Hindi Story, लेखक – सी. दुबे
आएदिन की कलह से ग्यारसीबाई तंग आ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे और क्या न करे. अपने घर वाले को वह पचासों बार समझा चुकी थी, मगर वह सवा किलो चांदी को भूल ही नहीं पाता था. जब देखो, तब ग्यारसीबाई को ताना मारता रहता था, ‘‘चिराग ले कर ढूंढ़ने पर भी ऐसे अक्लमंद कहीं नहीं मिलेंगे. सवा किलो चांदी अपने हाथ से उतार कर दे दी. चोरडाकू को भी लोग इतने सस्ते में नहीं निबटाते.’’
ऐसे तानों से तिलमिला कर ग्यारसीबाई ने बारबार कैफियत दी थी, ‘‘मुझे क्या पता था कि मां जाया सगा भाई ही मुझे लूट लेगा. मैं ने तो भोलेपन में अपने बदन के सारे गहने उतार कर उसे दे दिए थे.
‘‘उस ने कहा था, ‘बाई, तेरे ये गहने मैं जल्दी ही छुड़वा दूंगा. अभी मेरे गले की यह फांसी तू निकलवा दे.
इन गहनों को गिरवी रख कर बैंक का कर्ज जमा कर देने दे, नहीं तो घर पर कुर्की आ जाएगी. घर, जमीन सब नीलाम हो जाएंगे. बापदादा की लाज अब तेरे हाथ में है.’
‘‘मैं ने बाप के घर की लाज रखने को उस मुए को सारे गहने दे दिए थे. मुझे क्या पता था कि वक्त निकल जाने पर वह तोते की तरह आंखें फेर लेगा. मैं ने आफत जान कर भाई के गले की फांसी निकाली. मुसीबत के वक्त एकदूसरे की मदद करते ही हैं. मुझे क्या पता था कि होम करते हाथ जलेंगे?
‘‘उस मुए के पेट में ‘पाप’ था. वह कुछ सालों तक मुझे झांसा देता रहा. कहता रहा कि इस साल हाथ तंग है, फसल बिगड़ गई. आते साल तेरे गहने छुड़ा दूंगा. आते साल भी उस ने ऐसा ही बहाना कर दिया. इसी तरह 3-4 साल निकल गए. बाद में उस ने कह दिया कि तेरे गहने तो साहूकार के यहां डूब गए, ब्याज ही ब्याज में गल गए.
‘‘मैं ने तकाजा किया कि डूब गए तो दूसरे बनवा कर दे. मुझे तो अपनी सवा किलो चांदी चाहिए. तब मुए ने हाथ खड़े कर दिए. वह बोला, ‘सवा किलो चांदी तो 100 बरस में भी मुझ से नहीं दी जाएगी.’
‘‘तो क्या बाप के दिए गहने तू खा जाएगा? तब मुए ने बेशरम की तरह जवाब दे दिया था, ‘मैं ने कहां खाए? तेरे गहने तो साहूकार खा गया.’
‘‘मैं ने जब ज्यादा ही तकाजा शुरू किया, तो उस ने साफ कह दिया था, ‘गहनों का नाम मत ले. समझ ले, दादा ने दिए ही नहीं थे.’
‘‘उस के इन छक्केपंजों से मैं समझ गई थी कि उस की नीयत खराब है, इसलिए मैं ने भी साफसाफ कह दिया था, ‘देख बाबू, मेरी सवा किलो चांदी तो तुझे हर हालत में देनी होगी. मेरे घर वाले मेरी नाक में दम कर रहे हैं.’
‘‘मगर, उस बेशरम के पास तो बस एक ही जवाब था, ‘नहीं हैं मेरे पास. जब होंगे, तब दे दूंगा.’
‘‘मैं खूब रोई, गिड़गिड़ाई, मांबाप की बेइज्जती होने की बात कही, मगर वह बेईमान टस से मस न हुआ. मेरी भौजाई ने तो मुझे धक्के दे कर घर से बाहर निकाल दिया.
‘‘जिस भाई को ‘बीरबीर’ कह के इतराती रही, वह मुआ देखता रहा. अपनी औरत को उस ने नहीं टोका. जिस भाई के लिए मैं ने ‘मनौतियां’ मानी, उसी ने मुझे चालबाजी से लूट लिया.
