Social Story : बड़ा बेटा शंकर शराबी निकला और पत्नी को लकवा मार गया. इस बात से गणपत की कमर टूट गई. घर में बेटी की कमी न हो, तो गणपत ने शंकर का ब्याह करा दिया. पर बहू ललिता पति का प्यार पाने को तरस गई. क्या गणपत के घर में खुशियां लौटीं?
वह तीनों ही टाइम नशे में चूर रहता था. कभीकभी बेहद नशे में उसे देखा जाता था. वह चलने की हालत में नहीं होता था. पूरे शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही होती थीं. उसे कोई कुछ नहीं कहता था. न घर वाले खोजखबर लेते थे और न बाहर वालों का उस से कोई मतलब होता था.
शरीर सूख कर ताड़ की तरह लंबा हो गया था. खाने पर कोई ध्यान ही नहीं रहता था उस का. कभी घर आया तो खा लिया, नहीं तो बस दे दारू, दे दारू.
वह सुबह दारू से मुंह धोता तो दोपहर तक दारू पीने का दौर ही चलता रहता था. दोपहर के बाद गांजे का जो दौर शुरू होता, तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लेता था.
दोस्त न के बराबर थे. एक था बीरबल, जो उस के साथ देखा जाता था और दूसरा था एक ?ाबरा कुत्ता, जो हमेशा उस के इर्दगिर्द डोलता रहता था.
‘बहिरा दारू दुकान’ उस का मुख्य अड्डा होता था. वहीं से उस की दिन की शुरुआत होती और रात भी वहीं से शुरू होती, जिस का कोई पहर नहीं होता था. लोगों को अकसर ही वह वहीं मिल जाता था.
सुबहसुबह बहिरा भी उस का मुंह देखना नहीं चाहता था, लेकिन ग्राहक देवता होता है, उसे भगा भी नहीं सकता. पीता है तो पैसे भी पूरे दे देता है और बहिरा को तो पैसे से मतलब था. पीने वाला आदमी हो या कुत्ता, उसे क्या फर्क पड़ता?
अब कहोगे कि बिना नाम उसे रबड़ की तरह खींचते जा रहे हो… ऐसा नहीं था कि मांबाप ने उस का नाम नहीं रखा था या नाम रखना भूल गए थे.
मांबाप ने बड़े प्यार से उस का नाम शंकर रखा था, पर उन्हें क्या पता था कि बड़ा हो कर शंकर ऐसा निकलेगा.
कोई बुरा बनता है, तो लोग उसे नहीं, बल्कि उस की परवरिश को गाली देते हैं. किसी बच्चे को अच्छी परवरिश और अच्छी तालीम नहीं मिले, तो वह बिगड़ ही जाता है. मतलब कि बिगड़ने की पूरी गारंटी रहती है.
लेकिन शंकर के साथ ऐसा नहीं था. बचपन में जितना लाड़प्यार उसे मिलना चाहिए था, वह मिला था. जैसी परवरिश और जिस तरह की पढ़ाईलिखाई उसे मिलनी चाहिए थी, उस का भी पूरापूरा इंतजाम किया गया.
जब तक शंकर गांव के स्कूल में पढ़ा, तब तक घर में ट्यूशन पढ़ाने रोजाना शाम को एक मास्टर आया करता था, ताकि पढ़ाई में बेटा पीछे न रहे.
ऐसी सोच रखने वाले मांबाप गांव में कम ही मिलते हैं. जब वह बड़ा हुआ, तो रांची जैसे शहर के एक नामी स्कूल आरटीसी में उस का दाखिला करा दिया और होस्टल में ही उस के रहने का इंतजाम भी कर दिया. यहां भी ट्यूशन का इंतजाम कर दिया गया.
बस, यहीं से शंकर पर से मांबाप का कंट्रोल खत्म होना शुरू हो गया था. हालांकि, हर महीने उस का बाप गणपत उस से मिलने जाता था और घर की बनी ऐरसाठोंकनी रोटी बना कर उस की मां तुलसी देवी बाप के हाथों भिजवा देती थी, ताकि बेटे को कभी घर की कमी महसूस न हो और बाजार की बासी चीजें खाने से भी बचे.
