मौजूदा दौर में स्कूली पढ़ाईलिखाई इस तरह की हो गई है कि सिलेबस में लिखी बातों को रट कर इम्तिहान तो पास किए जा सकते हैं, पर पेट भरने के लिए वह किसी काम के काबिल नहीं बना पा रही है. स्कूली पढ़ाईलिखाई के सिस्टम में सुधार की जरूरत है, पर सरकार इस बात को नजरअंदाज कर रही है.
यही वजह है कि पढ़ाईलिखाई की नई नीति में बुनियादी और व्यावसायिक तालीम को उतनी तवज्जुह नहीं दी गई, जितनी जरूरी थी. लगातार यह देखा जा रहा है कि नौजवान पीढ़ी की दिलचस्पी पढ़ाईलिखाई के प्रति घटती जा रही है.
शिक्षा मंत्रालय की साल 2018-19 की रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश में हायर सैकेंडरी तक पहुंचते ही 76 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूल छोड़ देते हैं. इन में लड़कों की तादाद ज्यादा होती है.
जानकारों के मुताबिक, यह वह दौर होता है, जब छात्रों का पूरा ध्यान कैरियर पर होता है. वहीं, माध्यमिक लैवल के बाद 58 फीसदी बच्चे स्कूल बदल लेते हैं.
मध्य प्रदेश उन राज्यों में शामिल है, जहां बच्चों की सरकारी स्कूल छोड़ने की दर बहुत ज्यादा है. इस से पता चलता है कि स्कूली पढ़ाईलिखाई का लैवल प्रदेश में कैसा है.
पहली जमात से 5वीं जमात तक सरकारी स्कूलों में 85 फीसदी बच्चे पढ़ते हैं. यहां बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर 42 फीसदी हो जाती है.
इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए माध्यमिक शिक्षा में तो स्कूल छोड़ने की दर 76 फीसदी हो जाती है. इन में से 24 फीसदी लड़कियां होती हैं.
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शिक्षा के प्रति नौजवानों का मोह भंग होने वाली वजहों की पड़ताल करने पर एक बड़ी बात यह सामने आई है कि नौजवानों को यकीन हो गया है कि पढ़ाईलिखाई में जो सिखाया जा रहा है, उस का प्रैक्टिकल तौर पर कहीं इस्तेमाल नहीं है.
बड़ी समस्या यह है कि पढ़ने के बाद भी ऐसी नौकरियां या व्यवसाय कम हैं, जिन में पढ़ाई की जरूरत होती ही हो. सारा समाज ऐसे अधपढ़ों का बनता जा रहा है, जहां पढ़ने वाले कम हैं और देश की उत्पादकता को भी बढ़ने नहीं दे रहे हैं.
कोरोना काल में बिना इम्तिहान दिए हाईस्कूल पास होने वाला 18 साल का रोहित गुप्ता कालेज जाने के बजाय अपने पिता की परचून की दुकान संभालने लगा है.
जब रोहित गुप्ता से आगे की पढ़ाई के बारे में बात की, तो वह कहने लगा, ‘‘पढ़लिख कर कहां नौकरी मिलनी है, इसलिए अभी से दुकान पर ही पूरा
समय दे कर मैं अपने पिता की मदद करता हूं.’’ सिरसिरी गांव का ललित राजपूत 10वीं जमात पास कर आईटीआई डिप्लोमा कर के इलैक्ट्रिशियन बनना चाहता है, पर आईटीआई में दाखिले के लिए 10वीं जमात में 75 फीसदी अंक न होने से वह इलैक्ट्रिक उपकरणों की दुकान पर यह काम सीख रहा है.
वजह पूछने पर ललित राजपूत ने बताया कि पढ़ाईलिखाई में उस का मन ही नहीं लगता, क्योंकि गांव के स्कूल में पिछले 6 सालों से एक शिक्षक ही पढ़ाने के लिए हैं, जो सभी सब्जैक्ट की पढ़ाई नहीं करवा पाते.
बिजली के उपकरणों की मरम्मत का काम सीख रहा ललित अपने घरपरिवार के लिए दो पैसे कमा कर देना चाहता है.
खेतीबारी के बारे में अच्छी पढ़ाई की चाहत रखने वाले नरसिंहपुर जिले के बरहटा स्कूल में पढ़ रहे पवन अहिरवार बताता है कि स्कूल में किताबें तो पढ़ा
दी जाती हैं, मगर कभी खेतखलिहान में जा कर कोई प्रैक्टिकल जानकारी नहीं दी जाती है. स्कूली किताबों में कहीं यह नहीं पढ़ाया जाता है कि बिजली फिटिंग, प्लंबर, मोटर मेकैनिक के कामों में कैसे महारत हासिल की जा सकती है. यही वजह है कि पढ़ाईलिखाई पूरी करने के बाद नौजवानों को जब नौकरी नहीं मिलती, तो वे किसी काम के नहीं रहते.
