूर याद आ जाता. सब के चले जाने पर वह अचकचाई हुई कुछ देर खड़ी रहतीं, फिर खिसिया कर अपने कमरे की तरफ चल पड़तीं.
पांव में जहर फैल जाने पर आदमी उसे काट कर फेंक देना पसंद करता है, लेकिन अम्मां तो बहूबच्चों के उल्लासभरे जीवन का जहर न थीं फिर क्यों घर वालों ने उन्हें विषाक्त अंग की भांति अलग कर दिया है, इसे वह समझ नहीं पाती थीं. वह इतनी सीधी और सौम्य थीं कि उन से किसी को शिकायत हो ही नहीं सकती थी.
बहू आधीआधी रात को पार्टियों से लौटती. तनु और सोनू अजीबोगरीब पोशाकें पहने हुए बाजीगर के बंदर की तरह भटकते. अम्मां कभी किसी को नहीं टोकतीं. फिर भी सब उन की निगाहों से बचना चाहते थे. हर एक की दिली ख्वाहिश यही रहती थी कि वह अपने कमरे से बाहर न निकलें. खानेपीने, नहानेधोने और सोने की सारी व्यवस्थाएं जब कमरे में कर दी गई हैं तो अम्मां को बाहर निकलने की क्या आवश्यकता है?
एक दिन अकेले बैठेबैठे जी बहुत ऊबा तो वह कमरे में झाड़ ू लगाने के लिए आए नौकर से इधरउधर की बातें पूछने लगीं, क्या नाम है? कहां घर है? कितने भाईबहन हैं? बाप क्या करता है?
उन का यह काम कितना निंदनीय था, इस का आभास कुछ देर बाद ही हो गया. बहू पास वाले कमरे में आ कर, ऊंची आवाज में उन्हें सुनाते हुए बोलीं, ‘‘जैसा स्तर है वैसे ही लोगों के साथ बातें करेंगी. नौकर के अलावा और कोई नहीं मिला उन्हें बोलने के लिए.’’
उत्तर में तनु की जहरीली हंसी गूंज गई. वह अपनी कुरसी पर पत्थर की तरह जड़ बैठी रह गई थीं.
गांव में भी अम्मां अकेली थीं, पर वहां यह सांत्वना थी कि सब के बीच पहुंचने पर एकाकीपन की यंत्रणा से मुक्ति मिल जाएगी. यहां आ कर वह निराशा के अथाह समुद्र में डूब गई थीं. रेगिस्तान में प्यासे मर जाना उतनी पीड़ा नहीं देता, जितना कि नदी किनारे प्यास से दम तोड़ देना.
गली का घर होता, सड़क के किनारे बना मकान होता तो कम से कम खिड़की से झांकने पर राह चलते आदमियों के चेहरे नजर आते. यहां अम्मां किसी सजायाफ्ता कैदी की तरह खिड़की की सलाखों के नजदीक खड़ी होतीं तो उन्हें या तो ऊंचे दरख्त नजर आते या फूलों से लदी क्यारियां. फिर भी वह खिड़की के पास कुरसी डाले बैठी रहती थीं. कम से कम ठंडी हवा के झोंके तो मिलते थे.
बैठेबैठे कुछ देर को आंखें झपक जातीं तो लगता जैसे बाबूजी पास खड़े कह रहे हैं, ‘सावित्री, उठोगी नहीं? देखो, कितनी धूप चढ़ आई है? चायपानी का वक्त निकला जा रहा है.’ चौंक कर आंखें खोलते ही सपने की निस्सारता जाहिर हो जाती. बाबूजी अब कहां, याद आते ही मन गहरी पीड़ा से भर उठता.
झपकी लेते हुए अम्मां खीझ जातीं, ‘ओह, यह बाबूजी इतना शोर क्यों कर रहे हैं? चीखचीख कर आसमान सिर पर उठाए ले रहे हैं. क्या कहा? राकेश ने दवात की स्याही फैला दी. अरे, बच्चा है. फैल गई होगी स्याही. उस के लिए क्या बच्चे को डांटते ही जाओगे? बस भी करो न.’
चौंक कर जाग उठीं अम्मां. बाबूजी की नहीं, यह तो खिड़की के नीचे भूंकते कुत्तों की आवाज है. वह हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुईं और ‘हटहट’ कर के कुत्तों को भगाने लगीं. बुढ़ापे के कारण नजर कमजोर थी. फिर भी इतना मालूम पड़ गया कि किसी कमजोर और मरियल कुत्ते को 3-4 ताकतवर कुत्ते सता रहे हैं. शायद धोखे से फाटक खुला ही रह गया होगा, तभी लड़ते हुए भीतर घुस आए थे.
