Equality Struggle: हर साल 14 अप्रैल को ‘अंबेडकर जयंती’ के मौके पर ‘नीला गमछा’ गले में लटका कर डाक्टर भीमराव अंबेडकर की एक हाथ में संविधान पकड़े और दूसरे हाथ से आसमान को उंगली दिखाती मूर्ति के ‘चरणों’ में झुक कर गुलाब या गेंदे के ‘लालपीले फूल’ चढ़ा देने भर से अगर आप ने काले फ्रेम का चश्मा और कोटपैंट पहने इस इनसान की सोच पकड़ ली है, तो आप गलत दिशा में जा रहे हैं. आप की इस इनसान को ले कर भ्रामक सोच आज भी कायम है.
डाक्टर भीमराव अंबेडकर को सम झने के लिए हमें जातिवाद के उस जहरीले सांप को सम झना होगा, जिस ने अपने अहंकार में आज तक अपनी केंचुली भी नहीं बदली है. हमें समाज की बेकार सोच के उस कूड़ेदान से वह आईना बाहर निकालना होगा, जिस में शूद्रों को उन की परछाईं तक नहीं दिखती है. कितने भयावह हालात हैं न?
एक उदाहरण से समझते हैं. एक समय देश के सब से ज्यादा पढ़ेलिखे लोगों में शुमार डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने संविधान को ले कर अपने एक भाषण में कहा था, ‘मैं यहां पर संविधान की अच्छाइयां गिनाने नहीं जाऊंगा, क्योंकि मु झे लगता है संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह अंतत: बुरा साबित होगा, अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग बुरे होंगे. और संविधान कितना भी बुरा क्यों न हो, वह अंतत: अच्छा साबित होगा, अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग अच्छे होंगे.’
किसी इनसान के अच्छा या बुरा होने की इस से ज्यादा सटीक व्याख्या नहीं हो सकती, क्योंकि यह बात वह आदमी भरी संसद में बोल रहा है, जिसे अपने बचपन से ले कर आज तक जाति के नाम पर दुत्कार, पीड़ा और नफरत ही मिली है. आज भले ही उस ने अपनी पढ़ाईलिखाई से अपने विचारों को ‘शुद्ध’ कर लिया है, पर जब वह यह शिक्षा पा रहा था, तब स्कूल में उसे ‘अशुद्ध’ होने का ‘जातिगत तमगा’ देने वालों ने पूरी ‘श्रद्धा’ से चाहा था कि ब्रह्मा के पैर से जन्मा यह ‘अछूत’ अपने पुश्तैनी काम के बो झ तले दब कर कीड़ेमकोड़े की तरह मरखप जाए.
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