Social Inequality, लेखक – शकील प्रेम

एससी तबके को सताने की खबरें आएदिन अखबारों में छपती रहती हैं. कहीं दूल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता है, तो कहीं किसी एससी को बेरहमी से पीटा जाता है. यह आम एससी समाज के हालात हैं.

कहते हैं कि आम और खास में फर्क होता है, लेकिन दुख तो इस बात का है कि इस तबके को सताने के मामले में आम और खास में कोई फर्क नहीं दिखता. एससी अगर आईपीएस अफसर भी बन जाए, तो वहां भी उस का शोषण होता है. एससी अगर राष्ट्रपति भी हो तो भी दबाया जाता है. सेना, पुलिस, यूनिवर्सिटी या देश का कोई भी इंस्टिट्यूटशन हो, हर जगह एससी तबके के साथ भेदभाव और शोषण होता ही है. बस, सताने के तरीके बदल जाते हैं.

7 अक्तूबर, 2025 को हरियाणा के सीनियर आईपीएस अफसर वाई. पूरन कुमार ने चंडीगढ़ के सैक्टर 11 के अपने सरकारी आवास के बेसमैंट में अपनी सर्विस रिवौल्वर से खुद को गोली मार कर खुदकुशी कर ली थी.

वाई. पूरन कुमार 2001 बैच के एडीजीपी रैंक के अफसर थे. 8 पन्नों के सुसाइड नोट में उन्होंने 8 आईपीएस और 2 आईएएस अफसरों के नाम लिए थे. इस नोट के मुताबिक इन तमाम बड़े अफसरों ने उन्हें लगातार सताया था.

सुसाइड नोट में वाई. पूरन कुमार ने कैरियर में भेदभाव और अपने सीनियरों के द्वारा जातिवादी बरताव का जिक्र किया था. उन की पत्नी आईएएस अमनीत पी. कुमार ने भी अपनी शिकायत में कहा था कि उन के पति की खुदकुशी ‘सिस्टमैटिक उत्पीड़न’ का नतीजा है.

वाई. पूरन कुमार की खुदकुशी से 24 घंटे पहले उन के गनमैन हैड कांस्टेबल सुशील कुमार को रोहतक में शराब कारोबारी से ढाई लाख रुपए रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. पूछताछ में गनमैन ने
वाई. पूरन कुमार का नाम लिया था.

गनमैन सुशील कुमार के इसी बयान के आधार पर एफआईआर दर्ज हुई.

वाई. पूरन कुमार की पत्नी अमनीत पी. कुमार ने इस एफआईआर को एक साजिश बताया और उन्होंने कहा, ‘पूरन कुमार पहले से ही सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाते रहे थे. उन्होंने कोर्ट में कई याचिकाएं और शिकायतें लगाई हुई थीं, जिस से वे बड़े अफसरों के लिए मुसीबत बने हुए थे, इसलिए उन्हें रिश्वतखोरी की झूठी साजिश में फंसाया गया.’

वाई. पूरन कुमार ने अपने सुसाइड नोट में आला अफसरों पर जो गंभीर आरोप लगाए हैं, वे बेहद चिंताजनक हैं. एससी समाज के अफसरों को प्रशासनिक तौर पर किस तरह का उत्पीड़न झेलना पड़ता है, वाई. पूरन कुमार इस बात का उदाहरण हैं.

वाई. पूरन कुमार की खुदकुशी के कुछ ही दिनों के अंदर रोहतक में हरियाणा पुलिस के एएसआई संदीप कुमार लाठर ने सर्विस रिवौल्वर से खुद को गोली मार कर खुदकुशी कर ली. संदीप कुमार ने 6 मिनट का वीडियो और 4 पन्नों का सुसाइड नोट छोड़ा. इन में उन्होंने वाई. पूरन कुमार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. इस घटना से एडीजीपी वाई. पूरन कुमार की खुदकुशी का मामला और पेचीदा हो गया है.

एससी समाज से निकले आईपीएस वाई. पूरन कुमार भ्रष्टाचार में शामिल थे या नहीं यह तो जांच के बाद ही पता चल पाएगा, पर अगर वे भ्रष्ट अफसर थे तो भी उन के साथ हुए जातीय भेदभाव से इनकार नहीं किया जा सकता.

