Hindi Family Story: व्यापार

Hindi Family Story: सरजू स्टेशन पर कुलीगीरी करता था और सारी कमाई गांजे में उड़ा देता था. उस की पत्नी तारा मजदूरी कर के जैसेतैसे परिवार का पेट पालती थी. एक बार सरजू एक पाड़ी खरीद लाया. जब वह हट्टीकट्टी भैंस हुई तो सरजू ने वह कर दिया, जो तारा ने सपने में भी नहीं सोचा था.

हलकीहलकी बूंदाबांदी हो रही थी. पछुआ हवा के थपेड़ों को अपने नंगे बदन पर झेलते हुए कमर में अधटंगी धोती बांधे सरजू जब अपनी झोंपड़ी के नजदीक आया, तो उस के नथुनों में मांस भुनने की खुशबू आने लगी.

झोंपड़ी के बाहर जरा सी खुली जमीन की पट्टी पर एक तरफ बेटी मालती झोंटा बिखेरे आटा गूंद रही थी. दूसरी तरफ चूल्हे पर रखी देगची में उस की बीवी तारा कलछी से शायद मांस भून रही थी. लक्ष्मण और राधा मां से सटे बैठे लोभी निगाहों से देगची को देख रहे थे.

‘‘आज पैसा मिल गया?’’ सरजू की करारी आवाज से तारा चौंक गई. उस ने एक उचटती नजर उस पर डाली और दोबारा मांस भूनने में लग गई.

सरजू का जी जलभुन गया. वह सोचने लगा, ‘यही तो इस की सब से बुरी आदत है. कभी कुछ पूछो तो बोलेगी नहीं, जैसे बोलने में टका खर्च होता है. पैसा तो मिल ही गया होगा, तभी तो आज मांस बन रहा है.’

फिर इधरउधर देख कर सरजू ने बेटी मालती से पूछा, ‘‘क्यों री, अशोक कहां गया है?’’

मालती सुघड़ सयानी बन कर घर के काम में हाथ बंटा रही थी. वैसे तो रोज काम के नाम पर वह बहाना बनाती थी, पर अब महीनों बाद घर में सालन जो बन रहा था, तो उस के मुंह में पानी आ रहा था. गले में थूक गटक कर उस ने कहा, ‘‘क्या मालूम.’’

‘‘अच्छा, जा तू ही दुकान से पुडि़या लेती आना.’’

आटा अधगुंदा छोड़ कर मालती उठ खड़ी हुई. सरजू ने 20 रुपए का नोट दिया, ‘‘3 पुडि़या लाना, एक बंडल बीड़ी भी.’’

पुडि़या, यानी गांजा. 3 पुडि़यां सरजू की 24 घंटे की खुराक थीं. पहले तो बहुत पीता था, पर इधर महंगाई बढ़ गई थी, इसलिए 3 में ही संतोष करना पड़ता था.

‘‘छोटुआ कह रहा था कि यहीं 5 कोस पर एक गांव है… नाम नहीं याद पड़ रहा है. वहां मवेशी बिकने आते हैं. सोच रहा हूं एक पाड़ी ले आऊं. अशोक सारा दिन खेलता रहता है, तो वह पाड़ी को चराएगा. 2 साल में भैंस बन जाएगी तो दूध का सुभीता हो जाएगा और पैसा भी होगा.’’

तारा चुप रही. घर में सरजू की ही मरजी चलती थी. उस ने जो ठान लिया सो ठान लिया. कुछ कहने से पिटाई ही पल्ले पड़ती थी. वह समझ रही थी कि यह सब उस से रुपया मांगने की चाल है.

तारा सरकारी फार्म में मजदूरी करती थी. साढ़े 16 रुपए रोज के हिसाब से मजदूरी मिलती थी. इस बार 8 हफ्तों की मजदूरी मिली थी. ठंड पड़ने लगी थी. बच्चों के पास कपड़े नहीं थे. सोचा था, एकएक कपड़ा चारों के लिए बनवा देगी. लेकिन सूदखोर महाजन की तरह सरजू पैसा उगाहने आ गया था. वह पाईपाई का हिसाब रखता था. तारा ने कमर से सब रुपए खोल कर उस के आगे फेंक दिए.

सरजू ने बेहयाई से सब नोटों को उठा कर गिना. फिर बोला, ‘‘डेढ़ सौ रुपए कम हैं.’’

तारा खीज उठी. अपनी ही कमाई का हिसाब देना अखर गया. सरजू जानता था कि फार्म के पास वाली चाय की दुकान पर वह दोपहर की छुट्टी में चाय पीती है. बच्चों को भी कभीकभार बिसकुट दिला देती है.

पैसा मिलने पर उस की उधारी चुका कर एक वक्त के खाने के लिए कुछ अच्छी चीज ले आती है. बाकी पूरा महीना तो नमक और रोटी पर ही बीतता है.

‘‘हां, 70 रुपए चाय वाले को दिए, बाकी से मांस, तेल, मसाला और आटा आया है. मांस भी तो 55 रुपए किलो है,’’ तारा बोली.

‘‘क्या जरूरत थी, मांस लाने की… आलूगोभी नहीं ला सकती थी?’’ सरजू ने कहा.

तारा ने कुछ जवाब न दिया. झुक कर चूल्हे की लकड़ी ठीक करते हुए सोचने लगी, ‘अभी ऐसे कह रहा है, खाने बैठेगा तो यह नहीं सोचेगा कि दूसरे को भी खाना है.’

सरजू मन ही मन में हिसाब लगा रहा था, ‘पाड़ी खरीदने में 3-4 सौ तो लग ही जाएंगे. इधर 2-3 दिनों से उस की आमदनी भी कुछ कम हुई है. कहीं से कुछ रुपयों का जुगाड़ करना पड़ेगा.’

सरजू स्टेशन पर कुलीगीरी करता था. वह लाइसैंस वाला कुली नहीं था. लाइसैंस के लिए बहुत दौड़धूप करनी पड़ती थी और फीस भी लगती थी. साथ ही घूस भी देनी पड़ती थी.

उस के जैसे बिना लाइसैंस वाले कई कुली थे. स्टेशन के आउटर सिगनल के पास उन का जमाव रहता.

व्यापारी लोग सामान ले कर आते तो चुंगी से बचने के लिए ट्रेन की जंजीर खींच कर उतर पड़ते थे. उन का सामान जल्दी से उतरवा देने पर अच्छे पैसे बन जाते थे.

हां, पुलिस को जरूर मिला कर रखना पड़ता था. वैसे, हवलदार साहब उस से खुश ही रहते थे. गांजे के वे भी शौकीन थे. सरजू उन्हें भी पिला देता था.

दूसरे दिन शाम ढलने लगी थी. जब एक हाथ में रस्सी थामे आगेआगे सरजू और पीछेपीछे बड़ी बकरी से कुछ ऊंची पाड़ी गली में घुसी. अंधेरे में सरजू का काला रंग पाड़ी के रंग से बिलकुल मिल रहा था. छोटू भी साथ में था.

‘‘अरी, जल्दी से तेल, सिंदूर ले आ… घर में लक्ष्मी आई है,’’ सरजू की आवाज में खुशी झलक रही थी.

10 कोस की थकान भी उसे महसूस नहीं हो रही थी.

तारा ने एक निगाह पाड़ी पर डाली और उठ खड़ी हुई. पाड़ी के माथे पर तेल, सिंदूर लगाया और एक लोटा पानी सामने के दोनों पैरों के पास डाला.

उस का सख्त चेहरा देख कर सरजू को खीज आई. किंतु अभी उस की खुशी गुस्से पर हावी थी.

वह बोला, ‘‘अशोक, जल्दी से यहां एक खूंटा गाड़… इसे बांधना है. अभी देहरी नहीं पहचानती है न.

बच्चे भी खुश थे, पाड़ी की देखरेख में वे इतने मगन थे कि भूखप्यास भूल गए थे.

‘‘भौजी, अब कुछ चायपानी कराओ. देखो, तुम्हारे लिए आज सारा दिन दौड़े हैं,’’ छोटू ने कहा.

तारा को मौका मिल गया. घर में खाने को कुछ नहीं था, सारे पैसे सरजू ले गया था. उस ने सरजू से कहा, ‘‘रुपया दो, तो चायपानी ले आएं, आटा भी लाना है.’’

सरजू ने सुनीअनसुनी करते हुए कहा, ‘‘चल छोटू, हम दोनों स्टेशन पर ही चाय पी लेंगे.’’

उन दोनों को जाते हुए देख कर तारा ने दोबारा टोका, ‘‘आज घर में खर्च नहीं है. सरजू एक पल ठिठका, ‘‘जा कर उधारी आटा ले आओ. मेरा नाम ले देना, कल रुपए दे देंगे.’’

तारा चुपचाप उन दोनों को जाते हुए देखती रही. पाड़ी खरीदने से जो रुपया बचा होगा, उस से गांजा आएगा. चाय के साथ गांजे का दम लगा कर वह दूसरी दुनिया में खो जाएगा. जब घर लौटेगा, उस समय तक भूखे बच्चे पानी पी कर सो जाएंगे.

सरजू जानता है कि चक्की वाला आटा उधार कभी नहीं देता है. तारा को पछतावा हो रहा था कि कल क्यों गुस्से में सारे नोट फेंक दिए. कम से कम एक 20 का नोट बचा लिया होता.

रोज सवेरे बच्चे रात की बासी रोटी खा लेते थे. फिर उधरउधर भटकते हुए सरकारी क्वार्टरों में लगे फल चुरा कर खाते हुए उन का दिन कटता. पानी पीपी कर वे सांझ की बाट जोहते, जब मां चूल्हा जोड़ कर रोटी बनाती.

तारा के साथ की दूसरी मजदूरिनें भी थीं. पर उन की इतनी बुरी हालत नहीं थी. उन के मर्द कमा कर नोट उन के हाथ पर रखते. अपनी कमाई से वे अपने शौक पूरे करती थीं. सब के बदन पर ढंग के कपड़ेलत्ते होते थे. एक वही थी, जो ठंड में एक फटी धोती से तन को ढक कर खेतों में काम करती थी.

बच्चे अभी तक पाड़ी में लगे हुए थे. लक्ष्मण छोटी बालटी में पानी ले कर उस के मुंह से लगा रहा था. 3 साल की राधा भी अपने नन्हें हाथों में घास लिए उसे खिलाने की कोशिश कर रही थी.

अशोक और मालती महल्ले के बच्चों को डांट कर भगा रहे थे, ‘पाड़ी को तंग मत करो, इतनी दूर से आई है.’

तारा ने हांड़ी में से धान निकाला. वह फार्म से थोड़ाथोड़ा धान उठा लाती थी, सभी मजदूरिनें ले जाती थीं. बाबू लोग हर समय चौकसी थोड़े ही करते थे.

3 पाव के लगभग धान था. उसे कूट कर सूखी कड़ाही में भूना. बच्चों ने और उस ने एकएक मुट्ठी फांक कर पानी पिया और सो गए.

रात काफी हो गई थी, जब सरजू ने उसे झंझोड़ कर जगाया और कहा, ‘‘ला, खाने को दे.’’

‘‘कहां से दूं? सब तो ऐसे ही सो रहे हैं,’’ तारा बोली.

गांजे के नशे में लाललाल आंखें किए सरजू ने उसे पीटने को हाथ उठाया और बोला, ‘‘तेरी यही आदत अच्छी नहीं लगती है. कहा था न कि आटा उधार ले आना.’’

‘‘उधार नहीं देता है.’’

‘‘नहीं देता है… अभी बताता हूं कि कैसे देता है.’’

तब तक पाड़ी रंभाई. सरजू के उठे हाथ थम गए. वह बोला, ‘‘अच्छाअच्छा, भूख लगी है न, तुझे भी थोड़े ही कुछ मिला होगा, मैं जानता था. इसीलिए तेरे खाने के लिए लाया हूं.’’

गमछे को खोल कर भूसी चूनी निकाली और बालटी में घोल कर पाड़ी के सामने रखी. जब तक वह पीती रही, प्रेम से वह उस का माथा, पीठ सहलाता रहा. मुसीबत टली देख तारा ने चैन की सांस ली और बच्चों के बीच आ कर लेट गई.

कुछ दिनों तक पाड़ी को चराने, नहलाने और खिलाने के लिए बच्चे आपस में झगड़ते थे, पर धीरेधीरे यह काम भी तारा के जिम्मे आ गया. फार्म से दोपहर की छुट्टी में आती तो भूखप्यास से टूटी देह से कुएं से पानी खींचखींच कर उसे नहलाती. सामने गांजे का सुट्टा खींचते हुए सरजू लाट साहब की तरह बैठा रहता.

पहले कभीकभार ही ऐसा वक्त आ पड़ता था, जब घर में रोटी नहीं बनती थी. किंतु अब तो अकसर ही ऐसा हो जाता था, परिवार भले ही आधा पेट खा कर रहे, पर पाड़ी भूखी नहीं रहनी चाहिए, यह उस घर का कायदा बन गया था, क्योंकि पाड़ी सरजू को बच्चों से भी ज्यादा प्यारी थी.

3 सालों में पाड़ी बढ़ कर खूब हट्टीकट्टी भैंस बन गई थी. उस की कालीचिकनी चमड़ी दूर से ही चमकती थी. अब तक उसे गाभिन हो जाना चाहिए था, पर नहीं हुई थी.

आखिर सरजू एक दिन उसे जानवरों के डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने बताया, ‘‘इसे खुराक जरूरत से ज्यादा दी गई है, इसी से पेट पर चरबी चढ़ गई है. दाना कम दिया करो.’’

जब तारा को यह बात मालूम हुई, तो उदासी में भी उसे हंसी आ गई और सोचने लगी, ‘भूखे बच्चे दुबले होते जा रहे हैं और भैंस पर चरबी चढ़ गई.’

शायद सरजू भी यही कुछ सोच रहा था. तारा की मुसकान से वह चिढ़ गया. वह उसे घुड़क कर बोला, ‘‘इस में हंसने की क्या बात है? औरतें मोटी नहीं हो जाती हैं?’’

भैंस जब गाभिन हुई तो सरजू की ममता भरी चिंता देखते ही बनती थी. तारा को याद नहीं पड़ता था कि कभी गर्भ ठहरने पर उस की इतनी संभाल हुई हो.

आखिरकार वह दिन आ ही गया. घर में खुशी का माहौल था. तारा भी खुश नजर आ रही थी. यह दिन भी उस की जिंदगी में आएगा, इस का उसे यकीन नहीं था.

वह सोचने लगी, ‘बच्चे अब जी भर कर दूध पिया करेंगे. अभी एकाध महीना वह दूध नहीं बेचेगी. सरजू की देह भी टूटती जा रही है, गांजा गरम होता है, दूध पीना उस के लिए भी जरूरी है.’

10 दिन इसी तरह की खुशियों, उम्मीदों में गुजर गए. वह भी एक उदास धुंधली सांझ थी, जब सरजू के साथ 4 लोग भैंस के पास आ खड़े हुए…

सरजू ने झटपट उन लोगों के सामने भैंस दुही. दूध देख कर मोलभाव शुरू हुआ और देखते ही देखते भैंस और पाड़ा सरजू ने उन लोगों के हवाले कर दिए.

तारा के रोटी पकाते हाथ थम चुके थे. बच्चों को भी खबर लग चुकी थी. सब उदास मुख से चुपचाप भैंस को जाते देख रहे थे. उस रात रोटी पकी रखी रह गई, किसी से खाई नहीं गई. तारा की आंखों के सामने भैंस के आने का दिन घूम गया. उस दिन कितनी खुशी थी कि सब भूख भूल गए थे और आज कितनी उदासी कि रोटी पकी रखी रह गई.

सरजू को तो भैंस प्राणों से भी प्यारी थी, पर फिर ऐसा क्यों हुआ?

रात गए गांजे के नशे में चूर बहकते हुए कदमों से सरजू घर लौटा. उस वक्त तक तारा दरवाजे पर ही बैठी थी, उस का भी दिल नहीं हो रहा था.

बड़ी हिम्मत बटोर कर तारा ने पूछा, ‘‘क्या बात हो गई जो भैंस को बेच दिया?’’

‘‘तुम्हें इस से मतलब? हमारी चीज थी, हम ने बेच दी, तू कौन होती है पूछने वाली?’’

गांजे के नशे में सरजू अपने को बादशाह से कम नहीं समझता था. वह बड़बड़ाता जा रहा था, ‘‘फिर एक पाड़ी लाएंगे. 300 की पाड़ी आ जाएगी…

4 हजार की भैंस बिकेगी. कितने फायदे का सौदा है. इसे कहते हैं, व्यापार… तू क्या समझेगी?’’

तारा की आंखों में आंसू आ गए.

300 को 4 हजार बनाने में उस का और बच्चों का कितना खून लगा, पिछले 3 सालों में कितनी रातें भूखे, पेट रह कर काटी थीं. बच्चे कितने दुबले हो गए थे और वह खुद? खेतों में काम करतेकरते आंखों के सामने अंधेरा छा जाता था और रुपया? क्या रुपया रहेगा? जब तक हाथ में रुपया रहेगा, सरजू कामधंधा छोड़ कर गांजे और जुए में मस्त रहेगा.

सरजू बोलता जा रहा था, ‘‘अरी, इस व्यापार से तुझे रानी बना दूंगा… रानी. हां, बस जरा हंस कर बोला कर, हर वक्त मनहूस सूरत बना कर घूमती है तो जी जलता है. हां, खुश रहा कर. देख, मेरे पास कितना रुपया है. अब तुझे क्या चाहिए बोल, मैं कल ही खरीद दूंगा.’’

सरजू अपनी आवाज को भरसक मुलायम बना रहा था. मुलायम स्वर किस मतलब के लिए है, इसे समझते हुए उस ने एक गहरी सांस ले कर उदासी के पुराने कवच से अपने को दोबारा ढक लिया. वह सोचने लगी, ‘अब कुछ भी हो, उस पर कुछ असर नहीं होगा.’ Hindi Family Story

Hindi Funny Story: प्रेमी और प्रेमिका ध्यान दें

Hindi Funny Story: इस इश्तिहार के जरीए मैं अ ब स पुत्र, श्री क ख ग, गांव, पंचायत, तहसील, जिला त थ द अपने आसपास के शादी करने के इच्छुक तमाम प्रेमियों को सूचना देते हुए प्राउड फील कर रहा हूं कि मैं इस इश्तिहार से ठीक 15 दिन बाद कुमारी ट ठ ड, पुत्री श्रीमान य र ल, गांव, पंचायत, तहसील, जिला च छ ज के साथ शादी के बंधन में बंधने की हिमाकत करने जा रहा हूं.

याद रहे, 4 महीने पहले हमारी सगाई हो चुकी है, पर यह कोई गंभीर इश्यू नहीं है. सगाई ही हुई है, तबाही तो नहीं.

हालांकि, सगाई के वक्त मैं ने अपनी मंगेतर से मिलने पर यह नहीं पूछा था कि उसे खाना बनाना आता है कि नहीं. खाना बनाना नहीं आता तो कोई बात नहीं, बाहर से मंगवा लिया करेंगे.

यह भी नहीं पूछा था कि शादी के बाद वह मेरे मातापिता को अपने साथ रखेगी कि नहीं. शादी के बाद कौन बहू अपने सासससुर को अपने साथ रख कर खुश होती है?

मैं ने यह भी नहीं पूछा था कि वह घर के काम में मेरा हाथ बंटाएगी या नहीं, क्योंकि मुझे पता है शादी के बाद घर के सारे काम मुझे ही करने हैं.

पर मैं ने उस से यह जरूर पूछा था कि उस का कोई प्रेमी वगैरह है या नहीं? मैं अपनी मंगेतर के सारे नखरे उठा सकता हूं, पर उस के प्रेमी को शादी के बाद बिलकुल भी नहीं उठा सकता. उसे उठाने का मतलब अपनेआप दुनिया से उठा जाना है.

ऐसा नहीं है कि मैं ही अपनी मंगेतर की ओर से एतराज दायर करने का इश्तिहार दे रहा हूं. इस से पहले मेरी मंगेतर ने भी मुझ से शादी करने से पहले एक इश्तिहार दे कर मेरी प्रेमिकाओं के एतराज मांगे थे कि अगर जिस किसी से मैं प्रेम करता होऊं, उसे मेरी मंगेतर को मुझ से शादी करने में एतराज हो तो वह अपना एतराज तय सीमा के भीतर दर्ज करे. बेकार में मेरी तरह वह भी पंगे में नहीं पड़ना चाहती.