‘‘तब सारी बात मेरी समझ में आ गई. दुनिया के छलकपट मैं समझने लगी. मगर ब्याह के बाद के उन शुरुआती सालों में तो पीहर ही प्यारा लगता था, इसीलिए ठगी गई. उस समय भाई और भौजाई की पढ़ाई पट्टी में मैं आ गई. अभी जैसा समय होता तो मैं उन बेईमानों को चांदी की सलाई भी न देती.
‘‘उन बेईमानों ने मेरी सवा किलो चांदी भी हड़प ली और नाता भी तोड़ लिया. बोलना ही बंद कर दिया. पीहर का मेरा रास्ता बंद कर दिया. मेरा इस में क्या कुसूर है?’’
ग्यारसीबाई की ऐसी कैफियतों का उस के घर वाले पर कोई असर नहीं होता था. वह बस एक ही बात की रट लगाए था, ‘‘सवा किलो चांदी ला.’’
ग्यारसीबाई झुंझला कर पूछती थी, ‘‘कहां से लाऊं?’’
घर वाला तपाक से कह देता था, ‘‘कहीं से भी ला. तेरे मांबाप ने जमाने के सामने तो बड़ा नाम कर दिया कि सवा किलो चांदी दी बेटी को. मगर, ससुराल वालों को उस में से छल्ला भी नहीं मिला.’’
फूटफूट कर रोती हुई ग्यारसीबाई विलाप करने लगती थी, ‘‘अगर मेरे मांबाप जिंदा होते, तो मैं उन के पास फरियाद ले कर जाती. उस मुए राक्षस से कहकह कर मैं तो हार गई. फरियाद कहां ले जाऊं?’’
ग्यारसीबाई के आदमी को इन बातों से कोई मतलब नहीं था. वह तो बस एक ही बात जानता था, ‘सवा किलो चांदी’. इसलिए घर में आएदिन कलह मची रहती थी.
ग्यारसीबाई को अपने घर वाले का यह तकाजा गलत नहीं लगता था. वह मानती थी कि उन की सवा किलो चांदी की रट ठीक है, क्योंकि उस पर उन का भी हक है. शादी में नातेरिश्ते वालों ने और जातबिरादरी वालों ने सवा किलो चांदी देखी थी.
वह चांदी के गहने पहन कर ससुराल आई थी. वे अगर चाहते तो सारे गहने यहीं उतरवा लेते, बिना गहनों के पीहर भेजते. किंतु दोनों घरों की इज्जत के लिए उन्होंने ऐसा नहीं किया.
जब भी वह ससुराल से पीहर गई, तो गहनों से सजीधजी ही गई. भाई की कारिस्तानी से ही वह पीहर से बिना गहनों के आई. फिर भी इन लोगों ने धीरज रखा. सोचा कि मुसीबत में ऐसा होता है.
मगर जब भाई ने हाथ ही ऊंचे कर दिए, तो इन का धीरज कैसे कायम रह सकता था? इन के हक की चीज उस बेईमान ने छीन ली. दूसरे कोई होते तो मारे जूतों के उस को ठीक कर देते. मगर ये तो अभी भी शरीफों की तरह ही तकाजा कर रहे थे. वही मुआ बदमाशी पर उतर आया था. लड़नेझगड़ने को तैयार था.
किंतु ग्यारसीबाई को इसी बात का दुख होता था कि उस का घरवाला उस की मजबूरी क्यों नहीं समझ रहा है. उस ने अपने आदमी को अगर धोखा दिया होता, तो वह अपनेआप को दोषी मानती. किंतु यहां तो धोखा उस के खुद के साथ ही हुआ था. फिर भी घरवाला उसी को टोंचता रहता. वह सोचती कि ऐसा ही है तो वह अपने साले से जा कर झगड़े. बीवी से झगड़ने में क्या तुक है.
ऐसी सलाह देने पर बात हमेशा बढ़ जाती थी. ग्यारसीबाई इस सवाल का जवाब देने के बजाय सवाल ही करती थी, ‘‘तुम और मैं क्या अलगअलग हैं?’’
‘‘अलगअलग भले ही नहीं हैं… मगर, भाईबहन के बीच में मैं कभी नहीं बोलूंगा.’’