अगर वाई. पूरन कुमार जैसे बड़े सरकारी अफसर ही जातिवाद की सोच का शिकार हो सकते हैं, तो निचले लैवल पर एससी मुलाजिमों के हालात का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है. एससी तबके को कार्पोरेट सैक्टर में भी कोई राहत नहीं है. वहां भी हर लैवल पर भेदभाव होता है.

विवेक राज जो बैंगलुरु में एक कार्पोरेट अफसर थे. वे लाइफस्टाइल इंटरनैशनल प्राइवेट लिमिटेड में पोस्टेड थे. विवेक राज को उन के अपर कास्ट सीनियरों द्वारा इतना उत्पीड़न झेलना पड़ा कि उन्होंने साल 2023 में खुदकुशी कर ली थी. पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज की गई थी, लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं हुई.

पिछले 10 सालों में आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में 20 से ज्यादा एससी छात्रों ने जातिवाद के चलते खुदखुशी की. वैसे भी एससी छात्रों के साथ जाति आधारित भेदभाव तो प्राथमिक कक्षाओं से शुरू हो जाता है. यही वजह है कि देश की बड़ी यूनिवर्सिटियों तक एससी तबके के छात्रों का पहुंचना भी मुश्किल होता है.

एससी तबके के छात्रों का प्राइमरी लैवल से ऊंची पढ़ाई तक पहुंचने का फीसदी काफी कम है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, 2023-24 में एससी छात्रों का ग्रौस इनरोलमैंट रेशियो प्राइमरी लैवल (कक्षा 1-5) पर 96.8 फीसदी, सैकंडरी लैवल (कक्षा 9-10) पर 80.6 फीसदी और हायर सैकंडरी लैवल (कक्षा
11-12) पर 57.9 फीसदी है. इस के बाद ऊंची पढ़ाईलिखाई (18-23 साल) में एससी छात्रों का ग्रौस इनरोलमैंट रेशियो महज 25.9 फीसदी है.

इस का मतलब है कि प्राइमरी लैवल से शुरू करने वाले एससी छात्रों में से तकरीबन 26 फीसदी ही देश की बड़ी यूनिवर्सिटियों या उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुंच पाते हैं, जबकि बाकी स्टूडैंट्स इस से आगे नहीं बढ़ पाते.

देश के टौप संस्थानों जैसे आईआईटी या आईआईएम में पहुंचने वाले स्टूडैंट्स का फीसदी तो 0.1 फीसदी से भी कम है, क्योंकि इन टौप की यूनिवर्सिटियों में सीटें सीमित होती हैं और रिजर्वेशन के बावजूद कंपीटिशन ज्यादा होता है.

इतनी जद्दोजेहद के बाद कुछ छात्र इन यूनिवर्सिटियों तक पहुंच भी गए तो उन्हें हर कदम पर जातिवाद झेलना पड़ता है या उन की संस्थागत हत्याएं कर दी जाती हैं. साल 2016 में रोहित वेमुला और साल 2023 में दर्शन सोलंकी इस बात के उदाहरण हैं.

घोड़ी चढ़ने का हक नहीं

गुजरात के सांदीपाडा गांव में आकाश कोटडिया नाम के एससी नौजवान की शादी थी. गांव के ही कुछ ऊंची जाति के लोगों ने आकाश को शादी के दौरान घोड़ी पर चढ़ने से मना कर दिया. मामला इतना बढ़ा कि पुलिस को अतिरिक्त बल बुलाना पड़ा.

हालांकि, यह मामला फरवरी, 2020 का है, लेकिन इस मामले में खास बात यह है कि आकाश आर्मी का जवान था और जम्मूकश्मीर में तैनात था. वह कुछ दिन पहले छुट्टी ले कर शादी के लिए गांव आया था.

16 दिसंबर, 2024 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में एक दलित पुलिस कांस्टेबल के बेटे नंदराम सिंह की बरात के दौरान ऊपरी जाति के तकरीबन 40 लोगों ने हमला किया. उन्होंने दूल्हे को घोड़ी से जबरन उतार दिया. जातिवादी गालियां दीं. डीजे सिस्टम तोड़ा. औरतों से छेड़छाड़ की और बरातियों पर पथराव किया. इस मामले में पुलिस ने एफआईआर दर्ज की और 5 लोगों को गिरफ्तार किया.