पर मैं खुश हूं कि मेरी किसी भी प्रेमिका ने इस बारे कोई एतराज दर्ज नहीं किया और मुझे क्लीन चिट दे दी. वजह, मैं ही सब से प्रेम करता था, कोई मुझ से प्रेम नहीं करती थी.

मैं मानता हूं कि किसी और चीज को ले कर पतिपत्नी में क्लियैरिटी हो या न, पर कम से कम शादी के बारे में दोनों में क्लियैरिटी होनी चाहिए, ताकि बाद में उन्हें एकदूसरे के प्रेमियों से मंदिर में जा कर अपने हाथों से उन का ब्याह करा कर अपने पतिपत्नी होने की जिम्मेदारी से बाप की तरह सिसकतेसिसकते मुक्त न होना पड़े.

मेरे इस हिमाकत भरे कदम पर अगर मेरे सुश्री ट ठ ड से शादी करने पर अगर उस के किसी प्रेमी को एतराज हो तो वह अखबार में इश्तिहार छपने के 10 दिनों के भीतर इश्तिहार में दिए मोबाइल नंबर पर मुझे फोन कर के या मुझ से पर्सनली मिल कर अपना एतराज दर्ज करा सकता है, ताकि मैं शादी के बाद किसी भी तरह की मुसीबत में न पड़ूं.

मैं यकीन दिलाता हूं कि प्रेमी के हर एतराज को सिरमाथे लिया जाएगा. मेरा यकीन कीजिए, मैं अपनी मंगेतर के प्रेमी के फायदे में शादी करने से साफ इनकार कर दूंगा.

अपनी प्रेमिका की शादी हो जाने के बाद भी अपनी प्रेमिका के साथ रहने के लिए तैयार उस के पति को मारने वाले प्रेमियों, मैं इस दुनिया में जीने आया हूं अपनी मंगेतर के प्रेमी के हाथों मरने नहीं. मैं समय से पहले मरना नहीं चाहता. मैं अपने बूढ़े मातापिता के साथ कुंआरा ही रह लूंगा, पर अपनी मंगेतर के प्रेमी के हाथों मरने का पंगा बिलकुल न लूंगा.

अगर 10 दिनों के भीतर किसी ने एतराज दर्ज नहीं किया तो मैं मान लूंगा कि मेरी मंगेतर का कोई प्रेमी नहीं है. फिर भी अगर कोई हो तो उस के बाद प्लीज अपने को कंट्रोल में रखे, क्योंकि मैं उस के बाद सौ फीसदी यह मान कर चलूंगा कि मेरी मंगेतर का केवल मैं ही एकलौता मंगेतर हूं. उस के बाद प्लीज, मुझे मारने की किसी को सुपारी न दें.

इस सिलसिले में मैं अपनी मंगेतर से भी आखिरी बार दोनों हाथ जोड़ कर अर्ज करता हूं कि अगर उस का कहीं और शादी करने का मन हो और किसी वजह से वह वहां शादी नहीं कर पा रही हो तो प्लीज मुझे बेझिझक बताए.

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. मैं उस के परिवार जनों से बात कर इस बारे में उस की मदद करने को तैयार हूं. बाद में किसी भी तरह का विवाद शादी के हक में मैं कतई नहीं चाहता.

मैं शादी कर के स्वर्ग चाहता हूं, नरक नहीं. कोई बात नहीं, मैं कहीं और ट्राई कर लूंगा. Hindi Funny Story

Hindi Kahani: तेंदूपत्ता – क्या था शर्मिष्ठा का असली सच

Hindi Kahani: शर्मिष्ठा ने कार को धीमा करते हुए ब्रैक लगाई. झटका लगने से सहयात्री सीट पर बैठी जेनिथ, जो ऊंघ रही थी, की आंखें खुल गईं, उस ने आंखें मिचका कर आसपास देखा. समुद्रतट के साथ लगते गांव का कुदरती नजारा. बड़ेबड़े, ऊंचेऊंचे नारियल और पाम के पेड़, सर्वत्र नयनाभिराम हरियाली.

‘‘आप का गांव आ गया?’’

‘‘लगता तो है.’’ सड़क के किनारे लगे मील के पत्थर को पढ़ते शर्मिष्ठा ने कहा. दोढाई फुट ऊंचे, आधे सफेद आधे पीले रंग से रंगे मील के पत्थर पर अंगरेजी और मलयाली भाषा में गांव का नाम और मील की संख्या लिखी थी.

‘‘यहां भाषा की समस्या होगी?’’ जेनिथ ने पूछा.

‘नहीं, सारे भारत में से केरल सर्वसाक्षर प्रदेश है. यहां अंगरेजी भाषा सब बोल और समझ लेते हैं. मलयाली भाषा के साथसाथ अंगरेजी भाषा में बोलचाल सामान्य है.’’

‘‘तुम यहां पहले कभी आई हो?’’

‘‘नहीं, यह मेरा जन्मस्थान है, ऐसा बताते हैं. मगर मैं ने होश अमेरिका की ईसाई मिशनरी में संभाला था.’’ शर्मिष्ठा ने कहा.

‘‘तुम्हारी मेरी जीवनगाथा बिलकुल एकसमान है.’’

कार से उतर कर दोनों ने इधरउधर देखा. चारों तरफ फैले लंबेचौड़े धान के खेतों में धान की मोटीभारी बालियां लिए ऊंचेऊंचे पौधे लहरा रहे थे.

समुद्र से उठती ठंडी हवा का स्पर्श मनमस्तिष्क को ताजा कर रहा था. धान के खेतों से लगते बड़ेबड़े गुच्छों से लदे केले के पेड़ भी दिख रहे थे.

एक वृद्ध लाठी टेकता उन के समीप से गुजरा.

‘‘बाबा, यहां गांव का रास्ता कौन सा है?’’ थोड़े संकोचभरे स्वर में शर्मिष्ठा ने अंगरेजी में पूछा.

लाठी टेक कर वृद्ध खड़ा हो गया, बोला, ‘‘आप यहां बाहर से आए हो?’’ साफसुथरी अंगरेजी में उस वृद्ध ने पूछा.

‘‘जी हां.’’

‘‘यहां किस से मिलना है?’’

‘‘कौयिम्मा नाम की एक स्त्री से.’’

‘‘वह नाथर है या नादर? इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक सवर्ण जाति की है, दूसरी दलित है. पहली, आजकल सरकारी डाकबंगले में मालिन है, खाली समय में तेंदूपत्ते तोड़ कर बीडि़यां बनाती है. दूसरी, मरणासन्न अवस्था में बिस्तर पर पड़ी है.’’

फिर उस वृद्ध ने उन को एक कच्चा वृत्ताकार रास्ता दिखाया जो सरकारी डाकबंगले को जाता था. दोनों ने उस वृद्ध, जिस का नाम जौन मिथाई था और जो धर्मांतरण कर के ईसाई बना था, का धन्यवाद किया.

कार मंथर गति से चलती, डगमगाती, कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ चली.

डाकबंगला अंगरेजों के जमाने का बना था व विशाल प्रागंण से घिरा था. चारदीवारी कहींकहीं से खस्ता थी. मगर एकमंजिली इमारत सदियों बाद भी पुख्ता थी. डाकबंगले का गेट भी पुराने जमाने की लकड़ी का बना था. गेट बंद था.

कार गेट के सामने रुकी. ‘‘यहां सुनसान है. दोपहर ढल रही है. यहां कहीं होटल होता?’’ जेनिथ ने कहा.

शर्मिष्ठा खामोश रही. उस ने कार से बाहर निकल डाकबंगले का गेट खोला और प्रागंण में झांका, सब तरफ सन्नाटा था.

एक सफेद सन के समान बालों वाली स्त्री एक क्यारी में खुरपी लिए गुड़ाई कर रही थी. उस ने सिर उठा कर शर्मिष्ठा की तरफ देखा और सधे स्वर में पूछा, ‘‘आप किस को देख रही हैं?’’

‘‘यहां कौन रहता है?’’

‘‘कोई नहीं. सरकारी डाकबंगला है. कभीकभी कोई सरकारी अफसर यहां दौरे पर आते हैं. तब उन के रहने का इंतजाम होता है,’’ वृद्ध स्त्री ने धीमेधीमे स्वर में कहा.

‘‘आप कौन हो?’’

‘मैं यहां मालिन हूं. कभीकभी खाना भी पकाना पड़ता है.’’

‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘मैं कौयिम्मा नाथर हूं’’

शर्मिष्ठा खामोश नजरों से क्यारी में सब्जियों की गुड़ाई करती वृद्धा को देखती रही.

उस को अपनी मां की तलाश थी. मगर उस का पूरा नाम उस को मालूम नहीं था. कौयिम्मा नाथर या कौयिम्मा नादर.

‘‘आप को यहां डाकबंगले में  ठहरना है?’’ वृद्धा ने हाथ में पकड़ी खुरपी को एक तरफ रखते हुए कहा.

‘‘यहां कोई होटल या धर्मशाला है?’’

‘‘नहीं, यहां कौन आता है?’’

‘‘खानेपीने का इंतजाम क्या है?’’

‘‘रसोईघर है, मगर खाली बरतन हैं. लकड़ी से जलने वाला चूल्हा है. गांव की हाट से सामान ला कर खाना पका देते हैं.’’

‘‘बिस्तर वगैरा?’’

‘‘उस का इंतजाम अच्छा है.’’

‘‘यहां का मैनेजर कौन है?’’

‘‘कोई नहीं, सरकारी रजिस्टर है. ठहरने वाला खुद ही रजिस्टर में अपना नाम, पता, मकसद सब दर्ज करता है,’’ वृद्धा साफसुथरी अंगरेजी बोल रही थी.

‘‘आप अच्छी अंगरेजी बोलती हैं. कितनी पढ़ीलिखी हैं?’’

‘‘यहां मिडिल क्लास तक का सरकारी स्कूल है. ज्यादा ऊंची कक्षा तक का होता तो ज्यादा पढ़ जाती,’’ वृद्धा ने अपने मात्र मिडिल कक्षा यानी 8वीं कक्षा तक ही पढ़ेलिखे होने पर जैसे अफसोस किया.

शर्मिष्ठा और उस की अमेरिकन साथी जेनिथ को मात्र 8वीं कक्षा तक पढ़ीलिखी स्त्री को इतनी साफसुथरी अंगरेजी बोलने पर आश्चर्य हुआ.

वृद्धा ने एक बड़ा कमरा खोल दिया. साफसुथरा डबलबैड, पुराने जमाने का

2 बड़ेबड़े पंखों वाला खटरखटर करता सीलिंग फैन, आबनूस की मेज, बेत की कुरसियां.

चंद मिनटों बाद 2 कप कौफी और चावल के बने नमकीन कुरमुरे की प्लेट लिए कौयिम्मा नाथर आई.

‘‘आप पैसा दे दो, मैं गांव की हाट से सामान ले आऊं.’’

शर्मिष्ठा ने उस को 500 रुपए का एक नोट थमा दिया. एक थैला उठाए कौयिम्मा नाथर सधे कदमों से हाट की तरफ चली गई.

कौयिम्मा नाथर अच्छी कुक थी. उस ने शाकाहारी और मांसाहारी भोजन पकाया. मीठा हलवा भी बनाया. खाना खा दोनों सो गईं.

शाम को दोनों घूमने निकलीं. कौयिम्मा नाथर साथसाथ चली. बड़े खुले प्रागंण में ऊंचेऊंचे कगूंरों वाला मंदिर था.

‘‘यह प्राचीन मंदिर है. यहां दलितों प्रवेश निषेध है.’’

थोड़ा आगे खपरैलों से बनी हौलनुमा एक बड़ी झोंपड़ी थी. उस के ऊपर बांस से बनी बड़ी बूर्जि थी. उस पर एक सलीब टंगी थी.

‘‘यह चर्च है. जिन दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता था, वे सम्मानजनक जीवन जीने के लिए हिंदू धर्म को छोड़ कर ईसाई बन गए. उन सब ने मिल कर यह चर्च बनाया. हर रविवार को ईसाइयों का एक बड़ा समूह यहां मोमबत्ती जलाने आता है,’’ कौयिम्मा नाथर के स्वर में धर्मपरिवर्तन के लिए विवश करने वालों के प्रति रोष झलक रहा था.

मंथर गति से चलती तीनों गांव घूमने लगीं. सारा गांव बेतरतीब बसा था. कहींकहीं पक्के मकान थे, कहींकहीं खपरैलों से बनी छोटीबड़ी झोंपडि़यां.

एक बड़े मकान के प्रागंण में थोड़ीथोड़ी दूरी पर छोटीछोटी झोंपडि़यां बनी थीं.

‘‘प्रागंण की ये झोंपडि़यां क्या नौकरों के लिए हैं?’’

‘‘नहीं, ये बेटी और जंवाई की झोंपड़ी कहलाती हैं.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘अधिकांश इलाके में मातृकुल का प्रचलन है. यहां बेटियों के पति घरजंवाई बन कर रहते आए हैं. अब इस परंपरा में धीरेधीरे परिवर्तन आ रहा है,’’ कौयिम्मा नाथर ने बताया.

‘‘मगर अलगअलग स्थानों पर झोंपडि़यां?’’

‘‘यहां बेटियां बहुतायत में होती हैं. आधा दर्जन या दर्जनभर बेटियां सामान्य बात है. शादी की रस्म साधारण सी है. जो पुरुष या लड़का, बेटी को पसंद आ जाता है उस से एक धोती लड़की को दिला दी जाती है. बस, वह उस की पत्नी बन जाती है.’’

‘‘और अगर संबंधविच्छेद करना हो तो?’’

‘‘वो भी एकदम सीधे ढंग से हो जाता है. पति का बिस्तर और चटाई लपेट कर झोंपड़ी के बाहर रख दी जाती है. पति संबंधविच्छेद हुआ समझा जाता है. वह चुपचाप अपना रास्ता पकड़ता है.’’

कौयिम्मा नाथर ने विद्रूपताभरे स्वर में कहा, ‘‘मानो, पति नहीं कोई खिलौना हो जिस को दिल भरते फेंक दिया जाता है.’’ वृद्धा ने आगे कहा, ‘‘मगर इस खिलौने की भी अपनी सामाजिक हैसियत है.’’

‘‘अच्छा, वह क्या?’’ जेनिथ, जो अब तक खामोश थी, ने पूछा.

‘‘मातृकुल परंपरा में भी पिता नाम के व्यक्ति का अपना स्थान है. समाज में अपना और संतान का सम्मान पाने के लिए किसी भद्र पुरुष की पत्नी होना या कहलाना जरूरी है.’’

शर्मिष्ठा और जेनिथ को कौयिम्मा नाथर का मंतव्य समझ आ रहा था.

‘‘आप का मतलब है कि स्त्री के गर्भ में पनप रहा बच्चा चाहे किसी असम्मानित व्यक्ति का हो मगर बच्चे को समाज में सम्मान पाने के लिए उस की माता का किसी सम्मानित पुरुष की पत्नी कहलाना जरूरी है,’’ जेनिथ ने कहा.

कौयिम्मा नाथर खामोश रही. शाम का धुंधलका गहरे अंधकार में बदल रहा था. तीनों डाकबंगले में लौट आईं.

अगली सुबह कौयिम्मा नाथर उन को नाश्ता करवाने के बाद तेंदूपत्ते की पत्तियां गोल करती, उन में तंबाकू भरती बीडि़यां बनाने बैठ गई. दोनों अपनेअपने कंधे पर कैमरा लटकाए गांव की तरफ निकलीं.

एक भारतीय लड़की और एक अंगरेज लड़की को गांव घूमते देखना ग्रामीणों के लिए सामान्य ही था. ऐसे पर्यटक वहां आतेजाते रहते थे.

चर्च का मुख्य पादरी अप्पा साहब बातूनी था. साथ ही, उस को गांव के सवर्ण या उच्च जाति वालों से खुंदक थी. सवर्ण जाति वालों के अनाचार और अपमान से त्रस्त हो कर उस ने धर्मपरिवर्तन कर ईसाईर् धर्म अपनाया था.

उस ने बताया कि कौयिम्मा नाथर एक सवर्ण जाति के परिवार से है जो गरीब परिवार था. गांव में सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन थी. जिस को आजादी से पहले तत्कालीन राजा के अधिकारी और कानूनगो ने जबरन गांव के अनेक परिवारों के नाम चढ़ा दी थी.

विवश हो उन परिवारों को खेती कर या मजदूरों से काम करवा कर राजा को लगान देना पड़ता था. एक बार लगान की वसूली के दौरान कानूनगो रास शंकरन की नजर नईनई जवान हुई कौयिम्मा नाथर पर पड़ी. उस ने उस को काबू कर लिया था.

जब उस को गर्भ ठहर गया तब कानूनगो ने कौयिम्मा को अपने एक कारिंदे कुरू कुनाल नाथर से धोती दिला दी थी. इस प्रकार कुरू नाथर कौयिम्मा का पति बन कर उस की झोंपड़ी में सोने लगा था.

जब कौयिम्मा नाथर को बेटी के रूप में एक संतान हो गई तब उस ने एक दोपहर कुरू कुनाल नाथर का बिस्तर और चटाई दरवाजे के बाहर रख दी. शाम को जब कुरू कुनाल नाथर लौटा तब उस को दरवाजा बंद मिला. तब वह चुपचाप अपना बिस्तर उठा किसी अन्य स्त्री को धोती देने चला गया.

बेटी का भविष्य भी मेरे ही समान न हो, इस आशय से कौयिम्मा नाथर ने एक रोज अपनी बेटी को ईसाई मिशनरी के अनाथालय में दे दिया था. वहां से वह बेटी केंद्रीय मिशनरी के अनाथालय में चली गई थी.

इतना वृतांत बताने के बाद पादरी खामोश हो गए. आगे की कहानी शर्मिष्ठा को मालूम थी. ईसाई मिशनरी के केंद्रीय अनाथालय से उस को अमेरिका में रहने वाले निसंतान दंपती ने गोद ले लिया था.

अब शर्मिष्ठा मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत थी. जब उस को पता चला था कि वह घोष दंपती की गोद ली संतान है तो वह अपने वास्तविक मातापिता का पता लगाने के लिए भारत चली आई.

माता का पता चल गया था. पिता दो थे. एक जिस ने माता को गर्भवती किया था. दूसरा, जिस ने माता को समाज में सम्मान बनाए रखने के लिए धोती दी थी.

अजीब विडंबनात्मक स्थिति थी. सारे गांव को मालूम था. कौयिम्मा नाथर का असल पति कौन था. धोती देने वाला कौन था. तब भी थोथा सम्मान थोथी मानप्रतिष्ठा.

रिटायर्ड कानूनगो बीमार पड़ा था. उस के बड़े हवेलीनुमा मकान में पुरुषों की संख्या की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या काफी ज्यादा थी. अपने सेवाकाल में पद के रोब में कानूनगो ने पता नहीं कितनी स्त्रियों को अपना शिकार बनाया था. बाद में बच्चे की वैध संतान कहलाने के लिए उस स्त्री को किसी जरूरतमंद से धोती दिला दी थी.

बाद में वही संतान अगर लड़की हुई, तो उस को बड़ी होने पर कोई प्रभावशाली भोगता और बाद में उस को धोती दिला दी जाती.

यह बहाना बना कर कि वे दोनों पुराने जमाने की हवेलियों पर पुस्तक लिख रही हैं, शर्मिष्ठा और जेनिथ हवेली और उस के कामुक मालिक को देख कर वापस लौट गईं.

धोती देने वाला पिता मंदिर के प्रागंण में बने एक कमरे में आश्रय लिए पड़ा था. उस को मंदिर से रोजाना भात और तरकारी मिल जाती थी. उस की इस स्थिति को देख कर शर्मिष्ठा दुखी हुई. मगर वह क्या कर सकती थी. दोनों चुपचाप डाकबंगले में लौट आईं.

दोनों पिताओं में किसी को भी शर्मिष्ठा अपना पिता नहीं कह सकती थी. मगर क्या माता उस को स्वीकार कर अपनी बेटी कहेगी? यह देखना था.

‘‘मुझे अपनी मां को पाना है, वे इसी गांव की निवासी हैं, क्या आप मदद कर सकती हैं?’’ अगली सुबह नाश्ता करते शर्मिष्ठा ने वृद्धा से सीधा सवाल किया.

‘‘उस का नाम क्या है?’’

‘‘कौयिम्मा.’’

‘‘नाथर या नादर?’’

‘‘मालूम नहीं. बस, इतना मालूम है कि कौयिम्मा है. उस ने मुझे यहां कि ईसाई मिशनरी के अनाथालय में डाल दिया था.’’

‘‘अब आप कहां रहती हो?’’

