शशांक ने अनुमान लगाया कि हरिराम की उम्र करीब 50-55 की होगी. हट्टाकट्टा शरीर पर साफ कुरता- पायजामा, ठीक से संवारे गए सफेद बाल, दाढ़ीमूंछ साफ, करीब 5 फुट 8 इंच ऊंचाई लिए हरिराम आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक लग रहा था. कमरे में जा कर शशांक ने लखनऊ पहुंचने पर सरिता को फोन किया.
रात को खाना खातेखाते शशांक ने हरिराम से उस के बारे में पूछा. ‘‘साहब, मेरे पिता इस अतिथिगृह में थे. मैं बचपन से उन की सहायता करता था. बीच में 10 साल के लिए मुंबई गया था, एक कारखाने में काम करने. पिता की अचानक मृत्यु हो गई. मां अकेली थीं, इसलिए मुंबई छोड़ कर लखनऊ आना पड़ा. पिछले 10 साल से इसी अतिथिगृह में आप सब की सेवा कर रहा हूं.’’
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‘‘तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’ ‘‘बस, मैं अकेला हूं,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया. शायद वह इस बारे में बात नहीं करना चाहता था.
दूसरे दिन शशांक प्रोेजेक्ट आफिस गया तो उसे चारों ओर से अपनी कंपनी की आलोचना ही सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगाई कि पैसा वापस करो और दफा हो जाओ यहां से. उस की कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी नदारद थे.
लज्जित शशांक गुस्से से भरा शाम को अतिथिगृह वापस लौटा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति से कैसे निबटा जाए. उसे कुछ समय के लिए सब से विरक्ति सी हुई. उस का मन किया कि कंपनी को त्यागपत्र भेज कर, दूर पहाड़ों में चला जाए. खाना खा कर वह टहलने के लिए निकल पड़ा. 1 घंटे के बाद वापस आ कर सोने की तैयारी करने लगा. एकाएक उसे खयाल आया कि उस का पर्स जिस में करीब 5 हजार रुपए थे, गायब है. उस ने अपनी पैंट की जेब, बाथरूम आदि में ढूंढ़ा पर पर्स नहीं मिला.
उस ने सोचा कि कहीं यह करामात हरिराम ने तो नहीं कर दिखाई. शशांक ने हरिराम को बुला कर बहुत डांटा, धमकाया और पर्स वापस करने के लिए कहा.
हरिराम चुपचाप खड़ा रहा. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोला. ‘‘मैं तुम्हें सुबह तक का समय देता हूं. यदि तुम ने मेरा पर्स वापस नहीं किया तो मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’
शशांक रात को अपने कमरे में बैठा काफी देर तक सोचता रहा कि इस नई समस्या से कैसे निबटा जाए. सोने के लिए लेटा तो उसे तकिया टेढ़ामेढ़ा लगा. तकिया उठाया तो उस के नीचे पर्र्स था. शशांक को याद आया कि उस ने इस डर से पर्स तकिए के नीचे छिपा दिया था कि कहीं हरिराम उसे चुरा न ले. शशांक को खुद पर शर्म महसूस हुई. वह हरिराम के कमरे में गया और उसे अपने कमरे में बुला कर लाया. शशांक ने हरिराम को बताया कि वह किस परेशानी में यहां आया था. किस तरह वह क्षेत्रवाद, भाषावाद का शिकार हो रहा है. इसी परेशानी में उस से यह अपराध हो गया, जिस के लिए वह शर्मिंदा है.
‘‘साहब, यह बडे़ दुख की बात है कि हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बंगाली, मराठी आदि हैं और बाद में भारतीय. इस सोच ने हमारे देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा डाली हुई है.’’ शशांक को किसी हिंदू से बाबरी मसजिद के बारे में यह विचार सुन कर आश्चर्य हुआ. उसे लगा कि उस के सामने एक सच्चा भारतीय खड़ा है.
‘‘पर क्या किया जा सकता है, हरिराम?’’ उस के मुंह से निकला. ‘‘क्या आप कर्म पर विश्वास करते हैं?’’
‘‘हां, बिलकुल.’’ ‘‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि इस लखनऊ वाले प्रोजेक्ट ने आप को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का अवसर दिया है? उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारी हमारी कंपनी के शत्रु नहीं हैं. आप को उन की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.’’
‘‘हरिराम, तुम ठीक कहते हो. अब रात बहुत हो गई है, थोड़ा सो लेते हैं.’’ अगले दिन शशांक ने अपनी कंपनी के कर्मचारियों से मिल कर भविष्य की कार्यप्रणाली तय की. इस के बाद उस ने उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अध्यक्ष से मिल कर 3 महीने का समय मांग लिया और उन्हें यह आश्वासन भी दिया कि वह लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.
शशांक सुबह नाश्ते के बाद प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए रवाना हो जाता था और रात को काफी देर के बाद वापस आता था. इस से कंपनी के कर्मचारियों में नई जान आ गई. एक दिन शशांक रात को आया तो अतिथिगृह में ताला लगा था. वह पास के बगीचे में टहलने के लिए चला गया. वहीं उसे हरिराम अकेले एक बैंच पर सिर झुकाए बैठा मिल गया.
‘‘हरिराम, तुम यहां क्या कर रहे हो?’’ हरिराम ने उसे देखा और फिर यह कहते हुए कि आओ, शशांक बाबू, बैठो, उस ने शशांक का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा दिया.
शशांक ने हरिराम के मुंह से शराब की गंध महसूस की. ‘‘जानते हो यह कौन है?’’ हरिराम ने शशांक को एक तसवीर दिखाते हुए कहा.
शशांक ने देखा, तसवीर में एक महिला, 4-5 साल के बच्चे के साथ थी. ‘‘यह सीता है, मेरी पत्नी और यह रमेश है, मेरा बेटा. मैं मुंबई में काम करता था. अपनी सीता पर शक करता था. रोज उसे पीटता था. वह बेचारी कब तक जुल्म सहती. एक दिन मुझे छोड़ कर बेटे के साथ कहीं चली गई,’’ कह कर हरिराम ने सिर झुका लिया.
‘‘तुम ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’ ‘‘बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा पर कहीं पता नहीं चला. आज आप की मेमसाहब का फोन आया था. परिवार के बिना जिंदगी गुजारना बहुत कठिन है साहब. इस का दर्द मैं जानता हूं,’’ कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा.
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दूसरे दिन सुबह नाश्ते के समय हरिराम ने संकोच के साथ कहा, ‘‘साहब, कल नशे में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो माफ कीजिएगा.’’
दिन भर शशांक, हरिराम और अपनी जिंदगी के बारे में सोचता रहा. उस का और सरिता का कालिज का 3 साल तक प्यार, एक परिवार का सपना, विवाह, उस का काम में व्यस्त होना, कंपनी में प्रमोशन के लिए भागदौड़, सरिता की शिकायतें, अहं का टकराव फिर लड़ाई, उस का तंग आ कर सरिता पर हाथ उठाना, सरिता की आत्महत्या की धमकी, हमेशा एक तनाव भरी जिंदगी जीना. ‘नहीं, हमारी पे्रम कहानी का यह अंत नहीं होना चाहिए,’ शशांक के अंतर्मन से यह आवाज निकली और शाम को उस ने सरिता को फोन किया.
‘‘हेलो,’’ फोन सरिता ने उठाया था. ‘‘हेलो, क्या कर रही हो?’’ शशांक ने नम्र स्वर में पूछा.
‘‘यों ही बैठी हूं.’’ ‘‘सरिता, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. मैं यहां लखनऊ में तुम्हारे बिना बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं.’’
एक क्षण को सरिता के मन में आया कि बोले वंदना को बुला लो, पर दूसरे क्षण उस का अपनेआप पर नियंत्रण न रहा और वह फूटफूट कर रो पड़ी. शशांक की आंखों में भी आंसू आ गए.
‘‘सरु, क्या तुम यहां आ सकती हो?’’ ‘‘मैं कल ही पहुंच रही हूं, शशांक,’’ सरिता ने रोतेरोते कहा.
शशांक दूसरे दिन शाम को कमरे में दाखिल हुआ तो सरिता उस का इंतजार कर रही थी. ‘‘शशांक, मुझे माफ कर दो.’’
शशांक ने सरिता को गले से लगा लिया. ‘‘गलती मेरी ज्यादा है. मैं काम के जनून में तुम्हें नजरअंदाज करने लगा था. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न सरू ?’’
रात को खाना खाने के बाद हरिराम ने सरिता से कहा, ‘‘मेमसाहब, आप के आने से साहब बहुत खुश हैं. इन्होंने आज 2 रोटियां ज्यादा खाई हैं,’’ फिर उस ने शशांक से कहा, ‘‘साहब, कल छुट्टी है. आप मेमसाहब को बड़ा इमामबाड़ा, बारादरी, गोमती नदी का किनारा आदि जगह घुमा कर लाइए. हां, शाम को अमीनाबाद से इन के लिए चिकन की साड़ी खरीदना मत भूलिएगा.’’
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