फरवरी, 2022 को मध्य प्रदेश के छतरपुर में 24 साल के दलित पुलिस कांस्टेबल दयाचंद अहिरवार की बरात में ऊपरी जातियों ने जम कर हंगामा किया और दूल्हे को घोड़ी से उतार दिया. अगले दिन प्रशासन ने भारी पुलिस सुरक्षा में उन्हें घोड़ी पर चढ़ाया.

इन तीनों मामलों में दूल्हे आर्मी या पुलिस में थे, इसलिए इन तीनों मामलों में पुलिस ने सक्रिय भूमिका निभाई और मामला सुर्खियों में आया. आम एससी तबके के ऐसे अनेक मामले तो खबरों में ही नहीं आ पाते या इन मामलों में कोई मुकदमा ही दर्ज नहीं होता.

इन वारदात को रोकने के लिए कई जिलों में ‘समानता समितियां’ बनाई गई हैं और एससी दूल्हों को पुलिस सुरक्षा दी जाती है फिर भी हर साल दर्जनों ऐसे मामले दर्ज किए जाते हैं.

संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित किया गया है, लेकिन एनसीआरबी डाटा के मुताबिक हर 20 मिनट में एससी तबके के खिलाफ ऐसे अपराध दर्ज होते हैं.

राष्ट्रपति होते हुए जातीय भेदभाव

रामनाथ कोविंद, जो 2017 से साल 2022 तक भारत के 14वें राष्ट्रपति रहे, केआर नारायणन के बाद वे भारत के दूसरे ऐसे राष्ट्रपति थे जो एससी तबके से आते थे. वे भाजपा द्वारा समर्थित राष्ट्रपति थे. यही वजह थी कि रामनाथ कोविंद की नियुक्ति को भाजपा ने ‘दलित उत्थान’ के प्रतीक के रूप में पेश किया था.

साल 2018 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जगन्नाथ पुरी मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करना चाहते थे, लेकिन मंदिर के पुजारियों ने उन्हें रोक दिया था. मंदिर के परंपरागत नियमों के अनुसार गैरहिंदू या निचली जाति के लोगों को गर्भगृह में जाने की इजाजत नहीं है.

इसी तरह वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, जो संथाल जनजाति से आती हैं, भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं, जो 2022 में राष्ट्रपति चुनी गईं.

जून, 2023 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने दिल्ली के श्री जगन्नाथ मंदिर में पूजा की. एक तसवीर वायरल हुई, जिस में वे मंदिर के गर्भगृह के बाहर पूजा करती दिखीं, जबकि केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव और धर्मेंद्र प्रधान गर्भगृह के अंदर पूजा करते दिखे. आदिवासी होने के कारण उन्हें गर्भगृह में प्रवेश नहीं दिया गया.

हालांकि, विवाद बढ़ने पर मंदिर के पुजारियों ने साफ किया कि राष्ट्रपति के साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने ऐसा करते हुए सामान्य प्रोटोकौल का पालन किया.

सितंबर, 2023 में नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया. इस दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को न्योता ही नहीं दिया गया, जबकि देश का राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों का सर्वोच्च प्रतिनिधि होता है. इस हिसाब से नए बने संसद का उद्घाटन राष्ट्रपति को ही करना चाहिए.

तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के साथ हुए इस भेदभाव को ‘सनातन धर्म आधारित जातीय भेदभाव’ कहा और दावा किया कि आदिवासी महिला होने के चलते उन्हें इस समारोह से दूर रखा गया.

इस राष्ट्रपति के साथ जातीय भेदभाव

केआर नारायणन भारत के 10वें राष्ट्रपति (1997से 2002) थे, जो एससी बैकग्राउंड से आए थे. वे केरल के उ झावूर गांव में एक अछूत परिवार में जनमे थे. उन की पूरी जिंदगी भारत की जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की मिसाल है. उन्होंने प्राइमरी ऐजूकेशन से ले कर हायर ऐजूकेशन और फिर लैक्चरर की नौकरी तक में सताया जाना और भेदभाव झेला और राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे जातीय तानों का शिकार बने रहे.

