मई में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सब से ज्यादा चौंकाने वाला नतीजा था तमिलनाडु का. एग्जिट पोल जयललिता की हार की भविष्यवाणी कर रहे थे मगर जयललिता न केवल जीतीं बल्कि तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास में पिछले 32 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी पार्टी को लगातार दूसरी बार सत्ता मिली हो. यह भी तब जब जयललिता स्वास्थ्य की वजह से रैलियों और प्रचार में कम नजर आई थीं. वहीं, उन्हें चुनौती दे रहे द्रमुक के नेतृत्व ने प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी थी. इस लिहाज से जयललिता की पार्टी का यह प्रदर्शन असाधारण कहा जा सकता है. वे देश में सब से ज्यादा बार यानी छठी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाली नेता बनीं.
उन के राजनीतिक जीवन में बारबार यही हुआ है. लेकिन बहुत से लोग उन्हें तब से जानते हैं जब वे मासूम लड़की थीं. अद्भुत है उन की जिंदगी की कहानी तो कुछ लोग कहते हैं पूरी फिल्मी है उन की कहानी. किसी महाबिकाऊ उपन्यास से कम रोमांचक और सनसनीखेज नहीं है उन की जीवनयात्रा.
एक मासूम लड़की
हालात ने कभी उस के सभी इंद्रधनुषी सपनों को चकनाचूर कर ऐसी दुनिया में उसे ठेल दिया था जिस से उसे सख्त नफरत थी. मगर उस ने हिम्मत नहीं हारी और वहां भी शोहरत व कामयाबी के उन शिखरों को हासिल किया जिन की झलक पाने को भी लोग तरस जाते हैं. मगर इस संघर्ष ने उसे एक ऐसी निष्ठुर व निर्मम लौह महिला बना दिया जो आज पैसा, ग्लैमर, सत्ता व राजनीति के हर खेल की माहिर खिलाड़ी बन चुकी थी और इस पुरुष प्रधान दुनिया में पुरुष उस के सामने लोटते थे.
35 सालों पहले जयललिता नाम के धूमकेतु का उदय तमिलनाडु की राजनीति में हुआ था. तब से उस के दोस्त हों या दुश्मन, समर्थक हों या विरोधी, राजनीतिज्ञ हों या मनोवैज्ञानिक, सभी जयललिता नाम की इस अबूझ पहेली को बूझने की कोशिश करते रहते हैं कि कैसे एक मासूम लड़की अंधी महत्त्वाकांक्षा, विराट अहंकार और विशुद्ध स्वार्थ का पर्याय है, जो खुद तो किसी पर विश्वास नहीं करती, मगर अपने बारे में उसे यह खुशफहमी है कि वह इस दुनिया का केंद्र है, इसलिए सारी दुनिया को उस के इर्दगिर्द घूमना चाहिए.
लंबे समय तक जयललिता के खास सहयोगी रहे भूतपूर्व सांसद वालमपुरी जौन कहते हैं कि जयललिता अंतर्विरोधों का पुलिंदा है. उस के आज के अजीबोगरीब बरताव के बीज उस के अतीत में खोजे जा सकते हैं. उस के पिता, अभिनेता एम जी रामचंद्रन और प्रेमी शोभन बाबू ये पुरुष उस की जिंदगी में आए पर इन में से कोई भी उस की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा. इसलिए आज वह हरेक पर अविश्वास करती है. कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जयललिता के दुखद और असुरक्षा की भावना से ग्रस्त बचपन में ही आज के विचित्र व्यक्तित्व की वजहें छिपी हुई हैं. जयललिता खुद भी यह स्वीकार करती रही है कि उस का बचपन कष्टपूर्ण था. अकसर बचपन की यादें ताजा होने पर उस की आंखें छलछला जाती हैं.
कई वर्षों पहले सिम्मी ग्रेवाल को दिए गए एक टैलीविजन इंटरव्यू में उस ने बहुत अफसोस के साथ बताया था कि उस का परिवार काफी संपन्न था मगर उस के पिता शराबी और फुजूलखर्च थे. इसलिए उन की मृत्यु के बाद परिवार कंगाल हो गया था. घर का खर्च चलाने के लिए मां को फिल्मों में छोटीछोटी भूमिकाएं करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
जयललिता को हमेशा यह महसूस हुआ कि चूंकि वह छोटीमोटी भूमिकाएं निभाने वाली चरित्र अभिनेत्री की बेटी है, इसलिए उस का मजाक उड़ाया जाता है. यदि वह किसी स्टार की बेटी होती, तो उस के साथी उस का सम्मान करते. उस के इर्दगिर्द घूमते. तब कक्षा में फर्स्ट आ कर उस ने अपने साथियों की जबान पर ताला लगा दिया था.
जयललिता अभिनेत्री या राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि लखपति और वकील बनना चाहती थी. घर की खस्ता माली हालत ने वकील बनने का उस का सपना तोड़ दिया. सोलह वर्षीय जयललिता जयराम को स्टेला मौरिस कालेज में प्रवेश लेने के बजाय श्रीधर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘वेनिश आदाई’ के सैट पर स्पौटलाइटों के बीच जा कर खड़ा होने के लिए मजबूर होना पड़ा. यह उस की जिंदगी का निर्णायक मोड़ था जिस ने हमेशा के लिए उस की राह बदल दी थी.
