वापस: क्यों प्रभाकर के बच्चे की मां बनना चाहती थी प्रभा

“मिस्टर प्रभाकर की स्थिति बहुत नाजुक है. हम ने बहुत कोशिश की उन्हें ठीक करने की. पर किसी प्रकार के अंधेरे में आप को रखना उचित नहीं होगा. अब वे शायद 1-2 दिनों से ज्यादा जिंदा न रह सकें,” डाक्टर ने प्रभा से कहा.

प्रभा सन्न रह गई. प्रभा और प्रभाकर की जोड़ी क्या सिर्फ 1 वर्ष के लिए थी? बीते लमहे उस के मस्तिष्क में

कौंधने लगे. पर अभी उन लमहों को याद करने का समय नहीं था. प्रभाकर को बचाने में डाक्टर अपनी असमर्थता जता चुके थे. पर प्रभा अपने पति प्रभाकर को किसी भी हाल में वापस पाना चाहती थी,“मैं प्रभाकर के बच्चे की मां बनना चाहती हूं, डाक्टर. क्या आप मेरी मदद करेंगे?” प्रभा ने अनुरोध भरे स्वर में कहा.

“देखिए, मैं आप की भावना को समझ सकता हूं. पर यह संभव नहीं है,” डाक्टर ने असमर्थता जताई.

“क्यों संभव नहीं है? वह मेरा पति है. मैं उस के बच्चे की मां बनना चाहती हूं. अब क्या मैं आप को बताऊं कि आज के उन्नत तकनीक के जमाने में यह संभव है कि आप प्रभाकर के स्पर्म को इकट्ठा कर सुरक्षित रख दें. बाद में ऐसिस्टैड रीप्रोडक्टिव तकनीक से मैं मां बन जाऊंगी,” प्रभा ने मायूस होते हुए कहा.

“यह मुझे पता है प्रभाजी. पर प्रभाकर अभी अचेत हैं. बगैर उन की मरजी के उन का स्पर्म हम नहीं ले सकते. यह कानूनी मामला है,” डाक्टर ने असमर्थता जताई.

“कोई तो उपाय होगा डाक्टर?” प्रभा तड़प कर बोली.

“एक ही उपाय है, कोर्ट और्डर,” डाक्टर ने कहा,”पर इस के लिए समय चाहिए और शायद प्रभाकर 1-2 दिनों से अधिक जीवित नहीं रह सकें.

“मैं कोर्ट और्डर ले कर आऊंगी,”कहते हुए प्रभा उठ खड़ी हुई. उस ने आईसीयू में जा कर एक बार प्रभाकर को देखा. वह अचेत पड़ा था. तरहतरह के उपकरण उस के शरीर में लगे हुए थे.

“तुम मेरे पास वापस आओगे प्रभाकर,” उस ने प्रभाकर के सिर को सहलाते हुए कहा,“पति के रूप में नहीं तो संतान के रूप में,” और आंसू पोंछती वह बाहर निकल गई.

उस ने अपना मोबाइल निकाला. नेहा उस की परिचित थी और ऐडवोकेट थी. उस ने उसे कौल किया तो उधर से आवाज आई,“हैलो प्रभा, कैसी हो?” वह जानती थी कि प्रभा अभी किस मानसिक संताप से गुजर रही है.

“कैसी हो सकती हूं, नेहा. एक अर्जेंट काम है तुम से,” प्रभा ने उदास स्वर में कहा.

“बोलो न,” नेहा ने आत्मीयता से कहा.

“आज ही कोर्ट और्डर ले लो, प्रभाकर के स्पर्म को कलैक्ट कर प्रिजर्व करने का. मैं प्रभाकर के बच्चे का मां बनना चाहती हूं,” प्रभा ने कहा.

“आज ही? मगर यह मुश्किल है. कोर्ट के मामले तो तुम जानती ही हो,” नेहा ने असमर्थता जताते हुए कहा.

“जानती हूं. पर तुम जान लो कि डाक्टर ने कहा है कि प्रभाकर 1-2 दिनों से ज्यादा जीवित नहीं रह सकता और उस के जाने के पहले मैं उस का स्पर्म प्रिजर्व करवाना चाहती हूं ताकि मैं ऐसिस्टैड रीप्रोडक्टिव तकनीक से प्रभाकर के बच्चे की मां बन सकूं. कोर्ट में कैसे और क्या करना है यह तुम मुझ से बेहतर जान सकती हो. प्लीज नेहा, पूरा जोर लगा दो. जरूर कोई रास्ता होगा,” प्रभा ने कहा.

“ठीक है. मैं सारे काम छोड़ इस काम में लगती हूं. मैं राजेंद्र अंकल को तुम्हारे दस्तखत लेने भेजूंगी. तुरंत दस्तखत कर पेपर भेज देना,” नेहा प्रभा के पड़ोस में ही रहती थी और उस के ससुर राजेंद्रजी से परिचित थी.

“ठीक है,” प्रभा ने फोन बंद कर दिया.

सबकुछ समाप्त हो चुका था. प्रभा हौस्पिटल के वेटिंग लाउंज में बैठ गई. चारों ओर मरीजों के परिचित व रिश्तेदार बैठे थे. कुछ के मरीज सामान्य रूप से बीमार थे तो कुछ के गंभीर. कोविड के दूसरे लहर की अफरातफरी समाप्त हो चुकी थी. हौस्पिटल के कर्मचारी अपने काम में व्यस्त थे. कोई कैश काउंटर में काम कर रहा था तो कोई कैशलैस काउंटर पर. इतने लोगों के होते हुए भी चारों ओर अजीब किस्म का सन्नाटा था. ऐसा प्रतीत होता था मानों जीवन पर आशंका का ग्रहण लगा हुआ है.

प्रभा ने पर्स से पानी की बोतल निकाल एक घूंट लिया और आंखें बंद कर बैठ गई. प्रभाकर के साथ बिताए 1-1 पल उस की आंखों के सामने आते चले गए…

पतिपत्नी के रूप में वे 1-2 माह ही सही तरीके से रह पाए थे. शादी के 1-2 सप्ताह के बाद से ही कोरोना कहर बरपाने लगा था. शादी के 1 माह बाद पिछले वर्ष वह कुछ काम से बैंगलुरू गया था. उस समय समाचारपत्रों में काफी सुर्खियां थीं उस अपार्टमैंट की जिस में वह ठहरा हुआ था. देश में कोरोना के कुछ मामले आने लगे थे. कोई कोविड पैशंट मिला था उस सोसाइटी में. सोसाइटी को सील कर दिया गया था. किसी प्रकार वह वापस आ पाया था.

कोरोना से वह बैंगलुरू में ही संक्रमित हो गया था या फिर रास्ते में या फिर दिल्ली वापस आने के बाद, कहा नहीं जा सकता था पर बुरी तरह संक्रमित हो गया था. गले में खराश और बुखार से काफी परेशान था वह. उस ने खुद को एक कमरे में आइसोलेट कर रखा था. प्रभा चाहती तो थी उस के पास जाने को पर प्रभाकर ने सख्त हिदायत दे रखी थी,“अभी तुम ठीक हो तो मेरी देखभाल कर रही हो, मुझे खानापानी दे रही हो। तुम भी संक्रमित हो जाओगी तो फिर कौन तुम्हारी देखभाल करेगा? लौकडाउन के कारण कोई दोस्तरिश्तेदार भी नहीं आ पाएगा. हौस्पिटल भरे हुए हैं और फिर इस का कोई इलाज भी नहीं है.”

दोनों एक ही औफिस में काम करते थे और इस दौरान उन की मुलाकात हुई थी. दोनों के नाम मिलतेजुलते थे इसलिए कई बार गलतफहमी भी होती थी. एक बार प्रभाकर की चिट्ठी उस के पास आ गई थी. वह चिट्ठी प्रभाकर को देने गई थी. उस चिट्ठी ने दोनों के बीच सेतु का काम किया था. दोनों के नाम मिलतेजुलते ही नहीं थे, सोचविचार में भी तालमेल था. पहले दोनों अच्छे दोस्त बने, फिर प्रेमी और फिर दंपती. मगर जिंदगी को शायद कुछ और ही गंवारा था. संयोग से वह कोरोनाग्रस्त होने से बच गई और प्रभाकर भी धीरेधीरे ठीक हो गया. कोविड से ठीक होने के बाद लगा था कि जिंदगी पटरी पर वापस आ रही है. पर कोविड के पोस्ट कंप्लीकैशंस के कारण प्रभाकर की स्थिति बिगड़ने लगी. निमोनिया और मल्टी और्गन फेलियर के कारण प्रभाकर का बचना मुश्किल हो गया.

एकाएक प्रभा की तंद्रा भंग हुई. उस का मोबाइल बज रहा था. उस ने स्क्रीन पर देखा ‘न्यू पापा कौलिंग’ मैसेज स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा था. उस ने प्रभाकर के पिताजी का नंबर न्यू पापा के नाम से सेव कर रखा था. प्रभाकर के पापा राजेंद्रजी काफी सहयोगात्मक व्यवहार वाले थे. पहले उस ने उन का नाम ‘फादर इन ला’ के नाम से सेव कर रखा था. पर उन के स्नेह को देखते हुए उस ने उन्हें ‘न्यू पापा’ का पद दे दिया था.

“हैलो पापा,” उस ने कौल रिसीव कर क्षीण स्वर में कहा.

“कहां हो बेटा? ऐडवोकेट नेहा ने एक डौक्यूमैंट भेजा है तुम्हारे दस्तखत के लिए,” राजेंद्रजी ने कहा.

“पापा मैं मैन ऐंट्री पर वेटिंग लाउंज में कोने…” बोलतेबोलते रुक गई प्रभा. उस ने देखा प्रभाकर के पिताजी उस के सामने आ गए थे।

“इस पेपर पर दस्तखत कर दो. नेहा ने मांगा है,” राजेंद्रजी ने उसे पेपर देते हुए कहा. उन के चेहरे पर उदासी पसरी हुई थी. उन्होंने डौक्यूमैंट पढ़ लिया था और प्रभा की स्थिति को समझ सकते थे.

प्रभा ने दस्तखत कर पेपर उन्हें वापस कर दिया,”पापा, चाय पीना चाहेंगे?” उस ने पूछा. वह जानती थी कि घर में किसी को खानेपीने की कोई रूचि फिलहाल नहीं है.

“इच्छा तो नहीं हो रही. जीवन ने तो जहर पिला रखा है. नेहा ने तुरंत पेपर मांगा है. चलता हूं,” और वे चलते बने.

शाम तक नेहा कोर्ट और्डर ले कर आ गई. कोर्ट ने विशेष परिस्थिति को देखते हुए मामले पर विचार किया और अंतरिम राहत दे दी. कोर्ट ने स्पष्ट आदेश हौस्पिटल के डाइरैक्टर को दिया था. प्रभा कोर्ट और्डर ले कर सीधे डाइरैक्टर के पास गई. डाइरैक्टर को उस ने कोर्ट और्डर दिखाया. उस में साफसाफ यह उल्लेख था कि चूंकि मरीज अचेत है और उस की सहमति पाना असंभव है, विशेष परिस्थिति को देखते हुए न्यायालय अस्पताल प्रशासन को आदेश देता है कि आईवीएफ/एआरटी प्रोसीजर से मरीज के स्पर्म को सुरक्षित रखे.

हौस्पिटल ने सही प्रोसीजर अपना कर स्पर्म सुरक्षित रख लिया. प्रभा के मन में संतोष हो गया. प्रभाकर को बचाना तो संभव नहीं है पर वह उस के बच्चे की मां जरूर बनेगी और वह उस के पास दूसरे रूप में वापस आएगा.

तुम कैसी हो: क्यों आशा को अपने पति से शिकायत थी?

मेरे खयाल से मैं ने आशा से नहीं पूछा, ‘तुम कैसी हो.’ कभी नहीं. एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें. सच पूछिए तो मु झे कभी इस की जरूरत ही नहीं पड़ी.

मेरा नेचर ही कुछ ऐसा है. मैं औपचारिकताओं में विश्वास नहीं रखता. पत्नी से फौर्मेलिटी, नो वे. मु झे तो यह ‘हाऊ आर यू’ पूछने वालों से भी चिढ़ है. रोज मिलते हैं. दिन में दस बार टकराएंगे, लेकिन ‘हाय… हाऊ आर यू’ बोले बगैर खाना नहीं हजम होता. अरे, अजनबी थोड़े ही हैं. मैं और आशा तो पिछले 24 सालों से साथ में हैं. एक छत के नीचे रहने वाले भला अजनबी कैसे हो सकते हैं? मेरा सबकुछ तो आशा का ही है. गाड़ी, बंगला, रुपयापैसा, जेवर मेरी फिक्सड डिपौजिट, शेयर्स,  म्यूचुअल फंड, बैंक अकाउंट्स सब में तो आशा ही नौमिनी है. कोई कमी नहीं है. मु झे यकीन है आशा भी मु झ से यह अपेक्षा न रखती होगी कि मैं इस तरह का कोई फालतू सवाल उस से पूछूं.

आशा तो वैसे भी हर वक्त खिलीखिली रहती है, चहकती, फुदकती रहती है. 50वां सावन छू लिया है उस ने. लेकिन आज भी वही फुरती है. वही पुराना जोश है शादी के शुरुआती दिनों वाला. निठल्ली तो वह बैठ ही नहीं सकती. काम न हो तो ढूंढ़ कर निकाल लेती है. बिजी रखती है खुद को. अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं वरना एक समय था जब वह दिनभर चकरघिन्नी बनी रहती थी. सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी उसे. गजब का टाइम मैनेजमैंट है उस का.

मजाल है कभी मेरी बैड टी लेट हुई हो, बच्चों का टिफिन न बन पाया हो या कभी बच्चों की स्कूल बस छूटी हो. गरमी हो, बरसात हो या जाड़ा, वह बिना नागा किए बच्चों को बसस्टौप तक छोड़ने जाती थी. बाथरूम में मेरे अंडरवियर, बनियान टांगना, रोज टौवेल ढूंढ़ कर मेरे कंधे पर डालना और यहां तक कि बाथरूम की लाइट का स्विच भी वह ही औन करती है.

औफिस के लिए निकलने से पहले टाई, रूमाल, पर्स, मोबाइल, लैपटौप आज भी टेबल पर मु झे करीने से सजा मिलता है. उसे चिंता रहती है कहीं मैं कुछ भूल न जाऊं. औफिस के लिए लेट न हो जाऊं. आलस तो आशा के सिलेबस में है ही नहीं. परफैक्ट वाइफ की परिभाषा में एकदम फिट. कई बार मजाक में वह कह भी देती है, ‘मेरे 2 नहीं, 3 बच्चे हैं.’

आशा की सेहत? ‘टच वुड’. वह  कभी बीमार नहीं पड़ी इन सालों में. सिरदर्द, कमरदर्द, आसपास भी नहीं फटके उस के. एक पैसा मैं ने उस के मैडिकल पर अभी तक खर्च नहीं किया. कभी तबीयत नासाज हुई भी तो घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाती है.

दीवाली की शौपिंग के लिए निकले थे हम. आशा सामान से भरा थैला मु झे कार में रखने के लिए दे रही थी. दुकान की एक सीढ़ी वह उतर चुकी थी. दूसरी सीढ़ी पर उस ने जैसे ही पांव रखा, फिसल गई. जमीन पर कुहनी के बल गिर गई. चिल्ला उठा था मैं. ‘देख कर नहीं चल सकती. हरदम जल्दी में रहती हो.’ भीड़ जुट गई, जैसे तमाशा हो रहा हो.

‘आप डांटने में लगे हैं, पहले उसे उठाइए तो,’ भीड़ में से एक महिला आशा की ओर लपकती हुई बोली.

मैं गुस्से में था. मैं ने आशा को अपना हाथ दिया ताकि वह उठ सके. आशा गफलत में थी. मैं फिर खी झ उठा, ‘आशा, सड़क पर यों तमाशा मत बनाओ. स्टैंडअप. कम औन. उठो.’ पर वह उठ न सकी. मैं खड़ा रहा. इस बीच, उस महिला ने आशा का बायां हाथ अपने कंधे पर रखा. दूसरे हाथ को आशा के कमर में डालती हुई बोली, ‘बस, बस थोड़ा उठने के लिए जोर लगाइए,’ वह खड़ी हो गई.

आशा के सीधे हाथ में कोई हलचल न थी. मैं ने उस के हाथ को पकड़ने की कोशिश की. वह दर्द के मारे चीख उठी. इतनी देर में पूरा हाथ सूज गया था उस का.

‘आप इन्हें तुरंत अस्पताल ले जाएं. लगता है चोट गहरी है,’ महिला ने आशा को कस कर पकड़ लिया. मैं पार्किंग में कार लेने चला गया. पार्किंग तक जातेजाते न जाने मैं ने कितनी बार कोसा होगा आशा को. दीवाली का त्योहार सिर पर है. मैडम को अभी ही गिरना था.

