Romantic Story, लेखक – पी. कुमार
‘‘गीता, क्या तुम इस बार माघ मेले में शंकरगढ़ जा रही हो?’’ पारो ने पूछा.
‘‘हांहां, क्यों नहीं. तुम सब नहीं चलोगी क्या?’’ गीता ने पूछा.
‘हम भी चलेंगी,’ सब ने एकसाथ जवाब दिया.
एक हफ्ते बाद मेला शुरू हो गया. पारो और उस की सहेलियां शंकरगढ़ की ओर निकल गईं. साथ में और भी औरतें थीं, 3-4 मर्द भी साथ में जा रहे थे.
यों तो केशवगढ़ से लोग हर साल शंकरगढ़ जाते थे, लेकिन गीता को पहली बार जाने का मौका मिला था, इसलिए वह बहुत खुश थी.
‘‘हमारी गीता रानी शंकरजी से क्या मांगेगी?’’ पारो ने चुटकी ली.
‘‘एक सुंदर राजकुमार जो इसे उड़ा कर ले जाए,’’ दूसरी सहेली ने छेड़ा.
‘‘धत,’’ गीता झेंप गई. उस के गालों पर लाली बिखर गई.
गीता किसी राजकुमारी से कम न थी. सहेलियों के बीच उस का चेहरा ऐसे दमक रहा था, जैसे बगुलों के बीच हंस. जो भी उसे देखता, बस देखता ही रह जाता.
सांझ ढलते यह काफिला शंकरगढ़ पहुंच गया. औरतों और मर्दों के लिए अलगअलग तंबू लगाए गए.
अचानक गीता बोल उठी, ‘‘पारो, कितनी सुंदर जगह है…’’
‘‘हां, बहुत सुंदर है.’’
‘‘भीड़ भी काफी होगी?’’
‘‘हां, चंदा काकी कह रही थीं कि 10-15 हजार की भीड़ होगी कल.’’
दोनों सखियों की बातचीत अचानक भंग हो गई. चंदा काकी की आवाज आई, ‘‘अब सो जाओ… भोर होते ही पूजा के लिए जाना है.’’
मुंहअंधेरे ही केशवगढ़ का काफिला मंदिर में जा घुसा. जल्दी ही वे पूजा कर के लौट आए.
पंडे लोगों के हाथों से चढ़ावा छीनने में बिजी थे. किसी तरह शंकर की मूर्ति तक लोग पहुंचते तो बाकी काम पंडे संभाल लेते. धक्कामुक्की की वजह से लोग भी जल्दी बाहर निकलना चाहते थे, क्योंकि ऐसे में जेवर, नकदी वगैरह लूट लिए जाने का खतरा बना रहता था.
गीता और उस की सहेलियां मंदिर की सीढि़यां उतर ही रही थीं, तभी एक अधेड़ उम्र के गठीले बदन वाले पंडे को गीता को घूरते पाया. उस के घूरने का अंदाज गीता को बहुत बुरा लगा, पर वह चुप ही रही. बिना किसी खास बात के एक पंडे पर शक करने से वह खुद की हंसी नहीं उड़वाना चाहती थी.
12 बजे तक वे सब लोग मेले में घूमते रहे. कहीं झूले पड़े थे तो कहीं जादू का खेल चल रहा था. गीता तो जैसे सारा नजारा एक ही दिन में समेट लेना चाहती थी.
‘‘चलो, उस ओर देख आएं,’’ हाथ से इशारा करते हुए गीता ने पारो से कहा.
‘‘नहीं गीता, अब वापस चलो. बाकी कल देखेंगे.’’
‘‘थक गई क्या? थोड़ा सा और देख लेते हैं.’’
‘‘नहीं, अब एक कदम भी आगे नहीं बढ़़ेंगे हम.’’
गीता को बुझे दिल से लौटना पड़ा. वह तो बहुतकुछ देखना चाहती थी, पर अकेले जा नहीं सकती थी.
‘‘प्रवचन क्या होता है काकी…?’’ तंबू में लौट कर गीता ने चंदा से पूछा.