हुआ यह कि जयललिता की मां संध्या चाहती थीं कि उन की बेटी बालासरस्वती अथवा यामिनी कृष्णमूर्ति की तरह नृत्यागंना बने पर यह मंशा अधूरी रह गई. जयललिता की मां एक बार अपने संग जयललिता को भी एक फिल्मी पार्टी में ले गईं. उस पार्टी में फिल्म निर्मातानिर्देशकों की नजर सोलह साल की जयललिता पर पड़ी औैर वह फिल्म अभिनेत्री बन गई. खूबसूरती की खबर दूसरे राज्यों में पहुंची और जयललिता देखतेदेखते ही तमिल के अलावा तेलुगू, कन्नड़ और हिंदी फिल्मों की पौपलुर हस्ती बन गई.
अभिनय की ग्लैमरस दुनिया में कदम रखने के बाद उस की मुलाकात तमिल फिल्मों के सुपरस्टार एम जी रामचंद्रन से हुई, जिन की नजदीकियों की वजह से जयललिता का जितना नाम हुआ उससे कहीं ज्यादा उसे बदनामी भी झेलनी पड़ी. एम जी रामचंद्रन और जयललिता एकदूजे से प्रेम करते थे पर एम जी रामचंद्रन पहले से विवाहित थे और 2 बच्चों के पिता थे, जिस की वजह से उन की और जयललिता की शादी नहीं हो सकती थी, इसलिए दोनों के रिश्तों को नाम नहीं मिला. सार्वजिनक रूप से जयललिता ने हमेशा कहा कि एम जी रामचंद्रन उन के मैंटर हैं, इस से ज्यादा और कुछ नहीं.
उस के शुरुआती जीवन की आधिकारिक जानकारी केवल 1970 के दशक के अंतिम दौर में तमिल पत्रिका ‘कुमुदम’ में प्रकाशित आत्मकथात्मक लेखों की शृंखला से मिलती है. इसी लेख शृंखला में उस के शुरुआती जीवन के बारे में बताया गया है. जब उस ने एमजीआर (एम जी रामचंद्रन) के साथ अपने निजी संबंधों का जिक्र शुरू किया तो वह शृंखला एकाएक बंद हो गई. कहा जाता है कि एमजीआर ने हस्तक्षेप किया और उस से कहा कि वह लिखना बंद करे.
जयललिता ने प्रेम के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है, ‘‘जिसे ‘प्लेटोनिक प्रेम’ कहते हैं वह सिर्फ पुस्तकों और फिल्मों में ही पाया जाता है.’’ जाहिर है यह विचार गौडफादर और प्रेमी एम जी रामचंद्र्रन और दूसरे प्रेमी तेलुगू अभिनेता शोभन बाबू के साथ उस के प्रेमप्रसंगों का निचोड़ है. इन 2 प्रेमप्रसंगों ने न केवल प्रेम के बारे में बल्कि पुरुष जाति के बारे में उसे तल्खी से भर दिया. आज उसे हर पुरुष से शिकायत है, क्योंकि, उस की जिंदगी में जो भी पुरुष आए उन्होंने या तो उस का इस्तेमाल किया या फिर विश्वासघात किया. इस में सब से ऊपर नाम एम जी रामचंद्रन का ही है जिन्हें वह अपना मार्गदर्शक मानती रही है और जिन के नाम की दुहाई दे कर वह अब तक राजनीति करती आई है.
लंबी फिल्मी सहयात्रा के बावजूद एमजीआर और जयललिता के रिश्तों में प्रेम व नफरत का अजीब मिश्रण था. जयललिता ने खुद कहा था कि शुरुआत में उसे यह बात बहुत चुभती थी कि एमजीआर के सैट पर आने पर उसे उन के सम्मान में उठ कर खड़ा होना पड़ता और झुक कर अभिवादन करना पड़ता था. यह बात अलग है कि बाद में उस ने स्वयं को पूरी तरह एमजीआर को समर्पित कर दिया और एमजीआर के साथ उस का नाम अटूट रूप से जुड़ जाने के कारण ही वह देखतेदेखते तमिल फिल्मों की सुपरस्टार हो गई. जयललिता सुपरस्टार जरूर बन गई थी मगर अभिनेत्री के तौर पर उसे कभी ऊंचा स्थान प्राप्त नहीं हो पाया.
तमिल फिल्मों में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने के बाद हिंदी फिल्मों में भी अपने अभिनय को आजमाने की कोशिश की जयललिता ने. धमेंद्र के साथ उस ने ‘इज्जत’ नाम की फिल्म में काम किया था. लेकिन यह फिल्म बौक्स औफिस पर झंडे नहीं गाड़ सकी. इस की वजह यह भी थी कि हिंदी फिल्मों के दर्शक थुलथुल बदन वाली जयललिता को पसंद नहीं कर पाए. नतीजतन, हिंदी फिल्मों की हीरोइन बनने की जयललिता की महत्त्वाकांक्षा पर पानी फिर गया.
एम जी रामचंद्रन और जयललिता की जोड़ी जैसेजैसे तमिल फिल्मों में लोकप्रिय होती गई वैसेवैसे एमजीआर जयललिता को ले कर ज्यादा, और ज्यादा पजैसिव हो गए. वे कतई इस बात को बरदाश्त नहीं कर पाते थे कि जयललिता किसी और हीरो के साथ काम करे या किसी और हीरो के साथ देखी जाए. मगर 1970 में उन्होंने स्वयं एक नई हीरोइन के साथ काम करना शुरू कर दिया.