‘‘क्यों नहीं बोलोगे? तुम उस से डरते हो क्या?’’
‘‘उस जैसे चार को पानी पिला सकता हूं मैं. उस से कम नहीं हूं.’’
‘‘नहीं हो… तभी तो कहती हूं कि जाओ, उस ठग को जूते मारो और अपनी सवा किलो चांदी ले आओ. बिना जूतों के वह खाक भी नहीं देगा.’’
‘‘नहीं, यह मुझ से नहीं होगा.’’
‘‘क्यों नहीं होगा?’’
‘‘उस ने कभी कुछ ऐसीवैसी बात कह दी, तो मामला बढ़ सकता है?’’
‘‘बढ़ सकता है तो बढ़ने दो. उस की लाश गिरा दोगे तो भी मैं उस के नाम ले कर नहीं रोऊंगी.’’
‘‘हां… तू तो यही चाहती है कि तेरी सवा किलो चांदी के लिए मैं फांसी पर चढ़ जाऊं?’’
‘‘तो चुपचाप बैठो. उठतेबैठते मुझे सुइयां क्यों चुभोते हो?’’
‘‘तुझे तो सुइयां चुभाऊंगा ही, क्योंकि तू ने ही यह बखेड़ा खड़ा किया है. सवा किलो चांदी कोई कम होती है? भाव मालूम है चांदी का? इतनी चांदी होती तो कई रुके काम पूरे हो जाते. मगर तू बैरिन बन गई. तू ने मुंह का कौर छीन लिया.’’
‘‘मैं ने छीना?’’
‘‘और नहीं तो किस ने छीना? हो सकता है कि यह सब भाईबहन की मिलीभगत हो?’’
अपने आदमी की यही तोहमत ग्यारसीबाई को जला देती थी. ऐसे में उस की मंशा होती थी कि कुछ खा कर सो जाए या किसी कुएं या नदी में छलांग लगा दे. किंतु आंचल से बंधी 3 औलादों की वजह से वह ऐसा नहीं कर पा रही थी. ऐसा इरादा करते ही उसे यह खयाल आ जाता था कि उन के न रहने से उस की औलाद यतीम हो जाएगी. घरवाले को तो दूसरी बीवी मिल जाएगी. वह सौत इन बच्चों की जिंदगी जहर बना देगी.
इसी खयाल से ग्यारसीबाई अपनी जिंदगी को खत्म नहीं कर पा रही थी. घर में घुसे कलह को वह बरदाश्त किए जा रही थी. अपने आदमी के तानों से उस का दिल छलनी सा हो गया था, फिर भी वह सहती जा रही थी.
एक रोज बात बहुत बढ़ जाने पर ग्यारसीबाई के घरवाले ने गुस्से में बावला सा हो कर उस की चोटी पकड़ कर दरवाजे के बाहर धकेलते हुए साफ कह दिया, ‘‘जा, सवा किलो चांदी ले कर आ, नहीं तो भाग यहां से.’’
‘फटाक’ से दरवाजा बंद हो जाने पर बच्चे फूटफूट कर रोने लगे. उन का बाप उन्हें डांटते हुए चुप कराने लगा. बच्चे जब चुप नहीं हुए तो वह उन्हें पीटने लगा. बाहर सीढि़यों पर बैठी ग्यारसीबाई से यह बरदाश्त नहीं हुआ.
उस ने अपने कानों में उंगलियां दे लीं. फिर वह भागने लगी. उस के पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे, फिर भी वह अपनेआप को धकेलती हुई सी बढ़ती रही. गांव से बाहर पंचायती कुएं के पास जा कर उस ने सोचा कि इस में छलांग लगा दे और छुटकारा पा ले. बच्चे अपनी जिंदगी खुद भोगेंगे.
वह कुएं में छलांग लगाने ही वाली थी कि उसे खयाल आया कि सारे गांव के पानी को जहर बनाने से तो यही अच्छा होगा कि पीहर की देहरी पर जान दे दे. उस मुए पर जगत थूकेगा तो सही. यहां जान देने से तो उस पर आंच भी नहीं आएगी.
यही सोच कर ग्यारसीबाई ने अपनी बाट पकड़ ली. यादों का ज्वार सा उस के भीतर उठने लगा. उसे याद आया कि इसी राह से वह दुलहन बन कर ससुराल आई थी. उस समय इस राह को वह मुड़मुड़ कर देखती रही थी.
