Hindi Story : उस की मां थी ही निर्मल, निश्छल, जैसी बाहर वैसी अंदर. छल, प्रपंच, घृणा और लालच से कोसों दूर, सब के सुख से सुखी, सब के दुख से दुखी. कभीकभी सौरभ अपनी मां के स्वभाव की सादगी देख अचंभित रह जाता कि आज के प्रपंची युग में भी उस की मां जैसे लोग हैं, विश्वास नहीं होता था उसे.

बचपन से ही सौरभ देखता आ रहा था कि मां हर हाल में संतुष्ट रहतीं. पापा जो भी कमा कर उन के हाथ में थमा देते बिना किसी शिकवाशिकायत के उसी में जोड़तोड़ बिठा कर वह अपना घर चलातीं, कभी अपने अभावों का पोटला किसी के सामने नहीं खोलतीं.

तभी मां की नजर उस पर पड़ गई थी, ‘‘अरे, तू कब जग गया. और ऐसे क्या टुकुरटुकुर देखे जा रहा है.’’

मां की स्निग्ध हंसी ने उसे ममता से सराबोर कर दिया.

‘‘बस, यों ही…आप को अलमारी ठीक करते देख रहा था.’’

वह कैसे कह देता कि कमरे में बैठा उन के निश्छल स्वभाव और संघर्षपूर्ण, त्यागमय जीवन का लेखाजोखा कर रहा था. उन के अपने परिवार के लिए किए गए समर्पण और संघर्ष का, उस सूने गले का जो कभी भारीभरकम सोने की जंजीर और मीनाकारी वाले कर्णफूल से सजासंवरा उन की संपन्नता का प्रतीक था. पिछले 6 वर्षों से उस के नौकरी करने के बाद भी मां का गला सूना ही पड़ा था.

मां को खुद महसूस हो या न हो लेकिन जब भी उस की नजर मां के सूने गले पर पड़ती, मन में एक हूक सी उठती. उसे लगता जैसे उन के जीवन का सारा सूनापन उन के खाली गले और कानों पर सिमट आया हो. इतनी श्रीहीन तो वह तब भी नहीं लगती थीं जब पापा की मृत्यु के बाद उन की दुनिया ही उजड़ गई थी.

सौरभ ने होश संभालने के बाद से ही मां के गले में एक मोटी सी जंजीर और कानों में मीनाकारी वाले कर्णफूल ही देखे थे. तब मां कितनी खुश रहती थीं. हरदम हंसती, गुनगुनाती उस की मां का चेहरा बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के ही दमकता रहता था.

फिर मां की खुशियों और बेफिक्र जिंदगी पर तब पहाड़ टूट कर आ गिरा जब अचानक एक सड़क दुर्घटना में उस के पापा की मौत हो गई. इस असमय आई मुसीबत ने मां को तो पूरी तरह तोड़ ही दिया. वह सूनीसूनी निगाहों से दीवार को देखती बेजान सी महीनों पड़ी रहीं. लेकिन जल्दी ही मां अपने बच्चों के बदहवासी और सदमे से रोते, सहमे चेहरे देख अपनी व्यथा दिल में ही दबा उन्हें संभालने में जुट गई थीं. एक नई जिम्मेदारी के एहसास ने उन्हें फिर से जीवन की मुख्य धारा से जोड़ दिया था.

पति के न रहने से एकाएक ढेरों कठिनाइयां उन के सामने आ खड़ी हुई थीं. पैसों की कमी, जानकारीयों का अभाव, कदमकदम पर जिंदगी उन की परीक्षा ले रही थी. उन का खुद का बनाया संसार उन की ही आंखों के सामने नष्ट होने लगा था लेकिन मां ने धैर्य का पल्लू कस कर थामे रखा.