इस से आगबबूला हो कर जयललिता ने भी अपने लिए एक नया प्रेमी खोज लिया. उस का नाम था-शोभन बाबू. वह तेलुगू फिल्मों का हीरो था. कई वर्षों तक जयललिता उस के साथ रही मगर एमजीआर कभी भी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पाए. उन्होंने हर तरह के हथकंडे अपना कर शोभन बाबू और जयललिता को अलग होने पर मजबूर कर दिया. इस प्रेमत्रिकोण के टूटने से जयललिता की जिंदगी में एक बार फिर नया मोड़ आया. अब उस का फिल्मी कैरियर खत्म हो चुका था. वह फिल्मों की ग्लैमरस दुनिया से राजनीति की दुनिया की ओर चल पड़ी.
एमजीआर, जो पहले से ही फिल्मों के साथसाथ द्रमुक की राजनीति में भी सक्रिय थे, इस बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हो चुके थे. एमजीआर और जयललिता की दोस्ती फिर परवान चढ़ गई थी, मगर सबकुछ ठीकठाक नहीं था. एमजीआर के गिलेशिकवे पूरी तरह खत्म नहीं हुए थे क्योंकि अब उन्हें अपनी जया पर पहले जैसा विश्वास नहीं रह गया था. वे उस की हर मांग पूरी करते, नाजनखरे उठाते मगर दूसरी ओर उस की जासूसी भी करवाते. एमजीआर के आदमी उस की हर गतिविधि पर कड़ी नजर रखते थे. मजेदार बात यह है कि उस समय एमजीआर ने जयललिता की जासूसी करने के लिए जिन लोगों को नियुक्त किया था उन में से एक थीं शशिकला, जो बाद में जयललिता की सब से खासमखास सहेली बन गईं. दूसरी ओर जयललिता में भी हार का दंश बना रहा. इसलिए वह मौका मिलते ही एमजीआर को डसने से बाज नहीं आई.
जयललिता फिर भी हमेशा एमजीआर को अपना राजनीतिक गुरु मानती रही. मगर एमजीआर सिर्फ गुरु नहीं, गुरुकंटाल थे. एक घुटे हुए राजनीतिज्ञ की तरह राजनीति के सारे दांवपेच जानते थे. इसलिए फिल्मी ग्लैमर से महिमामंडित जयललिता को उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी नेता, उदार व अंधविश्वास विरोधी करुणानिधि की अपार लोकप्रियता की कारगर काट के लिए चुना.
एमजीआर के बहुत से विश्वस्त साथियों और अन्नाद्रमुक के नेताओं ने जयललिता के राजनीति में प्रवेश का डट कर विरोध किया था. कुछ तो यह मानते थे कि यह एमजीआर के राजनीतिक जिंदगी की सब से बड़ी गलती थी. लेकिन एमजीआर ने किसी की सलाह पर ध्यान नहीं दिया. और 1982 में जयललिता को अन्नाद्रमुक का प्रचार सचिव बना दिया. वह पार्टी में आते ही दो नंबर की बन गई थी. लोगों में आमधारणा बन गई थी कि एमजीआर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया है.
राजनीति में पांव जमाते ही जयललिता ने अपने राजनीतिक गुरु की ही जड़ें काटनी शुरू कर दीं. तब एमजीआर को भी अपने किए पर पछताना पड़ा. मगर तब तक काफी देर हो चुकी थी. जयललिता अपने बूते पर अपने लिए मुकाम बना चुकी थी. एमजीआर की गलती की कीमत उन के बजाय तमिलनाडु को ज्यादा चुकानी पड़ी.
एमजीआर की खता इतनी भर नहीं थी कि वे जयललिता को राजनीति में लाए, बल्कि यह भी थी कि उन्होंने उस की हर सनक, हर मांग को पूरा कर उस के दिमाग को सातवें आसमान तक पहुंचा दिया था. अगर उस की छोटी सी जरूरत या इच्छा पूरी न होती तो वह आसमान सिर पर उठा लेती.
उस का एक किस्सा तो लोग आज भी चटखारे लेले कर बताते हैं. 8वें दशक में जब वह सिर्फ राज्यसभा की सदस्य थी, तब अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान अकसर तमिलनाडु भवन में रहती. उस के लिए वहां का स्टाफ उस का खास ड्रिंक (जिन और नारियल पानी) बना कर रखना कभी नहीं भूलता था. लेकिन एक बार वहां के कर्मचारी नारियल खरीदना भूल गए और जयललिता अपनी पसंदीदा ड्रिंक नहीं पी सकी. इस बात से उस का पारा इतना चढ़ गया कि उस ने तमिलनाडु भवन के शीशे तोड़ने शुरू कर दिए.
आखिरकार भवन के अफसरों ने हरियाणा भवन से नारियल पानी मंगा कर जयललिता को उस का पसंदीदा ड्रिंक पेश किया. गला तर होने पर वह शांत हुई. तब से तमिलनाडु भवन के अधिकारियों ने स्टाफ को स्थाई निर्देश दे रखे थे कि जरूरत हो या न हो, नारियल का स्टौक हमेशा रखा जाए.
जयललिता और विवाद का चोलीदामन का साथ रहा है. राजनीति में उस के प्रवेश के साथ ही बखेडे़ शुरू हो गए थे और उन का सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है. इन बखेड़ों के लिए वह खुद ही बहुत हद तक जिम्मेदार थी.
