Writer- डा. पी. के. सिंह
‘‘दास.’’ अपने नाम का उच्चारण सुन कर डा. रविरंजन दास ठिठक कर खड़े हो गए. ऐसा लगा मानो पूरा शरीर झनझना उठा हो. उन के शरीर के रोएं खड़े हो गए. मस्तिष्क में किसी अदृश्य वीणा के तार बज उठे. लंबीलंबी सांसें ले कर डा. दास ने अपने को संयत किया. वर्षों बाद अचानक यह आवाज? लगा जैसे यह आवाज उन के पीछे से नहीं, उन के मस्तिष्क के अंदर से आई थी. वह वैसे ही खड़े रहे, बिना आवाज की दिशा में मुड़े. शंका और संशय में कि दोबारा पीछे से वही संगीत लहरी आई, ‘‘डा. दास.’’
वह धीरेधीरे मुड़े और चित्रलिखित से केवल देखते रहे. वही तो है, अंजलि राय. वही रूप और लावण्य, वही बड़ी- बड़ी आंखें और उन के ऊपर लगभग पारदर्शी पलकों की लंबी बरौनियां, मानो ऊषा गहरी काली परतों से झांक रही हो. वही पतली लंबी गरदन, वही लंबी पतली देहयष्टि. वही हंसी जिस से कोई भी मौसम सावन बन जाता है…कुछ बुलाती, कुछ चिढ़ाती, कुछ जगाती.
थोड़ा सा वजन बढ़ गया है किंतु वही निश्छल व्यक्तित्व, वही सम्मोहन. डा. दास प्रयास के बाद भी कुछ बोल न सके, बस देखते रहे. लगा मानो बिजली की चमक उन्हें चकाचौंध कर गई. मन के अंदर गहरी तहों से भावनाओं और यादों का वेग सा उठा. उन का गला रुंध सा गया और बदन में हलकी सी कंपन होने लगी. वह पास आई. आंखों में थोड़ा आश्चर्य का भाव उभरा, ‘‘पहचाना नहीं क्या?’’
‘कैसे नहीं पहचानूंगा. 15 वर्षों में जिस चेहरे को एक पल भी नहीं भूल पाया,’ उन्होंने सोचा.
‘‘मैं, अंजलि.’’
डा. दास थोड़ा चेतन हुए. उन्होंने अपने सिर को झटका दिया. पूरी इच्छा- शक्ति से अपने को संयत किया फिर बोले, ‘‘तुम?’’
‘‘हां, मैं. गनीमत है पहचान तो लिया,’’ वह खिलखिला उठी और
डा. दास को लगा मानो स्वच्छ जलप्रपात बह निकला हो.
‘‘मैं और तुम्हें पहचानूंगा कैसे नहीं? मैं ने तो तुम्हें दूर से पीछे से ही पहचान लिया था.’’
मैदान में भीड़ थी. डा. दास धीरेधीरे फेंस की ओर खिसकने लगे. यहां कालिज के स्टूडेंट्स और डाक्टरों के बीच उन्हें संकोच होने लगा कि जाने कब कौन आ जाए.
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‘‘बड़ी भीड़ है,’’ अंजलि ने चारों ओर देखा.
‘‘हां, इस समय तो यहां भीड़ रहती ही है.’’
शाम के 4 बजे थे. फरवरी का अंतिम सप्ताह था. पटना मेडिकल कालिज के मैदान में स्वास्थ्य मेला लगा था. हर साल यह मेला इसी तारीख को लगता है, कालिज फाउंडेशन डे के अवसर पर…एक हफ्ता चलता है. पूरे मैदान में तरहतरह के स्टाल लगे रहते हैं. स्वास्थ्य संबंधी प्रदर्शनी लगी रहती है. स्टूडेंट्स अपना- अपना स्टाल लगाते हैं, संभालते हैं. तरहतरह के पोस्टर, स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां और मरीजों का फ्री चेकअप, सलाह…बड़ी गहमागहमी रहती है.
शाम को 7 बजे के बाद मनोरंजन कार्यक्रम होता है. गानाबजाना, कवि- सम्मेलन, मुशायरा आदि. कालिज के सभी डाक्टर और विद्यार्थी आते हैं. हर विभाग का स्टाल उस विभाग के एक वरीय शिक्षक की देखरेख में लगता है. डा. दास मेडिसिन विभाग में लेक्चरर हैं. इस वर्ष अपने विभाग के स्टाल के वह इंचार्ज हैं. कल प्रदर्शनी का आखिरी दिन है.
‘‘और, कैसे हो?’’
डा. दास चौंके, ‘‘ठीक हूं…तुम?’’
‘‘ठीक ही हूं,’’ और अंजलि ने अपने बगल में खड़े उत्सुकता से इधरउधर देखते 10 वर्ष के बालक की ओर इशारा किया, ‘‘मेरा बेटा है,’’ मानो अपने ठीक होने का सुबूत दे रही हो, ‘‘नमस्ते करो अंकल को.’’
बालक ने अन्यमनस्क भाव से हाथ जोड़े. डा. दास ने उसे गौर से देखा फिर आगे बढ़ कर उस के माथे के मुलायम बालों को हलके से सहलाया फिर जल्दी से हाथ वापस खींच लिया. उन्हें कुछ अतिक्रमण जैसा लगा.
‘‘कितनी उम्र है?’’
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‘‘यह 10 साल का है,’’ क्षणिक विराम, ‘‘एक बेटी भी है…12 साल की, उस की परीक्षा नजदीक है इसलिए नहीं लाई,’’ मानो अंजलि किसी गलती का स्पष्टीकरण दे रही हो. फिर अंजलि ने बालक की ओर देखा, ‘‘वैसे परीक्षा तो इस की भी होने वाली है लेकिन जबरदस्ती चला आया. बड़ा जिद्दी है, पढ़ता कम है, खेलता ज्यादा है.’’
बेटे को शायद यह टिप्पणी नागवार लगी. अंगरेजी में बोला, ‘‘मैं कभी फेल नहीं होता. हमेशा फर्स्ट डिवीजन में पास होता हूं.’’
डा. दास हलके से मुसकराए, ‘‘मैं तो एक बार एम.आर.सी.पी. में फेल हो गया था,’’ फिर वह चुप हो गए और इधरउधर देखने लगे.
कुछ लोग उन की ओर देख रहे थे.
‘‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’