पर न जाने क्या था या शायद समय ठीक नहीं था, शंकर बाहरी चीजें खाने पर ज्यादा जोर देने लगा था. घर की बनी रोटियां उसे उबाऊ लगती थीं और बक्से में पड़ीपड़ी रोटियां सूख कर रोटा हो जाती थीं. बाद में शंकर उसे बाहर फेंक देता था.
यह बात मां को पता चली, तो उसे बड़ा दुख हुआ और तब उस ने घर से कुछ भी भेजना बंद कर दिया.
‘‘खाओ बाजार की चीजें जितनी खानी हों. एक दिन बीमार पड़ोगे, तब समझोगे तुम,’’ तुलसी देवी ने एक दिन झल्ला कर कह दिया था.
शंकर का बाप गणपत एक कंपनी में डोजर औपरेटर था. हर महीने घर में 80-90 हजार रुपए ले कर आता था. वह चाहता था कि इन पैसों से उस का बेटा पढ़लिख कर डाक्टरइंजीनियर बने, बड़ा आदमी बने, तभी उस के पैसे का मान रहेगा, नहीं तो यह पैसा बेकार है उस के लिए, पर बेटे का चालचलन देख कर उस का मन घबरा उठता था.
इसी बीच तुलसी देवी को लकवा मार गया. उसे तत्काल रांची के एक अस्पताल में भरती कराया गया. पूरा शरीर लकवे की चपेट में आ गया था.
शंकर को भी इस की खबर मिली, पर रांची में रहते हुए भी वह मां को देखने तक नहीं आया. इम्तिहान का बहाना बना कर और पहले से तय दोस्तों के संग पिकनिक मनाने हुंडरू फाल चला गया. शाम को होस्टल लौटा, तो नशे में उस के पैर लड़खड़ा रहे थे.
होस्टल इंचार्ज ने जोर से फटकार लगाई, ‘‘पिकनिक मनाने की छुट्टी लोगे और बाहर जो मरजी करोगे, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’
‘‘सौरी सर, आगे से ऐसा नहीं होगा,’’ शंकर ने कहा. बहकने की यह उस की शुरुआत थी.
लकवाग्रस्त पत्नी के गम में डूबे गणपत की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि उस के घरपरिवार की गाड़ी कैसे चलेगी? घर की देखरेख, खानेपीने का इंतजाम कैसे होगा? आज उसे अपनेआप पर भी कम गुस्सा नहीं आ रहा था.
आज एक बेटी होती तो कम से कम रसोई की चिंता तो नहीं होती उसे. 2 बेटों के बाद ही उस ने पत्नी की नसबंदी करवा दी थी.
बड़ा बेटा शंकर और छोटा बेटा गुलाबचंद था, जो डीएवी स्कूल मकोली में क्लास 6 में पढ़ रहा था.
तुलसी देवी कहती रही, ‘‘कम से कम एक बेटी तो होने देता.’’
गणपत ने तब उस की एक नहीं सुनी थी, ‘‘बहुएं आएंगी, उन्हीं को तुम अपनी बेटी मान लेना.’’
आज गणपत का दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था. बिस्तर पर लेटी पत्नी को वह बारबार देखता और कुछ सोचने सा लगता.
तभी उसे छोट साढ़ू भाई की कही एक बात याद आई, ‘‘आप की कोई बेटी नहीं है तो क्या हुआ, मेरी 3 बेटियों में से एक आप रख लीजिए. बेटी की कमी भी पूरी हो जाएगी और उस की पढ़ाईलिखाई भी यहां ठीक से हो पाएगी.’
अचानक गणपत ने छोटे साढ़ू को फोन लगा दिया, ‘‘साढ़ू भाई, नमस्कार. आप लोगों को तो मालूम हो ही चुका है कि शंकर की मां को लकवा मार गया है और इस वक्त वह अस्पताल में पड़ी है.’’
‘जी हां, हमें यह जान कर बहुत दुख हुआ. अभी वे कैसी हैं? डाक्टर का क्या कहना है?’
‘‘कुछ सुधार तो है, पर डाक्टर का कहना है कि लंबा इलाज चलेगा. कई साल भी लग सकते हैं. हो सकता कि वह पूरी तरह कभी ठीक न हो पाए, यह भी डाक्टर कहता है…’’
गणपत एक पल को रुका था, फिर बोला, ‘‘साढ़ू भाई, याद है, आप ने एक बार मुझ से कहा था कि आप के 2 बेटे हैं और मेरी 3 बेटियां हैं, मेरी एक बेटी आप अपने पास रख लीजिए, बेटी की कमी भी पूरी हो जाएगी.