‘‘मैं अमेरिका में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में हूं. मुझे गोद लेने वाले मातापिता अमीर और प्रतिष्ठित हैं.’’

‘‘मां को ढूंढ़ कर क्या करोगी?’’

‘‘मां, मां होती है.’’

बेटी के इन शब्दों को सुन कर मां की आंखें भर आईं, वह मुंह फेर कर बाहर चली आई. रसोई में काम करते कौयिम्मा सोच रही थी, क्या करे, क्या उस को बताए कि वह उस की मां थी. मगर ऐसे में उस का भविष्य नहीं बिगड़ जाएगा.

अनाथालय ने ब्लैकहोल के समान शर्मिष्ठा के बैकग्राउंड, उस के अतीत को चूस कर उस को सिर्फ एक अनाथ की संज्ञा दे दी थी. जिस का न कोई धर्म था न कोई जाति या वर्ग. वहां वह सिर्फ एक अनाथ थी.

अब वह एक सम्मानित परिवार की बेटी थी. वैल स्टैंड थी. कौयिम्मा नाथर द्वारा यह स्वीकार करने पर कि वह उस कि मां थी, उस पर एक अवैध संतान होने का धब्बा लग सकता था.

एक निश्चय कर कौयिम्मा नाथर रसोई से बाहर आई. ‘‘मेम साहब,

आप को शायद गलतफहमी हो गई है. इस गांव में 2 कौयिम्मा हैं. एक मैं कौयिम्मा नाथर, दूसरी कौयिम्मा नादर. दोनों ही अविवाहित हैं. आप ने गांव कौन सा बताया है?’’

‘‘अप्पा नाडू.’’

‘‘यहां 3 गांवों के नाम अप्पा नाडू हैं. 2 यहां से अगली तहसील में पड़ते हैं. वहां पता करें.’’

शर्मिष्ठा खामोश थी. जेनिथ भी खामोश थी. मां बेटी को अपनी बेटी स्वीकार नहीं कर रही थी. कारण? कहीं उस का भविष्य न बिगड़ जाए. पिता को पिता कैसे कहे? कौन से पिता को पिता कहे.

कार में बैठने से पहले एक नोटों का बंडल बिना गिने बख्शिश के तौर पर शर्मिष्ठा ने अपनी जननी को थमाया और उस को प्रणाम कर कार में बैठ गई. कार वापस मुड़ गई.

‘‘कोई मां इतनी त्यागमयी भी होती है?’’ जेनिथ ने कहा.

‘‘मां मां होती है,’’ अश्रुपूरित नेत्रों से शर्मिष्ठा ने कहा. कार गति पकड़ती जा रही थी. Hindi Kahani

News Story: खौफनाक दांत

News Story: यह छोटा सा होटल शहर से दूर था. आज विजय और अनामिका दोपहर से ही यहीं पर थे. लंच से ले कर डिनर तक. इस बीच उन दोनों ने भरपूर प्यार भी किया था. फिलहाल वे दोनों बिस्तर पर लेटे हुए थे. डिनर हो चुका था और थोड़ी देर बाद वे अपनेअपने घर जाने वाले थे.

रात के 9 बजे वे दोनों होटल से बाहर निकले. विजय बोला, ‘‘मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं. यह सड़क थोड़ी सुनसान लगती है.’’

‘‘अरे, तुम क्यों तकलीफ करते हो. मैं अकेले ही चली जाऊंगी. मैं ने रैपिडो बाइक बुला ली है. बाइक वाले ने कहा था कि वह इस बड़ी सड़क से दूसरी तरफ खड़ा मिलेगा. 2 मिनट का ही तो रास्ता है. तुम निकलो. सुबह लाइब्रेरी में मिलते हैं, ठीक 8 बजे,’’ अनामिका ने विजय के होंठों को चूमते हुए कहा.

विजय ने अनामिका को ‘बाय’ कहा और बाइक स्टार्ट करने लगा.

अनामिका सड़क के दूसरी तरफ चलने लगी. अभी वह कुछ ही दूर गई थी कि अचानक रात के अंधेरे से कुछ आवारा कुत्ते निकल आए. वे भौंक नहीं रहे थे, बल्कि अनामिका को देख कर गुर्रा रहे थे.

अनामिका संभलती, उस से पहले ही एक कुत्ते ने उस पर हमला कर दिया. पीछे हटने की हड़बड़ाहट में अनामिका गिर गई और उस के बाद कई कुत्ते उस पर झपट पड़े.

अनामिका ने होश नहीं खोया, बल्कि एक हाथ में कस कर बैग पकड़ कर उस ने कुत्तों को मारना शुरू किया और दूसरे हाथ से मोबाइल पर विजय का नंबर डायल कर दिया.

विजय ने फोन उठाया तो उसे अनामिका की दबी सी आवाज आई, ‘‘जल्दी आओ, मुझ पर कुछ कुत्ते झपट पड़े हैं.’’

विजय को लगा कि अनामिका कुछ बदमाशों को ‘कुत्ता’ कह रही है और उस की इज्जत पर आंच आई है. उस ने जल्दी से अपनी बाइक मोड़ी और तेज रफ्तार से अनामिका की तरफ बढ़ गया.

इस बीच रैपीडो बाइक वाला लड़का भी वहां आ गया था. उस ने शोर मचा कर कुत्तों को भगाना चाहा, पर वे कुत्ते उस पर भी झपटने लगे, लेकिन काट नहीं पाए.

इस बीच अनामिका को थोड़ा समय मिल गया और वह किसी तरह उठ कर वहां से जाने लगी. उसे कुत्तों ने काट खाया था. वह दर्द से तड़प रही थी.

तभी विजय वहां आ गया और उस ने झट से अनामिका को अपनी बाइक पर बिठाया और पास के प्राइवेट अस्पताल की तरफ चल दिया. तब तक रैपीडो बाइक वाला भी वहां से निकल गया था.

अस्पताल में डाक्टर ने अनामिका के जख्म देख कर कहा, ‘‘आवारा कुत्तों के खौफनाक दांतों का कहर बढ़ने लगा है. अब तो इस तरह के केस बढ़ने लगे हैं. आप चिंता मत करें. हम रेबीज का टीका लगा देंगे और आप के घाव अच्छे से साफ कर देंगे.’’

‘‘डाक्टर साहब, मैं तो कहता हूं कि आवारा कुत्तों के साथसाथ उन कुत्तों पर भी बैन लगना चाहिए, जिन्हें लोग अपने घरों में पालते हैं. मैं ने कुछ वीडियो देखे हैं, जिन में आवारा कुत्ते ही नहीं, बल्कि पालतू कुत्ते भी अचानक से किसी पर भी हमला कर देते हैं. कुत्तों की कुछ नस्लें तो इतनी ज्यादा खतरनाक हैं कि अगर वे बिदक जाएं, तो अपने मालिक को भी काटने से गुरेज नहीं करती हैं,’’ विजय बोला.

‘‘बात सिर्फ कुत्तों के काटने की नहीं है, बल्कि उन से होने वाले लाइलाज रोग रेबीज की भी है. जिसे होता है वह तो अपनी जान से जाता ही है, दूसरों में भी दहशत हो जाती है,’’

डाक्टर के पास खड़ी एक नर्स ने कहा.

‘‘पर डाक्टर साहब, यह रेबीज बला क्या है?’’ विजय ने सवाल किया.

डाक्टर ने बताया, ‘‘आसान भाषा में समझें तो रेबीज एक खतरनाक वायरस है जो कुत्ते, लोमड़ी, बंदर या बिल्ली जैसे जानवरों के काटने से फैल सकता है. अगर किसी इनसान के घाव पर संक्रमित जानवर की लार लग जाए, तो वह रेबीज से संक्रमित हो सकता है. इस का एक ही इलाज है कि तुरंत रेबीज से बचाव का टीका लगवाएं.

‘‘आप को बता दूं कि उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में रेबीज संक्रमण फैलने से एक मासूम की मौत हो गई थी. कुत्ते द्वारा उस का घाव चाटने के कुछ दिनों बाद 2 साल के अदनान की जान चली गई थी. इस घटना के बाद पूरे गांव में दहशत फैल गई थी. यह एक मामला नहीं है, बल्कि हर जगह से ऐसी खबरें आती रहती हैं.’’

‘‘रेबीज से पीडि़त कुत्ते की पहचान क्या होती है?’’ विजय ने दूसरा सवाल किया.

‘‘रेबीज से पीडि़त कुत्ते की पहचान कुछ साफसाफ लक्षणों से होती है, जैसे बिना उकसाए बारबार काटना, आवाज बदलना या भौंकने में दिक्कत, मुंह से झाग निकलना, अजीब चाल, गिरनालड़खड़ाना, इलाके को न पहचान पाना, जबड़ा ढीला होना, आंखों में खालीपन और अजीबोगरीब बरताव.

‘‘अगर कोई कुत्ता रेबीज से संक्रमित होता है, तो वह सिर्फ इनसानों को नहीं, बल्कि किसी भी चीज को काट सकता है. ऐसे कुत्तों का जीवनकाल बहुत छोटा होता है,’’ डाक्टर ने बताया.

‘‘मैं ने भी एक खबर पढ़ी थी कि किस तरह आवारा कुत्तों का खौफ दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी बढ़ गया है.

‘‘उस खबर के मुताबिक, गलीमहल्ले में आवारा कुत्तों के बढ़ते आतंक को ले कर केंद्रीय मंत्री रह चुके और लोक अभियान के अध्यक्ष विजय गोयल ने 15 मार्च, 2023 को जंतरमंतर पर धरना भी दिया था. उन्होंने तब कहा था कि कुत्तों के डर से लोग पार्कों और गलियों में नहीं जा सकते हैं. उन्होंने बताया कि 28 फरवरी, 2023 को उन्होंने इसे ले कर उपराज्यपाल को चिट्ठी भी लिखी थी,’’ विजय बोला.

‘‘पर डाक्टर साहब, आवारा कुत्तों के आक्रामक होने की वजहें क्या होती हैं?’’ इस बार अनामिका ने डाक्टर से सवाल किया.

‘‘आवारा कुत्तों के आक्रामक बरताव की कई वजहें हैं. अगर ऐसे कुत्तों को लगता है कि कोई शख्स उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है, तो वे उस पर हमला कर सकते हैं. आवारा कुत्तों के निशाने पर बच्चे और बुजुर्ग ही होते हैं. जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, वे उन पर हमला कर देते हैं. इस के अलावा कुत्तों के इलाकों में कोई जाता है, तो भी उन्हें अटपटा लगता है और वे लोगों पर हमला कर देते हैं.

‘‘अगर आप को आवारा कुत्ते देखते ही भौंकने लगें, तो आप सतर्क हो जाएं. इस के अलावा अगर कोई आवारा कुत्ता परेशान सा घूम रहा हो, तो भी सतर्क हो जाएं. अगर बच्चे बाहर खेलने जाएं, तो वहां किसी बड़े को भी जरूर होना चाहिए,’’ डाक्टर ने बताया.

‘‘यही वजह है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. आवारा कुत्ते रेबीज की बढ़ती घटनाओं की बड़ी वजहों में से एक हैं और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर चिंता जताई है.

‘‘रेबीज और आवारा कुत्तों की समस्या दुनियाभर में है. इस को ले कर सब से अहम सवाल यह उठता है कि भारत और दुनियाभर में आवारा कुत्तों पर काबू पाने के लिए किस तरह की नीति का पालन किया जाता है?

‘‘वर्ल्ड हैल्थ और्गेनाइजेशन का कहना है कि भारत में रेबीज के असली आंकड़ों की जानकारी नहीं है, लेकिन मुहैया जानकारी के मुताबिक, हर साल इस से 18 हजार से 20 हजार मौतें होती हैं.

‘‘सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में साल 2024 में रेबीज से 54 मौतें दर्ज की गईं, जो साल 2023 में दर्ज 50 मौतों से ज्यादा थीं,’’ विजय ने बताया.

यह सुन कर नर्स बोली, ‘‘जस्टिस विक्रम नाथ ने कहा था कि इस समस्या की सब से बड़ी वजह जिम्मेदार महकमों की लापरवाही है. लोकल अथौरिटी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी.’’

विजय ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘11 अगस्त, 2025 को जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की 2 जजों वाली खंडपीठ ने आवारा कुत्तों से जुड़े मसले पर फैसला सुनाते हुए सख्त निर्देश दिया था कि पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2023 (एबीसी नियम) के तहत एक बार पकड़े जाने और नसबंदी किए जाने के बाद आवारा कुत्तों को उन के इलाकों में वापस नहीं छोड़ा जाना चाहिए.

‘‘इस के बाद देशभर में डौग लवर्स ने एक मुहिम चलाई कि यह आवारा कुत्तों के साथ नाइंसाफी है. हर कुत्ते को शहर में या कहीं भी इनसान के साथ रहने का हक है.

‘‘इस दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले आदेश में बदलाव करते हुए नया निर्देश दिया कि दिल्ली में सभी आवारा कुत्तों को पकड़ कर नसबंदी और टीकाकरण किया जाएगा. उन्हें जहां से उठाया गया है, वहीं छोड़ दिया जाएगा.

‘‘रेबीज से संक्रमित और आक्रामक कुत्तों को सड़क पर नहीं छोड़ा जाएगा. इस के अलावा नगरनिगम को कुत्तों के लिए अलग फीडिंग पौइंट बनाने होंगे और सड़क या सार्वजनिक जगहों पर खाना खिलाना मना रहेगा. यह आदेश पूरे देश में लागू होगा.

‘‘आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता का कहना है कि यह फैसला जनता को राहत देने वाला है और सरकार ईमानदारी से इस समस्या का समाधान करेगी.

‘‘दूसरी ओर दिल्ली के मेयर इकबाल सिंह ने बताया है कि दिल्ली नगरनिगम के पास कोई शैल्टर होम नहीं हैं. हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि दिल्ली नगरनिगम के पास 10 नसबंदी केंद्र हैं, जिन्हें बढ़ाया जा सकता है और कुछ शैल्टर होम बनाए जाएंगे.’’

‘‘यह तो सरकारी काम हुआ न. पर क्या इस से आवारा कुत्तों की समस्या से छुटकारा मिल जाएगा? क्या दिल्ली जैसे बड़े शहर आवारा पशुओं के रहने लायक बचे हैं? कुत्तों के साथसाथ गाय और सांड़ भी खुलेआम सड़कों पर घूमते दिखते हैं. कई बार तो उन्हें बचाने के चक्कर में सड़क पर हादसे भी हो जाते हैं.

2 सांड़ों की लड़ाई में कोई बेकुसूर इनसान भी घायल हो जाता है,’’ अनामिका ने अपनी बात रखी.

इस पर विजय ने कहा, ‘‘तुम सही कहती हो. दिल्ली जैसे शहर जहां हर जगह कंक्रीट की सड़कें बन गई हैं, वहां आवारा कुत्तों का रहना ही सब से बड़ी समस्या बन गया है. वे सड़कों पर ही गंदगी करते हैं, जिस से लोगों का चलना तक दूभर हो जाता है. रात को उन के भौंकने से नींद में खलल पड़ता है. पार्कों में भी आवारा कुत्ते घूमते रहते हैं.

‘‘यही समस्या कुत्ते पालने वालों के साथ भी है. पहले घर ज्यादा मंजिला नहीं होते थे, तो उन्हें संभालना इतना मुश्किल नहीं था, पर अब बहुमंजिला इमारतों का जमाना है. अपार्टमैंट्स कल्चर में हमें अपनी सुविधा के साथसाथ दूसरों की सहूलियत भी देखनी पड़ती है.

‘‘पर लोग समझते ही नहीं हैं. वे अपने कुत्तों को टहलाने के बहाने कहीं भी गंदगी करा देते हैं और साफ भी नहीं करते हैं. इस बात पर आएदिन उन का दूसरों के साथ झगड़ा होता है.

‘‘कई बार तो लोग लिफ्ट से अपने पालतू कुत्ते को ले जाते हैं. क्या लिफ्ट पालतू कुत्तों के लिए बनी है? बिलकुल नहीं, पर वे इसे अपना हक समझते हैं और जब कुत्ता किसी को काट ले, तो वे पीडि़त पर ही दोष लगाते हैं कि तुम बाद में लिफ्ट में आ जाते.’’

डाक्टर ने अनामिका को रेबीज का टीका लगा दिया था और जख्मों पर मरहमपट्टी भी कर दी थी. उन्होंने कहा, ‘‘एक बात और यह कि दिल्ली और एनसीआर क्षेत्र में तकरीबन 10 लाख आवारा कुत्ते हैं, इसलिए सभी के लिए तय फीडिंग स्पौट बनाना बहुत मुश्किल काम है.

‘‘इन हालात में जरूरी है कि नगरनिगम, एनजीओ और ऐक्टिविस्ट मिल कर ऐसे समाधान खोजें, जो आवारा जानवरों के फायदे में हों और साथ ही प्रशासन के लिए भी अपना काम करना आसान हो जाए.

‘‘केवल आपसी सहयोग और समझदारी से ही यह समस्या हल हो सकेगी. वैसे भी कुत्ते हमारे दुश्मन
नहीं है, बल्कि ये बहुत प्यारे होते हैं और सदियों से इनसान के साथ रहते आए हैं.’’ News Story

Hindi Story: खन्नाजी की शहादत

Hindi Story: खन्नाजी खुद में जीने वाले आदमी थे. दुनिया से उन का कोई ज्यादा वास्ता न था. न उन्हें दुनिया से ज्यादा मतलब था और न ही दुनिया को उन से. सब उन्हें ‘खन्नाजी’ के नाम से ही जानते थे. उन का असली नाम क्या था, महल्ले के ‘काने कौए’ को भी नहीं पता था.

असल में उन का असली नाम जानने की कभी किसी को जरूरत ही नहीं पड़ी. न खन्नाजी कभी किसी को अपने घर बुलाते थे, न कोई खन्नाजी को.

खन्नाजी की खासीयत यह थी कि वे सरकारी सेवा में थे, वह भी केंद्र सरकार की. हां जी, वे रेलवे के डाक महकमे में थे. इस महकमे को बोलचाल की भाषा में ‘आरएमएस’ के नाम से जाना जाता है.

खन्नाजी की एक और खासीयत यह थी कि वे जरूरत से ज्यादा अंधविश्वासी और टोनेटोटकों में यकीन करने वाले थे.

खन्नाजी जब इस शहर में आए थे, तब वे शादीशुदा और बालबच्चेदार थे. मतलब उन की एक सगी पत्नी और एक बेटी थी. उन की पत्नी का नाम जानना जरूरी नहीं है, क्योंकि वे बहुत जल्दी हम से विदा लेने वाली हैं. हां, बेटी का नाम उर्मिला है और उस का नाम जानना जरूरी है, क्योंकि वह आखिर तक हमारे साथ रहने वाली है.

हां जी, जैसे बताया जा चुका है, खन्नाजी की पत्नी एक दिन बाकायदा चली गईं यानी अपने प्रेमी के साथ फुर्र हो गईं. आप सोच रहे होंगे कि खन्नाजी इस से खासे परेशान हुए होंगे, तो जनाब आप को बता दूं कि इस से खन्नाजी की सेहत पर रत्तीभर फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने अपनी पत्नी को ढूंढ़ने तक की भी जहमत न उठाई.

खन्नाजी सुबह उठ कर उर्मिला को स्कूल छोड़ कर खुद औफिस चले गए. वैसे, उन की पत्नी जेवर और रुपयापैसा ले कर भागी थीं, तो भी उन्होंने इस की रिपोर्ट थाने में दर्ज नहीं कराई, मानो सबकुछ आपसी रजामंदी से हुआ हो.

महल्ले वालों को तो कई दिनों के बाद खन्नाजी की पत्नी के भागने का पता चला. महल्ले वालों से संबंध न रखने का यह भी खास फायदा है कि मतलब न रखो तो उन्हें ऐसी खास बातों का पता ही नहीं चलता, जिन पर चटकारे लिए जा सकें. सामने अफसोस और पीछे हंसा जा सके.

खन्नाजी का कोई सगा रिश्तेदार भी हमदर्दी जताने नहीं आया. किसी को कोई जानकारी भी नहीं थी कि खन्नाजी का कोई रिश्तेदार है भी कि नहीं.

किसी को यह उम्मीद भी नहीं थी कि खन्नाजी जैसे आदमी का कोई रिश्तेदार होता भी होगा.

खैर, खन्नाजी को किसी की हमदर्दी की जरूरत थी भी नहीं. इस बात को आप अब तक समझ ही गए होंगे. खन्नाजी को इज्जत और बेइज्जती की कोई फिक्र नहीं थी. वे इन दोनों बातों से बहुत पहले ही बहुत ऊपर उठ चुके थे. कोई उन के बारे में क्या कहता है, उन की बला से.

