और मैंने जीना सीख लिया: हवस के चक्रव्यूह में फंसी कोमल

कोमल रसोईघर में खाना बना रही थी कि तभी मां ने आवाज दी, ‘‘कोमल, पापा को पानी पिला दे. बुखार से उन के होंठ सूख रहे होंगे.’’

कोमल कटोरीचम्मच ले आई और पापा को थोड़ा सा पानी पिला दिया.

पापा के पैर दबाते हुए मां ने कहा, ‘‘जरा अलमारी में देखना कि कितने पैसे रखे हैं. तुम्हारे पापा की दवा खत्म हो गई है.’’

कोमल ने देखा कि अलमारी में तो इतने पैसे भी नहीं थे कि एक वक्त की दवा आ सके. वह परेशान हो गई कि अब क्या करे? किसी से मदद मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं थी, क्योंकि उन्होंने पहले ही बहुत लोगों से कर्ज ले रखा था.

अचानक कोमल को अपने पापा के पुराने दोस्त सूरज अंकल का खयाल आया. किसी जमाने में वे दोनों अच्छे दोस्त थे, पर पता नहीं किसी वजह से उस के पापा ने सूरज अंकल से दोस्ती तोड़ ली थी.

कोमल उसी वक्त सूरज अंकल के घर चल पड़ी.

सूरज घर में अकेले थे. अचानक कोमल को देख कर वे चौंक गए. कुछ समय पहले एक छोटी सी बच्ची दिखने वाली कोमल आज खिलती कली सी खूबसूरत लग रही थी. उस की निखरती जवानी को देख कर सूरज का चेहरा खिल उठा.

जब कोमल ने बताया कि उस के पापा की तबीयत ज्यादा खराब है और वह मदद के लिए आई है, तो उस की मजबूरी में सूरज को अपनी हैवानियत की जीत नजर आ रही थी.

उस ने कोमल से कहा, ‘‘चलो, मैं किसी एटीएम से पैसे निकाल कर तुम्हें दे देता हूं.’’

इस के साथ ही वे दोनों गाड़ी में बैठ कर घर से निकल पड़े. रास्ते में सूरज ने कोमल के साथ छेड़खानी करनी चाही.

कोमल को अपने पिता की उम्र के शख्स से इस तरह के घटिया बरताव की उम्मीद नहीं थी. लिहाजा, वह गुस्से में गाड़ी से उतर गई.

सूरज ने बेहूदगी से गाड़ी मोड़ते हुए कहा, ‘‘अगर किसी भी मदद की जरूरत हो, तो एक रात के लिए मेरे पास आ जाना. तुम जो चाहोगी, मैं दे दूंगा.’’

कोमल ने नफरत से मुंह फेर लिया था. अब वह समझ चुकी थी कि उस के पापा ने यह दोस्ती क्यों तोड़ी थी.

खुद को बेबस महसूस करती कोमल भारी कदमों से घर की ओर चल पड़ी. घर पहुंचते ही उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई, क्योंकि उस के पापा इस दुनिया से जा चुके थे.

मां कोमल को देखते ही बिलख उठीं, ‘‘तू कहां चली गई थी बेटी? देख, तेरे पापा हमें छोड़ कर चले गए.’’

मां रो रही थीं. तीनों छोटे भाईबहन भी रो रहे थे. कुछ पड़ोसी भी आ गए थे. पर कोमल की आंखों में आंसू नहीं थे. वह तो जैसे पत्थर हो गई थी.

वह सोच रही थी कि जब घर में दवा के लिए पैसे नहीं हैं, तो पिता के अंतिम संस्कार के लिए पैसे कहां से आएंगे?

अब कोमल की इज्जत और पिता का अंतिम संस्कार तराजू के दो पलड़ों में तुल रहे थे और पिता के अंतिम संस्कार का पलड़ा भारी रहा. कोमल चल दी सूरज के पास, अपने वजूद का अंतिम संस्कार करने के लिए.

सुबह होने से पहले कोमल पैसे ले कर लौट आई थी. उस के पिता का अंतिम संस्कार अच्छी तरह से हो गया. कुछ दिनों के खाने का भी इंतजाम हो गया था, लेकिन फिर वही चिंता कि छोटे भाईबहनों की पढ़ाई और खानेपीने का खर्च कहां से आएगा?

सूरज ने कोमल को नौकरी दिलाने का भरोसा दिया था. शर्त वही थी एक रात. बूढ़ी मां, भाईबहन की जरूरतों को पूरा करने के लिए कोमल ने अपने सपनों की आहुति दे दी और सूरज के पास चली गई.

सूरज ने कोमल को अपने ही दफ्तर में नौकरी पर रख लिया. अब जब भी सूरज चाहता, कोमल को बुला लेता. न चाहते हुए भी कोमल इस दलदल में फंसती चली गई.

कोमल की मां कुछकुछ समझ रही थीं, पर विरोध नहीं कर पाती थीं, क्योंकि वे जानती थीं कि बिना पैसों के गुजारा करना मुश्किल था.

धीरेधीरे कोमल के दोनों भाइयों ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और कोमल की मदद से ही दोनों ने अपने अलगअलग कारोबार शुरू कर लिए.

कोमल की छोटी बहन की भी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. उस के स्वभाव और खूबसूरती को देखते हुए उसी के कालेज के प्राध्यापक ने शादी का प्रस्ताव भेजा. कोमल को भी यह रिश्ता अच्छा लगा. सो, चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

कोमल बड़ी थी. मां ने उस से शादी करने के लिए कहा, पर वह चुप रही. वह जानती थी कि जिस दलदल में वह फंस चुकी है, अब उस से बाहर नहीं निकल सकती.

सूरज अब कोमल के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताता था, इसलिए उस ने एक फ्लैट ले लिया था. वह अब उस की इज्जत करता था. अकसर उस के लिए तोहफे लाता, कभीकभी बाहर भी घुमाने ले जाता.

कोमल खूबसूरत तो थी ही, अच्छे रहनसहन और महंगे कपड़ों ने उस के रूप को और भी निखार दिया था. वक्त के साथसाथ कोमल ने अपनी अदाओं से लोगों का दिल जीतना भी सीख लिया था.

एक दिन कोमल को मौडलिंग करने का औफर मिला. बस, फिर क्या था. एक के बाद एक नए औफर आने लगे और कोमल मिस काम्या के नाम से मशहूर हो गई.

बहुत से रईस नौजवान लड़के मिस काम्या के दोस्त बन गए थे. वह उन को अपने इशारों पर नचाती थी.

मिस काम्या के कई मौडल दोस्तों को उस को इतनी ऊंचाइयों पर देख कर जलन होती थी.

अब अकसर पार्टियां होती रहतीं और नौजवान लड़के लड़कियां अपनी ख्वाहिशें भी पूरी करते और पैसों की बरसात भी होती रहती.

मिस काम्या किसी भी लड़की को अपने धंधे में लाने का मोटा कमीशन लेती थी. बड़े घरों की बिगड़ी लड़कियों के खर्चे भी ज्यादा होते थे, जो मिस काम्या की वजह से आसानी से पूरे हो जाते थे.

मिस काम्या अब कोमल को पूरी तरह भूल गई थी. घर में भी सब उस को इज्जत की निगाह से देखते.

मिस काम्या खुश थी कि अब उस ने भी जीना सीख लिया था.

गवाही : क्यों हुई नारायण की गिरफ्तारी

चकवाड़ा गांव में कल दोपहर को हुआ दंगा आज सुबह अखबारों की सुर्खियां बन गया. 6 घर जल गए. 3 बच्चों, 4 औरतों व 2 मर्दों की मौत के अलावा कुल 12 लोग घायल हो गए. कुछ लोगों को हलकीफुलकी चोटें आईं.

इत्तिफाक से पुलिस का गश्ती दल वहां पहुंच गया और दंगे पर काबू पा लिया गया. पुलिस ने 30 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.

गिरफ्तार हुए लोगों में नारायण भी एक था. उस ने जिंदगी में पहली बार जेल में रात काटी थी. जेल की उस बैरक में नारायण अकेला एक कोने में सहमा सा लेटा रहा. वह उन भेड़ियों के बीच चुपचाप आंखें बंद किए सोने का बहाना करता रहा. बाकी सभी जेल में मटरगश्ती कर रहे थे.

सुबह होते ही सब के साथ नारायण को भी कचहरी लाया गया. भीड़ से अलग, उदासी की चादर ओढ़े वह एक कोने में बैठ गया.

पुरानी, मटमैली सफेद धोती, आधी फटी बांहों वाली बदरंग सी बंडी, दोनों पैरों में अलगअलग रंग के जूते, बस यही उस की पोशाक थी.

कचहरी के बरामदे में फैली चिलचिलाती धूप सब को परेशान कर रही थी, पर नारायण धूप से ज्यादा अपने मन में छाए डर से परेशान था.

नारायण को इस बात का भी डर था कि अगर आज का सारा दिन कचहरी में ही लग गया तो दिनभर के कामधाम का क्या होगा. शायद आज घर वालों को भूखा ही सोना पड़ेगा.

नारायण को मालूम था कि कचहरी में एक मजिस्ट्रेट होता है, वकील होते हैं और तरहतरह के गवाह होते हैं. जेल से छूटने के लिए जमानत भी देनी पड़ती है.

‘पर आज कौन देगा उस की जमानत? कैसे बताएगा वह अपनी पहचान? कैसे वह अपनेआप को इस कचहरी के चक्कर से बचा पाएगा?’ ये सारे सवाल उस का डर बढ़ाए जा रहे थे.

‘‘नारायण हाजिर हो,’’ कचहरी के गलियारे में एक आवाज गूंजी.

लोगों की भीड़ से नारायण उठा और मजिस्ट्रेट के कमरे की तरफ बढ़ा.

कमरे के दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे टोका, ‘‘हूं, तुम हो नारायण,’’ उस चपरासी की रूखी आवाज में हिकारत भी मिली हुई थी.

‘‘हां हुजूर, मैं ही हूं नारायण.’’

‘‘यहीं खड़े रहो. अभी तुम्हारा नंबर आने वाला है.’’

थोड़ी देर खड़े रहने के बाद चपरासी की दूसरी आवाज पर वह मजिस्ट्रेट के कमरे में घुस गया. उस ने उन मवालियों की तरफ देखा तक नहीं, जो रातभर जेल में उस के साथ बंद थे.

कमरे में घुसते ही नारायण को एक जोरदार छींक आ गई. सभी उस की तरफ देखने लगे, जैसे उस का छींकना भी जुर्म हो गया हो.

नारायण की नजर जब एक आदमी पर पड़ी तो वह चौंक पड़ा और सोचने लगा, ‘अरे, यह आदमी तो अपने गांव का गुंडा है. यही तो गांव में दंगेफसाद कराता है.’

‘‘हां, तो आप दे रहे हैं इस की जमानत?’’ मजिस्टे्रट ने उस आदमी से पूछा.

सफेद कुरतापाजामा में वह पूरा नेता लग रहा था. मजिस्ट्रेट ने कागज देखा, फिर वकील से पूछा, ‘‘जगन नाम है न इस का? क्या करता है यह? ऐसा कोई कागज दिखाइए, जिस से इस की कोई पहचान हो सके. भई, अब तो सरकार ने सब को मतदाताकार्ड दे दिए हैं. कोई राशनकार्ड हो तो वह दिखा दो.’’

वकील ने कहा, ‘‘हुजूर, ये मगेंद्रजी इस की जमानत देने आए हैं. अपने मंत्रीजी की बहन के बेटे हें. मैं भी इस को पहचानता हूं. इस का दंगे में कोई हाथ नहीं. यह तो बड़े शरीफ इज्जतदार लोगों के बीच उठताबैठता है.’’

नारायण हैरानी से कभी वकील को तो कभी जगन को देख रहा था. वह सोचने लगा, ‘कितना मीठा बोल रहा है वकील. इस का बस चले तो मजिस्ट्रेट को धरती पर लेट कर प्रणाम कर ले.

