अपनी राह: 40 की उम्र में जब दीया ने किया मीरा का कायाकल्प

देखतेही देखते मीरा ने अपनी उम्र का 40वां वसंत पार कर लिया. 5 साल पहले तक रिश्तेदार उस के लिए ढंगबेढंग के रिश्ते भेजते रहे थे, पर अब सभी ने किनारा कर लिया था. उस के मम्मीपापा भी उस से छोटी दोनों बहनों और भाई की शादी कर चुके थे.

‘‘अकेले हैं तो क्या गम है,’’ कह कर  15 सालों से मीरा सारे प्रस्तावों को ठुकराती रही थी. लेकिन अपने असफल प्यार के धधकते रेगिस्तान में नंगे पैर दौड़ती भी तो रही.  वह एक पल के लिए भी देव को भूल न सकी थी. मन में बसे देव को वह भूल भी कैसे सकती थी. तनमन को चुरा, वजूद को मिटा कर मीरा के उस गिरधर ने उसे कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं छोड़ा था. मात्र 14 साल की कच्ची उम्र से मीरा ने उसे मन में छिपा लिया था और उस चोर ने भी छिपने में कोई आनाकानी नहीं की थी. मन, क्रम, वचन से उस का हाथ थामे उस के प्रेम रस में भीगती रही, छीजती  रही. सोतेजागते, उठतेबैठते, रोतेहंसते देवदेव उच्चारती रही.

समय के साथ दोनों के प्यार की खुशबू सर्वत्र फैल रही थी पर देव के प्रेम रस बूंदन में मीरा के मन की भीग रही चुनरिया तन को भी भिगो गई थी. होली के दिन भंग चढ़ा कर देव ने उस के तन की याचना क्या की कि गरजती, नाचती दामिनी की तरह वह उस पर बरस गई. फिर बारबार भीगती रही. कभी मोल ली हुई दासी की तरह तो कभी जोगन की तरह. प्रीत की चुनर ओढ़े मीरा नित नई होती गई.  दोनों ने आईआईटी दिल्ली से कंप्यूटर साइंस में बीटैक किया. एमबीए करने के लिए मीरा बैंगलुरु चली गई और देव बोस्टन के हार्वर्ड बिजनैस स्कूल में चला गया. देव तो बारबार जाने से मना कर रहा था पर मीरा ही नहीं मानी. पलक झपकते 2 साल गुजर जाएंगे, फिर हम और हमारा आशियाना. भविष्य के ढेर सारे सपने आंखों में ले कर भरे मन से मीरा ने देव को विदा किया.

कभी फोन पर बातें कर के तो कभी फेसबुक पर प्यारमनुहार करते समय बीतता रहा. न्यूयौर्क की एक बड़ी कंपनी में कैंपस सलैक्शन होने के बाद देव इंडिया आया भी. कन्याकुमारी में 2 हफ्ते तक दोनों एकदूजे में खोए रहे. सभी तरह से आश्वस्त करते हुए देव लौट गया. बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी ने मीरा को भारी पैकेज के साथ सलैक्ट कर लिया था. लेकिन उस की नौकरी भी न्यूयौर्क में हो जाए, इस के लिए देव हर तरह से प्रयत्नशील था. नहीं भी होने से कोई बात नहीं थी. शादी के बाद स्पाउस वीजा पर वह देव के साथ चली जाएगी.  लेकिन ऐसा कहां हो सका.

इधर मीरा प्रीत की धानी चुनर ओढ़े देव की प्रतीक्षा कर रही थी. उधर विषम परिस्थितियों में देव को उसी कंपनी में कार्यरत नैन्सी से शादी करनी पड़ी थी. विरह में डूबे जो दिन पावस और वसंत बने हुए थे, अग्नि बन कर उस पर बरस गए. देव पुरुष था, समाज ने उस के कदम को सराहा. स्त्री तन लिए मीरा ही कलंकित हुई. समय की चट्टान पर लिखित उस की प्रेमगाथा ने जीतेजी उसे सलीब पर टांग दिया. विवश मीरा को विरह की अनंत पीड़ा स्वीकारनी पड़ी पर अपनी प्रेम गठिया को छुआ तक नहीं. छूती भी कैसे? एक ही मन था, एक ही चुनर थी और वह भी देव प्रेम रंग में भीगी. दूसरा रंग कहां से चढ़ता और चढ़ता भी कैसे? चुनर का रंग न तो छीजा था और न सूखा था, वह तो दिनोंदिन गहराता गया था.