‘‘आज मैं सरिता को मांगता हूं. आप मुझे सरिता को दे दीजिए, उस की पढ़ाईलिखाई और शादीब्याह की सारी जिम्मेदारी मेरी. इस समय एक बेटी की मुझे सख्त जरूरत है साढ़ू भाई.’’
‘ठीक है, मैं सरिता की मां से बात करूंगा.’
2 दिन बाद गणपत के साढ़ू भाई का फोन आया, ‘माफ करना साढ़ूजी, सरिता की मां इस के लिए तैयार नहीं हैं.’
‘‘ओह, कोई बात नहीं है साढ़ू भाई. सब समय का फेर है. समस्या मेरी है तो समाधान भी मू?ो ही ढूंढ़ना होगा,’’ यह कह कर गणपत ने फोन काट दिया था.
तुलसी देवी के लकवे की तरह गणपत की सोच को भी उस वक्त लकवा मार गया था, जब शंकर के स्कूल वालों की ओर से एक दिन सुबहसुबह फोन पर कहा गया, ‘आप के बेटे शंकर को स्कूल और होस्टल से निकाल दिया गया है. जितना जल्दी हो सके, आ कर ले जाएं.’
यह सुन कर गणपत को लगा कि उस का संसार ही उजड़ गया है और उस के लहलहाते जीवन की बगिया में आसमानी बिजली गिर पड़ी हो.
गणपत अस्पताल के कौरिडोर से हड़बड़ी में उतरा और सड़क पर पैदल ही स्कूल की ओर दौड़ पड़ा. अपने समय में वह फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी हुआ करता था. अभी जिंदगी उस के साथ फुटबाल खेल रही थी.
स्कूल पहुंच कर गणपत स्कूल वालों के आगे साष्टांग झक गया और बोला, ‘‘बेटे ने जो भी गलती की हो, आखिरी बार माफ कर दीजिए माईबाप. दोबारा ऐसा नहीं होगा.’’
‘‘आप की सज्जनता को देखते हुए इसे माफ किया जाता है. ध्यान रहे, फिर ऐसा न हो,’’ स्कूल के प्रिंसिपल की ओर से कहा गया.
स्कूल गलियारे में ही गणपत को शंकर के गुनाह का पता चल गया था. स्कूल में होली की छुट्टी की सूचना निकल चुकी थी.
2 दिन बाद स्कूल का बंद होना था. उस के पहले स्कूल होस्टल में एक कांड हो गया, जिस में शंकर भी शामिल था.
दरअसल, लड़के के भेष में बाजार में सड़क किनारे बैठ हंडि़या बेचने वाली 2 लड़कियों को कुछ लड़के चौकीदार की मिलीभगत से होस्टल के अंदर ले आए थे. रातभर महफिल जमी, दारूमुरगे का दौर चला. दो जवान जिस्मों को दारू में डुबो कर उन के साथ खूब मस्ती की गई.
अभी महफिल पूरे उफान पर ही थी कि तभी होस्टल पर प्रबंधन की दबिश पड़ी. होस्टल इंचार्ज समेत 5 लड़के इस कांड में पकड़े गए.
होस्टल इंचार्ज और चौकीदार को तो स्कूल प्रबंधन ने तत्काल काम से हटा दिया और छात्रों के मांबाप को फोन कर हाजिर होने को कहा गया.
गणपत माथे पर हाथ रख कर वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगा. बेटे को ले कर उस ने जो सपना देखा था, वह सब खाक होता दिख रहा था.
फिर भी उस ने शंकर से इतना जरूर कहा, ‘‘अगले साल तुम को मैट्रिक का इम्तिहान देना है, बढि़या से तैयारी करो,’’ और वह अस्पताल लौट आया.
3 महीने बाद तुलसी देवी को अस्पताल के बिस्तर से घर के बिस्तर पर शिफ्ट कर दिया गया.
घर में तुलसी देवी की देखभाल के लिए कोई तो चाहिए? इस सवाल ने गणपत को परेशान कर दिया.
बड़ी भागदौड़ कर के वह प्राइवेट अस्पताल की एक नर्स को मुंहमांगे पैसे देने की बात कर घर ले आया.
