बालकनी से कमरे में आ कर मैं धम्म से बिस्तर पर बैठ गई और सुबकसुबक कर रोने लगी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बालकनी में खड़ी हो अपने गीले बाल सुखाने में मैं ने कौन सा अपराध कर दिया जिस से दाता हुक्म (ससुरजी) इतना गुस्सा हो उठे. मुझे अपना बचपन याद आने लगा. जब होस्टल से मैं घर आती थी तो हिरण की तरह खेतों में कुलाचें भरती रहती थी. सहेलियों का झुंड हमेशा मुझे घेरे रहता था. गांव की लड़की शहर के होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रही है तो शहर की कई बातें होंगी और यही सहेलियों के कौतुहल का कारण था.

मेरे भैयाभाभी भी कितने प्यारे हैं और कितना प्यार करती हैं भाभी मुझे. कभी भाभी ने मां की कमी महसूस नहीं होने दी. यहां आ कर मुझे क्या मिला? न घर, न किसी का स्नेह और न ही आजादी का एक लम्हा. हां, अगर सोनेचांदी के ढेर को स्नेह कहते हैं तो वह यहां बहुत है, लेकिन क्या इन बेजार चीजों से मन का सुख पाया जा सकता है? अगर हां, तो मैं बहुत सुखी हूं. सोने के पिंजरे में पंछी की तरह पंख फड़फड़ा कर अपनी बेबसी पर आंसू बहाने से ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकती.

पति नाम का जीव जो मुझे ब्याह कर लाया, उस के दर्शन आधी रात के बाद होते हैं तो दूसरों को मैं क्या कहूं. पता नहीं किस बुरी घड़ी में महेंद्र की नजर मुझ पर पड़ गई और वह मुझे सोने के पिंजरे में बंद कर लाया.

महेंद्र का रिश्ता जब पापा के पास आया था तो सब यह जान कर हतप्रभ रह गए थे. इतने बड़े जमींदार के घर की बहू बनना बहुत भाग्य की बात है. पता नहीं सहेलियों के साथ खेतों में कुलाचें भरते कब महेंद्र ने मुझे देखा और मैं उन की आंखों में बस गई. तुरतफुरत महेंद्र के घर से रिश्ता आया और पापा ने हां करने में एक पल भी नहीं लगाया.

बड़े धूमधड़ाके से शादी संपन्न हुई और मैं जमींदार घराने की बहू बन गई. जिस धूमधाम से मेरी शादी हुई उसे देख कर मैं अपनी किस्मत पर नाज करती रही. महेंद्र को देख कर तो मेरे अरमानों को पंख लग गए. जितना सुंदर और ऊंचे कद का महेंद्र है उस से तो मेरी सखियां भी ईर्ष्या करने लगीं. ससुराल की देहरी तक पहुंची तो दोनों ओर कतार में खड़े दासदासियों के सिर हमारी अगवानी में झुक गए. उन्हें सिर झुकाए देख कर मुझे एहसास होने लगा मानो मैं कहीं की महारानी हूं.

सासूमां ने आरती उतार कर मुझे सीने से लगा लिया. मुझे लगा मुझे मेरी मां मिल गई. सुहाग सेज तक पहुंचने से पहले कई रस्में हुईं. मुंह दिखाई में मेरी झोली में सुंदरसुंदर सोने के गहनों का ढेर लग गया.

तमाम तरह की रस्मों के बाद मुझे सुहाग सेज पर बैठा दिया गया. कमरा देख कर मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. कमरा बहुत बड़ा और बहुत सुंदर सजाया गया था. चारों ओर फूलों की महक मदहोश किए दे रही थी. मेरी जेठानी मुझे कमरे में छोड़ कर चली गईं. एकांत पाते ही मैं ने कमरा बंद किया और घूंघट हटा कर आराम से सहज होने की कोशिश करने लगी. दिन भर के क्रियाकलापों से ढक कर मैं थोड़ा आराम करना चाह रही थी. थकान से कब मुझे नींद ने घेर लिया पता ही नहीं चला.

दरवाजे की कुंडी खड़की तब मेरी नींद खुली. घड़ी रात के  साढ़े 3 बजा रही थी. ओह, कितनी देर से मैं सो रही हूं सोचते हुए सिर पर पल्लू ले कर दरवाजा खोला. शराब का भभका मेरे नथुने से टकराया तो मैं ने घबरा कर आगंतुक को देखा. सामने लाल आंखें लिए महेंद्र खड़े थे. मैं हतप्रभ महेंद्र का यह रूप देखती ही रह गई.

अंदर आ कर महेंद्र ने दरवाजा बंद कर लिया और मुझ से बोले, ‘सौरी निशी, शादी की खुशी में दोस्तों ने पिला दी. बुरा मत मानना.’

नशे में होने के बावजूद महेंद्र ने एक अच्छे इनसान का परिचय दिया. मैं ने भी उन्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन यह एकदो दिन की बात नहीं थी. हवेली में मुजरे होते और महेंद्र अकसर देर रात ही कमरे में आते. हां, महेंद्र मुझे दिलोजान से प्यार करते हैं लेकिन उस के बदले मुझे कितनी तपस्या करनी पड़ती है यह बात उन्हें समझ में नहीं आती. मैं शिकायत करती तो वह कहते, ‘यह तो हमारी परंपरा है. जमींदारों के यहां मुजरे नहीं हों तो लोग क्या कहेंगे.’