‘…और यह जगन तो हमेशा नशे में धुत्त रहता है. बड़ीबड़ी गाडि़यां इसे गांव तक छोड़ने आती हैं. लोग इसे गांव के सरपंच और इस इलाके के मंत्री का खास आदमी बताते हैं तभी तो मंत्री का भांजा इस की जमानत देने आया है.

‘कल भी दंगा इसी ने कराया होगा. पर इस की तो ऊंची पहुंच है, यह पक्का मुजरिम तो जमानत पर छूट जाएगा, पर मेरा क्या होगा?’ सोचतेसोचते नारायण ने अपनेआप से सवाल किया.

नारायण के पास न कोई वकील है, न राशनकार्ड, न मतदाताकार्ड यानी उस के पास पहचान का कोई सुबूत नहीं है.

राशनकार्ड बना तो था, जिस से कभीकभार उस की बीवी कैरोसिन लाती थी तो कभी मटमैली सी शक्कर भी मिल जाती थी. थोड़े दिन पहले उस की बीवी ने उसे बताया था कि दुकानदार ने राशनकार्ड रख लिया है.

‘दुकानदार ने, पर क्यों?’ नारायण ने झुंझला कर अपनी बीवी से पूछा था.

वह बोली थी, ‘दुकानदार कह रहा था कि सरकार का हुक्म आया है कि राशन की चीजें उसे मिलेंगी, जो इनकाम टकस (इनकम टैक्स) नहीं देता है.

‘यह बात तेरे मर्द को कागज पर लिख कर देनी पड़ेगी. अपने मर्द से इस कागज पर दस्तखत करवा कर लाना. तब मिलेगा राशनकार्ड. यह परची दी है दुकानदार ने.’

नारायण चौथी जमात तक पढ़ा था, पर ये ‘इनकम टैक्स’ क्या होता है, उस की समझ में नहीं आया था. पड़ोसियों की देखादेखी उस ने भी कागज पर दस्तखत कर दिए थे.

नारायण की बीवी उस परची को ले कर राशन की दुकान पर 5-6 बार चक्कर लगा आई थी, पर राशनकार्ड नहीं मिला था. दुकान खुले तभी तो राशनकार्ड मिले.

किसी खास समय में ही खुलती थी राशन की दुकान. फिर अगर नारायण को राशनकार्ड मिल भी जाता तो क्या होता. कौन उसे जेब में रख कर घूमता है.

नारायण को याद आया कि मतदाताकार्ड भी बना था. पूरे एक दिन का काम खोटा हो गया था. गांव के सरपंच, प्रधान व पंच जैसे लोग आए थे और सब को जीप में बैठा कर ले गए थे.

पंचायतघर के अहाते में फोटो खिंचवाने वालों की लाइन लग गई थी. मतदाताकार्ड पर फोटो तो नारायण का ही था, पर खुद नारायण भी उसे पहचान नहीं पाया. अजीब सी डरावनी शक्ल हो गई थी उस की.

प्रधानी के चुनाव हो गए, तो फिर पंच आए और सब के मतदाताकार्ड छीन कर ले गए. पूछने पर वे बोले, ‘आप लोग क्या करेंगे कार्ड का. कहीं गुम हो जाएगा तो बेवजह पुलिस में एफआईआर दर्ज करानी पड़ेगी. हमें दे दो, संभाल कर रखेंगे. चुनाव आएंगे तो फिर से दे दिए जाएंगे.’

गांव के अनपढ़ लोगों को तो जैसे उल्लू बनाएं, बन जाते हैं बेचारे. कार्ड बटोरने के बाद पंचसरपंच भी कन्नी काटने लगे.

नारायण अपने खयालों में खोया हुआ था कि तभी जगन की मोटी भद्दी सी आवाज आई, ‘‘अच्छा हुजूर, बड़ी मेहरबानी हुई.’’

फिर सब एकएक कर कमरे से बाहर निकल गए थे. कमरे में नारायण, मजिस्टे्रट व चपरासी वगैरह रह गए थे.

‘‘आगे चलो,’’ चपरासी ने नारायण को आगे की ओर धकेला. धक्का इतना जोरदार था कि अगर वह मजबूती से खड़ा न होता तो सीधा मजिस्ट्रेट के सामने जा कर गिरता.

मजिस्ट्रेट ने नारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. इस के बाद उस ने नारायण की फाइल देखते हुए पूछा, ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?’’

‘‘जी हुजूर, ना… ना… नारायण.’’

वह ‘हुजूर’ तो आसानी से कह गया, पर ‘नारायण’ शब्द उस की जबान पर ठीक से नहीं आ सका. आवाज हलक में ही अटक गई.

मजिस्ट्रेट ने अपनी नजरें ऊपर उठाईं और नारायण की आंखों में झांका. नारायण ने आंखें झुका लीं. इधर मजिस्ट्रेट ने अपने तजरबे के तराजू में नारायण को तौल लिया था.

मजिस्टे्रट बोला, ‘‘अब क्यों डर रहे हो? दंगा करते समय डर नहीं लगा था क्या? शराब पीना और दंगा करना, बस यही काम जानते हो तुम गंवार लोग.

‘‘अच्छा सचसच बताओ, फावड़े से किस को मारा था तुम ने?’’ मजिस्ट्रेट की आवाज में कड़कपन था.

नारायण से यह झूठ बरदाश्त नहीं हुआ, बल्कि उस की ताकत बन गया. इस बार उस की आवाज में बिलकुल भी घबराहट नहीं थी.

नारायण बोला, ‘‘नहीं हुजूर, मैं कभी शराब नहीं पीता. मैं तो दिनभर दूसरों के खेत में मेहनतमजदूरी करता हूं. अगर नशा करूं तो मेरे बीवीबच्चे भूखे मर जाएं…’’

नारायण में आया यह बदलाव मजिस्ट्रेट को अच्छा नहीं लगा. वह नारायण की बात को बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘अपनी रामकहानी मत सुनाओ मुझे. मेरी बात का जवाब दो.

‘‘मैं ने तुम से पूछा था कि तुम ने फावड़े से किसे मारा था? पुलिस की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि पुलिस ने जब तुम्हें पकड़ा तो तुम्हारे हाथ में फावड़ा था.’’

मजिस्ट्रेट की डांट से नारायण फिर घबरा गया. हाथ जोड़ कर वह मजिस्ट्रेट से बोला, ‘‘हुजूर, फावड़े से तो मैं खेत में निराईगुड़ाई कर के आया था. जब दंगा हो रहा था तब मैं खेत से सीधा घर लौट रहा था. मुझे पता नहीं था कि गांव में दंगा हो रहा है. जब फावड़ा मेरे हाथ में था, तभी पुलिस ने मुझे पकड़ लिया.’’

मजिस्ट्रेट का गुस्सा अभी कम नहीं हुआ था. वह बोला, ‘‘बड़ी अच्छी कहानी बनाई है. अच्छा चलो, पहले अपना पहचानपत्र दो. तुम्हारा न तो कोई वकील है, न जमानत देने वाला और न तुम्हारी पहचान साबित करने वाला कोई गवाह है.

‘‘मुझे तो तुम्हारी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं है. मैं जानता हूं, तुम सब झूठ बोलने में माहिर हो. कोई सुबूत हो तो जल्दी पेश करो, नहीं तो जेल की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘हुजूर, मेरे पास तो कोई पहचानपत्र नहीं है. गरीबी की क्या पहचान, हुजूर. मेरी पहचान का सुबूत तो यह मेरा शरीर और ये 2 हाथ हैं,’’ नारायण ने गिड़गिड़ाते हुए कहा और अपने दोनों हाथ की बंद मुट्ठियां मजिस्ट्रेट के सामने खोल दीं.

उस की दोनों हथेलियां छालों से भरी हुई थीं. उस के हाथों के छाले उस की पहचान के पक्के सुबूत थे, जिन्हें किसी वकील की मदद के बिना सबकुछ कहना आता था.

ऐसी ठोस ‘गवाही’ उस मजिस्ट्रेट ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थी. यह देख कर मजिस्ट्रेट की आंखें भर आईं.

मजिस्ट्रेट ने अपनेआप को संभाला और फिर हुक्म दिया, ‘‘इसे बाइज्जत बरी किया जाता है.’’

नौकरी की दलाली: चौधरी तेजपाल की चलाकी

पारितोष ने 500-500 रुपए के नोट की 24 गड्डियों को गिन कर अपने बैग में रखते हुए कहा, ‘‘तेजपालजी, अब आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. जल्दी ही आप का बेटा सरकारी नौकरी में होगा, वह भी भारत की राजधानी नई दिल्ली में.’’

‘‘हांजी, अब तो सब आप के हाथ में है पारितोष साहब.’’

पारितोष को अब जटपुर गांव से निकलने की जल्दी थी. 12 लाख रुपए उस के हाथ में इतनी आसानी से आ चुके थे, जिस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

पारितोष कार में बैठते हुए बोला, ‘‘तेजपालजी, बस एक बात का ध्यान रखना कि यह मामला हम दोनों के बीच का है, तो किसी तीसरे को इस की भनक भी नहीं लगनी चाहिए.’’

‘‘अरे साहब, मैं किसी से क्यों कुछ बताने लगा. मैं ने तो आप के आने तक की खबर किसी गांव वाले को नहीं दी. मुझे तो बस अपने बेटे की नौकरी से मतलब है’’

‘‘उस की चिंता मत करो तेजपालजी. नौकरी तो लग गई समझ,’’ कहते हुए पारितोष ने अपनी कार की चाबी घुमाई और वहां से चल पड़ा. कुछ ही देर बाद उस की कार मेन रोड की तरफ दौड़ने लगी थी.

चौधरी तेजपाल कार को तब तक जाते देखते रहे, जब तक कि वह आंखों से ओझल नहीं हो गई.

चौधरी तेजपाल पारितोष को इतनी बड़ी रकम दे कर काफी राहत महसूस कर रहे थे. अब उन का छोटा बेटा अनिल उन को ताना नहीं मार सकता था, ‘पापा, आप ने मेरे लिए किया ही क्या है?’

जब चौधरी तेजपाल का बड़ा बेटा सुनील सेना में मेकैनिक के पद पर भरती हुआ था, तब भी उन्होंने 8 लाख रुपए दलाल को दिए थे.

तब सुनील ने उन से बारबार कहा था, ‘पापा, आप को किसी को एक पैसा देने की जरूरत नहीं है. देखना, मैं अपनी काबिलीयत से हर टैस्ट क्वालिफाई कर जाऊंगा.’

लेकिन बाप का दिल था कि मानता ही नहीं था. चौधरी तेजपाल के कानों में यह बात ठूंसठूंस कर भर दी गई थी कि बिना पैसे दिए कोई काम नहीं होता है, इसलिए वे बेटे की नौकरी लगवाने में कोई भी चूक नहीं करना चाहते थे.

यह सोच कर कि नौकरी न लगने पर कहीं सारी जिंदगी पछताना न पड़े कि काश, पैसे दे दिए होते, इसलिए चौधरी तेजपाल ने किसी की कोई बात नहीं सुनी थी और दलाल के हाथों में चुपचाप 8 लाख रुपए रख दिए थे.

जब सुनील की नौकरी लग गई, तो चौधरी तेजपाल को यह सोच कर बड़ी संतुष्टि मिली कि उन्होंने बाप का फर्ज बखूबी निभाया. उन्हें 8 लाख रुपए का कोई गम नहीं था. वे तो यही सोचते रहे कि उन्हीं 8 लाख रुपए की बदौलत सुनील की नौकरी लगी है.

लेकिन सुनील को यह बात आज तक कचोटती है कि उस के पापा ने उस की काबिलीयत पर यकीन न कर के 8 लाख रुपए की रिश्वत पर यकीन किया.