गीता के भोलेपन पर हंसती काकी समझाने लगीं, ‘‘बड़ी भोली है हमारी गीता बिटिया. प्रवचन में महात्मा लोग अच्छीअच्छी बातें बताते हैं. देवताओं के गुणों का बखान करते हैं. नेक चालचलन और बरताव के बारे में बताते हैं.’’
‘‘तब तो प्रवचन जरूर सुनना चाहिए,’’ कह कर गीता हंस पड़ी.
शाम को घंटेघडि़यालों की आवाज कानों में पड़ते ही लोग मंदिर में इकट्ठा होने लगे. जगह कम थी और भीड़ बहुत ज्यादा.
आरती के वक्त 4-5 जवान साधु गीता के आसपास ही मंडरा रहे थे. गीता को कुछ अटपटा सा लगा, पर उसे किसी तरह का डर या परेशानी महसूस न हुई.
आरती आधी से ज्यादा हो चुकी थी कि अचानक बिजली गुल हो गई. लोग धक्कामुक्की करने लगे. चारों ओर गहरा अंधेरा छा गया.
अचानक गीता को लगा, जैसे किसी ने उस की बांह पकड़ ली. जब वह चीखना चाहती थी, पर किसी ने उस का मुंह दबा दिया. साथ ही, कोई उसे एक ओर खींच कर ले गया.
थोड़ी देर में बिजली आ गई. उजाला होते ही पारो की नजर सामने पड़ी. गीता को गायब पाया देख वह चीख पड़ी. तुरंत ही होहल्ला मच गया. केशवगढ़ वाले गीता को तलाशने लगे, पर हजारों की भीड़ में उसे तलाशना भी कम मुश्किल नहीं था.
किसी ने कहा कि इधर ही कहीं होगी, तो किसी ने कहा कि ‘तंबू में चली गई होगी’. जितने लोग थे, उतनी बातें कर रहे थे.
चंदा काकी और पारो सब से ज्यादा परेशान हो उठीं, क्योंकि गीता की जिम्मेदारी उन्हीं पर थी. गांव जा कर गीता के मांबाप को कौन सा मुंह दिखातीं.
पारो की नजरें आसपास टटोलने लगीं तो उसे लगा कि वे जवान साधु भी गायब हैं. वह चीख उठी, ‘‘काकी, यहां खड़े 4-5 साधु भी नहीं हैं… वे ही गीता को उठा कर ले गए हैं.’’
इधर गीता को मंदिर से दूर पेड़ों के झुरमुट में ले जाया गया. वहां उस के सामने वही पंडा आ खड़ा हुआ, जो उसे दोपहर को घूर रहा था. पहले वह गीता के गहने उतारने लगा, तो वह चीख उठी,’’ नीच, पापी, कमीने, ढोंगी, साधु होने का ढोंग रचते हो और लोगों को लूटते हो.’’
देखते ही देखते वह नाजुक कली उस वहशी की बांहों में जकड़ी गई. गीता के कुंआरेपन के चिथड़े उड़ गए. वह छटपटा रही थी, चिल्ला रही थी, पर वहां कोई भी उस की चीखें सुन नहीं पा रहा था.
उस पंडे के बाद उस के चेले एकएक कर के गीता की इज्जत लूटने लगे. वह चीखती जा रही थी, रोती जा रही थी.
एक नौजवान जो भीड़भाड़ से दूर, नदी के किनारे एक चट्टान पर कुदरत के नजारों का मजा ले रहा था, गीता की पुकार सुन कर चौंक पड़ा. वह फुरती के साथ उठा, लोगों को आवाज दी और दरिंदों से जा भिड़ा.
अचानक हुए हमले से वे साधु बौखलाए और घबराए. नौजवान ने उन पर लातों, घूंसों की बौछार कर दी.
दूर से कई लोगों के इधर आने की आवाज भी सुनाई देने लगी थी, इसलिए घबरा कर वे दरिंदे भागने लगे.
लोगों ने पूरा जंगल छान मारा, पर उन साधुओं में से किसी को पकड़ा न जा सका. गीता बेहोश हो चुकी थी.
उसे इलाज के लिए नजदीक के अस्पताल में ले जाया गया.