‘‘अरे, छोटी कहां हो भाई. आओ, सुनारजी आए हैं,’’ यह आवाज सुन कर मैं वर्तमान में लौट आई. मेरी जेठानी मुझे बुला रही थीं. मेरा जाने को मन नहीं था लेकिन मना भी तो नहीं कर सकती थी. बाहर बारहदरी में सुनारजी कांटाबाट लिए बैठे थे. भाभी ने मुझे देखा और पूछा, ‘‘क्या हुआ छोटी, क्या तुम रो रही थीं जो तुम्हारी आंखें लाल हो रही हैं? क्या तुम्हें मायके की याद आ रही है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, भाभी सा, वैसे ही नींद लग गई थी इसीलिए.’’

‘‘छोटी तुझे कुछ गहने बनवाने हों तो बनवा ले. देख मैं तो यह सतलड़ा हार तुड़वा कर दूसरा बनवा रही हूं.’’

‘‘पर भाभी सा, यह तो बहुत सुंदर है और नया भी, आप इसे क्यों तुड़वा रही हैं?’’

‘‘अरे, छोटी, इसे मैं ने अपने भाई की शादी में पहन लिया और तुम्हारी शादी में भी पहना है. बस, अब पुराना हो गया है. मैं तो अब नया ही बनवाऊंगी.’’

मैं क्या कहती चुप रहना ही ठीक समझा. भाभी सा ने कहा, ‘‘तू भी कुछ न कुछ बनवा ही ले. अगर कुछ तुड़वाना नहीं चाहती तो मांजी से सोना ले कर बनवा ले. यहां सोने की कोई कमी नहीं है.’’

निशी सोचने लगी कि वह तो मैं देख ही रही हूं, तब ही तो हमारे लिए यहां सोने के पिंजरे बनवाए गए हैं. इस चारदीवारी में कैद हम गहने तुड़वाएं और गहने बनवाएं बस इन्हीं गहनों से दिल बहलाएं.

सुनारजी चले गए तो मैं ने पूछा, ‘‘भाभी सा, आप 7 बरस से यहां रह रही हैं. जेठ साहब भी आधी रात से पहले घर में नहीं आते. फिर आप किस तरह अपने को बहला लेती हैं? मेरा तो 4 महीने में ही दम घुटने लगा है.’’

‘‘देख छोटी, इन जमींदारों की यही रीत है. मेरे मायके में भी यही सबकुछ होता है. हम कुछ बोलें भी तो यहां के मर्द यही कहेंगे कि मर्दों की दुनिया में तुम लोग दखल मत दो. तुम्हारा काम है सजधज कर रहना और मन बहलाने के लिए जब चाहो सुनार को बुलवा लो और गहने तुड़वाओ तथा नए बनवाओ.’’

मैं आखें फाड़े भाभी सा को देखती ही रह गई. कितनी सहजता से उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रख दिया. कितनी आसानी से इस जिंदगी से समझौता कर लिया, लेकिन मैं क्या करूं? मैं ने तो पढ़लिख कर सारी शिक्षा भाड़ में झोंक दी. मैं कहां से रास्ता खोजूं आजादी का.

कमरे में आते ही फिर रुलाई फूट पड़ी. हाय, मैं कहां फंस गई. मेरे पापा ने यह क्यों नहीं सोचा कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती. क्यों भूल गए कि उन की बेटी पढ़ीलिखी है. उस की छाती में भी दिल धड़कता है. क्या महज पैसे वाले होने से सारी खुशियां खरीद सकते हैं? क्यों भूल गए कि उन की बेटी के भी कुछ अरमान हैं. पापा यह क्यों भूल गए कि पिंजरा तो पिंजरा ही होता है चाहे वह सोने का हो या लोहे का.

आधी रात को महेंद्र आए तो मैं जाग रही थी. मैं महेंद्र से कुछ सवाल करना चाहती थी लेकिन वह बहुत थके हुए लग रहे थे. मेरे माथे पर एक चुंबन की मुहर लगाई और बिस्तर पर लेटते ही खर्राटे भरने लगे. मैं मन मार कर रह गई. सोचने लगी, कभी महेंद्र मुझे वक्त दें तो मैं इस पिंजरे से आजाद होने की भूमिका बनाऊं, लेकिन यह मुजरा और मुजरेवालियां वक्त दें तब न.

वैसे महेंद्र से मुझे और कोई शिकायत नहीं थी. वह मुझे बेइंतहा प्यार करते हैं. बस, अपनी खानदानी परंपराओं में बंधे मुझे वक्त ही नहीं दे पाते. मैं ने एकदो बार दबी जबान में उन्हें मुजरे में जाने से रोकने की कोशिश भी की, तो उन्होंने कहा, ‘‘क्या तुम मुझे जोरू का गुलाम कहलवाना चाहती हो? घर के सभी मर्द देर रात तक मुजरे में बैठे रहते हैं, तो भला मैं अकेला कैसे उठ सकता हूं? तुम मेरी मजबूरी समझती क्यों नहीं.’’

दिन ब दिन मैं घुटती रही. भाभी सा और सासू मां को इसी हाल में खुश देख कर भी मैं इस जिंदगी से तालमेल नहीं बैठा पा रही थी. यह दोष किस का है? पता नहीं मेरा या मेरे पापा का है या फिर मेरे इस सौंदर्य का जिस की वजह से मैं कैद कर ली गई.

सुबह बेमतलब ससुरजी नाराज हो गए. जो मर्द दूसरी औरतों के अश्लील नाचगाने पर बिछे जाते हैं, पैसा लुटाते हैं, उन्हें घर की बहू बालकनी में खड़ी हो कर बाल भी सुखा ले तो गुस्सा क्यों आता है? यह दोगली नीति जमींदारों के खानदान की रीत ही है. नाचने वालियां भी तो औरतें ही हैं. क्या उन में कभी अपनी मांबह%

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