महिला ने कार में आशा को बिठाने में मदद की, ‘टेक केअर,’ उस ने कहा. मैं ने कार का दरवाजा धड़ाम से बंद किया. उसे थैंक्स भी नहीं कहा मैं ने. आशा पर मेरा खिसियाना जारी था, ‘और पहनो ऊंची हील की चप्पल. क्या जरूरत है इस सब स्वांग की. जानती हो इस उम्र में हड्डी टूटी तो जुड़ना कितना मुश्किल होता है?’’ मेरी बात सही निकली. राइट हैंड में कुहनी के पास फ्रैक्चर था. प्लास्टर चढ़ा दिया गया था. 20 दिन की फुरसत.

घर में सन्नाटा हो गया. आशा का हाथ क्या टूटा, सबकुछ थम गया, लगा, जैसे घर वैंटिलेटर पर हो. सारे काम रुक गए. यों तो कामवाली बाई लगा रखी थी, पर कुछ ही घंटों में मु झे पता चल गया कि बाई के हिस्से में कितने कम काम आते हैं. असली ‘कामवाली’ तो आशा ही है. मैं अब तक बेखबर था इस से. मेरे घर की धुरी तो आशा है. उसी के चारों ओर तो मेरे परिवार की खुशियां घूमती हैं.

शाम की दवा का टाइम हो गया. आशा ने खुद से उठने की कोशिश की. उठ न सकी. मैं ने ही दवाइयां निकाल कर उस की बाईं हथेली पर रखीं. पानी का गिलास मैं ने उस के मुंह से लगा दिया. मेरा हाथ उस के माथे पर था. मेरे स्पर्श से उस की निस्तेज आंखों में हलचल हुई. बरबस ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तुम कैसी हो, आशा?’’

यह क्या, वह रोने लगी. जारजार फफक पड़ी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. उस के आंसू मेरे हाथ पर टपटप गिर रहे थे. आंसुओं की गरमाहट मेरी रगों से हो कर दिल की ओर बढ़ने लगी. उस के अश्कों की ऊष्मा ने मेरे दिल पर बरसों से जमी बर्फ को पिघला दिया. अकसर हम अपनी ही सोच, अपने विचारों और धारणाओं से अभिशप्त हो जाते हैं. यह सवाल मेरे लिए छोटा था, पर आशा न जाने कब से इस की प्रतीक्षा में थी. बहुत देर कर दी थी मैं ने.

कौन जाने: निशा को कैसे पता चली जिंदगी की कीमत

कितनी चिंता रहती थी वीना को अपने घर की, बच्चों की. लेकिन न वह, न कोई और जानता था कि जिस कल की वह चिंता कर रही है वह कल उस के सामने आएगा ही नहीं. घर में मरघट सी चुप्पी थी. सबकुछ समाप्त हो चुका था. अभी कुछ पल पहले जो थी, अब वो नहीं थी. कुछ भी तो नहीं हुआ था, उसे. बस, जरा सा दिल घबराया और कहानी खत्म.

‘‘क्या हो गया बीना को?’’

‘‘अरे, अभी तो भलीचंगी थी?’’

सब के होंठों पर यही वाक्य थे.

जाने वाली मेरी प्यारी सखी थी और एक बहुत अच्छी इनसान भी. न कोई तकलीफ, न कोई बीमारी. कल शाम ही तो हम बाजार से लंबीचौड़ी खरीदारी कर के लौटे थे.

बीना के बच्चे मुझे देख दहाड़े मार कर रोने लगे. बस, गले से लगे बच्चों को मैं मात्र थपक ही रही थी, शब्द कहां थे मेरे पास. जो उन्होंने खो दिया था उस की भरपाई मेरे शब्द भला कैसे कर सकते थे?

इनसान कितना खोखला, कितना गरीब है कि जरूरत पड़ने पर शब्द भी हाथ छुड़ा लेते हैं. ऐसा नहीं कि सांत्वना देने वाले के पास सदा ही शब्दों का अभाव होता है, मगर यह भी सच है कि जहां रिश्ता ज्यादा गहरा हो वहां शब्द मौन ही रहते हैं, क्योंकि पीड़ा और व्यथा नापीतोली जो नहीं होती.

‘‘हाय री बीना, तू क्यों चली गई? तेरी जगह मुझे मौत आ जाती. मुझ बुढि़या की जरूरत नहीं थी यहां…मेरे बेटे का घर उजाड़ कर कहां चली गई री बीना…अरे, बेचारा न आगे का रहा न पीछे का. इस उम्र में इसे अब कौन लड़की देगा?’’

दोनों बच्चे अभीअभी आईं अपनी दादी का यह विलाप सुन कर स्तब्ध रह गए. कभी मेरा मुंह देखते और कभी अपने पिता का. छोटा भाई और उस की पत्नी भी साथ थे. वो भी क्या कहते. बच्चे चाचाचाची से मिल कर बिलखने लगे. शव को नहलाने का समय आ गया. सभी कमरे से बाहर चले गए. कपड़ा हटाया तो मेरी संपूर्ण चेतना हिल गई. बीना उन्हीं कपड़ों में थीं जो कल बाजार जाते हुए पहने थी.

‘अरे, इस नई साड़ी की बारी ही नहीं आ रही…आज चाहे बारिश आए या आंधी, अब तुम यह मत कह देना कि इतनी सुंदर साड़ी मत पहनो कहीं रिकशे में न फंस जाए…गाड़ी हमारे पास है नहीं और इन के साथ जाने का कहीं कोई प्रोग्राम नहीं बनता.

‘मेरे तो प्राण इस साड़ी में ही अटके हैं. आज मुझे यही पहननी है.’

हंस दी थी मैं. सिल्क की गुलाबी साड़ी पहन कर इतनी लंबीचौड़ी खरीदारी में उस के खराब होने के पूरेपूरे आसार थे.

‘भई, मरजी है तुम्हारी.’

‘नहीं पहनूं क्या?’ अगले पल बीना खुद ही बोली थी, ‘वैसे तो मुझे इसे नहीं पहनना चाहिए…चौड़े बाजार में तो कीचड़ भी बहुत होता है, कहीं कोई दाग लग गया तो…’

‘कोई सिंथेटिक साड़ी पहन लो न बाबा, क्यों इतनी सुंदर साड़ी का सत्यानास करने पर तुली हो…अगले हफ्ते मेरे घर किटी पार्टी है और उस में तुम मेहमान बन कर आने वाली हो, तब इसे पहन लेना.’

‘तब तो तुम्हारी रसोई मुझे संभालनी होगी, घीतेल का दाग लग गया तो.’

किस्सा यह कि गुलाबी साड़ी न पहन कर बीना ने वही साड़ी पहन ली थी जो अभी उस के शव पर थी. सच में गुलाबी साड़ी वह नहीं पहन पाई. दाहसंस्कार हो गया और धीरेधीरे चौथा और फिर तेरहवीं भी. मैं हर रोज वहां जाती रही. बीना द्वारा संजोया घर उस के बिना सूना और उदास था. ऐसा लगता जैसे कोई चुपचाप उठ कर चला गया है और उम्मीद सी लगती कि अभी रसोई से निकल कर बीना चली आएगी, बच्चों को चायनाश्ता पूछेगी, पढ़ने को कहेगी, टीवी बंद करने को कहेगी.

क्याक्या चिंता रहती थी बीना को, पल भर को भी अपना घर छोड़ना उसे कठिन लगता था. कहती कि मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है, और अब देखो, कितना समय हो गया, वहीं है वह घर और चल रहा है उस के बिना भी.

एक शाम बीना के पति हमारे घर चले आए. परेशान थे. कुछ रुपयों की जरूरत आ पड़ी थी उन्हें. बीना के मरने पर और उस के बाद आयागया इतना रहा कि पूरी तनख्वाह और कुछ उन के पास जो होगा सब समाप्त हो चुका था. अभी नई तनख्वाह आने में समय था.

मेरे पति ने मेरी तरफ देखा, सहसा मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही बीना ने मुझे बताया था कि उस के पास 20 हजार रुपए जमा हो चुके हैं जिन्हें वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करना चाहती है. रो पड़ी मैं बीना की कही हुई बातों को याद कर, ‘मुझे किसी के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता. कम है तो कम खा लो न, सब्जी के पैसे नहीं हैं तो नमक से सूखी रोटी खा कर ऊपर से पानी पी लो. कितने लोग हैं जो रात में बिना रोटी खाए ही सो जाते हैं. कम से कम हमारी हालत उन से तो अच्छी है न.’

जमीन से जुड़ी थी बीना. मेरे लिए उस के पति की आंखों की पीड़ा असहनीय हो रही थी. घर कैसे चलता है उन्होंने कभी मुड़ कर भी नहीं देखा था.

‘‘क्या सोच रही हो निशा?’’ मेरे पति ने कंधे पर हथेली रख मुझे झकझोरा. आंखें पोंछ ली मैं ने.

‘‘रुपए हैं आप के घर में भाई साहब, पूरे 20 हजार रुपए बीना ने जमा कर रखे थे. वह कभी किसी से कुछ मांगना नहीं चाहती थी न. शायद इसीलिए सब पहले से जमा कर रखा था उस ने. आप उस की अलमारी में देखिए, वहीं होंगे 20 हजार रुपए.’’

बीना के पति चीखचीख कर रोने लगे थे. पूरे 25 साल साथ रह कर भी वह अपनी पत्नी को उतना नहीं जान पाए थे जितना मैं पराई हो कर जानती थी. मेरे पति ने उन्हें किसी तरह संभाला, किसी तरह पानी पिला कर गले का आवेग शांत किया.

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही सारा सामान मुझे और बेटे को दिखा रही थी. मैं ने पूछा था कि तुम कहीं जा रही हो क्या जो हम दोनों को सब समझा रही हो तो कहने लगी कि क्या पता मर ही जाऊं. कोई यह तो न कहे कि मरने वाली कंगली ही मर गई.

‘‘तब मुझे क्या पता था कि उस के कहे शब्द सच ही हो जाएंगे. उस के मरने के बाद भी मुझे कहीं नहीं जाना पड़ा. अपने दाहसंस्कार और कफन तक का सामान भी संजो रखा था उस ने.’’

बीना के पति तो चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी सोचती रही. जीवन कितना छोटा और क्षणिक है. अभी मैं हूं  पर क्षण भर बाद भी रहूंगी या नहीं, कौन जाने. आज मेरी जबान चल रही है, आज मैं अच्छाबुरा, कड़वामीठा अपनी जीभ से टपका रही हूं, कौन जाने क्षण भर बाद मैं रहूं न रहूं. कौन जाने मेरे कौन से शब्द आखिरी शब्द हो जाने वाले हैं. मेरे द्वारा किया गया कौन सा कर्म आखिरी कर्म बन जाने वाला है, कौन जाने.

मौत एक शाश्वत सचाई है और इसे गाली जैसा न मान अगर कड़वे सत्य सा मान लूं तो हो सकता है मैं कोई भी अन्याय, कोई भी पाप करने से बच जाऊं. यही सच हर प्राणी पर लागू होता है. मैं आज हूं, कल रहूं न रहूं कौन जाने.

मेरे जीवन में भी ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं पाती हूं. मेरे साथ चाहेअनचाहे जुड़े कुछ रिश्ते जो सदा कांटे से चुभते रहे हैं. कुछ ऐसे नाते जिन्होंने सदा अपमान ही किया है.

उन के शब्द मन में आक्रोश से उबलते रहते हैं, जिन से मिल कर सदा तनाव से भरती रही हूं. एकाएक सोचने लगी हूं कि मेरा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है, जिसे तनाव और घृणा की भेंट चढ़ा दूं. कुदरत ने अच्छा पति, अच्छी संतान दी है जिस के लिए मैं उस की आभारी हूं.

इतना सब है तो थोड़ी सी कड़वाहट को झटक देना क्यों न श्रेयस्कर मान लूं.  क्यों न हाथ झाड़ दूं तनाव से. क्यों न स्वयं को आक्रोश और तनाव से मुक्त कर लूं. जो मिला है उसी का सुख क्यों न मनाऊं, क्यों व्यर्थ पीड़ा में अपने सुखचैन का नाश करूं.

प्रकृति ने इतनी नेमतें प्रदान की हैं  तो क्यों न जरा सी कड़वाहट भी सिरआंखों पर ले लूं, क्यों न क्षमा कर दूं उन्हें, जिन्होंने मुझ से कभी प्यार ही नहीं किया. और मैं ने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया, बिना एक भी क्षण गंवाए, क्योंकि जीवन क्षणिक है न. मैं अभी हूं, क्षण भर बाद रहूं न रहूं, ‘कौन जाने.’

विक्की : कैसे सबका चहेता बन गया अक्खड़ विक्की

नई कामवाली निर्मला का कामकाज, रहनसहन, बोलचाल आदि सभी घरभर को ठीक लगा था. उस में उन्हें दोष बस यही लगा था कि वह अपने साथ अपने बेटे विक्की को भी लाती थी. निर्मला का 3-4 वर्षीय बेटा बहुत शैतान था. नन्ही सी जान होते हुए भी वह घरभर की नाक में दम कर देता था. गजब का चंचल था, एक मिनट भी चैन से नहीं रहता था. और कुछ नहीं तो मुंह ही चलाता रहता था. कुछ न कुछ बड़बड़ाता ही रहता था. टीवी या रेडियो पर जो संवाद या गाना आता था, उस को विक्की दोहराने लगता था. घर में कोई भी कुछ बोलता तो वह उस बात का कुछ भी जवाब दे देता. घर के जिस किसी भी प्राणी पर उस की नजर पड़ती, वह उस से बोले बिना नहीं रहता था. दादाजी को वह भी दादाजी, मां को मां, पिताजी को पिताजी एवं छोटे बच्चों को उन के नाम से या ‘दीदी’, ‘भैया’ आदि कह कर पुकारता रहता था. घर के पालतू कुत्ते सीजर को भी वह नाम ले कर बुलाता था.

जब आसपास कोई न होता तो विक्की अपने बस्ते में से किताब निकाल कर जोरजोर से पाठ पढ़ने लगता. फिर पढ़ने में मन न लगने पर अपनी मां से बतियाने लगता. मां जब डांट कर चुप करातीं तो कहने लगता, ‘‘मां विक्की को डांटती हैं… मां विक्की को डांटती हैं. मां की शिकायत पिताजी से करूंगा. मां बहुत खराब हैं.’’ इस बड़बड़ाहट से झुंझला कर उस की मां जब उसे जोर से डांटतीं तो विक्की कुछ देर के लिए चुप हो जाता. मगर थोड़ी देर बाद उस का मुंह फिर चलने लगता था. कभी वह मुंडेर पर आ बैठी चिडि़या को बुलाने लगता तो कभी पौधों से बातें करने लगता था. कहने का मतलब यह कि उस का मुंह सतत चलता ही रहता था. सिर्फ मुंह ही नहीं, विक्की के हाथपांव भी चलते थे. वह काम कर रही अपनी मां की आंख बचा कर घर में घुस जाता था. दादाजी के कमरे में घुस कर उन से पूछने लगता, ‘‘दादाजी, सो रहे हो? दिनभर सोते हो?’’

पिताजी को दाढ़ी बनाते देखते ही प्रश्न करता, ‘‘दाढ़ी बना रहे हो, पिताजी?’’ मां को जूड़ा बांधते देख उस का प्रश्न होता, ‘‘इतना बड़ा जूड़ा? मेरी मां का तो जरा सा जूड़ा है.’’ गुड्डी और मुन्ने को पढ़ते या खेलते देख वह उन के पास पहुंच कर कभी बोल पड़ता या ताली पीटने लगता. सीजर के कारण ही वह थोड़ा सहमासहमा रहता था, नहीं तो सारे घर में धमाल करता रहता. फिर भी कुत्ते को चकमा दे कर वह घर में घुस ही जाता था. सीजर यदि उस पर लपकता तो वह चीखता हुआ अपनी मां के पास भाग जाता. वहां पहुंच कर वह जाली वाले द्वार के पीछे से सीजर से बतियाता था. कहने का मतलब यह कि वह न तो एक स्थान पर बैठ पाता था, न उस का मुंह ही बंद होता था. उस का स्वर घर में गूंजता ही रहता था.

विक्की की इन शरारतों से तंग हो कर सभी ने उस की मां को आदेश दिया, ‘‘तुम इस बच्चे को यहां मत लाया करो.’’ निर्मला ने अपनी विवशता जाहिर करते हुए स्पष्ट शब्दों में हर किसी को कहा, ‘‘घर पर कोई संभालने वाला होता तो न लाती, मजबूरी में लाती हूं.’’ वैसे निर्मला ने पहले दिन ही बता दिया था, ‘‘मेरा घरवाला दिन निकलते ही काम पर जाता है. उस के अलावा घर में और कोई है नहीं, इसीलिए विक्की को साथ लाना पड़ता है. घर में किस के सहारे छोड़ूं. रिश्तेदार यदि पासपड़ोस में होते तो उन के यहां छोड़ आती. अगर एक दिन का मामला होता तो पड़ोसियों की मदद ले लेती, पर यह तो रोज का ही झमेला है, इसीलिए विक्की को साथ लाना पड़ता है. 3-4 साल की इस जरा सी जान को किसी के भरोसे छोड़ने का मन भी नहीं होता क्योंकि यह बड़ा शैतान है. एक पल चैन से नहीं बैठता. ‘‘एक रोज गलियों से निकल कर सड़क पर जा पहुंचा था. वहां ट्रक के नीचे आतेआते बचा. एक बार कुएं में झांकने पहुंच गया था. इस के कारण सब को परेशानी होती है. पर करूं क्या? यह मुआ मार से भी नहीं सुधरा. इस के पिता तो डांटतेफटकारते ही रहते हैं.’’

