लेखिका- सोनाली ठाकुर

कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के आंदोलन के बीच एक प्रश्न अक्सर पूछा जा रहा है कि कृषि क़ानूनों को लेकर सिर्फ पंजाब और हरियाणा के किसानों की ही इतनी नाराजगी क्यों दिख रही है? बाकि राज्य के किसान आंदोलन में शामिल क्यों नहीं हो रहे?

पंजाब की स्थिती अलग क्यों?

एपीएमसी (कृषि उत्पाद बाजार समिति) के अंतर्गत सरकार की तरफ़ से पहले से तय हुए दाम में ख़रीददारी का राष्ट्रीय औसत 10 प्रतिशत से कम है, लेकिन इसका उलट पंजाब में 90 प्रतिशत से अधिक है.

हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उपजाऊ ज़मीनों पर उगने वाले अनाज को राज्य सरकारें एपीएमसी की मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) देकर किसानों से ख़रीद लेती हैं. इसका मतलब खुले बाज़ार में केवल 10 प्रतिशत उत्पादन की बिक्री की ही गुंजाइश रह जाती है.

देश के 6,000 एपीएमसी मंडियों में से 2,000 से अधिक केवल पंजाब में है. इस सिस्टम के अंतर्गत यहाँ के किसानों को गेहूं और चावल के दाम बिहार, मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों से कहीं अधिक मिलते है. इस सिस्टम के अंतर्गत सरकार किसानों को न्यूनतम सपोर्ट दाम देने के लिए बाध्य है.

नए कृषि क़ानून के तहत पंजाब का कोई किसान अपने उत्पादन को खुली मंडी में अपने राज्य या राज्य से बाहर कहीं भी बेच सकता है. लेकिन विरोध करने वाले छोटे किसान कहते हैं कि वो एपीएमसी के सिस्टम से बाहर जा कर अपना माल बेचेंगे तो प्राइवेट व्यापारी उनका शोषण कर सकते हैं.

इसीलिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान एपीएमसी को हटाना नहीं चाहते.

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बिहार का किसान चुप क्यों?

इस प्रश्न का जवाब आपको हम चार पॉइंट में समझाते है:-

1- वर्ष 2011 की समाजार्थिक जाति जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, बिहार के ग्रामीण बिहार में 65.58% परिवारों के पास भूमि नहीं है. बिहार की 38% भूमि असिंचित है. तिपहिया-चौपहिया कृषि वाहन केवल 2.49% परिवारों के पास हैं. सिंचाई की मशीनें केवल 5.15 परिवारों के पास हैं. बिहार के 70.88% ग्रामीण परिवारों की आमदनी का मुख्य स्रोत अनियमित मज़दूरी है.

2- विधानसभा चुनाव 2020 से पहले CSDS-लोकनीति ने सर्वे किया था. हालांकि सर्वे 37 विधानसभाओं में 37 सौ लोगों के बीच कराया गया था, लेकिन इससे एक अच्छा अनुमान लगता है. हालिया पारित कृषि क़ानूनों के बारे में पूछे जाने पर 69% लोगों ने कहा था कि उन्होंने इन क़ानूनों के बारे में नहीं सुना है, जबकि 31% ने सुना हुआ था. इनमें अगर किसानों की बात करें, तो 64% किसानों ने इन क़ानूनों के बारे में नहीं सुना था.

3- यह पूछे जाने पर कि क्या इन नये कानूनों की वजह से किसानों को ऊपज का अधिक दाम मिलेगा या कम दाम मिलेगा, तो 29% लोगों ने कहा कि किसानों को अधिक दाम मिलेगा, 26% ने कहा कि कम दाम मिलेगा, 18% ने कहा कि पहले जैसा रहेगा और 17% ने कोई उत्तर नहीं दिया. वहीं 39% किसानों ने कहा कि अधिक दाम मिलेगा, 19% ने कहा कि कम दाम मिलेगा, 20% ने कहा कि पहले जैसा मिलेगा, 22% ने कोई उत्तर नहीं दिया.

4- किसानों से पूछा गया कि आप अपनी ऊपज कहाँ बेचते हैं, तो जवाब इस तरह रहा- गांव/शहर में सेठ/साहूकार को 39%, खुले बाजार में खुद ले जाकर 18%, सरकारी मंडी में 06%, अन्यत्र 5%, 29% नहीं बेचते और 03% ने कोई उत्तर नहीं दिया.

कहां है महाराष्ट्र के किसान?

महाराष्ट्र में किसान बड़ा वोटबैंक है लेकिन यहां गन्ना किसान अधिक हैं और गन्ने की ख़रीद के लिए फेयर एंड रीमुनरेटिव सिस्टम (एफ़आरपी) मौजूद है और उसका मूल्य तय करने के लिए शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर अभी भी पहले से मौजूद है. उत्तर प्रदेश में भी काफी ज़मीन हॉर्टिकल्चर के लिए इस्तेमाल होने लगी है जिसका एमएसपी से कोई लेना-देना नहीं है.

आपको बता दें कि किसानों से सरकार जो अनाज सबसे ज्यादा खरीदती है उनमें गेहूं और चावल शामिल है और अगर अनाज की ख़रीद के आंकड़ों के देखा जाए तो ये साफ होता है कि राज्य के कुल उत्पादन और ख़रीद के मामले में पंजाब और हरियाणा की स्थिति दूसरों से काफी बेहतर है.

खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग की रिपोर्ट के अनुसार बीते कुछ सालों में पंजाब और हरियाणा में हुए कुल धान उत्पादन का 80 फीसदी सरकार ने खरीदा, जबकि गेंहू के मामले में इन दो राज्यों से कुल उत्पादन का 70 फीसदी से अधिक सरकार ने खरीदा. लेकिन दूसरे राज्यों की स्थिति ऐसी नहीं है. दूसरे राज्यों में कुल उत्पादन का छोटा हिस्सा सरकार ख़रीदती रही है और किसान वहां पहले से ही बाज़ार पर निर्भर करते रहे हैं.

अब ये समझने की ज़रूरत है कि जिस पर सीधा असर होगा वो सबसे पहले विरोध करेगा. एक अनुमान के अनुसार देश में केवल 6 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है. लेकिन 94 फीसदी किसानों को तो पहले ही एमएसपी नहीं मिलता और वो बाज़ार पर निर्भर हैं. ऐसे में ये समझा जा सकता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान विरोध क्यों कर रहे हैं.

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क्या है वो तीनों कानून जिनका विरोध कर रहे हैं किसान?

पहला है ”कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020”. इसमें सरकार कह रही है कि वह किसानों की उपज को बेचने के लिए विकल्प को बढ़ाना चाहती है. किसान इस कानून के जरिये अब एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे. निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे. लेकिन, सरकार ने इस कानून के जरिये एपीएमसी मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है. इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है. बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं.

दूसरा कानून है- ”कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020”. इस कानून के संदर्भ में सरकार का कहना है कि वह किसानों और निजी कंपनियों के बीच में समझौते वाली खेती का रास्ता खोल रही है. इसे सामान्य भाषा में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कहते है

तीसरा कानून है ”आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020”. यह न सिर्फ किसानों के लिए बल्कि आम जन के लिए भी खतरनाक है. अब कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी. उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी. सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है? खुली छूट. यह तो जमाखोरी और कालाबाजारी को कानूनी मान्यता देने जैसा है. सरकार कानून में साफ लिखती है कि वह सिर्फ युद्ध या भुखमरी या किसी बहुत विषम परिस्थिति में रेगुलेट करेगी.

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