जून की दहकती दोपहर का दहला देने वाला दृश्य था. बीहड़ सरीखे सघन जंगल के बीच बने विशाल मंदिर के बाहर लंबेचौड़े दालान में एकत्र सैकड़ों स्त्रीपुरुषों की भीड़ टकटकी लगाए उस लोमहर्षक मंजर को देख रही थी. सुर्ख अंगारों की तरह दहकती आंखों और शराब के नशे में धुत अघोरी जैसे लगने वाले 2 भोपे (ओझा) बेरहमी के साथ 4 युवतियों की जूतों से पिटाई कर रहे थे.

अंगारे सी बरसती धूप की चुभन और दर्द से बेहाल युवतियां चीखतीचिल्लाती तपते आंगन में लोटपोट हुई जा रही थीं. धूप से बचने के लिए तमाशाई आंगन के ओसारों की छाया में सरक आए थे. जिस निर्विकार भाव से लोग इस जल्लादी जुल्म का नजारा देख रहे थे, उस से लगता था कि यह सब उन के लिए नया नहीं था.

लगभग एक घंटे तक अनवरत चलने वाली इस दरिंदगी से युवतियां बुरी तरह लस्तपस्त और निढाल हो चुकी थीं. उन पर गुर्राते और गंदी गालियों की बौछार करते भोपे उन्हें बालों से घसीटते हुए फिर से खड़ा करने की मशक्कत में जुट गए.

नारकीय यातना का यह सिलसिला यहीं नहीं थमा, अब उन्हें पीठ के बल रेंगतेघिसटते मंदिर की तपती सुलगती 200 सीढि़यां तय करनी थी.

जल्लादी जुल्म ढाने वाले आतताइयों को भी मात करने वाले इन दरिंदों की चाबुक सरीखी फटकार के आगे बेबस युवतियों ने यह काम भी किया. तब तक उन के कपड़े तारतार हो चुके थे, पीठ और कोहनियां छिलने के साथ बुरी तरह लहूलुहान हो गई थीं. हांफती, कराहती, बिलखती युवतियों पर कहर अभी थमा नहीं था.

यातना का दुष्चक्र उन्हें मारे जाने वाले जूतों के साथ आगे बढ़ता रहा. पांव उठाने तक में असमर्थ इन युवतियों को जूते सिर पर रख कर और मुंह में दबा कर 2 किलोमीटर नंगे पांव चलते देखना तो और भी भयावह था. और इस से भी कहीं ज्यादा दर्दनाक और दयनीय दृश्य था, उन जूतों में भर कर पीया जाने वाला जलकुंड का गंदा पानी.

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