दरअसल, जयललिता का अहंकारी स्वभाव और स्वकेंद्रित कार्यशैली ही इस सारे विवाद की जड़ थी. पार्टी में जूनियर होने के बावजूद वह पार्टी के बड़े और वरिष्ठ नेताओं के साथ किसी महारानी की तरह पेश आती. और इस पर तुर्रा यह था कि पार्टी के प्रचार के नाम पर उस ने जगहजगह ‘जयललिता मनरम’ यानी जयललिता फैन्स क्लब बनाना शुरू कर दिया था. इसे पार्टी के अंदर अलग दबाव गुट बनाने की कोशिश माना जा रहा था. जयललिता के सनकभरे और तानाशाही रवैये से पुराने नेता इस कदर नाराज थे कि 1984 में सोमसुंदरम के नेतृत्व में पार्टी के एक गुट ने इस की कार्यशैली और एमजीआर द्वारा उसे नियंत्रित न कर पाने के खिलाफ बगावत कर दी. इस तरह सत्ता में आने के बाद पहली बार अन्नाद्रमुक में फूट पड़ी.
इस के बावजूद एमजीआर अपनी चहेती जयललिता का ही पक्ष लेते रहे. मगर उस की उपस्थिति पार्टी के लिए खतरा बनती जा रही थी, इसलिए एमजीआर ने एक नया रास्ता निकाला. उसे राज्यसभा का सदस्य बना कर दिल्ली भेज दिया. जयललिता कभी इस अपमान को बरदाश्त नहीं कर पाई. धीरेधीरे उस में स्वयं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने की इच्छा पनपने लगी. यह तब तक संभव नहीं था जब तक एमजीआर मुख्यमंत्री की कुरसी पर विराजमान थे. इसलिए एक तरफ वह एमजीआर के नाम की दुहाई दे कर अपने को उन का वारिस साबित करने की कोशिश करती रही और दूसरी ओर अपने राजनीतिक गुरु की जड़ें खोदने में लगी रही. जब एमजीआर गंभीर रूप से बीमार पड़ गए तो उस ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राज्यपाल एस एल खुराना से अनुरोध किया था कि चूंकि एमजीआर का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी नहीं निभा सकते, इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाए.
तब एमजीआर जयललिता द्वारा उन के खिलाफ छेडे़ गए अभियान से इतने नाराज हुए थे कि उन्होंने जयललिता को संसदीय दल के उपनेता के पद से हटा दिया था. उन दिनों क्रोध से धधक रही जयललिता ने अंगरेजी की एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में एक बयान दिया था. यह बयान एक तरह से एमजीआर के प्रभाव से मुक्त हो कर एक स्वतंत्र हस्ती के रूप में विकसित होने की घोषणा थी. इस के बाद से तमिलनाडु में जयललिता पीरावई नामक संगठन उभरने लगा था. इसे जयललिता के ही समर्थकों ने उसी के इशारे पर शुरू किया था. मगर जयललिता ने एक बयान जारी कर उस से अपना पल्ला झाड़ लिया था और कहा था कि इस संगठन को बनाने में उस का कोई हाथ नहीं है. मगर एमजीआर हकीकत जानते थे. उन्होंने जयललिता को निर्देश दिए कि वह प्रचार सचिव के रूप में काम करना बंद कर दे और उस के खास समर्थक कानन को तो पार्टी से निकाल दिया.
इस बीच, अन्नाद्रमुक में जयललिता का विरोधी गुट एमजीआर को यह समझाने में कामयाब हो गया कि यदि उन्हें पार्टी पर अपना प्रभुत्व बना कर रखना है, पार्टी की एकता और अनुशासन बनाए रखना है तो आमसभा की बैठक बुला कर जयललिता और उस के समर्थकों को पार्टी से निकाल देना चाहिए. एमजीआर इस के लिए राजी भी हो गए. मगर जैसे ही जयललिता को इस की भनक लगी, उस ने अपने गुट के 33 विधायकों के साथ प्रधानमंत्री राजीव गांधी से संपर्क किया. पता रहे कि जयललिता ने राज्यसभा सदस्य के रूप में राजीव गांधी से बहुत मधुर संबंध बना लिए थे और एमजीआर इस से बहुत खफा थे.
राजीव गांधी के जरिए जयललिता ने एमजीआर पर दबाव डलवाया कि वे जयललिता के अन्नाद्रमुक से निष्कासन पर रोक लगा दें. नतीजा यह हुआ कि अन्नाद्रमुक की आमसभा के एजेंडे से जयललिता के निष्कासन का विषय हटा दिया गया और जयललिता को आमसभा को संबोधित करने के लिए बुलाया गया. यह एक तरह से जयललिता की एमजीआर पर राजनीतिक जीत थी.