खन्नाजी अपने सुखदुख के खुद साथी थे, इसलिए आप उन को हरदम बड़बड़ाते हुए और बेवजह मुसकराते हुए देख सकते थे. यह उन का पागलपन नहीं, बल्कि अपने दुखसुख बांटने के अजबगजब तरीके थे.

सचमुच ऐसे लोग धरती पर बहुत कम हैं, जो अपने दुखों को किसी के संग बांट कर बेवजह किसी को पीड़ा नहीं देते. नहीं तो आज की तारीख में किसी से बात करो, कुछ ही देर में वह अपना दुखड़ा रोने लगता है.

वैसे, आप यह कतई मत सोचिए कि खन्नाजी की पत्नी भाग गईं, तो दूसरी आईं नहीं. सरकारी नौकरी के यही तो फायदे हैं. आमदनी का पक्का जरीया.

खन्नाजी को अच्छीखासी मासिक तनख्वाह मिलती थी, फिर उन्हें बीवियों का अकाल कैसे सता सकता था? कुछ ही दिनों में खन्नाजी फिर शादीशुदा हो गए. दूसरी बीवी आईं बाद में, भाग पहले गईं. मतलब जितनी जल्दी आई थीं, उतनी ही जल्दी वे चली भी गईं, मानो कोई मेहमानदारी निभाने आई हों.

लेकिन कमाल देखिए, खन्नाजी के चेहरे पर इस बार भी जरा सी शिकन नहीं. उन्हें अपनी सरकारी नौकरी पर पूरा भरोसा था कि जब तक उन के पास यह ‘पारस पत्थर’ है तब तक पत्नियां आती रहेंगी. एक ढूंढ़ेंगे, चार मिलेंगीं.

तीसरी पत्नी हाजिर. लेकिन जैसे खन्नाजी की सरकारी नौकरी पक्की थी वैसे ही यह घरवाली भी पक्की निकली. चट्टान की तरह अचल. खन्नाजी हैरान. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि उन्हें इतनी टिकाऊ पत्नी भी मिल सकती है.

लेकिन टिकाऊ पत्नी के साइड इफैक्ट भी टिकाऊ थे. खन्नाजी की पूरी तनख्वाह उन की तीसरी पत्नी राजबाला के हाथों में पहली तारीख को ही आ जाती थी.

राजबाला ने घर को अच्छे से संभाल लिया. घर क्या संभाल लिया, पूरा राजपाट ही अपने हाथ में ले लिया. खन्नाजी अब 2 जगह नौकरी बजाने लगे, एक औफिस में और दूसरी घर पर. घर के हिसाबकिताब से उन्हें कोई लेनादेना नहीं था. हां, कभी पैसे दे कर उन से कोई सामान मंगवाया जाता, तो उस का पाईपाई का हिसाब उन्हें राजबाला को देना होता था. उन की पासबुक, चैकबुक और एटीएम कार्ड पर राजबाला का कब्जा था.

खन्नाजी कीपैड वाला मोबाइल इस्तेमाल करते थे और राजबाला स्मार्ट फोन. औनलाइन शौपिंग में भी राजबाला माहिर हो गई थीं.

धीरेधीरे राजबाला खन्नाजी के कान उमेठना भी सीख गईं. कभीकभी वे उन की पिटाई भी कर देती थीं, तो वे उसे ‘पत्नी का प्रसाद’ समझ कर खा लिया करते थे.

राजबाला हमेशा सोचती थीं कि खन्नाजी की पहली वाली दोनों पत्नियां कितनी बेवकूफ थीं, जो इतने आज्ञाकारी पति को छोड़ कर चली गईं. आखिर सोने का अंडा देने वाली मुरगी को भी कोई छोड़ कर जाता है क्या?

आखिरकार राजबाला को संतान सुख हुआ और उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया. उस का नाम रखा गया दिवाकर. वैसे वे उर्मिला को भी बेटी की तरह ही प्यार करती थीं. मांबेटी में बहुत अच्छे से पटती थी, क्योंकि दोनों ही खन्नाजी को बेवकूफ समझती थीं.

खन्नाजी को इन बातों से कोई मतलब नहीं था, कोई उन को क्या समझाता था. उन की जिंदगी उन के हिसाब से बढि़या चल रही थी. बच्चे बड़े होने लगे तो खन्नाजी बुढ़ाने लगे.

बुढ़ाने का मतलब केवल इतना सा है कि उन के कुछ बालों पर सफेदी आ गई, लेकिन उन की कदकाठी को देख कर यही लगता था ‘अभी तो मैं जवान हूं’.

खन्नाजी ने अपनी सारी जिंदगी किराए के मकान में निकाल दी थी, क्योंकि उन की पत्नियों को उन से ज्यादा लगाव उन की तनख्वाह से रहा था, इसलिए वे कभी मकान खरीदने या बनाने का सपना नहीं देख पाए थे.

तभी कोरोना की दूसरी लहर आ गई. वैसे तो खन्नाजी हमेशा मास्क लगा कर रखते थे, पर नाक के नीचे. फिर कोरोनाजी खन्नाजी को कहां छोड़ने वाले थे. उस ने एक दिन खन्नाजी को धरदबोचा और अजगर की तरह बढि़या से लपेट लिया.

खन्नाजी ने ‘खोंखों’ करना शुरू किया, तो राजबाला ने उन्हें अलग कमरे में डाल दिया. खन्नाजी के रिटायरमैंट में अभी 4 साल बाकी थे.

राजबाला के दिमाग में एक बढि़या विचार आया. उन्होंने फर्रुखाबाद से अपने भाई को बुला कर उस से सलाहमशवरा किया. सलाहमशवरा अव्वल दर्जे का था जैसे साहित्य में अव्वल दर्जे की ‘क्लासिकल रचनाएं’ होती हैं.

तो भाई, सलाहमशवरे का असर यह हुआ कि खन्नाजी को अस्पताल तब ले जाया गया, जब उन में कुछ ही सांसें ही बची थीं. अस्पताल वालों ने उन की बचीखुची सांसें ले कर उन की डैड बौडी को बढि़या से पैक कर के वापस कर दिया.

जब राजबाला और उन का भाई खन्नाजी की डैड बौडी को वापस ला रहे थे, तो वे अंदर से मुसकरा और बाहर से बेतरतीब रो रहे थे.

आप सोच रहे होंगे बेचारे खन्नाजी दुनिया से यों ही चले गए. नहीं भाई नहीं, कोरोना में खन्नाजी की शहादत बहुत काम आई.

श्रीमती खन्नाजी यानी राजबाला की पैंशन बन गई और रेलवे ने दिवाकर को बालिग होने पर कोटे से खन्नाजी की जगह नौकरी देने का वचन दिया. बहनभाई का सलाहमशवरा सौ फीसदी कामयाब रहा.

इस का मतलब यह नहीं कि राजबाला ने खन्नाजी के गुजर जाने पर उन की शहादत पर कुछ किया ही न हो. उन की तेरहवीं धूमधाम से मनाई गई. सब को बढि़या पकवान खिलाए गए. हम भी मेवे वाली खीर और रसगुल्ले डकोस कर आए. खन्नाजी की शहादत सच में शानदार रही. Hindi Story

Long Hindi Story: बस खाली करो – आखिरी भाग

Long Hindi Story, लेखक – सैयद परवेज

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था: हसामुद्दीन बस में यह सोच कर बैठा कि आज कनाट प्लेस घूमने जाएगा. बस में भीड़ थी. पर उसे सीट मिल गई. बस में एक ट्रांसजैंडर चढ़ी, जिस को ले कर लोगों ने बातें बनाई फिर 2 जेबकतरे टाइप लड़के बस में हुड़दंग करने लगे. जब वे उतरे तो जैसे बस वालो ने चैन की सांस ली. अब पढि़ए आगे…

उस लड़के ने बात तो ठीक कही थी. इस जमाने में पैसे कीमत ही कहां है. महंगाई के दौर में आम आदमी की जिंदगी कितनी मुश्किल हो गई है.

उन दोनों लड़कों के उतरने पर बस कंडक्टर ने सवारियों से कहा, ‘‘ये दोनों जेबकतरे थे. इन से कौन बहस करे…’’

बस कंडक्टर ने एक बात और कही, ‘‘शनिवार के दिन दिल्ली की बसों में किसी की जेब नहीं कटती है.’’

हसामुद्दीन की बाईं तरफ एक सीट छोड़ कर एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा था.

हसामुद्दीन ने उस आदमी से कहा, ‘‘ये लड़के पहले ऐसे नहीं होंगे, जैसा हम ने इन्हें फिलहाल देखा है.

किसी के हालात उसे क्या से क्या बना देते हैं. मुझे लगा कि मैं ने एक लड़के को कहीं देखा है. जन्म से कोई बुरा या अच्छा नहीं होता है. अच्छा या बुरा बनने में भी समय लगता है. यह समाज उसे अच्छा या बुरा बनाता है.

उस अधेड़ आदमी ने हसामुद्दीन की तरफ देख कर कहा, ‘‘आप की बात तो ठीक है, पर बच्चे समझते कहां हैं…’’

हसामुद्दीन ने उस आदमी से पूछा, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘केंद्रीय सचिवालय.’’

‘‘क्या आप सरकारी नौकरी में हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘नहीं… एक क्लब है, वहीं पर काम करता हूं.’’

‘‘आप कब से वहां काम कर रहे हैं?’’ हसामुद्दीन ने पूछा.

उस आदमी ने कहा, ‘‘तकरीबन पिछले 3 साल से.’’

‘‘बड़ा क्लब है?’’ हसामुद्दीन ने पूछा.

‘‘हां. उस क्लब में बहुत से लोग काम करते हैं, लेकिन सब ठेकेदारी पर हैं.’’

‘‘आप पहले कहां काम करते थे?’’

‘‘साउथ ऐक्सटैंशन में एक होटल है, मैं वहीं पर कुक था.’’

हसामुद्दीन ने पूछा, ‘‘आप ने कितने साल वहां काम किया?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘25 साल से ज्यादा ही.’’

‘‘फिर तो आप को वह काम छोड़ना नहीं चाहिए था.’’

‘‘क्या करें, मालिक ने लौकडाउन का फायदा उठाते हुए एकदम से 18 लोगों को निकाल दिया, जिन में मैं भी शामिल था.’’

‘‘वहां पर तो आप परमानैंट होंगे?’’

‘‘हां, छुट्टियां भी मिलती थीं. अभी भी वहां पर बहुत लोग काम करते हैं, लेकिन सब ठेकेदारी पर हैं. हमारी तो वहां एक यूनियन भी थी. पर मालिक ने धीरेधीरे सभी को निकालना शुरू कर दिया था.’’

हसामुद्दीन ने पूछा, ‘‘क्या मालिक को यूनियन से डर होता है?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘डर तो होता है, क्योंकि यूनियन होने से कामगार को एक तरह की सिक्योरिटी मिलती है. अगर किसी ने कामगार को उचित वेतन नहीं दिया है, तब यूनियन मैनेजमैंट के सामने अपनी बात रखती है.

यूनियन न होने से कामगार अपनी बात को मजबूती से और बिना डर के नहीं रख सकता है.’’

हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘आप उस क्लब में क्यों नहीं एक यूनियन बना लें?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘अब ट्रेड यूनियन बनाना आसान काम नहीं है. सरकार ने ट्रेड यूनियन बनाने के लिए नियमों में बड़ी कड़ाई की है. पहले जहां 7 लोग मिल कर यूनियन बना लेते थे, अब कुल कामगारों का 10 फीसदी कर दिया गया है. न 10 फीसदी कामगार होंगे, न यूनियन बनेगी.

अब कारखाने और फैक्टरी के अंदर धरनाप्रदर्शन करने की भी छूट नहीं है. सरकार केवल पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए काम कर रही है.’’

हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘जब ट्रेड यूनियनें नहीं होंगी, तब कामगारों की आवाज कौन उठाएगा?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘अब आवाज ही कौन उठा रहा है… जो हैं वे बहुत कमजोर हैं. देखिए, इस क्लब में काम करते हुए मुझे 3 साल हो गए हैं, लेकिन कोई छुट्टी नहीं मिलती है. जिस दिन काम करने नहीं गए, उस दिन की दिहाड़ी नहीं मिलती है.’’

हसामुद्दीन ने पूछा, ‘‘आप को यहां कितने पैसे मिलते हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘15,000 मिलते हैं, लेकिन आनेजाने का किराया और छुट्टी निकाल लूं, तो 10,000 बच जाते हैं. लेकिन भाई साहब, बगैर छुट्टी के कैसे काम चलेगा. बस, यही सोचता हूं कि खाली बैठने से अच्छा है कि कुछ करता रहूं.’’

हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘आप के बच्चे तो बड़े हो गए होंगे…’’

‘‘जी…’’ उस आदमी ने कहा.

‘‘आप कहां रहते हैं भाई साहब?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘विनय नगर, फरीदाबाद में.’’

‘‘किराए पर रहते हैं?’’

‘‘नहीं. 30 गज का प्लौट ले कर घर बना लिया है. उसी में रहते हैं.’’

हसामुद्दीन ने उस आदमी के पीले और जंग लगे हुए दांत देख कर पूछा, ‘‘क्या आप गुटका या पान मसाला खाते हैं?’’

‘‘नहीं, पर बीड़ी जरूर पीता हूं.’’

हसामुद्दीन ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और कहा, ‘‘आप वादा कीजिए कि आज से बीड़ी नहीं पीएंगे?’’

उस आदमी ने अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया, लेकिन कहा, ‘‘वादा कर के तोड़ना नहीं चाहता हूं.’’

हसामुद्दीन ने उसे एक सलाह दी, ‘‘आप आलू, प्याज, फल बेचने का अपना काम करें. इतना पैसा तो आप फरीदाबाद में ही कमा लेंगे.

उस आदमी ने कहा, ‘‘एक बार ढाबा शुरू किया था, लेकिन चला नहीं.’’

वह आदमी केंद्रीय सचिवालय उतरने लगा, तब हसामुद्दीन ने कहा, ‘‘मैं ने आप को 2 बातें बताई हैं. एक बीड़ी न पीने की और दूसरी अपना कोई काम करने की.’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं आप की बात हमेशा याद रखूंगा.’’

हसामुद्दीन सोचने लगा, ‘आमजन में बेरोजगारी के चलते ही ठेकेदारी प्रथा फलफूल रही है और नवउदारवादी नीति का मतलब है कि काम ज्यादा, पैसे कम और न कोई छुट्टी, न कोई स्वास्थ्य सुरक्षा और न ही कोई दूसरा फायदा.

‘इस नीति ने केवल पूंजीपतियों को मजबूत किया है. सरकार की इच्छाशक्ति से ही इस देश में ठेकेदारी प्रथा को खत्म किया जा सकता है या लोग ठेकेदारी पर काम ही न करें.’

निजीकरण पर हसामुद्दीन को अपनी कालोनी के एक साथी दशरथ ठाकुर की बात याद आई. वे कहते हैं, ‘‘सरकारी मुलाजिम खुद इस के लिए जिम्मेदार हैं. जिस की नौकरी लग जाती है, वह खुद को सरकारी दामाद समझने लगता है.’’

दशरथ ठाकुर रेलवे महकमे से रिटायर हो चुके हैं. हसामुद्दीन ने उन से एक बार पूछा था, ‘‘क्या रेलवे में सभी मुलाजिम काम नहीं करते हैं?’’

तब उन्होंने कहा था, ‘‘सरकारी मुलाजिम देरी से आता है और जल्दी घर चला जाता है.’’

हसामुद्दीन इस बारे में विचार करता है कि कैंटीन में चाय पीना, सिगरेट फूंकना या किसी से बात करने का मतलब यह नहीं है कि वह काम नहीं करता है.

कुछ मुलाजिम कामचोर जरूर होते हैं, लेकिन उन्हें कड़ाई से दुरुस्त किया जा सकता है न कि उदारवादी लोककल्याणकारी व्यवस्था को बदल कर पूंजीवादी व्यवस्था लागू कर.

अंगरेजी राज में भी तो सरकारी स्कूल थे. सरकारी रेलवे और डाक महकमे थे. तब वहां काम होता था, तो आज क्यों नहीं हो पा रहा है? क्या केवल डर से ही लोग सही से काम करेंगे? निजीकरण तो इस का कोई हल नहीं है.

फैक्टरी मालिक ग्रैच्युटी नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि नवउदारवादी नीति तो केवल टैंपरेरी नौकरी देने के पक्ष में है. आज बड़ेबड़े उद्योगों में भी टैंपरेरी नौकरियां ही दी जा रही हैं.

पूंजीपतियों के पक्षधर कहते हैं, ‘भाई, सभी को परमानैंट नौकरी नहीं दी जा सकती है…’ यह सोच हमारे समाज में तेजी से बढ़ाई गई है.

पर लोग यह क्यों नहीं सोचते कि कोई पूंजीपति खुद पूंजीपति नहीं बनता है, उसे मजदूर तबका पूंजीपति बनाता है. क्या पूंजीपति मजे नहीं करते हैं? उन के बच्चों की शादी में करोड़ों रुपए खर्च नहीं होते हैं?

खर्च करना गलत नहीं है, क्योंकि एक का खर्च होना भी तो अर्थशास्त्र में दूसरे की आमदनी है. सरकारी मुलाजिमों की आड़ में तो प्राइवेट कंपनियों में काम कर रहे मजदूरों, दूसरे मुलाजिमों के हकों को इन बीते दशकों में तेजी से हड़प लिया गया है.

7 लोग मिल कर यूनियन क्यों नहीं बना सकते हैं, जबकि धर्म को बचाने के लिए 4 लोग खड़े हो कर होहल्ला कर सकते हैं? कामगारों का हक क्या हक नहीं है? किसी कंपनी के मालिक ने किसी को रोजगार दे कर क्या उसे अपना गुलाम बना लिया है?

हसामुद्दीन को बस की सीढि़यों पर बैठे उस बड़े लड़के की याद आई, जिस के शरीर पर टैटू खुदे थे. क्या वे पैदाइशी थे या समाज ने ही उसे इतना धर्मभीरू बना दिया? अच्छेबुरे की परवाह न करते हुए उस ने अपने धर्म को ज्यादा अहमियत दी, लेकिन धर्म भी एक पदार्थ है… निकालने वाले तो उस में से अच्छीअच्छी चीजें निकाल कर अपनी जिंदगी संवार लेते हैं.

दूसरी तरफ सांप्रदायिक और धार्मिक अवसरवादी तत्त्व हैं, जो ऐसे लड़कों का इस्तेमाल हैं, क्योंकि धर्मभीरुता और पक्षधरता तो हर आदमी में होती है, लेकिन सांप्रदायिकता उस के अनुपात को बढ़ा देती है.
वे दोनों लड़के भयमुक्त लग रहे थे, लेकिन उन्हें भी भूख और प्यास लगती है. उन्होंने बस में कुछ लोगों को धमकाया भी था.

आदमी में डर होता है, पर जिसे सजा का डर न हो तो वह भयमुक्त हो जाता है या व्यवस्था ही अमानवीय हो जाए, तब आदमी का डर खत्म हो जाता है. अगर आदमी की जीने की चाह ही मर जाए, तब भी आदमी को डर नहीं लगता है.

कालोनी के साथी दशरथ ठाकुर को अब सरकारी नौकरियों में कमियां नजर आती हैं, जबकि वे खुद सरकारी मुलाजिम थे. उन का पैर रेल से कट गया था. रेलवे ने उन्हें अपने महकमे में दूसरा काम दिया, उन का इलाज करवाया. यहां तक कि नकली पैर भी लगवाया.

उन की रेलवे की पैंशन है, पर प्राइवेट सैक्टर में काम कर रहे कामगारों के साथ होने वाले हादसों में मालिक उन्हें बाहर का रास्ता ही दिखा देते हैं.

इतने में हसामुद्दीन को कंडक्टर की आवाज सुनाई देने लगी, ‘‘अरे भाई, बस खाली कर दो…’’ हसामुद्दीन बस से उतर कर मिंटो ब्रिज से होता हुआ रीगल सिनेमा की तरफ चल दिया. Long Hindi Story

Hindi Romantic Story: कौन तुम्हें यों प्यार करेगा…

Hindi Romantic Story ‘‘दादी, मैं बाहर खेलने जाऊं?’’ सुरभि ने सोफिया से इजाजत मांगी.

