‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी पड़े हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.
जीजाजी की आंखों की रोशनी... उन के नन्हे बच्चे...सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के आगे घूम गया था.
‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’
और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर आगे रख दी थीं.
‘‘नहीं, शैली, नहीं...’’ शोभा स्तंभित थी.
फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.
‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’
‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.
पर शैली को अनोखा संतोष मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा दिया था.
8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह प्रदर्शित नहीं कर पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.
‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.
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