Social Problem: अभी हाल ही में एक खबर पढ़ने को मिली कि दिल्ली के कुछ इलाकों में बंदरों का खौफ कायम हो चुका है. हैरत हुई कि दिल्ली में बंदर, तो फिर वहां प्रशासन के क्या हालात हैं?

जब थोड़ी खोजबीन की तो दिलचस्प मामले सामने आए कि बंदर न सिर्फ चीजों को नुकसान पहुंचा रहे है, बल्कि उन के काटने की संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है, इसलिए दिल्ली नगरनिगम में लोग उन से बचाव के लिए गुहार लग रहे हैं.

बात यहां तक आ पहुंची है कि लोग अब शिकायतें करने लगे हैं कि दिल्ली नगरनिगम उन की शिकायतों पर ध्यान नहीं देता. उधर, नगरनिगम हैरान है कि वह इस समस्या से निबटे कैसे?

इस के पीछे वजह यही है कि लोगों की आस्था इन बंदरों के प्रति कुछ ज्यादा ही है. पहले तो वे इन्हें बड़े ही श्रद्धा और प्यार से केले, चने, मूंगफली जैसी चीजें खिलाते हैं कि हनुमानजी के वंशज हैं, पर जब ये बागबगीचों के पौधों या गमलों को तोड़ने और तहसनहस करने लगते हैं, तो लोगों की नींद टूटती है.

और अगर कहीं बंदर नोंच या काट लें, तो उन को दिन में तारे दिख जाते हैं. उन की आस्था धरी की धरी रह जाती है, क्योंकि बंदरों के काटने से भी रेबीज रोग होता है. ऐसे में महंगे इलाज के चक्कर में जेब पर तो चपत लगती ही है, समय का भी नुकसान होता है सो अलग.

दिल्ली की एक कालोनी ग्रेटर कैलाश पार्ट 2 में वैलफेयर एसोसिएशन के संजय राणा के मुताबिक, जहांपनाह वन और बत्रा अस्पताल के बीच बंदरों को खिलाने के लिए लोगों ने ‘मंकी पौइंट’ बना रखे हैं. अब बंदर हैं, तो वे खाने के लिए आगे बढ़ेंगे ही.

संजय राणा ने दावा किया कि खाने की तलाश में बंदर आगे बढ़ कर आसपास के इलाकों में चले जाते हैं और इन के रास्ते में जो भी आएगा, वह उन के हमले का शिकार होगा ही.

दरअसल, बंदरों का कौतुक हमें अच्छा लगता है. बंदरों का घरोंदीवारों पर चढ़नाभागना, चीखपुकार मचाना अच्छा लगता है कि कैसे वे किसी घर या दुकान से कोई सामान चुराते और ले भागते हैं.

पर ये बंदर कभी अकेले नहीं होते. झुंड के झुंड में बंदरों के बीच छीनाझपटी चलती है और सभी लोग इसे मुफ्त के मनोरंजन के रूप में देखते हैं.

दिक्कत तब होती है, जब उन्हीं लोगों में से कोई बंदर की चपेट में आता है और तब सारी आस्था और भक्ति भाव धरे के धरे रह जाते हैं. फिर ऐसे लोग सरेराह सरकार को कोसने और गालियां देने लगते हैं, जबकि बाकी लोग मजे लेते हुए तमाशबीन बने रहते हैं.

इन बंदरों को भगाने के लिए अनेक फौरी उपाय किए जाते हैं, मगर उन्हें जान से मारा नहीं जा सकता, क्योंकि तत्काल आस्था की बात उठ जाती है. ऐसे में एक उपाय यह है कि इन की नसबंदी कर दी जाए, ताकि इन की तादाद न फैले. मगर यह इतना आसान नहीं होता.

बंदरों को भगाने के लिए भाड़े पर लंगूर मंगाए जाते हैं. यहां यह जानना रोचक है कि बंदर हों या लंगूर, ये सभी तो हनुमान के ही वंशज माने जाने चाहिए, फिर ये बंदर इन लंगूरों से इतना डरते क्यों हैं कि उन से अपनी मारकुटाई से बचने के लिए यहांवहां भागते फिरते हैं?

दिल्ली नगरनिगम के अफसरों के मुताबिक, वर्तमान में 250 नगरपालिका वार्डों में निगम के पास 10 बंदर पकड़ने वाले हैं. एक अफसर ने स्वीकार किया कि हर दिन हमें मिलने वाली शिकायतों के आधार पर उन की मांग बहुत ज्यादा होने के चलते हम उन्हें उपलब्ध नहीं करा पाते, क्योंकि मंकी कैचर्स की संख्या बहुत कम है.