निर्मला की इस विवशता से भलीभांति परिचित होते हुए भी घरभर के सदस्य उस से कहते ही रहते, ‘‘तू कुछ भी कर के इस शैतान से हमें बचा.’’ बारबार के इन तकाजों से परेशान हो कर निर्मला उन लोगों से ही पूछ बैठती थी, ‘‘आप ही बताइए, मैं क्या करूं?’’

तब लेदे कर एक ही मार्ग सभी को सूझता था. वे यही सलाह देते थे, ‘‘तू पीछे वाले आंगन में ही इसे बंद रखा कर. घर में न घुसने दिया कर.’’ निर्मला को पता था कि यह सलाह निरर्थक है, क्योंकि बरतन, कपड़े, सफाई आदि काम करने में उसे लगभग दोढाई घंटे लग जाते थे. इतनी देर तक विक्की को वहां कैद रखना संभव नहीं था. कैद रखने पर भी उस का मुंह तो चलता ही रहता था. वह जाली वाले द्वार के पीछे खड़ाखड़ा शोर मचाता ही रहता और दरवाजा भड़भड़ाता रहता. घर के किसी भी प्राणी पर नजर पड़ते ही विक्की उसे पुकारने लगता. टैलीफोन की घंटी बजते ही ‘हैलोहैलो’ कहने लगता. दादाजी को जाप करते देख वह भी उन के सुर में सुर मिलाने लगता. सीजर को देखते ही उसे छेड़ कर भूंकने या गुर्राने पर विवश कर देता. तब दोनों में खासा दंगल सा छिड़ जाता. जाली के पीछे बड़े मजे से खड़ा विक्की क्रोध से उबलते सीजर का खूब मजा लेता रहता. उस के कहकहे फूटते रहते. तब उस की मां की गुहार मचती. वे काम छोड़ कर विक्की को डांट कर दरवाजे से दूर भगातीं. थोड़ी देर शांति हो जाती. किंतु कुछ देर बाद ही विक्की का ‘वन मैन शो’ फिर शुरू हो जाता.

रोज की इस परेशानी से क्षुब्ध हो कर सभी ने बारबार विचार किया कि निर्मला को काम से छुट्टी दे दें और कोई दूसरी कामवाली रख लें. किंतु उस की साफस्वच्छ छवि, उस के कामकाज का सलीका, विनम्र स्वभाव, वक्त की पाबंदी, कम से कम नागे करने की प्रवृत्ति जैसे गुणों के कारण वे ऐसा साहस न कर पाए. वैसे भी कामवालियों का उन का अभी तक का अनुभव अच्छा नहीं रहा था. किसी ने बरतनों में चिकनाई छोड़ी थी तो किसी ने घर को ढंग से बुहारा नहीं था. किसी ने कपड़ों का मैल नहीं छुड़ाया था तो किसी ने आएदिन नागे करकर के उन्हें परेशान किया था. कोई बारबार पेशगी मांगती रही थी तो कोई पेशगी में ली गई रकम ले कर भाग गई थी. ऐसे कई कटु अनुभव हुए थे उन लोगों को. लेकिन निर्मला के काम से सभी प्रसन्न थे. वह हाथ की भी सच्ची थी. कई बार उस ने नोट व गहने स्नानघर एवं शयनकक्ष से उठाउठा कर दिए थे. लेकिन विक्की के कारण सभी परेशान रहते थे. किंतु एक रोज अनपेक्षित हो गया. हुआ यों कि विक्की टैलीफोन कर रहे पिताजी के पास जा पहुंचा एवं अपनी बाल सुलभ हंसी के साथ बीचबीच में ‘हैलोहैलो’ कहने लगा.

पिताजी ने टैलीफोन पर बात जारी रखते हुए उसे संकेतों से दूर भगाने का प्रयास किया, मगर वह वहां से टला नहीं. मुसकराते हुए ‘हैलोहैलो’ कहता रहा. पिताजी ने सहायता के लिए चारों तरफ नजर दौड़ाई मगर कोई दिखा नहीं. इसी उधेड़बुन में वे चोंगे को आधा दबा कर ही विक्की पर चीखे. यह चीख टैलीफोन में चली गई. उस ओर उन के साहब थे. उन्होंने टैलीफोन बंद कर दिया. पिताजी ने फिर से फोन मिला कर साहब को सारा मामला समझाते हुए क्षमायाचना की. किंतु उन को लगा कि साहब के मन में गांठ पड़ गई है. इसी झुंझलाहट में पिताजी ने विक्की को एक चांटा मारा. उस की मां को उसी क्षण घर से जाने का आदेश दे दिया.

विक्की को पीटती हुई निर्मला बाहर हो गई. निर्मला ने आना बंद कर दिया. घरभर को नई परेशानियों ने आ घेरा. उस के स्थान पर आई नई कामवालियों से सभी को असंतोष रहने लगा. कोई बरतन में चिपकी चिकनाई की शिकायत करने लगा, किसी को गर्द व जालों की मौजूदगी खलने लगी तो किसी को उस की गंदी आदतें बुरी लगने लगीं. सब से बड़ी समस्या तो सीजर को ले कर हुई. वह नई कामवालियों से अपरिचित होने के कारण उन पर लपकता था. इसलिए उसे बांध कर रखना पड़ता था. 3 कामवालियां 3 कामों के लिए अलगअलग समय पर आती थीं. इसलिए उन के आते ही एक व्यक्ति को सीजर को बांधने की तत्परता दिखानी पड़ती थी. उधर सीजर को यह नई कैद खलने लगी थी, वह मुक्ति के लिए शोर मचाता था. सुबहशाम घरभर की शांति भंग होने लगी. काम भी संतोषप्रद नहीं था और मगजपच्ची भी करनी पड़ती थी.

इसीलिए निर्मला सभी को याद आने लगी. बातबात पर उस का उल्लेख होने लगा. जब देखो तब उस के काम, व्यवहार और आदतों आदि की तुलना नई कामवालियों से होने लगी. ऐसे क्षणों में पिताजी को पश्चात्ताप होता कि उन्होंने तैश में व्यर्थ ही निर्मला को भगा दिया. बच्चे तो चंचल होते ही हैं. उन्हें विक्की की चंचलता पर इस तरह क्रोधित नहीं होना चाहिए था. इसी पश्चात्ताप से क्षुब्ध हो कर पिताजी ने बारबार कहा, ‘‘निर्मला को बुलवा लो.’’ किंतु उन की इस आज्ञा का पालन कोई भी नहीं कर पाया. वैसे सभी मन से यह चाहते थे कि निर्मला फिर से यहां पर काम करने लग जाए. किंतु उसे बुलाना किसी को भी उचित नहीं लग रहा था. सभी की यह दलील थी कि इस तरह बुलाने से वह सिर पर चढ़ेगी. विक्की इस घर में खुल कर शैतानी करेगा. किंतु ऐसी दलीलें होते हुए भी सभी की यह कामना थी कि निर्मला किसी तरह लौट आए.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि 20-21 दिन बाद ही एक रोज दिन ढले छरहरी, सांवली, मंझोले कद की निर्मला द्वार पर आ खड़ी हुई. स्वच्छ धानी साड़ी वाली इस नारी ने आते ही मुख्यद्वार खोला, सीजर भूंकता हुआ उस की ओर लपका. उस समय केवल मां ही घर में थीं. उन्होंने दरवाजे की ओर नजर दौड़ाई. निर्मला के सामने सीजर पूंछ हिला रहा था. यह दृश्य देख कर मां को सुखद आश्चर्य हुआ. उस के साथ विक्की को न देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ. इतने दिनों बाद आई निर्मला के तन पर अगली दोनों टांगें रख कर सीजर प्रेम प्रदर्शन कर रहा था. उस से जैसेतैसे छुटकारा पा कर वह मुसकराती हुई भीतर गई.

मां ने पूछा, ‘‘कैसी हो, निर्मला?’’

‘‘अच्छी हूं, मांजी,’’ उस ने सहज स्वर में कहा.

‘‘विक्की मजे में है?’’

‘‘जी हां, मजे में है.’’ इधरउधर की बातें होने लगीं. मां मन ही मन तौलती रहीं कि यह क्यों आई है. अच्छा हो, यदि यह यहां काम फिर से कर ले. तभी निर्मला ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘मांजी, मेरा काम मुझे फिर से दे दो. विक्की को संभालने के लिए मैं ने अपनी सास को गांव से बुलवा लिया है. वह अब मेरे साथ नहीं आएगा.’’ मां को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उन्होंने अपने हर्ष को छिपाते हुए संयत स्वर में कहा, ‘‘रखने को तो तुम्हें फिर से रख लें, मगर तुम्हारी सास का क्या भरोसा, वे यदि अपने गांव चली गईं तो फिर विक्की की समस्या हो जाएगी.’’

‘‘नहीं होगी, मांजी. मेरी सास अब यहीं रहेंगी, मैं पक्का वादा करा के उन्हें लाई हूं. मेरा सारा काम मुए विक्की के कारण छूट गया था. इसलिए यह पक्का इंतजाम करना पड़ा. आप बेफिक्र रहिए, आप को मेरा विक्की अब परेशान नहीं करेगा. मैं यहां उसे कभी नहीं लाऊंगी. आप तो मुझे बस काम देने की मेहरबानी कीजिए,’’ वह अनुनयभरे स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, सोचेंगे,’’ मां ने नाटक किया.

‘‘सोचेंगे नहीं, मुझे काम देना ही होगा. मैं ने अपने घर की तरह यहां काम किया है.’’

‘‘इसीलिए तो कहा कि देखेंगे.’’

‘‘ऐसी गोलमोल बातें मत कीजिए, मांजी. मुझे कल से ही काम पर आने की मंजूरी दे दीजिए.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है? तेरी जगह पर 3 औरतें हम ने रखी हैं. महीना पूरा होने पर उन्हें बंद करेंगे.’’

‘‘नहीं, कल 15 तारीख है, कल से ही उन्हें बंद कर दीजिए. मैं कल से ही काम संभाल लूंगी.’’ मां मन ही मन प्रसन्न हुईं कि चलो, घरभर की इच्छा पूरी हो जाएगी. किंतु अपने मन की यह बात जाहिर न करते हुए बोलीं, ‘‘गुड्डी के पिताजी से पूछ कर फैसला करूंगी. तू इतनी जल्दबाजी मत कर.’’ ‘‘जल्दबाजी बिना हमारा गुजारा कैसे होगा. इसलिए मैं तो कल से ही काम पर आ जाऊंगी,’’ यह कहते हुए निर्मला उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही चली गई. मां प्रसन्न हुईं कि मामला आसानी से निबट गया. निर्मला द्वारा काम संभालते ही घरभर का असंतोष दूर हो गया. विक्की के न आने से सभी को दोहरी प्रसन्नता हुई. किंतु कुछ दिनों बाद ही सभी को जैसे विक्की की याद आने लगी. वे लोग निर्मला से उस का हालचाल पूछने लगे. प्रश्न होने लगे, ‘विक्की को उस की दादी संभाल लेती है?’, ‘विक्की उन्हें परेशान तो करता होगा?’, ‘वे ज्यादा बूढ़ी होंगी, तब तो वह उन को चकमा दे कर बाहर निकल जाता होगा?’, ‘बुढि़या को वह शैतान बहुत तंग करता होगा?’, ‘कुएं के पास या सड़क पर वह फिर तो नहीं गया न?’ निर्मला इन प्रश्नों के उत्तर देती रहती थी. किंतु उस के जवाब से किसी को संतोष नहीं होता था. सभी का मन था कि विक्की कभी यहां आए तो उस से सारी बातें पूछें. उस के महीन स्वर को सुनने को जैसे सभी लालायित हो उठे थे. सांवले रंग के, प्रशस्त ललाट एवं बड़ीबड़ी आंखों वाले उस हाथभर ऊंचे बालक की छवि सभी के मनमस्तिष्क में तैरती रहती थी. उस की शरारतों की चर्चा करकर के सभी प्रसन्न होते थे.

एक रोज पिताजी ने निर्मला से कहा, ‘‘उस शैतान को किसी दिन लाना, उसे टैलीफोन सुनवाऊंगा.’’

दादाजी बोले, ‘‘एक बार जाप करवाऊंगा उस से.’’

मां बोलीं, ‘‘मेरे जूड़े की अब कोई तारीफ ही नहीं करता.’’

गुड्डी ने बताया, ‘‘उस के लिए मैं ने पहली कक्षा की किताब और पट्टी रखी हुई है.’’

मुन्ना बोला, ‘‘मैं उसे खिलौने दूंगा.’’ सभी ने अपनेअपने मन की बताई. केवल सीजर ही इस संदर्भ में न कह पाया. किंतु जिस रोज निर्मला विक्की को ले कर आई, उस रोज उस मूक पशु ने अपने मन की बात अपनी भाषा में कह दी. विक्की को देखते ही वह पहले झपटता था, किंतु अब उसे देखते ही वह दुम हिलाने लगा. सीजर को यों दुम हिलाते देख निर्मला अपने बेटे को ले कर आगे बढ़ी. सीजर तो जैसे प्रेम में बावला हो रहा था. उस ने दुम हिलातेहिलाते विक्की का मुंह चाट लिया तो वह डर के कारण रो पड़ा. यह देख सभी के ठहाके फूट पड़े. बड़े बच्चों वाले घर में नन्हे विक्की का यह रुदन मां को बड़ा भला लगा. वे भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मुए सीजर ने यह अच्छा राग शुरू करा दिया.’’

ऊंची उड़ान : क्या थी आकाश की गलती

रात के 12 बजे फोन की घंटी बजी. उस समय आकाश और संगीता शर्मोहया भूल कर एकदूसरे से लिपट कर हमबिस्तर हो रहे थे.

दोबारा फोन की घंटी बजी. जब संगीता के कानों में घंटी की आवाज पड़ी, तो वह आकाश से बोली, ‘‘आकाश, तुम्हारा फोन बज रहा है.’’

‘‘बजने दो. मुझे डिस्टर्ब मत करो.’’

इस के बाद वे दोनों अपने काम में बिजी हो गए. कुछ समय बाद आकाश ने कहा, ‘‘बहुत मजा आया संगीता.’’

संगीता कुछ कहती, उस से पहले फोन की घंटी फिर बजी.

‘‘आकाश फोन…’’ संगीता बोली.

‘‘जाओ, तुम ही फोन उठा लो,’’ आकाश ने संगीता से कहा.

‘‘हैलो… कौन हो तुम? इतनी रात को बारबार फोन क्यों कर रहे हो?’’ संगीता ने पूछा.

‘क्यों… तुम दोनों के काम में रुकावट आ गई? मुझे मालूम है कि तुम सावंत की पत्नी हो, जो चंद रुपयों के लिए किसी का भी बिस्तर गरम करती हो,’ फोन पर किसी की आवाज आई.

‘‘क्या बकवास कर रही हो? कौन हो तुम?’’ संगीता ने पूछा.

‘बेशर्म औरत, आधी रात को जिस शादीशुदा मर्द के साथ तुम रंगरलियां मना रही हो, मैं उसी की पत्नी बोल रही हूं.’

यह सुन कर संगीता चौंक गई.

‘‘किस का फोन है? किस से बहस कर रही हो?’’ आकाश ने पूछा.

‘‘तुम्हारी पत्नी का फोन है…’’ संगीता इतना ही बोल पाई.

आकाश ने चौंकते हुए कहा, ‘‘क्या… कल्पना का फोन है? पहले क्यों नहीं बताया. लाओ, फोन दो… हैलो… कल्पना.’’

‘हैलो… मैं कल्पना…’ और कुछ बोलतेबोलते वह चुप हो गई.

आकाश चौंक पड़ा, ‘‘क्या बात है कल्पना? क्या हुआ? घर में सब ठीक है न? प्रतिमा और सुमन की तबीयत… जल्दी बताओ,’’ उस ने कई सवाल एकसाथ पूछ लिए.

कल्पना की सांस फूली सी लग रही थी. वह धीरे से बोली, ‘आप जल्दी से घर आइए. अब मुझ में इतनी हिम्मत नहीं कि फोन पर बता सकूं.’

‘‘ठीक है कल्पना, मैं सुबह होते ही घर पहुंचता हूं,’’ आकाश फोन रख कर सोच में डूब गया.

3 साल भी नहीं हुए थे आकाश को यहां आए हुए. अच्छी नौकरी और मुंहमांगी तनख्वाह ने आखिर उस के बरसों के बांध को तोड़ दिया था. पुरानी नौकरी के साथ पुराने शहर और घरपरिवार को छोड़ कर वह यहां आ बसा था.

पत्नी कल्पना ने कई बार समझाया, 2 जवान बेटियों के साथ भला वह नौकरीपेशा औरत कैसे संभाल पाएगी सब अकेले ही, लेकिन आकाश पर एक ही धुन सवार थी कि किसी भी तरह अमीर बनना है.

आकाश के हुनर की वहां कोई कद्र न थी. वह ज्यादातर समय घर पर ही बिता देता था. नौकरी करने वाली पत्नी को उस का घर से जुड़े रहना बड़ी राहत देता है.

