लेखिका : वैदेही कोठारी

घरगृहस्थी में ज्योति पूरी तरह रम चुकी थी. उसे घरपरिवार का ध्यान रखना, उन की पसंद का खाना बनाना सभीकुछ अच्छा लगता था, क्योंकि ज्योति की काकी ने उसे 8वीं क्लास के बाद सिर्फ घरपरिवार का कैसे ध्यान रखना है, खाना कैसे बनाना है, बस इतना ही सिखाया था. पढ़ाई बंद हुई, तो बाहर की दुनिया से ज्यादा नाता ही नहीं रहा. 18वां साल खत्म होते ही ज्योति को डोली में बैठा दिया था.

अगर घर के किसी भी सदस्य की तबीयत खराब होती, तो ज्योति उस का खास ध्यान रखती.

ज्योति जैसा नाम वैसी ही गुणी थी. वह घर की ज्योत थी. उस के पति रमेश सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल थे, इसलिए वह उन के स्कूल जाने वाले समय का खास ध्यान रखती थी.

ज्योति के 2 बेटे थे. बड़ा बेटा कालेज में और छोटा बेटा हाईस्कूल में पढ़ता था. घर में बूढ़ी सासूजी भी थीं, जो अपना ज्यादातर समय टैलीविजन देखने में बिताती थीं.

पर, समय कब एकजैसा चलता है. कुछ समय से ज्योति को अपनी सेहत कुछ अच्छी नहीं लग रही थी. वह कुछ काम करती, तो उसे थकान महसूस होने लगती.

एक दिन ज्योति ने रमेश से कहा, ‘‘कुछ दिनों से मुझे ज्यादा थकान महसूस होने लगी है,’’ तो रमेश ने कहा कि आराम कर लिया करो.

इसी तरह कुछ दिन तो निकल गए, पर अब ज्योति को कभी सिर दुखना, कभी हाथपैर में दर्द, कंपन जैसी कुछ परेशानियां बढ़ने लगी थीं.

ज्योति रमेश को जब भी अपनी तबीयत के बारे में बोलती, तो रमेश मुंह बना कर कहते, ‘‘तुम कब ठीक रहती हो… तुम्हें तो कुछ न कुछ होता ही रहता है… लाओ, जल्दी खाना दो मुझे… जाना है…’’

ज्योति मायूस हो कर चुप्पी साध गई और रमेश को खाना परोस कर, फिर पेनकिलर दवा खा कर धीरेधीरे अपने घर के काम निबटाने लग गई.

अब तो ज्योति दिन में जब कभी आराम करती, तो बेटा चिल्लाते हुए बोलता, ‘‘क्या मां, जब देखो तुम पड़ी रहती हो?’’

वह थकीथकी सी उठ कर पूछती कि क्या हुआ? तो बेटा बोलता, ‘‘मुझे खाना दो…’’

ज्योति बेटे को खाना परोसती, फिर धीरेधीरे घर के दूसरे काम में लग जाती.

ज्योति का चेहरा दिनोंदिन मुरझाने लगा था. उस की रंगत फीकी पड़ने लगी थी.

रमेश शाम को जब घर आता, तो उस का मुरझाया हुआ चेहरा देख कर बोलता, ‘‘अच्छे से नहीं रह सकती हो क्या? घर में तुम्हें हल नहीं चलाना पड़ता, जो ऐसी थकी सी दिख रही हो.’’

यह सुन कर ज्योति अंदर ही अंदर टूट गई. वह झूठी मुसकान के साथ बोली, ‘‘कुछ नहीं… बस ऐसे ही… अभी चाय बनाती हूं. आप कपड़े बदल लो.’’

ज्योति ने सभी के लिए चाय बनाई, फिर वह खाना बनाने की तैयारी करने लग गई.

आज ज्योति को पेनकिलर  दवा का भी असर नहीं हो रहा था. वह अपने दर्द को छिपाते हुए सब को खाना खिलाने लगी. आज उस का खाना खाने का मन भी नहीं कर रहा था.

ज्योति ने जैसेतैसे थकेहारे मन और तन से घर का काम निबटाया. उसे थोड़ा चक्कर आया तो वह कुरसी पर बैठने लगी, पर तभी नीचे गिर पड़ी.

जब सभी को आवाज आई, तो वे दौड़ कर ज्योति के पास आ गए और फिर उसे डाक्टर के पास ले गए.

डाक्टर ने जब पूरी जांच की, तो उसे सीरियस हालत में बताया.

यह सुन कर पति और बच्चे चिंतित हो गए. रमेश के कानों में ज्योति को कहे अपने वे शब्द घूम गए, ‘तुम को तो कुछ न कुछ होता ही रहता है…’

काश, उस समय रमेश ज्योति की हालत को समझ लेता…

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