बचपन में पिता और बाद में पति के संरक्षण में रहने के कारण मां का कभी दुनियादारी और उस के छलप्रपंच से आमनासामना हुआ ही नहीं. अब हर कदम पर उन का सामना वैसे ही लोगों से हो रहा था. लेकिन कहते हैं न कि समय और अभाव आदमी को सबकुछ सिखा देता है, मां भी दुनियादारी सीखने लगी थीं.

मां अपने टूटते आत्मबल और अपनी सारी अंतर्वेदनाओं को अपने अंतस में छिपाए सामान्य बने रहने की कोशिश करतीं लेकिन उन की तमाम कोशिशों के बावजूद सौरभ से कुछ भी छिपा नहीं था. वही एकमात्र गवाह था मां के कतराकतरा टूटने और जुड़ने का. कितनी बार ही उस ने देखा था मां को रात में अपने बच्चों से छिप कर रोते, पापा को याद कर तड़पते. तब उस के दिल में तड़प सी उठती कि कैसे क्या करे जो मां के सारे दुख हर ले.

वह चाह कर भी मां के लिए कुछ नहीं कर पाया, जबकि मां ने उन दोनों भाईबहनों का जीवन संवारने के लिए जो कर दिखाया, सभी के लिए आशातीत था. क्या नहीं किया मां ने, पोस्टआफिस की एजेंसी, स्कूल की नौकरी, ट्यूशन, कपड़ों की सिलाई यानी एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतीं.

जब भी वह मां के संघर्ष से विचलित हो कर अपने लिए काम ढूंढ़ता, मां उसे काम करने की इजाजत ही नहीं देतीं. बस, उन्हें एक ही धुन थी कि किसी तरह उन का बेटा पढ़लिख कर सरकारी नौकरी में ऊंचा पद प्राप्त कर ले.

पापा के साथ जब वह भयंकर दुर्घटना हुई थी तब सौरभ 10वीं में पढ़ता था. मांबेटा दोनों ही व्यापार में पूरी तरह कोरे थे जिस का फायदा व्यापार में उस के पिता के साथ काम कर रहे दूसरे लोगों ने उठाया और व्यापार में लगा उस के पापा का करीबकरीब सारा पैसा डूब गया. थोड़ाबहुत जो भी पैसा बचा था, नेहा दीदी की शादी का खयाल कर मां ने बैंक में जमा करवा दिया.

नेहा दीदी की शादी में सारी जमापूंजी के साथसाथ मां के करीबकरीब सारे गहने निकल गए थे, फिर भी मां बेहद खुश थीं. नेहा को सुंदर, संस्कारी और विवेकशील पति के साथसाथ ससुराल में संपन्नता भरा परिवार जो मिला था.

नेहा दीदी की शादी के बाद 4 वर्ष बड़े ही संघर्षपूर्ण रहे. स्नातक करने के बाद सौरभ नौकरी प्राप्त करने के अभियान में जुट गया. जल्दी ही उसे सफलता भी मिली. एक बैंक अधिकारी के पद पर उस की नियुक्ति हो गई. इस दौरान जगहजगह इतने फार्म भरने पडे़ कि गहनों के नाम पर मां के गले में बची एकमात्र जंजीर भी उतर गई.

मां की साड़ी पर भी जगहजगह पैबंद नजर आने लगे थे. इतनी विकट परिस्थिति में भी मां ने हिम्मत नहीं हारी, न ही किसी रिश्तेदार के घर आर्थिक तंगी का रोना रोने या सहायता मांगने गईं. परिस्थिति ने उन्हें धरती सा सहिष्णु बना दिया था.

नौकरी मिलने के बाद जब उस ने पहली पगार मां को सौंपी थी तब खुशी के आंसू पोंछती मां ने उसे गले से लगा लिया था, ‘अरे, पगले…मां भला इन रुपयों का क्या करेगी? अब तो सारी जिम्मेदारियां तू ही संभाल, मैं तो बस, बैठेबैठे आराम करूंगी.’

इस के बाद भी सौरभ हर महीने तनख्वाह का सारा पैसा ला कर मां के हाथों में देता रहा और मां पूर्ववत घर चलाती रहीं.