आज भी देश में ऐसे अनपढ़ों की पौध है, जो नकारा बनी मोबाइल फोन पर उंगलियां घुमा रही है. सरकारी नीतियां भी यही चाहती हैं कि देश के नौजवान धार्मिक आडंबरों और अंधविश्वास में उल?ो रहें.
सरकार नहीं चाहती कि नौजवानों में सवाल करने और सहीगलत का फर्क करने की ताकत बढ़े. धर्म के रंग में रंगी सरकार तो बस यही चाहती है कि नौजवान उन की रैलियों में आंख मूंद कर ?ांडे, बैनर लगा कर उन की गलत नीतियों का गुणगान करें.
होशंगाबाद जिले की पिपरिया तहसील के अनिल सोनी 12वीं तक की पढ़ाई के बाद एक राजनीतिक पार्टी के मीडिया प्रभारी हैं. वे दिनभर सोशल मीडिया पर अपनी पार्टी के नेताओं का गुणगान करते हैं. विधायक और पार्टी नेताओं के आगेपीछे घूमते वे देश के हालात बदल देने की वकालत करते हैं.
टिमरनी हरदा के आदिक लाल पटेल आज से 25 साल पहले बीटैक की पढ़ाई अधूरी छोड़ कर इसलिए गांव आ गए थे कि उन की जिन कामों में दिलचस्पी थी, वे स्कूल में नहीं सिखाए जाते थे.
गांव आ कर उन्होंने मोटर बाइंडिंग का काम सीखा और इन 25 सालों में आज पूरे इलाके के वे हुनरमंद मेकैनिक हैं. किसानों के खेत में चलने वाले मोटर पंप के जलने पर उन की बाइंडिंग से उन्हें खूब पैसा मिलता है. अपने काम और हुनर के दम पर उन के पास आज सभी तरह की सुखसुविधाएं हैं.
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रायसेन जिले के उदयपुरा के कमलेश पाराशर मैट्रिक तक पढ़े हैं. गांवदेहात के इलाकों में उन की पंडिताई फैली हुई है. वे बताते हैं कि उन्होंने अपने लड़के को 10वीं पास करते ही संस्कृत पाठशाला में दाखिला दिला दिया था.
जब तक समाज में धर्म का बोलबाला है, उन की पंडिताई की दुकान खूब चलेगी. पुरखों के जमेजमाए इस धंधे को अपने बेटे को सौंप देंगे. इस में कमाई के साथसाथ इज्जत भी मिलती है.
मध्य प्रदेश के स्कूल शिक्षा विभाग के मंत्री इंदर सिंह परमार भी स्वीकार करते हैं कि हमारे लिए ये हालात चुनौती से भरे हैं. पहली जमात में जितने बच्चे दाखिला लेते हैं, 12वीं जमात में पहुंचतेपहुंचते 24 फीसदी
बच्चे ही बचते हैं. लेकिन सुधार के लिए कोई खास नीति सरकार के पास नहीं है. होशंगाबाद के पत्रकार मनीष अहिरवार कहते हैं कि एससीएसटी तबके के होनहार बच्चे पढ़लिख कर डाक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखते हैं, मगर मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेज की भारीभरकम फीस उन के सपनों को पूरा नहीं होने देती. सरकार की आरक्षण नीति का फायदा इस तबके के वे चुनिंदा लोग ही ले पाते हैं, जो पहले से नौकरियों में हैं.
स्कूलों में जरूरी सुविधाओं का अकाल पड़ा है. आज भी कई स्कूल ऐसे हैं, जहां पर पढ़ाईलिखाई के कमरे, पीने के लिए साफ पानी और शौचालय भी नहीं हैं. लड़कियों के स्कूल छोड़ने की एक बड़ी वजह यह भी है. माहवारी से जुड़ी समस्याओं के चलते वे स्कूल आने से कतराती हैं.
पढ़ाई काम न आई
आज पूरा देश कोरोना के संकट से जू?ा रहा है. ऐसे समय में हमारे स्कूलकालेजों की पढ़ाई की अहमियत की कोई कीमत नहीं रह गई है.