कितने रिश्ते आए, कितनों ने साथ के लिए हाथ बढ़ाया पर वह देव की जोगिन  ही बनी रही. मीरा अपने काम में ही अपना सुकून ढूंढ़ने का प्रयास करती रही. देखतेदेखते दोनों बहनों एवं भाई का घर बस गया पर मीरा अकेलेपन की मार भोगती रही.  जब से मीरा को दीया का साथ मिला था जीवन के प्रति उस का नजरिया सकारात्मक हो गया था. दीया का बारबार का समझाना कि जीवन में जो गुजर गया उसे भुला कर जीने का प्रयास कर के खुश रहना है.

‘‘अरे यार, कब तक देव की विरहण बनी रहोगी? वह तो सब कुछ भुला कर मस्ती भरा जीवन जी रहा है और तुम उस की यादों को संजोए हो. चलो, आज ब्यूटीपार्लर चलती हैं. अपने साथ तुम्हारे हुलिए को भी बदलवाऊंगी.’’  मीरा ने हंसते हुए कहा, ‘‘उम्र के 40 वसंत पार कर लिए. अब मुझे देखेगा भी कौन, जो ब्यूटीपार्लर जाऊं?’’  ‘‘यह भी कोई उम्र है जोगिन बनने की… 40 के बाद ही जीवन जीने का मजा रहता है… चुनौतियों से, झंझावातों से, बाधाओं से और अगर कोई साथी न हो तो अकेलेपन से जूझने का जज्बा रहता है. जब जागो तभी सबेरा. आज से अपने जीने का अंदाज बदल डालो… कैसी बहार छा जाती है जीवन में देखना.’’

दीया के शब्दों ने मीरा के अंदर तूफान उठा दिया… वह व्यग्र हो उठी… कितना दम है दीया के कथन में… इस तरह से क्यों न समझाया उस के अपनों ने उसे कभी. फिर मीरा ने कोईर् आनाकानी नहीं की.  ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद एक नई मीरा का जन्म हो गया था, जिस के समक्ष खुशियों का समंदर लहरा उठा था. कोई अकेलापन नहीं, उत्साह, उमंग से भरे नए एहसास के कलश चारों ओर छलक उठे थे.

15 सालों के दुखदर्द, टूटन, चुभन और अकेलेपन के पलों को एकसाथ जी लेना चाहती थी. अपार रूप की स्वामिनी थी ही, ब्यूटीपार्लर से निकलने के बाद हीरे से तरासे उस के सौंदर्य ने न जाने कितनी जोड़ी आंखों को बांध लिया था.  मौल में जा कर आधुनिक पोशाकें खरीदीं. फिर उन से मैच करती ज्वैलरी, सौंदर्य प्रसाधन का सामान, परफ्यूम आदि खरीदा. अगर दीया उसे समय का एहसास नहीं दिलाती तो शायद पल भर में अपनी दुनिया बदल लेने के जनून से बाहर ही न आ पाती.

1 हफ्ते के अंदर ही मीरा ने स्वयं को ही नहीं, अपने फ्लैट के कोनेकोने को भी सजा लिया. वार्डरोब से ले कर किचन तक मुसकरा उठे.  मीरा में आए अचानक परिवर्तन ने अपार्टमैंट से ले कर औफिस तक के लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था. अकेलेपन में घुटती मीरा हर पल चहकने लगी थी. सभी की अवहेलना करने वाली मीरा नए जोश से भर कर सब के साथ उन्मुक्त हो उठी थी.  देखतेदेखते सभी के साथ उस के दोस्ताना संबंध ही नहीं बने, बल्कि वह सब के दुखसुख के साथी भी बन गई. हर पल कुछ नया करने की उमंग से भरी रहती. प्रत्येक दिन सैंडविच निगलने वाली मीरा के खाने का डब्बा खुलते ही लजीज व्यंजनों की सुगंध से सभी के मुंह में पानी आ जाता. साथियों से अपना खाना भी शेयर करने लगी थी.