तुलसी देवी को अपनी सेवा देते हुए अभी नर्स गीता को 2 महीने ही पूरे हुए थे कि एक दिन उस ने सुबहसुबह गणपत को यह कह कर चौंका दिया, ‘‘अब मैं यहां काम नहीं कर सकूंगी.’’
‘‘क्यों…? किसी ने कुछ कहा क्या या हम से कोई भूल हुई?’’ गणपत ने हैरान हो कर पूछा.
‘‘नहीं, पर यहां की औरतें अच्छी नहीं हैं.’’
‘‘मैं समझ गया. बगल वाली करेला बहू ने कोई गंदगी फैलाई होगी. ठीक है, तुम जाना चाहती हो, जाओ. मैं रोकूंगा नहीं. कब जाना है, बता देना…’’
गणपत जैसे सांस लेने को रुका था, फिर शुरू हो गया, ‘‘आप को अस्पताल में ‘सिस्टर गीता’ कहते होंगे लोग, और मैं आप को अपनी छोटी बहन समझता हूं…’’ बोलतेबोलते गणपत का गला भर आया और आंखें छलक पड़ीं.
इसी के साथ गणपत तुरंत बाहर चला गया. गीता उसे जाते हुए देखती रह गई.
शंकर ने बेमन से मैट्रिक बोर्ड का इम्तिहान दिया और 3 महीने बाद उस का नतीजा भी आ गया. वह सैकंड डिवीजन से पास हुआ था.
रिजल्ट कार्ड ला कर बाप के हाथ में रखते हुए उस ने कहा, ‘‘इस के आगे मैं नहीं पढ़ूंगा. पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता. यह रिजल्ट आप रख लीजिए,’’ इसी के साथ वह घर से निकल पड़ा. गणपत हैरान सा बेटे को जाते हुए देखता रहा.
एक हफ्ते तक जब शंकर घर नहीं लौटा, तब किसी ने कहा कि वह कोलकाता चला गया है.
गणपत के साथ यह सब क्यों हो रहा था? वह हैरान था. परेशानी के चक्रव्यूह ने चारों तरफ से उसे घेर रखा था और वह रो भी नहीं सकता था, मर्द जो ठहरा.
दोपहर को गणपत काम से घर लौटा. गीता तुलसी देवी को खाना खिला रही थी. साबुनतौलिया लिए वह सीधे बाथरूम में चला गया. नहा कर आया, तो गीता ने खाना लगा दिया.
‘‘इस घर में बहू आ जाएगी, तभी मैं जाऊंगी,’’ गीता बोली.
‘‘बहू…’’ कहते हुए गणपत ने गीता पर नजर डाली और खाना खाने लगा. उस की मरी हुई भूख जाग उठी थी.
खाना खा कर उठा तो गणपत फिर बुदबुदाया, ‘‘बहू…’’ उसे भी लगा कि शंकर को सुधारने का अब एक ही रास्ता है कि उस की शादी करा दी जाए. बहू अच्छेअच्छे नशेबाजों की सवारी करने में माहिर होती है, ऐसा गणपत का मानना था.
शंकर के लिए शादी जरूरी थी या नहीं, पर उस घर को एक बहू की सख्त जरूरत थी. यही सोच कर गणपत ने संगीसाथियों के बीच बात चलाई और एक दिन नावाडीह की पढ़ीलिखी, सुशील और संस्कारी किसान की बेटी ललिता के साथ बेटे की शादी तय कर दी गई.
ललिता बहुत खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन बदसूरत भी नहीं थी. वह किसी के शरीर में उबाल ला सकती है, ऐसी जरूर थी.
एक दिन गणपत ने शंकर से कहा, ‘‘हम ने तुम्हारे लिए एक लड़की पसंद की है, किसी दिन जा कर देख लो और शादी का दिन पक्का कर लो.’’
‘‘आप की पसंद ही मेरी पसंद है,’’ शंकर ने कहा.
शंकर की बरात में उस के साथी नशे में झूम रहे थे. बरात जब दुलहन के दरवाजे पर पहुंची, तो घराती हैरान थे कि न जाने ललिता के लिए यह कैसा दूल्हा पसंद किया है.
शादी का मुहूर्त निकला जा रहा था और शंकर अपने साथियों के साथ डीजे पर अब भी नाच रहा था. वह भूल चुका था कि वह बराती नहीं, बल्कि दूल्हा है और उसे शादी भी करनी है.
