Editorial: राजा सदियों से सेनाओं में आम किसानों को भरती करते रहे हैं. सूखे, बाढ़, फसलों की बीमारी, जमीन को साहूकारों के हाथ दिए जाने के बाद किसानों के पास सेना में नौकरी कमाई का एक अच्छा साधन था. यदि जिंदा रहे, अपने राजा के लिए जेल गए तो पैसे कुछ ज्यादा मिल जाते थे और लूट का माल भी हाथ लग जाता था. बहुत बार लड़कियां भी हाथ पड़ जाती थीं जिन्हें इस्तेमाल कर के बेचा जा सकता था.

अब लड़ाई में किसानों से बने सैनिकों का काम कम होता जा रहा है. मरनेमारने की अब जरूरत नहीं रहेगी. बदन कसरती है यह जरूरत सेनाओं को नहीं है. अब खेल दिमाग का हो रहा है. अब लड़ाई तकनीक की हो रही है जिन में बिना आदमी वाले ड्रोन उड़ कर दुश्मन पर हमला कर रहे हैं और इन्हें बेहद साधारण बदन वाले पर दिमाग से बेहद तेज लोग दूर कहीं एयरकंडीशंड कमरों में बैठे चला रहे हैं.

हवाईजहाज, टैंक, तोप, मशीनगन, यहां तक सैनिकों की वरदी हाईटैक होती जा रही है. उन के हाथ की बंदूकें खुद निशाना तय कर सकती हैं. उन का हैलमेट पूरी मशीन है जिस में टीवी स्क्रीन है. वायरलैस इक्वीपमैंट है. दुश्मन को अंधेरे में देखने के कैमरे लगे हैं. पीछे कौन आ रहा है यह तक हैलमेट के पीछे लगे कैमरे आंखों के सामने के गौगल्स में दिखा रहा है. अब लड़ाई दिमाग की है, दमखम की नहीं.

अब दुनियाभर की सरकारें सैनिकों को कम कर रही हैं. अमेरिका तो सैनिकों का इस्तेमाल अपने ही नागरिकों को डराने के लिए कर रहा है. चीन, रूस, भारत सब सैनिकों की भरती कम कर रहे हैं, क्योंकि हाथापाई वाली झड़पों की जरूरत कम होती जा रही है.

अब तो बौर्डरों पर कैमरे लगे हैं, सैकड़ों की तादाद में जिन में ऐसे सौफ्टवेयर लगे हैं जो दूर रखी आटोमैटिक गनों से अपनेआप निशाना लगा कर बौर्डर क्रौस करने वाले पर गोलियों की बरसात कर सकती हैं. किसानों के पास यह दिमाग नहीं होता कि वे इन्हें बना सकें या चला सकें.

अब सेनाओं को अच्छे पढ़ेलिखे टैक्नीशियन चाहिए जो हर पौसीबल सिचुएशन को पहले से सोच सकें और उस के लायक इक्वीपमैंट बनवा सकें. अब वह जमाना गया जब अपनी जान जोखिम में डाल कर दुश्मन के इलाके में घुसने की हिम्मत चाहिए हो. 7 मई से 10 मई तक भारतपाकिस्तान युद्ध में एक भी सैनिक ने दुश्मन की आंखों में नहीं झांका. सब लड़ाई दूर बैठे हवाईजहाजों के पायलटों की स्क्र्रीनों पर आसपास का ब्योरा दे रहे थे और बटन दबाने को डायरैक्ट कर रहे थे जिस से मिसाइल पाकिस्तानी ठिकानों पर भारतीय हवाई इलाके में उड़ते हुए ही दागी जा सकें.

पाकिस्तान और भारत के हवाईजहाजों की डौग फाइट्स हुईं पर बिना एयर बौर्डर क्रौस किए क्योंकि काम तो एयर फाइटर प्लेन कर रहे थे, उन के सौफ्टवेयर कर रहे थे. चीनी, फ्रांसीसी, रूसी, अमेरिकी प्लेनों की लड़ाई की और इसीलिए 4 दिन की लड़ाई के बाद किसी सैनिक का नाम नहीं आया कि उस ने खास बहादुरी दिखाई. बहादुरी तो अब वह इक्वीपमैंट बनाने वालों के हाथों में फिसल गई है जिन्होंने ड्राइंगबोर्ड पर बैठ कर डिजाइन किया. नतीजा यह है कि चाहे थल सेना हो, वायु सेना या जल सेना अब कमाल तो टैक्नीक का है. किसानों से सेना में भरती हुए सैनिक तो बस चौकीदारी के लिए रह गए हैं.

एयर मार्शल आशुतोष दीक्षित, जो इंटेग्रेटिड डिफैंस स्टाफ के चीफ हैं, ने कहा कि अब फ्रंट नाम की कोई चीज नहीं बची है. पहले फ्रंट पर लड़ने वालों को दुश्मन को मारने की हिम्मत दिखाने पर मैडल मिलते थे, प्रमोशन मिलती थी, जनता हाथोंहाथ लेती थी. अब सैनिक गुमनाम है. वह तो सिर्फ उस सैंटर की चौकीदारी कर रहा है जहां से ड्रोन, गैस, एयरक्राफ्ट, मिसाइलें चलाई जा रही हैं.