फिट और चुस्त रहने के लिए मीरा ने जिम जाना भी शुरू कर दिया था. वहां भी हर उम्र के उस के बहुत सारे दोस्त बन गए थे. पढ़ना तो पहले से ही उस की हौबी थी. प्रसिद्घ लेखकों की किताबों से रैक भर गया था.  आंतरिक प्रसन्नता एवं सुगढ़ मेकअप ने उस की उम्र के 10 साल चुरा लिए थे. अपने डाइरैक्टर अमन से हमेशा चिढ़ी रहने वाली मीरा अब उन से भी हिलमिल गई थी. वे भी मीरा में आए परिवर्तन पर चकित थे. उस की असीमित प्रतिभा और उदासी से भरे सौंदर्य पर वे मोहित तो थे ही, उस के जीने के अनोखे अंदाज से वे उस की निकटता के लिए व्याकुल हो उठे.

आननफानन में किसी बड़े प्रोजैक्ट की रूपरेखा तैयार  करते हुए मीरा को साथ लिए उन्होंने न्यूयौर्क के लिए उड़ान भर ली. 2 कमरों की बुकिंग होते हुए भी मीरा को अपने कमरे में रहने को बाध्य किया तो वह भी इनकार नहीं कर सकी. अमन के आकर्षक व्यक्तित्व पर वह भी मुग्ध थी. अब दोनों के दिन सोने के थे और रातें चांदी की.  दोनों एकदूसरे में समाए हाथों में हाथ लिए दुनिया के उस अनोखे खहर में घूमते रहे. वहां रोकटोक करने वाला भी कौन था. तनमन से वर्षों की प्यासी मीरा आनंद सागर में जी भर कर डुबकियां लगा रही थी.

मौल में घूमते समय किसी की घूरती नजरों को पहचान मीरा और उन्मुक्त हो उठी. वह अमन की बांहों में झूम उठी. वे नजरें थीं देव की.  वह अमन से लिपटी हुई देव के समक्ष जा खड़ी हुई.  ‘‘हाय देव, पहचाना नहीं? मैं मीरा… कभी की तुम्हारी दीवानी… सोचा भी नहीं था कि कभी तुम से कुछ यों मुलाकात होगी… सब कुछ ठीक चल रहा है न? कुछ दुबले हो गए हो.’’

अमन की बांहों में अपनेआप को लपेटते हुए उद्दंडता से बोली मानो देव के किए का सारा लेखाजोखा इसी पल ले लेगी.  ‘‘अमन. ये हैं देव, कभी के मेरे मंगेतर थे. मैं इन से तनमन से जुड़ी रही. इन के विश्वासघात के बाद भी इन की यादों में जीतीमरती रही.’’  ये तो मेरे देव नहीं बने पर मैं ने बेवकूफी में जीवन के कितने अनमोल वर्ष इन की पारो बन कर गुजारा दिए.

‘‘देव, ये हैं अमन,’’ कह कर सब से छिपा कर मीरा ने छलक आए आंसुओं को अमन की हथेलियों में मुंह छिपा कर पोछा और आगे बढ़ गई. अमन को उस पर और भी प्यार उमड़ आया. फिर पीछे मुड़ कर देव को घूरते हुए मीरा को अपनी जैकेट में छिपा लिया.

फटीफटी आंखों से देव तब तक अमन की बांहों में बंधी मीरा को देखता रहा जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गई.

गजरा: कैसे बदल गई अमित की जिंदगी

दफ्तर से छुट्टी होते ही अमित बाहर निकला. पर उसे घर जाने की जल्दी नहीं थी, क्योंकि घर का कसैला स्वाद हमेशा उस के मन को बेमजा करता रहता था.

अमित की घरेलू जिंदगी सुखद नहीं थी. बीवी बातबात पर लड़ती रहती थी. उसे लगता था कि जैसे वह लड़ने का बहाना ढूंढ़ती रहती है, इसीलिए वह देर रात को घर पहुंचता, जैसेतैसे खाना खाता और किसी अनजान की तरह अपने बिस्तर पर जा कर सो जाता.