तभी वहां शंकर के होने वाले 2 साले आए और चावल की बोरी की तरह शंकर को उठाया और सीधे मंडप में ले जा कर धर दिया. तब भी शंकर का नशा कम नहीं था.
पंडित बैठा विवाह के श्लोक पढ़ रहा था, पर शंकर अपनी ही दुनिया में जैसे मगन था. वह न पंडित की किसी बात को सुन रहा था और न ही उस की तरफ उस का ध्यान था. उसे देख कर लगता नहीं था कि वह शादी करने आया है.
दुलहन विवाह मंडप में लाई गई. तब भी शंकर होश में नहीं था. जब सिंदूरदान की बेला आई, सभी उठ खड़े हुए और जब शंकर को उठने को बोला गया, तो वह बड़ी मुश्किल से उठ खड़ा हुआ था. तभी गणपत आगे बढ़ा और बेटे के हाथ से दुलहन की मांग भरी गई.
बेटी का बाप करीब आ कर गणपत से बोला, ‘‘समधीजी, मैं आप के भरोसे अपनी बेटी दे रहा हूं. देखना कि इसे कोई तकलीफ न हो.’’
‘‘आप निश्चिंत रहें, आप की बेटी हमारे घर में राज करेगी, राज,’’ गणपत ने बेटी के बाप से कहा.
दुलहन के बाप के दिल में ठंडक पड़ी. दोनों एकदूसरे के गले लगे.
घर में बहू आ गई. गणपत ने नर्स गीता को ढेर सारे उपहार दे कर बहन की तरह विदाई करते हुए कहा, ‘‘बहुत याद आओगी, आती रहना.’’
‘‘इस घर को मैं कभी भुला नहीं पाऊंगी,’’ गीता ने कहा.
ललिता को इस घर में आए सालभर हो चुका था, पर और बहुओं की तरह उस की जिंदगी में अभी तक सुहागरात नहीं आई थी. दो दिलों में बहार का आना अभी बाकी था, पर जैसेजैसे समय बीतता गया, शादी उस के लिए एक पहेली बन गई.
देखने के लिए तो पूरा घर और सोचने के लिए खुला आसमान था. काम के नाम पर रातभर तारे गिनना और दिनभर सास की सेवा में गुजार देना होता. परंतु पति का प्यार अभी तक उस के लिए किसी सपने की तरह था. कुलटा बनना उस के संस्कार में नहीं था.
‘घर के बाहर जिस औरत की साड़ी एक बार खुल जाती है, तो बाद में समेटने का भी मौका नहीं मिलता…’ विदा करते हुए बेटी के कान में मां ने कहा था.
सालभर में ही ललिता ने रसोई से ले कर रिश्तों तक को सूंघ लिया था. सास तुलसी देवी को लकवा मारे 2 साल से ऊपर का समय हो चला था. अब करने को कुछ बचा नहीं था.
सासससुर के मधुर संबंधों को भी जैसे लकवा मार गया था. इस कमी को ललिता का ससुर कभी सोनागाछी तो कभी लछीपुर जा कर पूरा कर आता था.
शुरू में तो ललिता को इस पर यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन पड़ोस की एक काकी ने एक दिन जोर दे कर कह ही दिया था, ‘‘यह झूठ नहीं है, सारा गांव जानता है.’’
फिर भी ललिता चुप रही. अब उस ने रिश्तों की जमीन टटोलनी शुरू कर दी थी.
शंकर में कोई बदलाव नहीं हुआ था. जैसा पहले था, वैसा ही आज भी था. आज भी उसे नूनतेल और लकड़ी से कोई मतलब नहीं था. पत्नी को वह उबाऊ और बेकार की चीज समझने लगा था.
ललिता रंग की सांवली थी, पर किसी को भी रिझ सकती थी. कमर तक लहराते उस के लंबेलंबे काले बाल किसी का भी मन भटकाने के लिए काफी थे. उस का गदराया बदन पानी से लबालब भरे तालाब की तरह था, लेकिन शंकर था कि वह उस की तरफ देखता तक नहीं था.
ऐसे में जब शंकर घर से जाने लगता, तो ललिता उस का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती और कहती, ‘‘कहां चले, अब कहीं नहीं जाना है, घर में रहिए.’’