साल 1943 में ट्रावणकोर यूनिवर्सिटी (अब केरल यूनिवर्सिटी) से एमए करने के बाद केआर नारायणन को उन की जाति के चलते लैक्चरर की नौकरी से निकाल दिया गया था. डिगरी समारोह में भी उन्हें बेइज्जत किया गया था. अपने आत्मसम्मान के लिए उन्होंने डिगरी लेने से ही इनकार कर दिया था.

बाद में, राष्ट्रपति बनने पर केआर नारारणयन उसी यूनिवर्सिटी में लौटे और अपने भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘मैं उन जातिवादियों को यहां नहीं देख पा रहा हूं, जिन्होंने मु झे अछूत होने के चलते नौकरी से निकाल दिया था.’’

साल 1948 में लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स से अपनी पढ़ाई पूरी कर के केआर नारायणन आईएफएस के लिए चुने गए थे, लेकिन यहां भी वे सताए जाने का शिकार हुए थे. भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) में प्रवेश के लिए उन्हें ऊपरी जातियों के अफसरों का विरोध झेलना पड़ा था. तब डाक्टर बीआर अंबेडकर की मदद से वे आईएफएस में शामिल हुए.

साल 1997 में भारत के 10वें राष्ट्रपति के चुनाव में केआर नारायणन को 95 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन तब उन पर आरोप लगे थे कि उन का चुनाव एससी कोटे के चलते हुआ न कि उन की काबिलीयत से. एक विदेशी यात्रा के दौरान उन्हें जहर देने की साजिश रची गई थी. इस साजिश के लिए दक्षिणपंथी ताकतों की भूमिका नजर आई थी.

गुजरात दंगों को रोकने के लिए राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से सेना भेजने की मांग की थी, लेकिन उन की बात पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी. यही वजह थी कि साल 2002 में दूसरे कार्यकाल के लिए उन का नाम प्रस्तावित हुआ, लेकिन भाजपा ने उन्हें दोबारा राष्ट्रपति नहीं बनने दिया था. केआर नारायणन ने बाद में इसे साजिश बताया था.

ओहदे पर जाति भारी

एससीएसटी तबका सदियों से अछूत रहा है. भारत के गांव अछूतों के लिए यातना केंद्र रहे हैं. यही वजह थी कि डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने अछूतों को शहरों में बस जाने पर जोर दिया. शहरों में बस जाने से अछूतपन खत्म नहीं होता, लेकिन गांवों की बजाय रोजगार के मौके ज्यादा थे.

आजादी के बाद एससी तबके ने बड़ी तादात में शहरों की ओर पलायन किया. राहत जरूर मिली, लेकिन शहरों में भी सताया जाना खत्म नहीं हुआ.

लोकतांत्रिक नियमों के मुताबिक पढ़ाईलिखाई के दरवाजे सब के लिए खुले थे, लेकिन अछूतों के लिए सामाजिक नियम इतने कठोर थे कि उन के लिए स्कूल तक पहुंचना आसान नहीं था. गांव हो या शहर एससी तबके की पढ़ाईलिखाई के मामले में दोनों जगह जातिवादी सोच कायम रही.

इस सब के बावजूद एससी तबके के लोग ऊंची तालीम की दहलीज तक पहुंचे और सिस्टम का हिस्सा बने, लेकिन उन्हें सताए जाने का दर्द भी झेलना पड़ा.

आज भी एससीएसटी तबके के लिए मुश्किलें कम नहीं हुई हैं. शुरुआती पढ़ाईलिखाई तक पहुंच आसान हुई है, लेकिन इस से आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है. इन मुश्किल रास्तों पर चलते हुए कुछ लोग सिस्टम का हिस्सा बन भी रहे हैं, तो वहां भी जातिवाद उन का पीछा नहीं छोड़ रहा है. सब से बड़ा सवाल यह है कि क्या इस जातिवाद को खत्म करने का कोई समाधान है?

समाधान यही है की एससीएसटी तबके को पढ़ाईलिखाई की अहमियत को सम झना होगा. प्राइमरी लैवल की पढ़ाईलिखाई में 97 फीसदी एससी बच्चे पहुंच रहे हैं, लेकिन ऊंची पढ़ाईलिखाई में यही रेशियो महज 26 फीसदी रह जाता है.