स्कूलकालेज की पढ़ाई का आलम यह है कि एक इलैक्ट्रिकल इंजीनियर अपने घर का फ्यूज नहीं बदल सकता, वैसे ही बीएससी, एमएससी पढ़े छात्रछात्रा अपने घर के किसी सदस्य को इंजैक्शन तक लगाने का हुनर नहीं जानते. फिर 15-20 साल स्कूलकालेजों में बरबाद करने के बाद हमें कौन सी पढ़ाई मिलती है? हमारे अपनों की जिंदगी मुसीबत में हो और उस से निबटने का कोई हुनर हमारे स्कूलकालेजों में नहीं सिखाया जाता हो, तो ऐसे स्कूलों का क्या फायदा?
अच्छा तो यह होता कि धर्म की कपोल कल्पित कथाकहानियों को पढ़ाने के बजाय ये स्कूल हमें इस बात की ट्रेनिंग देते कि मरीज का ब्लड प्रैशर कैसे नापा जाता है, औक्सिजन की सैचुरेशन कैसे चैक की जाती है. औक्सिजन मशीन, बाई पैप मशीन कैसे लगाते हैं, नैबुलाइजेशन कैसे करते हैं जैसी बातें सिखानी चाहिए.
सिविल डिफैंस में बाढ़, आग, भूकंप से जिंदगी कैसे बचा सकते हैं, हमें यह सिखाया जाता तो आफत की घड़ी में ये सचमुच समाज के काम आ सकते थे, मगर स्कूलों ने हमें यह सब नहीं सिखाया.
कोरोना के मरीजों की तादाद देख कर साफ है कि मजबूरन लोगों को उन के घरों पर ही अस्पताल जैसा इलाज देना होगा. वैसे भी कोरोना के मरीज को किसी किस्म की सर्जरी की जरूरत आमतौर पर नहीं पड़ती, इसलिए अस्पताल की उपयोगिता सिर्फ समय से इंजैक्शन लगाने, औक्सिजन देने और डाक्टर की निगरानी की है.
कुछ मामलों में हालत बिगड़ने पर वैंटिलेटर की जरूरत पड़ती है, लेकिन ज्यादातर मरीज औक्सिजन और बाई पैप मशीन के सहारे ही उठ खड़े होते हैं.
बाई पैप मशीन तेजी से हवा फेंकने वाली एक साधारण मशीन है, जिस की कीमत बमुश्किल 25,000 से 30,000 रुपए होती है. यह मशीन प्रैशर से हवा फेंकती है, जिस से मरीज को सांस लेना ही पड़ता है.
बहुत से लोग इस मशीन को खरीद सकते हैं, घर पर किराए पर लगवा सकते हैं, मगर लगाने वाले टैक्नीशियन कंपाउंडर कहां से लाएंगे? हमारे पास ट्रेंड कंपाउंडर हैं ही नहीं और जो थोड़ेबहुत हैं, वे अस्पतालों को ही कम पड़ रहे हैं.
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पढ़ाईलिखाई का मतलब उपयोगी नागरिक तैयार करना होना चाहिए. चाहे खेती हो, उद्योग हो, अनुसंधान, रक्षा या जीवन उपयोगी काम हो, लेकिन आज की पढ़ाईलिखाई पढ़ेलिखे नकारा नौजवानों की फौज खड़ी कर रही है, जो राजनीतिक पार्टियों की रैली में ?ांडाबैनर लगा कर और धार्मिक सत्संग, कांवड़ यात्रा और भोजभंडारा करने में अपनी ऊर्जा गंवा रही है.
लिहाजा, बेरोजगार नौजवान एक बात गांठ बांध लें कि किसी काम को सीखने के लिए 6 महीने से ले कर एक साल तक का समय होता है, चाहे मोटरकार, साइकिल मेकैनिक बनने की बात हो. डेरी फार्मिंग, मधुमक्खीपालन, खेतीबारी से जुड़े काम भी सीख सकते हैं.
वे घर की इलैक्ट्रिक वायरिंग, प्लंबर, वेल्डिंग का काम, मोबाइल रिपेयरिंग, मिट्टी के बरतन बनाना सीख सकते हैं. कुछ ही महीनों में नौजवान बहुत से ऐसे काम सीख सकते हैं, जो घरपरिवार को भूखा नहीं सोने देंगे.
आज भारत में सब से ज्यादा दुखी वे लोग हैं, जो बहुत ज्यादा पढ़लिख कर छोटेमोटे काम करना पसंद नहीं करते हैं. जो पढ़ाईलिखाई नौजवानों को रोजगार न दे सके, वह किसी काम की नहीं.
रोजगार के लिए ज्यादा पढ़ालिखा होना कोई माने नहीं रखता, बल्कि तरहतरह के हुनर सीख कर अपने परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी उठाया जा सकता है.