छोटा बेटा अनिल चौधरी तेजपाल को हमेशा ताने मारता रहता कि बड़े भैया के लिए तो उन्होंने तुरंत दलालों को 8 लाख रुपए दे दिए, लेकिन उस के लिए कुछ नहीं करते.

उन्हीं दिनों खतौली के रहने वाले एक रिश्तेदार ने चौधरी तेजपाल को पारितोष से मिलवाया, जो दिल्ली के जल विभाग में अफसर था. उस रिश्तेदार ने उन्हें यह भी बताया था कि पारितोष ने कई लड़कों को जल विभाग के साथसाथ दूसरे विभागों में सैट कराया है.

पारितोष जुगाड़ू आदमी था और उस की पहुंच ऊपर तक थी. उस ने नौकरी की दलाली की कला अपने ही विभाग के एक आला अफसर से सीखी थी. उस अफसर ने पारितोष को बताया था कि नौकरी चाहने वालों से पैसे पकड़ लो, उन्हें इम्तिहान में बैठाओ.

अगर उन लड़कों में से कोई क्वालिफाई कर जाए तो उसे बताओ कि उस का नंबर लाने में हम ने कितनी मेहनत की है. उस का पैसा हजम कर जाओ. जिंदगीभर वह तुम्हारा एहसानमंद भी रहेगा कि तुम ने उस की नौकरी लगवाई.

जिस के पैसे तुम ने पकड़ रखे हैं और अगर उस का नंबर नहीं आया, तो उसे भी बताओ कि हम ने कोशिश तो बहुत की, लेकिन इस बार जुगाड़ नहीं हो पाया, पर अगली बार जरूर हो जाएगा.

अगर वह पैसे वापसी की जिद करे, तो अनापशनाप खर्चे बता कर उस से लाख 2 लाख तो झटक ही लो, बाकी वापस कर दो. पैसा हमेशा नकदी में और अकेले में पकड़ो, जिस से दूसरे को कानोंकान भी खबर न हो.

तब चौधरी तेजपाल ने पारितोष से संबंध गांठने शुरू किए. पारितोष ने पैसे ले कर 6 महीने के अंदर अपने ही विभाग में अनिल की क्लर्क की नौकरी लगवाने का वादा किया था, लेकिन 6 महीने गुजरने के बाद भी पारितोष कोई साफ जवाब नहीं दे रहा था. कभी कोई बहाना, तो कभी कोई बहाना.

तंग आ कर एक दिन तेजपाल अपने बेटे अनिल को ले कर पारितोष के दिल्ली औफिस पहुंच गए. पारितोष तो जैसे उन के आने का ही इंतजार कर रहा था. उन को देखते ही उस ने कहा, ‘‘बधाई हो तेजपालजी, आप के बेटे की नौकरी लग गई है. नौकरी वाली लिस्ट में उस का नाम आ गया है.’’

यह सुनते ही तेजपाल की आंखें खुशी से चमक उठीं. अनिल के चेहरे पर भी मुसकान तैर गई.

तभी पारितोष ने अपनी दराज में से एक प्रिंटेड पेपर निकाला और तेजपालजी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘देखो, इस में दूसरे नंबर पर तुम्हारे बेटे अनिल का नाम है.’’

लिस्ट में नाम देखते ही चौधरी तेजपाल तो जैसे खुशी से पागल हो गए. वे बारबार उस पेपर को माथे से लगाने लगे, फिर खुश हो कर अनिल से कहा, ‘‘ले बेटा, तू भी देख ले लिस्ट में अपना नाम. मेरी जिंदगी का एक और सपना पूरा हो गया.’’

अनिल भी खुश हो कर उस पेपर को बड़े ध्यान से पढ़ने लगा. अपना नाम देख कर उस की खुशी का भी कोई ठिकाना न था. तभी कुछ सोच कर वह औफिस से बाहर आया और चौकीदार के पास जमा अपना मोबाइल फोन उस से ले लिया.

अनिल पढ़ालिखा नए जमाने का लड़का था. उस ने इंटरनैट पर दिल्ली जल विभाग में हुई नई नियुक्तियों के बारे में सर्च करना शुरू किया, लेकिन उसे कहीं भी ऐसी कोई लिस्ट नहीं मिली.

अनिल ने इशारे से अपने पापा को बुलाया और कहा, ‘‘मुझे तो यह लिस्ट फर्जी लगती है. इंटरनैट पर तो कोई भी ऐसी लिस्ट नहीं है. पारितोष सर से कहिए कि इंटरनैट पर लिस्ट दिखाएं.’’

लेकिन इंटरनैट पर तो कोई ऐसी लिस्ट तब मिलती, जब उसे अपलोड किया गया होता. पारितोष समझ गया कि कम पढ़ेलिखे और पुराने जमाने के तेजपाल को तो बेवकूफ बनाया जा सकता है, लेकिन नई पीढ़ी के अनिल को नहीं. वह फिर से बहाना बनाते हुए इधरउधर की बातें करने लगा.

अनिल समझ गया कि पारितोष उन्हें चकमा देने की कोशिश कर रहा है. यह देख कर उस का जवान खून उबाल खा गया. उस ने अकड़ते हुए कहा, ‘‘पारितोष सर, या तो एक हफ्ते में आप मुझे नौकरी का जौइनिंग लैटर दे दीजिए या फिर मेरे पापा के पैसे वापस कर दीजिए.’’

‘‘धमकी दे रहे हो क्या?’’ पारितोष ने आंखें दिखाते हुए कहा.

‘‘मैं तो धमकी नहीं दे रहा, लेकिन अगर आप धमकी ही समझ रहे हैं, तो यही समझ लीजिए,’’ अनिल ने कहा.

‘‘क्या सुबूत है कि तुम्हारे पापा ने मुझे पैसे दिए हैं?’’

‘‘मेरे पापा सीधेसादे हैं. उन्होंने तुम पर यकीन कर के पैसे दिए. अगर उन के पास इस बात का कोई सुबूत नहीं है, तो इस का मतलब यह नहीं कि उन्होंने तुम्हें पैसे नहीं दिए.’’

बात को बढ़ता और बिगड़ता देख चौधरी तेजपाल ने दखल दिया. अपने अनुभव का फायदा उठाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘पारितोषजी, इस समय तो हम जा रहे हैं, लेकिन एक हफ्ते बाद फिर आएंगे. या तो आप जौइनिंग लैटर तैयार रखना या फिर हमारी रकम.’’

यह कह कर चौधरी तेजपाल अनिल को ले कर बाहर आ गए.

अनिल गुस्से में बोला, ‘‘पापा, आप ने बीच में टांग अड़ा दी, नहीं तो आज ही आरपार का मामला कर देता.’’

‘‘बेटा, जोश में होश नहीं खोना चाहिए. गुस्से में तू कुछ कर बैठता तो वह हम पर ही उलटा केस ठोंक देता. धमकाने, मारपीट करने, सरकारी काम में बाधा डालने, झूठे आरोप लगाने और भी न जाने क्याक्या. नौकरी तो मिलनी ही नहीं, 12 लाख की बड़ी रकम भी डूब जाती.

‘‘हमारे पास कोई सुबूत नहीं कि हम ने उसे 12 लाख रुपए दिए. मैं ने तो आंखें मूंद कर पारितोष पर यकीन किया था. वह हम पर मुकदमा अलग से करता और मुकदमेबाजी से तेरा कैरियर भी तबाह कर देता. इन सब बातों से बचने और तुझे बचाने के लिए ही बेटा मैं ने टांग अड़ाई.’’

पापा की बात सुन कर अनिल की आंखें खुली की खुली रह गईं. उस ने तो इतनी दूर तक की बात सोची ही नहीं थी. उसे अपने पापा के अनुभव पर गर्व महसूस हो रहा था. वह यह भी समझ गया कि कम से कम अभी पैसे वापस मांगने का रास्ता तो बचा रह गया है. अगर वह पारितोष से लड़ पड़ता, तो वह रास्ता भी बंद हो गया होता.

अब चौधरी तेजपाल के सामने एक ही सवाल मुंहबाए खड़ा था कि पारितोष से पैसा वापस कैसे लिया जाए? उन के पास उसे पैसा देने का कोई भी सुबूत नहीं था. तभी उन्हें अचानक याद आया कि अकसर गन्ना किसान कैसे अपना पैसा ऐसे दलालों के पास फंसा देते हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के साथ अकसर ऐसा होता ही रहता है.  गन्ने का अच्छा पैसा मिल जाता है और किसान अपने बच्चों की नौकरी लगवाने के चक्कर में इन दलालों की बातों में फंस जाते हैं. किसी को नौकरी मिल जाती है, किसी को नहीं मिलती.

इस मायाजाल को आज तक कोई समझ नहीं पाया और बहुतकुछ जानते हुए भी नौकरी के लालच में किसान फंसते ही फंसते हैं.

घर आ कर तेजपाल ने सारा मामला अपनी पत्नी तारा देवी को बताया. तारा देवी एक तेजतर्रार औरत थीं. उन्होंने कुछ सोच कर कहा, ‘‘अनिल के पापा, इस बार तुम जब पारितोष के पास जाओ, तो मुझे भी साथ ले कर चलना.’’

‘‘लेकिन, तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘जो तुम नहीं कर पाए. यकीन करो, मैं वहां काम नहीं बिगाड़ूंगी, बल्कि बनाऊंगी.’’

अगली बार चौधरी तेजपाल अपनी पत्नी तारा देवी और 2 रिश्तेदारों को ले कर पारितोष के औफिस पहुंचे. चौकीदार ने उन के मोबाइल औफिस के बाहर ही रखवा लिए.

चौधरी तेजपाल ने औफिस में ठीक वैसा ही किया जैसा तारा देवी ने उन से करने के लिए कहा था.

तारा देवी पूरी तैयारी के साथ आई थीं. पीली साड़ी, पीला ब्लाउज और उन से मैच करता हुआ मोबाइल का पीला कपड़े का कवर. सबकुछ एक योजना के तहत.

औफिस में पहुंचते ही चौधरी तेजपाल ने हाथ जोड़ते हुए पारितोष से कहा, ‘‘साहब, पिछली बार के लिए माफी मांगता हूं. चलो नौकरी न सही, साहब, हमारे 12 लाख रुपए ही वापस कर दो.’’

पारितोष ने चौधरी तेजपाल और उस के दोनों रिश्तेदारों की जेबों पर एक नजर डाली कि कहीं वे चौकीदार की नजरों से मोबाइल छिपा कर तो नहीं लाए. लेकिन उन के पास ऐसा कुछ नहीं था. फिर एक सरसरी नजर उस ने तारा देवी पर डाली, लेकिन उन के हाथ तो खाली थे.

तब निश्चिंत हो कर पारितोष ने कहा, ‘‘क्यों तेजपालजी, पिछली बार तो तुम और तुम्हारा लड़का बड़ी अकड़ दिखा रहे थे?’’

‘‘अरे साहब, मिट्टी डालिए पिछली बातों पर. लड़का तो नादान है. उस की बातों को दिल पर मत लीजिए.’’

‘‘लेकिन, अगर मैं फिर से यह कह दूं कि क्या सुबूत है तुम्हारे पास कि मैं ने तुम से 12 लाख रुपए लिए हैं?’’

‘‘अरे साहब, सुबूत तो मेरे पास कोई नहीं है कि तुम ने हमारे गांव आ कर फलां तारीख में फलां समय 12 लाख रुपए लिए थे.’’

‘‘हां, मैं ने उस तारीख को उस समय तुम्हारे गांव आ कर तुम से 12 लाख रुपए लिए थे, लेकिन इसे अदालत में कैसे साबित करोगे? अदालत तो सुबूत और गवाह मांगती है.’’

‘‘अरे साहब, मैं अदालत क्यों जाऊंगा यह साबित करने कि आप ने 500-500 रुपए के नोट की 24 गड्डियां अपने चमड़े के बैग में रखी थीं. मेरी खोपड़ी इतनी खराब नहीं हुई है कि आप से दुश्मनी मोल लूं.’’