‘‘हां, लेकिन ज्यादा दूर मत जाना. यहीं अहाते में खेलना. और हां, शोर बिलकुल भी नहीं करना. दोपहर का वक्त है. सब लोग अपनेअपने घरों में सो रहे होंगे.’’

‘‘ठीक है दादी,’’ कहते हुए सुरभि दौड़ कर नीचे खेलने चली गई.

सोफिया टीवी के चैनल बदलने लगीं. सुरभि उन के बेटे कमलेश और बहू निम्मी की बेटी है. कमलेश एक सरकारी बैंक में काम करता है. बारबार तबादले से परेशान हो कर उस ने कठुआ में ही अपनी बेटी का दाखिला करा दिया था.

दोनों पतिपत्नी कामकाजी लोग हैं और बैंक में ही कभी अंबाला तो कभी चंडीगढ़ में काम करते हैं. उन का बेटा सुनील और सुरभि यहां कठुआ में अपनी दादी के साथ रहते हैं.

सोफिया अब विधवा हो चुकी हैं. उन के पति देश के दुश्मनों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे.

इस साल सोफिया 97 साल की हो गई थीं. अब तो उन से हिला भी नहीं जाता था. घर में मेड आती थी, जो सुबहशाम खाना बनाती, कपड़े धो देती, बच्चों को खाना खिला देती.

बुढि़या सोफिया के पास अब कोई काम नहीं था. वे बच्चों से अखबार पढ़वाती थीं. जासूसी उपन्यासों का उन को शुरू से शौक था. वे अपने पोते सुनील को जबतब बिठा लेती थीं. कभी अखबार पढ़ने को कहती थीं, तो कभी जासूसी कहानियों को पढ़ कर सुनाने की इच्छा जाहिर करती थीं.

यह सब काम इतवार को या सरकारी छुट्टी या फिर किसी पर्वत्योहार पर ज्यादा होता था. जब थोड़ाबहुत पढ़ कर बच्चे इधरउधर भागने लगते या खेलने जाने की जिद करने लगते, तो सोफिया का एक ही सहारा होता था, टैलीविजन पर न्यूज चैनल देखना.

आज एक न्यूज चैनल बदलते हुए सोफिया के हाथ एकाएक रुक गए. आज फिर एक फौजी की लाश तिरंगे में लिपटी हुई आई थी. उस फौजी की उम्र 25 साल के आसपास रही होगी. सीमा पर आतंकवादियों से मुठभेड़ करते हुए वह जवान शहीद हो गया था. उस शहीद जवान को हवा में बंदूक की गोलियां चला कर सलामी दी जा रही थी. सब लोग सावधान की स्थिति में खड़े थे.

सोफिया के पति की विदाई भी ऐसे ही हुई थी. उन को भी ऐसे ही गोलियों की सलामी दी गई थी. गोलियों की आवाज के बीच सोफिया अपने अतीत की खोह में गुम होती चली गईं.

‘‘माफ कीजिए, क्या मैं यहां थोड़ी देर के लिए बैठ जाऊं? मैं आप को बहुत देर तक तकलीफ नहीं देने वाला हूं. बस, मुझे कठुआ तक जाना है. अगले किसी स्टेशन पर उतर कर मैं जनरल डब्बे में चला जाऊंगा. अगर आप को एतराज न हो तो…’’ उस नौजवान ने बहुत सधे हुए शब्दों में कहा था.

लेकिन पता नहीं क्यों सोफिया को गुस्सा आ गया था. बिना सौरभ की तरफ देखे ही वह बोली, ‘‘आप को पता नहीं है कि यह रिजर्वेशन वाला कंपार्टमैंट है… आप को इस कंपार्टमैंट में नहीं आना चाहिए था. अगर चढ़ना ही था, तो किसी जनरल कंपार्टमैंट में चढ़ जाते.

‘‘हम लोग जनरल कंपार्टमैंट की परेशानियों से बचने के लिए ही रिजर्वेशन कराते हैं, ताकि आराम से सफर कर सकें.’’

सोफिया पहले से ही बहुत परेशान थी. धनबाद से उस की ट्रेन थी. उसे जम्मू जाना था. घर पर उस के मांबाप अकेले थे. उधर जम्मूकठुआसांभा बौर्डर पर लगातार सीजफायर का उल्लंघन हो रहा था. मोर्टार और गोलियों की बरसात हो रही थी.

सोफिया अपने मांबाप को ले कर बहुत चिंतित थी. उसे ऐसा लग रहा था कि वह किसी तरह जल्द से जल्द जम्मू पहुंच जाए.

सोफिया दिल्ली में काम करती थी. धनबाद अपने किसी काम से आई थी. तब तक पाकिस्तान की तरफ से गोलाबारी शुरू हो गई थी. वह अभी अपना काम निबटा भी नहीं पाई थी, तब तक युद्ध जैसे हालात शुरू हो गए थे. लोगों में एक तरह का डर पैदा हो गया था. चारों तरफ अफरातफरी का माहौल बन गया था.

सोफिया को अपने मांबाप की चिंता सताने लगी थी. पहले तो उसे ट्रेन की टिकट ही नहीं मिल रही थी, पर किसी तरह इधरउधर से जुगाड़ बिठा कर उस ने टिकट का बंदोबस्त किया था.

उस नौजवान ने एक बार फिर कोशिश की, ‘‘प्लीज, केवल अगले स्टेशन तक मुझे यहां बैठने दीजिए. मुझे मालूम है कि आप बहुत नेकदिल हैं. आप का दिल मोम की तरह कोमल है और खूबसूरत लोग किसी का दिल नहीं दुखाते, बल्कि दूसरों की हमेशा मदद ही करते हैं. ऐसा पता नहीं मुझे क्यों आप को देख कर लगता है. वैसे, मेरा नाम सौरभ है.’’

इस बार सोफिया को मुड़ कर सौरभ को देखना बड़ा जरूरी हो गया. वह बोली, ‘‘अच्छा तो मैं खूबसूरत और रहमदिल भी हूं. यह तो मुझे पता ही नहीं था. आप की मेहरबानी से आज मुझे पता चल गया… शुक्रिया. आप पीछे से भी लोगों का चेहरा देख लेते हैं क्या या आप ने झूठ बोलने में पीएचडी कर रखी है?’’

सौरभ झेंप गया. उस ने सचमुच सोफिया को सामने से नहीं देखा था. वह तो हड़बड़ी में ट्रेन में चढ़ गया था. खिड़की से उस ने बस सोफिया का आधा चेहरा ही देखा था.

सौरभ झेंपते हुए बोला, ‘‘नहीं, मैं ने खिड़की से आप को देख लिया था.’’

‘‘अच्छा जी, आप कहीं इसलिए तो इस कंपार्टमैंट में नहीं चढ़ गए कि आप को एक खूबसूरत लड़की दिख गई थी और आप उस के पीछेपीछे हो लिए? आप को कहीं जाना भी है या बस यों ही ट्रेन में चढ़ गए? मैं खूब जानती हूं आप जैसे लोगों को. लड़की देखी नहीं और लगे हाथ साफ करने.’’

सौरभ बस इतना ही कह सका, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. मुझे ड्यूटी जौइन करनी है.’’

सोफिया को अब अफसोस हुआ. उस ने सौरभ को बहुत भलाबुरा कह दिया था. वह बोली, ‘‘अच्छा, बैठ जाइए.’’

सौरभ ने कहा, ‘‘जी, मैं ठीक हूं. मुझे तो खड़े रहने की आदत है.’’

‘‘फिर भी बैठ जाइए. अगला स्टेशन अभी घंटेभर बाद आएगा.’’

सौरभ पर सोफिया ने सरसरी नजर दौड़ाई. चौड़ी छाती, तांबई रंग, कद साढ़े 6 फुट. मजबूत कंधे. गोरा उम्र कोई 30-32 साल. जींसटीशर्ट में वह बेहद खूबसूरत लग रहा था. हाथ में एक बैग. बंधा हुआ एक कंबल. कुल इतना ही सामान था.

‘‘क्या करते हैं वहां जम्मू में?’’ सोफिया ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, बस घोड़ों के अस्तबल में काम करता हूं और मुसाफिरों को ऊपर पहाड़ पर ले जाता हूं.’’

‘‘मुझे बना रहे हैं. आप की कदकाठी और आप की पर्सनैलिटी देख कर तो ऐसा नहीं लगता कि आप कोई अस्तबल या घोड़े के सईस हो. सचसच बताइए कि कौन हैं आप?’’

सौरभ का दिल इस बार तेजी से धड़का था. वह नहीं चाहता था कि अपनी असलियत सोफिया को बताए.

दरअसल, उस को कठुआ जाना था. सीमा पर हालात बहुत खराब चल रहे थे. वह अपनी बहन की शादी में यहां धनबाद आया था. शादी अभी 2 दिन पहले ही निबटी थी. तब तक देश में युद्ध जैसे हालात बन गए थे.

सौरभ अपनी पहचान किसी को बताना नहीं चाहता था कि वह एक फौजी है. इस तरह से सब को अपनी असलियत बताना उसे ठीक नहीं लगता था. वह बहुत ही शांत स्वभाव का था. ज्यादा बात करना उस के स्वभाव में नहीं था.

सौरभ बोला, ‘‘नहीं, मैं घोड़ों की देखभाल ही करता हूं. पहाड़ की चोटी पर मुसाफिर सीधे नहीं चढ़ पाते, इसलिए घोड़ों की मदद से ऊपर पहाड़ पर जाते हैं. मैं छोटामोटा काम करने वाला ही आदमी हूं. पता नहीं आप को क्यों ऐसा लगता है कि मैं झूठ बोल रहा हूं.’’

सौरभ की बातों में पता नहीं ऐसा क्या था कि न चाहते हुए भी सोफिया को यकीन करना पड़ गया कि सौरभ जोकुछ कह रहा है, वह सच है. शाम कब की हो चुकी थी. ट्रेन अपनी रफ्तार में दौड़ती जा रही थी.

अगला स्टेशन आने ही वाला था. उस स्टेशन से सोफिया का मुंहबोला भाई मुरारी आ कर ट्रेन में चढ़ने वाला था. उस को भी सोफिया के साथ जम्मू जाना था.

सोफिया बहुत बेचैन हो कर पहलू बदल रही थी. दरअसल, मुरारी आईटीआई का इम्तिहान दे कर सीधे स्टेशन आ कर उस के साथ ही जम्मू तक जाने वाला था.

सोफिया के पास वाली अपर बर्थ मुरारी के नाम से बुक थी. स्टेशन आया, लेकिन उस का भाई नहीं दिखा.
सोफिया ने मुरारी को फोन लगाया, ‘‘हां, मुरारी तुम कहां हो? आ जाओ स्टेशन, गाड़ी स्टेशन पर खड़ी है.’’

‘दीदी, मैं ट्रैफिक में फंस गया हूं. मुझे स्टेशन आने में करीब एकसवा घंटे से कम नहीं लगेगा,’ मुरारी ने बताया.

‘‘ट्रेन तो केवल 10 मिनट ही रुकती है इस स्टेशन पर. किसी तरह कोशिश करो जल्दी पहुंचने की,’’ सोफिया बोली.

‘दीदी, नहीं हो पाएगा. आप चली जाओ. मैं एकदो दिन बाद आ जाऊंगा,’ मुरारी ने कहा.

‘‘लेकिन मैं अकेले कैसे इतनी दूर तक का सफर करूंगी. मेरे साथ सामान भी तो है.’’

‘अरे दीदी, मैं कठुआ में अपने किसी दोस्त को फोन कर दूंगा. वह सामान उतरवा देगा. घबराने की कोई जरूरत नहीं है. सब ठीक होगा. अच्छा, रखता हूं. ट्रैफिक खुल गया है. अब स्टेशन न जा कर सीधा घर चला जाऊंगा. चलो, ठीक है. हैप्पी जर्नी दीदी.’

‘‘ठीक है, रखो फोन,’’ सोफिया ने बेमन से कहा.

सौरभ और मुरारी की कदकाठी और चेहरा एक सा था. वह सोचने लगी कि जगहजगह युद्ध जैसे हालात चल रहे हैं. पता नहीं पड़ोसी दुश्मन देश कब हमला कर दे. क्यों न वह सौरभ को ही अपने साथ ले चले? स्टेशन पर मुरारी का दोस्त तो आ ही जाएगा उस का सामान लेने.

सौरभ उतरने ही वाला था कि तभी सोफिया को परेशान देख कर बोला, ‘‘आप कुछ परेशान सी लग रही हैं.’’

‘‘हां, मेरा मुंहबोला भाई मुरारी अभी स्टेशन पर आने ही वाला था, लेकिन ट्रैफिक में फंस गया. अब मुझे अकेले ही सफर करना पड़ेगा.’’

‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. खैर, मैं चलता हूं,’’ सौरभ ने कहा.

सौरभ जब सोफिया के पास से गुजरा, तब सोफिया ने टोका, ‘‘सुनिए, आप चाहें तो मेरे भाई की सीट पर बैठ सकते हैं. अकेली लड़की के साथ में किसी विश्वासी आदमी का होना बेहद जरूरी है. अगर आप को कोई दिक्कत न हो तो.’’

‘‘लेकिन जब टीटी आएगा तब?’’ सौरभ ने पूछा.

‘‘अरे, टीटी से मैं बात कर लूंगी. बस आप यहीं रहिए,’’ सोफिया बोली.

सौरभ मान गया. थोड़ी देर के बाद सोफिया ने सौरभ से पूछा, ‘‘आप चाय लेंगे?’’

‘‘आप किसी ऐरेगैरे को चाय पिलाएंगी?’’ सौरभ ने चुटकी ली.

‘‘अरे, मैं ने तो ऐसे ही कह दिया था. आप उस बात को अब भी पकड़े हुए हैं. आदमी को पहचानने में कभीकभी गलती हो जाती है,’’ सोफिया बोली.

‘‘यानी कि आप के हिसाब से मैं गलत आदमी हूं?’’

‘‘ऐसा मैं उस समय तक ही सोचती थी, लेकिन अब नहीं. आदमीआदमी में फर्क होता है. इतनी तो परख है मुझ में,’’ सोफिया ने कहा.

‘‘तो क्या परखा आप ने? कैसा आदमी हूं मैं?’’

‘‘आप भले आदमी हैं.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘आप भले आदमी न होते, तो मैं आप को अपने साथ सफर करने की इजाजत नहीं देती.’’

‘‘अच्छा, तो यह बात है.’’

‘‘हां, और क्या…’’

‘‘यह तो आप की जरूरत है कि आप के साथ कोई मर्द सफर करने के लिए नहीं है, नहीं तो आप मुझे अपने साथ इस कंपार्टमैंट में रुकने को न कहतीं. खैर, ऐसा होना लाजिमी भी है,’’ सौरभ ने जैसे सफाई देनी चाही.

सोफिया ने चाय की प्याली बनाई और सौरभ की तरफ बढ़ा दी. इस बार सौरभ के हाथ से सोफिया का हाथ छू गया.

ठंड के मौसम में सोफिया का हाथ बिलकुल ठंडा हो गया था. सौरभ ने चाय की प्याली थाम ली और धीरेधीरे चाय पीने लगा.

सौरभ ने गौर से सोफिया के चेहरे को निहारा. गोरा रंग, हरी आंखें. भरीभरी छातियां. जींसटौप में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

सोफिया ने पूछा, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’

‘‘आप का खूबसूरत चेहरा.’’

‘‘मैं कहां खूबसूरत हूं. मेरी तो उम्र भी अब ढलने लगी है. मेरी उम्र के लोगों के तो बड़ेबड़े बच्चे होते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं सच कह रहा हूं. आप बहुत खूबसूरत हैं. आप के जिस्म के हर हिस्से को कुदरत ने बहुत फुरसत से बनाया है.’’

फिर सौरभ को लगा कि वह कुछ ज्यादा ही बोल गया है. वह अब चुप हो गया था. वह खिड़की से बाहर देखने लगा था.

‘‘उधर क्या देख रहे हो? अभी मेरी खूबसूरती की बात कर रहे थे और अभी बाहर क्या निहारने लगे?’’

‘‘कुछ नहीं, कुदरत की बनाई हुई चीजें ही देख रहा था. नदी, तालाब, पहाड़, चांद की चांदनी…’’

‘‘क्या ये मुझ से भी खूबसूरत हैं?’’

सौरभ केवल हंस कर रह गया.

‘‘शादी हो गई तुम्हारी?’’ सोफिया ने सौरभ के चेहरे को निहारते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ सौरभ बाहर के नजारे में कहीं खोता हुआ बोला.

‘‘शादी लायक तो तुम्हारी उम्र हो ही गई है. अब तक क्यों नहीं की?’’

‘‘यह सवाल तो मैं तुम से भी पूछ सकता हूं.’’

‘‘जिम्मेदारियां… और क्या वजह हो सकती है. मैं अपने मांबाप की अकेली बेटी हूं. मेरे मांबाप बूढ़े हैं. उन की उम्र हो गई है. आखिर किन के भरोसे उन को छोड़ूं? मेरे चले जाने के बाद उन को कौन देखेगा?

लेकिन तुम ने शादी क्यों नहीं की? तुम्हारी भी तो शादी लायक उम्र हो गई है?’’ सोफिया बोली.

‘‘वही जिम्मेदारी की बात आ जाती है. तुम्हारी वाली हालत. घर में बहन थी. उस की शादी करनी थी. उस के बाद ही तो अपनी शादी के बारे में सोचता,’’ सौरभ बोला.

दोनों अपनी हालत पर मुसकराने लगे.

‘‘अरे, मैं ने अपना फोन कहां रख दिया,’’ सौरभ को अचानक अपना फोन याद आया.

‘‘ठीक से देखो, यहींकहीं होगा.’’

सुनो, तुम अपने मोबाइल से जरा मेरे नंबर पर रिंग कर दो. हो सकता है, यहींकहीं गिरा हो. मिल जाए.’’

सोफिया ने नंबर पूछ कर मिलाया और मोबाइल की घंटी पर एक प्यारी सी रिंगटोन बजने लगी, ‘सुनो न संगेमरमर… कुछ भी नहीं है…’

मोबाइल सौरभ की सीट के बगल में ही गिरा था. रिंग मारने पर आसानी से मिल गया.

‘‘रिंगटोन तो तुम ने बहुत अच्छी लगा रखी है.’’

‘‘हां, मुझे यह गाना बेहद पसंद है.’’

‘‘तुम ने मेरी कौलर ट्यून सुनी है?’’

‘‘नहीं,’’ सौरभ ने कहा.

‘‘फिर मेरा मोबाइल नंबर डायल करो.’’

सौरभ ने स्पीकर औन कर दिया. आवाज आई, ‘कौन तुम्हें यूं प्यार करेगा, जैसे मैं करती हूं…’

सोफिया का चेहरा खुशी के मारे चमकने लगा.

सौरभ बोला, ‘‘ये दोनों मेरे फेवरेट गाने हैं.’’

‘‘तुम बहुत स्मार्ट हो.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम ने बहाना बना कर मेरा मोबाइल नंबर ले लिया,’’ सोफिया बोली.

‘‘नहीं, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. तुम कहो तो डिलीट कर दूं?’’

‘‘नहीं, लेकिन तुम्हें पता है कि लड़कियां अपना नंबर किस को देती हैं?’’

‘‘किस को?’’

‘‘किसी खास को.’’

‘‘अच्छा, तो क्या चलोगी मेरे साथ डेट पर?’’ सौरभ ने पूछा.

‘‘लेकिन तुम उम्र में मुझ से बहुत छोटे हो. कहां तुम 30 के और कहां मैं 40 की. एक दशक का अंतर है हमारी और तुम्हारी उम्र में,’’ सोफिया बोली.

‘‘प्यार में उम्र, ऊंचनीच, जातपांत, अमीरगरीब कुछ माने नहीं रखता, बस दिल मिलना चाहिए,’’ सौरभ ने बताया.

‘‘10 साल बीतने के बाद तुम ही किसी नईनवेली को खोजने लगोगे. तब मैं तुम्हारे लिए बूढ़ी हो जाऊंगी,’’ सोफिया बोली.

‘‘ऐसा नहीं होगा. मैं तुम्हें रूह की गहराइयों से चाहता हूं. तुम्हारा प्यार मेरे लिए पल दो पल का नहीं है,’’ सौरभ ने कहा.

‘‘सच में?’’ सोफिया ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘अच्छा, इस नंबर का क्या करना है? हो सकता है, हम फिर कभी मिलें ही न. यह हमारी आखिरी मुलाकात हो,’’ सौरभ ने कहा.

सोफिया चुप रही. ट्रेन रफ्तार से आगे बढ़ रही थी. आगे का सफर बहुत अच्छा रहा. ट्रेन कठुआ स्टेशन पर पहुंची. मुरारी का दोस्त मयंक सोफिया को लेने आया था. आखिरी बार सौरभ और सोफिया मिल रहे थे.

