Supreme Court Judgment, लेखक – शकील प्रेम
एससी और एसटी के खिलाफ अपराध होना कोई नई बात नहीं है. इन्हीं अपराधों को रोकने के लिए एससीएसटी ऐक्ट बना था. इस अधिनियम के तहत एससीएसटी को जातिसूचक शब्द कहना भी अपराध माना गया है, लेकिन अगर यह अपशब्द जातिसूचक नहीं है, तो इसे एससीएसटी ऐक्ट की धाराओं में दर्ज नहीं किया जा सकता.
यहां तक कि अगर कोई शख्स किसी एससीएसटी को ‘बास्टर्ड’ (हरामजादा) जैसे शब्दों से भी नवाजे, तो इसे एससीएसटी ऐक्ट में अपराध की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता.
16 अप्रैल, 2025 को सिधान नाम के एक आदमी ने एक एससी शख्स को सड़क पर रोका, धमकी दी और कुल्हाड़ी से हमला किया. हमले से पहले आरोपी सिधान ने उसे ‘बास्टर्ड’ कहा. एससी आदमी ने एफआईआर दर्ज करवाई, जिस में ‘बास्टर्ड’ शब्द के अलावा कोई जातिसूचक शब्द दर्ज नहीं हुआ.
‘बास्टर्ड’ शब्द के साथ ही पुलिस ने एससीएसटी ऐक्ट की धाराएं जोड़ दीं, जिस के बाद आरोपी ने अग्रिम जमानत के लिए केरल हाईकोर्ट का रुख किया, लेकिन हाईकोर्ट ने एससीएसटी ऐक्ट की धारा 18 के तहत जमानत खारिज कर दी.
आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘बास्टर्ड’ शब्द जाति पर आधारित अपमान नहीं है. यह सामान्य सा अपमानजनक शब्द है, जो एससीएसटी ऐक्ट के दायरे में नहीं आता.
सुप्रीम कोर्ट की बैंच ने इस मामले में टिप्पणी करते हुए कहा, ‘यह आश्चर्यजनक है कि शिकायत में जातिगत अपमान का कोई आरोप न होने पर भी पुलिस ने एससीएसटी ऐक्ट लगाया.’
सुप्रीम कोर्ट ने एससीएसटी ऐक्ट की धारा 3(1)(आर) का हवाला दिया जो कहती है कि अपमान तभी अपराध है, जब यह जाति की पहचान के आधार पर हो और यह अपमान सार्वजनिकतौर पर किया जाए, ताकि पीडि़त अपमानित महसूस हो. यह कह कर सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को अग्रिम जमानत दे दी.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि केवल ‘बास्टर्ड’ जैसे अपमानजनक शब्द का इस्तेमाल एससीएसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा. जब तक कि कोई शब्द स्पष्ट रूप से जाति (कास्ट) से जुड़ा न हो, वह एससीएसटी ऐक्ट के तहत अपराध नहीं है. यह फैसला 3 नवंबर, 2025 को जस्टिस अराविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजरिया की बैंच ने सुनाया.
23 अगस्त, 2024 शजन स्केरिया बनाम केरल राज्य के मामले में भी जस्टिस पीबी परदीवाला ने कहा था कि एससीएसटी के खिलाफ कोई भी शब्द तभी अपराध है, जब यह जाति से जुड़ा हो. केवल पीडि़त के एससीएसटी होने से यह ऐक्ट लागू नहीं होता.
5 नवंबर, 2020 को एक अहम फैसले में भी कोर्ट ने कहा कि सभी अपमान एससीएसटी ऐक्ट के तहत नहीं आते जब तक कि उस अपमान का इरादा जातिगत अपमान न हो.
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2022 में कृष्ण कुमार सिंह बनाम राज्य के एक फैसले में भी साफ किया था कि केवल अपमानजनक या मानहानिकारी शब्दों का उच्चारण मात्र से आईपीसी की धारा 294(बी) के तहत अपराध नहीं है.
कोर्ट ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया जारी करने से पहले मजिस्ट्रेट को जांच करनी चाहिए कि क्या शब्दों का प्रभाव सार्वजनिक नैतिकता पर पड़ता है या नहीं. ‘बास्टर्ड’ जैसे शब्दों को अकेले अपराध मानने के लिए पर्याप्त सुबूत जरूरी हैं.
साल 2007 के मायादेवी बनाम जगदीश प्रसाद के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पत्नी को नियमित रूप से ‘बास्टर्ड’ जैसे अपशब्द कहना मानसिक क्रूरता है, जो तलाक का आधार बन सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने जिनिया कीटिन बनाम कुमार सीताराम मां?ा, 2003 के एक मामले में साफ किया था कि सिर्फ वैध विवाह से जन्मा बच्चा ही वैध माना जाता है. अगर किसी हिंदू की शादी हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत नहीं हुई है, तो बच्चा ‘बास्टर्ड’ माना जाता है और उसे उत्तराधिकार में अधिकार नहीं मिल सकता.
हालांकि, साल 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) में संशोधन के बाद अविवाहित माताओं के बच्चों को मां की संपत्ति में अधिकार मिला है.
साल 2014 में एनडी तिवारी के मामले में, रोहित शेखर ने सुप्रीम कोर्ट से ‘बास्टर्ड’, ‘इलिगिटिमेट’ जैसे शब्दों पर प्रतिबंध की मांग की थी, ताकि कानूनी कार्यवाही में मां की गरिमा बनी रहे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया.
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के यह जजमैंट एससीएसटी ऐक्ट के गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए दिए गए. इन मामलों में कोर्ट ने कहा भी कि इस ऐक्ट का मकसद असली अत्याचारों को रोकना है.
सवाल यह है कि कोर्ट असली अपराध किसे मानती है? जिस देश में एक एससी की बरात को सुरक्षित तरीके से सड़क पर निकलने के लिए पुलिस फोर्स तैनात करनी पड़ती है, वहां एससी के प्रति असली अपराध का मापदंड कैसे तय किया जा सकता है? अगर किसी एससी को उस की जाति के चलते ही ‘हरामजादा’ कहा जाए, तो क्या यह उस के खिलाफ मानसिक उत्पीड़न नहीं है?
हाईकोर्ट बनाम वीजे प्रकाश, 1982 के एक मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने पुराने ब्रिटिश फैसलों की आलोचना की थी और ‘हरामजादा’ जैसे शब्दों को किसी भी नागरिक के लिए अपमानजनक माना था.
तब राजस्थान हाईकोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के बाद, ऐसे अपमान मालिक और नौकर के रिश्ते में भी क्षतिपूर्ति योग्य नहीं हैं. राजस्थान हाईकोर्ट का यह फैसला ‘बास्टर्ड’ जैसे शब्दों को सामाजिक संदर्भ में मानसिक क्रूरता मानता है.
एक तरफ राजस्थान हाईकोर्ट ‘बास्टर्ड’ जैसे शब्दों को अपमानजनक और मानसिक क्रूरता मानती है, तो
वहीं सुप्रीम कोर्ट के लिए किसी एससी को ‘बास्टर्ड’ कहना सामान्य सी बात है. एससी समाज को ले कर अदालतों की यह मानसिकता विरोधाभासी तो है ही, साथ यह एससीएसटी के प्रति समाज के जातिवादी चरित्र को बढ़ावा भी देती है.
जरूरी नहीं है कि हर एससी को कोई उस की जाति का नाम ले कर ही गाली दे, लेकिन यह कड़वी सचाई है कि एससी को उन की जाति के चलते ही ‘बास्टर्ड’ जैसी गालियां दी जाती हैं. Supreme Court Judgment




