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‘‘सबकुछ शांत ढंग से हो रहा था कि अम्मी की मुरादनगर वाली बहन यानी मेरी नसीम खाला रास्ते में जाम लगा होने की वजह से निकाह पढ़े जाने के थोड़ी देर बाद घर पहुंचीं.

‘‘बड़ी दबंग औरत हैं वे. जल्दबाजी में तय किए गए निकाह की वजह से वे अम्मी से नाराज थीं…’’ कहते हुए शहला ने हरसिंगार के तने पर अपनी पीठ को फिर से टिका लिया और आगे बोली, ‘‘इसलिए बिना ज्यादा किसी से बात किए वे दूल्हे को देखनेमिलने की मंसा से जनवासे में चली गईं. उस वक्त बराती खानेपीने में मसरूफ थे. उन्हें खाला की मौजूदगी का एहसास न हो पाया.

‘‘वे जनवासे से लौटीं और अचानक अम्मी पर बरस पड़ीं, ‘आपा, शहला का दूल्हा तो लंगड़ा है. तुम्हें ऐसी भी क्या जल्दी पड़ रही थी कि अपनी शहला के लिए तुम ने टूटाफूटा लड़का ढूंढ़ा?’

‘‘यह जान कर अम्मी, अब्बू और बाकी रिश्तेदार सब सकते में आ गए. मामले की तुरंत जांचपड़ताल से पता चला कि दूल्हा बदल दिया गया था.

‘‘लड़के वालों ने अब्बू के भोलेपन का फायदा उठा कर चालाकी से असली दूल्हे की जगह उस के बड़े भाई से मेरा निकाहनामा पढ़वा दिया था.

‘‘बात खुलते ही बिचौलिया और कुछ बराती दूल्हे को ले कर मौके से फरार हो गए.

‘‘हमारे खानदान व गांव के लोग इस धोखाधड़ी के चलते बहुत गुस्से में थे. सो, गांव की पंचायत व दूसरे लोगों के साथ मिल कर उन्होंने बाकी बरातियों को जनवासे के कमरे में बंद कर दिया.

‘‘अब मरता क्या न करता वाली बात होने पर दूल्हे के गांव की पंचायत और कुछ लोग बंधक बरातियों को छुड़ाने पहुंच गए. दोनों गांवों की पंचायतों और बुजुर्गों ने आपस में बात की. लड़के वाले किसी भी तरह से निकाह को परवान चढ़ाए रखना चाहते थे.

‘‘वे कहने लगे, ‘विकलांग का निकाह कराना कोई जुर्म तो नहीं, जो तुम इतना होहल्ला कर रहे हो. वैसे भी अब तो निकाह हो चुका है. बेहतर यही है कि तुम लड़की की रुखसती कर दो.

‘‘‘तुम लड़की वाले हो और लड़कियां तो सीने का पत्थर हुआ करती हैं. अब तुम ने तो लड़की का निकाह पढ़वा दिया है न. छोटे भाई से नहीं, तो बड़े से सही. क्या फर्क पड़ता है. तुम समझो कि तुम्हारे सिर से तो लड़की का बोझ उतर ही गया.’

‘‘सच कहूं, उस समय मुझे एहसास हुआ कि हम लड़कियां कितनी कमजोर होती हैं. हमारा कोई वजूद ही नहीं है. तभी अब्बू की भर्राई सी आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘मेरी बेटी कोई अल्लाह मियां की गाय नहीं, जो किसी भी खूंटे से बांध दी जाए और न ही वह मेरे ऊपर बोझ है. वह मेरी औलाद है, मेरा खून है. उस का सुख मेरी जिम्मेदारी है, न कि बोझ… अगर वह लड़की है, तो उसे ऐसे ही कैसे मैं किसी के भी हवाले कर दूं.’

‘‘और कुछ देर बाद हौसला कर के उन्होंने पंचायत से तलाकनामा के लिए दरख्वास्त करते हुए कहा, ‘जनाब, यह ठीक है कि विकलांग होना या उस का निकाह कराना कोई जुर्म नहीं, पर दूसरों को अंधेरे में रख कर या दूल्हा बदल कर ऐसा करना तो दगाबाजी हुई न?