सौरभ ने सोफिया को इशारे से कहा कि फोन करना. थोड़ी देर में गाड़ी जम्मू के लिए आगे बढ़ गई.

घर पहुंचने के बाद सोफिया का दिल किसी काम में नहीं लगता था. उस को बारबार सौरभ की याद आती थी.

एक तय समय तक लड़के वाले सोफिया को देखने और रिश्ते की बात करने के लिए आते थे, लेकिन सोफिया जिम्मेदारियों के बो?ा तले खुद को दबाती चली गई. उस ने शादी के इरादे को ही एक सिरे से खारिज कर दिया था. लेकिन सौरभ से मिल कर उस में उमंगें जागने लगी थीं.

एक दिन सोफिया ने सौरभ को फोन लगाया और शिकायत करती हुई बोली, ‘‘तुम्हें तो मेरी याद भी नहीं आती होगी न?’’

‘ऐसा नहीं है मेरी जान. तुम्हें तो मैं एक पल भी भूल नहीं सका, लेकिन केवल बात करने से काम नहीं चलता. काम भी तो करना पड़ता है. अगर घोड़े की सेवाटहल न करूं, तो मालिक मेरी जान खा जाएगा.

मेरा ज्यादातर समय टूरिस्टों के साथ ही बीतता है. पेट के लिए सब करना पड़ता है,’ सौरभ बोला.

‘‘तुम यहीं आ जाओ. चार घोड़े तुम्हारे लिए खरीद देती हूं. तुम उन की सेवा करना और मुझे उन घोड़ों पर घुमाना. जो मजदूरी तुम वहां पाते हो, यहां आ कर मुझ से ले लेना,’’ सोफिया बोली.

सौरभ ने कहा, ‘सो तो ठीक है, लेकिन मेरी नौकरी का सवाल है, नहीं तो मैं जरूर आता. एक बार नौकरी चली गई, तो फिर न मिलेगी. और तुम्हें तो पता है कि नौकरी मिलना आज के समय में कितना मुश्किल है.’
सोफिया बोली, ‘‘और तुम ने मु?ो डेट पर ले जाने को कहा था. उस का क्या हुआ?’’

‘डेट पर भी चलेंगे. अभी इधर सीजन चल रहा है. दो पैसे कमाने के दिन हैं, इसलिए मालिक से छुट्टी की बात भी नहीं कर सकता. मैं आऊंगा तुम से मिलने, लेकिन अभी तुम थोड़ा समय दो.’

‘‘सौरभ, मैं तुम्हें जीजान से चाहती और प्यार करती हूं. मैं तुम से मिलना चाहती हूं. तुम को छूना चाहती हूं. तुम में समाना चाहती हूं,’’ सोफिया ने अपना दिल खोल कर रख दिया.

‘मैं भी तुम से सच्चा प्यार करता हूं. तुम को तो भूलने का सवाल ही पैदा नहीं होता,’ सौरभ ने कहा.

‘‘ओह सौरभ, तुम कितने अच्छे हो,’’ सोफिया खुश हो गई.

किसी तरह 2 महीने बीते. बर्फ पिघलने के बाद पाकिस्तानी सेना ने भारत में घुसपैठ कर दी. पहलगाम, कठुआ और कारगिल के अलावा श्रीनगर, अखनूर, बारामूला में बेकुसूर नागरिक मारे जा रहे थे. अब युद्ध को किसी भी हालत में टाला नहीं जा सकता था.

एक दिन सौरभ का फोन आया. उस समय सोफिया बाजार में सामान खरीदने गई थी. घर आ कर मोबाइल देखा तो कई मिस्ड काल थे.

सोफिया ने फोन मिलाया, ‘‘बोलो मेरे चरवाहे, मेरी जान ने कैसे याद किया मुझे?’’

‘मैं अब तुम्हें देखे बगैर नहीं रह सकता. तुम्हारी बहुत याद आती है. तुम्हारी आवाज सुनते ही मेरे शरीर में अजीब सी हरकत होने लगती है,’ सौरभ ने कहा.

सोफिया बोली, ‘‘आ जाओ न फिर मुझ से मिलने, तुम को किस ने रोक रखा है.’’

सौरभ बोला, ‘आ जाता, लेकिन मेरा काम मुझे रोक लेता है. तुम समझ रही हो न…’

सोफिया नाराज हो कर बोली, ‘‘ये सब कहने की बातें हैं क्या…’’

सौरभ ने कहा, ‘‘सुनो सोफिया, मैं तुम से एक बेहद जरूरी बात करना चाहता हूं. मेरा काम अब ज्यादा बढ़ गया है. मैं ज्यादातर ऊंचाई पर ही रहूंगा और उतनी ऊंचाई पर कोई नैटवर्क भी नहीं आता, इसलिए फोन से बहुत मुमकिन है बात न हो पाए. पर जब भी मौका मिलेगा मैं तुम्हें फोन कर लूंगा. फोन न कर सका, तो मैं तुम्हें हर हफ्ते खत लिखा करूंगा.

‘अपना खयाल रखना. खत का भी ज्यादा इंतजार मत करना. देश में अभी इमर्जैंसी जैसे हालात हैं.

बारामूला में मेरा पूरा परिवार दादादादी, चाचाचाची सब लोग रहते हैं.

‘इधर जम्मू में हालात बिगड़े तो मेरा एक और मकान धनबाद में है. मेरे दादादादी, अपने मांपिताजी को ले कर वहीं चली जाना. रुपएपैसों की बिलकुल चिंता मत करना. एक एटीएम कार्ड तुम्हें कुरियर से भेज रहा हूं. पिन की जानकारी ह्वाट्सएप कर दी है. ये सब मोटीमोटी बातें हैं, जिन की तुम को आने वाले समय में जरूरत पड़ेगी.’

‘तुम जा कहां रहे हो? मुझे बताओगे भी या मुझे इसी तरह अपना आदेश सुनाते रहोगे फोन पर?’
‘यह जान कर तुम क्या करोगी कि मैं कहां जा रहा हूं. सेफ्टी रीजन से तुम को ये बातें बताई हैं. बस, तुम इन बातों को मानना और एक बात यह कि सेना हैडक्वार्टर के पास ही एक डाकखाना है, जिस में एक डाक बाबू ‘नील चाचा’ काम करते हैं. कोई खास जानकारी चाहिए हो, तो उन से ले लेना.’

‘‘फिर भी तुम कहां जा रहे हो, मुझे कुछ तो पता होना चाहिए.’’

सौरभ ने कहा, ‘सोफिया, मुझे भी कुछ पता नहीं है कि मुझे कहां भेजा जा रहा है. बस, मुझे भेजा रहा है और मैं जा रहा हूं और मुझे जाना भी चाहिए.

‘देश में हालात बेहद खराब हैं. लोगों की छुट्टियां रद्द हो रही हैं. सब लोग काम पर लौट रहे हैं. होमगार्ड के सिपाही, पुलिस, सीआईएसएफ, सीआरपीएफ, एसएसबी, आर्मी, एयरफोर्स. सब लोग. बीएसएफ तो मोरचे पर पहले से ही डटी हुई है.’

सोफिया बोली, ‘‘लेकिन इन का तुम से क्या संबंध है? तुम तो आम नागरिक हो. आम नागरिक को युद्ध से भला क्या मतलब है और खासकर एक सईस को?’’

‘मैं इस देश का एक नागरिक हूं और मुझे लगता है कि जब देश को युद्ध जैसी इमर्जैंसी का सामना करना पड़े, तो हर आदमी को युद्ध लड़ने के लिए तैयार होना चाहिए.’

अब सोफिया का माथा ठनका. सौरभ का डीलडौल और साढ़े 6 फुट लंबा कद देख कर उस को पहले ही इस बात का शक था कि वह फौज में काम करने वाला कोई आदमी है.

सोफिया ने कहा, ‘‘अच्छा तुम ठीकठीक बताओ कि तुम कौन हो? तुम सेना में काम करते हो? गुप्तचर विभाग में हो या कौन हो? तुम को मैं जितना समझाने की कोशिश करती जा रही हूं, तुम उतना ही उलझते जा रहे हो. प्लीज, मुझे सही जानकारी दो…’’

सौरभ ने कहा, ‘‘मेरा एक फोन आ रहा है. रुको, मैं तुम से बाद में बात करता हूं.’’

सौरभ का फोन कट गया था, लेकिन भीतर में कहीं गहरा था सौरभ और उस की बातें भी. कुछ भी साफसाफ नहीं बताता सौरभ. जितना सोफिया सौरभ को सम?ाना चाहती थी, कहीं गहरे में उलझती जाती थी. उस को ट्रेन में ही चेत जाना चाहिए था कि ऐसे लोगों पर जल्दी यकीन नहीं करना चाहिए था.

तभी मोबाइल पर टिंग से एक मैसेज गिरा. सोफिया ने गौर से देखा. वह एटीएम कार्ड का पिन था. 0169.
तकरीबन 15 दिनों के बाद सोफिया को डाक से एटीएम कार्ड भी मिल गया. उस में एक लिहाफा था, जिस में एक बैंक खाता था. एचडीबीसी नाम का कोई बैंक था. उस की शाखा सोफिया के घर के बहुत पास में ही थी यानी सौरभ यहां आया था और उस ने लोकेशन भी देखी थी.

अजीब बात है. सौरभ को मेरे घर और मेरे घर के पास इस बैंक के बारे में अच्छे से पता था. मेरे घर तक आ कर वह मुझ से मिले बगैर चला गया और कहता है कि मुझ से बहुत प्यार करता है. खाक प्यार करता है. जरूर कोई मायावी किस्म का आदमी है सौरभ.

लेकिन लोकलाज का भी तो डर है सौरभ को. शादी से पहले अगर कोई लड़का मिलने आता है, तो लड़की को लोग गलत नजरों से देखते हैं, लेकिन केवल मायावी कह देने भर से काम नहीं चलेगा. वह जिम्मेदार भी तो है. वह भी शादी से पहले. लोग शादी के बाद जिम्मेदारी नहीं स्वीकारते, यह तो शादी से पहले ही जिम्मेदारी स्वीकार रहा है.

पड़ोसी देश के लिए अब नाक बचाने की बात आ गई थी. हमारी फौज ने पड़ोसी मुल्क को नाकों चने चबवा दिए थे, लेकिन हमारी तरफ भी कैजुअल्टी हुई थी. चीन और नेपाल भी इन खराब हालात में पाकिस्तान का साथ दे रहे थे. पूरे देश में ब्लैकआउट चल रहा था. हर जगह अंधेरा. हर जगह डर का माहौल. दिन में ही सोता पड़ जाता था.

सब जगह लोग महफूज ठिकानों में छिप गए थे. देश के किसी भी हिस्से से कभी भी भयानक खबरें आ जाती थीं. सड़कों पर लोगों के कहीं हाथ के टुकड़े तो कहीं पैर के टुकड़े जहांतहां दिखाई देते थे. दिनरात अस्पतालों में भीड़ लगी रहती थी.

मिलिटरी अस्पतालों में कैजुअल्टी ज्यादा हुई थी. वहां एंबुलैंस में भरभर कर लोग आते थे. लोगों का हुजूम अस्पतालों के बाहर अपनों की शिनाख्त कर रहा था. सायरन बजता और लोग बंकरों की तरफ भाग जाते.

अरुणाचल प्रदेश और सियाचिन से डरावनी और भयावह खबरें आ रही थीं. रूस और इजराइल हमारे देश के साथ खड़े थे. रूस ने हमारे लिए 2 दर्जन लड़ाकू बमवर्षक हवाईजहाज भेजे थे. इजराइल भी प्रचुर मात्रा में हमें हथियार मुहैया करा रहा था, लेकिन दोनों तरफ कैजुअल्टी बढ़ रही थीं.

सोफिया का दिल हलकान हो रहा था. वह बारबार सौरभ के बारे में ही सोच रही थी कि इस युद्ध में सौरभ की क्या हालत होगी? वह क्या कर रहा होगा? वह ठीक तो होगा या नहीं? महीनाभर हो चुका था, उस से बात किए. अब तक उस का कोई फोन नहीं आया था.

फोन आता भी तो कैसे… ज्यादातर टावर पहले ही बमबारी में बरबाद हो चुके थे. कुछ थोड़ेबहुत टावर जो थे, सिक्योरिटी की वजह से वहां इंटरनैट बंद कर दिया गया था.

अब लेदे कर सेना हैडक्वार्टर और उस के डाकघर का सहारा था. सेना हैडक्वार्टर और डाकघर सोफिया के
घर के करीब था, लेकिन वह वहां सिक्योरिटी की वजह से नहीं जाना चाहती थी.

पर एक दिन अलसुबह ही सोफिया निकल पड़ी. सेना का हैडक्वार्टर और डाकघर ऊंचाई पर थे.

चलतेचलते उस की सांसें फूलने लगीं. पूछतीपाछती वह किसी तरह काउंटर पर पहुंची. वहां के पोस्टमास्टर का नाम नीलमणि था, जिन्हें सब ‘नील चाचा’ कहते थे.

सोफिया ने पूछा, ‘‘आप में से ‘नील चाचा’ कौन हैं?’’

एक दुबलापतला आदमी वहां डाक छांट रहा था. उस ने पतली ऐनक से खिड़की की तरफ देखा और कहा, ‘‘कौन?’’

सोफिया को लगा जैसे उस का आना कामयाब रहा. वह बोली, ‘‘आप ही ‘नील चाचा’ हैड पोस्टमास्टर हैं?’’
बूढ़े ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और कहा, ‘‘डाकिया परसों डाक बांटते समय मोर्टार के छर्रे से जख्मी हो गया है. अभी वह अस्पताल में है. उस की जगह मैं उस का काम कर रहा हूं.’’

‘‘अगर आप को कोई तकलीफ न हो, तो आप मेरी डाक देख देंगे… मेरी कोई चिट्ठी आई हो तो… आप समझ रहे हैं मैं जो कह रही हूं…’’

‘नील चाचा’ ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है बेटी?’’

‘‘मेरा नाम सोफिया है.’’

सोफिया नाम सुनते ही ‘नील चाचा’ जबरदस्ती मुसकराते हुए वे बोले, ‘‘अच्छा, तो तुम सौरभ की मंगेतर हो… नहीं बेटी, तुम्हारी कोई चिट्ठी नहीं आई है. सौरभ तुम्हारे बारे में मु?ा से अकसर बातें करता था.’’

‘‘आप सौरभ को जानते हैं ‘नील चाचा’?’’

‘‘अरे, सौरभ को कौन नहीं जानता… वह बहुत ही प्यारा लड़का है.’’

‘‘वैसे क्या करते हैं वे सेना में?’’

इस बार ‘नील चाचा’ ने बहुत जोर से सोफिया को घूरा और कुछ देर तक वे उस के चेहरे को देखते रहे, फिर बोले, ‘‘तुम सोफिया ही हो न… सौरभ की मंगेतर?’’

‘‘हां,’’ सोफिया ने ‘नील चाचा’ को बहुत हैरत से देखा.

‘‘हां, तो तुम्हें सचमुच नहीं पता कि सौरभ सेना का जवान है. वह भारतीय सेना में अफसर है.’’

‘‘देखो, उस ने बताया था मुझे, लेकिन मैं भूल गई,’’ सोफिया को झिझक हुई. उसे अपने बरताव पर कोफ्त हो रही थी. नाहक ही उस ने ‘नील चाचा’ से सौरभ के बारे में पूछ लिया. आखिर क्या सोचेंगे वे…
‘‘मेरी कोई डाक आए तो बताइएगा,’’ सोफिया बोली.

‘‘जरूर,’’ ‘नील चाचा’ बोले.

सोफिया घर पहुंची तो वह सौरभ के बारे में ही सोचती रही. सेना में अफसर… और अपने आप को घोड़े की सेवा करने वाला एक मामूली सेवक बता रहा था. इंडियन आर्मी में अफसर और अपने आप को मामूली गाइड बता रहा था.

आने दो इस बार, फिर खबर लेती हूं. महीनों बात नहीं करूंगी. सम?ाता क्या है अपने आप को. बहुत स्मार्ट बनते हो, बच्चू. अब खत लिखेंगे तो जवाब भी नहीं दूंगी. इस बार मजा चखा कर दम लूंगी.

जब हम किसी से मिल नहीं पाते और उस से प्यार भी करते हैं, तो हालात बहुत मुश्किल हो जाते हैं. प्यार में पड़ी सोफिया का हाल भी कुछ ऐसा ही था. वह सौरभ से मिल तो नहीं सकती थी, लेकिन मिलने की जो भी उम्मीद होती उस पर विचार करती. उस की गैरमौजूदगी में उस से लड़तीझगड़ती और फिर खुद अपनी बेबसी पर रोने भी लगती.

सोफिया का जो था, सौरभ ही था और वह तो बस यह चाहती थी कि किसी तरह उस से बात हो जाए. कहीं से उस का खत आ जाए. कहीं से उस की सलामती की खबर मिल जाए या कम से कम वह सौरभ को एक नजर भर देख ले.

इतने भर से ही सोफिया को संतोष हो जाता, लेकिन इस युद्ध ने सब मटियामेट कर दिया था. जो युद्ध में गए, वे वापस नहीं लौटे, लेकिन सोफिया का दिल कहता था कि उस का सौरभ एक दिन जरूर लौटेगा.

उस का सौरभ उस को जरूर मिलेगा.

सोफिया अपने सौरभ के प्यार में दिनोंदिन मानो गलती जा रही थी. उस का खिलाखिला रहने वाला चेहरा मुरझाने लगा था.

वह जाड़े की एक दोपहर थी, जिस दिन वह खत सोफिया को डाकिया थमा गया था. खत का मजमून देख कर वह वहीं ‘धम्म’ से आंगन में रखी कुरसी पर गिर पड़ी थी. पुरानी टूटी हुई कुरसी पर से संतुलन गड़बड़ाया और बेहोश हो कर वह गिरी तो टाइल्स से चोट लग गई.

2 महीने अस्पताल में बिताए. ठीक हुई तो सोफिया घर लौटी. सौरभ दुश्मनों से बहादुरी से लड़ता हुआ सियाचीन में शहीद हो गया था.

सोफिया की उम्र भी हो रही थी. मांपिताजी के बहुत जोर देने पर वह पहले तो 3-4 साल तक शादी के लिए तैयार ही नहीं हुई, लेकिन मांबाप की जिद के आगे उस की एक न चली और उस ने सेना के एक अफसर मेजर राजीव से शादी कर ली. अभी 4 साल पहले मेजर साहब भी नहीं रहे थे.

‘‘दादी, आप टीवी देख रही हैं या आराम करेंगी?’’ सुनील ने टोका तो सोफिया का ध्यान टूटा. घड़ी शाम के
5 बजा रही थी.

सुनील ने गलती से चैनल बदल दिया. टीवी पर एक धुन तैर रही थी, ‘कौन तुम्हें यूं प्यार करेगा जैसे मैं करती हूं…’ Hindi Romantic Story

Story In Hindi: एक म्यान दो तलवार

Story In Hindi: ‘‘बिटिया नीलू, आज काम पर तू ही चली जाना. मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ बूढ़े थपरू ने अपनी बेटी से कहा.

‘‘ठीक है बाबा, मैं ही चली जाऊंगी,’’ नीलू ने खुश हो कर कहा.

थपरू चौधरी सुखराम के खेतों पर काम करता था. अगर किसी वजह से वह काम पर नहीं जा पाता था, तो अपनी बेटी नीलू को काम पर भेज देता था. इस से उस की मजदूरी नहीं कटती थी.

जटपुर के चौधरी दलितों पर अपना हक ऐसे ही सम?ाते थे, जैसे अंगरेज हिंदुस्तानियों पर. चौधरी जमीनों के मालिक थे. उन के पास धनदौलत की कमी न थी. जो दलित अपनी मेहनत, हुनर या फिर सरकार की रिजर्वेशन पौलिसी की मदद से नौकरी पा गए थे, वे शहरों में जा बसे थे. रहेसहे दलित आज भी चौधरियों के खेतों पर मजदूरी करने के लिए मजबूर थे.

चौधरी सुखराम 60 बीघे का अमीर काश्तकार था. किसी चीज की कोई कमी न थी. सबकुछ बढि़या चल रहा था. उस ने अपनी दोनों बेटियों का समय से ब्याह कर उन को ससुराल भेज दिया था. दोनों बेटों खगेंद्र और जोगेंद्र की भी अच्छे घरों में शादी कर दी थी. खगेंद्र की 2 बेटियां थीं, जो स्कूल जाने लायक हो गई थीं.

