कहां चली जाती है यह लड़की. शाम हो चली है, मगर यह है कि घर आने का नाम ही नहीं लेती. रोटियां भी सूख गई हैं,’’ फातिमा ने कहा.

‘‘क्यों बेकार में परेशान होती हो? कहीं खेल रही होगी वह. मैं देख कर आता हूं,’’ मुनव्वर बोला, जो तबस्सुम का पिता था.

मुनव्वर की सड़क किनारे मोटरसाइकिलों की मरम्मत और पंचर लगाने की छोटी सी दुकान थी. उस के 2 बच्चे थे. 5 साल की तबस्सुम और 2 साल का अनवर.

मुनव्वर जयपुर जाने वाले हाईवे के किनारे रहता था. पास में ही निशानेबाजी सीखने वालों के लिए शूटिंग रेंज बनी हुई थी. गांव के ज्यादातर बच्चे गुल्लीडंडा और कंचे खेलने में मस्त रहते थे.

तबस्सुम निशानेबाजी देखे बिना नहीं रह पाती थी और सुबहसवेरे शूटिंग रेंज में चली जाती थी.

‘‘अच्छा, यहां चुपचाप बैठी है. तेरी मां घर पर इंतजार कर रही है,’’ मुनव्वर ने कहा, तो तबस्सुम चौंक पड़ी.

तबस्सुम बोली, ‘‘पापा, मु?ो भी बंदूक दिला दो न. मैं भी इन की तरह निशानेबाज बनूंगी.’’

‘‘चल उठ यहां से. बड़ी आई निशांची बनने. पता है, तेरी मम्मी कितनी परेशान हैं. एक तमाचा दूंगा, सब अक्ल ठिकाने आ जाएगी,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘महारानी कहां गई थीं. राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गईं,’’ घर की तरफ आते देख फातिमा उन दोनों की तरफ लपकी.

छोटी सी बच्ची क्या कहती, सो पापा के पैरों में लिपट गई.

मुनव्वर का दिल पसीज गया और बोला, ‘‘अब बस भी कर फातिमा. ऊपर से तो गुस्सा दिखाती है, पर मैं जानता हूं कि दोनों बच्चों के लिए तेरे मन में कितना प्यार है.’’

‘‘मैं कह देती हूं कि मु?ो बताए बिना तू कहीं नहीं जाएगी,’’ फातिमा ने तबस्सुम को पकड़ कर ?ाक?ोर दिया और पलट कर कहने लगी, ‘‘देखोजी, इसे सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भरती करा दो. कुछ जमात पढ़ लेगी, तो ठीक रहेगा.’’

‘‘बेटी तबस्सुम, हाथमुंह धो कर आ. बापबेटी और मम्मी तीनों मिल कर एकसाथ खाना खाएंगे,’’ मुनव्वर ने कहा, तो फातिमा ने ‘हां’ में सिर हिलाया और रोटियां, दालसब्जी फिर से गरम कर के कमरे में ले आई.

अगले दिन ही मुनव्वर पहली जमात की किताबें बाजार से खरीद लाया और तबस्सुम का दाखिला कराने के लिए उसे ले कर स्कूल पहुंचा.

स्कूल के सामने हैडमास्टर का कमरा था. मुनव्वर ने स्कूल में दाखिले के लिए कहा, तो हैडमास्टर ने फार्म भर कर देने और फीस जमा करने को कहा.

मुनव्वर अपना काम खत्म कर के तबस्सुम को स्कूल में ही छोड़ आया.

तबस्सुम धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. उस का मन अब पढ़ाई में नहीं लग रहा था. वह चुपचाप शूटिंग रेंज की तरफ निकल जाती और मास्टर उसे ढूंढ़ने के लिए बच्चों को इधरउधर दौड़ाते.

आखिरकार तंग आ कर क्लास टीचर ने मुनव्वर को बुलावा भेजा कि वह जल्दी से आ कर हैडमास्टर से मिले.

‘‘मुनव्वर, हम तबस्सुम को नहीं पढ़ा सकते. अच्छा होगा कि तुम इसे घर ले जाओ,’’ हैडमास्टर ने कहा.