‘‘तो अब आए न लाइन पर. ये सब काम हुए, लेकिन इन्हें अदालत में साबित करना टेढ़ी खीर है.’’

‘‘अरे साहब, हम आप के खिलाफ जाएंगे ही क्यों? आप ने यही मान लिया है कि आप ने 12 लाख रुपए लिए थे, यही बड़ी बात है. आप मुकर भी तो सकते थे.’’

‘‘तो फिर जाओ. जब मेरे पास पैसे होंगे, मैं तुम लोगों को बुलवा लूंगा. तकादा बिलकुल मत करना, नहीं तो मैं मुकर भी जाऊंगा. फिर तुम क्या कर लोगे? आज के बाद मेरे औफिस में दिखाई मत देना.’’

तारा देवी का मकसद पूरा हो चुका था. उन्होंने तेजपाल से वहां से चलने को कहा. तेजपालजी को समझ में नहीं आ रहा था कि तारा देवी ने यहां आने की जिद की थी, लेकिन उन्होंने तो एक शब्द भी नहीं बोला.

बाहर आ कर तारा देवी ने चौकीदार को अपने पास बुलाया और उस के आगे अपने मोबाइल को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लो, अपने साहब का 12 लाख रुपए लेने का वीडियो देखो और आडियो सुनो. सब रिकौर्ड कर लिया गया है. अभी का ताजाताजा.’’

वीडियो रिकौर्डिंग को साफसाफ सुना जा सकता था, जिस में पारितोष 12 लाख रुपए लेने की बात स्वीकार कर रहा है.

रिकौर्डिंग सुनाने के बाद तारा देवी ने चौकीदार से कहा, ‘‘जाओ, कह दो अपने साहब से कि हम अदालत नहीं सीधे विजिलैंस औफिस जा रहे हैं और उस के बाद बड़े अफसरों के पास जाएंगे इस सुबूत के साथ.’’

चौधरी तेजपाल और उस के दोनों रिश्तेदार बड़े हैरान हो कर तारा देवी को देख रहे थे, तभी तारा देवी ने कहा, ‘‘हमें यहां से तुरंत निकलना होगा.’’

अभी उन की कार 10-15 किलोमीटर ही गई होगी, तभी तेजपाल का फोन घनघना उठा. फोन करने वाला पारितोष था. वह घबराते हुए बोला, ‘तेजपालजी, आप के हाथ जोड़ता हूं आप लोग विजिलैंस औफिस मत जाना. वे मेरी नौकरी खा जाएंगे. मैं आज ही आप का पूरा पैसा वापस करने के लिए तैयार हूं. बस, मुझे इतनी बड़ी रकम जुटाने के लिए 2-3 घंटे का समय दे दीजिए.’

चौधरी तेजपाल ने तारा देवी से पूछा कि क्या जवाब देना है, फिर थोड़ी देर के बाद तेजपाल ने कहा, ‘‘हम तुम्हें 4 घंटे का समय देते हैं. तुम पैसा ले कर गाजियाबाद के आउटर पर मेरठ रोड पर गणेश ढाबे के पास मिलना.’’

‘ठीक है, मैं जल्दी से जल्दी पैसा ले कर वहां पहुंचता हूं.’

‘‘ठीक है, आ जाइए पूरा पैसा ले कर, नहीं तो विजिलैंस…’’

‘‘नहींनहीं, तेजपालजी, ऐसा मत करना. मैं आप के आगे हाथ जोड़ता हूं, तबाह हो जाऊंगा मैं. पैसे ले कर आ रहा हूं,’ पारितोष ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

पारितोष समय से पहले आ गया. चौधरी तेजपाल की कार गणेश ढाबे से कुछ आगे एक पेड़ के नीचे खड़ी थी.

पारितोष ने आते ही कार में से चमड़े का भारी बैग निकाला और चौधरी तेजपाल की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘गिन लीजिए, एक रुपया भी कम नहीं है.’’

चौधरी तेजपाल ने वह बैग कार में बैठे अपने रिश्तेदारों को रुपए गिनने के लिए दे दिया. पैसा पूरा था.

घबराए हुए पारितोष को अभी भी समझ में नहीं आ रहा था कि पूरी चौकसी बरतने के बाद भी आखिर उस की वीडियो कैसे बन गई. जब उस ने यह बात पूछी, तो तारा देवी ने अपने ब्लाउज की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘ऐसे… और अभी भी तुम्हारी वीडियो रिकौर्ड हो रही है. तुम्हारे जैसे जालसाजों के लिए ऐसी जालसाजी करनी पड़ती है. पीली साड़ी, पीला ब्लाउज और मोबाइल का ब्लाउज के कपड़े से मैच करता हुआ कवर, जिस से तुम्हारा चौकीदार और तुम दोनों गच्चा खा गए.

‘‘अब हमारे पास तुम्हारे खिलाफ सारे सुबूत हैं. अगर अब तुम ने भविष्य में ऐसी हरकत किसी के साथ भी की तो ये सारे सुबूत विजिलैंस औफिस, तुम्हारे बड़े अफसरों और अदालत को सौंपे जाएंगे.’’

पारितोष ने उन के सामने कान पकड़ कर और उठकबैठक लगा कर माफी मांगी कि अब भविष्य में वह यह काम किसी के साथ नहीं करेगा. उसे अंदाजा नहीं था कि चुप रहने वाली और सीधीसादी दिखाई देने वाली गांव की एक औरत इतनी शातिर दिमाग भी हो सकती है.

फर्ज की याद : शर्मा जी ने गणेशी के हाथ का पानी क्यों नहीं पिया

जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.

गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं…’’

‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.

‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’

‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.

‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.

‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.

सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’

‘‘क्या जानते हो?’’

‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’

‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’

‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया…’’ समझते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘बाबूजी, जब प्यास लगती है तभी तो पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘नहीं, यही तो आप गलती कर रहे हो. बिना मांगे पानी ले कर हर मेज पर पहुंच जाना चाहिए. यही एक चपरासी का फर्ज होता है…’’ समझते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘यही वजह है कि मैं खुद उठ कर पानी पीता हूं. आप ने आज तक अपनी मरजी से मुझे पानी नहीं पिलाया है.’’

‘‘अरे बाबूजी, आप ही पहले ऐसे आदमी हो वरना सभी बाबू मांग कर पानी पीते हैं. आप ही ऐसे हैं जो मुझे अछूत समझ कर पानी नहीं मंगाते हो,’’ गणेशी ने आरोप लगाते हुए कहा.

सुनील शर्मा सोच में डूब गए. गणेशी उन की बात का उलटा मतलब ले रहा है. वे कुछ और जवाब दें, इस से पहले ही साहब की घंटी बज उठी. गणेशी साहब के केबिन में चला गया.

सुनील शर्मा मन ही मन झुंझला उठे. पास की मेज पर बैठे मुकेश भाटी बोले, ‘‘शर्माजी, देख लिए गणेशी के तेवर. आप की बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा.’’

‘‘हां भाटीजी, असर तो नहीं पड़ा,’’ उन्होंने भी स्वीकार करते हुए कहा.

‘‘इसलिए मैं कहता हूं कि अपने उसूल छोड़ दो वरना यह आप पर छुआछूत बरतने का केस दायर कर देगा…’’ सम?ाते हुए मुकेश भाटी बोले, ‘‘फिर कचहरी के चक्कर काटते रहना क्योंकि कानून भी इस का ही पक्ष लेगा.’’

‘‘देखो भाटीजी, मैं तो उस को अपने फर्ज की याद दिला रहा था.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है शर्माजी. जिस को अपना फर्ज समझना ही नहीं है उसे याद दिलाना फुजूल है. उस से बहस कर के खुद का सिर फोड़ना है. फिर मेरा काम था समझने का समझ दिया. आप अपने उसूलों पर ही रहना चाहते हो तो रहो. कल को कुछ हो जाए, तो फिर मुझे कुछ मत कहना,’’ कह कर मुकेश भाटी अपने काम में लग गए.

सुनील शर्मा के भीतर इन बातों को सुन कर हलचल मच गई. अब पहले वाला जमाना नहीं है. सरकार भी रिजर्वेशन के तहत सब महकमों में इन की भरती करती जा रही है, इसलिए चपरासी से ले कर अफसर तक ये ही मिलेंगे.

जिस परिवार में सुनील शर्मा का जन्म हुआ है, वह ब्राह्मण परिवार है. 1970 के पहले उन का ठेठ देहाती गांव था. छुआछूत का जोर था. किसी अछूत को छूना भी पाप समझ जाता था, इसलिए वे गांव में ही अलग बस्ती में रहते थे.

सुनील शर्मा के पिता गंगा सागर गांव में शादीब्याह कराने और कथा बांचने का काम करते थे. वे यह काम केवल ऊंची जाति वालों के यहां किया करते थे. निचली जाति के लोगों के यहां कर्मकांड के लिए वे मना कर दिया करते थे.

गांव की दलित बस्ती गंगा सागर से बहुत नाराज रहती थी. मगर वे कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि उन की चलती ही नहीं थी.

जब कोई दलित किसी काम से गंगा सागर के पास आता था, तो वे उन्हें बाहर बिठा कर संस्कार करा देते थे. बदले में वे कुछ सिक्के देते थे, जिन्हें वे जमीन पर ही रखवा देते थे. तब यजमान मखौल उड़ा कर कहते थे, ‘पंडितजी, यह कैसा नियम. मेरे हाथ से नहीं लिया, मगर हाथ से अपवित्र सिक्के को आप ने ग्रहण कर लिया तो अपवित्र नहीं हुए.’

बदले में गंगा सागर संस्कृत में शुद्धीकरण के श्लोक पढ़ कर उसे शुद्धी का पाठ पढ़ा देते थे.

उस समय दलितों में कूटकूट कर अपढ़ता भरी थी. विरोध करने के बजाय वे सबकुछ सच मान लेते थे. गांव में कोई गंगा सागर को दलित दिख जाता, तो वे उस से बच कर निकलते थे.

मगर जैसेजैसे दिन बीतते रहे, छुआछूत की यह परंपरा शहरों में खत्म होने के साथसाथ गांवों में भी खत्म होने लगी थी. अब तो न के बराबर रही है. अब भी कुछ पुराने लोग हैं जो छुआछूत को मानते हैं क्योंकि वे उसी जमाने में जी रहे हैं.

सुनील शर्मा को आज नौकरी करते हुए 32 साल हो गए हैं. इन 32 सालों में उन्होंने बहुतकुछ देख लिया है. रिटायरमैंट में 3 साल बचे हैं. गणेशी जैसे कितने ही लोग हैं जो इस दलित अवसर को भुनाना चाहते हैं. इन को सामान्य वर्ग के प्रति हमेशा से नफरत थी, जो विष बीज बन कर वट वृक्ष बन गई है. सरकार ने साल 1989 में इन के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है, तब से ही इन के हौसले बढ़ने लगे हैं.

‘‘अरे शर्माजी, पानी पीयो,’’ इस आवाज से सुनील शर्मा की सारी विचारधारा भंग हो गई.

गणेशी गिलास लिए उन के सामने खड़ा था. उन्होंने गटागट पानी पी कर वापस उसे गिलास थमा दिया.

गणेशी बोला, ‘‘बाबूजी, आप ने मुझे मेरा फर्ज याद दिला दिया.’’

‘‘वह कैसे गणेशीजी?’’ हैरानी से सुनील शर्मा ने पूछा.

‘‘देखिए बाबूजी, अब तक जो मांगता था, उसे ही मैं पानी पिलाता था, मगर आप ने यह कह कर मेरी आंखें खोल दीं कि पानी तो हर मेज पर जा कर पिलाना चाहिए, इसलिए आज से ही मैं ने आप से शुरुआत की है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा काम किया गणेशीजी. चलो, मेरी बात पर आप ने गौर तो किया.’’

