24 अगस्त, 2018 को दिल्ली हाईकोर्ट ने हरियाणा के मिर्चपुर हत्याकांड के अपराधियों को सजा सुनाई. 12 अपराधियों को उम्रकैद की सजा दी गई.

तकरीबन 10 साल पहले एक रात इस गांव के जमींदारों के कुछ शराबी नौजवान वाल्मीकि महल्ले की एक गली से गुजर रहे थे. नशे में मदमस्त वे काफी हुड़दंग मचाए जा रहे थे, मगर गांव में उन का खौफ इतना ज्यादा था कि किसी की क्या मजाल जो उन की खिलाफत कर सके.

कुदरत का नियम है कि जानवर किसी इनसानी कानून को नहीं मानते, लिहाजा कुछ कुत्ते उन नौजवानों पर भूंक पड़े. बस, फिर क्या था, उन नौजवानों ने उन घरों पर पत्थर बरसाने शुरू कर दिए जिस तरफ से कुत्ते भूंक रहे थे. खिलाफत करने पर बात बढ़ गई. जमींदारों के बदतमीज नौजवानों ने पूरी वाल्मीकि बस्ती में आग लगा दी.

भारत के ज्यादातर गांवों में आज भी जमीन मालिकों में कानून का डर नहीं है. दारोगा को रिश्वत दे कर वे लोग भारत के किसी भी कानून का मजाक उड़ा सकते हैं.

कानून हमारा क्या बिगाड़ लेगा. गांव में जो हम कहेंगे वही कानून है. छोटी जातियों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों की हमारे सामने क्या औकात है? उन्हें गांव में रहना है तो गुलाम बन कर रहना होगा. हम जब चाहें, उन्हें पीट दें. उन का काम बंद करा दें. उन की बहूबेटी को बेइज्जत कर दें. उन को मजदूरी न दें. उन के घरों में आग लगा दें. उन के कुओं में गंदगी डाल दें, कोई क्या बिगाड़ लेगा हमारा?

पंचायत हमारी, सरपंच हमारा, दारोगा हमारा, विधायक हमारा, सांसद हमारा. फिर ये दलित, भूमिहीन मजदूर, गरीब मुसलिम हमारा क्या बिगाड़ लेंगे. यही सोच गांव के जमींदार तबके पर हावी है.

यही है वह कड़वी सचाई, जो एयरकंडीशंड कमरों में बैठे नेताओं और नौकरशाहों को नजर नहीं आती. इसी सोच के तहत जोरजुल्म की ज्यादातर वारदातें गांवों में ही होती हैं और पुलिस व न्यायपालिका कभी भी गरीब तबके को सिक्योरिटी या इंसाफ नहीं दिला पाती हैं.

बात चल रही थी मिर्चपुर की. वाल्मीकि बस्ती में आग लगाने के बाद उन दरिंदों ने पूरी बस्ती में मारपीट की. एक बुजुर्ग और एक 10-12 साल की अपंग लड़की घर में लगी आग की भेंट चढ़ गए. बाकी लोग जान बचा कर भागे. पूरे गांव में खौफ छा गया.

पुलिस ने कुछ कार्यवाही की, लेकिन पीडि़त पक्ष इतना डरा हुआ था कि उसे यह यकीन नहीं था कि हरियाणा प्रशासन उस को इंसाफ दिलवा पाएगा. लिहाजा, केस को दिल्ली की अदालत में ट्रांसफर किया गया. सैशन कोर्ट ने कम सजा दी. दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की गई और उस अपील पर फैसला 24 अगस्त, 2018 को आया.

इस वारदात में कई अहम बिंदु हैं:

* हरियाणा में जब भी अनुसूचित जातियों की किसी एक खास जाति पर जोरजुल्म होता है तो दूसरी अनुसूचित जातियां किसी भी आंदोलन में उस का साथ नहीं देतीं.

* शायद यह सच पूरे भारत में लागू होता है. मिर्चपुर हत्याकांड या अग्निकांड की खिलाफत में कोई ऐसा सामाजिक आंदोलन नहीं उठा, जिस में हरियाणा की सभी अनुसूचित जातियों ने हिस्सा लिया हो. ऐसे जोरजुल्म के खिलाफ संगठित आवाज उठाने की जरूरत है.

* दबदबे वाली जातियों को प्रशासन और पुलिस की सरपरस्ती मिलती है. समाज के सभी तबकों की न्यायिक समझ गरीब तबकों की मदद नहीं करती. जो बात सही है, उसे भी सही तरीके से नहीं उठाया जाता. जातिवादी राजनीति सच का गला घोंट देती है.

* भूमिहीन गरीब जातियों को यह यकीन ही नहीं होता कि ऊंची जाति का कोई भी आदमी उन की मदद कर सकता है. यहां तक कि पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका को भी वे शक की नजरों से ही देखते हैं. यही वजह थी कि मिर्चपुर केस को दिल्ली में लड़े जाने की मांग की गई.

* अपराधियों को हर तरह की सुविधा व सहयोग मिलता है. अच्छे से अच्छा वकील उन की पैरवी करता है. राजनीतिक नेता भी उन की हिम्मत बढ़ाते हैं और पूरा समाज या तो उन का साथ देता है या अपराधिक लैवल तक अलग हो जाता है. सीनियर वकील यहां तक कह देता है कि अभी तक यह साबित नहीं हो पाया है कि वाल्मीकि अनुसूचित जाति हैं भी या नहीं. वाह रे कानून के जानकार.

न्यायपालिका ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है. पर ऐसी घटनाएं दोबारा न हों, इस के लिए भारतीय समाज, पुलिस व प्रशासन को जातिवादी सोच से उबर कर अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी.

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