धनदौलत किसे नहीं रिझती है? खगेंद्र ने नीलू को पटा लिया. वह उस के चंगुल में फंस गई. धीरेधीरे उन के संबंधों की चर्चा पूरे गांव में फैल गई.

बूढ़े थपरू ने नीलू को रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन इश्क का भूत जिस पर सवार हो जाए, तो फिर आसानी से नहीं उतरता. उस के जवाब को सुन कर बूढ़ा थपरू भी अवाक रह गया.

नीलू ने भयावह हकीकत उगलते हुए कहा, ‘‘बाबा, मुझे क्यों रोकते हो? गांव में हमारी जात की कितनी ही लोंडियां और औरतें हैं, जो चौधरियों के लड़कों से नैन मटक्का करती हैं और उन के पैसों पर मौज करती हैं. उन से संबंध बना कर नाक ऊंची कर के चलती हैं.’’

‘‘करमजली, धीरे बोल. कमबख्त, वे ऐसा करती हैं तो नाशपिटी तू भी ऐसा ही करेगी. बुढ़ापे में कुलच्छिनी मेरी नाक कटाएगी…’’ थपरू ने कहा.

इस पर नीलू खूब हंसी. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘बाबा, दिखाओ तुम्हारी नाक कहां है? हमारी जात के लोग तो बिना नाक के पैदा होते हैं. नाक तो उन की कटती है जिन के नाक हो. नाक होती है चौधरियों की. उन की लड़की और औरत को हमारी जात का कोई लोंडा छू कर तो दिखाए…’’

‘‘चुप कर बेहया,’’ थपरू बोला.

‘‘मैं कोई तेरी गुलाम न हूं. कमा के लाती हूं और तब तेरा और अपना पेट भरती हूं. तेरे तो दोनों मुस्टंडे बेटे ब्याह कर के तुझ से अलग हो गए और तुझे मेरी छाती पर मरने के लिए छोड़ गए. अब मैं चाहे जो करूं, मुझे रोकने वाला कौन होता है. ले रोटी खा,’’ नीलू ने खाट पर थाली पटकते हुए कहा.

बूढ़ा थपरू नीलू की बात सुन कर सिहर गया. वह चुपचाप दाल के पानी में रोटी भिगो कर खाने लगा. नीलू गाय का दूध निकालने चली गई.

बूढ़ा थपरू सोच रहा था, ‘काश, मैं ने नीलू की शादी बेटों से पहले कर दी होती, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.’

उधर नीलू को ले कर खगेंद्र के घर में भी कोहराम मचा हुआ था. खगेंद्र की पत्नी अनीता को यह बरदाश्त नहीं था कि उस का पति नीलू से किसी तरह का कोई संबंध रखे, लेकिन खगेंद्र के मन में तो कुछ और ही चल रहा था.

शादी के 12 साल बाद भी अनीता खगेंद्र को बेटे का सुख नहीं दे पाई थी. और बच्चे जनने से उस ने मना कर दिया था. वह पढ़ीलिखी सम?ादार औरत थी. उस का कहना था कि बेटाबेटी एकसमान होते हैं. छोटा परिवार, सुखी परिवार.

लेकिन खगेंद्र के अंदर की जमींदारों वाली पुरानी सोच जोर मार रही थी, जहां वंश चलाने के लिए बेटा होना जरूरी था. वह नीलू को रखैल बना कर उस से बेटे का सुख चाहता था.

उस का बाप सुखराम और उस की मां नंदो भी उस के साथ थी. वे भी चाहते थे कि खगेंद्र अपनी इच्छा पूरी करे, लेकिन उस का भाई जोगेंद्र इस के सख्त खिलाफ था.

जब बखेड़ा बढ़ गया तो इस मामले को ले कर एक दिन गांव में पंचायत हुई. खगेंद्र की पत्नी अनीता ने साफसाफ कह दिया, ‘‘पंचो, कान खोल कर सुन लो… एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती हैं. अगर इन्हें उस नीलू के साथ रहना तो खुशी से रहें, मेरे हिस्से की जमीनजायदाद मुझे दे दी जाए. मैं उसी से अपनी बेटियों और अपना पेट पाल लूंगी.’’

खगेंद्र और सुखराम को इस में कोई एतराज नहीं था. वे इस के लिए राजी हो गए. पंचायत में हुए समझौते के मुताबिक पहले जमीन 3 हिस्सों में बंटी. 25-25 बीघा जमीन खगेंद्र और जोगेंद्र के हिस्से में आई और 10 बीघा जमीन सुखराम को मिली.

खगेंद्र की जमीन के 2 हिस्से हुए. आधी जमीन यानी साढ़े 12 बीघा जमीन अनीता के हिस्से में आई. बाकायदा पंचायत के समझौते के मुताबिक सारी जमीनों के बैनामे लिखे गए, जिस से आने वाले समय में कोई झगड़ा न हो. अनीता और खगेंद्र का तलाक हो गया.

खगेंद्र ने नीलू से कोर्ट मैरिज कर ली और वह उस के साथ शहर में रहने लगा. उस के मांबाप भी उस के साथ आ गए.

गांव में रहने और शहर में रहने में जमीनआसमान का फर्क होता है. शहर में रह कर गांव में जा कर खेती करना खगेंद्र के बस की बात न थी, इसलिए उस ने और सुखराम ने अपनी जमीन बंटाई पर उठा दी.

बंटाईदार सालभर में पैसा पहुंचाता तो कुछ दिन तो मौसम बासंती रहता. खगेंद्र और नीलू खूब मौज उड़ाते. सुखराम भी चौधरी बना घूमता. अंगरेजी शराब की दुकान के चक्कर लगाता.

खगेंद्र भी खाली था. वह दोस्तों के साथ खूब पार्टी करता और फिर पैसा खत्म होते ही कर्जा लेने की शुरुआत होती.

लेकिन ऐसा कब तक चलता और कर्जा पहाड़ सा होता गया. जमीन का एक टुकड़ा बेचने के सिवा कोई रास्ता न था. जमीन बेचने का रोग एक बार लग जाए, तो फिर छूटता नहीं. पहले सुखराम की जमीन बिकी, फिर धीरेधीरे खगेंद्र के खूड़ बिकने लगे.

उधर सब से बड़ी चिंता की बात यह थी कि नीलू के बेटा छोड़ बेटी भी पैदा नहीं हो रही थी. खगेंद्र ने नीलू का बहुत इलाज कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. बेटे से वंशबेल चलाने की बात तो बहुत दूर जमीन, जायदाद, जमींदारा सब जाता रहा.

सुखराम की चौधराहट की चूल हिल गई. वह एक आरा मशीन पर चौकीदार हुआ. उसे बहुत पछतावा हुआ कि उस के गलत फैसले से सबकुछ बिखर गया. उसे खगेंद्र को रोकना चाहिए था, लेकिन पुरानी जमींदारी सोच उसे ले डूबी.

खगेंद्र कोई छोटा काम करने से हिचकता था. अभी तक वह शान से जमींदारों वाली जिंदगी जीता आ रहा था, अब पेट पालने के लिए क्या करे, सबकुछ तो वह गंवा बैठा था.

तब एक दिन नीलू ने उसे खरीखोटी सुना दी, ‘‘बड़ा शौक पाल रखा था दूसरी औरत रखने का. अब कुछ करने के नाम पर मां मरी जाती है.’’

ऐसा कब तक चलता. एक दिन खगेंद्र की लाश नहर में तैरती मिली. किसी ने इसे खुदकुशी का मामला बताया, तो किसी ने नीलू की करतूत. गरीब आदमी का मुकदमा कौन लड़ता है. जोगेंद्र ने खगेंद्र का अंतिम संस्कार कर पल्ला झाड़ लिया.

सुखराम पहले ही अपने बेटे खगेंद्र से अलग रहने लगा था. नीलू दूसरों के घरों में झाड़ूपोंछा कर गुजरबसर करने लगी. फिर एक बूढ़े सेठ ने उसे अपनी सेवा में रख लिया. उस के बेटे विदेश में रहते थे और उस की कोई परवाह नहीं करते थे.

बूढ़े सेठ ने बेटों से चिढ़ कर और नीलू की सेवा से खुश हो कर अपनी बहुत सी जायदाद उस के नाम कर दी.

एक दिन बूढ़ा चल बसा. नीलू के दिन सुखचैन से कटने लगे. लोग उसे अब ‘सेठानी’ कह कर पुकारते हैं. Story In Hindi

Hindi Family Story: अपना सा घर

Hindi Family Story: ‘कुछ सुना तुम ने?’

‘क्या हुआ है?’

‘कामिनी ने अपने किराएदार विवेक से शादी कर ली.’

‘यह तो एक दिन होना ही था.’

‘यह सब उस की मां की सोचीसमझी चाल है.’

‘अरे, किराएदार होने के नाते उस ने इतनी छूट दे रखी थी.’

‘यों कहो कि दहेज बचा लिया.’

‘हां, दहेज तो बचा लिया, सो बचा लिया. मगर एक मां को इतनी खुली छूट नहीं देनी चाहिए थी.’

‘अरे, जवान बेटी के होते उस ने किसी कुंआरे को मकान किराए पर दिया ही क्यों?’

‘फिर उस ने किराए की कीमत ब्याज समेत वसूल कर ली.’

पूरे महल्ले में यही सब चर्चा चल रही थी.

रमा देवी विधवा थीं. उन के पति ज्वालाप्रसाद सेल्स टैक्स अफसर थे. जब वे जिंदा थे, तभी से उन्होंने रहने के लिए बड़ा मकान बना लिया था. रिटायरमैंट के एक साल के बाद उन की मौत हो गई. उन के 2 बेटे प्रदीप और नवीन सरकारी नौकरी में अच्छे पदों पर थे.

बड़ा बेटा प्रदीप जबलपुर में असिस्टैंट इंजीनियर था, तो छोटा बेटा नवीन सैंट्रल बैंक औफ इंडिया गुना में मैनेजर था. दोनों की शादी कर उन की गृहस्थी बसा दी गई. वे अपने बीवीबच्चों के साथ मजे में थे. बड़ी बेटी करुणा की शादी कर के वे निश्चिंत हो गए थे.

कामिनी सब से छोटी बेटी थी. वह अभी तक कुंआरी थी, जो कालेज में पढ़ रही थी. मकान का कुछ हिस्सा रमा देवी ने किराए पर दे रखा था. एक कमरा ऊपर वाला अभी 2 महीने पहले ही खाली हुआ था, इसलिए उस के लिए कोई किराएदार चाहिए था, जिस की खोजबीन जारी थी. आखिरकार किराएदार की खोज पूरी हुई.

उस दिन भरी दोपहर में ऐसे ही कामिनी ने दरवाजा खोला, तो सामने एक नौजवान को खड़ा पाया. दोनों की नजरें मिलीं. नौजवान कामिनी को एकटक देखता जा रहा था.

तब कामिनी संकोच से शरमा गई. वह बोली, ‘‘कहिए?’’

वह नौजवान बोला, ‘‘सुना है, आप के यहां कोई कमरा खाली है और उसे किराए पर देना है?’’

‘‘आप ने सही सुना है. क्या आप किराएदार बन कर आए हैं?’’

‘‘हां,’’ उस नौजवान ने कहा.

‘‘भीतर आइए,’’ कामिनी ने जब यह कहा, तब उस ने नौजवान के चेहरे को गौर से देखा, तो पाया कि वे तो उसी के कालेज के नए असिस्टैंट प्रोफैसर विवेक शर्मा हैं.

कामिनी उन्हें सोफे पर बैठा कर अंदर चली गई. थोड़ी देर बाद रमा देवी आ कर बोलीं, ‘‘कहिए मिस्टर, कमरा देखने आए हो?’’

‘‘जी हां अम्मांजी,’’ उस नौजवान ने हाथ जोड़ कर उठते हुए कहा.

‘‘फिलहाल तो एक कमरा खाली है, उसे किराए पर देना है. मगर किराए पर देने से पहले मैं आप की जानकारी लेना चाहती हूं,’’ रमा देवी ने कहा.

‘‘ले लीजिए अम्मांजी, मैं देने को तैयार हूं.’’

‘‘नाम क्या है? करते क्या हो? कहां के रहने वाले हो?’’ जब रमा देवी ने एकसाथ कई सवाल पूछ लिए, तब वह नौजवान बोला, ‘‘अम्माजी, मेरा नाम विवेक शर्मा है. मैं कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर हूं और उज्जैन का रहने वाला हूं.

‘‘जाति से ब्राह्मण हो. मगर यह बताओ, तुम शादीशुदा हो या कुंआरे?’’ रमादेवी का अगला सवाल सुन कर विवेक शर्मा कुछ पल तक नहीं बोला.

तब रमा देवी ने फिर पूछा, ‘‘तुम ने बताया नहीं.’’

‘‘जी अम्मांजी, अभी कुंआरा हूं.’’

‘‘तब तो कमरा नहीं मिलेगा,’’ रमा देवी इनकार करते हुए बोलीं.

‘‘मेरे साथ मेरी अम्मां भी रहेंगी.’’

‘‘ठीक है, तब तो चलेगा. आइए, चल कर कमरा देख लीजिए,’’ कह कर रमा देवी विवेक को कमरा दिखाने ऊपर ले गईं.

थोड़ी देर बाद वे दोनों लौटे, तब तक कामिनी चाय ला चुकी थी.

चाय पीते हुए विवेक ने कहा, ‘‘मुझे कमरा पसंद है. किराया बता दीजिए.’’

‘‘मगर मैं अनजान पर कैसे भरोसा कर लूं. किसी की गवाही चाहिए,’’ रमा देवी की यह बात सुन कर विवेक कोई जवाब नहीं दे पाया. अभी 2 महीने पहले ही वह ट्रांसफर हो कर यहां आया है. गवाही किस से दिलवाए, यह समस्या थी.

तभी रमा देवी उसे चुप देख कर बोलीं, ‘‘जवाब नहीं दिया.’’

‘‘अभी मैं इस शहर में नयानया आया हूं…’’ विवेक ने कहा, ‘‘मगर आप मुझ पर विश्वास रखिए, मैं आप को किराया हर महीने दूंगा. आप किराया बता दीजिए.’’

‘‘किराया 1,500 रुपए लगेगा,’’ रमा देवी बोलीं, ‘‘लाइट और पानी का खर्च अलग से देना होगा. मंजूर हो तो आ कर रह सकते हो.’’

‘‘आप एक छोटे से कमरे का किराया ज्यादा बता रही हैं,’’ विवेक बोला.

‘‘किराया तो यही लगेगा. इस से एक पैसा भी कम नहीं होगा…’’ रमा देवी अपना फैसला सुनाते हुए बोलीं, ‘‘रहना है तो रहो. हां, एक महीने का किराया एडवांस देना होगा.’’

‘‘ठीक है, मुझे मंजूर है,’’ कह कर विवेक ने कामिनी की तरफ देख कर अपने हथियार डाल दिए. फिर रमा देवी के हाथों में एडवांस थमाते हुए वह बोला, ‘‘लीजिए यह एडवांस किराया. मकान में सब तरह की सुविधाएं हैं, इसलिए महंगा किराया भी चलेगा.’’

इतना कह कर विवेक हाथ जोड़ कर बाहर निकल गया. एक बार उस ने कामिनी की ओर देखा, फिर कामिनी अपनी मां से बोली, ‘‘मम्मी, ये तो वही सर हैं, जो हमारे कालेज में आए हैं.’’

‘‘तुम ने पहले क्यों नहीं बताया?’’ रमा देवी जरा डांटते हुए बोलीं, ‘‘मगर है बड़ा समझदार. मैं ने उसे ब्राह्मण समझ कर किराए पर रखा है.’’

विवेक पहली तारीख को रमा देवी के मकान में किराएदार बन कर आ गया और थोड़े दिनों में ही उस ने रमा देवी का विश्वास जीत लिया. अब उस का ज्यादातर समय रमा देवी के यहां बीतने लगा. वह खुल कर बातें करने लगा. अगर कोई बाहरी आ जाए तो विवेक को किराएदार नहीं, बल्कि परिवार का एक जिम्मेदार सदस्य ही समझता था.

जब उन के बीच पारिवारिक संबंध बन गए, तब विवेक और कामिनी के बीच संकोच की दीवार भी टूट गई. दोनों के बीच खुल कर बातें होने लगीं. विवेक से पढ़ने के बहाने कामिनी बिना किसी रोकटोक के उस के कमरे में घंटों बैठी रहती थी.

कभीकभार विवेक कामिनी को घुमाने ले जाने लगा, जबकि रमा देवी ने कभी इस का विरोध नहीं किया. मगर धीरेधीरे यह बात महल्ले और रिश्तेदारों में फैलने लगी. विवेक किराएदार बन कर जरूर आया है, मगर अपने घर जमाई बनने का देख रहा है. अगर कोई अपरिचित उन्हें साथसाथ देख लेते थे, तब वे विवेक को कामिनी का पति समझते थे.

‘रमा देवी ने इन दोनों को इतनी छूट दे रखी है कि दोनों बेशर्मी से घूमते है.’

‘कामिनी तो पढ़ने के बहाने प्रोफैसर के कमरे में बैठ कर प्रेम गीत लिख रही है.’

‘देखो, रमा देवी इतनी अंधी हैं कि उसी के घर में प्रोफैसर रंगरेलियां मना रहा है. देखना एक दिन कामिनी को बरबाद कर के भाग जाएगा. तब रमा देवी की आंखें खुलेंगी.’

ये सारी बातें रमा देवी के कानों में जरूर पड़ती थीं, मगर उन्होंने इन बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया.

जब चर्चा ज्यादा होने लगी तब रमा देवी की खास सहेली कमला देवी आ कर बोलीं, ‘‘ऐ रमा, मैं क्या सुन रही हूं…’’

‘‘क्या सुन रही है कमला?’’ रमा देवी नाराजगी से बोलीं.

‘‘अरे वह प्रोफैसर, कामिनी के साथ ज्यादा ही दिख रहा है और तू अंधी बनी हुई है.’’

‘‘कमला, यह तू महल्ले वालों की भाषा बोल रही है.’’

‘‘क्या मतलब है तेरा?’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि तू भी वही कह रही है, जो पूरा महल्ला कह रहा है.’’

‘‘अरे, महल्ले ने जो देखा है, वही मैं ने भी देखा है.’’

‘‘और तू महल्ले वालों की हां में हां मिला रही है.’’

‘‘महल्ले वालों की हां में हां नहीं मिला रही हूं, बल्कि इन आंखों से देखा है, इसलिए कह रही हूं…’’ कमला देवी बोलीं, ‘‘मेरा कहना मान, उस प्रोफैसर को निकाल दे. एक दिन वह कामिनी को बरबाद कर के भाग जाएगा.’’

‘‘मगर तुम लोगों में से किसी ने भी प्रोफैसर को नहीं समझा,’’ रमा देवी बचाव करते हुए बोलीं.

‘‘अच्छा तो तू उसे पूरी तरह समझ चुकी है. बता क्या समझी तू? जवाब दे? चुप क्यों है? इस प्रोफैसर पर तू घमंड कर रही है, देखना एक दिन कामिनी को ले कर भाग जाएगा. तब तेरी यह अंधी आंखें खुलेंगी… इसलिए कहती हूं कि तू प्रोफैसर से कमरा खाली करा कर निकाल दे.’’

‘‘मगर कमला, कामिनी मेरी बेटी है और उस की मुझे भी चिंता है.’’

‘‘क्या खाक चिंता है तुझे. चिंता होती तो जवान बेटी के होते उस प्रोफैसर को कमरा नहीं देती.’’

‘‘अरे, मैं ने कमरा दे दिया तब तेरे पेट में क्या मरोड़ उठ रही है?’’

‘‘मैं तेरी सहेली हूं, इस नाते कह रही हूं…’’ एक बार फिर कमला देवी समझाते हुए बोलीं, ‘‘अगर तेरी समझ में नहीं आता है. तो तू जान तेरा काम जाने. अब मैं कभी नहीं कहूंगी. और दे अपनी बेटी को मनचाही छूट.

‘‘अभी मेरी बात तेरी समझ में नहीं आ रही है. जब पानी सिर से गुजर जाएगा, तब मेरी बात तेरे समझ में आएगी. मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी. अच्छा चलती हूं,’’ इतना कह कर कमला देवी नाराज हो कर वहां से चली गईं.

कामिनी और विवेक का प्यार अब तक पूरी तरह परवान चढ़ चुका था, मगर रमा देवी की तब भी आंखें नहीं खुलीं. लोगों में अब चर्चा बहुत गरम चलने लगी कि रमा देवी ने खुली छूट दे रखी है, तभी तो वे दोनों साथसाथ दिखाई देते हैं. कालेज में गुरुशिष्य का नाता घर आ कर बदल जाता है.