बेटियों को स्कूल लाने व ले जाने की जिम्मेदारी आकाश की थी. साथसाथ सब्जीभाजी और राशन की जिम्मेदारी भी. कुलमिला कर एक खुशहाल परिवार था. लेकिन उस खुशहाल माहौल में पहला कंकड़ उसी दिन पड़ गया था, जिस दिन आकाश के पड़ोसी राजकुमार अपनी नई मोटरसाइकिल ले आए थे.

राजकुमार एक ठेकेदार था. हर साल लाखों रुपए का मुनाफा और मुनाफे के साथसाथ मशहूर हो गया था उस का नाम. राजकुमार की दौलत आकाश को अंदर ही अंदर कहीं चुभ गई थी.

एक दिन आकाश अपनी सारी जमापूंजी जोड़ने बैठा, ‘कल्पना… कल्पना… कहां हो तुम?’

‘कपड़े सुखा रही हूं.’

‘कपड़े सुखा कर जल्दी आओ. हां सुनो… आज तक मैं ने तुम्हें जितने भी रुपए रखने को दिए हैं, वो सब ले कर आओ.’

‘अब इन पैसों से क्या करने का इरादा है तुम्हारा? किसी के बहकावे में आ कर ज्यादा मुनाफा जोड़ने के चक्कर में नहीं आइएगा.’

‘अमीर बन कर ऐशोआराम में अपनी जिंदगी बिताना मेरा सपना है.’

‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहती. तो तुम ने अपने मन में ठान लिया है, वह सब करो. लेकिन अपनी हद में रह कर.’

आज आकाश एक कंपनी का एमडी है. गाड़ी, आलीशान घर, चपरासी सबकुछ है उस के पास. लेकिन इन सुविधाओं का मजा उठाने के लिए उस का परिवार साथ नहीं है. जिन के लिए यह सब किया, वे अपनी जिंदगी के नियमों को लांघ कर उस के पास रहने नहीं आ सकते, सिवा तीजत्योहार के.

आकाश ने शहर के कुछ लोगों से धीरेधीरे अपना मेलजोल बढ़ाया और वह एक बीयरबार में पार्टनर बन गया. वहां रुपयों की बारिश होने लगी.

आकाश अपनी सोच से बाहर निकला… आखिर घर में क्या दिक्कत हुई है, जो कल्पना उसे फोन पर बताने के लिए हिम्मत न कर सकी.

आकाश ने अपने महल्ले के एक करीबी दोस्त से वादा लिया था कि उस की गैरहाजिरी में वह उस के घर पर नजर रखेगा और बीवीबेटियों की खैरखबर लेता रहेगा. कहीं उस के दोस्त ने घर में कुछ गड़बड़ तो नहीं की होगी या बाहर का कोई?

दूसरे दिन आकाश घर पहुंचा. घर पर नौकरानी के सिवा कोई नहीं था. उस ने बताया, ‘‘साहब, कल्पना मैडम और प्रतिमा बेटी किसी डाक्टर के पास गए हुए हैं. वे लोग आते ही होंगे.’’

कुछ देर बाद कल्पना और प्रतिमा घर पहुंचे. आकाश ने पूछा, ‘‘कल्पना, घर में सुमन भी नहीं है और तुम दोनों किसी डाक्टर के पास गई थीं. तुम सब की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘प्रतिमा, तू अपने कमरे में जा. मैं इस का चैकअप कराने गई थी,’’ कल्पना दुखी लहजे में बोली.

‘‘चैकअप कराने… क्यों?’’

‘‘सुनो इस की करतूत… कल 7 बजे जब मैं सब्जी लेने जा रही थी, तब मेरी नजर सोफे पर बैठी सुमन पर पड़ी. सिर पर हाथ रख कर देखा, तो उस को तेज बुखार था. डाक्टर के पास से लाई दवा सुमन को दी और उस के पास बैठेबैठे मेरी आंख लग गई.

‘‘आधी रात को मेरी नींद खुली. देखा तो सुमन का बुखार उतर गया था. सोचा, प्रतिमा को देखती चलूं. प्रतिमा अपने कमरे में तो थी, पर उस के साथ में था आप के दोस्त राजकुमार का बेटा. यह देख कर मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई.’’

‘‘राजकुमार का लड़का?’’ आकाश चिल्लाया.

‘‘रुको, अब दूसरों से लड़नाझगड़ना समझदारी की बात नहीं है. न ही किसी पराए पर आंख मूंद कर यकीन करना. सुमन और प्रतिमा मेरी एक बात नहीं सुनतीं. उलटा, तुम्हारी तरह मुझे डांट देती हैं. आजकल घर में जो कुछ भी हो रहा है, तुम्हारे बुरे काम का असर है. दोनों जवान बेटियां मेरे हाथ से निकल चुकी हैं. उन्हें सही राह पर लाना तुम्हारी जिम्मेदारी है.’’

आकाश सिर पकड़ कर बैठ गया. वह पछता रहा था कि अपने परिवार से दूर रहना, किसी पराए पर यकीन करना और जिंदगी में ऊंची उड़ान भरना कभीकभी बेवकूफी भरा काम भी हो सकता है.

केतकी: घर के बंटवारे में क्या होती है बहू की भूमिका?

‘‘दुलहन आ गई. नई बहू आ  गई,’’ कार के दरवाजे पर  रुकते ही शोर सा मच गया.

‘‘अजय की मां, जल्दी आओ,’’ किसी ने आवाज लगाई, ‘‘बहू का स्वागत करो, अरे भई, गीत गाओ.’’

अजय की मां राधा देवी ने बेटेबहू की अगवानी की. अजय जैसे ही आगे बढ़ने लगा कि घर का दरवाजा उस की बहन रेखा ने रोक लिया, ‘‘अरे भैया, आज भी क्या ऐसे ही अंदर चले जाओगे. पहले मेरा नेग दो.’’

‘‘एक चवन्नी से काम चल जाएगा,’’ अजय ने छेड़ा.

भाईबहन की नोकझोंक शुरू हो गई. सब औरतें भी रेखा की तरफदारी करती जा रही थीं.

केतकी ने धीरे से नजर उठा कर ससुराल के मकान का जायजा लिया. पुराने तरीके का मकान था. केतकी ने देखा, ऊपर की मंजिल पर कोने में खड़ी एक औरत और उस के साथ खड़े 2 बच्चे हसरत भरी निगाह से उस को ही देख रहे थे. आंख मिलते ही बड़ा लड़का मुसकरा दिया. वह औरत भी जैसे कुछ कहना चाह रही थी, लेकिन जबरन अपनेआप को रोक रखा था. तभी छोटी बच्ची ने कुछ कहा कि वह अपने दोनों बच्चों को ले कर अंदर चली गई.

तभी रेखा ने कहा, ‘‘अरे भाभी, अंदर चलो, भैया को जितनी जल्दी लग रही है, आप उतनी ही देर लगा रही हैं.’’ केतकी अजय के पीछेपीछे घर में प्रवेश कर गई.

करीब 15 दिन बीत गए. केतकी ने आतेजाते कई बार उस औरत को देखा जो देखते ही मुसकरा देती, पर बात नहीं करती थी. कभी केतकी बात करने की कोशिश करती तो वह जल्दीजल्दी ‘हां’, ‘ना’ में जवाब दे कर या हंस कर टाल जाती. केतकी की समझ में न आता कि माजरा क्या है.

लेकिन धीरेधीरे टुकड़ोंटुकड़ों में उसे जानकारी मिली कि वह औरत उस के पति अजय की चाची हैं, लेकिन जायदाद के झगड़े को ले कर उन में अब कोई संबंध नहीं है. जायदाद का बंटवारा देख कर केतकी को लगा कि उस के ससुर के हिस्से में एक कमरा ज्यादा ही है. फिर क्या चाचीजी इस कारण शादी में शामिल नहीं हुईं या उस के सासससुर ने ही उन को शादी में निमंत्रण नहीं दिया, ‘पता नहीं कौन कितना गलत है,’ उस ने सोचा.

एक दिन केतकी जब अपनी सास राधा के पास फुरसत में बैठी थी  तो उन्होंने पुरानी बातें बताते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है, मैं इसी तरह चाव से एक दिन कमला को अपनी देवरानी नहीं, बहू बना कर लाई थी. मेरी सास तो बिस्तर से ही नहीं उठ सकती थीं. वे तो जैसे अपने छोटे बेटे की शादी देखने के लिए ही जिंदा थीं. शादी के बाद सिर्फ 1 माह ही तो निकाल पाईं. मैं ने सास की तरह ही इस की देखभाल की और देखा जाए तो देवर प्रकाश को मैं ने अपने बेटे की तरह ही पाला है. तुम्हारे पति अजय और प्रकाश में सिर्फ 7 साल का अंतर है. उस की पढ़ाईलिखाई, कामधंधा, शादीब्याह आदि सबकुछ मेरे प्रयासों से ही तो हुआ…फिर बेटे जैसा ही तो हुआ,’’ राधा ने केतकी की ओर समर्थन की आशा में देखते हुए कहा.

‘‘हां, बिलकुल,’’ केतकी ने आगे उत्सुकता दिखाई.

‘‘वैसे शुरू में तो कमला ने भी मुझे सास के बराबर आदरसम्मान दिया और प्रकाश ने तो कभी मुझे किसी बात का पलट कर जवाब नहीं दिया…’’ वे जैसे अतीत को अपनी आंखों के सामने देखने लगीं, ‘‘लेकिन बुरा हो इन महल्लेवालियों का, किसी का बनता घर किसी से नहीं देखा जाता न…और यह नादान कमला भी उन की बातों में आ कर बंटवारे की मांग कर बैठी,’’ राधा ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘क्या बात हुई थी?’’ केतकी उत्सुकता दबा न पाई.

‘‘इस की शादी के बाद 3 साल तक तो ठीकठाक चलता रहा, लेकिन पता नहीं लोगों ने इस के मन में क्याक्या भर दिया कि धीरेधीरे इस ने घर के कामकाज से हाथ खींचना शुरू कर दिया. हर बात में हमारी उपेक्षा करने लगी. फिर एक दिन प्रकाश ने तुम्हारे ससुर से कहा, ‘भैया, मैं सोचता हूं कि अब मां और पिताजी तो रहे नहीं, हमें मकान का बंटवारा कर लेना चाहिए जिस से हम अपनी जरूरत के मुताबिक जो रद्दोबदल करवाना चाहें, करवा कर अपनेअपने तरीके से रह सकें.’

‘‘‘यह आज तुझे क्या सूझी? तुझे कोई कमी है क्या?’ प्रकाश को ऊपर से नीचे तक देखते हुए तुम्हारे ससुर ने कहा.

‘‘‘नहीं, यह बात नहीं, लेकिन बंटवारा आज नहीं तो कल होगा ही, होता आया है. अभी कर लेंगे तो आप भी निश्ंिचत हो कर अजय, विजय के लिए कमरे तैयार करवा पाएंगे. मैं अपना गोदाम और दफ्तर भी यहीं बनवाना चाहता हूं. इसलिए यदि ढंग से हिस्सा हो जाए तो…’

‘‘‘अच्छा, शायद तू अजय, विजय को अपने से अलग मानता है? लेकिन मैं तो नहीं मानता, मैं तो तुम तीनों का बराबर बंटवारा करूंगा और वह भी अभी नहीं…’

‘‘‘यह आप अन्याय कर रहे हैं, भैया,’ प्रकाश की आंखें भर आईं और वह चला गया.

‘‘बाद में काफी देर तक उन के कमरे से जोरजोर से बहस की आवाजें आती रहीं.

‘‘खैर, कुछ दिन बीते और फिर वही बात. अब बातबात में कमला भी कुछ कह देती. कामकाज में भी बराबरी करती. घर में तनाव रहने लगा. बात मरदों की बैठक से निकल कर औरतों में आ गई. घर में चैन से खानापीना मुश्किल होने लगा तो महल्ले और रिश्ते के 5 बुजुर्गों को बैठा कर फैसला करवाने की सोची. प्रकाश कहता कि मुझे आधा हिस्सा दो. हम कहते थे कि हम ने तुम्हें बेटे की तरह पाला है, तुम्हारी पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह सभी किया, हम 3 हिस्से करेंगे.’’

‘‘लेकिन जब बंटवारा हो गया तो अब इस तरह संबंध न रखने की क्या तुक है?’’ केतकी ने पूछ ही लिया.

‘‘रोजरोज की किटकिट से मन खट्टा हो गया हमारा, इसलिए जब बंटवारा हो गया तो हम ने तय कर लिया कि उन से किसी तरह का संबंध नहीं रखेंगे,’’ राधा ने बात साफ करते हुए कहा.

‘‘लेकिन शादीब्याह, जन्म, मृत्यु में आनाजाना भी…?’’

‘‘अब यह उन की मरजी. अच्छा बताओ, तुम्हारी शादी में कामकाज के बाबत पूछना, शामिल होना क्या उन का कर्र्तव्य नहीं था, लेकिन प्रकाश तो शादी के 3 दिन पहले अपने धंधे के सिलसिले में बाहर चला गया था…जैसे उस के बिना काम ही नहीं चलेगा,’’ राधा ने अपने मन की भड़ास निकाली.

‘‘आप ने उन से आने को कहा तो होगा न?’’

‘‘अच्छा,’’ राधा ने मुंह बिचकाया, ‘‘जिसे मैं घर में लाई, उसे न्योता देने जाऊंगी? कल विजय की शादी में तुम को न्योता दूंगी, तब तुम आओगी?’’

केतकी को लगा, अब पुरानी बातों पर आया गुस्सा कहीं उस पर न निकले. वह धीरे से बोली, ‘‘मैं चाय का इंतजाम करती हूं.’’

केतकी सोचने लगी कि कभी चाची से बात कर के ही वास्तविक बात पता चलेगी. उस ने चाची व उन के बच्चों से संपर्क बढ़ाना शुरू किया. जब भी उन को देखती, 1-2 मिनट बात कर लेती. एक दिन तो कमला ने कहा भी, ‘‘तुम हम से बात करती हो, भैयाभाभी कहीं नाराज हो गए तो?’’

‘‘आप भी कैसी बात करती हैं, वे भला क्यों नाराज होंगे?’’ केतकी ने हंसते हुए कहा.

अब केतकी ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि एकदूसरे के मन पर जमा मैल हटाना है. इसलिए एक दिन सास से बोली, ‘‘चाचीजी कह रही थीं कि आप कढ़ी बहुत बढि़या बनाती हैं. कभी मुझे भी खिलाइए न.’’

इसी तरह केतकी कमला से बात करती तो कहती, ‘‘मांजी कह रही थीं कि आप भरवां बैगन बहुत बढि़या बनाती हैं.’’

कहने की जरूरत नहीं कि ये बातें वह किसी और के मुंह से सुनती, पर सास को कहती तो चाची का नाम बताती और चाची से कहती तो सास का नाम बताती. वह जानती थी कि अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती. फिर अगर वह अपने दुश्मन के मुंह से हो तो दुश्मनी भी कम हो जाती है.

इस तरह बातों के जरिए केतकी एकदूसरे के मन में बैठी गलतफहमी और वैमनस्य को दूर करने लगी. एक दिन तो उस को लगा कि उस ने गढ़ जीत लिया. हुआ क्या कि केतकी के नाम की चिट्ठी पिंकी ले कर आई और गैलरी से उस ने आवाज लगाई, ‘‘भाभीजी.’’

केतकी उस समय रसोई में थी. वहीं से बोली, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘आप की चिट्ठी.’’

केतकी जैसे ही बाहर आने लगी, पिंकी गैलरी से चिट्ठी फेंक कर भाग गई. जब उस की सास ने यह देखा तो बरबस पुकार बैठी, ‘‘पिंकी…अंदर तो आ…’’

तब केतकी को आशा की किरण ही नजर नहीं आई, उसे विश्वास हो गया कि अब दिल्ली दूर नहीं है.  तभी राधा को बेटी की बातचीत के सिलसिले में पति और बेटी के साथ एक हफ्ते के लिए बनारस जाना था. केतकी को दिन चढ़े हुए थे. इसलिए उन्हें चिंता थी कि क्या करें. पहला बच्चा है, घर में कोई बुजुर्ग औरत होनी ही चाहिए. आखिरकार केतकी को सब तरह की हिदायतें दे कर वह रवाना हो गईं.

3-4 दिन आराम से निकले. एक दिन दोपहर के समय घर में अजय और विजय भी नहीं थे. ऐसे में केतकी परेशान सी कमला के पास आई. उस की हैरानपरेशान हालत देख कर कमला को कुछ खटका हुआ, ‘‘क्या बात है, ठीक तो हो…?’’

‘‘पता नहीं, बड़ी बेचैनी हो रही है. सिर घूम रहा है,’’ बड़ी मुश्किल से केतकी बोली.

‘‘लेट जाओ तुरंत, बिलकुल आराम से,’’ कहती हुई कमला नीचे पति को बुलाने चली गई.

कमला और प्रकाश उसे अस्पताल ले गए और भरती करा दिया. फिर अजय के दफ्तर फोन किया.

अजय ने आते ही पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ वह बदहवास सा हो रहा था.

‘‘शायद चिंता से रक्तचाप बहुत बढ़ गया है,’’ कमला ने जवाब दिया.