‘‘हां बाबूजी, अब मुझे किसी को फर्ज की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ कह कर गणेशी चला गया.

मगर सुनील शर्मा उस में अचानक आए इस बदलाव को देख कर हैरान थे.

धब्बा : गीता डाक्टर के पास क्यों गई

नैक्स्ट,’ महिला डाक्टर की अपने केबिन से आवाज आई, तो गीता अंदर गई.

‘‘बोलिए, क्या तकलीफ है?’’ डाक्टर ने सिर से पैर तक उसे देखते हुए पूछा, जिस के सूख चुके शरीर पर फैले लाल दाने किसी अनहोनी के होने का अंदेशा उस की समस्या सुनने से पहले ही दे रहे थे.

‘‘बताइए, क्या तकलीफ है?’’ डाक्टर ने दोबारा पूछा.

‘‘डाक्टर मैडम, कुछ दिनों से दवा खाने पर भी बुखार और कमजोरी कम नहीं हो रही है और ये लाल दाने निकल आए हैं. घर के नजदीक के एक डाक्टर के पास गई थी, पर वे कहीं बाहर गई हैं, इसलिए आप के पास आई हूं.’’

‘‘उन्होंने कुछ टैस्ट कराए थे?’’

‘‘जी, ये रही उन की रिपोर्ट.’’

पूरी रिपोर्ट ध्यान से पढ़ने के बाद डाक्टर ने गीता से पूछा, ‘‘शादी हुई है?’’

‘‘जी.’’

‘‘पति कहां हैं?’’

‘‘वे भी बीमार चल रहे हैं, इसलिए ससुराल वालों ने मुझे मायके भेज दिया है.’’

‘‘बता सकती हो कि क्या हुआ है उन्हें?’’

उन दोनों की बात कोई सुन तो नहीं रहा है, गीता ने आसपास नजर घुमाते हुए पक्का कर धीमी आवाज में कहा, ‘‘मेरी ससुराल वालों ने मुझे ज्यादा तो नहीं बताया, बस कहा कि उन्हें मर्दाना अंग में कुछ तकलीफ हो गई है, लंबा इलाज चलेगा और किसी से इस बारे में बात करने से भी मना किया है.’’

‘‘अच्छा, पति क्या नशा करते हैं?’’ डाक्टर का सवाल सुन कर गीता कुछ हिचकिचाई.

‘‘जी, कभीकभी करते हैं,’’ उस ने अपनी आंखें चुराते हुए कहा.

‘‘सूई से करते हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘आखिरी बार उन से संबंध कब बने थे?’’ डाक्टर ने पूछा.

गीता कुछ घबराई और उस से रहा न गया, ‘‘इस से मेरे बुखार का क्या लेनादेना?’’

‘‘लेनादेना तो है, इसीलिए पूछ रही हूं.’’

‘‘जी, 2 महीने पहले.’’

‘‘क्या वे निरोध इस्तेमाल करते थे?’’

‘‘जी नहीं.’’

‘‘क्या आप के पति और आप के एकदूसरे के अलावा किसी और के साथ भी सैक्स संबंध रहे हैं?’’

‘‘पिछली डाक्टर ने भी ऐसे ही ऊटपटांग सवाल मुझसे पूछे थे और यहां आप भी चालू हो गईं. मुझे आप में से किसी पर भी भरोसा नहीं है. मैं किसी और अच्छे डाक्टर को दिखाऊंगी,’’ गीता गुस्से से अपनी रिपोर्ट उठा कर वहां से जाने लगी.

‘‘डाक्टर बदलने से आप की समस्या बदल नहीं जाएगी.’’

डाक्टर की बात सुन कर गीता सदमे से दरवाजा पकड़ कर खड़ी हो गई, शायद उसे अपनी बीमारी का पता पहले से था, बस कबूल नहीं कर पा रही थी. वह दूसरी डाक्टर को इसलिए दिखाने आई थी कि वह उसे एड्स का धब्बा लगने की हामी शायद न भरे.

‘‘आप की रिपोर्ट बता रही है कि आप एचआईवी पौजिटिव हैं और आप के पति एड्स से पीड़ित होंगे’’

‘‘जी, मैं जानती हूं.’’

‘‘फिर, आप ने मुझे इतनी देर गुमराह क्यों किया?’’

‘‘मैडम, इस धब्बे ने मेरे पति को अछूत बना कर रख दिया है. न तो हमारे परिवार में अब कोई आनाजाना करता है और न ही समाज में इज्जत बची है. मैं अपनी हालत भी उन की तरह होते नहीं देख सकती, इसलिए मैं यहां आ कर अकेले रह रही हूं.’’

‘‘हिम्मत रखिए, आप का दर्द मैं अच्छी तरह समझ सकती हूं.’’

‘‘मैडम, इस का कोई तो इलाज होगा?’’ भरी जवानी में अपने प्राण जाते देख गीता खुद को टूटने से रोक न पाई.

‘‘जागरूकता ही एड्स का एकमात्र इलाज है. आप से वह सवाल इसलिए पूछा गया था कि उस तीसरे इनसान को सजग कर टैस्ट करने को कहा जा सके और वह किसी के साथ भी बिना सुरक्षा के संबंध बनाने से रुक जाए, नहीं तो यही बीमारी किसी चौथे को और उस से न जाने कितने लोगों में फैलती चली जाएगी, जिसे ट्रैक करना मुश्किल होता जाएगा.’’

‘‘डाक्टर मैडम, अगर किसी औरत से संबंध होते तो आप को बताने में उतनी हिचक नहीं होती, मगर किस मुंह से कहूं कि उन्हें मर्द पसंद हैं.’’

‘‘जो मर्द समलैंगिंक संबंध बनाते हैं, उन्हें यह खतरा औरों के मुकाबले ज्यादा होता है.’’

‘‘पर, मुझे यह बात समझ नहीं आई कि उन के सूई से नशा करने से, समलैंगिक संबंध बनाने से, निरोध न इस्तेमाल करने से यह बीमारी मुझ तक कैसे पहुंच गई’’

‘‘तुम्हारे सारे सवालों में ही तुम्हारा जवाब छिपा हुआ है.’’

‘‘काश, वक्त रहते थोड़ी सावधानी वे दिखा देते, तो आज इस धब्बे के साथ जीने के लिए न वे मजबूर होते, न मैं. उन के अकेले के शौक ने हम में से कितनों को मौत के मुंह में धकेल दिया है.’’

‘‘तुम घबराओ नहीं, मेरे पास यहां बैठो,’’ डाक्टर ने गीता का हाथ पकड़ते हुए कहा.

‘‘नहीं मैडम, आप मुझे मत छुइए, नहीं तो यह बीमारी आप को भी लग जाएगी.’’

‘‘मैं मानती हूं कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, पर यह किसी को छूने से, उस के साथ खाने से या साथ घूमनेफिरने से नहीं फैलती. पर, एक बात मैं दावे से कह सकती हूं कि यह बीमारी प्यार और अपनेपन से घटती जरूर है.’’

‘‘आज कितने दिनों बाद किसी ने मुझ से इतने अच्छे से बात की होगी,’’ गीता दुखी जरूर थी, पर कुछ मीठे बोल उसे इन हालात से जूझाने का हौसला दे रहे थे.

‘‘कोई भी तकलीफ हो तो मुझे फोन करने से झिझकना मत. इस फोल्डर से तुम्हें इस बीमारी संबंधी सभी जरूरी जानकारी मिल जाएगी और साथ ही उन अनेक संस्थान के पते व फोन नंबर भी मिल जाएंगे, जहां तुम खुद को कभी अकेला नहीं समझागी.

‘‘आप का बहुत शुक्रिया मैडम.’’

एड्स एक लाइलाज बीमारी है,

मात्र जागरूकता है इस की दवा.

ये अपनेपन, सहयोग से घटती है,

और बंट जाती है करने पर दुआ.

एक अच्छा दोस्त : काश सब दिन एक जैसे होते

सतीश लंबा, गोरा और छरहरे बदन का नौजवान था. जब वह सीनियर क्लर्क बन कर टैलीफोन महकमे में पहुंचा, तो राधा उसे देखती ही रह गई. शायद वह उस के सपनों के राजकुमार सरीखा था.

कुछ देर बाद बड़े बाबू ने पूरे स्टाफ को अपने केबिन में बुलाकर सतीश से मिलवाया.

राधा को सतीश से मिलवाते हुए बड़े बाबू ने कहा, ‘‘सतीश, ये हैं हमारी स्टैनो राधा. और राधा ये हैं हमारे औफिस के नए क्लर्क सतीश.’’

राधा ने एक बार फिर सतीश को ऊपर से नीचे तक देखा और मुसकरा दी.

औफिस में सतीश का आना राधा की जिंदगी में भूचाल लाने जैसा था. वह घर जा कर सतीश के सपनों में खो गई. दिन में हुई मुलाकात को भूलना उस के बस में नहीं था.

सतीश और राधा हमउम्र थे. राधा के मन में उधेड़बुन चल रही थी. उसे लग रहा था कि काश, सतीश उस की जिंदगी में 2 साल पहले आया होता.

राधा की शादी 2 साल पहले मोहन के साथ हुई थी. वह एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर था. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, मगर मोहन को कंपनी के काम से अकसर बाहर ही रहना पड़ता था. घर में रहते हुए भी वह राधा पर कम ही ध्यान दे पाता था.

यों तो राधा एक अच्छी बीवी थी, पर मोहन का बारबार शहर से बाहर जाना उसे पसंद नहीं था. मोहन का सपाट रवैया उसे अच्छा नहीं लगता था. वह तो एक ऐसे पति का सपना ले कर आई थी, जो उस के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहे. लेकिन मोहन हमेशा अपने काम में लगा रहता था.

अगले दिन सतीश समय से पहले औफिस पहुंच गया. वह अपनी सीट पर बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी राधा ने अंदर कदम रखा.

सतीश को सामने देख राधा ने उस से पूछा, ‘‘कैसे हैं आप? इस शहर में पहला दिन कैसा रहा?’’

सतीश ने सहज हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं ठीक हूं. पहला दिन तो अच्छा ही रहा. आप कैसी हैं?’’

राधा ने चहकते हुए कहा, ‘‘खुद ही देख लो, एकदम ठीक हूं.’’

इस के बाद राधा लगातार सतीश के करीब आने की कोशिश करने लगी. धीरेधीरे सतीश भी खुलने लगा. दोनों औफिस में हंसतेबतियाते रहते थे.

हालांकि औफिस के दूसरे लोग उन की इस बढ़ती दोस्ती से अंदर ही अंदर जलते थे. वे पीठ पीछे जलीकटी बातें भी करने लगे थे.

राधा के जन्मदिन पर सतीश ने उसे एक बढि़या सा तोहफा दिया और कैंटीन में ले जा कर लंच भी कराया.

राधा एक नई कशिश का एहसास कर रही थी. समय पंख लगा कर उड़ता गया. सतीश और राधा की दोस्ती गहराती चली गई.

राधा शादीशुदा है, सतीश यह बात बखूबी जानता था. वह अपनी सीमाओं को भी जानता था. उसे तो एक अजनबी शहर में कोई अपना मिल गया था, जिस के साथ वह अपने सुखदुख की बातें कर सकता था.

सतीश की मां ने कई अच्छे रिश्तों की बात अपने खत में लिखी थी, मगर वह जल्दी शादी करने के मूड में नहीं था. अभी तो उस की नौकरी लगे केवल 8 महीने ही हुए थे. वह राधा के साथ पक्की दोस्ती निभा रहा था, लेकिन राधा इस दोस्ती का कुछ और ही मतलब लगा रही थी.

राधा को लगने लगा था कि सतीश उस से प्यार करने लगा है. वह पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने मेकअप और कपड़ों पर भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. उस पर सतीश का नशा छाने लगा था. वह मोहन का वजूद भूलती जा रही थी.

