9अप्रैल, 2023 की सुबह मैं अपने एक ठेकेदार दोस्त के साथ भोपाल के अशोका गार्डन इलाके के चौराहे पर था. यह चौराहा मजदूरों के लिए मशहूर है. सुबह 7 बजे से मजदूर यहां जमा होने लगते हैं और 8-9 बजे तक पूरे इलाके में वही नजर आते हैं. कुछ झुंड बना कर खड़े रहते हैं, तो कुछ अकेले अलगथलग, जिस से आने वालों की नजर उन पर जल्दी पड़ सके.

ठेकेदार साहब मुझे समझाते रहे कि देखो, अभी ये लोग 500 रुपए मजदूरी दिनभर की मांगेंगे, लेकिन जैसे ही 10 बज जाएंगे, इन के भाव कम होते चले जाएंगे.

ठेकेदार को अपनी साइट पर काम करने के लिए 4-5 मजदूर चाहिए थे, लेकिन उन की निगाहें लगता था कि खास किस्म के मजदूरों को ढूंढ़ रही थीं. पूछने पर उन्होंने बताया कि वे आदिवासी मजदूरों को खोज रहे हैं, क्योंकि वे बहुत मजबूत, मेहनती और ईमानदार होते हैं. शहरी मजदूरों की तरह निकम्मे और चालाक नहीं होते, जिन्हें हर 2 घंटे बाद खानेपीने के लिए एक ब्रेक चाहिए. कभी उन्हें हाजत होने लगती है, तो कभी बीड़ीसिगरेट की तलब लग आती है. लंच भी वे लोग

2 घंटे तक करते रहते हैं. कुल जमा सार यह है कि शहरी मजदूरों से काम करा पाना आसान काम नहीं, क्योंकि वे कामचोर होते हैं.

फिर आदिवासी मजदूरों की खूबियां गिनाते हुए ठेकेदार बताने लगे कि वे कामचोरी नहीं करते और 200 रुपए की दिहाड़ी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं, जबकि शहरी मजदूर 400 रुपए से कम में हाथ भी नहीं रखने देते.

आदिवासी मजदूर को शाम को घर जाने के समय चायसमोसा खिला कर एक घंटे और काम कराया जा सकता है. और तो और लंच में उन्हें अचार और कटी प्याज के साथ सूखी रोटियां दे दो, तो वे एहसान मानते हुए मुफ्त में ऐक्स्ट्रा काम भी कर देते हैं.

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