‘‘मैं इस के पीहर से किसी को बुला लेता हूं. आप को बहुत तकलीफ होगी,’’ अजय ने कहा.

‘‘ऐसा है बेटे, तकलीफ के दिन हैं तो तकलीफ होगी ही…घबराने की कोई बात नहीं…सब ठीक हो जाएगा,’’ प्रकाश ने अजय के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बाकी जैसा तुम उचित समझो.’’

‘‘वैसे डाक्टर ने क्या कहा है?’’ अजय ने चाचा से पूछा.

‘‘रक्तचाप सामान्य हो रहा है. कोई विशेष बात नहीं है.’’

केतकी को 2 दिन अस्पताल में रहना पड़ा. फिर छुट्टी मिल गई, पर डाक्टर ने आराम करने की सख्त हिदायत दे दी.

घर आने पर सारा काम कमला ने संभाल लिया. केतकी इस बीच कमला का व्यवहार देख कर सोच रही थी कि गलती कहां है? कमला कभी भी उस के सासससुर के लिए कोई टिप्पणी नहीं करती थी.  लेकिन एक दिन केतकी ने बातोंबातों में कमला को उकसा ही दिया. उन्होंने बताया, ‘‘मैं ने बंटवारा कराया, यह सब कहते हैं, लेकिन क्या गलत कराया? माना उम्र में वे मेरे सासससुर के बराबर हैं. इन को पढ़ायालिखाया भी, लेकिन सासससुर तो नहीं हैं न? यदि ऐसा ही होता तो क्या तुम्हारी शादी में हम इतने बेगाने समझे जाते. फिर यदि मैं लड़ाकी ही होती तो क्या बंटवारे के समय लड़ती नहीं?

‘‘सब यही कहते हैं कि मैं ने तनाव पैदा किया, पर मैं ने यह तो नहीं कहा कि संबंध ही तोड़ दो. एकदूसरे के दुश्मन ही बन जाओ. अपनेअपने परिवार में हम आराम से रहें, एकदूसरे के काम आएं, लेकिन भैयाभाभी तो उस दिन के बाद से आज तक हम से क्या, इन बच्चों से भी नहीं बोले. यदि वे किसी बात पर अजय से नाराज हो जाएं तो क्या विजय की शादी में तुम्हें बुलाएंगे नहीं? ऐसे बेगानों जैसा व्यवहार करेंगे क्या? बस, यही फर्क होता है और होता आया है…उस के लिए मैं किसी को दोष नहीं देती. खैर, छोड़ो इस बात को…जो होना था, हो गया. बस, मैं तो यह चाहती हूं कि दोनों परिवारों में सदा मधुर संबंध बने रहें.’’

‘‘मांजी भी यही कहती हैं,’’ केतकी ने अपनेपन से कहा.

‘‘सच?’’ कमला ने आश्चर्य प्रकट किया.

‘‘हां.’’

‘‘फिर वे हम से बेगानों जैसा व्यवहार क्यों करती हैं?’’

‘‘वे बड़ी हैं न, अपना बड़प्पन बनाए रखना चाहती हैं. आप जानती ही हैं, वे उस दौर की हैं कि टूट जाएंगी, पर झुक नहीं सकतीं.’’

केतकी की बात सुन कर कमला कुछ सोचने लगी.  शाम तक राधा, रेखा और दुर्गाचरण आ गए. आ कर जब देखा कि केतकी बिस्तर पर पड़ी है तो राधा के हाथपांव फूल गए.

राधा ने सहमे स्वर में पूछा, ‘‘क्या हो गया?’’

‘‘कुछ नहीं, अब तो बिलकुल ठीक हूं, पर चाचीजी मुझे उठने ही नहीं देतीं,’’ केतकी ने कहा.

‘‘ठीक है…ठीक है…तुम आराम करो. अब सब मैं कर लूंगी,’’ राधा ने केतकी की बात अनसुनी करते हुए अपने सफर की बातें बतानी शुरू कर दीं.

तभी कमला ने कहा, ‘‘आप थक कर आए हैं. शाम का खाना मैं ही बना दूंगी.’’

‘‘रोज खाना कौन बनाती थी?’’ राधा ने जानना चाहा.

‘‘चाचीजी ने ही सब संभाल रखा था अभी तक तो…’’ अजय ने बताया.

‘‘अस्पताल में भी ये ही रहीं. एक मिनट भी भाभीजी को अकेला नहीं छोड़ा,’’ विजय ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘तो फिर अब क्या पूछ रही हो?’’ दुर्गाचरण ने राधा की ओर सहमति की मुद्रा में देखते हुए कहा.

‘‘हां, और क्या, हम क्या पराए हैं जो अब हम को खाना नहीं खिलाओगी?’’ राधा ने कमला की ओर देख कर कहा.

‘‘जी…अच्छा,’’ कमला जाने लगी.

दुर्गाचरण और राधा ने एकदूसरे की   ओर देखा, फिर दुर्गाचरण ने    कहा, ‘‘अपना आखिर अपना ही होता है.’’

‘‘हम यह बात भूल गए थे.’’

तभी कमला कुछ पूछने आई तो राधा ने कहा, ‘‘हमें माफ करना बहू…’’

‘‘छि: भाभीजी…आप बड़ी हैं. कैसी बात करती हैं…’’

‘‘यह सही कह रही है, बहू, बड़े भी कभीकभी गलती करते हैं,’’ दुर्गाचरण बोले तो केतकी के होंठों पर मुसकान खिल उठी

Mother’s Day 2024- रोटी बेटी : क्या खुलेगी जात पांत की गांठ

बेटी सरोजिनी छात्रावास के अपने कमरे में रचना बहुत उधेड़बुन में बैठी हुई थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह मनीष के सामने कैसे अपने मन में पड़ी गांठ की गिरह को खोले. कितना बड़ा जोखिम था इस गांठ की गिरह को खोलने में, यह सोच कर ही वह कांप गई.

इस तनाव को झेलने के लिए रचना सुबह से चाय के 3 प्याले हर घंटे के भीतर गटक गई थी. वह जानती थी कि वह मनीष से कितना प्यार करती?है और मनीष… वह तो उस के प्यार में दीवाना है, पागल है. इन हालात में कैसे वह उस बात को कह दे, जिस के बाद कुछ भी हो सकता था. लेकिन फिर उस ने सोचा कि अब समय आ गया है कि कुछ बातें तय हो ही जानी चाहिए. कुछ अनकही बातें अब बताई ही जानी चाहिए.

लेकिन तभी रचना के मन में खयाल आया कि अगर उस ने मनीष से अपनी जाति की चर्चा कर दी, तो कहीं वह उसे खो न बैठे. लेकिन दूसरे ही पल उसे ध्यान में आया कि अगर इस समय मनीष से उस ने अपनी जाति नहीं बताई, तो यह मनीष के साथ धोखा होगा और फिर हमेशा के लिए वह उसे खो सकती है. अगर वह उसे न भी खोए, तो उस का यकीन तो खो ही सकती है.

आखिरकार रचना इस नतीजे पर पहुंची कि जो भी हो, वह मनीष को अपनी जाति बता कर रहेगी, क्योंकि यकीन प्यार का सब से बड़ा सूत्र होता है. अगर एक बार यकीन की डोर टूट गई, तो फिर प्यार की डोर टूटने में पलभर की देरी भी न लगेगी.

अपना पक्का मन बना कर रचना मैडिकल कालेज जाने की तैयारी करने लगी. आज मनीष के साथ उसे रैजिडैंसी  घूमने भी जाना था. रैजिडैंसी घूमने के नाम पर उस का मन गुलाबी हो जाया करता था. यही वह जगह थी, जहां घूमघूम कर उन का प्यार परवान चढ़ा था.

रैजिडैंसी का नाम आते ही रचना के मन में एक कसक सी उठती थी. इसलिए आज उस ने मनीष की पसंद की अमीनाबाद से लाई हुई और उस की भेंट की हुई गुलाबी ड्रैस पहन ली.

मैडिकल कालेज की अपनी क्लास अटैंड करने के बाद दोनों आटोरिकशा के बजाय रिकशा में बैठ कर हाथी पार्क से होते हुए गोमती के किनारे से रैजिडैंसी पहुंच गए.

1857 की क्रांति के समय क्रांतिकारियों ने लखनऊ के नवाब आसफउद्दौला और सआदत अली खां द्वारा बनवाए गए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने इस भवन को बुरी तरह से तहसनहस कर दिया था. लेकिन इस के खंडहर अभी भी इस की भव्यता के गवाह हैं. इस के टूटेफूटे बुर्ज से अभी भी दूर तक लखनऊ के दर्शन किए जा सकते हैं.

‘अंगरेजी साम्राज्य का बेटा’ हैनरी लौरैंस आज भी 2,00 अंगरेजों के साथ यहां की कब्रगाह में हमेशा के लिए

सोया पड़ा है. ?लेकिन यहां की मनोरम घास, फूलों की महक, चिडि़यों की चहचहाहट, छायादार पेड़ों की शीतल छांव और एकांत वातावरण एक रूमानी माहौल पैदा करते हैं, जिस के चलते यहां अनेक प्रेमी जोड़े खिंचे चले आते हैं.

रचना और मनीष ने भी हमेशा की तरह उस पेड़ की छाया में शरण ली, जहां कितनी ही बार वे रूमानी दुनिया में खो चुके थे. लेकिन आज तो रचना के मन में एक ही सवाल सावनभादों के बादलों की तरह उमड़घुमड़ रहा था.

वहां बैठते ही मनीष ने हमेशा की तरह अपना सिर रचना की गोद में रख दिया.

मनीष के बालों को सहलाते हुए रचना ने कहा, ‘‘मनीष, तुम मुझे बहुत चाहते हो न?’’

‘‘रचना, यह भी कोई कहने की बात है.’’

‘‘क्या मैं तुम्हें बहुत अच्छी लगती हूं?’’

‘‘बहुत अच्छी बाबा, बहुत अच्छी,’’ मनीष ने बेपरवाही से कहा.

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मैं कौन हूं?’’ रचना ने मनीष की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

मनीष जो अभी तक रचना की उंगलियों को सहला रहा था, इस सवाल को सुन कर अचानक उस के हाथ रुक गए और कुछ अचकचाते हुए उस ने कहा, ‘‘रचना, आज तुम ये कैसी बातें कर रही हो? तुम कौन हो, एक इनसान और कौन? लेकिन, ऐसे रूमानी मौके पर तुम्हें ये सब फालतू की बातें क्यों सूझ रही हैं?’’

‘‘मनीष, ये सब फालतू की बातें नहीं हैं. बहुत दिनों से मैं एक उलझन में हूं. तुम्हें सचाई बता कर मैं इस उलझन को दूर कर लेना चाहती हूं.

‘‘सब से बड़ी बात यह है कि तुम्हें वह सचाई जरूर पता होनी चाहिए, जिस से हमारा प्यार और जिंदगी पर असर पड़ सकता है,’’ रचना अब कुछ ज्यादा ही भावुक हो गई थी.

‘‘ओह रचना, बंद भी करो ये सब बातें. अच्छा, यह बताओ कि वह सचाई क्या?है, जो तुम्हें उलझन में डाले हुए है. पहले तुम्हारी उलझन ही दूर करता हूं.’’

‘‘क्या तुम्हें पता है कि मेरी जाति क्या है?’’

‘‘रचना, ये क्या बेहूदी बातें ले कर बैठ गई हो. हम मैडिकल साइंस के छात्र, जो मनुष्य के शरीर के एकएक अंग को पहचानते हैं और जानते हैं कि सारी दुनिया के इनसानों की बनावट एकजैसी है, चाहे वह किसी भी जाति, नस्ल और धर्म का हो. वह साइंस का छात्र ही क्या, जो जातियों में उलझने के लिए इतनी पढ़ाई करता है?

‘‘और वैसे भी तुम सिसौदिया हो और सिसौदिया राजपूत जाति का गोत्र है. मेरे लिए जैसे मेरी जाति के बनिए वैसे ही राजपूत. इस से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘और वाल्मीकि… क्या उन से फर्क पड़ता है मनीष?’’ रचना की बारिश में अब बादलों की गड़गड़ाहट भी शुरू हो गई थी. बारिश का मिजाज बिगड़ने सा लगा था.

‘‘क्या सारा मूड खराब किए दे रही हो रचना? क्या हम इस रूमानी जगह पर अपना मूड खराब करने के लिए आए थे? मैं ने तुम्हें बता दिया कि मैं मैडिकल का छात्र हूं. मुझे किसी की जाति से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘लेकिन मनीष, अगर मैं कहूं कि मैं वाल्मीकि परिवार से हूं और मेरे कितने ही रिश्तेदार सुबह हाथ में झाड़ू ले कर सड़कों और नालियों की गंदगी साफ करने निकल पड़ते हैं, तब…?’’ रचना की बारिश में तेज गड़गड़ाहट सी बिजली चमकी.

रचना की बात को सुन कर मैडिकल स्टूडैंट मनीष अग्रवाल को बिजली का सा जोरदार झटका लगा. वह सवालिया निगाहों से रचना को देखने लगा 2 फुट दूर खड़ा हो कर.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो मनीष? मैं तो आज अपना मन बना कर आई थी कि तुम्हें अपनी जाति की सचाई बता कर रहूंगी. अभी भी फैसला तुम्हारे हाथ में है कि तुम मुझे अपनाओ या नहीं. मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहती थी,’’ रचना सिसौदिया की बारिश में न बिजली की चमक बची थी, न गड़गड़ाहट. अब तो उस बारिश की सिसकियां बची थीं.

‘‘लेकिन रचना, तुम अपने नाम के साथ राजपूतों का सिसौदिया गोत्र क्यों लगाती हो?’’

‘‘क्योंकि मेरा गोत्र ही सिसौदिया है?’’

‘‘लेकिन, वह कैसे रचना?

‘‘मनीष, ये सब इतिहास की बातें हैं. जैसे आज भी अनेक मुसलमानों में हिंदू गोत्र मलिक, बाजवा, चौधरी मिल जाते हैं, ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ.

‘‘हम वाल्मीकियों में भी क्षत्रियों के अनेक गोत्र मिलते हैं. जब सुलतानों और मुगलों से लड़ते हुए हिंदू फौजें हार जाती थीं, तो बंदी फौजियों के सामने इसलाम स्वीकार करने या उन के हरम की गंदगी साफ करने के रास्ते रखे जाते थे. हमारे पुरखों ने शायद दूसरा रास्ता स्वीकार किया हो.

‘‘जब से हम वाल्मीकि समाज का हिस्सा बन गए और तब से हमारे समाज के लोग गंदगी साफ करने का काम करते आ रहे हैं. यह अलग बात है कि कुछ हम जैसे पढ़लिख कर ऊंचे ओहदों पर पहुंच गए. लेकिन यह बात कह कर मैं तुम्हें किसी बात के लिए मजबूर नहीं कर रही हूं. अगर मेरे मातापिता सफाई करने वाले भी होते तो भी मुझे उन पर गर्व ही होता.’’

‘‘रचना, बैठो तो सही. मुझे तुम्हारी जाति से कोई लेनादेना नहीं है. मैं अपनी बात पर अभी भी कायम हूं,’’ कह कर मनीष ने अपना सिर फिर से रचना की गोद में रख लिया और उस की भीगी पलकों को अपनी उंगलियों से पोंछ डाला. रचना ने भी अपनी जुल्फों की ओट ले कर मनीष के होंठों पर अपने होंठ रख कर अपनी सच्ची मुहब्बत की मोहर लगा दी.

मनीष ने जब अपने घर मुरादाबाद आ कर अपनी मुहब्बत का जिक्र मम्मीपापा से किया, तो उन्होंने उस की मुहब्बत पर कोई एतराज नहीं जताया, बल्कि उन्हें खुशी हुई कि मनीष ने मैडिकल लाइन की लड़की को अपनी भावी जीवनसंगिनी के रूप में चुना. लेकिन जब मनीष ने उन्हें बताया कि रचना पास के ही जिले रामपुर के वाल्मीकि परिवार से है, तो उन के पैरों तले की जमीन खिसक गई.

इस पर उस के पापा ने कहा, ‘‘मनीष बेटा, हमें तुम्हारी मुहब्बत पर कोई एतराज नहीं, लेकिन जरा यह तो सोचो कि जमाना क्या कहेगा और हमारे बनिए समाज के लोग ही हम पर कितनी उंगली उठाएंगे?’’

‘‘पापा, समाज के केवल दकियानूसी लोग ही ऐसे मामलों में फालतू की बकवास करते हैं. उन्हें तो किसी भी सामाजिक काम में मीनमेख निकालने के लिए कोई और काम ही नहीं होता. लेकिन अगर हम पढ़ेलिखे लोग भी जातबिरादरी पर जाने लगे, तो हमारे पढ़नेलिखने और प्रगतिशील होने का क्या फायदा?’’

‘‘बेटा, तू सच कह रहा है. हमें रचना और उस की जाति पर कोई एतराज नहीं. आखिर जातियों के बंधनों को हमजैसे लोग नहीं तोड़ेंगे तो फिर कौन तोड़ेगा? रचना काबिल?है, पढ़ीलिखी है, तुम्हारी पसंद है. हमें इस से ज्यादा और क्या चाहिए? लेकिन यह समाज तुम्हारी शादी के वक्त कितनी उंगली उठाएगा, यह तुम नहीं जानते बेटा.’’