सतीश हमेशा राधा की पसंदनापसंद का खयाल रखता था. वह उस की हर बात की तारीफ किए बिना नहीं रहता था. यही तो राधा चाहती थी. उसे अपना सपना सच होता दिखाई दे रहा था.

एक दिन राधा ने सतीश को डिनर पर अपने घर बुलाया. सतीश सही समय पर राधा के घर पहुंच गया.

नीली जींस व सफेद शर्ट में वह बेहद सजीला जवान लग रहा था. उधर राधा भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. उस ने नीले रंग की बनारसी साड़ी बांध रखी थी, जो उस के गोरे व हसीन बदन पर खूब फब रही थी.

सतीश के दरवाजे की घंटी बजाते ही राधा की बांछें खिल उठीं. उस ने मीठी मुसकान बिखेरते हुए दरवाजा खोला और उसे भीतर बुलाया.

ड्राइंगरूम में बैठा सतीश इधरउधर देख रहा था कि तभी राधा चाय ले कर आ गई.

‘‘मैडम, मोहनजी कहां हैं? वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे,’’ सतीश ने पूछा.

राधा खीज कर बोली, ‘‘वे कंपनी के काम से हफ्तेभर के लिए हैदराबाद गए हैं. उन्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं रहती है. मैं अकेली दीवारों से बातें करती रहती हूं. खैर छोड़ो, चाय ठंडी हो रही है.’’

सतीश को लगा कि उस ने राधा की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है. बातोंबातों में चाय कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला.

राधा को लग रहा था कि सतीश ने आ कर कुछ हद तक उस की तनहाई दूर की है. सतीश कितना अच्छा है. बातबात पर हंसतामुसकराता है. उस का कितना खयाल रखता है.

तभी सतीश ने टोकते हुए पूछा, ‘‘राधा, कहां खो गई तुम?’’

‘‘अरे, कहीं नहीं. सोच रही थी कि तुम्हें खाने में क्याक्या पसंद हैं?’’

सतीश ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया, ‘‘बस यही राजमा, पुलाव, रायता, पूरीपरांठे और मूंग का हलवा. बाकी जो आप खिलाएंगी, वही खा लेंगे.’’

‘‘क्या बात है. आज तो मेरी पसंद हम दोनों की पसंद बन गई,’’ राधा ने खुश होते हुए कहा.

राधा सतीश को डाइनिंग टेबल पर ले गई. दोनों आमनेसामने जा बैठे. वहां काफी पकवान रखे थे.

खाते हुए बीचबीच में सतीश कोई चुटकुला सुना देता, तो राधा खुल कर ठहाका लगा देती. माहौल खुशनुमा हो गया था.

‘काश, सब दिन ऐसे ही होते,’ राधा सोच रही थी.

सतीश ने खाने की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘वाह, क्या खाना बनाया है, मैं तो उंगली चाटता रह गया. तुम इसी तरह खिलाती रही तो मैं जरूर मोटा हो जाऊंगा.’’

‘‘शुक्रिया जनाब, और मेरे बारे में आप का क्या खयाल है?’’ कहते हुए राधा ने सतीश पर सवालिया निगाह डाली.

‘‘अरे, आप तो कयामत हैं, कयामत. कहीं मेरी नजर न लग जाए आप को,’’ सतीश ने मुसकरा कर जवाब दिया.

सतीश की बात सुन कर राधा झम उठी. उस की आंखों के डोरे लाल होने लगे थे. वह रोमांटिक अंदाज में अपनी कुरसी से उठी और सतीश के पास जा कर स्टाइल से कहने लगी, ‘‘सतीश, आज मौसम कितना हसीन है. बाहर बूंदों की रिमझिम हो रही है और यहां हमारी बातोें की. चलो, एक कदम और आगे बढ़ाएं. क्यों न प्यारमुहब्बत की बातें करें…’’

इतना कह कर राधा ने अपनी गोरीगोरी बांहें सतीश के गले में डाल दीं. सतीश राधा का इरादा समझ गया. एक बार तो उस के कदम लड़खड़ाए, मगर जल्दी ही उस ने खुद पर काबू पा लिया और राधा को अपने से अलग करता हुआ बोला, ‘‘राधाजी, आप यह क्या कर रही हैं? क्यों अपनी जिंदगी पर दाग लगाने पर तुली हैं? पलभर की मौजमस्ती आप को तबाह कर देगी.

‘‘अपने जज्बातों पर काबू कीजिए. मैं आप का दोस्त हूं, अंधी राहों पर धकेलने वाला हवस का गुलाम नहीं.

‘‘आप अपनी खुशियां मोहनजी में तलाशिए. आप के इस रूप पर उन्हीं का हक है. उन्हें अपनाने की कोशिश कीजिए,’’ इतना कह कर सतीश तेज कदमों से बाहर निकल गया.

राधा ठगी सी उसे देखती रह गई. उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘मैं क्यों इतनी कमजोर हो गई? क्यों सतीश को अपना सबकुछ मान बैठी? क्यों इस कदर उतावली हो गई?

‘अगर सतीश ने मुझे न रोका होता तो आज मैं कहीं की न रहती. बाद में वह मुझे ब्लैकमेल भी कर सकता था. मगर वह ऐसा नहीं है. उस ने मुझे भटकने से रोक लिया. कितना महान है सतीश. मुझे उस की दोस्ती पर नाज है.’

पुलिस ऐग्जाम: रीवां जिले की एक प्रेम कहानी

‘उत्तर प्रदेश में पुलिस भरती परीक्षा के अभ्यर्थियों के लिए रेलवे का प्रयागराज डिवीजन 20 स्पैशल ट्रेन चला रहा है. प्रयागराज जंक्शन पर माघ मेला हेतु बने ‘यात्री आश्रयों’ को भी खोल दिया गया है…’

मध्य प्रदेश में रीवां जिले में रहने वाले 27 साल के मनोज जाटव को जब यह खबर मिली, तब उस ने राहत की सांस ली. वह भी तो कांस्टेबल की पोस्ट के लिए पिछले 2 साल से कड़ी मेहनत कर रहा था. सतना से प्रयागराज के लिए भी स्पैशल ट्रेन चलाई गई थी.

लंबेचौड़े कद का मनोज गोरे रंग का नौजवान था और अपने मांबाप का एकलौता बेटा भी. वह पढ़ने में काफी होशियार था और गणित के सवाल हल करना तो उस के बाएं हाथ का खेल था.

मनोज के पिता मऊगंज तहसील के एक गांव में खेतीबारी करते थे. ज्यादा जमीन तो नहीं थी, पर जैसेतैसे गुजारा हो जाता था. मनोज रीवां शहर में सरकारी नौकरी की कोचिंग ले रहा था. खाली समय में वह एक गैराज में मोटरसाइकिल की मरम्मत का काम भी देखता था. उसे इस काम में महारत हासिल थी, पर सरकारी नौकरी के तो अपने ही ठाठ होते हैं, फिर पुलिस में तो ‘ऊपरी कमाई’ का जलवा है ही.

मनोज समय पर रेलवे स्टेशन पहुंच गया. सतना से आई ट्रेन ठसाठस भरी हुई थी. इतना बड़ा हुजूम देख कर मनोज ठगा सा रह गया. यह था कांस्टेबल की नौकरी के लिए सरकारी इंतजाम? पर जाना तो था ही, तो उस ने कमर कस ली और जिस भी डब्बे में जगह मिली, वह घुस ही गया.

इतनी भीड़ की वजह यह थी कि उत्तर प्रदेश कांस्टेबल भरती के कुल पद 60,244 थे और तकरीबन 50 लाख नौजवानों ने इन पदों को पाने का आवदेन दे रखा था. इन में से 35 लाख पुरुष और 15 लाख महिला उम्मीदवार थीं यानी एक पद के लिए पुरुष वर्ग में 66, जबकि महिला वर्ग में 125 दावेदार.

इधर, मनोज ट्रेन में घुस तो गया, पर शौचालय से आगे बढ़ ही नहीं पाया. उस ने जैसेतैसे शौचालय के बंद दरवाजे से कमर टिकाई और अपना बैग संभालते हुए खड़ा हो गया.

थोड़ी ही देर में मनोज की नजर एक लड़की पर पड़ी. अच्छे नैननक्श की लंबी, शरीर किसी खिलाड़ी जैसा खिला हुआ और रंगरूप भी बढि़या. पर वह तो जैसे ‘रजिया फंस गई गुंडों में’ वाली हालत में थी.

उस लड़की को कई लड़कों ने जैसे घेर रखा था और इस भयंकर भीड़ का फायदा उठा कर वे उसे मसल रहे थे. एक लड़के ने अपने दोस्त को दबी जबान से कहा भी था, ‘‘रगड़ दे इस की जांघ पर अपना घुटना.’’

मनोज समझ गया था कि यह लड़की काफी देर से इन छिछोरों से जूझ रही है. उस ने अपना दिमाग लगाया और अपना बैग उस लड़की को देते हुए बोला, ‘‘आप अपना बैग यहां नीचे भूल गई हैं. संभाल लें, वरना कोई ले उड़ेगा.’’

वह लड़की पहले तो कुछ समझ नहीं, पर मनोज के दोबारा जोर दे कर कहने पर उस ने वह बैग लिया और अपनी छाती से सटा लिया. इस से उन मनचलों और उस के बीच दूरी बन गई.

तकरीबन सवा 3 घंटे के बाद ट्रेन प्रयागराज स्टेशन पहुंची. मनोज और वह लड़की बड़ी मशक्कत के साथ ट्रेन से बाहर आए.

प्लेटफार्म पर उस लड़की ने मनोज को उस का बैग दिया और बोली, ‘‘थैंक्स. आज आप ने मुझे उन घटिया लड़कों की बेहूदा हरकतों से बचा लिया.

‘‘वैसे, मेरा नाम संतोष यादव है और मैं सतना के पास एक गांव में रहती हूं. आप का क्या नाम है?’’

‘‘जी, मेरा नाम मनोज जाटव है और मैं कांस्टेबल के इम्तिहान के लिए प्रयागराज आया हूं,’’ मनोज ने अपना बैग लेते हुए कहा.

‘‘अच्छा, एससी कोटे से हो. तुम्हारा ऐग्जाम तो क्लियर हो ही जाएगा,’’ संतोष ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ओह, तो संतोषजी यह सोचती हैं मेरे बारे में. पर शायद आप को पता नहीं है कि मैं हमेशा से होनहार बच्चा रहा हूं. देखना, मैरिट से पास हो जाऊंगा.’’

‘‘खुद पर इतना ज्यादा यकीन… देखते हैं.’’

‘‘अच्छा, तुम्हारी कौन सी शिफ्ट है?’’ मनोज ने बात बदलते हुए कहा, ‘‘मेरी तो सुबह 10 से 12 बजे वाली शिफ्ट है.’’

‘‘मेरी तो दोपहर की. 3 से 5 बजे वाली.’’

‘‘फिर तो हमारी राहें अलग हो जाएंगी,’’ मनोज बोला.

‘‘अभी एकसाथ सफर ही कहां शुरू किया है,’’ संतोष ने स्टेशन से बाहर निकलते हुए कहा.

उस दिन संतोष अपनी सहेली के घर रुकी थी और मनोज एक धर्मशाला में. अगले दिन 17 फरवरी को दोनों का कांस्टेबल का ऐग्जाम था.

अगली सुबह मनोज समय पर सैंटर पहुंच गया था. वहां कड़े इंतजाम थे. जैमर लगा हुआ था. हर तरह की जांचपड़ताल की जा रही थी. सीसीटीवी कैमरे लगे थे और पूरा स्टाफ एकदम चाकचौबंद दिख रहा था.