इधरउधर देख कर अम्मां ने मच्छरदानी का डंडा निकाला और उसे खिड़की की सलाखों से बाहर निकाल कर भूंकते हुए कुत्तों को धमकाने लगीं. काफी कोशिश के बाद वह सूखे मरियल कुत्ते को आतताइयों के शिकंजे से बचा सकीं.
हमलावरों के चले जाने पर चोट खाया हुआ कमजोर कुत्ता वहीं हांफता हुआ बैठ गया और कातर निगाहों से अम्मां की ओर देखने लगा. सब ओर से दुरदुराया हुआ वह कुत्ता उन से शरण की भीख मांग रहा था. इस गंदे, घिनौने, जख्मी और मरियल कुत्ते पर अनायास ही अम्मां सदय हो उठीं. वह खुद क्या उस जैसी नहीं थीं? बूढ़ी, कमजोर, उपेक्षिता और सर्वथा एकाकी. तन चाहे रोगी न था, पर मन क्या कम जख्मी और लहूलुहान था?
दोपहर को जब नौकर खाना लाया तो अम्मां ने बड़े प्यार से उस घायल कुत्ते को 2 रोटियां खिला दीं. भावावेश के न जाने किन क्षणों में नामकरण भी कर दिया ‘झबरा.’ झड़े हुए रोएं वाले कुत्ते के लिए यह नाम उतना ही बेमेल था, जितना किसी भिखारी का करोड़ीमल. पर अम्मां को इस असमानता की चिंता न थी. उन की निगाह एक बार भी कुत्ते की बदसूरती पर नहीं गई.
अम्मां अब काफी संतुष्ट थीं, प्रसन्न थीं. उन्हें लगता, जैसे अब वह अकेली नहीं हैं. झबरा उन के साथ है. झबरा को उन की जरूरत थी. दोएक दिन उन्हें उस के भाग जाने की चिंता बनी रही. पर धीरेधीरे यह आशंका भी मिट गई. झबरा के स्नेह दान ने अम्मां के बुझते हुए जीवन दीप की लौ में नई जान डाल दी थी.
पर घर वालों को उन का यह छोटा सा सुख भी गवारा नहीं हुआ.
एक दिन बहू तेज चाल से चलती हुई कमरे में आई और खिड़की के पास जा कर नाक सिकोड़ते हुए बोली, ‘‘छि:, कितना गंदा कुत्ता है. न जाने कहां से आ गया है. चौकीदार को डांटना पड़ेगा. उस ने इसे भगाया क्यों नहीं?’’
‘‘अम्मांजी का पालतू कुत्ता है जी. अब तो चुपड़ी रोटी खाखा कर मोटा हो गया है,’’ पीछे खड़े हुए नौकर ने पीले गंदे दांतों की नुमाइश दिखा दी.
‘‘बेशर्म, सड़क के लावारिस कुत्ते को हमारा पालतू कुत्ता बताता है. हमें पालना ही होगा तो कोई बढि़या विदेशी नस्ल का कुत्ता पालेंगे. ऐसे सड़कछाप कुत्ते पर तो हम थूकते भी नहीं हैं,’’ बहू रुष्ट स्वर में बोली.
अगले ही पल उस ने नौकर को नादिरशाही हुक्म दिया, ‘‘देखो, अंधेरा होने पर इस कुत्ते को कहीं दूर फेंक आना. इसे बोरी में बंद कर के ऐसी जगह फेंकना, जहां से दोबारा न आ सके.’’
बहू जिस अफसराना अंदाज से आई थी वैसे ही वापस चली गई.
अम्मां ने बड़े असहाय भाव से खिड़की की ओर देखा. न जाने क्यों उन का जी डूबने लगा.
पिछले साल बाबूजी के मरते समय भी उन्हें ऐसी ही अनुभूति हुई थी. लगा था, जैसे इतनी बड़ी दुनिया में अनगिनत आदमियों की भीड़ होने पर भी वह अकेली रह गई हैं.
अकेलेपन का वही एहसास इस समय अम्मां को हुआ. उन्होंने खुद को धिक्कारा, ‘छि:, कितनी ओछी हूं मैं? बेटे, बहू और चांदसूरज जैसे 2 पोतीपोते के रहते हुए मैं अकेली कैसे हो गई? यह मामूली कुत्ता क्या मुझे अपने बच्चों से भी ज्यादा अजीज है?’
पर खुद को धोखा देना आसान न था. अकेलेपन की भयावहता से आशंकित मन दूसरी बार दहशत से भर गया. पिछले साल बाबूजी के चिर बिछोह पर वह रोई थीं. हालांकि तब से मन बराबर रोता रहा था, पर आज भी आंखें दूसरी बार छलछला उठीं.