एससी तबके को सब से पहले प्राइमरी से ऊंची पढ़ाईलिखाई के बीच के इस ड्रौपआउट रेशियो को कम करना होगा. जो समाज जितना कमजोर होता है, उस के लिए संघर्ष उतना ही बड़ा होता है.

यूनिवर्सिटी की पढ़ाई तक जितने ज्यादा एससी छात्र पहुंचेंगे, उन को सताया जाना उतना ही कम होगा. नौकरियों में भी ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी हासिल करनी होगी. हर लैवल पर संगठन को मजबूत करना होगा, ताकि भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई जा सके.

एससी तबके के सांसदों और विधायकों पर लगातार दबाव बनाए रखना होगा, ताकि वे सिर्फ सत्ता सुख न भोगें, बल्कि समाज के हित में काम करें. समय लगेगा, लेकिन हालात जरूर बदलेंगे.

रहनसहन में बदलाव जरूरी

एससीएसटी और मुसलिम तबके मुख्यधारा से कटे हुए नजर आते हैं, तो इस में किस का दोष है? भारत के कल्चर का हिस्सा होते हुए भी कल्चर से अलग दिखने की नौटंकी क्यों? यहीं से समस्याएं शुरू होती हैं.

एससीएसटी और मुसलिम तबका खुलेपन और नएपन से परहेज करता है. मुसलिम अपने अकीदों के आगे किसी तरह का सम झौता नहीं कर पाते तो एससी तबका भी इसी रास्ते पर निकल पड़ा है.

एससीएसटी और मुसलिम तबके को शहरों में घर किराए पर लेना मुश्किल होता है, तो इस की वजह सिर्फ मकान मालिकों के अंदर भेदभाव भरी सोच ही नहीं है. ये लोग खुद ही मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाते.

खानपान, पहनावा और रहनसहन की आदतें नहीं बदल पाते. साफसफाई के तौरतरीके नहीं सीख पाते. घर में लड़ाई झगड़े, घर की औरतों को पीटना, घर में हमेशा शोरशराबा होना और ज्यादा बच्चे होना यह आम बात होती है, इसीलिए इन्हें कोई किराए पर नहीं रखता.

वर्ग संघर्ष कितना जरूरी

दुनिया के किसी भी समाज में इनसानों की कीमत उस की प्रोडक्टिविटी से तय होती है. परिवार भी ऐसे ही चलते हैं. आज के समय परिवार में जो जितना प्रोडक्टिव होता है उस की इज्जत भी उसी हिसाब से होती है.

परिवार का जो सदस्य प्रोडक्टिव नहीं तो वह अपने परिवार में ही हाशिए पर चला जाएगा. कोई समाज अगर प्रोडक्टिव नहीं है, तो वह भी बाकी समाजों के बीच हाशिए पर चला जाएगा.

जो जाति या समाज टौप पर है, तो उस ने अपनी जायज या नाजायज प्रोडक्टिविटी को साबित किया है और जो जाति या समाज हाशिए पर है, वह अपनी प्रोडक्टिविटी को साबित नहीं कर पाया. यही लोग वर्ग संघर्ष की बात करते हैं. किसी भी संघर्ष की कीमत होती है. जिन के पास बहुतकुछ है वे आसानी से अपना दबदबा नहीं छोड़ेंगे और जिन के पास कुछ नहीं वे किसी भी संघर्ष के लायक भी नहीं हैं, इसलिए वर्ग संघर्ष की बात ही बेमानी है.

इज्जत और सा झेदारी के लिए अपने भीतर का संघर्ष जरूरी है. प्रोडक्टिविटी में भागीदार बनना जरूरी है. इस के लिए प्रोडक्टिव होना जरूरी है. आज जमाना बदल गया है. क्रांतियां किताबों में ही अच्छी लगती हैं. धरातल पर तो जू झना होता है. एससीएसटी और मुसलिम समाज को यह बात सम झनी होगी. बराबरी के हकदार बराबरी के लोग ही होते हैं. यह कड़वी हकीकत है.