मनोज का ऐग्जाम बढि़या हुआ था. गणित के सवाल उस के लिए बहुत आसान थे. 150 सवाल पूछे गए थे. इस इम्तिहान में सामान्य हिंदी, सामान्य ज्ञान, संख्यात्मक और मानसिक योग्यता परीक्षण और मानसिक योग्यता, जिस में बुद्धिमत्ता और तर्क शामिल थे. हर गलत जवाब के लिए 0.5 की नैगेटिव मार्किंग होनी थी.

उधर, संतोष अपनी शिफ्ट पर समय से पहुंच गई थी. उस का ऐग्जाम भी ठीकठाक हुआ था. बस, थोड़ा गणित कमजोर रह गया था. शाम को 5 बजे जब वह बाहर निकली, तो मनोज को वहां देख कर हैरान रह गई.

‘‘अरे, पढ़ाकू बच्चा यहां क्या कर रहा है?’’ संतोष ने अपनी खुशी छिपाते हुए कहा.

‘‘शाम 7 बजे की ट्रेन है. सोचा, तुम्हारा हालचाल ले लूं,’’ मनोज बोला.

‘‘ऐग्जाम तो सही रहा. पास हो गई तो फिजिकल में तो बाजी मार ही लूंगी. मेरी जबरदस्त प्रैक्टिस है,’’ संतोष बोली.

‘‘चलो, स्टेशन चलते हैं. समय पर पहुंच कर सीट घेर लेंगे. मुझे अब शौचालय के आगे खड़े हो कर नहीं जाना,’’ मनोज ने कहा.

‘‘भीड़ तो होगी ही. इस अखबार की कटिंग देखो. इस में लिखा है कि राज्य के सभी 75 जिलों के 2,385 केंद्रों पर परीक्षा आयोजित की जा रही है, जहां 48,17,441 अभ्यर्थी परीक्षा देंगे.

‘‘समाचार एजेंसी एएनआई की रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों से 6 लाख से ज्यादा उम्मीदवारों ने आवेदन किया है, जिस में बिहार से 2,67,305, हरियाणा से 74,769, झारखंड से 17,112, मध्य प्रदेश से 98,400, दिल्ली से 42,259, उम्मीदवार शामिल हैं. 97,277 राजस्थान से, 14,627 उत्तराखंड से, 5,512 पश्चिम बंगाल से, 3,151 महाराष्ट्र से और 3,404 पंजाब से.’’

‘‘तुम्हें बड़ी अच्छी जानकारी है,’’ मनोज ने ताली बजाते हुए कहा.

‘‘यह मजाक की बात नहीं है. देश में बेरोजगारी की हद है. इस ऐग्जाम में आधे पद तो जनरल और इकोनौमिकली वीकर सैक्शन के हैं. ओबीसी के तकरीबन 16,000, एससी और एसटी के 12,000 पद हैं.

‘‘तुम ही बताओ, जनरल वालों को कांस्टेबल बनने की जरूरत ही क्या है? उन के पास तो बड़ी नौकरी पाने के खूब मौके होते हैं.’’

‘‘बोल तो तुम सही रही हो. अच्छा, बाकी सब छोड़ो… तुम्हारा गणित का ऐग्जाम तो ठीकठाक ही हुआ है, पर तुम्हें अपना मोबाइल नंबर तो अच्छे से याद होगा न?’’

‘‘ओह, तो जनाब को मेरा मोबाइल नंबर चाहिए. बात को इतना घुमा क्यों रहे हो मनोज बाबू,’’ कहते हुए संतोष ने अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

मनोज ने उस नंबर पर मिसकाल दे दी और सेव कर लिया. बातें करतेकरते वे दोनों प्रयागराज स्टेशन जा पहुंचे.

इस बार उन दोनों को डब्बे में चढ़ने के बाद जगह तो मिल गई थी, पर भीड़ का आलम तकरीबन वही था. रेलवे के बड़े अफसरों ने कोशिश की थी कि भगदड़ के हालात न बनें.

संतोष और मनोज दोनों सटे हुए खड़े थे, तभी मनोज ने संतोष को देखते हुए कहा, ‘‘क्या यह हमारी पहली और आखिरी मुलाकात है?’’

‘‘ऐसा क्यों कहा?’’ संतोष ने पूछा.

‘‘संतोष, एक बात कहूं?’’ मनोज ने उस के चेहरे के एकदम करीब हो कर कहा.

संतोष का दिल एकदम से धड़क गया. उस का हाथ मनोज के हाथ से छू गया. मनोज ने हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘मुझे तुम्हारे साथ हमेशा रहना है. मैं चाहता हूं कि हमारी जिंदगी का सफर भी ऐसे ही एकदूसरे के करीब रह कर गुजरे.’’

इतना सुनते ही संतोष ने अपना सिर मनोज की छाती पर टिका दिया. मनोज का दिल भी ट्रेन की रफ्तार सा दौड़ने लगा था.

‘‘कांस्टेबल के ऐग्जाम के रिजल्ट का इंतजार करते हैं. मनोज, हम 3 बहनें हैं. मैं सब से बड़ी हूं. पिता की आमदनी इतनी ज्यादा नहीं है कि उन से भी अपनी शादी का जिक्र कर सकूं. पहले हमें अपने पैरों पर खड़ा होना होगा,’’ संतोष बोली.

उन दोनों का वापसी का सफर बातों और वादों में गुजर गया. 17 और 18 फरवरी को कांस्टेबल का ऐग्जाम हुआ था. इस के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर वायरल हो गया कि पेपर लीक हुआ था.

हालांकि, सरकार की ओर से कहा गया कि ऐसी अफवाहों पर ध्यान न दें, पर धुआं उठ रहा था, तो कहीं आग जरूर लगी होगी.

दरअसल, इस ऐग्जाम के दौरान तकरीबन 244 ‘सौल्वर’ और ऐग्जाम में सेंध लगाने की कोशिश में जुटे गिरोह के कई लोग पकड़े गए थे. इस मामले में कई जगह एफआईआर भी दर्ज कराई गई थी.

एक दिन संतोष ने मनोज को फोन किया, ‘‘सुना तुम ने. हमारी सारी मेहनत बेकार गई. पेपर लीक हो गया है. मुझे तो पहले से ही आइडिया था, जब मेरी एक सहेली मीना ने बताया था कि उस ने पैसे दे कर पेपर खरीदा था. काफी पैसे भी दिए थे. तब मुझे लगा था कि वह ऐसे ही बोल रही है, पर अब दाल में काला लग रहा है.’’

दूसरी ओर से मनोज ने कहा, ‘पेपर तो लीक हुआ ही है. पुलिस कई जगह छापेमारी कर रही है. इस मामले में एसओजी सर्विलांस सैल, एसटीएफ यूनिट गोरखपुर और इटावा पुलिस ने 4 आरोपियों को गिरफ्तार किया है. उन के पास से अभ्यर्थियों की मार्कशीट, एडमिट कार्ड, ब्लैंक चैक, मोबाइल फोन और लैपटौप जैसा दूसरा सामान बरामद हुआ है.

‘इस से पहले इस मामले में पेपर लीक के आरोपी नीरज यादव को भी गिरफ्तार किया जा चुका है. वह बलिया का रहने वाला है और पहले मर्चैंट नेवी में नौकरी करता था. हालांकि, बाद में उस ने नौकरी छोड़ दी थी. उसे ही मथुरा के एक शख्स ने ‘आंसर की’ भेजी थी. एसटीएफ इस मामले में भी जांच कर रही है.’

‘‘अरे यार, सुना है कि पेपर के दौरान ही गड़बड़ी करने वाले 244 लोग गिरफ्तार किए गए थे. कहीं कोई दूसरे की जगह बैठ कर ऐग्जाम दे रहा था, तो कहीं कोई ‘सौल्वर गैंग’ पकड़ा गया था. सोशल मीडिया पर पेपर लीक की खबरें भी तैरती रही थीं,’’ संतोष ने अपनी भी जानकारी जोड़ी.

‘मेरी तो पूरी मेहनत मिट्टी में मिल गई. सुना है कि 6 महीने बाद ऐग्जाम दोबारा होगा, पर न जाने क्यों मेरा मन अब सरकारी नौकरी से हट गया है. ये सब गड़बडि़यां भी तो बेरोजगारी को बढ़ाने वाली होती हैं. बहुत से नौजवान हिम्मत हार जाते हैं. कोचिंग में दिए गए उन के पैसे बरबाद हो जाते हैं. मांबाप के सपने पूरे होने से पहले ही टूट जाते हैं,’ मनोज बोला.

‘‘तुम सही कह रहे हो, पर अगर नौकरी नहीं करोगे तो क्या करोगे? हमारा भविष्य दांव पर लग जाएगा,’’ संतोष ने दिल की बात कही.

‘कल मैं सतना आ रहा हूं, तुम स्टेशन पर मिलने आ जाना. फिर बताऊंगा कि हमें क्या करना है,’ मनोज बोला.

‘‘ठीक है,’’ संतोष ने इतना ही कहा और फोन काट दिया.

अगले दिन ट्रेन आने से पहले ही संतोष स्टेशन पर आ चुकी थी. थोड़ी देर में वे दोनों एक चाय स्टाल पर खड़े चाय पी रहे थे.

‘‘संतोष, मैं ने सोच लिया है कि अब मैं बाइक मरम्मत का अपना काम शुरू करूंगा. मेरे एक दोस्त के पास खाली जगह है. उस ने हां बोल दिया है. शुरू में थोड़ी ज्यादा मेहनत करनी होगी, पर मुझे अपनी बाजुओं पर यकीन है. क्या तुम मेरा साथ दोगी?’’ मनोज ने अपना इरादा जाहिर कर दिया.

संतोष ने मनोज को बड़े गौर से देखा, फिर उस का हाथ कस कर पकड़ते हुए कहा, ‘‘मंजूर है, पर तुम्हारा सारा अकाउंट मैं ही संभालूंगी.’’

‘‘पर, तुम्हारा गणित तो कमजोर है,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘प्रेमिका का गणित कमजोर हो सकता है, पर जीवनसाथी का नहीं. समझे मेरे मनोज बाबू,’’ संतोष के इतना कहते ही वे दोनों खिलखिला कर हंस दिए.

‘‘कहां तो हम दोनों कांस्टेबल बन कर अपना और देश का भला करना चाहते थे, पर ऐसा हो नहीं पाया. हमारी तो ‘ऊपरी कमाई’ भी गई,’’ मनोज ने संतोष को कनखियों से देखते हुए कहा.

‘‘सच है, पहले हम दूसरों से रिश्वत लेते और अब जब कोई कांस्टेबल हमारे गैराज पर आएगा, तो उस के हाथ गरम करने पड़ेंगे,’’ संतोष बोली, तो मनोज धीरे से मुसकराया और उस के होंठों को चूम लिया.

देह : क्यों खौफ में जी रही थी बुधिया

चारपाई पर लेटी हुई बुधिया साफसाफ देख रही थी कि सूरज अब ऊंघने लगा था और दिन की लालिमा मानो रात की कालिमा में तेजी से समाती जा रही थी.

देखते ही देखते अंधेरा घिरने लगा था… बुधिया के आसपास और उस के अंदर भी. लगा जैसे वह कालिमा उस की जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है…

एक ऐसा हिस्सा, जिस से चाह कर भी वह अलग नहीं हो सकती. मन किसी व्याकुल पक्षी की तरह तड़प रहा था. अंदर की घुटन और चुभन ने बुधिया को हिला कर रख दिया. समय के क्रूर पंजों में फंसी उलझी बुधिया का मन हाहाकार कर उठा है.

तभी ‘ठक’ की आवाज ने बुधिया को चौंका दिया. उस के तनमन में एक सिहरन सी दौड़ गई. पीछे मुड़ कर देखा तो दीवार का पलस्तर टूट कर नीचे बिखरा पड़ा था. मां की तसवीर भी खूंटी के साथ ही गिरी पड़ी थी जो मलबे के ढेर में दबे किसी निरीह इनसान की तरह ही लग रही थी.

