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जून का मौसम अपनी पूरी गरमाहट से स्टे्रटफोर्ड के निवासियों का स्वागत करने आ गया था. उस ने यहां पर जिन पेड़ों को बिलकुल नग्न अवस्था में देखा था, वे अब विभिन्न आकार के पत्तों से सुसज्जित हो हवा में नृत्य करने लगे थे. चैरी के पेड़ों पर फूलों के गुच्छे आने वाले को अपनी ओर आकर्षित तो कर ही रहे थे, अपनी छाया में बिठा कर विश्राम भी दे रहे थे. यह वही स्टे्रटफोर्ड है जहां महान साहित्यकार शेक्सपियर ने जन्म लिया था. अभीअभी वह शेक्सपियर के जन्मस्थान को देख कर आई थी. लकड़ी का साफसुथरा 3 मंजिल का घर, जहां आज भी शेक्सपियर पालने में झूल रहा था, आज भी वहां गुलाबी रंग की खूबसूरत शानदार मसहरी रखी हुई थी, आज भी साहित्यकार की मां का चूल्हा जल रहा था. जिस शेक्सपियर को उस ने पढ़ा था, उस को वह महसूस कर पा रही थी.

सोने में सुहागा यह कि वह उस समय वहां पहुंची थी जब शेक्सपियर का जन्मदिवस मनाया जा रहा था. नुमाइश देख कर वह उसी से संबंधित दुकान में गई. जैसे ही वह दुकाननुमा स्टोर से बाहर निकली, अपने सामने शेक्सपियर को खड़ा पाया. वही कदकाठी, वही काली डे्रस. एकदम भौचक रह गई. रूथ ने अंगरेजी में बताया था, ‘इस आदमी ने शेक्सपियर का डे्रसअप कर रखा है. जैसे आप के भारत में बहुरूपिए होते हैं…’ समझने के अंदाज में उस ने गरदन हिलाई और अन्य कई लोगों को जमीन पर पड़े हुए काले कपड़े पर पैसे डालते हुए देख कर उस ने 20 पैंस का एक सिक्का उस कपडे़ पर उछाल दिया.

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भारत से इंगलैंड आए हुए उसे कुछ माह ही हुए थे. जिस स्कूल में उसे नौकरी मिली थी, उस के कुछ अध्यापक-अध्यापिकाओं के साथ वह स्टे्रटफोर्ड आई थी, शेक्सपियर की जन्मभूमि को महसूस करने, उस की मिट्टी की सुगंध को अपने भीतर उतार लेने. इस नौकरी को पाने के लिए उसे न जाने कितने पापड़ बेलने पडे़ थे. पूरे स्कूल में एक अकेली वही ‘एशियन’ थी, सो सभी की नजर उस पर अटक जाती थी. उसे औरों से अधिक परिश्रम करना था, स्वयं को सिद्ध करने के लिए दिनरात एक करने थे. रूथ उस की सहयोगी अध्यापिका थी, जो बहुत अच्छी महिला थी, उसी के बाध्य करने पर वह यहां आई थी और सब से मेलमिलाप बढ़ाने का प्रयास कर रही थी.

चैरी के घने पेड़ के नीचे एक ऊंची मुंडेर सी बनी हुई थी. वह सब के साथ उस पर बैठ गई और सोचने लगी कि क्या हमारे तुलसीदास और कालीदास इतने समर्थ साहित्यकार नहीं थे? स्टे्रटफोर्ड के चारों ओर शेक्सपियर को महसूस करते हुए भारतीय महान साहित्यकार उस के दिमाग में हलचल पैदा करने लगे. हम क्यों अपने साहित्यकारों को इतना सम्मान नहीं दे पाते…ऐसा जीवंत एहसास इन साहित्यकारों के जन्मस्थल पर जाने से क्यों नहीं हो पाता? ‘‘प्लीज हैव दिस…’’ इन शब्दों ने उसे चौंका दिया मगर नजर उठा कर देखा तो सामने रूथ अपने हाथों में 2 बड़ी आइस्क्रीम लिए खड़ी थी.

‘‘ओह…थैंक्स….’’ उस ने अपने चारों ओर नजर दौड़ाई तो सब लोग अपनेअपने तरीके से मस्त थे. गरमी के कारण अधनंगे गोरे शरीर लाल हो उठे थे और हाथों में ठंडे पेय के डब्बे या आइस्क्रीम के कोन ले कर गरमी को कम करने का प्रयास कर रहे थे. उन के साथ के लोग अपनीअपनी रुचि के अनुसार आनंद लेने में मग्न थे. यह केवल रूथ ही थी जो लगातार उसी के साथ बनी हुई थी.