इस के बावजूद, जयललिता की पार्टी विरोधी गतिविधियां नहीं रुकीं तो एमजीआर ने दोबारा उन्हें पार्टी से निकालने का पक्का फैसला किया. एमजीआर के निकट सहयोगी वीरप्पन बताते हैं- ‘22 दिसंबर, 1987 को एमजीआर ने पार्टी औफिस को जयललिता के फोन को काटने का निर्देश दिया था. 25 दिसंबर को वे राष्ट्रपति की राज्य यात्रा खत्म होने के बाद जयललिता को पार्टी से निष्कासित करने की घोषणा करने वाले थे लेकिन 24 दिसंबर के दिन लंबी बीमारी के कारण एमजीआर की मृत्यु हो गई.’ केवल एक दिन के फर्क ने जयललिता के राजनीतिक कैरियर को बचा लिया. यदि एमजीआर की मृत्यु एक दिन बाद होती तो इतिहास कुछ और होता. एमजीआर जयललिता को पार्टी से निकाल चुके होते. तब एमजीआर की वारिस होने का दावा वह कर नहीं पाती.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि तब तक जयललिता का अपना कोई जनाधार नहीं था. मगर एमजीआर को हटाने की मुहिम में लगी रही जयललिता ने उन की मृत्यु के बाद उन के नाम का जम कर इस्तेमाल किया. लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि वही एमजीआर की असली वारिस है. कहना न होगा कि अपनी कोशिश में वह कामयाब भी हुई. एमजीआर के बाद उन की पत्नी जानकी कुछ दिनों के लिए राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन जयललिता ने खुद को रामचंद्रन का असली उत्तराधिकारी बताते हुए पार्टी तोड़ दी. बाद में हुए विधानसभा चुनाव में उसे 23 सीटें मिलीं, जबकि जानकी वाली अन्नाद्रमुक को सिर्फ एक.
एमजीआर के साथ चले शीतयुद्ध में सफलता ने जयललिता को आत्मविश्वास से भर दिया था. एमजीआर देश के घाघ राजनेताओं में एक माने जाते थे. जब जयललिता अपनी कुटिलता के जरिए उन्हें मैनेज करने में कामयाब रही तो उस में यह भावना जन्मी कि अब वह हर तरह के राजनीतिज्ञों को उन के खेल में मात दे सकती है. और उस ने ऐसा किया भी.
एम जी रामचंद्रन की मृत्यु के बाद अन्नाद्रमुक 2 हिस्सों में बंट गई थी- एक तरफ थी एम जी रामचंद्रन की पत्नी जानकी तथा अन्नाद्रमुक के नेता वीरप्पन तो दूसरी तरफ थी जयललिता. दोनों पक्षों में एकदूसरे को राजनीतिक रूप से खत्म करने की लड़ाई खुल कर चलती रही. दरअसल, एमजीआर की अंतिम यात्रा के दिन ही यह लड़ाई फूट पड़ी थी. एमजीआर की पत्नी जानकी ने जयललिता को अंतिम दर्शन के लिए उस गाड़ी पर चढ़ने नहीं दिया था जिस में शव को ले जाया जा रहा था. उसे उस गाड़ी से धकेल दिया गया था. जयललिता ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी.
बाद में उस ने जानकी पर यह आरोप लगाया था कि जानकी ने उसे जहर मिली छाछ पिला कर मारने की कोशिश की थी. ज्यादातर लोग इस आरोप को झूठा और इस बात का सुबूत मानते हैं कि जयललिता अपने विरोधियों से बदला लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है.
1989 में हुए विधानसभा चुनावों में जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक को द्रमुक के हाथों बुरी तरह पराजित होना पड़ा था. इस हार से वह इतनी हताश और निराश हो गई थी कि उस ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलनाजुलना बंद कर दिया था. कई बार उस ने राजनीति से संन्यास लेने तक की धमकी दी. कुछ समय तक तो वह चेन्नई छोड़ कर अपने हैदराबाद वाले बंगले में रहने के लिए चली गई थी.
1989 के विधानसभा चुनाव में मिली पराजय के बाद एआईएडीएमके के भीतर लामबंदी और तेज हो गई. जयललिता को विपक्ष का नेता चुना गया. उस ने करुणानिधि और डीएमके की नीतियों का जम कर विरोध किया. प्रभावी नेतृत्व के कारण जयललिता का अपनी पार्टी में प्रभुत्व बढ़ता गया. आखिर जानकी रामचंद्रन ने राजनीति से संन्यास ले लिया और दोनों धड़ों का आपस में विलय हो गया. 1991 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में उसे अभूतपूर्व समर्थन के साथ मुख्यमंत्री की कुरसी मिली. हुआ यह कि राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में सहानुभूति लहर के कारण अन्नाद्रमुक और कांग्रेस गठबंधन को अभूतपूर्व सफलता मिली.
द्रमुक को इतनी करारी हार का सामना करना पड़ा कि करुणानिधि के अलावा द्रमुक का एक भी सदस्य विधानसभा में पहुंच नहीं पाया. इस प्रकार जयललिता ने अपनी नाकामी और हार को एक शानदार जीत में बदल दिया था. वह तमिलनाडु की राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गई.
सफलता की लहर पर चढ़ कर जयललिता मुख्यमंत्री की कुरसी तक पहुंच गई. मुख्यमंत्री बनने के बाद उस ने भ्रष्टाचार, व्यक्तिपूजा, मनमानी और प्रतिशोध के कीर्तिमान बनाए मगर उस की लोकप्रियता में कभी कोई कमी नहीं आई. राजनीतिक विश्लेषक भगवान सिंह कहते हैं, ‘‘1989 में जब उन्होंने विधानसभा में करुणानिधि के बजट पेश करने के दौरान आपत्ति जताई थी तो वहां अफरातफरी मच गई थी. और एक बार तो ऐसी स्थिति पैदा हो गई थी कि डीएमके के एक वरिष्ठ सदस्य ने उन के कपड़े फाड़ दिए थे. तब उन्होंने कसम खाई थी कि वे विधानसभा में बतौर मुख्यमंत्री ही आएंगी.’’
लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल का भूत अब तक भी उस का पीछा करता रहा है. इसी दौरान (1991-96) उस के कामों या अनदेखियों की वजह से आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज हुआ था. मामले के उतारचढ़ावों की वजह से उसे 2 बार (2002 और 2015) अपनी मुख्यमंत्री की कुरसी खाली करनी पड़ी. पहली बार मुख्यमंत्री रहते हुए जयललिता पर कई आरोप लगे. उस ने कभी शादी नहीं की लेकिन अपने दत्तक पुत्र वी एन सुधाकरण की शादी पर पानी की तरह पैसे बहाए. 2001 में वह दोबारा सत्ता में आई. अकसर जयललिता की तुलना फिनिक्स पक्षी से की जाती है, जिस के बारे में कहा जाता है कि वह मरने के बाद फिर जी उठता है. जयललिता के राजनीतिक कैरियर के साथ भी बारबार ऐसा ही हुआ है. कई बार राजनीतिक पंडितों ने उस के राजनीतिक जीवन को श्रद्धांजलि अर्पित कर दी, मगर नाकामी की राख को झटक कर वह फिर राजनीति के क्षितिज पर उभर आई, ज्यादा ताकत और ज्यादा चमक के साथ.
1996 के विधानसभा चुनावों में जयललिता को बड़ी करारी शिकस्त मिली थी. ऐसा होना लाजिमी था. मुख्यमंत्री के तौर पर उस के 5 साल चरम भ्रष्टाचार, परले दरजे की अक्षमता और राजनीतिक प्रतिशोध के लिए हमेशा याद किए जाते रहेंगे. चुनावों में पराजय के अलावा जेल की हवा खा कर उसे इस अपराध की कीमत चुकानी पड़ी, लेकिन ढाई साल बाद ही फिर उस का राजनीतिक कायाकल्प हो गया जब 1998 के लोकसभा चुनाव में उस ने भाजपा और अन्य कई दलों से गठबंधन कर द्रमुक और तमिल मनीला कांग्रेस को धूल चटा दी. राज्य की 38 लोकसभा सीटों में से 27 सीटें उस के नेतृत्व वाले गठबंधन को मिलीं. इस प्रकार राष्ट्रीय राजनीति में वह एक ऐसी निर्णायक शक्ति के रूप में उभरी, जिस के पास दिल्ली की किसी भी केंद्र सरकार को बनाने अथवा बिगाड़ने की कुंजी थी. इस शक्ति का जयललिता ने उपयोग कम, व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुरुपयोग ज्यादा किया.
आय से अधिक संपत्ति और भ्रष्टाचार के आरोपों को ले कर सत्ता छोड़ने के लिए बाध्य हुई अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता ने मई 2015 को, करीब 8 माह बाद, फिर से 5वीं बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. गौरतलब है कि 27 सितंबर, 2014 को बेंगलुरु की एक निचली अदालत ने आय से अधिक 66.66 करोड़ रुपए की संपत्ति के मामले में जयललिता को दोषी ठहराया था जिस से वह मुख्यमंत्री पद के लिए अयोग्य हो गई थी. हालांकि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 11 मई, 2015 को उसे इन आरोपों से बरी कर दिया था. जयललिता के बरी होने के साथ ही उस के फोर्ट सेंट जौर्ज स्थित सत्ता की पीठ में वापसी की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई थी.
एक नाजुकमिजाज महारानी
कोई भला कहे या बुरा, जयललिता का हर राजनीतिज्ञ की तरह का एक ही एजेंडा है-अपना हित साधना. और इसी की पूर्तता के लिए वह अपनी पार्टी और अपने सारे जनाधार का इस्तेमाल कर रही है. जो भी इस एजेंडे में जरा भी बाधक बनता है, जयललिता उसे अपना दुश्मन समझने लगती है. उसे सही रास्ते पर लाने के लिए वह हर तरीके का इस्तेमाल करने से नहीं चूकती.
झूठे आरोप लगाने में तो जयललिता का कोई सानी नहीं है. बहुत सारे लोग उस की इस आदत के शिकार हो चुके हैं. इन में छोटेमोटे लोग नहीं, पी वी नरसिंहा राव, करुणानिधि और जी के मूपनार जैसे बड़ेबड़े नाम हैं. जब प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के साथ जयललिता के रिश्ते कुछकुछ बिगड़ने लगे थे तब एक बार तमिलनाडु विधानसभा में कांग्रेसी सदस्यों ने राज्य में बढ़ रही डकैतियां करवाने का आरोप लगाते हुए कहा था, ‘हो सकता है मेरी सरकार को बदनाम कराने के लिए नरसिंहा राव यह सब करा रहे हों.’ किसी जमाने में जयललिता के राजीव गांधी से मधुर संबंध थे. मगर अहंकार पर थोड़ी चोट लगने पर जयललिता उन्हें भी आडे़ हाथों लेने से चूकी नहीं. हुआ यह कि किसी दिन जयललिता ने रात 10.30 बजे राजीव गांधी को फोन किया तो राजीव गांधी फोन पर नहीं आए. इतने भर से जयललिता को इतना सदमा लगा कि दूसरे दिन एक बयान जारी कर के उस ने इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया, ‘जो व्यक्ति 10.30 बजे फोन पर उपलब्ध नहीं हो सकता, वह कैसे देश का प्रधानमंत्री बना रह सकता है.’