बुधिया को पुराने दिन याद हो आए, जब वह मां की आंखों में वही निरीहता देखा करती थी. शाम को बापू जब दारू के नशे में धुत्त घर पहुंचता था तो मां की छोटी सी गलती पर भी बरस पड़ता था और पीटतेपीटते बेदम कर देता था.

एक बार जवान होती बुधिया के सामने उस के जालिम बाप ने उस की मां को ऐसा पीटा था कि वह घंटों बेहोश पड़ी रही थी.

बुधिया डरीसहमी सी एक कोने में खड़ी रही थी. उस का मन भीतर ही भीतर कराह उठा था.

बुधिया को याद है, उस दिन उस की मां खेत पर गई हुई थी… धान की कटाई में. तभी ‘धड़ाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला था और उस का दारूखोर बाप अंदर दाखिल हुआ था. आते ही उस ने अपनी सिंदूरी आंखें बुधिया के ऊपर ऐसे गड़ा दी थीं मानो वह उस की बेटी नहीं महज एक देह हो.

‘बापू…’ बस इतना ही निकल पाया था बुधिया की जबान से.

‘आ… हां… सुन… बुधिया…’ बापू जैसे आपे से बाहर हो कर बोले थे, ‘यह दारू की बोतल रख दे…’

‘जी अच्छा…’ किसी मशीन की तरह बुधिया ने सिर हिलाया था और दारू की बोतल अपने बापू के हाथ से ले कर कोने में रख आई थी. उस की आंखों में डर की रेखाएं खिंच आई थीं.

तभी बापू की आवाज किसी हथौड़े की तरह सीधे उसे आ कर लगी थी, ‘बुधिया… वहां खड़ीखड़ी क्या देख रही है… यहां आ कर बैठ… मेरे पास… आ… आ…’

बुधिया को तो जैसे काटो तो खून नहीं. उस की सांसें तेजतेज चलने लगी थीं, धौंकनी की तरह. उस का मन तो किया था कि दरवाजे से बाहर भाग जाए, लेकिन हिम्मत नहीं हुई थी. उसी पल बापू की गरजदार आवाज गूंजी थी, ‘बुधिया…’

न चाहते हुए भी बुधिया उस तरफ बढ़ चली थी, जहां उस का बाप खटिया पर पसरा हुआ था. उस ने   झट से बुधिया का हाथ पकड़ा और अपनी ओर ऐसे खींच लिया था जैसे वह उस की जोरू हो.

‘बापू…’ बुधिया के गले से एक घुटीघुटी सी चीख निकली थी, ‘यह क्या कर रहे हो बापू…’

‘चुप…’ बुधिया का बापू जोर से गरजा और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उस के दाएं गाल पर दे मारा था.

बुधिया छटपटा कर रह गई थी. उस में अब विरोध करने की जरा भी ताकत नहीं बची थी. फिर भी वह बहेलिए के जाल में फंसे परिंदे की तरह छूटने की नाकाम कोशिश करती रही थी. थकहार कर उस ने हथियार डाल दिए थे.

उस भूखे भेड़िए के आगे वह चीखती रही, चिल्लाती रही, मगर यह सिलसिला थमा नहीं, चलता रहा था लगातार…

बुधिया ने मां को इस बाबत कई बार बताना चाहा था, मगर बापू की सुलगती सिंदूरी आंखें उस के तनमन में झुरझुरी सी भर देती थीं और उस पर खौफ पसरता चला जाता था, वह भीतर ही भीतर घुटघुट कर जी रही थी.

फिर एक दिन बापू की मार से बेदम हो कर बुधिया की मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. महीनों बिस्तर पर पड़ी तड़़पती रही थी वह. और उस दिन जबरदस्त उस के पेट में तेज दर्द उठा. तब बुधिया दौड़ पड़ी थी मंगरू चाचा के घर.

मंगरू चाचा को  झाड़फूंक में महारत हासिल थी.

बुधिया से आने की वजह जान कर मंगरू ने पूछा था, ‘तेरे बापू कहां हैं?’

‘पता नहीं चाचा,’ इतना ही कह पाई थी बुधिया.

‘ठीक है, तुम चलो. मैं आ रहा हूं,’ मंगरू ने कहा तो बुधिया उलटे पैर अपने झोंपड़े में वापस चली आई थी.

थोड़ी ही देर में मंगरू भी आ गया था. उस ने आते ही झाड़फूंक का काम शुरू कर दिया था, लेकिन बुधिया की मां की तबीयत में कोई सुधार आने के बजाय दर्द बढ़ता गया था.

मंगरू अपना काम कर के चला गया और जातेजाते कह गया, ‘बुधिया, मंत्र का असर जैसे ही शुरू होगा, तुम्हारी मां का दर्द भी कम हो जाएगा… तू चिंता मत कर…’

बुधिया को लगा जैसे मंगरू चाचा ठीक ही कह रहा है. वह घंटों इंतजार करती रही लेकिन न तो मंत्र का असर शुरू हुआ और न ही उस की मां के दर्द में कमी आई. देखते ही देखते बुधिया की मां का सारा शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया.

आंखें पथराई सी बुधिया को ही देख रही थीं, मानो कुछ कहना चाह रही हों. तब बुधिया फूटफूट कर रोने लगी थी.

उस के बापू देर रात घर तो आए, लेकिन नशे में चूर. अगली सुबह किसी तरह कफनदफन का इंतजाम हुआ था.

बुधिया की यादों का तार टूट कर दोबारा आज से जुड़ गया.

बापू की ज्यादतियों की वजह से बुधिया की जिंदगी तबाह हो गई. पता नहीं, वह कितनी बार मरती है, फिर जीती है… सैकड़ों बार मर चुकी है वह. फिर भी जिंदा है… महज एक लाश बन कर.

बापू के प्रति बुधिया का मन विद्रोह कर उठता है, लेकिन वह खुद को दबाती आ रही है.

मगर आज बुधिया ने मन ही मन एक फैसला कर लिया. यहां से दूर भाग जाएगी वह… बहुत दूर… जहां बापू की नजर उस तक कभी नहीं पहुंच पाएगी.

अगले दिन बुधिया मास्टरनी के यहां गई कि वह अपने ऊपर हुई ज्यादतियों की सारी कहानी उन्हें बता देगी. मास्टरनी का नाम कलावती था, मगर सारा गांव उन्हें मास्टरनी के नाम से ही जानता है.

कलावती गांव के ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. बुधिया को भी उन्होंने ही पढ़ाया था. यह बात और है कि बुधिया 2 जमात से ज्यादा पढ़ नहीं पाई थी.

‘‘क्या बात है बुधिया? कुछ बोलो तो सही… जब से तुम आई हो, तब से रोए जा रही हो. आखिर बात क्या हो गई?’’

मास्टरनी ने पूछा तो बुधिया का गला भर आया. उस के मुंह से निकला, ‘मास्टरनीजी.’’

‘‘हां… हां… बताओ बुधिया… मैं वादा करती हूं, तुम्हारी मदद करूंगी,’’ मास्टरनी ने कहा तो बुधिया ने बताया, ‘‘मास्टरनीजी… उस ने हम को खराब किया… हमारे साथ गंदा… काम…’’ सुन कर मास्टरनी की भौंहें तन गईं. वे बुधिया की बात बीच में ही काट कर बोलीं, ‘‘किस ने किया तुम्हारे साथ गलत काम?’’

‘‘बापू ने…’’ और बुधिया सबकुछ सिलसिलेवार बताती चली गई.

मास्टरनी कलावती की आंखें फटी की फटी रह गईं और चेहरे पर हैरानी की लकीरें गहराती गईं. फिर वे बोलीं, ‘‘तुम्हारा बाप इनसान है या जानवर… उसे तो चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए. उस ने अपनी बेटी को खराब किया.

‘‘खैर, तू चिंता मत कर बुधिया. तू आज शाम की गाड़ी से मेरे साथ शहर चल. वहां मेरी बेटी और दामाद रहते हैं. तू वहीं रह कर उन के काम करना, बच्चे संभालना. तुम्हें भरपेट खाना और कपड़ा मिलता रहेगा. वहां तू पूरी तरह महफूज रहेगी.’’

बुधिया का सिर मास्टरनी के प्रति इज्जत से झुक गया.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरते ही बुधिया को लगा जैसे वह किसी नई दुनिया में आ गई हो. सबकुछ अलग और शानदार था.

बुधिया बस में बैठ कर गगनचुंबी इमारतों को ऐसे देख रही थी मानो कोई अजूबा हो.

तभी मास्टरनीजी ने एक बड़ी इमारत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘देख बुधिया… यहां औरतमर्द सब एकसाथ कंधे से कंधा मिला कर काम करते हैं.’’

‘‘सच…’’ बुधिया को जैसे हैरानी हुई. उस का अल्हड़ व गंवई मन पता नहीं क्याक्या कयास लगाता रहा.

बस एक झटके से रुकी तो मास्टरनी के साथ वह वहीं उतर पड़ी.

चंद कदमों का फासला तय करने के बाद वे दोनों एक बड़ी व खूबसूरत कोठी के सामने पहुंचीं. फिर एक बड़े से फाटक के अंदर बुधिया मास्टरनीजी के साथ ही दाखिल हो गई.

बुधिया की आंखें अंदर की सजावट देख कर फटी की फटी रह गईं.

मास्टरनीजी ने एक मौडर्न औरत से बुधिया का परिचय कराया और कुछ जरूरी हिदायतें दे कर शाम की गाड़ी से ही वे गांव वापस लौट गईं.

शहर की आबोहवा में बुधिया खुद को महफूज सम  झने लगी. कोठी के चारों तरफ खड़ी कंक्रीट की मजबूत दीवारें और लोहे की सलाखें उसे अपनी हिफाजत के प्रति आश्वस्त करती थीं.

बेफिक्री के आलम से गुजरता बुधिया का भरम रेत के घरौंदे की तरह भरभरा कर तब टूटा जब उसे उस दिन कोठी के मालिक हरिशंकर बाबू ने मौका देख कर अपने कमरे में बुलाया और देखते ही देखते भेडि़या बन गया. बुधिया को अपना दारूबाज बाप याद हो आया.

नशे में चूर… सिंदूरी आंखें और उन में कुलबुलाते वासना के कीड़े. कहां बचा पाई बुधिया उस दिन भी खुद को हरिशंकर बाबू के आगोश से.

कंक्रीट की दीवारें और लोहे की मजबूत सलाखों को अपना सुरक्षा घेरा मान बैठी बुधिया को अब वह छलावे की तरह लगने लगा और फिर एक रात उस ने देखा कि नितिन और श्वेता अपने कमरे में अमरबेल की तरह एकदूसरे

से लिपटे बेजा हरकतें कर रहे थे. टैलीविजन पर किसी गंदी फिल्म के बेहूदा सीन चल रहे थे.

‘‘ये दोनों सगे भाईबहन हैं या…’’ बुदबुदाते हुए बुधिया अपने कमरे में चली आई.

सुबह हरिशंकर बाबू की पत्नी अपनी बड़ी बेटी को समझा रही थीं, ‘‘देख… कालेज जाते वक्त सावधान रहा कर. दिल्ली में हर दिन लड़कियों के साथ छेड़छाड़ व बलात्कार की वारदातें बढ़ रही हैं. तू जबजब बाहर निकलती है तो मेरा मन घबराता रहता है. पता नहीं, क्या हो गया है इस शहर को.’’

बुधिया छोटी मालकिन की बातों पर मन ही मन हंस पड़ी. उसे सारे रिश्तेनाते बेमानी लगने लगे. वह जिस घर को, जिस शहर को अपने लिए महफूज समझ रही थी, वही उसे महफूज नहीं लग रहा था.

बुधिया के सामने एक अबूझ सवाल तलवार की तरह लटकता सा लगता था कि क्या औरत का मतलब देह है, सिर्फ देह?

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें