Hindi Story: ‘‘कहो राजप्रसाद, कैसे हो?’’

‘‘आओ दिनेश भैया, बैठो. इस बार तो बहुत दिनों के बाद आए हो. बताइए भैया, कैसे आना हुआ?’’ राजप्रसाद ने मुसकराते हुए पूछा.

मैं ने उस की सामान की पेटी पर बैठते हुए कहा, ‘‘राजप्रसाद, तुम्हारे पास कोई किस काम के लिए आ सकता है? देखना, जरा इस सैंडल पर पौलिश कर देना.’’

राजप्रसाद ने सैंडल ले ली और मु झे पहनने के लिए चप्पल दे दी.

‘‘बस भैया, ये जूते टांक दूं और फिर मैं आप की सैंडल पर पौलिश करता हूं.’’

‘‘हां, राजप्रसाद, मु झे कोई जल्दी नहीं है. आराम से कर देना,’’ मैं ने सहजता से कहा.

राजप्रसाद उस जूते को गांठने में लग गया और मैं अपने विचारों में खो गया.

राजप्रसाद को मैं कई सालों से जानता था. वह न जाने कितने सालों से सड़क के किनारे इसी नीम के पेड़ के नीचे बैठा अपना मोची का काम करता आ रहा है.

बिना दीवारों और बिना छत की पेड़ की छांव ही उस की खुली दुकान है. इस दुकान पर कोई भी बिना रोकेटोके आ सकता है.

पेड़ की छांव पृथ्वी की घूर्णन गति से घूमती हुई सुबह से शाम तक अपना पाला बदल देती है, इसलिए राजप्रसाद ने एक लोहे की छड़ को धरती के सीने में गाड़ रखा है और उस पर एक बड़ी छतरी को बांध कर अपनी दुकान का शामियाना तान रखा है. चेहरे पर हरदम मुसकान उस की खुशहाल जिंदगी की गवाह है.

मेहनत के पसीने से भीगी उस की बनियान उस की श्रमशक्ति की खास पहचान है. उस की ईमानदारी और मेहनत देख कर मन में अपनेआप ही इज्जत का भाव पैदा होता है.

थोड़ी देर के बाद दिनेश ने पूछा, ‘‘राजप्रसाद, यहां बैठते हुए तुम्हें कितने साल हो गए?’’

‘‘अरे भैया, बस ये ही तकरीबन 30-35 साल.’’

‘‘एक लंबा अरसा हो गया फिर तो राजप्रसाद. तुम ने तो यहां की दुनिया को खूब बदलते देखा होगा, क्यों?’’

‘‘हां भैया, इतने अरसे में तो यहां की पूरी दुनिया ही बदल गई. सामने एकमंजिला दुकानें थीं, अब देखो, यहां बहुमंजिला इमारत खड़ी है. किराएदार, मकान मालिक, दुकान मालिक सब बदल गए.

‘‘पहले यह दुकान अखबारों और पत्रिकाओं की दुकान हुआ करती थी. यहां नौकरी के फार्म खूब बिका करते थे. जब से चीजें औनलाइन हुई हैं, यह दुकान स्टेशनरी और स्कूल की किताबों की दुकान बन कर रह गई.’’

दुनियादारी की बातों से हट कर कुछ सोचते हुए मैं ने कहा, ‘‘अच्छा राजप्रसाद, अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछ लूं तुम से…’’

‘‘अरे भैया, बुरा क्यों मानेंगे? आप एक नहीं, दो बातें पूछो,’’ राजप्रसाद ने बड़े विश्वास के साथ कहा.
तब मैं ने थोड़ा हिचकिचाते हुए पूछा, ‘‘क्या इस मोचीगीरी के काम से तुम्हारा घरखर्च निकल जाता है?’’

‘‘अरे भैया, आप खर्चे की बात कर रहे हो, इसी की आमदनी से मैं ने अपना मकान बना लिया है. 2 बेटियों को पढ़ालिखा कर उन की अच्छे परिवारों में शादी कर दी है.

‘‘मेरी एक बेटी तो सरकारी मास्टरनी है, सरकारी. दूसरी बेटी भी शादी के बाद पीएचडी कर रही है.’’

‘‘अरे वाह राजप्रसाद. तुम ने तो कमाल कर दिया. मैं तो सोचता था कि इस काम से तुम्हारे घर का खर्चा भी बड़ी मुश्किल से निकलता होगा.’’

‘‘नहीं भैया, ऐसा कुछ नहीं है. मोचीगीरी में इतना काम है कि संभाले नहीं संभलता. लोग तो यह सम झते हैं कि हमारे पास केवल जूतेचप्पल टांकने और उन पर पौलिश करने का काम भर है, लेकिन हमारे पास इस के अलावा भी किसानों, दुकानदारों और यहां तक कि फैक्टरियों तक से चमड़े का सामान सिलाई के लिए आता है.’’

‘‘ये सब चीजें तो राजप्रसाद हम जैसों के खयाल में ही नहीं आती हैं,’’ दिनेश बोला.

‘‘भैया, दुनिया की सोच बदलने में जमाने गुजर जाते हैं. आज भी हमें सदियों पुराने मोची की ही नजर से देखा जाता है. वही फटेपुराने कपड़ों वाला, टूटेफूटे मकान में रहने वाला,’’ राजप्रसाद की बात को सुन कर मैं भी सोच में पड़ गया.

मैं ने भी वही सदियों पुरानी सोच पाल रखी थी. मैं ने सच स्वीकारते हुए कहा, ‘‘राजप्रसाद, तुम ने तो आज मेरी भी सोच बदल दी. मेरी सोच भी दूसरों की ही तरह थी. अच्छा, तुम्हारे क्या कोई बेटा भी है?’’

‘‘हां भैया, एक बेटा भी है. उस ने कुछ दिन पहले ही एमबीए किया है और नोएडा में एक कंपनी में उस की नईनई नौकरी लगी है. अभी उस का 3 लाख रुपए से कुछ ज्यादा का सालाना पैकेज है. इतना तो मैं यहां बैठेबैठे कमा लेता हूं.’’

‘‘तो फिर राजप्रसाद, तुम ने अपने बेटे को इसी काम में क्यों नहीं लगाया?’’

‘‘अब देखो भैया, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं, हमारे यहां कामधंधे को ले कर लोगों की सोच बड़ी खराब है. मोचीगीरी के काम को सब छोटा काम सम झते हैं. खुद मैं भी इसी सोच का शिकार हूं.

‘‘वह कंपनी में नौकरी कर रहा है, तो उस की इज्जत है. लेकिन दुनिया वाले नहीं सम झते हैं कि वह दूसरों की नौकरी ही कर रहा है. मैं खुद के धंधे का मालिक हूं, लेकिन मेरा कोई सम्मान नहीं. भैया, मैं तो बस मोची हूं, मोची.’’

राजप्रसाद की बात सच्ची, पर दमदार थी. उस की पते की बात पर मैं ने कहा, ‘‘राजप्रसाद, तुम बिलकुल सही कहते हो. कोई कुछ भी कहे, अपना काम अपना होता है और दूसरों की नौकरी बजाने से लाख बेहतर होता है.’’

‘‘है न भैया, मैं ने तो अपने बेटे से भी यही कहा था कि इसी जमेजमाए काम को संभाल ले. अगर यहां बैठने में लाज आती है, तो दुकान खुलवाए देता हूं, वहीं 2 लड़के रख लेना.’’

‘‘तो फिर उस ने क्या जवाब दिया राजप्रसाद?’’

‘‘कहने लगा, पापा, आप भी कैसी बातें करते हो? मैं एमबीए कर के दूसरों की जूतियां टांकूंगा क्या? आज छोटी पोस्ट पर हूं, कल बड़ी पोस्ट मिलेगी. आज छोटा पैकेज है, कल बड़ा पैकेज मिलेगा. मु झे भी लगा, बेटा कह तो सही रहा है.’’

‘‘हां, राजप्रसाद. तुम्हारे बेटे ने एमबीए किया है, उस की भी अपनी सोच, अपना स्वाभिमान है.’’

अब तक राजप्रसाद ने मेरी सैंडल पौलिश कर दी थी. मैं ने उस से विदा ली.

फिर बहुत लंबे समय तक उधर जाना नहीं हुआ. इस के बाद जब एक दिन उधर जाना हुआ तो मु झे अचानक से राजप्रसाद की याद आई. उस से मिलने को न जाने क्यों मन आतुर था. बहाना वही पुराना, लेकिन इस बार सैंडल नहीं जूतों पर पौलिश कराना था.

लेकिन आज नीम अकेला था. कुछ उदास. उस के नीचे की दुनिया गायब थी. उस जगह को देख कर लगता था, यहां से कोई बहुत पहले अपना तंबू उखाड़ कर ले जा चुका है.

एकबारगी लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि राजप्रसाद इस दुनिया से ही चला गया हो. आज की दुनिया में इस शरीर और सड़क हादसों पर कोई भरोसा नहीं… कब क्या हो जाए.

अब तो दिल की धड़कनों के साथ जिज्ञासा भी बढ़ गई. सामने वाले दुकानदार से पता किया तो उस ने अपने चमकीले दांतों से मुसकान बिखेरते हुए बड़े सम्मान के साथ कहा, ‘‘अच्छा, आप राजप्रसादजी के बारे में पूछ रहे हो.’’

उस के मुंह से ‘राजप्रसाद’ की जगह ‘राजप्रसादजी’ सुन कर तो मैं भी कुछ अचकचाया.

मैं ने सोचा कि कोई गलतफहमी न हो, इसलिए कहा, ‘‘हां, वह राजप्रसाद मोची ही है.’’

‘‘हां जी, हां. मैं भी उन्हीं की बात कर रहा हूं. अब तो उन की जिंदगी बदल चुकी है. वह देखो, वह रहा उन का शोरूम, जिस पर लिखा है ‘राजप्रसाद बूट्स ऐंड शूज’. अब वे वहीं बैठते हैं मालिक बन कर.’’

मैं ने हैरानी से कांच का दरवाजा खोल कर जैसे ही शोरूम में प्रवेश किया, तो मेरी नजर सामने रखे चमचमाते जूतों और चप्पलों पर पड़ी. तभी काउंटर से किसी जानीपहचानी आवाज ने पुकारा, ‘‘अरे भैया, इधर आओ. कितने दिनों के बाद दिखाई दिए हो. आओ बैठो. अरे गुड्डू जाओ, जरा भैया के लिए चाय बोल कर आओ.’’

‘‘अरे नहीं, राजप्रसादजी,’’ मैं उन का रुतबा और शानोशौकत देख कर उन के नाम में ‘जी’ लगाने से खुद को रोक नहीं पाया.

‘‘अरे भैया, हम कोई ‘जी’ नहीं हैं. हम वही पुराने वाले राजप्रसाद हैं. हमें ‘राजप्रसाद’ ही बोलिए, आप के मुंह से सुन कर अच्छा भी लगता है और प्रेम की मिठास भी आती है. पुराने दिन याद आते हैं.’’

मैं ने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘लेकिन, यह तो बताओ कि यह सब हुआ कैसे?’’

‘‘भैया, यह सब तो बेटा देव ही बताएगा. उसी की जबान से सुनना. बड़ा मजा आएगा. बड़ी रोचक कहानी है. बस, कुछ ही देर में वह आने वाला है.’’

यह सुन कर मैं उस रोचक किस्से को सुनने के लिए उतावला हो उठा.

कुछ ही देर बाद उस शोरूम के सामने एक चमचमाती कार आ कर रुकी. उस में से बनाठना एक स्मार्ट नौजवान उतरा. वही हमारे मोची का बेटा था. ऐसा लगता था कुदरत ने जैसे उसे फुरसत के पलों में गढ़ा था, बेहद हैंडसम.

राजप्रसाद ने उस का और मेरा परिचय कराया. उस ने पैर छू कर मेरा आशीर्वाद लिया.

तब राजप्रसाद ने उस से कहा, ‘‘बेटा देव, ये मेरे बहुत पुराने परिचित हैं, लेखक भी हैं. ये तुम से कुछ जानना चाहते हैं. इन से कुछ भी मत छिपाना.’’

देव मुझे अपने केबिन में ले गया. तब उस ने मुझे अपना रोचक किस्सा सुनाना शुरू किया.

‘‘जी अंकल, एमबीए करने के बाद मेरी नौकरी एक बड़ी कंपनी में लग गई. जब मैं पहले दिन अपने औफिस गया, तो वहां बेला को देख कर चौंक गया.’’

‘‘यह बेला कौन है बेटा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अंकल, बेला से मेरी जानपहचान बचपन से थी. वह मेरे ही महल्ले में रहती थी. बेला को पहले से ही पता था कि मेरी नौकरी वहां लगने वाली है.

‘‘जैसे ही मैं अपने औफिस में पहुंचा, बेला खटाक से वहां आई और बोली, ’’आ गया चिकने. क्या तु झे पता नहीं था कि मैं यही पर हूं? चल, अब देखती हूं तुझे.’’

‘‘अरे बाप रे, कोई लड़की ऐसे बोलती है क्या?’’ मैं ने हैरानी से कहा.

‘‘अंकल, उस की बात मत पूछो. वह बचपन से ही मुंह भरभर कर गालियां बका करती थी. जैसे उस का मुंह न हो, गालियों की खान हो. मांबहन की गालियां तो हरदम उस के होंठों पर ही रहती थीं.

‘‘खैर, उस समय तो बेला वहां से चली गई, लेकिन मेरे दिल में सिहरन पैदा कर गई, क्योंकि वह क्या कर सकती है, इस का अंदाजा लगाना भी मुश्किल था.’’

‘‘अरे देव, ऐसा क्यों कहते हो? क्या बेला इतनी बुरी थी?’’

‘‘अंकल, आप आगे का किस्सा सुनो, फिर आप ही फैसला करना कि वह कैसी थी.’’

‘‘अच्छा सुनाओ, अब तो तुम ने इस किस्सागोई में मेरी दिलचस्पी और बढ़ा दी. आखिर कैसी थी बेला, यह जानने को मैं उतावला हो उठा हूं.’’

‘‘अंकल, मु झे भी अपना बचपन याद आ गया, जब बेला और मैं बचपन में साथसाथ खेला करते थे. जैसेजैसे हमारा बचपन पीछे छूटा और हमें लड़कालड़की के फर्क का पता चला, तो धीरेधीरे हमारा साथसाथ खेलनाकूदना भी छूट गया.

‘‘वह कदकाठी में भी मेरे से बड़ी लगती थी. आप को तो मालूम ही होगा कि लड़कियां लड़कों से पहले बड़ी हो जाती हैं.’’

‘‘हां बेटा, आगे सुनाओ.’’

‘‘अंकल, बेला अलग ही मिजाज की थी. उसे लड़कों से दोस्ती करना खूब पसंद था. जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही उस ने कई बौयफैं्रड बना लिए थे. बातबात पर आंख मारना उस की आदत बन गई थी.

वह मु झे भी अपना बौयफ्रैंड बनाना चाहती थी, लेकिन मु झे तो पढ़नेलिखने से ही फुरसत नहीं थी.’’

इस कहानी में मुझे रस आ रहा था. मैं ने कहा, ‘‘देव, बड़ी अजीब और रसीली लड़की थी बेला.’’

‘‘हां अंकल, वह ऐसी ही थी रोमांटिक टाइप. बेला ने 12वीं क्लास तक आतेआते सारी हदें पार कर दी थीं.

वह अपने यारों के साथ खूब इधरउधर घूमा करती थी. उस के बारे में बहुतकुछ सुनने को मिलने लगा था.

‘‘ऐसा लगता था कि अब वह खुल कर खेलने लगी है. लेकिन एक दिन मेरे साथ कुछ अलग हुआ.’’

‘‘क्या हुआ था देव? क्या तुम ने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया था?’’

‘‘नहीं अंकल, मै इन बातों में था ही नहीं. हुआ यह कि एक दिन बेला ने मु झे किसी लड़की से बातें करते देख लिया.’’

‘‘तो इस में कौन सी बड़ी बात थी. आजकल तो यह बड़ी सामान्य सी बात है.’’