‘‘पापा, आप इस की चिंता न करें. मैं रचना से कोर्ट मैरिज कर लूंगा. वैवाहिक कार्यक्रमों, गाजेबाजे, बरात का काम ही खत्म. समाज के उलाहने देने के रास्ते ही बंद.’’

‘‘बेटा, तेरी बात सही है. ऐसा करना ही ठीक होगा. वैवाहिक कार्यक्रम करेंगे तो लोग न जाने क्याक्या बात बनाएंगे,’’ मनीष की मम्मी ने सहमति जताते हुए कहा.

उधर रामपुर में जब रचना ने अपने परिवार वालों से मनीष का जिक्र किया, तो उस के पापा उसे समझाने लगे, ‘‘रचना, ऊंची जाति में शादी करने का मतलब समझती हो. मान लो, मनीष तुम्हें अपना भी ले तो क्या उस के परिवार के लोग और उस के रिश्तेदार तुम्हें अपना लेंगे? बेटी, जातियों की दीवार अभी बहुत ऊंची है. इसे गिरने में अभी न जाने कितनी सदियां लगेंगी.’’

‘‘पापा, मुझे मनीष और उस के परिवार से मतलब है, उस के रिश्तेदारों से नहीं. मनीष ने बताया है कि उस के मम्मीपापा मुझे अपनाने को तैयार हैं.’’

रचना की बात सुन कर उस के पापा कुछ देर चुप रहे. फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘रचना, एक बार मैं मनीष के मम्मीपापा से मिल लूं, उस के बाद ही कोई फैसला लूंगा.’’

मम्मी ने भी रचना का हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम चिंता न करो. तुम्हारे पापा मनीष से तुम्हारी शादी करने को मना नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भी तो अपना फर्ज निभाना है. हर बाप यही चाहता है कि उस की बेटी सुख से रहे.’’

कुछ ही दिनों के बाद रचना के मम्मीपापा मनीष के मम्मीपापा से मिलने के लिए मुरादाबाद गए. मनीष और उस के मम्मीपापा ने रचना के मम्मीपापा के स्वागत में कोई कोरकसर बाकी न छोड़ी.

दोनों परिवार इस बात पर सहमत हो गए कि रचना और मनीष कोर्टमैरिज कर लें और बाद में केवल खास रिश्तेदारों को बुला कर रिसैप्शन पार्टी दे दें.

धीरेधीरे रचना के महल्ले में यह बात फैल गई कि विनोद सिसौदिया अपनी बेटी रचना सिसौदिया की शादी बनियों में कर रहा है. इस के साथ यह अफवाह भी फैल गई कि बनियों ने वाल्मीकियों की बेइज्जती करने के लिए बरात लाने से साफ मना कर दिया है. इस से पूरा वाल्मीकि समाज बौखला गया.

वाल्मीकि समाज के लोग इकट्ठे हो कर अपने अध्यक्ष दौलतराम के पास गए. एक आदमी ने बड़े गुस्से में कहा, ‘‘अध्यक्षजी, हम अपने समाज की बेटी को बनियों में तब तक नहीं ब्याहने देंगे, जब तक बनिए बैंडबाजे के साथ बरात ले कर नहीं आते हैं और बेटी के साथसाथ रोटी का रिश्ता नहीं बनाते हैं. सामूहिक भोज से कम कुछ स्वीकार नहीं.’’

दौलतराम बड़े सुलझे हुए और सामाजिक इनसान थे. उन्होंने उन की बात सुन कर ठंडे दिमाग से कहा, ‘‘भाइयो, मैं ने आप की बात सुन ली. बात मेरी समझ में आ गई है, लेकिन एक बार मैं विनोद सिसौदिया से बात कर लूं, तभी हम कोई फैसला लेंगे.’’

इस तरह समझाबुझा कर दौलतराम ने अपने समाज के गुस्साए लोगों को संतुष्ट कर के वापस भेजा.

शाम को दौलतराम विनोद सिसौदिया के घर पहुंचे. उन से बात की. दौलतराम पके बालों के अनुभवी इनसान थे. उन्होंने रचना के पापा से कहा, ‘‘विनोद, मैं कोर्टमैरिज को गलत नहीं मानता हूं. लेकिन कोर्टमैरिज करने में जितनी आसानी है, उस के टूटने में भी उतनी ही आसानी है. अरैंज मैरिज में दोनों तरफ के कितने ही रिश्तेदार और समाज के लोग शामिल होते हैं. अनेक लोग गवाह होते हैं. ऐसे में ऐसी शादियों का टूटना भी उतना ही मुश्किल होता?है.

‘‘तुम ऐसा करो कि अगर लड़के वालों को एतराज न हो, तो बरात बुलवा लो. इस से हमारे समाज के लोग भी संतुष्ट हो जाएंगे और लड़के वालों को भी कुछ फर्क नहीं पड़ेगा.’’

विनोद सिसौदिया को दौलतराम की बात समझ में आ गई. लेकिन उन के मन में डर था कि कहीं ऐसा न हो कि मनीष के मम्मीपापा इस के लिए तैयार न हों.

लेकिन मनीष के पापा बड़े खुले दिमाग के आदमी थे. उन्होंने फोन पर बात करते हुए कहा, ‘‘विनोदजी, मेरे लिए उस से बड़ी खुशी की कोई बात नहीं हो सकती. हम तो आप की चिंता कर रहे थे. अब आप की ओर से सहमति है, तो हम पूरे गाजेबाजे के साथ बरात ले कर आएंगे.

मनीष की बरात रामपुर पहुंच गई. शादी वाल्मीकि महल्ले के ही एक मैरिज हाल में होनी थी.

जैसे ही बरात वहां पहुंची, उस का भव्य स्वागत किया गया. इस के बाद विनोद सिसौदिया, दौलतराम बरात को खाने के लिए आमंत्रित करने लगे. बराती खाने के लिए रखी प्लेटों की ओर बढ़ने लगे. तभी मनीष के पापा अरविंद अग्रवाल ने देखा कि लड़की वाले खाने के लिए आगे नहीं बढ़ रहे हैं. वे बरातियों को सचेत करते हुए बोले, ‘‘ठहरो. कोई भी खाने को हाथ नहीं लगाएगा.’’

उन की आवाज सुनते ही मैरिज हाल में सन्नाटा छा गया. वाल्मीकि समाज के लोगों में खुसुरफुसुर शुरू हो गई. एक ने कहा, ‘‘हम पहले ही कहते थे कि ऊंची जाति में बेटी मत दो. ये हमारे खाने को छूते तक नहीं हैं, इस से बड़ी बेइज्जती और क्या?’’

दूसरे ने कहा, ‘‘अगर ऐसा हुआ, तो चाहे कितना भी खूनखराबा हो जाए, हम रचना की डोली नहीं उठने देंगे.’’

वाल्मीकियों के कुछ उत्पाती लड़के तो डंडे, छुरे और कटार चलाने की बात करने लगे. तभी विनोद सिसौदिया और दौलतराम बात को संभालने के लिए आगे बढ़े, उन के दिलों की धड़कन बहुत बढ़ी हुई थी. दौलतराम ने कहा, ‘‘अग्रवालजी, अब हम से क्या गलती हो गई?’’

‘‘गलती कहते हो दौलतरामजी, इस से बड़ी गलती और क्या होगी? हम बनिए खाना खाएं और आप का समाज खड़ाखड़ा मुंह ताके.’’

‘‘नहीं, नहीं, आप हमारे अतिथि हैं. पहले आप भोजन लें,’’ दौलतराम ने अतिथि सत्कार दिखाते हुए कहा.

‘‘बड़ी जल्दी भूल गए दौलतरामजी. बात हुई थी सामूहिक भोज की और अब आप के समाज के लोग ही पीछे हट रहे हैं. ऐसा नहीं हो सकता. हम तब तक भोजन को हाथ नहीं लगाएंगे, जब तक आप लोग भी हमारे साथ भोजन नहीं करेंगे,’’ यह कहते हुए मनीष के पापा ने डोंगे में से रसगुल्ला उठा कर वाल्मीकि समाज के अध्यक्ष दौलतराम के मुंह की ओर बढ़ा दिया.

दौलतराम की आंखों में खुशी के आंसू आ आए, उन्होंने मनीष के पापा को गले लगा लिया.

बहुत दिनों तक इस शादी की चर्चा होती रही, जहां जातिवाद की दीवार टूटी थी. लोग कहते रहे, ‘कौन कहता है कि जातिवाद की दीवारें दरक नहीं सकतीं, बस मन में चाह होनी चाहिए.’

Mother’s Day 2024: मां का बटुआ – फलसफा जिंदगी का

मैं अकेली बैठी धूप सेंक रही हूं. मां की कही बातें याद आ रही हैं. मां को अपने पास रहने के लिए ले कर आई थी. मां अकेली घर में रहती थीं. हमें उन की चिंता लगी रहती थी. पर मां अपना घर छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहती थीं. एक बार जब वे ज्यादा बीमार पड़ीं तो मैं इलाज का बहाना बना कर उन्हें अपने घर ले आई. पर पूरे रास्ते मां हम से बोलती आईं, ‘हमें क्यों ले जा रही हो? क्या मैं अपनी जड़ से अलग हो कर तुम्हारे यहां चैन व सुकून से रह पाऊंगी? किसी पेड़ को अपनी जड़ से अलग होने पर पनपते देखा है. मैं अपने घर से अलग हो कर चैन से मर भी नहीं पाऊंगी.’

मैं उन्हें समझाती, ‘मां, तुम किस जमाने की बात कर रही हो. अब वो जमाना नहीं रहा. अब लड़की की शादी कहां से होती है, और वह अपने हसबैंड के साथ रहती कहां है. देश की तो बात ही छोड़ो, लोग अपनी जीविका के लिए विदेश जा कर रह रहे हैं. मां, कोई नहीं जानता कि कब, कहां, किस की मौत होगी.

‘घर में कोई नहीं है. तुम अकेले वहां रहती हो. हम लोग तुम्हारे लिए परेशान रहते हैं. यहां मेरे बच्चों के साथ आराम से रहोगी. बच्चों के साथ तुम्हारा मन लगेगा.’

कुछ दिनों तक तो मां ठीक से रहीं पर जैसे ही तबीयत ठीक हुई, घर जाने के लिए परेशान हो गईं. जब भी मैं उन के पास बैठती तो वे अपनी पुरानी सोच की बातें ले कर शुरू हो जातीं. हालांकि मैं अपनी तरफ से वे सारी सुखसुविधाएं देने की कोशिश करती जो मैं दे सकती थी पर उन का मन अपने घर में ही अटका रहता.

आज फिर जैसे ही मैं उन के पास गई तो कहने लगीं, ‘सुनो सुनयना, मुझे घर ले चलो. मेरा मन यहां नहीं लगता. मेरा मन वहीं के लिए बेचैन रहता है. मेरी सारी यादें उसी घर से जुड़ी हैं. और देखो, मेरा संदूक भी वहीं है, जिस में मेरी काफी सारी चीजें रखी हैं. उन सब से मेरी यादें जुड़ी हैं. मेरी मां का (मेरी नानी के बारे में) मोतियों वाला बटुआ उसी में है. उस में तुम लोगों की छोटीछोटी बालियां और पायल, जो तुम्हारी नानी ने दी थीं, रखी हैं. तुम्हारे बाबूजी की दी हुई साड़ी, जो उन्होंने पहली तनख्वाह मिलने पर सब से छिपा कर दी थी, उसी संदूक में रखी है. उसे कभीकभी ही पहनती हूं. सोचा था कि मरने के पहले तुझे दूंगी.’

मैं थोड़ा झल्लाती हुई कहती, ‘मां, अब उन चीजों को रख कर क्या करना.’

आज जब उन्हीं की उम्र के करीब पहुंची हूं तो मां की कही वे सारी बातें सार्थक लग रही हैं. आज जब मायके से मिला पलंग किसी को देने या हटाने की बात होती है तो मैं अंदर से दुखी हो जाती हूं क्योंकि वास्तव में मैं उन चीजों से अलग नहीं होना चाहती. उस पलंग के साथ मेरी कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हुई हैं.

मैं शादी कर के जब ससुराल आई तो कमरे का फर्श हाल में ही बना था, इसलिए फर्श गीला था. जल्दीजल्दी पलंग बिछा कर उस पर गद्दा डाल कर उसी पर सोई थी. आज भी जब उस पलंग को देखती हूं या छूती हूं तो वे सारी पुरानी बातें याद आने लगती हैं. मैं फिर से वही 17-18 साल की लड़की बन जाती हूं. लगता है, अभीअभी डोली से उतरी हूं व लाल साड़ी में लिपटी, सिकुड़ी, सकुचाई हुई पलंग पर बैठी हूं. खिड़की में परदा भी नहीं लग पाया था. चांदनी रात थी. चांद पूरे शबाब पर था और मैं कमरे में पलंग पर बैठी चांदनी रात का मजा ले रही हूं.

कहा जाता है कि कभीकभी अतीत में खो जाना भी अच्छा लगता है. सुखद स्मृतियां जोश से भर देती हैं, उम्र के तीसरे पड़ाव में भी युवा होने का एहसास करा जाती हैं. पुरानी यादें हमें नए जोश, उमंग से भर देती हैं, नब्ज तेज चलने लगती है और हम उस में इतना खो जाते हैं कि हमें पता ही नहीं चलता कि इस बीच का समय कब गुजर गया. मैं बीचबीच में गांव जाती रहती हूं. अब तो वह घर बंटवारे में देवरजी को मिल गया है पर मैं जाती हूं तो उसी घर में रहती हूं. सोने के लिए वह कमरा नहीं मिलता क्योंकि उस में बहूबेटियां सोती हैं.

मैं बरामदे में सोती हुई यही सोचती रहती हूं कि काश, उसी कमरे में सोने को मिलता जहां मैं पहले सोती थी. कितनी सुखद स्मृतियां जुड़ी हैं उस कमरे से, मैं बयान नहीं कर सकती. ससुराल की पहली रात, देवरों के साथ खेल खेलने, ननदों के साथ मस्ती करने तक सारी यादें ताजा हो जाती हैं.

अब हमें भी एहसास हो रहा है कि एक उम्र होने पर पुरानी चीजों से मोह हो जाता है. जब मैं घर से पटना रहने आई तो मायके से मिला पलंग भी साथ ले कर आई थी. बाद में नएनए डिजाइन के फर्नीचर बनवाए पर उन्हें हटा नहीं सकी. और इस तरह सामान बढ़ता चला गया. पुरानी चीजों से स्टोररूम भरता गया. बच्चे बड़े हो गए और पढ़लिख कर सब ने अपनेअपने घर बसा लिए. पर मैं ने उन के खिलौने, छोटेछोटे कपड़े, अपने हाथों से बुने हुए स्वेटर, मोजे और टोपियां सहेज कर रखे हुए हैं. जब भी अलमारी खोलती हूं और उन चीजों को छूती हूं तो पुराने खयालों में डूब जाती हूं. लगता है कि कल ही की तो बातें हैं. आज भी राम, श्याम और राधा उतनी ही छोटी हैं और उन्हें सीने से लगा लेती हूं. वो पुरानी चीजें दोस्तों की तरह, बच्चों की तरह बातें करने लगती हैं और मैं उन में खो जाती हूं.

वो सारी चीजें जो मुझे बेहद पसंद हैं, जैसे मांबाबूजी, सासूमांससुरजी व दोस्तों द्वारा मिले तोहफे भी. सोनेचांदी और आभूषणों की तो बात ही छोडि़ए, मां की दी हुई कांच की प्लेट भी मैं ने ड्राइंगरूम में सजा कर रखी हुई है. मां का मोती वाला कान का फूल और माला भी हालांकि वह असली मोती नहीं है शीशे वाला मोती है पर उस की चमक अभी तक बरकरार है. मां बताती थीं कि उन को मेरी नानी ने दी थी. मैं ने उन्हें भी संभाल कर रखा हुआ है कि नानी की एकमात्र निशानी है. और इसलिए भी कि पुरानी चीजों की क्वालिटी कितनी बढि़या होती थी. आज भी माला पहनती हूं तो किसी को पता नहीं चलता कि इतनी पुरानी है. वो सारी स्मृतियां एक अलमारी में संगृहीत हैं, जिन्हें मैं हर दीवाली में झाड़पोंछ कर फिर से रख देती हूं.

राधा के पापा कहते हैं, ‘अब तो इन चीजों को बांट दो.’ पर मुझ से नहीं हो पाता. मैं भी मां जैसे ही सबकुछ सहेज कर रखती हूं. उस समय मैं मां की कही बातें व उन की भावनाएं नहीं समझ पाती थी. अब मेरे बच्चे जब अपने साथ रहने को बुलाते हैं तो हमें अपना घर, जिसे मैं ने अपनी आंखों के सामने एकएक ईंट जोड़ कर बनवाया है, को छोड़ कर जाने का मन नहीं करता. अगर जाती भी हूं तो मन घर से ही जुड़ा रहता है. पौधे, जिन्हें मैं ने वर्षों से लगा रखा है, उन में बच्चों जैसा ध्यान लगा रहता है. इसी तरह और भी कितनी ही बेहतरीन यादें सुखदुख के क्षणों की साक्षी हैं जिन्हें अपने से अलग करना बहुत कठिन है.