हैडमास्टर का फैसला सुन कर मुनव्वर बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि तबस्सुम का मन पढ़ाई में नहीं लगता है. मगर इसे सुधरने का एक मौका दीजिए. शायद वह मन लगा कर पढे़गी.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. यह चुपके से शूटिंग रेंज की तरफ निकल जाती है. वहां बैठ कर घंटों तक निशानेबाजी देखती रहती है,’’ हैडमास्टर ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं कि इस का मन निशानेबाजी में लगता है. यह एकलव्य बनने का सपना संजोए हुए है. कच्ची उम्र की है. इस के लिए पढ़नालिखना ठीक है, न कि भारीभरकम बंदूक उठाना,’’ मुनव्वर ने कहा और हैडमास्टर को राजी कर लिया.

घर लौटा, तो फातिमा ने पूछ ही लिया, ‘‘क्यों री, कहां चली जाती है? स्कूल में पढ़ने भेजा जाता है या घूमनेफिरने? अरे, पढ़ लेगी, तो कुछ बन जाएगी, नहीं तो मेरी तरह चूल्हाचक्की में पिसती रहेगी.’’

‘‘मां, मैं पढ़ना नहीं चाहती, बंदूक चलाना सीखूंगी. मैं बड़ी हो कर निशानेबाजी की बड़ी प्रतियोगिताओं में भाग ले कर ढेर सारे मैडल जीतूंगी,’’ तबस्सुम ने कहा, जो छोटा मुंह बड़ी बात लग रही थी.

तबस्सुम धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. एक दिन मुनव्वर के साथ मेला देखने गई, तो खिलौना बंदूक के लिए मचल गई.

पिता को आखिरकार मजबूर हो कर वह खिलौना दिलाना पड़ा. अब वह चुपचाप घर के एक कोने में निशाना लगाया करती.

एक दिन तबस्सुम अकेले ही खिलौना बंदूक से निशानेबाजी की प्रैक्टिस कर रही थी. वह जब भी छर्रा छोड़ती, जो सीधा निशाने पर लगता. मुनव्वर और फातिमा सांस साधे चुपचाप उसे देख रहे थे.

‘शाबाश बेटी, क्या निशाना लगाती हो, एकलव्य की तरह. बिना किसी गुरु के,’ मुनव्वर और फातिमा बोले.

खिलौना बंदूक से ही तबस्सुम निशानेबाजी सीखती रही और माहिर होती रही. इस का पता उस के स्कूल के टीचरों को भी चल गया. वे भी तबस्सुम को निशानेबाजी के लिए बढ़ावा देते रहे.

कुछ दिन बीते. टीचरों को अखबार के जरीए जिलास्तरीय निशानेबाजी प्रतियोगिता के बारे में पता चला. टीचर संजय मुनव्वर के घर जा पहुंचे.

‘‘क्या बात है मास्टरजी, आज मु?ा गरीब के घर कैसे आए?’’ मुनव्वर बोला.

‘‘स्कूल के सभी टीचरों ने आप की बेटी तबस्सुम के हुनर को पहचाना है, इसीलिए सब ने मिल कर चंदा इकट्ठा किया है. मैं वह पैसा तुम्हें देने आया हूं. आप तबस्सुम को निशानेबाजी सीखने के लिए बंदूक खरीद कर दिला देना,’’ संजय बोले.

‘‘मगर मास्टरजी, आप खड़े क्यों हैं? अंदर आइए और चायपानी लीजिए,’’ मुनव्वर ने कहा.

टीचर संजय अंदर गए. मुनव्वर एक छोटा सा लकड़ी का बना हुआ स्टूल ले आया.

‘‘हैडमास्टर साहब अच्छी तरह जान चुके हैं कि तबस्सुम उन के स्कूल का नाम जरूर रोशन करेगी, इसीलिए मु?ो आप के पास चंदे का पैसा दे कर भेजा है,’’ संजय ने स्टूल पर बैठते हुए कहा.

