इतिहास के किसी भी पन्ने को सेल्यूलाइड के परदे पर जीवंत करना एक फिल्मकार के लिए सबसे बड़ी चुनाती होती है. पर फिल्म ‘‘राग देश’’ के लेखक व निर्देशक तिग्मांशु धुलिया यहां पर बुरी तरह से असफल रहे हैं. ‘‘राग देश’’ देखने के बाद इस बात का एहसास ही नहीं होता कि यह फिल्मकार ‘पान सिंह तोमर’ जैसी फिल्म बना चुका है.

यह एक काल खंड की फिल्म है, जिसकी कहानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की सेना ‘‘इंडियन  नेशनल आर्मी’’ के तीन जवानों के इर्द गिर्द घूमती है. इन्हें ब्रिटिश सरकार ने 1945 में लाल किले में मुकदमा चलाकर हत्या का अपराधी घोषित किया था. इन सैनिकों ने बर्मा की सीमा पर ब्रिटिश सेना के खिलाफ युद्ध लड़ा था.

मेजर जनरल शाह नवाज खान (कुणाल कपूर), लेफ्टीनेंट कर्नल गुरबख्श ढिल्लों (अमित साध) और कर्नल प्रेम सहगल (मोहित मारवाह) 1942 में सुभाष चंद्र बोस की ‘आजाद हिंद फौज’ यानी कि नेशनल इंडियन आर्मी की अगुवाई कर रहे थें. इनका मकसद ब्रिटिश सेना से लड़कर हिंदुस्तान को आजाद कराना था. दुर्भाग्यवश एक प्लेन दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस का निधन हो गया. तब इन तीन जवानों ने दूसरे सैनिकों से अपना साथ देने के लिए कहा. कुछ विरोध करने लगे, तो उन्हें मौत के घाट उतार दिया. ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने इन्हें बंधक बनाकर इन पर मुकदमा चलाया. मशहूर जज भूलाभाई देसाई (केनी देसाई) ने इनका मुकदमा लड़ा. पर यह अपराधी माने गएं. लेकिन हिंसात्मक दंगे न बढ़े, इसलिए इन्हें छोड़ दिया गया.

तिग्मांशु धुलिया निर्देशित इतिहास के खास काल खंड पर बनी यह फिल्म रोमांचित नहीं करती है. यह फिल्म दर्शकों को बांधकर नहीं रख पाती है. इंटरवल तक तो दर्शक किसी तरह सब्र रख पाता है, मगर इंटरवल के बाद दर्शक सोचने लगता है कि यह फिल्म कब खत्म होगी. यहां तक की इंटरवल के बाद का कोर्ट रूम ड्रामा भी बहुत सतही स्तर का है. फिल्म का कथा कथन बहुत कमजोर है और यह फिल्म फीचर फिल्म की बनिस्पत एक डॉक्यूमेंटरी मात्र बनकर रह गयी है. नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर भी यह फिल्म ठीक से बात नहीं करती है. एक ऐतिहासिक घटनाक्रम का घटिया प्रस्तुतिकरण है. पटकथा में कसाव के अलावा काफी मेहनत की जरुरत नजर आती है.

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