बेरोजगार अधपढ़े किसानों के बेटे अगर यह सोचें कि वे सेना में भरती हो कर अपनी जिंदगी बचा लेंगे तो भूल जाएं. उन्हें तो अब इंजीनियरिंग सीखनी होगी. कंप्यूटर डिजाइनिंग सीखनी होगी दिमाग अलर्ट रखना सीखना होगा. कई स्क्रीनों पर एकसाथ नजर रखने और कई सौ बटनों में से सही को चुनने की कला सीखनी होगी. आम किसानों के बेटे यह नहीं कर सकते.

किसानों के बेटों के लिए अमेरिका ने मागा गैंग बना दिए हैं, हम ने कांवड़ खरीद दिए हैं. अपने ही लोगों को परेशान करो, धमकाओ, लूटो, यही काम बचा है. यह खुद की सोच है, धर्म की सेवा है. पार्टी की सेवा है पर देश की सेवा नहीं है. देश के लिए तो ये बेरोजगार एक आफत हैं.

अब तो पुलिस की नौकरी भी किसानों के बेटों के लायक नहीं रह रही है क्योंकि ज्यादा काम ये कैमरे और काल रिकौर्ड से करते हैं. पुलिस में भी हाईटैक सिस्टम आ रहा है. दमखम की जरूरत तो केवल तभी होती है जब अपने लोगों की ही भीड़ से निबटना हो और उस में बहादुरी दिखाने पर कोई प्रमोशन नहीं मिलता, कोई मैडल नहीं मिलता. जनता की थूथू मिलती है.

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बजाय सरकारी स्कूलों को ठीक करने के, सरकारें प्राइवेट स्कूलों को एक के बाद एक सुविधाएं दे रही हैं और शहरों के बाद नामी या नए स्कूलों की ब्रांचें कसबों और गांवों के आसपास खुलने लगी हैं. इन में फीस ज्यादा होती?है, बड़ी बिल्डिंग होती?है, कुछ में एयरकंडीशंड कमरे होते हैं पर पढ़ाई सिर्फ सिफर होती है.

इन स्कूलों से निकले बच्चे पिज्जा, पास्ता, कोल्ड कौफी, ग्रीन टी तो पीना जानते हैं पर ये न खेलने या फैक्टरी में काम करने लायक बचते हैं, न दफ्तरों में छोटी नौकरियों के लायक. गांवकसबों के गरीब मांबापों के लिए ये प्राइवेट स्कूल आफत हो गए हैं क्योंकि सरकारी स्कूलों में भेजो तो नाक कटती है और नीची जातियों के बच्चों के साथ उठनाबैठना पड़ता है.

दिल्ली में स्कूलों ने एडमिशन के समय दरवाजों पर भारी भीड़ देख कर फीस अनापशनाप बढ़ानी शुरू कर दी है. गांवों के पास या कसबों में बने स्कूलों ने भी यही किया होगा. बढ़ती फीस को ले कर हल्ला मचा तो भाजपा सरकार ने, जो वैसे ही नहीं चाहती कि हर कोई पढ़ ले, तरकीब निकाल कर कानून बना डाला जिस में फीस स्कूल की कमेटी तय करेगी जिस में मैनेजमैंट, प्रिंसिपल, 3 टीचर और कुछ मांएं या पिता होंगे.

ये लोग स्कूल के फायदे के फैसले लेंगे क्योंकि ज्यादा कमाई का मतलब ज्यादा सुविधाएं, अच्छा वेतन. रही बात पेरेंट्स के नुमाइंदों की तो उन्हें तो कोई मैनेजमैंट चुटकियों में खरीद लेगा, उन के बच्चों को ऐक्स्ट्रा मार्क्स दे कर किसी को भी फीस बढ़वाने के लिए हामी करवाना आसान है.

यह दिल्ली सरकार का कानून सारे देश की भाजपा सरकारें लागू करेंगी क्योंकि दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री तो मोहरा ही हैं. मतलब यह है कि गांवों, कसबों के पास बने इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाने वाले बच्चों के मांबापों को और ज्यादा पेट काट कर पढ़ाना होगा या मुंह लटका कर सरकारी स्कूल में ट्रांसफर कराना होगा. बच्चों के साथ भी यह मुसीबत होगी कि मैक्डौनाल्ड और पिज्जा हट की जगह उन्हें कालू राम भटूरे वाला के ठेले पर घटते जेबखर्च से खाना होगा. बच्चों का मन किस तरह टूटेगा, यह सोचना आसान नहीं.

सरकार शिक्षा के नाम पर जो खिलवाड़ कर रही है वह पूरे देश को बरबाद कर रही है. हम सिर्फ गाल बजाना जानते हैं, सही फैसलों में कोई मजा नहीं है. Editorial

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