‘‘आप की मेहरबानी हुई मु?ा गरीब पर, मगर मु?ो नहीं पता कि बंदूक कहां मिलेगी. आप खुद खरीद कर ले आते, तो अच्छा होता,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘मैं कल तबस्सुम को बंदूक ला कर दे दूंगा. मगर ध्यान रखना कि अगले हफ्ते 20 तारीख को उदयपुर में जिलास्तरीय प्रतियोगिता हो रही है. वहां तबस्सुम को ले जाना मत भूलना,’’ टीचर संजय ने सम?ाते हुए कहा.

अगले दिन संजय उदयपुर जा कर बंदूक ले आए और तबस्सुम को बंदूक दे दी. उस ने बंदूक को चूम लिया.

तबस्सुम बंदूक पा कर प्रैक्टिस में जुट गई. उसे खाना खाने तक की चिंता न रहती. लकड़ी के एक फट्टे पर काले रंग से गोले खींच लिए. उसे खड़ा कर के निशाना लगाती रहती.

‘‘पापा, मु?ो शूटिंग रेंज ले चलिए न. मैं शूटर बनना चाहती हूं,’’ तबस्सुम ने कहा.

‘‘छोटी सी उम्र में इतना बड़ा सपना,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘इस की दिमागी ताकत तो देखिए कितने गजब की है. इतनी तो बड़ों की भी नहीं होती है. मेरी मानो तो बच्ची की इच्छा को पूरा करना ही अच्छा रहेगा. इसे शूटिंग रेंज के अफसरों से मिल कर वहां भरती करवा दो,’’ फातिमा बोली.

‘‘मगर फातिमा, यह सब इतना आसान नहीं है, एक तो इस की उम्र कम है. दूसरे, हमारे पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि निशानेबाजी सीखने के लिए वहां फीस भर सकें. लेदे कर महीने में 2-3 हजार रुपए कमाता हूं,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘कुछ भी सही, बच्ची का दिल मत तोड़ो. उस की इच्छा है, तो चाहे कर्ज लेना पड़े, इसे किसी भी कीमत पर शूटिंग रेंज में भरती करवा दो,’’ फातिमा ने कहा, जो बच्ची का हुनर देख कर उस से प्रभावित हो चुकी थी.

‘‘तुम ठीक कह रही हो फातिमा. यह शूटर बन कर ही रहेगी. मगर क्या करूं, घर की माली हालत तो तुम देख रही हो. मैं मोटरसाइकिलों के पंचर लगा कर ही तो पैसे कमाता हूं. उसी छोटी सी आमदनी से घर का खर्च चला रहा हूं.’’

‘‘मैं तो कहती हूं, आप मुखियाजी से बात करो. शायद, कुछ बात बन जाए,’’ फातिमा बोली.

मुनव्वर अगले दिन ही मुखिया के यहां जा पहुंचा. वहां मसजिद के इमाम हाफिज भी बैठे थे.

मुनव्वर हिम्मत बटोर कर धीरे से बोला, ‘‘मुखियाजी, मेरी बेटी निशानेबाज बनना चाहती है. मैं इसे शूटिंग रेंज में भरती कराना चाहता हूं. आप मेरी मदद करेंगे, तो मु?ो अच्छा लगेगा.’’

इस से पहले कि मुखियाजी कुछ कहते, इमाम हाफिज कहने लगे, ‘‘भाई मुनव्वर, यह ठीक है कि आप अपनी बेटी को शूटर बनाना चाहते हैं. मेरी मानो, तो अभी इस की उम्र शूटिंग सीखने की नहीं है.

‘‘अच्छा होगा कि आप इसे कुरान याद कराओ. नहीं तो इस की शादी कर दो. बुजुर्गों ने कहा है कि बेटी की

शादी करना मांबाप के लिए जन्नत जाने जैसा है…’’

‘‘हमें बच्ची के सपनों के बीच नहीं

आना चाहिए. मैं तेरे साथ चलने को तैयार हूं,’’ मुखिया ने इमाम की बात काटते हुए कहा.

थोड़ी देर में वे सब शूटिंग रेंज के अफसर के पास पहुंच गए.

अफसर अपने केबिन में बैठे थे. सामने मेहमानों के बैठने के लिए सोफा रखा था. उन के शूटरों ने प्रतियोगिताओं में जो ट्रौफियां जीती थीं, वे सब कांच की अलमारी में रखी थीं.