‘‘देखो, तुम मुझे रोकाटोका मत करो, खाओ और चुपचाप सो जाओ.
तुम मुझ से ऐसी कोई उम्मीद न करना, जो मैं दे न सकूं. नाहक ही तुम को तकलीफ होगी.’’
इस के बाद शंकर घर से निकल जाता, तो लौटने में कभी 10-11 बज जाते, तो कभी आधी रात निकल जाती थी. ललिता छाती पर हाथ रख कर सो जाती. आंसू उस का तकिया भिगोते रहते. कैसा होता है पहला चुंबन और कैसा होता है उभारों का पहला छुअन… उन का मसला जाना. उस की सारी इच्छाएं अधूरी थीं.
छुट्टी के दिन गणपत घर से बाहर निकल रहा था कि ललिता ने टोक दिया, ‘‘हर हफ्ते जिस जगह आप जाते है, वहां नहीं जाना चाहिए.’’
‘‘बहू, इस तरह टोकने और कहने का क्या मतलब है…?’’ गणपत ठिठक कर खड़ा हो गया.
‘‘मैं सब जान चुकी हूं. सास को लकवा मारना और हर हफ्ते आप का बाहर जाना, यह इत्तिफाक नहीं है. उसे जरूरत का नाम दिया जा सकता है. पर जरा सोचिए, जो बात आज सारा गांव जान रहा है, कल वही बात छोटका बाबू गुलाबचंद को मालूम होगी, तब उस पर क्या गुजरेगी, इस पर कभी सोचा है आप ने?’’
‘‘ऐसा कुछ नहीं है, जैसा तुम समझ रही हो बहू.’’
‘‘आप को नहीं मालूम कि गांव में कैसी चर्चा है. सब बोलते हैं कि पैसे ने बापबेटे का चालचलन बिगाड़ दिया है. बेटा नशेबाज है और बाप औरतबाज.’’
‘‘बहू…’’ गणपत चीख उठा था, ‘‘कौन है, जो इस तरह बोलता है? किस ने तुम से यह बात कही? मुझे बताओ…’’
‘‘इस से क्या होगा? गंदगी से गुलाब की खुशबू नहीं आएगी… बदबू ही फैलेगी.’’
सालभर में ऐसा पहली बार हुआ था, जब छुट्टी के दिन गणपत कहीं बाहर नहीं गया. बहू की बातों ने उसे इस कदर झकझोर डाला कि वह सोच में पड़ गया. वापस कमरे में पहुंचा और कपड़े बदल कर सो गया, पर बहू की बातों ने यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ा, ‘बेटा नशेबाज और बाप औरतबाज…’
लेटेलेटे गणपत को झपकी आ गई और वह सो गया. दोपहर को उसे जोर से प्यास लगी. उस ने बहू को आवाज दी. वह पानी ले कर आई.
गणपत ने गटागट पानी पी लिया. ललिता जाने लगी, तो उस ने कहा, ‘‘तुम्हारा कहा सही है, मैं जो कर रहा था गलत है, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’
ललिता के मुंह से भी निकल गया, ‘‘मैं यह मानती हूं कि आप अभी भरपूर जवान हैं, बूढ़े नहीं हुए हैं. आप का शरीर जो मांगता है, उसे मिलना चाहिए. लेकिन, आप जिस जगह जा रहे हैं, वह जगह सही नहीं है.’’
‘‘तुम ठीक कह रही हो बहू.’’
‘‘आप बाहर की दौड़ लगाना छोडि़ए और घर में रहिए. आप को किसी चीज की कमी नहीं होगी,’’ कहते हुए ललिता अपने कमरे में चली गई.
गणपत पहली बार ललिता को गौर से देख रहा था और उस की कही बातों का मतलब निकाल रहा था.
उस दिन के बाद से गणपत ने बाहर जाना छोड़ दिया. छुट्टी के दिन वह या तो घर में रहता या फिर किसी रिश्तेदार के यहां चला जाता. इस बदलाव से खुद तो वह खुश था ही, भूलते रिश्तों को भी टौनिक मिल गया था.
उस दिन भी गणपत घर में ही था. दोपहर का समय था. पत्नी के कमरे में बैठा उस की देह सहला रहा था. मुद्दतों के बाद तुलसी देवी पति का साथ पा कर बेहद खुश थी.