शादी के लिए आए कई प्रस्तावों में से मां को निधि की सुंदरता ने इस कदर प्रभावित किया कि बिना ज्यादा खोजबीन किए वे निधि से उस की शादी करने के लिए तैयार हो गईं. जब दहेज की बात आई तो उन्होंने शादी में किसी तरह का दहेज लेने से साफ मना कर दिया. ऐसा कर शायद वह अपने पति के उन आदर्शों को कायम रखना चाहती थीं जो उन्होंने खुद की शादी में दहेज न ले कर लोगों और समाज के सामने कायम किया था. जितना भी उन के पास पैसा था उसी से उन्होंने शादी की सारी व्यवस्था की.

मां के आदर्शों और भावनाओं को समझने के बदले अमीर घर की निधि की नजरों में दहेज न लेना बेवकूफी भरी आदर्शवादिता थी. हमेशा अपनी आधुनिका मां की तुलना में वह अपनी सास के साधारण से रहनसहन को उन का देहातीपन समझ मजाक उड़ाती रहती और जबतब अपनी जबान की कैंची से उसे कतरती रहती. ऐसे मौके पर उस का दिल चाहता कि निधि से पूछे कि सभ्यता का यह कौन सा सड़ागला रूप है जिस में ससुराल के बुजुर्गों की नहीं, सिर्फ मायके के बुजुर्गों की इज्जत करना सिखाई जाती है, लेकिन वह चुप ही रहता.

ऐसा नहीं था कि वह निधि से डरता था, कहीं मां पर निधि की असलियत जाहिर न हो जाए, इसी भय से भयभीत रहता था. जिंदगी के इस सुखद मोड़ पर वह नहीं चाहता था कि निधि की किसी बात से मां आहत हों और वर्षों से उन के दिल में जो बहू की तसवीर पल रही थी वह धुंधली हो जाए.

निधि समझे या न समझे वह जानता था, मां निधि को बेहद प्यार करती थीं.

निधि ने घर में आते ही मां के सीधेसादे स्वभाव को परख कर बड़ी होशियारी से उन के बेटे, पैसे और घर पर अपना अधिकार कर, उन के अधिकारों को इस तरह सीमित कर दिया कि वह अपने ही घर में पराई बन कर रह गई थीं.

वह हर बार सोचता, इस महीने जरूर मां के लिए सोने की जंजीर ले आएगा, लेकिन कोई न कोई खर्च हर महीने निकल आता और वह चाह कर भी जंजीर नहीं खरीद पाता. वैसे भी शादी के बाद से घर के खर्च काफी बढ़ गए थे. अब तक साधारण ढंग से चलने वाले घर का रहनसहन काफी ऊंचे स्तर का हो गया था. एक नौकर भी आ गया था जो निधि के हुक्म का गुलाम था.

तभी सौरभ की तंद्रा मां की आवाज से टूट गई थी.

‘‘कब से पुकारे जा रही हूं, कहां खोया बैठा है. चाय बना दूं?’’

मां को यों सामने पा कर जाने क्यों सौरभ की आंखें भर आई थीं. इनकार में सिर हिला, अपने आंसू छिपाता वह बाथरूम में जा घुसा था.

उसी दिन आफिस जाने के बाद सौरभ अपनी एक फिक्स्ड डिपोजिट तोड़ कर मां के लिए एक जंजीर और मीनाकारी वाला कर्णफूल खरीद लाया था. यह सोच कर कि एक हफ्ते बाद मां के आने वाले जन्मदिन पर उन्हें देगा, उस ने गहनों का डब्बा अपनी अलमारी में संभाल कर रख दिया.