अब समझ में आता है कि कितनी गलत थी मैं. मेरी शादी गांव में हुई. पति के ट्रांसफरेबुल जौब के चलते इधरउधर बहुत जगह इन के साथ रही. सो, अब जब से पटना में घर बनाया और रहने लगी तो अब कहीं रहने का मन नहीं होता. जब मुझे इतना मोह व लगाव है तो मां बेचारी तो शादी कर जिस घर में आईं उस घर के एक कमरे की हो कर रह गईं. वे तो कभी बाबूजी के साथ भी रहने नहीं गई थीं. इधर आ कर सिर्फ घूमने के लिए ही घर से बाहर गई थीं. पहले लोग बेटी के यहां भी नहीं जाते थे. सो, वे कभी मेरे यहां भी नहीं आई थीं. घर से बाहर पहली बार रह रही थीं. ऐसे में उन का मन कैसे लगता. आज उन सारी बातों को सोच कर दुख हो रहा है कि मैं मां की भावनाओं की कद्र नहीं कर पाई. क्षमा करना मां, कुछ बातें एक उम्र के बाद ही समझ में आती हैं.

Mother’s Day 2024 : सासुमां के सात रंग – ससुराल में नई बहू का आना

जब मैं नईनई बहू बन कर ससुराल आई तो दूसरी बहुओं की तरह मेरे मन में भी सास नाम के व्यक्तित्व के प्रति भय व शंका सी थी. सहेलियों व रिश्तेदारों की चर्चा में हर कहीं सास की हिटलरी तानाशाही का उल्लेख रहता. जब पति के घर गई तो मालूम हुआ कि मेरे पति कुछ ही दिनों बाद विदेश चले जाएंगे. नया घर, नए लोग, नया वातावरण और एकदम नया रिश्ता. मुझे तो सोच कर ही घबराहट हो रही थी.

कुछ दिनों का साथ निभा कर मेरे पति नरेन को दूर देश रवाना होना था. इसी क्षण मुझे सासुमां का पहला रंग स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ. आवश्यक रीतिरिवाज व पार्टी वगैरह के बाद सासुमां ने ऐलान किया कि आज से 2 माह के लिए बहू ऊषा और नरेन दोनों उस संस्था के मकान में रहने चले जाएंगे, जहां नरेन काम करते हैं. नरेन द्वारा आनाकानी करने पर वे दृढ़ शब्दों में बोलीं, ‘‘ऊषा को समय देना तुम्हारा पहला कर्तव्य है. आखिर तुम्हारी अनुपस्थिति में वह तुम्हारी यादें ले कर ही तो यहां शांति से रह पाएगी.’’

विदेश यात्रा के 2 दिन पूर्व हम लोग सासुमां के पास आए. 26 साल तक जो बेटा उन के तनमन का अंश बन कर रहा, उस जिगर के टुकड़े को एक अनजान लड़की को किस सहजता से उन्होंने सौंप दिया, यह सोच कर मैं अभिभूत हो उठी. नरेन को विदा कर हम लोग जब लौटे तो मेरी आंखों के आंसू अंदर ही अंदर उफन रहे थे. सोच रही थी फूटफूट कर रो लूं, पर इतने नए लोगों के बीच यह अत्यंत मुश्किल था. रास्ते के पेड़पौधों को यों ही मैं देख रही थी. अचानक मैं ने सासुमां का हाथ अपने कंधे पर महसूस किया.

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सासुमां के स्पर्श ने मेरी भावनाओं के सारे बंधन तोड़ दिए. मैं ने अपना सिर उन की गोद में रख दिया और आंसुओं को बह जाने दिया. अब मुझे कोई भय, कोई संकोच, कोई दुविधा न थी. सासुमां की ममता के रंग ने मुझे आश्वस्त कर दिया था, ‘मैं अकेली नहीं हूं. मेरे साथ मेरी मां है.’ सासुमां का दूसरा रंग मैं ने छोटे देवर की शादी में देखा. बरात विदा होने से पहले लक्ष्मीपूजन का कार्यक्रम था. वधू पक्ष द्वारा लिया गया सजासजाया हौल, साजोसामान सब उन्होंने नकार दिया और अपनी ओर से पूरा खर्च कर लक्ष्मीपूजन संपन्न किया.’’

उन के अंदर के हठ का रंग मुझे करीब 10 वर्ष बाद देखने को मिला. ससुरजी ने मकान बनाने के लिए जो योजना बनाई थी, वह सिवा सासूमां के, सब को पसंद थी. ससुरजी 4 शयनकक्षों और एक हौल वाला दोमंजिला बंगला बनवाना चाहते थे. नीचे 2-2 शयनकक्ष और रसोईघर वाले 2 फ्लैट और ऊपर 2 शयनकक्ष के साथ एक बड़ा हौल, रसोई समेत बनवाया जाए. नीचे बगीचे और गैरेज के लिए जगह रखी जाए. एक दिन ससुरजी कागजों का एक पुलिंदा लाए और बोले, ‘‘लो वसंती, तुम्हारी इच्छानुसार मकान का नक्शा बनवा कर लाया हूं. अब उठ कर मेरे साथ कुछ खापी लो.’’

सासुमां के चेहरे पर विजय की एक स्निग्ध रेखा अभर आई. इस घटना के वर्षों बाद मुझे अपनी सासुमां के सत्याग्रह का असली अर्थ समझ में आया. 4 हिस्से वाले इस घर में रहते हुए पूरे परिवार में जो सुख, शांति और अपनत्व है, उस का श्रेय सासुमां के उस सत्याग्रह व दूरदृष्टि को जाता है.

सासुमां के अंदर की ईर्ष्या का रंग तब अचानक ही उभर आता जब नानीसास हम से मिलने आतीं, हमारे लिए तरहतरह के कीमती उपहार लातीं. महंगी साड़ी सासुमां को भेंट देतीं और पूरे समय अपने डाक्टर बेटे की दौलत, व्यवसाय और प्रतिष्ठा का गुणगान करतीं. नानीमां जितने दिन रहतीं, सासुमां विचलित और अशांत रहतीं. किसी का भी दिल न दुखाने वाली सासुमां का अपनी ही मां से किया जाने वाला रूखा व्यवहार मेरी समझ से बाहर था.

एक दिन हमेशा की तरह ‘मामापुराण’ शुरू हुआ था. ‘‘अब बस भी करो अम्मा,’’ सासुमां ने रुखाई से कहा.

‘‘कमाल है,’’ नानीमां अचकचा कर बोलीं, ‘‘सगे भाई की दौलत, खुशी की तारीफ तुझ से सही नहीं जाती. देख रही हूं तुझे तो कांटा ही चुभ रहा है.’’ सासुमां ने सीधे अपनी मां की ओर तीव्र दृष्टि डाली और कड़े शब्दों में बोलीं, ‘‘सो क्यों है, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो.’’

इस घटना के बाद नानीमां जब भी हमारे घर आतीं, मामाजी की दौलत और प्रतिष्ठा के बारे में अपना मुंह बंद ही रखतीं. काफी समय बाद सासुमां के इस व्यवहार का असली कारण मुझे तब पता चला जब मेरी बेटी सुरभि का मैडिकल में दाखिला होना था. उसी समय सुधीर, मेरे बेटे, को रीजनल कालेज में प्रवेश लेना था. सुरभि और सुधीर, दोनों को बाहर छात्रावास में रख कर पढ़ाई का खर्र्च उठाना संभव नहीं था. लिहाजा, हम ने सुरभि को घर में रह कर एमएससी करने को कहा. लेकिन सासुमां ने जब सुना तो बहुत नाराज हुईं, ‘‘सुधीर के लिए सुरभि के भविष्य की बलि क्यों चढ़ा रही हो. सुधीर को स्थानीय कालेज में इंजीनियरिंग पढ़ने दो, सुरभि का खर्च मैं उठाऊंगी. आखिर मेरे जेवर किस काम आएंगे. मैं नहीं चाहती कि एक और वसंती को अपने स्वप्नों के टूटने का दुख भोगना पड़े.’’

तब मैं ने जाना कि डाक्टर मामा की खातिर ही सासुमां का डाक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया था. मेरे बेटे सुधीर की शादी के लिए 6 दिन बचे थे. घर में नाचगाने की योजना थी. सहभोज और वीडियो शूटिंग का कार्यक्रम था. अचानक ससुरजी का पैर फिसला और पैर की हड्डी टूट गई. उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. जाहिर है, ऐसे में सासुमां को ससुरजी की देखभाल के लिए अस्पताल में ही रहना था. ससुरजी की तबीयत संभलने के तीसरे दिन सासुमां घर वापस आईं और सन्नाटा व उदास माहौल देख कर बोलीं, ‘‘अरी ऊषा, यह शादी का घर है क्या? न कहीं रौनक, न कहीं उत्साह…’’

‘‘वह क्या है…’’ मैं दुविधा में बोली. ‘‘अब रहने भी दे, 2 दिन के लिए मैं घर छोड़ कर क्या गई, सब के सब एकदम सुस्त हो गए,’’ वे नाराज हो कर बोलीं. फिर नरेन से बोलीं, ‘‘तेरे पिताजी की तबीयत अब ठीक है, आज तुम दोनों भाई उन के साथ रहना. मैं कल सुबह अस्पताल आऊंगी. घर में 2-2 बहुएं हैं, 2-2 लड़कियां हैं, पर शादी का घर तो एकदम भूतघर जैसा लग रहा है. मेरे पोते की शादी में ऐसी खामोशी क्यों भला, ऐसा खुशी का मौका क्या बारबार आता है?’’

फिर क्या पूछना, उस रात ऐसी महफिल जमी कि आज तक भुलाए नहीं भूलती. देररात तक संगीतसमारोह की रौनक रही. सासुमां खुद खूब नाचीं और हर एक को उठाउठा कर हाथ पकड़ कर खूब नचाया.

सुबह हुई तो स्नान कर के वे अस्पताल के लिए चल दीं. मैं उन की ममता और स्नेह से अभिभूत थी. अपने दुख, अपनी चिंता, परेशानी को छिपा कर उन्होंने किस तरह मेरी खुशी को महत्त्व दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाती. उत्साह का वह रंग कभीकभार आज भी उन में उभर आता है. सासुमां के व्यक्तित्व के 7 रंगों में एक रंग और था और वह था, अंधविश्वास का. घर में कोई भी समस्या हो, निवारण हेतु वे सब से पहले गुरुजी के पास दौड़ी जातीं. फिर मनौती, चढ़ावा, पूजा, हवन वगैरह का दौर शुरू हो जाता.

एक बार छोटे देवर ट्रैकिंग पर गए हुए थे. प्रतिदिन वहां के समाचारों में बादल, वर्षा, तूफान का जिक्र रहता. जब वे निश्चित समय तक नहीं लौटे तो हम सभी चिंता से व्याकुल हो गए. सासुमां ने तुरंत गुरुजी की सलाह ली और दूसरे दिन से अंधेरे में स्नानध्यान कर गीले कपड़ों में मंदिर जाने लगीं.

‘‘अम्मा, इस तरह परेशानी पर परेशानी बढ़ाओगी क्या. अब तुम भी बीमार पड़ कर रहीसही कसर पूरी कर दो,’’ एक दिन नरेन बरस पड़े. अम्माजी ने शांतसहज उत्तर दिया, ‘‘भोलेनाथ की कृपा से हरेंद्र जल्दी घर वापस आएगा और रही मेरी बात, तो मुझे कुछ नहीं होगा. देखना, तेरा पोता गोद में खिलाने के बाद ही मरूंगी.’’

वक्तबेवक्त नहाने, खाने और सोने से एक दिन जब सासुमां मंदिर में ही मूर्च्छित हो गईं तो उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. 15 दिन बाद देवरजी सकुशल लौटे. आते ही सासुमां ने उन्हें गले लगा लिया और भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मेरे भोलेनाथ की कृपा से तुम मौत के मुंह से लौटे हो.’’

देवरजी अवाक उन की तरफ देखते रहे और बोले, ‘‘क्या कह रही हो अम्मा, मैं और मौत के मुंह में, कुछ समझ नहीं आ रहा है…’’ पूरी बात बताने पर वे उन पर बरस पड़े, ‘‘अम्मा, जाने कैसेकैसे लोग तुम्हारे इस अंधविश्वास का फायदा उठा कर तुम से पैसे ऐंठ लेते हैं. इस व्रतउपवास के चक्कर में तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है. मैं तो नहीं पर तुम खुद ही अपने इन अंधविश्वासों के कारण मौत के मुंह में जा रही थीं.’’

देवरजी ने बताया कि उन का ट्रैकिंग कार्यक्रम अचानक स्थगित हो गया और उन्हें वहीं से औफिस के काम से मुंबई जाना पड़ा. इस की जानकारी उन्होंने पत्र द्वारा घर भेज दी थी. पर संभवतया किसी कारण से पत्र मिला नहीं. वह दिन और आज का दिन, सासुमां ने नजर उतारना, मनौती, चढ़ावा सब छोड़ दिया है. अपनी इतनी पुरानी मान्यता तो छोड़ पाना उन की दृढ़ता का ही परिचायक था.

सासुमां में सही समय पर विरक्ति का रंग भी छलक उठा. मेरे बेटे के संपन्न ससुराल वाले अपनी बेटी को वे सब सुविधाएं देना चाहते थे, जिन की वह आदी थी. लेकिन सासुमां की इच्छानुसार हम ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. जैसेजैसे समय बीतता गया, हम ने महसूस किया कि उन सुविधाओं के अभाव में बहू को यहां समझौता करना मुश्किल हो रहा है.

हम दुविधा में थे, इधर बहू भी अशांत थी. लेकिन अम्माजी समधियाने का सामान लेने में खुद को अपमानित महसूस करती थीं. हमारी उलझन को समझ कर एक दिन वे बोलीं, ‘‘बहू, अब सीढ़ी चढ़नाउतरना मुझ से होता नहीं. मेरे रहने के लिए नीचे ही इंतजाम कर दो. तुम लोग ऊपर के दोनों हिस्सों में चले जाओ. बुढ़ापे में मोहमाया जरा कम कर लेने दो. अब मुझे घर की जवाबदारी से मुक्त करो, न सलाह मांगो, न देखभाल का जिम्मा दो.’’ तब से अब तक सासुमां अपनेआप में मगन हैं. उन्होंने अपने चारों तरफ विरक्ति की दीवार खड़ी कर ली है, पर उस विरक्ति में रूखापन नहीं है. वे आज भी उतनी ही ममतामयी और जागरूक हैं, जितनी पहले थीं.

आश्चर्य की बात तो यह है कि बहू का ज्यादा से ज्यादा समय अपनी दादीसास के साथ ही गुजरता है. वह अपनी दादीसास की सब से ज्यादा लाड़ली है. उस ने भी महसूस कर लिया है कि अपने परिवार की सुखशांति के लिए ही दादीमां खुद ही तटस्थ हो गई हैं. अपने अधिकारों को छोड़ कर वे सब के कल्याण में लगी हुई हैं.

Mother’s Day 2024-छोटा सा घर: क्या सुषमा अपनी गृहस्थी बसा पाई?

ट्रेन तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी. सहसा गोमती बूआ ने वृद्ध सोमनाथ को कंधे से झकझोरा, ‘‘बाबूजी, सुषमा पता नहीं कहां चली गई. कहीं नजर नहीं आ रही.’’

सोमनाथ ने हाथ ऊंचा कर के स्विच दबाया तो चारों ओर प्रकाश फैल गया. फिर वे आंखें मिचमिचाते हुए बोले, ‘‘आधी रात को नींद क्यों खराब कर दी… क्या मुसीबत आन पड़ी है?’’

‘‘अरे, सुषमा न जाने कहां चली गई.’’

‘‘टायलेट की ओर जा कर देखो, यहीं कहीं होगी…चलती ट्रेन से कूद थोड़े ही जाएगी.’’

‘‘अरे, बाबा, डब्बे के दोनों तरफ के शौचालयों में जा कर देख आई हूं. वह कहीं भी नहीं है.’’

बूआ की ऊंची आवाज सुन कर अन्य महिलाएं भी उठ बैठीं. पुष्पा आंचल संभालते हुए खांसने लगी. देवकी ने आंखें मलते हुए बूआ की ओर देखा और बोली, ‘‘लाइट क्यों जला दी? अरे, तुम्हें नींद नहीं आती लेकिन दूसरों को तो चैन से सोने दिया करो.’’

‘‘मूर्ख औरत, सुषमा का कोई अतापता नहीं है…’’

‘‘क्या सचमुच सुषमा गायब हो गई है?’’ चप्पल ढूंढ़ते हुए कैलाशो बोली, ‘‘कहीं उस ने ट्रेन से कूद कर आत्महत्या तो नहीं कर ली?’’

बूआ ने उसे जोर से डांटा, ‘‘खामोश रह, जो मुंह में आता है, बके चली जा रही है,’’ फिर वे सोमनाथ की ओर मुड़ीं, ‘‘बाबूजी, अब क्या किया जाए. छोटे महाराज को क्या जवाब देंगे?’’