कमरा शांत था. किसी का उधर आने का भी कोई चांस नहीं था. शंकर अपनी मां के कमरे में कभी आता नहीं था. अपनी मां को कब उस ने नजदीक से देखा है, उसे याद नहीं. ललिता अपने कमरे में लेटी ‘सरिता’ पत्रिका पढ़ रही थी. पत्रिका पढ़ने की उस की यह आदत नई थी. उस वक्त तुलसी देवी का हाथ पति की जांघ पर था.
उसी पल खाना ले कर ललिता कमरे में दाखिल हुई. अंदर का नजारा देख कर वह तुरंत बाहर जाने लगी. तभी उसे ससुर की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘रुको, सास को खाना खिलाओ, मैं बाहर जा रहा हूं.’’
रात के 10 बज चुके थे. ललिता ने सास को खाना और दवा खिला कर सुला दिया था. ससुर को खाना देने के लिए बहू बुलाने गई, तो उन्हें कमरे के बाहर बेचैन सा टहलते पाया. बहू ललिता बोली, ‘‘खाना खा लेते, रोटी ठंडी हो जाएगी.’’
‘‘खाने की इच्छा नहीं है. तुम जाओ और खा कर सो जाओ…’’
‘‘आप को क्या खाने की इच्छा है, बोलिए, बना दूंगी.’’
‘‘कुछ भी नहीं, मेरा मन ठीक नहीं है,’’ कह कर गणपत अपने कमरे में जाने लगा. तभी ललिता की आवाज सुनाई दी, ‘‘आप का मन अब मैं ही ठीक कर सकती हूं. मैं ने एक दिन आप से कहा था कि जब घर में खाने के लिए शुद्ध और स्वादिष्ठ भोजन रखा हो, तो खाने के लिए बाहर नहीं जाना चाहिए. वह घड़ी आ चुकी है,’’ कह कर ललिता अपने कमरे की तरफ मुड़ गई. उस की चाल में एक नशा था.
गणपत बड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा. नहीं… नहीं… ऐसा ठीक नहीं होगा, दुनिया क्या कहेगी… रिश्तों का क्या होगा… समाज जानेगा… उस का कौन जवाब देगा… देखो, घर की बात है और दोनों को एकदूसरे की जरूरत भी है…
आगे बढ़ने के लिए जैसे कोई उसे उकसा रहा था, पीछे से धकिया रहा था… आगे बढ़ो… आगे बढ़ो… दुनिया जाए भाड़ में…
अंदर से कमरे का दरवाजा बंद कर गणपत ने सामने देखा, अंगड़ाई लेता हुआ एक जवां जिस्म बांहें फैलाए खड़ा था.
गणपत बेकाबू हो चुका था. शायद वह भी इसी पल के इंतजार में था. वह ललिता के कमरे में चला गया.
थोड़ी देर के बाद शंकर ने घर में कदम रखा. पहले वह रसोई में गया. उस ने 2 रोटी खाई और अपने कमरे की ओर बढ़ा. दरवाजा अंदर से बंद था. धक्का दिया, पर खुला नहीं.
शंकर बाहर जाने को मुड़ा कि तभी अंदर से हलकीहलकी आवाजें सुनाई पड़ीं.
‘‘तुम दोनों कभी मिले नहीं थे क्या?’’ गणपत ललिता से पूछ रहा था.
‘‘नहीं… आह… आप तो बुलडोजर चला रहे हैं,’’ ललिता बोली.
‘‘अब तो यह बुलडोजर हर दिन चलेगा.’’
‘‘और शंकर का क्या होगा?’’
‘‘अब तुम उस के बारे में सोचना छोड़ दो.’’
‘‘फिर मैं किस की रहूंगी?’’
‘‘अभी किस की हो?’’
‘‘आप को क्या कहूंगी? ससुर या शाहजहां?’’
‘‘शाहजहां… आज से तुम मेरी और मैं तुम्हारा. अब से तुम्हारी सारी जिम्मेदारी मेरी.’’
बाहर खड़े शंकर ने अंदर की सारी बातें सुनीं. इस से पहले कि कोई उसे वहां देख ले, दबे पैर वह घर से जो निकला, लौट कर फिर कभी उस घर में नहीं आया.
गणपत की बगिया में ललिता ने अपना घोंसला बना लिया था.
लेखक – श्यामल बिहारी महतो