रात को उस ने अपने इस ‘सरप्राइज गिफ्ट’ की बात जैसे ही निधि को बताई, उस के तो तनबदन में आग लग गई. अब तक शब्दों पर चढ़ा मुलम्मा उतार, मां के सारे बलिदानों पर पानी फेरते हुए वह बिफर पड़ी थी, ‘‘यह तुम्हें क्या सूझी है, बुढ़ापे में अब वह इतने भारी गहनों को ले कर क्या करेंगी? अब तो उन के नातीपोते खिलाने के दिन हैं फिर भी उन की तो जैसे गहनों में ही जान अटकी पड़ी है.’’

पूरा हफ्ता उस चेन को ले कर निधि के साथ उस का शीतयुद्ध चलता रहा, फिर भी वह डटा रहा. अभी वह इतना गयागुजरा नहीं था कि उस की बातों में आ कर मां के प्रति अपने प्यार और फर्ज को भूल जाता.

एक सप्ताह बाद जब मां का जन्मदिन आया, सुबहसुबह मां को जन्मदिन की मुबारकबाद दे कर उस ने जतन से पैक किया गया गहनों का डब्बा उन के हाथों में थमा दिया था.

‘‘अरे, बेटा, यह क्या ले आया तू? अब क्या मेरी उम्र है उपहार लेने की. अच्छा, देखूं तो मेरे लिए तू क्या ले आया है.’’

डब्बा खोलते ही मां जड़ सी हो गई थीं. जाने कब तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो यों ही खड़ी रहतीं, अगर सौरभ उन्हें गहनों को पहनने की याद नहीं दिलाता. सौरभ की आवाज में जाने कैसी कशिश थी कि जंजीर पहनतेपहनते उन की आंखें छलछला आई थीं. फिर कुछ सोच सौरभ का गाल थपथपा कर निधि को बुलाने लगीं.

कमरे में कदम रखते ही निधि की नजर मां के गले में पड़ी जंजीर पर गई, जिसे देखते ही चोट खाई नागिन सी उस की आंखों से लपट सी उठी थी, जो सौरभ से छिपी नहीं रही, पर उस की सीधीसादी मां को उस का आभास तक नहीं हुआ. तभी अपने गले से जंजीर निकाल कर निधि के गले में डालते हुए मां बोलीं, ‘‘बहू, इसे तुम मेरी तरफ से रख लो. जाने कितने अरमान थे मेरे दिल में अपनी बहू के लिए. जब सौरभ छोटा था तभी से अपने कितने ही गहने तुम्हारे नाम रख छोडे़ थे. सोचती थी एक ही तो बहू होगी मेरी, सजा दूंगी गहनों से, लेकिन परिस्थितियां ऐसी पलटीं कि सारे अरमान दिल में ही दफन हो गए.’’

सौरभ अभी कुछ बोलना चाह ही रहा था कि मां जाने कैसे समझ गईं.

‘‘न…तू कुछ नहीं बोलेगा. यह मेरे और बहू के बीच की बातें हैं. वैसे भी इस उम्र में मैं गहनों का क्या करूंगी.’’

मां के इस अप्रत्याशित फैसले ने निधि को भौचक कर दिया था. अपने छोटेपन का आभास होते ही वह सौरभ से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस की सारी कुटिलताएं मां के सीधेपन के सामने धराशायी हो चुकी थीं. जिस जंजीर के लिए उस ने अपने पति का जीना हराम कर रखा था, इतनी आसानी से मां उसे सौंप चुकी थीं.

निधि की नजरों में आज पहली बार सास के लिए सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई थी. साथ ही यह बात शिद्दत से उसे शूल की तरह चुभ रही थी कि जिस सास को मां की तुलना में वह हमेशा गंवार और बेवकूफ समझती थी और अपनी ससुराल वालों की तुलना में अपने मायके वालों को श्रेष्ठ और आधुनिक दिखाने की कोशिश करती थी, उस की उसी सास के सरल, सादे और ऊंचे संस्कारों के सामने अब उसे अपनी गर्वोक्ति व्यर्थ का प्रलाप लगने लगी थी.