‘‘अंकल, यह किसी और के लिए सामान्य बात हो सकती थी, लेकिन बेला के लिए नहीं. अगले दिन कालेज से लौटते वक्त बेला ने मु झे एक सुनसान सी जगह पर रोक लिया और छूटते ही गाली दे कर बोली, ‘क्यों बे, बहन के… चिकने. उस लौंडिया से बहुत हंसहंस कर बातें कर रहा था. मु झ से बातें करते हुए तेरी… में आग लग जाती है. तु झे मजा चाहिए तो यह ले…’ कह कर उस ने मु झे दोनों हाथों से पकड़ लिया और जबरदस्ती मेरे होंठ और गाल चूम लिया.

मैं अपनेआप को उस से छुड़ा कर जाने लगा, तो वह मुसकराई और कहा, ‘जा बेटा, आज तो सड़क पर था छोड़ दिया, लेकिन तू बचने वाला नहीं. और अगर आज के बाद किसी और लौंडियाफौंडिया से बात की, तो फिर देख लेना…’’

‘‘अरे देव, बेला की इतनी हिम्मत?’’

‘‘अंकल, मेरे मन में बेला ने दहशत पैदा कर दी थी. इस के बाद किसी लड़की से बात करने से पहले मैं हजार बार सोचता था और पहले चारों तरफ नजरें घुमा कर देख लेता था कि कहीं आसपास बेला तो नहीं है.’’

‘‘ओह, पर वह लड़की थी ही ऐसी. न शर्म, न लिहाज.’’

‘‘लेकिन अंकल, वह पढ़ाई में भी बहुत काबिल थी, तभी तो औफिस में भी वह मेरे से ऊंचे ओहदे पर थी. फिर भी मैं सबकुछ भूल कर अपने काम में लग गया.

‘‘बाद में बेला के बारे में बहुतकुछ सुनने को मिलने लगा था. लेकिन औफिस में दिखावे के लिए बड़ी सतीसावित्री बनी घूमती थी और अपने काम में कोई चूक नहीं होने देती थी.’’

‘‘फिर भी देव, वह चैन से तो न बैठी होगी…’’

‘‘अंकल, कुछ दिन तो वह ऐसे ही मु झ से मिलने की नाकाम कोशिश करती रही, लेकिन बेला जैसी लड़की ऐसी अनदेखी को बरदाश्त नहीं कर पाती है. एक दिन बेला सीधे मेरे औफिस में पहुंच गई और उस ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. मु झे उस के इरादे का जरा सा भी अहसास नहीं था.’’

‘‘आखिर क्या था उस का इरादा देव?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अंकल, मु झे बताते हुए भी शर्म आती है. पहले वह मेरे पास आ कर मु झ से सट कर खड़ी हुई. मैं ने बचने की कोशिश की, तो मेरे गालों पर चिकोटी काटते हुए गंदी गाली दे कर बोली, ‘बच कर कहां भागता है. ले ले न तू भी जवानी के मजे.’

‘‘अंकल, तभी मैं ने उसे डपटते हुए कहा, ‘बेला, तुम पागल हो गई हो क्या? दूर हटो.’

‘‘लेकिन, ऐसा लगता था, जैसे वह आज हवस की पुजारिन बन कर आई हो. उस ने अपनी शर्ट के ऊपर के
2 बटन खोले, अपनी ब्रा ऊपर की और बोली, ‘ले ले जवानी का मजा.’’’

‘‘ओह देव, यह तो हद हो गई. कोई लड़की ऐसा करती है भला. यह तो सीधेसीधे जबरदस्ती की कोशिश थी.’’

‘‘अंकल, मैं ने खुद को बचाते हुए उसे जोर से धक्का दिया. उस का सिर दीवार में जा कर लगा. वह चिल्लाई, ‘बाहर जा कर बताऊंगी सब को. तू मु झ से जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहा था. आज भी दुनिया ऐसे मामलों में औरतों की बातों पर यकीन करती है मर्दों की नहीं.’

‘‘वह तो अपने कपड़े ठीक कर के मेरे औफिस से बाहर चली गई, लेकिन उस की बात सुन कर मैं घबरा गया. तभी मेरी नजर सामने सीसीटीवी कैमरे पर पड़ी.