अफसर खुद मजबूत कदकाठी के थे. वे बोले, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

‘‘हम आप के पास एक गुजारिश ले कर आए हैं. अगर आप मान लेंगे, तो हम अपने को खुशनसीब सम?ोंगे,’’ मुनव्वर ने कहा.

‘‘हां, हां कहो, क्या बात है?’’

‘‘मेरी बेटी तबस्सुम अच्छी निशानेबाज है. आप इसे शूटिंग रेंज में प्रैक्टिस करने की इजाजत दे दें, तो हमें अच्छा लगेगा,’’ मुनव्वर बोला.

अफसर ने तबस्सुम को एक नजर नीचे से ऊपर तक देखा. परखने के बाद वे बोले, ‘‘इस की उम्र क्या है?’’

‘‘8 साल.’’

‘‘इस लड़की की उम्र खेलनेकूदने की है, न कि बंदूक उठाने की.’’

यह सुन कर मुनव्वर का तो चेहरा ही उतर गया. वह हिम्मत बटोर कर बोला, ‘‘मैं जानता हूं सर, तबस्सुम कम उम्र

की है. मगर फिर भी आप उस की निशानेबाजी देख लें, उस के बाद किसी फैसले पर पहुंचें.’’

‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि मैं इस लड़की को प्रैक्टिस कराने और बंदूक साधने के लिए कोई आदमी लगा दूं?’’

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा.’’

‘‘फिर क्या मतलब है आप का?’’

‘‘तबस्सुम को निशानेबाजी में प्रैक्टिस की सख्त जरूरत है. इसे तकनीकी जानकारी चाहिए.’’

‘‘मुनव्वर मियां, इसे स्कूल में पढ़ने दो. इस के कंधों में इतनी ताकत नहीं है कि वे बंदूक का ?ाटका ?ोल सकें.’’

‘‘आप एक बार फिर अपने फैसले पर विचार करें और इसे प्रैक्टिस के लिए इजाजत दे दें,’’ मुखिया ने कहा, तो खेल अफसर ने सिर पकड़ लिया. वे बोले, ‘‘तुम्हारी यही जिद है, तो कल से इसे प्रैक्टिस के लिए भेज दो.’’

उस अफसर का फैसला सुन कर तबस्सुम उछल पड़ी. मुखिया, मुनव्वर और हाफिज के चेहरों पर मुसकान आ गई.

अगले दिन से मन लगा कर तबस्सुम निशानेबाजी की प्रैक्टिस करने लगी. उसे जिलास्तरीय प्रतियोगिता में भाग जो लेना था.

मुनव्वर तबस्सुम को ले कर निश्चित समय पर उदयपुर पहुंच गया. पर दिल्ली से आए कोच ने मना कर दिया, ‘‘तबस्सुम छोटी है और उस से बंदूक नहीं उठती है. उसे सहयोगी नहीं दिया जा सकता, इसलिए वह प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकती.’’

‘‘देखिए, मेरी बेटी को एक बार प्रतियोगिता में उतरने तो दीजिए. फिर देखना उस का हुनर,’’ मुनव्वर बोला.

‘‘खेलों के भी कुछ नियम होते हैं. तुम्हारे लिए नियम बदले तो नहीं जा सकते,’’ कोच ने कहा.

‘‘मैं आप को सिर्फ इतना कहूंगा कि आप एक बार उस की निशानेबाजी देख लें. आप को शिकायत का मौका नहीं मिलेगा,’’ मुनव्वर ने कहा.

काफी मानमनौव्वल के बाद कोच राजी हो गया.

अगले दिन मुनव्वर समय से प्रतियोगिता की जगह पर पहुंच गया. तबस्सुम को टीम में शामिल कर लिया गया. वह क्या निशाने पर निशाना साधे जा रही थी. कोच ने दांतों तले उंगली दबा ली.

उसे प्रतियोगिता में भाग लेने की रजामंदी दे दी गई.

तबस्सुम ने प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल जीता. दिल्ली से आए कोच और खेल अफसर दोनों खुश थे. तबस्सुम, मुनव्वर और फातिमा के तो पैर जमीन पर नहीं टिक रहे थे.

 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...