‘‘जवाब क्या देना है. वे इसी ट्रेन के  फर्स्ट क्लास में सफर कर रहे हैं. अभी मोबाइल से बात करता हूं.’’

सोमनाथ ने छोटे महाराज का नंबर मिलाया तो उन की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे, बाबा, काहे नींद में खलल डालते हो?’’

‘‘महाराज, बहुत बुरी खबर है. सुषमा कहीं दिखाई नहीं दे रही. बूआ हर तरफ उसे देख आई हैं.’’

‘‘रात को आखिरी बार तुम ने उसे कब देखा था?’’

‘‘जी, रात 9 बजे के लगभग ग्वालियर स्टेशन आने पर सभी ने खाना खाया और फिर अपनीअपनी बर्थ पर लेट गए. आप को मालूम ही है, नींद की गोली लिए बिना मुझे नीद नहीं आती. सो गोली गटकते ही आंखें मुंदने लगीं. अभी बूआ ने जगाया तो आंख खुली.’’

छोटे महाराज बरस पड़े, ‘‘लापरवाही की भी हद होती है. बूआ के साथसाथ तुम्हें भी कई बार समझाया था कि सुषमा पर कड़ी नजर रखा करो. लेकिन तुम सब…कहीं हरिद्वार में किसी के संग उस का इश्क का कोई लफड़ा तो नहीं चल रहा था? मुझे तो शक हो रहा है.’’

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‘‘मुझे तो कुछ मालूम नहीं. लीजिए, बूआ से बात कीजिए.’’

बूआ फोन पकड़ते ही खुशामदी लहजे में बोलीं, ‘‘पाय लागूं महाराज.’’

‘‘मंथरा की नानी, यह तो कमाल हो गया. आखिर वह चिडि़या उड़ ही गई. मुझे पहले ही शक था. उस की खामोशी हमें कभीकभी दुविधा में डाल देती थी. खैर, अब उज्जैन पहुंच कर ही कुछ सोचेंगे.’’

बूआ ने मोबाइल सोमनाथ की ओर बढ़ाया तो वे पूछे बिना न रह सके, ‘‘क्या बोले?’’

‘‘अरे, कुछ नहीं, अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. हम हमेशा सुषमा की जासूसी करते रहे. कभी उसे अकेला नहीं छोड़ा. अब क्या चलती ट्रेन से हम भी उस के साथ बाहर कूद जाते. न जाने उस बेचारी के मन में क्या समाया होगा?’’

थोड़ी देर में सोमनाथ ने बत्ती बुझा दी पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. बीते दिनों की कई स्याहसफेद घटनाएं रहरह कर उन्हें उद्वेलित कर रही थीं :

लगभग 5-6 साल पहले पारिवारिक कलह से तंग आ कर सोमनाथ हरिद्वार के एक आश्रम में आए थे. उस के 3-4 माह बाद ही दिल्ली के किसी अनाथाश्रम से 11-12 साल के 4 लड़के और 1 लड़की को ले कर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आश्रम में आया था. तब सोमनाथ के सुनने में आया था कि बदले में उस व्यक्ति को अच्छीखासी रकम दी गई थी. आश्रम की व्यवस्था के लिए जो भी कर्मचारी रखे जाते थे वे कम वेतन और घटिया भोजन के कारण शीघ्र ही भाग खड़े होते थे, इसीलिए दिल्ली से इन 5 मासूम बच्चों को बुलाया गया था.

शुरूशुरू में इस आश्रम में बच्चों का मन लग गया, पर शीघ्र ही हाड़तोड़ मेहनत करने के कारण वे कमजोर और बीमार से होते गए. आश्रम के पुराने खुशामदी लोग जहां मक्खनमलाई खाते थे, वहीं इन बच्चों को रूखासूखा, बासी भोजन ही खाने को मिलता. कुछ माह बाद ही चारों लड़के तो आसपास के आश्रमों में चले गए पर बेचारी सुषमा उन के साथ जाने की हिम्मत न संजो सकी. बड़े महाराज ने तब बूआ को सख्त हिदायत दी थी कि इस बच्ची का खास खयाल रखा जाए.

बूआ, सुषमा का खास ध्यान तो रखती थीं, पर वे बेहद चतुर, स्वार्थी और छोटे महाराज, जोकि बड़े महाराज के भतीजे थे और भविष्य में आश्रम की गद्दी संभालने वाले थे, की खासमखास थीं. बूआ पूरे आश्रम की जासूसी करती थीं, इसीलिए सभी उन्हें ‘मंथरा’ कह कर पुकारते थे.

18 वर्षीय सुषमा का यौवन अब पूरे निखार पर था. हर कोई उसे ललचाई नजरों से घूरता रहता. पर कुछ कहने की हिम्मत किसी में न थी क्योंकि सभी जानते थे कि छोटे महाराज सुषमा पर फिदा हैं और किसी भी तरह उसे अपना बनाना चाहते हैं. बूआ, सुषमा को किसी न किसी बहाने से छोटे महाराज के कक्ष में भेजती रहती थीं.

पिछले साल दिल्ली से बड़े महाराज के किसी शिष्य का पत्र ले कर नवीन नामक नौजवान हरिद्वार घूमने आया था. प्रात: जब दोनों महाराज 3-4 शिष्यों के साथ सैर करने निकल जाते तो सोमनाथ और सुषमा बगीचे में जा कर फूल तोड़ने लगते. 2-3 दिनों में ही नवीन ने सोमनाथ से घनिष्ठता कायम कर ली थी. वह भी अब फूल तोड़ने में उन दोनों की सहायता करने लगा.

28-30 साल का सौम्य, शिष्ट व सुदर्शन नौजवान नवीन पहले दिन से ही सुषमा के प्रति आकर्षण महसूस करने लगा था. सुषमा भी उसे चाहने लगी थी. उन दोनों को करीब लाने में सोमनाथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे. उन की हार्दिक इच्छा थी कि वे दोनों विवाह बंधन में बंध जाएं.

सोमनाथ ने सुषमा को नवीन की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में सबकुछ बता दिया था कि कानपुर में उस का अपना मकान है. उस की शादी हुई थी, लेकिन डेढ़ वर्ष बाद बेटे को जन्म देने के बाद उस की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. घर में मां और छोटा भाई हैं. एक बड़ी बहन शादीशुदा है. नवीन कानपुर की एक फैक्टरी के मार्केटिंग विभाग में ऊंचे पद पर कार्यरत है. उसे 15 हजार रुपए मासिक वेतन मिलता है. इन दिनों वह फैक्टरी के काम से ज्यादातर दिल्ली में ही अपने शाखा कार्यालय की ऊपरी मंजिल पर रहता है.

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1 सप्ताह गुजरने के बाद जब नवीन ने वापस दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया तो ऐसा संयोग बना कि छोटे महाराज को कुछ दिनों के लिए वृंदावन के आश्रम में जाना पड़ा. उन के जाने के बाद सोमनाथ ने नवीन को 3-4 दिन और रुकने के लिए कहा तो वह सहर्ष उन की बात मान गया.

एक दिन बाग में फूल तोड़ते समय सोमनाथ ने विस्तार से सारी बातें सुषमा को कह डालीं, ‘बेटी, तुम हमेशा से कहती हो न कि घर का जीवन कैसा होता है, यह मैं ने कभी नहीं जाना है. क्या इस जन्म में किसी जानेअनजाने शहर में कोई एक घर मेरे लिए भी बना होगा? क्या मैं सारा जीवन आश्रम, मंदिर या मठ में व्यतीत करने को विवश होती रहूंगी?

‘बेटी, मैं तुम्हें बहुत स्नेह करता हूं लेकिन हालात के हाथों विवश हूं कि तुम्हारे लिए मैं कुछ कर नहीं सकता. अब कुदरत ने शायद नवीन के रूप में तुम्हारे लिए एक उमंग भरा पैगाम भेजा है. तुम्हें वह मनप्राण से चाहने लगा है. वह विधुर है. एक छोटा सा बेटा है उस का…छोटा परिवार है…वेतन भी ठीक है…अगर साहस से काम लो तो तुम उस घर, उस परिवार की मालकिन बन सकती हो. बचपन से अपने मन में पल रहे स्वप्न को साकार कर सकती हो.

‘लेकिन मैं नवीन की कही बातों की सचाई जब तक खुद अपनी आंखों से नहीं देख लूंगा तब तक इस बारे में आगे बात नहीं करूंगा. वह कल दिल्ली लौट जाएगा. फिर वहां से अगले सप्ताह कानपुर जाएगा. इस बारे में मेरी उस से बातचीत हो चुकी है. 3-4 दिन बाद मैं भी दिल्ली चला जाऊंगा और फिर उस के साथ कानपुर जा कर उस का घर देख कर ही कुछ निर्णय लूंगा.

‘यहां आश्रम में तो तुम्हें छोटे महाराज की रखैल बन कर ही जीवन व्यतीत करना पड़ेगा. हालांकि यहां सुखसुविधाओं की कोई कमी न होगी, परंतु अपने घर, रिश्तों की गरिमा और मातृत्व सुख से तुम हमेशा वंचित ही रहोगी.’

‘नहीं बाबा, मैं इन आश्रमों के उदास, सूने और पाखंडी जीवन से अब तंग आ चुकी हूं.’

अगले दिन नवीन दिल्ली लौट गया. उस के 3-4 दिन बाद सोमनाथ भी चले गए क्योंकि कानपुर जाने का कार्यक्रम पहले ही नवीन से तय हो चुका था.

एक सप्ताह बाद सोमनाथ लौट आए. अगले दिन बगीचे में फूल तोड़ते समय उन्होंने मुसकराते हुए सुषमा से कहा, ‘बिटिया, बधाई हो. जैसे मैं ने अनुमान लगाया था, उस से कहीं बढ़ कर देखासुना. सचमुच प्रकृति ने धरती के किसी कोने में एक सुखद, सुंदर, छोटा सा घर तुम्हारे लिए सुरक्षित रख छोड़ा है.’

‘बाबा, अब जैसा आप उचित समझें… मुझे सब स्वीकार है. आप ही मेरे हितैषी, संरक्षक और मातापिता हैं.’

‘तब तो ठीक है. लगभग 2 माह बाद ही छोटे महाराज, बूआ और इस आश्रम की 5-6 महिलाओं के साथ हम दोनों को भी हर वर्ष की भांति उज्जैन के अपने आश्रम में वार्षिक भंडारे पर जाना है. इस बारे में नवीन से मेरी बात हो चुकी है. इस बारे में नवीन ने खुद ही सारी योजना तैयार की है.

‘यहां से उज्जैन जाते समय रात्रि 10 बजे के लगभग ट्रेन झांसी पहुंचेगी. छोटे महाराज अपने 3 शिष्यों के साथ प्रथम श्रेणी के ए.सी. डब्बे में यात्रा कर रहे होंगे, शेष हम लोग दूसरे दर्जे के शयनयान में सफर करेंगे. तुम्हें झांसी स्टेशन पर उतरना होगा…वहां नवीन अपने 3-4 मित्रों के संग तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा. वैसे घबराने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि नवीन की बूआ का बेटा वहीं झांसी में पुलिस सबइंस्पैक्टर के पद पर तैनात है. अगर कोई अड़चन आ गई तो वह सब संभाल लेगा.’

‘क्या आप मेरे साथ झांसी स्टेशन पर नहीं उतरेंगे?’ सुषमा ने शंकित नजरों से उन की ओर देखा.

‘नहीं, ऐसा करने पर छोटे महाराज को पूरा शक हो जाएगा कि मैं भी तुम्हारे साथ मिला हुआ हूं. वे दुष्ट ही नहीं चालाक भी हैं. वैसे तुम जातनी ही हो कि बूआ, छोटे महाराज की जासूस है. अगर कहीं उस ने हम दोनों को ट्रेन से उतरते देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जाएगा. तुम घबराओ मत. चंदन आश्रम में रह रहा राजू तुम्हारा मुंहबोला भाई है…उस पर तो तुम्हें पूरा विश्वास है न?’

‘हांहां, क्यों नहीं. वह तो मुझ से बहुत स्नेह करता है.’

‘कल शाम मैं राजू से मिला था. मैं ने उसे पूरी योजना के बारे में विस्तार से समझा दिया है. तुम्हारी शादी की बात सुन कर वह बहुत प्रसन्न था. वह हर प्रकार से सहयोग करने को तैयार है. वह भी हमारे साथ उसी ट्रेन के किसी अन्य डब्बे में यात्रा करेगा.

‘झांसी स्टेशन पर तुम अकेली नहीं, राजू भी तुम्हारे साथ ट्रेन से उतर जाएगा. मैं तुम दोनों को कुछ धनराशि भी दे दूंगा. यात्रा के दौरान मोबाइल पर नवीन से मेरा लगातार संपर्क बना रहेगा. राजू 3-4 दिन तक तुम्हारे ससुराल में ही रहेगा, तब तक मैं भी किसी बहाने से उज्जैन से कानपुर पहुंच जाऊंगा. बस, अब सिर्फ 2 माह और इंतजार करना होगा. चलो, अब काफी फूल तोड़ लिए हैं. बस, एक होशियारी करना कि इस दौरान भूल कर भी बूआ अथवा छोटे महाराज को नाराज मत करना.’

फिर तो 2 माह मानो पंख लगा कर उड़ते नजर आने लगे. सुषमा अब हर समय बूआ और छोटे महाराज की सेवा में जुटी रहती, हमेशा उन दोनों की जीहुजूरी करती रहती. छोटे महाराज अब दिलोजान से सुषमा पर न्योछावर होते चले जा रहे थे. उस की छोटी से छोटी इच्छा भी फौरन पूरी की जाती.

निश्चित तिथि को जब 8-10 लोग उज्जैन जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे तो छोटे महाराज को तनिक भी भनक न लगी कि सुषमा और सोमनाथ के दिलोदिमाग में कौन सी खिचड़ी पक रही है.

आधी रात को लगभग साढ़े 12 बजे बीना जंक्शन पर सोमनाथ ने जब छोटे महाराज को सुषमा के गायब होने की सूचना दी तो उन्होंने उसे और बूआ को फटकारने के बाद अपने शिष्य दीपक से खिन्न स्वर में कहा, ‘‘यार, सुषमा तो बहुत चतुर निकली…हम तो समझ रहे थे कि चिडि़या खुदबखुद हमारे बिछाए जाल में फंसती चली जा रही है, लेकिन वह तो जाल काट कर ऊंची उड़ान भरती हुई किसी अदृश्य आकाश में खो गई.’’

‘‘लेकिन इस योजना में उस का कोई न कोई साथी तो अवश्य ही रहा होगा?’’ दीपक ने कुरेदा तो महाराज खिड़की से बाहर अंधेरे में देखते हुए बोले, ‘‘मुझे तो सोमनाथ और बूआ, दोनों पर ही शक हो रहा है. पर एक बार आश्रम की गद्दी मिलने दो, हसीनाओं की तो कतार लग जाएगी.’’

उज्जैन पहुंचने पर शाम के समय बाजार के चक्कर लगाते हुए सोमनाथ ने जब नवीन के मोबाइल का नंबर मिलाया तो उस ने बताया कि रात को वे लोग झांसी में अपनी बूआ के घर पर ही रुक गए थे और सुबह 5 बजे टैक्सी से कानपुर के लिए चल दिए. नवीन ने राजू और सुषमा से भी सोमनाथ की बात करवाई. सोमनाथ को अब धीरज बंधा.

निर्धारित योजना के अनुसार तीसरे दिन छोटे महाराज के पास सोमनाथ के बड़े बेटे का फोन आया कि कोर्ट में जमीन संबंधी केस में गवाही देने के लिए सोमनाथ का उपस्थित होना बहुत जरूरी है. अत: अगले दिन प्रात: ही सोमनाथ आश्रम से निकल पड़े, परंतु वे दिल्ली नहीं, बल्कि कानपुर की यात्रा के लिए स्टेशन से रवाना हुए.

कानपुर में नवीन के घर पहुंचने पर जब सोमनाथ ने चहकती हुई सुषमा को दुलहन के रूप में देखा तो बस देखते ही रह गए. फिर सुषमा की पीठ थपथपाते हुए हौले से मुसकराए और बोले, ‘‘मेरी बिटिया दुलहन के रूप में इतनी सुंदर दिखाई देगी, ऐसा तो कभी मैं ने सोचा भी न था. सदा सुखी रहो. बेटा नवीन, मेरी बेटी की झोली खुशियों से भर देना.’’

‘‘बाबा, आप निश्ंिचत रहें. यह मेरी बहू ही नहीं, बेटी भी है,’’ सुषमा की सास यानी नवीन की मां ने कहा.

‘‘बाबा, अब 5-6 माह तक मैं दिल्ली कार्यालय में ही ड्यूटी बजाऊंगा.’’

नवीन की बात सुनते ही सोमनाथ बहुत प्रसन्न हुए, ‘‘वाह, फिर तो हमारी बिटिया हमारी ही मेहमान बन कर रहेगी.’’

फिर वे राजू की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘बेटे, अपनी बहन को मंजिल तक पहुंचाने में तुम ने जो सहयोग दिया, उसे मैं और सुषमा सदैव याद रखेंगे. चलो, अब कल ही अपनी आगे की यात्रा आरंभ करते हैं.’’

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