दूसरे दिन सौरभ को यह देख कर सुखद आश्चर्य हो रहा था कि निधि एक सोने की जंजीर मां को जबरदस्ती पहना रही थी. मां के बारबार मना करने पर भी वह जिद पर उतर आई थी.

‘‘मांजी, मैं ने बडे़ प्यार से इसे आप के लिए खरीदा है और अगर आप ने लेने से इनकार कर दिया तो मुझे लगेगा कि आप ने कभी मुझे बेटी माना ही नहीं.’’

इस के बाद मां इनकार नहीं कर सकी थीं. सदा से ही कम बोलने वाली मां की आंखों में अपनी बहू के लिए ढेर सारा प्यार और अपनापन उमड़ पड़ा था. मां की खुशी देख सौरभ ने नजरों से ही निधि के प्रति अपनी कृतज्ञता जता दी थी, जिसे संभालना निधि के लिए मुश्किल हो रहा था. वह नजरें चुराती, यहांवहां काम में व्यस्त होने का नाटक करने लगी.

आज पहली बार अपनी गलतियों का एहसास निधि को बुरी तरह कचोट रहा था. सास के सच्चे प्रेम और अपनेपन ने उस की आत्मा को झकझोर दिया था. बारीबारी वे बातें याद आ रही थीं जिस का समय रहते उस ने कभी कोई मूल्य नहीं समझा था. वह बीमार पड़ती तो सास उस की देखभाल बडे़ प्यार और लगन से अपने बच्चों की तरह करतीं. इतने प्यार और लगन से तो कभी उस की अपनी मां ने भी उस की सेवा नहीं की थी.

जिस सास ने अपना बेटा, घर, संपत्ति सबकुछ उसे सौंप, अपना विश्वास, प्यार और सम्मान दिया, उसी सास को महज अपना वर्चस्व साबित करने के लिए उस ने घरपरिवार से भी बेगाना कर रखा था. शादी के बाद से आज यह पहला अवसर था जब सौरभ उस के किसी काम से इतना खुश और संतुष्ट नजर आ रहा था. अपने लिए उस की नजरों से छलकता प्यार और कृतज्ञता देख निधि को बारबार नानी की नसीहतें याद आ रही थीं.

उस की नानी के पास जब भी उस की मां अपनी सास की शिकायतों की पोटली खोलतीं, नानी उन्हें समझातीं, ‘देख…नंदनी, एक बात तू गांठ बांध ले कि पति के बचपन का पहला प्यार उस की मां ही होती है, जिस का तिरस्कार वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाता है. अगर पति का सच्चा प्यार और घर का सुख प्राप्त करना है तो उस से ज्यादा उस की मां को अहमियत देना सीख. उन की सेवा कर, उन का खयाल रख तो कुछ ही दिनों बाद उसी सास में तुम्हें अपनी मां भी दिखेगी, साथ ही तुम्हें पति को भी अपनी अहमियत जताने की जरूरत नहीं पडे़गी. वह खुद ही प्यार के अटूट बंधन में बंधा ताउम्र तुम्हारे ही चक्कर लगाएगा.’

मां हमेशा नानी की नसीहत को मजाक में उड़ा, अपनी मनमानी करतीं, नतीजतन, अपने सारे रिश्तों से मां अलग तो हुईं ही, पापा के साथ रहते हुए भी जीवन की इस संध्या बेला में काफी अकेली हो गई थीं.

एकांत पाते ही निधि अपने सारे मानअपमान और स्वाभिमान को भूल कर सौरभ के पास आ गई थी. शर्मिंदगी के भाव से भरी उस की आंखों से अविरल आंसू बह निकले.

बिना कुछ कहे पति की शांत और मुग्ध दृष्टि से आश्वस्त हो कर निधि उस की बांहों में समा गई थी. निधि को अपनी बांहों में समेटते हुए सौरभ को लगा जैसे कई दिनों की बारिश के बाद काले बादल छंट गए हैं और आकाश में खिल आई धूप ने मौसम को काफी सुहावना बना दिया है.

लेखिका- रीता कुमारी

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