ये सारी घटनाएं इस बात की ओर इंगित करती हैं कि जयललिता एक नाजुकमिजाज महारानी की तरह है जो अपनी शान में कोई गुस्ताखी पसंद नहीं कर सकती, गुस्ताखी करने वाले को मजा चखा कर ही दम लेती है. ताजा विधानसभा चुनाव में जयललिता का करिश्मा खूब नजर आया. जयललिता के कम दिखने के चलते कई जानकारों ने उन की वापसी पर शक जताया था. कई एग्जिट पोल भी ऐसी ही संभावना जता चुके थे.
गरीबों की पकड़ी नब्ज
जयललिता को यह विश्वास था कि गरीबों के लिए चलाई गई उन की योजनाएं चुनाव में अपना असर दिखाएंगी ही. इन योजनाओं पर गौर करें तो उन की सुपर हिट ‘अम्मा कैंटीन’ का विपक्ष के पास भी कोई जवाब नहीं है. इस कैंटीन में सुबह के नाश्ते में 2 रुपए की 2 इडली, सांभर के साथ मिलती हैं. साथ ही, 3 रुपए में 2 चपातियां भी मिलती हैं जिन के साथ दाल मुफ्त होती है. कैंटीन में 5 रुपए में प्लेटभर ‘लेमन राइस’ या ‘कर्डराइस’, सांभर के साथ मिलता है. इस तरह जयललिता ने इस योजना से गरीबों की नब्ज पकड़ी है जिन के लिए दो वक्त का खाना ही सब से बड़ी चीज मानी जाती है. तभी तो अम्मा कैंटीन शायद एकमात्र ऐसी स्कीम है जिसे विधानसभा चुनाव में जीत की स्थिति में विपक्षी डीएमके ने भी जारी रखने का वादा किया था.
जयललिता ने पिछले चुनाव में 54 वादे किए थे जिन्हें उन्होंने पूरा भी किया. इन में राशनकार्ड धारकों को 20 किलो चावल, महिलाओं को मिक्सर, ग्राइंडर, पंखा, ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों को दुधारू गाय और बकरियां मुफ्त देने जैसी कई योजनाएं शामिल हैं. इस के अलावा उन्होंने वे योजनाएं भी चलाईं जिन का उन्होंने वादा नहीं किया था. इन में अम्मा कैंटीन, अम्मा पानी, अम्मा नमक, अम्मा सीमेंट और गरीब महिलाओं के लिए मुफ्त सेनेटरी नैपकिन देना शामिल हैं. ये सभी योजनाएं ऐसी हैं जिन्होंने जयललिता को लोगों में लोकप्रिय बना दिया. इस बार भी जयललिता ने चुनाव से पहले मतदाताओं को तमाम मुफ्त चीजें देने के वादों की बारिश की थी. इन में पूर्ण शराबबंदी, महिलाओं को स्कूटर और मोपेड खरीदने पर 50 प्रतिशत सब्सिडी, किसानों को ऋणमाफी, 100 यूनिट मुफ्त बिजली और लड़कियों को शादी से पहले सरकार की ओर से दिए जाने वाले 4 ग्राम सोने को बढ़ा कर 8 ग्राम करना शामिल हैं.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, ‘‘वे आक्रामक, अहंकारी और कठोर रही हैं. लेकिन इन्हीं खासीयतों के चलते लोग उन्हें पसंद करते रहे हैं. उन्हें ‘लोहे की तितली’ भी कहते हैं.’’ उन के मुताबिक, साल 2000 की शुरुआत में जयललिता अकसर अपनी सार्वजनिक सभाओं में कहती थीं, ‘आप के सामने आप की बहन खड़ी है.’ लेकिन 2012 में सत्ता में आने के बाद वे अम्मा बन गईं. एक देवी जैसी, जो जानबूझ कर लोगों से दूरी तो बनाए रखती है, लेकिन परोपकारी भी है, उन का दुखदर्द भी जानती है.
शशिकला से जिगरी दोस्ती की कहानी
जयललिता और शशिकला की जिगरी दोस्ती की कहानी पिछले 25 सालों से सियासत के गलियारों में सुनी जाती रही है. तमिलनाडु में वी के शशिकला को जयललिता का साया कहा जाता है. उन्हें देश की सब से ताकतवर महिला नेताओं में से एक और मुख्यमंत्री जयराम जयललिता के पीछे की ताकत कहा जाता है. लेकिन किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि दोनों की कहानी में केवल प्यार और विश्वास ही था. उस में साजिश, धोखा और फरेब का मसाला भी रहा है. कई बार दोस्ती टूटी भी. मगर फिर जुड़ भी गई.
तमिलनाडु के तंजौर जिले के मन्नारगुडी गांव की शशिकला की पढ़ाई तो शुरुआत में ही छूट गई और फिल्मों से नाता गहरा होता चला गया. फिल्मों का ही असर था कि शशिकला फिल्मस्टारों जैसे ऐशोआराम वाली जिंदगी जीने के ख्वाब देखने लगी.