इसी राह ने उसे मौका मिलते ही पीहर की ओर दौड़ाया था. हर बार पीहर से लौटते समय वह आंसू बहाती हुई ससुराल लौटी थी. ससुराल में रहते हुए भी पीहर की याद उसे आती रहती थी.
बच्चे होने के बाद भी पीहर के प्रति उस का लगाव कम नहीं हुआ था. भाई ने मिठास में अगर खटाई नहीं घोली होती तो वह इस राह की दीवानी अभी भी रहती. भाई ने इस मनभावन राह पर कांटे बिछा दिए थे.
पर उस वक्त उस राह पर चलते हुए ग्यारसीबाई को यही लग रहा था कि जैसे वह कांटों पर चल रही है और उस के पैर लहूलुहान हो रहे हैं.
अपने पीहर के घर के पास आ कर ग्यारसीबाई ठिठक गई. वह आंखें फाड़फाड़ कर उस घर को देखने लगी.
उसे इस भरी दोपहरी में ऐसा लगा, जैसे उस के मांबाप खपरैल वाली छत पर बैठे हुए हाथ हिलाहिला कर
उसे बुला रहे हैं, ‘आ, ग्यारसी.’
ग्यारसीबाई ललक कर बढ़ी, तभी उस के भाई बाबू की तीखी आवाज गूंजी, ‘‘आगे कदम न बढ़ाना… नहीं तो टांगें तोड़ दूंगा.’’
ग्यारसीबाई ने गुस्से भरी आवाज में कहा, ‘‘तोड़.’’
बाबू ने राह रोकते हुए कहा, ‘‘देख, वापस हो जा, नहीं तो सच में…’’
‘‘मेरी चांदी दे दे… मैं अभी चली जाऊंगी.’’
‘‘कौन सी चांदी…? चांदी नहीं है मेरे पास.’’
‘‘क्यों नहीं है?’’
‘‘बस नहीं है.’’
‘‘नहीं देगा तो मैं इस देहरी पर धरना दूंगी. यहीं पर जान दे दूंगी.’’
‘‘तू यहां धरना देगी, तो मैं लात मार कर भगा दूंगा.’’
‘‘भगा… तू अगर ‘कंस’ है, तो यह भी कर ले,’’ कहते हुए ग्यारसीबाई देहरी की ओर बढ़ने लगी.
बाबू ने उस का हाथ थाम लिया और उसे खींचते हुए घर से दूर ले जाने लगा. ग्यारसीबाई जमीन पर बैठ गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी, ‘‘बचाओ रे, बचाओ, यह ‘कंस’ मेरे गहने खा गया और अब मुझे यहां मरने भी नहीं दे रहा है.’’
शोर सुन कर आसपास के लोग आ गए. बाबू की बीवी और उस के बच्चे भी आ गए. वे ग्यारसीबाई का दूसरा हाथ पकड़ कर घसीटने लगे. लोगों ने बीचबचाव कर के उस के हाथ छुड़वाए.
उन लोगों ने बाबू को समझाया, ‘औरत जात पर हाथ मत उठा, नहीं तो फंस जाएगा. तू अपना दरवाजा बंद कर ले. यह कब तक बैठेगी? मरना आसान नहीं है. तू बेकार में परेशान न हो.’
ग्यारसीबाई को भी लोगों ने सलाह दी, ‘बाई, घर जा. इन तिलों में तेल नहीं है. यह समझ ले कि गहने चोरी
हो गए.’
ग्यारसीबाई अपना रोना रोने लगी. बाबू और उस के घर के लोग पड़ोसियों का कहना मान कर घर में चले गए और भीतर से दरवाजा बंद कर लिया.
ग्यारसीबाई को दिलासा देदे कर लोग अपनेअपने काम में लग गए. अब वह अपने मांबाप का नाम लेले कर स्यापा करने लगी. भाई को कोसने लगी.
तभी ‘धड़ाम’ से दरवाजा खुला और ग्यारसीबाई की भौजाई झाड़ू लिए बाहर आई. अपनी ननद को झाड़ू से पीटते हुए वह गरजी, ‘‘मेरे दरवाजे पर यह नाटक मत कर. भाग यहां से.’’