कामिनी विवेक के स्कूटर पर ही बैठ कर कालेज आती जाती है. महल्ले वाले अपनी निगाह से देख रहे थे और तरहतरह की बातें कर रहे थे.

यह बात रिश्तेदारों में भी पहुंच गई. वे भी मौका आने पर टिप्पणी करने से नहीं छूटते थे, सारा कुसूर रमा देवी को दे रहे थे. मगर रमा देवी की हालत यह थी कि जब भी वे अपने बेटों से कामिनी के लिए लड़का देखने की बातें करतीं, तब वे उन्हें उलटा कहते कि अम्मां तुम ही ढूंढ़ लो. हमें नौकरी के चलते फुरसत नहीं है.

इस तरह दोनों बेटे हाथ झटक लेते थे. विधवा रमा देवी ने कई जगह बात चलाई, मगर कुछ जगह दहेज ज्यादा मांगने के चलते बात टूट जाती, और कुछ को रमा देवी ने इसलिए खारिज कर दिया कि वे कोई नौकरी व कामधंधा नहीं करते थे. कामिनी को वे ऐसे घराने में ब्याहना चाहती थीं कि वह सुख से रह सके.

ऐसे में विधवा रमा देवी ने कहांकहां दौड़ नहीं लगाई. आगेपीछे उस की शादी तो करना ही है, इसी वजह से कामिनी और विवेक को उस ने ज्यादा छूट दे रखी थी.

आखिर वही हुआ, जिस की उम्मीद थी. कामिनी और विवेक ने गुपचुप तरीके से कोर्टमैरिज कर ली. शादी कर वे उज्जैन चले गए. तब यह बात सारे महल्ले के साथ रिश्तेदारों में भी फैल गई. रमा देवी जो चाहती
थीं, वह हो गया. मगर अब रिश्तेदारों व महल्ले वालों के ताने भी वे सुन रही थीं.

जब रमा देवी ने इस बात की खबर अपने दोनों बेटों को दी, उन्होंने भी यही राय दी कि हमें भी यह रिश्ता मंजूर है. कामिनी ने जिस से भी शादी की, वह कमाऊ है. तुम भी तो कमाऊ दामाद चाहती थीं. रहा रिश्तेदारों और महल्ले वालों का तो थोड़े दिनों तक कह कर वे भी चुप हो जाएंगे. Hindi Family Story

Hindi Family Story: नया सवेरा – आलोक की क्या कहानी थी

Hindi Family Story, लेखिका- डा. अनीता सहगल ‘वसुन्धरा’

सावन का महीना, स्कूल-कालेज के बच्चे सुबह 8.30 बजे सड़क के किनारे चले जा रहे थे, इतने घमें नघोर घटाओं के साथ जोर से पानी बरसने लगा और सभी लड़के, लड़कियाँ पेड़ के नीचे, दुकानों के शेड के नीचे खड़े हो गये थे. उन्हें सबसे ज्यादा डर किताब, कापी भीगने का था. उन्हीं बच्चों में एक लड़की जिसका नाम व्याख्या था और वह कक्षा-6 में पढ़ती थी, वह एक मोटे आम के तने से सटकर खड़ी थी. पेड़ का तना थोड़ा झुका हुआ था जिससे वह पानी से बच भी रही थी. लगभग दस मिनट बाद पानी बन्द हो गया और धूप भी निकल आई.

एक लड़का जिसका नाम आलोक था, वह भी कक्षा-6 में ही व्याख्या के साथ पढ़ता था. वहाँ पर कोई कन्या पाठशाला न होने के कारण लड़के और लड़कियाँ उसी सर्वोदय काॅलेज में पढ़ते थे. आलोक बहुत गोरा व सुगठित शरीर का था लेकिन व्याख्या बहुत सांवली थी, व्याख्या संगीत विषय लेकर पढ़ रही थी, उसकी आवाज में एक जादू था, जो उसकी एक पहचान बन गयी थी. काॅलेज के कार्यक्रमों में वह अपने मधुर स्वर के कारण सभी की प्रिय थी. इसी तरह समय धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और व्याख्या ने संगीत में कक्षा-10 तक काफी ख्याति प्राप्त कर ली थी.

आलोक उसी की कक्षा में था और वह व्याख्या को देखता रहता था. कभी भी कोई भी दिक्कत, परेशानी किसी भी प्रकार की होती थी, तो आलोक उसे हल कर देता था. दोपहर इन्टरवल में लड़कियों की महफिल अलग रहती और लड़कों की मंडली अलग रहती थी. लेकिन आलोक की नजर व्याख्या पर ही होती थी.

हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर व्याख्या कक्षा-11 में पहुंच गयी थी और आलोक भी कक्षा-10 उत्तीर्ण कर कक्षा-11 में पहुंच गया था. शाम 3 बजे से 4 बजे तक संगीत की क्लास चलती थी तथा सभी बच्चों में सबसे होशियार और मेहनती व्याख्या ही मानी जाती थी. कक्षा ग्यारह के बाद यानि कि छः वर्ष में व्याख्या ने संगीत प्रभाकर की डिग्री हासिल कर ली थी, जिससे शहर और अन्य शहरों में स्टेज कार्यक्रम के लिए आमंत्रित की जाने लगी. माँ वीणादायिनी ने व्याख्या को बहुत उम्दा स्वर प्रदान किये थे, जिसके कारण गायन में व्याख्या का नाम प्रथम पंक्ति में लिया जाना लगा. व्याख्या को कई सम्मानों से सम्मानित किया जाने लगा. अब तो जहाँ कहीं भी संगीत-सम्मेलन होता, सबसे पहले व्याख्या आहूत की जाती. यदि शहर में कार्यक्रम होता तो आलोक वहाँ व्याख्या को सुनने पहुँच जाता और व्याख्या कार्यक्रम देते समय एक नजर आलोक को जरूर देख लेती थी मगर उसका अधिक सांवलापन उसके जेहन को हमेशा झझकोरता रहता था.

धीरे-धीरे समय बीतता गया और व्याख्या ने संगीत की प्रवीण परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली, लेकिन इतना होने पर भी वह हर समय यही सोचती रहती थी कि मेरे माता-पिता इतने सुन्दर है फिर मैं काली कैसे पैदा हो गयी. उसका रूप-रंग ना जाने किस पर चला गया.

आज व्याख्या संगीत के चरम पर विराजमान थी. शास्त्रीय संगीत की दुनिया में लगातार सीढ़ियाँ चढ़ती चली जा रही थी और संगीत की दुनिया में राष्ट्रीय स्तर की एक जानी-मानी गायिका कहलाने लगी थी. उसे आज भी याद है कि…..

घर के बाहर खूबसूरत लाॅन में बैठी धीरे-धीरे ना जाने क्या सोचते-सोचते वह चाय का प्याला हाथ में लिए अपनी आरामवाली कुर्सी पर बैठी थी. ‘‘मेम साहब, आपका पत्र आया है ? ‘अरे आप ने तो चाय पी नहीं, अब तो यह बहुत ठंडी हो गयी होगी, लाइये दूसरी बना लाऊँ. ‘‘ बिना उत्तर की प्रतीक्षा करे हरि काका ने मेरे हाथ से प्याला लिया और पत्र मेज पर रखकर चले गये. मैंने देखा आलोक का पत्र था. ‘‘व्याख्या, तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत अकेला हो गया हूँ बहुत लड़ चुका हूँ मैं अपने अहं से. अब थक गया हूँ, हार चुका हूँ…….. मुझे नहीं मालूम कि मैं किसके लिए जी रहा हूँ,? मैं नहीं जानता कि मैं इस योग्य हूँ या नहीं, पर तुम्हारे वापस आने की उम्मीद ही मेरे जीवन का मकसद रह गया है, बस उसी क्षण का इन्तजार है, ना जाने क्यों…………….? आओगी न,…………..

पत्र पढ़ने के बाद व्याख्या की भाव शून्य आंखों में एक भाव लहरा कर रह गया. पत्र तहा कर उसने लिफाफे में रख दिया, उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि आलोक जैसा जिद्दी, अभिमानी और कठोर दिल इंसान भी इस तरह की बातें कर सकता है. जरूर कोई मतलब होगा, मेज पर पड़ी किताब के पन्ने हवा के झोंके के कारण फड़फड़ाते हुये एक तरफ होने लगे. जिंदगी के पंद्रह वर्ष पीछे लौटना व्याख्या के लिए मुश्किल नहीं था क्योंकि उसके आज पर पन्द्रह वर्षों के यादों का अतीत कहीं न कहीं हावी हो जाता है.

सोचते-सोचते वह आज भी नहीं समझ पाई कि माँ-पापा तो खूबसूरत थे, पर उसकी शक्ल न जाने किस पर चली गयी, पर माँ उसे हमेशा हिम्मत बंधाती थी कि ‘‘कोई बात नहीं बेटी, ईश्वर ने तुझे रंग नहीं दिया तो क्या हुआ, तू अपने नाम को इतना विकसित कर ले कि सब तेरी व्याख्या करते ना थके.’’ बस व्याख्या ने सचमुच अपने नाम को एक पहचान देनी प्रारम्भ कर दी. उसने हुनर का कोई भी क्षेत्र नहीं छोड़ा, साथ ही ईश्वर की दी गयी वो नियामत जिसे व्याख्या ने पायी थी., ‘सुरीली आवाज’ जिसके कारण वह संगीत की दुनिया में लगातार सीढ़िया चढ़ती गयी और शास्त्रीय संगीत की दुनिया में राष्ट्रीय स्तर की एक जानी मानी गायिका कहलाने लगी.

उसे आज भी याद है कि अहमदाबाद का वो खचाखच भरा सभागार और सामने बैठे जादू संगीतज्ञ पं0 राम शरन पाठक जी. सितार पर उंगलिया थिरकते ही, सधी हुई आवाज का जादू लगातार डेढ़ घंटे तक दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर गया. दर्शकों की तालियाँ और पं0 जी के वो वचन कि ‘‘बेटी तुम बहुत दूर तक जाओगी. शायद आज उनकी वो बात सच हो गयी लेकिन उन दर्शकों में एक हस्ती, जो नामी-गिरामी लोगों में जानी जाती थी, देवाशीस जी, उनका खत एक दिन पिता के नाम पहुँचा कि ‘‘हमें अपने बेटे के लिए आपकी सुपुत्री चाहिए जो साक्षात सरस्वती का ही रूप है. ‘‘एक अंधा क्या मांगे दो आंखे. मेरे पिताजी ने बगैर कुछ सोचे समझे हाँ कर दी. शादी के समय मंडप पर बैठे उन्हें देखा था, एक संुदर राजकुमार की तरह लग रहे थे. सभी परिवार के लोग मुझे मेरी किस्मत पर बधाई दे रहे थे. पर खुदा को कुछ और मंजूर था. आलोक जिन्हें मैं बिल्कुल पसन्द नहीं थी. शादी के बाद क्या, उसी दिन ही अपने पिताजी से लड़ना कि ‘‘कहाँ फसा दिया’’ इस बदसूरत लड़की के साथ.

आलोक घर पर नहीं रूके और पूरे आग बबूला होकर घर छोड़कर चले गये. मेरे सास-ससुर ने सचमुच दिलासा दी. सुबह उठकर नहा धोकर बहू के सारे कर्तव्य निभाते हुये मैं भगवान भजन भी गाती रही. सास ससुर तो अपनी बहू की कोयल सी आवाज पर मंत्र मुग्ध थे, पर मैं कहीं न कहीं अपनी किस्मत को रो रही थी. आलोक पन्द्रह-बीस दिन में कभी-कभार आते थे, लेकिन मेरी तरफ रूख भी नहीं करते थे, बस अपनी जरूरत की चीजें लेकर तुरन्त निकल जाते थे, अब तो यह नियम सा बन गया था. मैं भी अपनी किस्मत को ही निर्णय मान लिया लेकिन कहीं न कही आलोक का इंतजार भी था.

एक दिन मुझे चुपचाप बैठे देख ससुर जी ने कहा-कि ‘‘मैं तो एक बढ़िया सी खुशखबरी लाया हूँ, वो यह कि एक संगीत आयोजन में विशेष  प्रस्तुति के लिए तुम्हारे नाम का आमंत्रण आया है, ‘‘पर बाबूजी मुझे तो दो साल हो गये हैं स्टेज शो किये हुए. अब डर लगता है, पता नहीं क्यों ? में आत्मविश्वास खो सा गया है. नहीं-नहीं मैं नहीं गा पाऊँगी‘‘व्याख्या ने कहा. तुम गा सकती हो, मेरी बेटी जरूर गायेगी और जायेगी, पिता जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा. ‘‘बाबूजी के विश्वास से ही मैंने अपना रियाज शुरू कर दिया. बाबूजी घंटो मेरे साथ रियाज में मेरा साथ देते. वो दिन आ गया. खचाखच भरा वही सभागार, अचानक उसे याद आया कि उसी मंच से तो उसके जीवन में अंधेरा आया लेकिन आज इसी मंच से तो उसके जीवन का नया सवेरा होने वाला है. कार्यक्रम के बाद दर्शकों की बेजोड़ तालियों ने एक बार फिर मुझे वो आत्मविश्वास भर दिया जो सालों पहले कहीं खो गया था.

दूसरे दिन मैं अपनी तस्वीर अखबार में देख रहीं थी कि बाबूजी अचानक घबराते हुए आये और कहने लगे बेटी ‘‘जल्दी तैयार हो जाओ, आलोक का एक्सीडंेट हो गया.’’ व्याख्या के चेहरे पर कोई शिकन न उभरी लेकिन अचानक हाथ सर की मांग में भरे सिंदूर पर गया कि यह तो आलोक के नाम का है.

मैं बाबूजी के साथ गाड़ी में बैठ गयी. अस्पताल में शरीर पर कई जगह पर गहरी चोटों को लिए आलोक बुरी हाल में डाक्टरों की निगरानी में था. पुलिस ने मुझसे आकर पूछा कि-‘‘आप जानती हैं, इसके साथ कार में कौन था ?‘‘मैं समझ नहीं पाई कि किसकी बात हो रही है, फिर थोड़ी देर में पता चला कि आलोक के गाड़ी में जो मैडम थी, उनको नहीं बचाया जा सका. पूरे एक हफ्ते बाद जब आलोक को होश आया तो आंखें खुलते ही उसने पूछा-‘‘मेघा कहाँ है’’? डाॅक्टर साहब, वह ठीक तो है न ? वह मेरी पत्नी है.‘‘ पुलिस की पूछ-ताछ से पता चला कि उन दोनों का एक पाँच महीने का बेटा भी है जो अभी नानी के यहां है ? व्याख्या के सब्र का बांध टूट गया और उसमें इससे ज्यादा कुछ सुनने की शक्ति न बची. 6-7 महीने का कम्पलीट बेड रेस्ट बताया था डाॅक्टर ने. आलोक घर आ चुका था. व्याख्या आलोक का पूरा ध्यान रखती, खाने-पीने का, दवाई का. पूरी दिनचर्या के हर काम वह एक पत्नी की अहमियत से नहीं, इंसानियत के रिश्ते से कर रही थी. चेहरे पर पूरा इत्मीनान, कोमल आवाज, सेवा-श्रद्धा, धैर्य, शालीनता ना जाने और कितने ही गुणों से परिपूर्ण व्याख्या का वह रूप देखकर खुद अपने व्यवहार के प्रति मन आलोक का मन आत्मग्लानि से भर जाता. इतना होने पर भी वही भावशून्य व्यवहार.

कितनी बार मन करा कि वो मेरे पास बैठे और मैं उससे बाते करूँ, लेकिन वह सिर्फ काम से काम रखती, सेवा करती और मेरे पास बोलने की हिम्मत न होने के कारण शब्द मुंह में रह जाते. व्याख्या अपने कार्यक्रम के लिए बाबूजी के साथ भोपाल गयी थी. आलोक ने सोचा लौटने पर अपने दिल की बात जरूर व्याख्या से कह देगा और मांफी मांग लेगा. भोपाल से लौटने पर बाबूजी ने खबर दी कि-‘‘मेरी बहू का दो साल तक विदेशों में कार्यक्रम का प्रस्ताव मिला है, अब मेरी बहू विदेशों में भी अपने स्वर से सबको आनन्दित करेगी. ‘‘एक दिन जब व्याख्या सुबह नहाकर निकली तो आलोक ने कहा-‘‘ मैं अपनी सारी गलतियों को स्वीकारता हूँ. मैं गुनहगार हूँ तुम्हारा………………….मुझे माफ कर दो………..’’ कितना आसान होता है न मांफी मांगना. पर सब कुछ इससे नहीं लौट सकता ना, जो मैंने खोया है, जितनी पीड़ा मैने महसूस की है, जितने आंसू मैनें बहाए हैं, जितने कटाक्ष मैनें झेले हैं. क्या सच है उसकी बिसात और फिर आलोक जो आपने किया यदि मैं करती तो क्या मुझे स्वीकारते ? नहीं, कभी नहीं बल्कि मुझे बदचलन होने का तमगा और तलाक का तोहफा मिलता. व्याख्या ने बिना कुछ कहे मन में सोचा. व्याख्या के कुछ न कहने पर उस समय तो आलोक को मानो काठ मार गया. वो अपनी जिंदगी की असलियत पर  पड़ा परदा हटते देख रहा था कि वह कैसा था…‘‘इतने दिनों तक मैनें आपकी सेवा की, आपका एहसान उतारने के लिए. मैं वास्तव में एहसान मंद हूँ. आपने जितना अपमानित किया उतना ही अधिक अपने लक्ष्य के प्रति मेरा निश्चय दृढ हुआ है.‘‘ अचानक व्याख्या की आवाज से आलोक अपनी सोच से बाहर आया. व्याख्या एक आर्कषक अनुबंध के अंतर्गत विदेश यात्रा पर निकल गयी और अब जब कभी वह लौटती तो, प्रायोजकों के द्वारा भेंट किये गये किराये के बंगले पर ठहरती, लेकिन कभी-कभार बाबूजी से मिलने जरूर आती. एक-एक दिन करके महीने और अब तो कई साल गुजर गये, सभी अपने आप में मस्त हैं. संगीत के अलावा कुछ नहीं सूझता व्याख्या को. अब तो वही उसके लिए प्यार, वही जीवनसाथी. कार्यक्रमों की धूम, प्रशंसकों की भीड़ पूरे दिन व्यस्त रहती, मगर फिर एक रिक्तता थी, जीवन में. रह रहकर आलोक का ख्याल आता, दुर्घटना के पहले और बाद में आलोक के साथ बिताए एक-एक पल उसकी स्मृति में उमड़ने-घूमड़ने लगे. लेकिन आज आलोक की यह छोटी सी चिट्ठी. पर इतने छोटे से कागज पर, कम मगर कितने स्पष्ट शब्दों में बरसों की पीड़ा को सहजता से उकेर कर रख दिया है उसने, आखिर कब तक अकेली रहेगी वह? सब कुछ है उसके पास, मगर वह तो नहीं है जिसकी ज़रूरत सबसे ज्यादा है. व्याख्या सोच में पड़ गयी. बाबूजी भी बीमार चल रहे हैं, मिलने जाना होगा.

अगले ही दिन व्याख्या ससुराल पहुँची, चेहरे पर टांको के निशानों के साथ आलोक बहुत दुबला प्रतीत हो रहा था. बाबूजी को देखने के पश्चात जैसे ही व्याख्या दरवाजे के बाहर निकली, आलोक ने उसका हाथ थाम लिया. बरसों पहले कहा गया वाक्य फिर से लड़खड़ाती जुबान से निकल पड़ा-‘‘व्याख्या, क्या हम नई जिंदगी की शुरूआत नहीं कर सकते? ‘‘क्या तुम मुझे माफ नहीं कर सकती? व्याख्या की निगाहें आलोक के चेहरे पर टिक गयी. घबरा कर आलोक व्याख्या का हाथ छोड़ने ही वाला था कि व्याख्या मुस्करा उठी. मजबूती से आलोक ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए ‘‘अब मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा. ‘‘व्याख्या शरमा कर आलोक के सीने से लग गयी. आज उसके दीप्तिमान तेजोमय मुखमंडल पर जो मुस्कान आई उसे लगा वास्तव में आज ही उसकी संगीत का रियाज पूरा हुआ और आत्म संगीत की वर्षा हुई है. क्योंकि कल उसके जीवन का नया सवेरा जो आने वाला था. Hindi Family Story

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