कुछ देर के लिए मु झे तसल्ली हुई कि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. फिर भी अपना शक दूर करने के लिए चपरासी को बुला कर पूछा कि सीसीटीवी कैमरा काम कर रहा है कि नहीं. उस ने बताया कि यह खराब है और इस को बदला जाना है. अब मेरा पक्ष रखने वाला कोई नहीं था.’’

‘‘फिर तो तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ होगा?’’

‘‘हां अंकल, मु झे बहुत जलील कर के औफिस से निकाला गया. मेरी एक न सुनी गई. तब मु झे समाज में ऐसे मामलों में आदमी और औरत के होने का फर्क सम झ में आया.’’

‘‘क्या कोई पुलिस कंप्लैंट हुई तुम्हारे खिलाफ?’’

‘‘बस अंकल, यही एक मेहरबानी हुई. कंपनी ने किसी बखेड़े में न पड़ते हुए मु झे नौकरी से बरखास्त कर दिया. जब मैं कंपनी के औफिस से बाहर निकल रहा था, तब बेला के कड़वे करेले से शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मोची का बेटा है, मोची का बेटा ही रहेगा. अब जिंदगीभर उस नीम के पेड़ के नीचे बैठ कर दूसरों की जूतियां गांठ…’

‘‘मैं बेला के इन कड़वे शब्दों को सुन कर तिलमिला उठा.’’

‘‘यह सुन कर कोई भी तिलमिला जाता देव. यह तुम्हारा सब्र और सम झदारी थी, जो तुम ने इस जहर के प्याले को पी लिया. कोई और होता तो बखेड़ा खड़ा कर देता… फिर?’’

‘‘इस घटना के बाद मेरा मन नौकरी से भी उचट गया. मैं ने पापा से बात की, तो उन्होंने मु झे घर बुला लिया और मोची की दुकान खोलने की बात कही. लेकिन मेरे मन में कुछ और ही चल रहा था.

‘‘मैं जूतों का एक शोरूम खोलने के मूड में था. कुछ पैसा पापा के पास था, कुछ बैंक से लोन लिया और कानपुर की एक जूता कंपनी 20 फीसदी रकम पहले देने पर शोरूम के लिए माल उठवाने के लिए तैयार हो गई. बाकी पापा का अनुभव और मेरी मेहनत थी. बस, यही मेरी कहानी थी अंकल.’’

‘‘लेकिन देव, मेरी नजर में तो कहानी अभी अधूरी है. आखिर बेला का क्या हुआ?’’

तब देव ने हंसते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप ने भी कैसा सवाल पूछ लिया? वह जो चाहती थी, उसे वह मिला. मैं जो चाहता था, मुझे वह मिला.’’

‘‘मतलब…?’’ मैं ने हैरानी से पूछा. मु झे लगा कि कहानी में अभी भी कोई मोड़ है.

‘‘मतलब यह कि कंपनी को जल्दी ही बेला की असलियत पता चल गई. सुनने में आया कि उसे कंपनी से धक्के मार कर बाहर निकाला गया. उस की गंदी हरकतों की वजह से उस का अपने परिवार से पहले ही नाता टूट चुका था, किसी और ने भी उस का साथ नहीं दिया. उस का जोड़ा हुआ पैसा कब तक चलता?’’

‘‘फिर, क्या किया उस ने?’’

‘‘फिर उसे कहीं नौकरी न मिली. उस ने शहर तक बदले, लेकिन अपनी हरकतें न बदलीं. उस के बदनाम किस्से उस से पहले दूसरी जगह पहुंच जाते. वह जलील होती और उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता.

काश, उस ने कंपनी और शहर बदलने के बजाय अपनी हरकतें बदली होतीं.’’

‘‘अब कहां पर है वह देव?’’

‘‘अंकल सुना है कि वह अब मेरठ की बदनाम गली का हिस्सा बन चुकी है. वही दलदल, जिस में गिर कर कभी कोई औरत बाहर नहीं आती.’’

मेरी कहानी पूरी हो चुकी थी. मैं चाय पी कर और बापबेटे से विदा ले कर बाहर आया. मैं एक नजर कामयाबी की उस सीढ़ी पर डालने से खुद को रोक न सका, जिस पर एक मोची के बेटे का फलसफा लिखा था ‘राजप्रसाद बूट्स ऐंड शूज’.

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