ग्यारसीबाई ने झाड़ू पकड़ते हुए भौजाई को कस कर लात जमा दी. वह धड़ाम से गिर पड़ी.
ग्यारसीबाई उस की छाती पर चढ़ कर गरजी, ‘‘तू ने ही मेरे भाई को बिगाड़ा है. मैं तेरा खून पी जाऊंगी.’’
ऐसा कहते हुए ग्यारसीबाई अपनी भौजाई का गला दबाने लगी. बरसों का रुका गुस्सा तब फट पड़ा. उस पल उस में इतनी ताकत आ गई कि वह अपने से तगड़ी भौजाई को दबाए रही.
गला दबाने पर भौजाई चीखी, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’
घर में से बाबू और उस के दोनों बच्चे दौड़े आए. वे ग्यारसीबाई के हाथों को खींचखींच कर उस की पकड़ ढीली करने के लिए जूझने लगे. मगर ग्यारसीबाई पर तो जैसे पागलपन सवार हो गया था. वह इन तीनों के काबू में नहीं आ रही थी.
वे लातघूंसे जमा रहे थे, फिर भी वह भौजाई को छोड़ नहीं रही थी. उस का गला दबाते हुए गरज रही थी, ‘‘तू ने मेरी जिंदगी में जहर घोल दिया. सवा किलो चांदी के लिए ही तू ने बेईमानी कर ली.’’
बाबू ने पूरी ताकत लगा कर ग्यारसीबाई को खींचा. उस की बेटी ने ग्यारसीबाई के हाथ में काट लिया, तब कहीं उस के हाथों की कैंची छूटी. भौजाई की चीखें अब बंद हो गईं. वह फुरती से उठी और ग्यारसीबाई पर लातघूंसों की बरसात सी करने लगी. तभी ग्यारसीबाई के 15 और 13 बरस के दोनों बेटे दौड़े हुए आए और अपनी मां पर ढाल की तरह पसरते हुए बोले, ‘‘मत मारो हमारी मां को.’’
ग्यारसीबाई की भौजाई ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘मेरा गला घोंट रही थी, तब तुम ढाल बनने नहीं आए? अब आ गए तुम भी? लो प्रसाद.’’
भौजाई और उस के बेटेबेटी उन दोनों पर लातघूंसे जमाने लगे. ग्यारसीबाई गरजी, ‘‘इन पर हाथ उठाओगे, तो मैं तुम्हारी बोटीबोटी काट डालूंगी.’’
भाई से हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए ग्यारसीबाई बेटों को बचाने झपटी. हाथ छुड़ा पाने पर वे लातें
चलाने लगीं.
आसपास के लोग बीचबचाव की कोशिश करने लगे. जैसेतैसे वे दोनों तरफ के लोगों को अलगअलग कर पाए. ग्यारसीबाई और उस के दोनों बेटों को खींच कर घर से दूर ले जा कर वे बोले, ‘जाओ अब.’
मगर ग्यारसीबाई वापस जाने को राजी न हुई. वह बोली, ‘‘मैं तो यहीं मरूंगी.’’
आसपास वालों ने ग्यारसीबाई को समझाया, ‘बाई, तू जान भी दे देगी तो भी ये तेरी चांदी नहीं देंगे. इसलिए समझ ले कि चांदी चोर ले गए. ये बच्चे खालिस चांदी हैं. इन्हें संभाल.’
ग्यारसीबाई को समझाते हुए वे उस के बच्चों से बोले, ‘अपनी मां को ले जाओ.’
बच्चे तो यह चाहते ही थे. इसीलिए मां को धकेलते से वे ले चले.
घर आ कर उन दोनों ने अपने पिता से कहा, ‘‘अब सवा किलो चांदी का कभी नाम मत लेना. मां का यह कर्ज हम ने अपने सिर पर ले लिया है. उस सवा किलो चांदी के बदले हम ढाई किलो चांदी तुम को देंगे. हमारी मां से अब इस बाबत में एक लफ्ज भी मत कहना.’’
ग्यारसीबाई, उस का घरवाला और बड़ी बेटी इन उगते सूरज जैसे लड़कों को टकटकी लगा कर देखने लगे. हर चेहरा खुशियों और उम्मीदों के मीठे रस में डूब सा गया था.