स्कूल में नौकरी मिलने के बाद हर परेशानी में रूथ उस का सहारा बनती, उसे विद्यार्थियों के बारे में बताती, कोर्स के बारे में सिखाती और पढ़ाने की योजना तैयार करने में सहायता करती. कुछेक माह में ही उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था. बेहतर था कि वह कहीं और नौकरी करती, किसी स्टोर में या कहीं भी पर स्कूल में…जहां के वातावरण को सह पाना उस के भारतीय मनमस्तिष्क के लिए असहनीय हो रहा था. सरकार के आदेशानुसार 10वीं तक की पढ़ाई आवश्यक थी. फीस माफ, कोई अन्य खर्चा नहीं…जब तक छठी, 7वीं तक बच्चे रहते सब सामान्य चलता पर उस के बाद उन्हें बस में करना तौबा….उस के पसीने छूटने लगे. स्कूल से घर आते ही प्रतिदिन तो वह रोती थी. आंखें लाल रहतीं. कोई न कोई ऐसी घटना अवश्य घट जाती जो उसे भीतर तक हिला कर रख देती और तब उसे अपने भारतीय होने पर अफसोस होने लगता.

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चैरी के फूल झरझर कर उस के ऊपर पड़ रहे थे, खिलते हुए सफेद- गुलाबी से फूलों को उस ने अपने कुरते पर से समेट कर पर्स में डाल लिया. रूथ उसे देख कर मुसकराने लगी थी. आज फिर स्कूल में वह पढ़ा नहीं सकी, क्योंकि जेड ठीक उस के सामने बैठ कर तरहतरह के मुंह बनाती रहती है. च्यूइंगम चबाती हुई जेड को देख कर उस का मन करता है कि एक झन्नाटेदार तमाचा उस के गाल पर रसीद कर दे पर मन मसोस कर रह जाती है. इंगलैंड में किसी छात्र को मारने की बात तो दूर जोर से बोलना भी सपने की बात है. वह मन मार कर रह जाती है. अनुशासन वाले इस समाज में विद्यार्थी इतने अनुशासनहीन… यह बात किस प्रकार गले उतर सकती है? पर सच यही है.

वैसे भी उस की कक्षा को जेड ने बिगाड़ रखा है. 9वीं कक्षा के ये विद्यार्थी अपनी नेता जेड के इशारे पर हर प्रकार की असभ्यता करते हैं. एकदूसरे की गोद में बैठ कर चूमाचाटी करना तो आम बात है ही, उस ने अपने पीछे से जेड की आवाज में ‘दिस इंडियन बिच’ न जाने कितनी बार सुना है और बहरों की भांति आगे बढ़ गई है. यह बात और है कि उस की आंखों में आंसुओं की बाढ़ उमड़ आई है. हर दिन सवेरे स्कूल के लिए तैयार होते हुए वह सोचती कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा? फिलहाल तो अपने इस प्रश्न का कोई उत्तर उस के पास नहीं है. उस ने एक साल का बांड भरा है, उस से पहले तो वहां से छुटकारा पाना उस के लिए संभव ही नहीं. अपने पीछे ठहाकों की बेहूदी आवाजें सुनना उस की नियति हो गई है.

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इस अमीर देश में वह बेहद गरीब है, जो अपने बच्चों की जूठन और फैलाव तो समेटती ही है जेड जैसी जाहिलोंके उस के कमरे में फैलाई हुई ‘गंद’ भी उसे ही समेटनी पड़ती है. भरीभरी आंखों से वह एक मशीन की भांति काम करती रहती है. अधिक संवेदनशील होने के कारण सूई सा दर्द भी उसे तलवार का घाव महसूस होता है. आसान नहीं है यहां पर ‘टीचिंग प्रोफेशन’ यह जानती तो वह पहले से ही थी पर इतना मानसिक क्लेश होता होगा, यह अनुभव से ही उसे पता चल सका.

एक साल बीता तो उस ने चैन की सांस ली. अब वह सलिल से कहेगी कि वह यह काम नहीं कर पाएगी. खाली तो रहेगी नहीं, कुछ न कुछ तो करना ही है. सलिल को ‘वारविकशायर विश्वविद्यालय’ में प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आमंत्रित किया गया था. उन का पिछला रेकार्ड देख कर ही कई अंतर्राष्ट्रीय विश्व- विद्यालयों से उन्हें निमंत्रण मिलते रहे थे. कुछ साल पहले वह अमेरिका भी 2 वर्ष के लिए हो आए थे और समय पूर्ण होने पर भारत लौट गए थे. यहां पर उन का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन से पूरे 4 वर्ष के बांड पर हस्ताक्षर करवा लिए गए. भारतीय दिमाग का तो वाकई कोई जवाब नहीं है. हर तरफ मलाई की कीमत है, केवल अपने यहां ही वह सम्मान नहीं प्राप्त होता जिस का आदमी हकदार है.

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