वैसे, अमित की बीवी देखने में बेहद मासूम लगती थी और उस की इसी मासूमियत पर रीझ कर उस ने शादी के लिए हामी भरी थी. पर उसे क्या पता था कि उस की जबान की धार कैंची से भी ज्यादा तेज होगी.

केवल जबान की बात होती तो वह जैसेतैसे निभा भी लेता, पर वह शक्की भी थी. उस की इन्हीं दोनों आदतों से तंग हो कर अमित अब ज्यादा से ज्यादा समय घर से दूर रहना चाहता था.

सड़क पर चलते हुए अमित सोच रहा था, ‘आज तो यहां कोई भी दोस्त नहीं मिला, यह शाम कैसे कटेगी? अकेले घूमने से तो अकेलापन और भी बढ़ जाता है.’

धीरेधीरे चलता हुआ अमित चौराहे के एक ओर बने बैंच पर बैठ गया और हाथ में पकड़े अखबार को उलटपलट कर देखने लगा, तभी उस के कानों में आवाज आई. ‘‘गजरा लोगे बाबूजी. केवल 10 रुपए का एक है.’’

अमित ने बगैर देखे ही इनकार में सिर हिलाया. पर उसे लगा कि गजरे वाली हटी नहीं है.

अमित ने मुंह फेर कर देखा. एक लड़की हाथ में 8-10 गजरे लिए खड़ी थी और तरस भरे लहजे में गजरा खरीदने के लिए कह रही थी.

अमित ने फिर कहा, ‘‘नहीं चाहिए. और गजरा किस के लिए लूं?’’

लड़की को कुछ उम्मीद बंधी. वह बोली, ‘‘किसी के लिए भी सही, एक ले लो बाबूजी. अभी तक एक भी नहीं बिका है. आप के हाथ से ही बोहनी होगी.’’

अमित ने गजरे और गजरे वाली को ध्यान से देखा. मैलीकुचैली मासूम सी लड़की खड़ी थी, पर उस की आंखें चमकीली थीं.

‘‘लाओ, एक दे दो,’’ अमित ने गजरों की ओर देखते हुए कहा.

लड़की ने एक गजरा अमित के आगे बढ़ाया और उस ने जेब से 20 रुपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया.

‘‘खुले पैसे तो नहीं हैं. यह पहली ही बिक्री है.’’

अमित ने एक पल रुक कर उस से कहा, ‘‘लाओ, एक और गजरा दे दो.

20 रुपए पूरे हो जाएंगे.’’

लड़की ने खुश हो कर एक और गजरा उसे दे दिया.

जब वह जाने लगी, तो अमित ने कहा, ‘‘जरा ठहरो, मैं 2 गजरों का क्या करूंगा? एक तुम ले लो. अपने बालों में लगा लेना,’’ अमित ने धीरे से मुसकरा कर गजरा उस की ओर बढ़ाया.

लड़की का चेहरा शर्म से लाल हो उठा. अमित को उस की आंखें बहुत काली और पलकें बहुत लंबी लगीं.

तभी वह संभला और मुसकरा कर बोला, ‘‘लो, रख लो. मैं ने तो यों ही कहा था. अगर बालों में नहीं लगाना, तो किसी को बेच देना या फुटकर पैसे मिल जाएं, तो 10 रुपए वापस कर जाना.’’

लड़की ने उस गजरे को ले लिया और धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए वहां से चली गई.

अमित कुछ देर वहीं बैठा रहा, फिर उठ कर इधरउधर घूमता रहा. जब अकेले दिल नहीं लगा, तो घर की ओर चल दिया.

जब वह घर पहुंचा, तो देखा कि बीवी पतीले में जोरजोर से कलछी घुमा रही थी.

अमित चुपचाप अपने कमरे में चला गया. कपड़े उतारते समय उसे गजरे का खयाल आया, तो उस ने सोचा कि जेब में ही पड़ा रहने दे. पर नहीं, बीवी ने देख लिया तो सोचेगी कि पता नहीं किसे देने के लिए खरीदा है. उस ने सोचा कि क्यों न जेब से निकाल कर कहीं और रख दिया जाए.