‘घेटो’ की घुटन से बाहर निकलना जरूरी

16वीं सदी में इटली के वेनिस शहर में यहूदियों को अलगथलग इलाकों, जिन्हें ‘घेटो नुओवो’ (यहूदियों की नई बस्ती) कहा जाता था, में रहने के लिए मजबूर किया गया था. ये इलाके दूर से पहचाने जा सकते थे.

इटली से ही ‘घेटो शब्द इतना मशहूर हुआ कि यह अमेरिका के नीग्रो गुलामों की अलगथलग बस्तियों के लिए भी इस्तेमाल होने लगा. ब्रिटिश, डच और फ्रांसीसी उपनिवेशों में किसी कबीलाई समुदाय या धार्मिक अल्पसंख्यक को जबरन साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता, तो यही इलाके घेटो बन जाते थे.

घेटो की घुटनभरी गलियों में कोई भी बाहरी नहीं घुसना चाहता था. अमेरिका में घेटो गुलामों की फैक्टरियां थीं, तो यूरोप के घेटो यहूदियों को अलगथलग रखने के डिटैंशन कैंप थे. यहां केवल एकजैसे लोग रहते थे, जो घेटो में पैदा होते और यहीं मर जाते थे.

आज भी शहरोंकसबों के आसपास ऐसे इलाके मौजूद होते हैं, जो अनपढ़ता, गरीबी और अपराध के लिए बदनाम होते हैं. ये इलाके आज के घेटो हैं. अमेरिका में अफ्रीकीअमेरिकी या हिस्पैनिक समुदाय के लोग जिन इलाकों में रहते हैं, उन्हें आज भी घेटो कहा जाता है.

भारत में भी ऐसे ‘घेटो’ की कमी नहीं है. यहां तो सदियों से घेटो मौजूद रहे हैं. गांव हो या शहर एससी तबके के लिए हर लैवल पर घेटो बनाए गए थे. शहरों के घेटो आगे चल कर झुग्गी झोंपडि़यों में बदल गए. हर गांव में एक घेटो नजर आ जाएगा.

शहरों में मुसलिम बहुल इलाकों को ही देख लीजिए. ये भी घेटो ही हैं. कई दलित बहुल महल्ले भी ऐसे ही हैं, जहां घुसने में भी घुटन होती है, जबकि वहां ये लोग आराम से जीते हैं. आज के इन घेटो की पहचान खराब बुनियादी ढांचे, अनपढ़ता, सेहत से जुड़ी सेवाओं की कमी और अपराध दर में बढ़ोतरी से होती है.

भारत के घेटो एससीएसटी और मुसलिमों के लिए किसी डिटैंशन कैंप से कम नहीं हैं. आखिर मजबूरी क्या है? घेटो की दीवारों को तोड़ कर मुख्यधारा तक पहुंचना मुश्किल तो नहीं है, लेकिन घेटो में जीने की आदत पड़ गई है. यहां से निकलने का एकमात्र जरीया पढ़ाईलिखाई है, लेकिन इन समाजों को तालीम की सम झ ही नहीं है.

समस्या आप की, हल भी आप ही निकालें

एससीएसटी तबके के साथ इतिहास में गलत हुआ या आज भी गलत हो रहा है, इस बात का रोना रोते रहने से कुछ नहीं बदलेगा. मुसलिम बादशाहों ने हजार साल तक इस देश पर हुकूमत की, इस बात पर इतराने से मुसलिमों के आज के हालात नहीं बदल जाएंगे. एससीएसटी तबके और मुसलिमों को यह तय करना होगा कि वर्तमान में उन के समाज की परफौर्मैंस और प्रोडक्टिविटी क्या है?

यह इस बात से तय होगा कि आप के समाज में पढ़ाईलिखाई और सम झदारी का लैवल क्या है?

पढ़ाईलिखाई और सम झदारी का रास्ता मुश्किल है, लेकिन इस के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं है. हालात का रोना रोते रहने से हालात नहीं बदलते. नेता आते हैं और अपना उल्लू सीधा कर गायब हो जाते हैं. समाज इन नेताओं का पिछलग्गू बना रहता है. समस्या आप की है, तो बदलाव भी खुद से शुरू करना होगा. Social Inequality

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