चेहरे की चमड़ी के रंग को चमका कर जैसे ही मैं वाश बेसिन के सामने से उठ कर हटा, पीछे किसी को खड़ा पा कर तेजी से पलटा. देखा तो सचमुच ऊषा ही मेरे सामने खड़ी थी. हक्काबक्का हो कर मैं कभी शानदार कपड़ों में सजीधजी उस की गुस्से भरी सुंदरता देख रहा था, तो कभी तेल, ग्रीस व धूल सने कपड़ों में लिपटे धुलेपुछे अपने हाथों को. मैं उस की ओर बदहवास नजरों से ताकता हुआ सहज होने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘चल कर औफिस में बैठो. मैं वहीं कपड़े बदल कर आता हूं. आज एक आदमी आया नहीं था, इसीलिए उस का काम करना पड़ गया. सो देख ही रही हो,
मेरा हुलिया कैसा बिगड़ गया है.’’ उसी ऊहापोह में ऊषा को अवाक छोड़ कर कपड़े बदलने के लिए मैं फिर से वर्कशौप में घुस गया. साथ ही, सोचता जा रहा था कि मैं ने तो कभी ऊषा को अपनी फैक्टरी का नाम तक नहीं बताया था. आज इसे क्या सूझी कि फैक्टरी के भीतर ही सीधे पहुंच गई. फैक्टरी के दरबान ने इसे रोका तक नहीं और न ही इसे कहीं औफिस में बिठा कर मुझे खबर ही किया. हो सकता है कि ऊषा ने ही उसे सारी बातें बतासमझा कर मुझे ‘चकित’ करने के लिए रोक दिया हो मुझे बुलाने से. बनठन कर जब मैं पहुंचा, तब ऊषा वहां थी ही नहीं. शायद,
उस ने मेरे बारे में सबकुछ किसी से पता कर लिया था. दौड़ता सा मैं चौड़ी सड़क के मोेड़ तक पहुंचा था. इधरउधर चारों ओर नजरें दौड़ा कर देखा, पर वह कहीं न दिखी. एक बार फिर खूब गौर से सब ओर देखा. हां, उसी नीम के हरेभरे पेड़ के नीचे वह सड़क पार करने के इंतजार में खड़ी थी. मैं ने खंखारते हुए तब कहा था, ‘‘2 मिनट के लिए भी रुकी क्यों नहीं? नाराज हो क्या? देखो, मैं तो कैसा दौड़ताहांफता आ रहा हूं तुम तक, तुम से मिलने, तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलने को.’’ ‘‘नीच, कमीने, धोखेबाज, चुप ही रहो अब. मैं आज की शाम, बल्कि जिंदगीभर के लिए बेइज्जत तो हो ही गई. बताओ, मैं अब अपने पिताजी को जा कर क्या जवाब दूं? तुम ने मेरी जिंदगी का सुनहरा सपना क्यों चूरचूर कर दिया? मैं क्या समझती थी कि तुम मुझे धोखा दे रहो हो,’’ नफरत की तड़पभरी चिनगारी आंखों में भरे उस ने आगे कहा, ‘‘एक मामूली मजदूर ही नहीं, लुटेरे भी हो तुम..
. जाओ, अपनी जिंदगी का रास्ता बदलो और अब मेरे पीछे कभी मत आना… ‘‘तुम ने मेरी जान बचाई थी कभी तो उस की कीमत इस तरह लेना चाहते थे? मुझ से कहे होते तो पिताजी से कह कर मैं तुम्हें हजारों रुपए दिलवा देती…’’ इतना बोल कर ही ऊषा का गुस्सा शांत न हो सका था. घायल शेरनी सी बिफरती हुई बोली थी वह, ‘‘तुम ने झूठ क्यों कहा मुझ से कि तुम एक इंजीनियर हो, जबकि तुम हो एक साधारण मजदूर से भी गएबीते एक खरादिए भर हो, चीकट कपड़े पहन कर काम करने वाला… परफ्यूम लगा लेने या ब्रांडेड कपड़े पहन लेने से कोई न तो इंजीनियर बन जाता है और न रईस या बड़ा आदमी. जरूर तुम किसी निचली जाति के भी हो, मेरी तरह राजपूत पिता की संतान नहीं. जाओ, आज से आग लगा दो अपनी सारी टीशर्टों को,’’ कह कर वह सड़क पार कर गई थी. सच तो यह?है कि ‘ऊषा’ मेरे जीवन की ‘अंधेरी रात’ बन गई थी. उस समय ऐसा लग रह था, जैसे किसी ने मेरा दिल मुट्ठी में भींच रखा हो.