हम ने ज्यादा बंदर पकड़ने वालों को हमारे साथ काम करने के लिए एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया था.

दिल्ली सरकार के वन्यजीव विभाग की जारी रसीद के आधार पर नगरनिगम बंदर पकड़ने वालों को प्रति बंदर फंसाने पर 1,800 रुपए का भुगतान करता है. पकड़े गए बंदरों को असोला भट्टी खान में ले जाने के बाद वन्यजीव विभाग की ओर से बंदर पकड़ने वाले को रसीद जारी की जाती है, जिसे वे अपना प्रतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए सौंपते हैं.

इस के उलट लोगों ने जानकारी दी कि न तो बंदरों को फंसाने से और न ही नगरनिगमों की ओर से शुरू किए गए नसबंदी अभियान से उन की बढ़ती आबादी को रोकने में कामयाबी मिली है.

प्राइमैटोलौजिस्ट इकबाल मलिक ने बताया कि अचानक से बंदरों को पकड़ने से उन के झुंड छोटे हो जाते हैं, लेकिन फिर वे ज्यादा आक्रामक भी हो जाते हैं. इस के साथ लोग उन्हें हाई कार्बोहाइड्रेट और चीनी वाला आहार खिलाते हैं, जिस के वे आदी हो जाते हैं, इसलिए आवासीय इलाकों में जाते हैं.

यहां यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि बंदर के काटने का कोई रिकौर्ड नहीं रखा गया है और न ही अभी तक जानवरों की जनगणना की गई है. लेकिन माहिरों ने माना है कि बंदरों के ये झुंड ज्यादातर रिज, असोला गांव, एलजी हाउस के पास के इलाके, सिविल लाइंस, विठ्ठलभाई पटेल हाउस, मीना बाग एरिया, बड़ा हिंदू राव के पीछे के इलाके जैसे आवासीय इलाकों में भोजन की तलाश में जाते हैं.

ताजा घटना यह है कि दिल्ली के आयानगर में एक बंदर ने अकेले आतंक फैला कर रख दिया. उस ने तकरीबन 50 लोगों पर हमला कर उन्हें घायल कर दिया. आमतौर पर होता यह है कि जब कोई पशु सघन रिहायशी इलाकों में आता है, तो भीड़ इकट्ठा हो जाती है.

ये पशु आमतौर पर भोजन की ही तलाश में आते हैं और जब कोई पशु तमाशबीनों की भीड़ पर हमला करता है, तो भगदड़ सी मच जाती है. इस भगदड़ से भी लोग घायल होते हैं. अब कोई असावधान है, या कोई वाहन चला रहा है, तो उस पर हमला हो या भगदड़ मच जाए, तो हादसे होंगे ही.

बंदरों के प्रति श्रद्धा की खास वजह यही रही है कि हमारे धार्मिक ग्रंथों में उन्हें ईश्वर का रूप बताया गया है. यह लोक आस्था है कि ‘रामायण’ में वर्णित सुग्रीव की बंदरों की विशाल सेना ने राम का सहयोग किया था. इस में हनुमान प्रमुख थे, जिन्होंने हमेशा राम के साथ सेवा भाव से सहयोग किया. और यही वजह है कि इन की उपासना की जाती है.

यहां तक तो ठीक है, लेकिन अगर आसपास से कहीं बंदरों का हुजूम आ कर रहने लगे, तो उन्हें भी बैठेबिठाए मंदिर परिसर में खाने को मिल जाता है. शुरू में लोग ध्यान नहीं देते कि चलो भगवान के दूत हैं ये बंदर. लगे हाथ इन्हें भी कुछ खिला देने में हर्ज क्या है. सो, वहां चने, मूंगफली, केले, फल वगैरह की भी दुकानें खुल जाती हैं.

इस से तीर्थयात्रियों या पर्यटकों का तो कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन स्थानीय लोगों को इस की भारी कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि बंदरों का यह हुजूम आगे बढ़ कर उन के घरबार के आगे उपद्रव मचाने लगता है.

हनुमान क्या हैं, इस पर भी विवाद है. यह तो तय है कि वे बंदर प्रजाति के हैं. अब बंदर के लिए ‘रामचरितमानस’ में 2 और शब्द हैं, कपि और वानर.

‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने बंदरों के संदर्भ में अनेक जगह पर कथावाचक शिव द्वारा उन्हें वानर कहा गया है. वानर यानी विशेष नर, जिस पर विद्वानों ने अपने विचार दिए हैं कि हनुमान बंदर नहीं, वानर हैं, जबकि तुलसीदास ने हनुमान का वर्णन आने पर अनेक जगह पर उन्हें कपि कहा है, जैसे ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीश तिहूं लोक उजागर’.

लोकप्रिय ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ के अलावा तुलसीदास ने अन्य साहित्यिक कृतियों की रचना की है, जिन में से एक ‘हनुमानाष्टक’ भी है. वहां वे उन्हें कपिसूर कहते हैं.

हालांकि, ‘रामचरितमानस’ में राम को अपना परिचय देते हुए हनुमान कहते हैं, ‘नाथ सैल पर कपिपति रहई. सो सुग्रीव दास तव अहई’. इस का अर्थ यह है कि पर्वत पर बंदरों के राजा सुग्रीव हैं, जिन का मैं सेवक हूं.

वहीं जब लंका दरबार में अंगद से रावण पूछता है, ‘कह दसकंठ कवन तैं बंदर. मैं रघुबीर दूत दसकंधर’. इस का अर्थ यह हुआ कि अरे बंदर, तू कौन है? इस पर अंगद कहता है कि हे दशग्रीव, मैं रघुवीर का दूत हूं.

इसी बंदर प्रजाति में लंगूर भी आते हैं, जिस से बंदर बहुत डरते हैं. बंदर भगाने वाले लोग इसी पालतू लंगूर की सेवा लेते हैं. बंदर लंगूरों से इतना डरते हैं कि उस की आवाज भर से ही वह भाग जाते हैं, इसलिए कुछ लोग लंगूरों की आवाजें निकाल कर भी बंदरों का भगाने का काम करते हैं.

यहां सवाल यह भी है कि अगर सभी एक ही समुदाय के हैं, तो बंदर लंगूरों से डरते क्यों हैं? इस की वजह बस यही है कि बंदरों का खुराफाती स्वभाव, जो चीजों को नष्टभ्रष्ट करने, तोड़फोड़ करने और विरोध करने पर हमला करने में यकीन रखता है, मगर लंगूरों का यह स्वभाव नहीं होता. वे शारीरिक रूप से उन से बहुत बड़े और ताकतवर भी होते हैं और इसलिए वे बंदरों की पकड़ कर मारकुटाई कर देते हैं.

मगर सवाल यह है कि जब ये बंदर खतरनाक हो जाएं, तो क्या करें? सरकार को एक तरफ जनमानस का खयाल रखना होता है, दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण का भी ध्यान रखना होता है. पर्यावरण संतुलन के लिए पशु संरक्षण जरूरी है, लेकिन जब अति हो जाए, तो कोई क्या करे?

बंदरों के उत्पात को एक गंभीर समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए. इस अंधविश्वास से बचने की जरूरत है कि वे भगवान का प्रतीक हैं. भगवान का प्रतीक तो मनुष्य भी है, लेकिन जब वह अपराध करता है, तो क्या उसे दंड नहीं मिलता? कुछ यही हाल बंदरों का है. जब वे नुकसान पहुंचाते हैं, हमला करते हैं, तो हमें भी उस से बचाव का हक तो बनता ही है.

हमें बंदरों को उपद्रवी तत्त्व के रूप में उन की निशानदेही कर उन से बचाव के साधन अपनाने ही होंगे. यह भी समझने की जरूरत है कि कोई पैदल या अपने दोपहिया वाहन से कहीं जा रहा हो और उस पर अचानक से कोई बंदर कूद पड़े, तो कितना बड़ा हादसा हो सकता है.

आमतौर पर ये बंदर छोटे बच्चों और औरतों को अपना आसान शिकार मानते हैं. स्कूल जाते बच्चों के बैग और बाजार से खरीदारी कर लौट रही औरतों के हाथ से सामान छीन कर भागना इन का प्रिय शगल रहता है. एक तो हादसा हुआ, दूसरे सरे बाजार लोग मजाक भी उड़ाते हैं.

और कहीं कुछ काट लिया, तो महीनेभर तक के अस्पताल के खर्चों का इंतजाम हो जाता है, इसलिए पहली बात तो यह कि बंदरों को कुछ भी खानेपीने को न दिया जाए, दूसरी बात यह कि प्रशासन को उन्हें हटाने या भगाने में सहयोग किया जाए. Social Problem

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