थोड़ी देर बाद गीता को होश आने लगा था. वह बुदबुदा रही थी, ‘‘मुझे छोड़ दो. कमीनो… धर्मात्मा बन कर यह जुल्म करते हो…’’
जब उस ने आंखें खोलीं तो सामने सब को खड़ा पाया. पास ही वह अमर नामक नौजवान भी खड़ा था. किसी से नजरें मिलाने की गीता की हिम्मत नहीं हो रही थी. वह फूटफूट कर रोने लगी.
चंदा काकी ने कहा, ‘‘गीता बेटी, मन छोटा मत कर. जो होना था, हो चुका. देख, सभी प्रवचन सुनने जा रहे हैं. तू भी चल, मन कुछ शांत होगा.’’
अचानक गीता गुस्से से फट पड़ी, ‘‘दिल क्या खाक शांत होगा काकी, जहां साधु लूटते हों, वहां जा कर क्या मिलेगा? असली सुखचैन और शांति तो दिल के अंदर होती है. ये मंदिर अपवित्र हो चुके हैं. इन की पवित्रता खो चुकी है. अब ये लुटेरों के अड्डे बन गए हैं.
‘‘बताओ, मुझे यहां आ कर क्या मिला? लुटी हुई लड़की और फूटी हुई हंडिया किस काम की, काकी? मुझे अकेला छोड़ दो… तुम सब जाओ.’’
पर काकी जा न सकीं. वे और पारो गीता के साथ रहीं, बाकी प्रवचन सुनने चली गईं.
तंबू के अंदर बिस्तर पर लेटेलेटे गीता सोचने लगी, ‘अब जी कर क्या करूंगी? किसी और की कैसे बनूंगी? लुटी हुई इज्जत किसी के हवाले करने से बेहतर है, अपनेआप को ही खत्म कर लिया जाए. यह मैला जिस्म अब किस काम का?’
अमर को भीड़भाड़ पसंद नहीं थी. धर्मस्थलों में फैली गंदगी की वजह से वह बेकार के कर्मकांडों में यकीन नहीं करता था.
वह तो अपनी मां के जिद पर आ गया था. पर यहां दिल न लगने की वजह से अकेले नदी किनारे जा कर किसी चट्टान पर बैठ जाता.
सोचतेसोचते गीता परेशान हो गई थी. उस के नाजुक दिल पर गहरी चोट लगी थी. वह अपनेआप को संभाल न पाई. पारो पीछे से पुकारती रह गई. अमर ने पारो की आवाज सुनी तो उधर ही दौड़ पड़ा.
गीता नदी में कूदने ही वाली थी कि अचानक अमर ने पीछे से उसे पकड़ लिया. उसे झकझोरते हुए अमर बोला, ‘‘यह क्या कर रही हैं आप?’’
‘‘आत्महत्या… इस के सिवा अब कोई रास्ता नहीं है. क्यों बचाया मुझे… मर जाने दिया होता.’’
‘‘मरते तो डरपोक लोग हैं… मरने में क्या मिलेगा?’’
‘‘जी कर ही क्या करूंगी मैं? कौन शरीफ आदमी अब मुझ से ब्याह करेगा? यह दुनिया तो अब मेरा जीना मुश्किल कर देगी.’’
‘‘हिम्मत करनी होगी… दुनिया से दोदो हाथ करने की. हथियार नहीं डालने हैं अभी. मैं तुम्हारे साथ हूं.’’ अमर ने गीता को संभालते हुए कहा.
गीता अमर के एहसानों तले दबती चली गई. उस का सिर अपनेआप अमर के चरणों में झुक गया.
अमर ने उसे उठा कर अपने सीने से लगा लिया और कहा, ‘‘असल में तुम्हारी कोई गलती नहीं है. उन भेडि़यों ने ही तुम्हें गंदा करना चाहा. भले ही तुम्हारे जिस्म को उन गंदे लोगों ने झकझोरा हो, पर तुम्हारा दिल तो साफ है.
‘‘मैं तुम से ब्याह करूंगा…. आज से तुम मेरी हो.’’
गीता को लगा जैसे उसे नई जिंदगी मिल गई, साथ ही, अपने सपनों का राजकुमार भी.