जयललिता की बढ़ती लोकप्रियता के कारण शशिकला उन की वीडियो फिल्म बना कर उन के करीब आना चाहती थीं. जयललिता ने भी फिल्म बनाने की अनुमति दे दी. शशिकला शूटिंग के दौरान जयललिता की हर छोटीबड़ी जरूरत का खयाल रखने लगी. यहीं से शशिकला ने जयललिता पर शिकंजा कसना शुरू किया. शशिकला के प्रभाव के चलते ही जयललिता ने वी एन सुधाकरन को अपना दत्तक पुत्र बनाया. मुख्यमंत्री के तौर पर 1991 से 1996 तक के जयललिता के पहले कार्यकाल में शशिकला संविधान से परे एक शक्ति के तौर पर काम करने लगी.
राजनीति के गलियारे में लोग शशिकला को मन्नारगुड़ी का माफिया कह कर बुलाने लगे. 1995 में वी एन सुधाकरन की शादी पूरी दुनिया में चर्चित हुई, इस पर 100 करोड़ रुपए जो खर्च हुए थे. 1996 के आम चुनाव में इसी वजह से जयललिता की पार्टी राज्य की सभी 39 सीटें हार गई. इस से घबराई जयललिता ने शशिकला और उस के परिवार से दूरी बना ली. इसी दौरान शशिकला को विदेशी मुद्रा के लेनदेन के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. जेल से बाहर आने पर उस ने जयललिता से माफी मांगी. अपने सभी रिश्तेदारों तक से दूरी बनाने का विश्वास दिलाया. दोनों सहेलियां फिर एक हो गईं. 2001 में जयललिता के सत्ता में आने पर शशिकला ने खुद को परदे के पीछे रखा. एक पत्रिका ने दावा किया था कि जयललिता की खास दोस्त शशिकला ने जयललिता को धीमा जहर दे कर तमिलनाडु का ताज पाने की साजिश रची थी.
जयललिता को अपनी सरकार के तख्तापलट की साजिश का पता चला तो उन्होंने 17 दिसंबर, 2011 को शशिकला व उन के रिश्तेददारों समेत 12 लोगों को पार्टी से निकाल दिया. हालांकि, यह अलगाव भी 100 दिन ही चला. शशिकला द्वारा माफी मांग लेने पर जयललिता ने उसे दोबारा दोस्त के तौर पर अपना लिया. ऐसा माना जाता है कि आजकल शशिकला ही एआईएडीएमके के सभी मामले देखती हैं और एक प्रकार से सरकार के कामकाज पर भी नजर रखती हैं.
भाजपा से रिश्तों में उतारचढ़ाव
जनता पार्टी के तब के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता पर 1991 से 1996 के दौरान आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाते हुए अदालत में निजी शिकायत दर्ज कराई मगर बाद में दोनों में सुलह हो गई. इस मामले में 27 सितंबर, 2014 को विशेष अदालत ने जयललिता और 3 अन्य को भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया. उन्हें 4-4 साल कारावास की सजा सुनाई गई. सजा मिलने के कारण विधायक के तौर पर अयोग्य हो जाने के बाद जयललिता को मुख्यमंत्री पद की कुरसी छोड़नी पड़ी. हालांकि 8 महीने बाद कर्नाटक हाईकोर्ट ने जयललिता को आय से अधिक संपत्ति के मामले में बरी कर दिया और जयललिता एक बार फिर मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन स्वामी के साथ तब हुई सुलह के कारण जयललिता ने उन के कहने पर वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. उस के बाद आए अविश्वास प्रस्ताव में वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनने वाली पहली भाजपा सरकार महज 13 दिनों में ही गिर गई थी. राष्ट्रपति ने दूसरी बार भाजपा को सरकार बनाने से पूर्व उस को सभी गठबंधन सहयोगियों से एक चिट्ठी पर हस्ताक्षर करवाने की शर्त रखी थी. सरकार बनाने की और नए सहयोगियों को जुटाने की जल्दबाजी में भाजपा एक बड़ी चूक कर बैठी कि वह अपने सभी गठबंधन सहयोगियों से समर्थन की औपचारिक चिट्ठी लेना भूल गई.
अन्नाद्रमुक की जयललिता ने भाजपा की इस गलती का राजनीतिक फायदा उठाते हुए चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने के बदले अपनी कुछ शर्तें रख दीं. जयललिता ने सुब्रह्मण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनाना उन्हीं शर्तों में शामिल था.
19 मार्च, 1998 को अटल बिहारी वाजपेयी दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बन गए तो दूसरी तरफ कांग्रेस की बागडोर पहली बार सोनिया गांधी के हाथ में आ गई. यहीं से कांग्रेस एक बार फिर से नेहरुगांधी परिवार की जागीर बन गई. सुब्रह्मण्यम स्वामी वित्त मंत्री न बनाए जाने से खफा थे, इसलिए उन्होंने राजग सरकार को अस्थिर करने के लिए जयललिता और सोनिया गांधी का टी पार्टी के जरिए मिलन करवाया. गुपचुप तरीके से दोनों नेत्रियों ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला कर लिया. टी पार्टी के कुछ दिनों के बाद सुनियोजित तरीके से जयललिता ने राजग सरकार से समर्थन वापस ले लिया.17 अप्रैल, 1999 का दिन अटल बिहारी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के लिए किसी अग्निपरिक्षा से कम नही था क्योंकि संसद में उस के समक्ष सत्ता के लिए जरूरी 273 का आकंड़ा पूरा करना था. संसद के मतदान में 269 और सरकार के विरोध में 270 वोट पड़े. इस प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार महज 13 महीने तक ही चल सकी.