‘‘‘मैं दगाबाजी का शिकार हो कर अपनी पढ़ीलिखी, सलीकेदार, जहीन लड़की को इस जाहिल, बेरोजगार और विकलांग के हाथ सौंप दूं, क्या यही पंचायत का इंसाफ है?’

‘‘यकीन मानो, मुझे उस दिन पता चला कि मैं कोई बोझ नहीं, बल्कि जीतीजागती इनसान हूं. उस दिन मेरी नजर में अब्बू की इज्जत कई गुना बढ़ गई थी, क्योंकि उन्होंने मेरी खातिर पूरे समाज, पंचायत से खिलाफत करने की ठान ली थी.

‘‘लेकिन, पुरानी रस्मों को एक झटके से तोड़ कर मनचाहा बदलाव ले आना, चाहे वह समाज के भले के लिए ही क्यों न हो, इतना आसान तो नहीं. चारों तरफ खुसुरफुसुर शुरू हो गई थी… दोनों गांवों के लोग और पंचायत अभी भी सुलह कर के निकाह बरकरार रखने की सिफारिश कर रहे थे.

‘‘अब्बू उस समय बेहद अकेले पड़ गए थे. उस बेबसी के आलम में हथियार डालते हुए उन्होंने गुजारिश की, ‘ठीक है जनाब, पंच परमेश्वर होते हैं. मैं ने अपनी बात आप के आगे रखी, फिर भी अगर मेरी बच्ची की खुशियां लूट कर और उसे हलाल करने का गुनाह मुझ से करा कर शरीअत की आन और आप लोगों की आबरू बचती है, तो मैं निकाह को बरकरार रखते हुए अपनी बच्ची की रुखसती कर दूंगा, लेकिन मेरी भी एक शर्त है.

‘‘‘बात यह है कि शहला की छोटी बहन नफीसा बहुत ही खूबसूरत है और जहीन भी, लेकिन एक हादसे में उस की नजर जाती रही. बस, यही एक कमी है उस में.

‘‘‘आप के कहे मुताबिक जब बेटियों को हम बोझ ही समझते हैं और आप सब मेरे खैरख्वाह एक बोझ को उतारने में मेरी इतनी मदद कर रहे हैं. मुझे तो अपने दूसरे बोझ से भी नजात पानी है और फिर किसी शारीरिक कमी वाले शख्स का निकाह कराना कोई गुनाह भी नहीं, तो क्यों न आप नफीसा का निकाह इस लड़के के छोटे भाई यानी जिसे हम ने अपनी शहला के लिए पसंद किया था, उस से करा दें? हिसाबकिताब बराबर हो जाएगा और दोनों बहनें एकसाथ एकदूसरे के सहारे अपनी जिंदगी भी गुजार लेंगी.’

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‘‘बस, फिर क्या था, हमारे गांव की पंचायत व बाकी लोग एक आवाज में अब्बू की बात की हामी भरने लगे, पर दूल्हे वालों को जैसे सांप सूंघ गया.

‘‘हां, उस के बाद जो कुछ भी हुआ, मेरे लिए बेमानी था. मैं उस दिन जान पाई कि मेरा भी कोई वजूद है और मैं भेड़बकरी की तरह कट कर समाज की थाली में परोसे जाने वाली चीज नहीं हूं.

‘‘मेरे अब्बू अपनी बेटी के हक के लिए इस कदर लड़ाई लड़ सकते हैं, मैं सोच भी नहीं सकती थी. फिर तो… दूल्हे वालों ने मुझे तलाक देने में ही अपनी भलाई समझी. मैं तो वैसे भी इस निकाह के हक में नहीं थी, बल्कि आगे पढ़ना चाहती थी.

‘‘हां, उस के बाद कुछ दिन तक घर में चुप्पी का माहौल रहा, फिर परेशानी के आलम में अम्मी अब्बू से कहने लगीं, ‘जावेद के अब्बू, तुम्हीं कहो कि अब इस लड़की का क्या होगा. क्या यह बोझ सारी उम्र यों ही हमारे गले में बंधा रहेगा?’

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