अमित के कदमों की आहट सुनते ही बीवी उठ खड़ी हुई थी. वह शाम से ही गुस्से से भरी बैठी थी कि आज तो इस का फैसला हो कर ही रहेगा कि वह क्यों देर से घर आता है. क्या इसी तरह जीने के लिए वह उसे ब्याह कर लाया है.

जब वह रसोई से बाहर आई, तो अमित के हाथ में गजरा देख कर एक पल के लिए ठिठक कर खड़ी हो गई.

हड़बड़ी में अमित गजरे वाला हाथ आगे बढ़ा कर बोला, ‘‘यह गजरा… यों ही ले आया हूं.’’

बीवी ने आगे बढ़ कर गजरा ले लिया, उसे सूंघा और फिर आईने के सामने खड़ी हो कर अपने जूड़े पर बांधने लगी.

अमित सबकुछ अचरज भरी नजरों से देखता रहा.

तभी बीवी ने कहा, ‘‘खूब महकता है. सारा कमरा खुशबू से भर गया है. ताजा कलियों का बना लगता है.’’

‘‘हां, बिलकुल ताजा कलियों का है. तभी तो सोचा कि लेता चलूं.’’

कई दिनों के बाद उस दिन अमित ने गरमगरम भोजन और बीवी की ठंडी बातों का स्वाद चखा.

दूसरे दिन वह शाम को छुट्टी होने पर दफ्तर से निकला, तो उस के साथ एक दोस्त भी था. दफ्तर में काम करते समय अमित ने सोचा था कि आज सीधे घर चला जाएगा, पर दोस्त के मिलने पर घर जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था.

दोनों दोस्तों ने पहले एक रैस्टोरैंट में चाय पी, फिर वे बाजार में घूमते रहे. आखिर में वे समुद्र के किनारे जा बैठे. शाम को सूरज के डूबने की लाली से सागर में कई रंग दिख रहे थे.

अमित का ध्यान टूटा. वही कल वाली लड़की उस के सामने खड़ी गजरा लेने के लिए कह रही थी.

अमित ने लड़की से गजरा ले लिया.

दोस्त ने कुछ हैरान हो कर कहा, ‘‘लगता है, भाभी आजकल खुश हैं.

खूब गजरे खरीद रहे हो.’’

अमित मुसकराया, ‘‘बस यों ही खरीद लिया है. अब चलें, काफी देर हो गई है.’’

अमित घर पहुंचा, तो उस की बीवी जैसे उस के ही इंतजार में बैठी थी. वह बोली, ‘‘आज तो बड़ी देर कर दी आप ने. सोच रही थी, जरा बाजार घूमने चलेंगे. आते हुए शीला के घर भी हो आएंगे.’’

अमित ने बगैर कुछ बोले ही जेब से गजरा निकाल कर उस की ओर बढ़ाया. बीवी ने बड़े चाव से गजरा लिया और सूंघा. फिर आईने के सामने खड़ी हो कर उसे जूड़े पर बांधने लगी.

अमित ने कपड़े उतारे, तो बीवी ने कपड़े ले कर सलीके से खूंटी पर टांग दिए. फिर तौलिया और पाजामा देते हुए वह बोली, ‘‘हाथमुंह धो लो. मैं रोटी बनाती हूं, गरमगरम खा लो, फिर बाजार चलेंगे.’’

अमित समझ नहीं पा रहा था कि बीवी में यह बदलाव कैसे आ गया. गजरा तो मामूली सी चीज है. कोई और ही बात होगी.

दिन बीतने लगे. अब अमित शाम को जल्दी घर चला आता. बीवी उसे देख कर खुश होती. जिंदगी ने एक नया रुख ले लिया था. अमित को लग रहा था कि बीवी में हर रोज बदलाव आ रहा है. उसे अपने में भी कुछ बदलाव होता महसूस हो रहा था.

अमित दफ्तर से घर आते समय एक दिन भी बीवी के लिए गजरा लेना नहीं भूला था. अब तो यह उस की आदत ही बन गई थी.

वैसे तो गजरे वाली और भी लड़कियां वहां होती थीं, पर अमित हमेशा उसी लड़की से गजरा खरीदता, जिस ने उसे पहले दिन गजरा दिया था.

एक दिन अमित चौक में बैठा सामने की इमारत को देख रहा था कि गजरे वाली लड़की आई. अमित ने रोज की तरह उस के हाथ से गजरा ले लिया. पैसे ले कर वह लड़की वहीं खड़ी रही.

अमित ने देखा, उस के चेहरे पर संकोच था, जैसे वह कुछ कहना चाहती है.

अमित ने उस की झिझक दूर करने के लिए पूछा, ‘‘कितने बिक गए अब तक?’’

‘‘4 बिक गए हैं. अभीअभी आई हूं. पर बाबूजी, आप के हाथ से बोहनी होने पर देखतेदेखते ही बिक जाते हैं.’’

‘‘फिर तो सब से पहले मुझे ही बेचा करो,’’ अमित ने कहा.

‘‘कभीकभी तो आप बहुत देर से आते हैं,’’ लड़की शिकायती लहजे में बोली.

अमित कुछ देर तक चुप रहा, फिर बोला, ‘‘कहां रहती हो?’’

लड़की ने बताया कि वह अपनी अंधी दादी के साथ एक झोंपड़ी में रहती है. झोंपड़ी के सामने 2 चमेली के पौधे हैं, जिन के फूलों से वह उस के लिए खास गजरा बनाती है.

‘‘अच्छा,’’ अमित बोला.

लड़की का चेहरा लाज से लाल हो गया. वह एक पल को चुप रही, फिर बोली, ‘‘तुम रोज गजरा खरीदते हो, इस का करते क्या हो?’’

अमित मुसकराया. फिर कुछ कहतेकहते वह चुप हो गया.

आखिर लड़की ने कहा, ‘‘अच्छा, मैं जाती हूं.’’

और अमित उसे तेज कदमों से जाते हुए देखता रहा.

अब अमित की अधिकतर शामें घर में ही बीतने लगी थीं. दोस्त शिकायत करते कि अब वह बहुत कम मिलता है, पर वह खुश भी था कि उस की घरेलू जिंदगी सुखद बन गई थी.

एक दिन अमित की बीवी ने उस के साथ सिनेमा देखने का मन बनाया. वह दोपहर को उस के दफ्तर पहुंची और दोनों सिनेमा देखने चल पड़े. सिनेमा से निकलने पर बीवी ने कहा, ‘‘चलो, आज सागर के किनारे चलते हैं. एक अरसा बीत गया इधर आए हुए.’’

वहां घूमते हुए अमित को गजरे वाली लड़की दिखाई दी. वह उस की तरफ ही आ रही थी. उस के हाथ में एक ही गजरा था, जो कलियों के बजाय फूलों का बना हुआ था.

लड़की के पास आने पर अमित ने कहा, ‘‘मैं हमेशा इसी लड़की से गजरा लिया करता हूं, क्योंकि यह मेरे लिए खासतौर पर मोटीमोटी कलियों का गजरा बना कर लाती है.’’

बीवी ने तीखी नजरों से लड़की को देखा, तो लड़की उस के सामने आंखें न उठा सकी.

गजरा लेने के लिए अमित ने हाथ बढ़ाया, तो लड़की ने हाथ का गजरा देने के बजाय अपनी साड़ी के पल्लू में बंधा एक गजरा निकाला. मोटीमोटी कलियों का बहुत बढि़या गजरा, जैसा कि वह रोज अमित को देती थी.

अमित का चेहरा खिल उठा, पर उस की बीवी तीखी नजरों से उस लड़की को देख रही थी.

अचानक अमित का ध्यान बीवी की ओर गया तो चौंका. उस ने फौरन लड़की के हाथ से गजरा ले लिया और जेब से पैसे निकाल कर उस की ओर बढ़ाए,

पर लड़की ने पैसे न लेते हुए उदास लहजे में कहा, ‘‘पिछली बार के बकाया पैसे मुझे आप को देने थे. हिसाब पूरा हो गया,’’ इतना कह कर वह एक तरफ को चली गई.

अमित की बीवी ने वहीं खड़ेखड़े जूड़े पर गजरा बांधा और अमित को दिखाते हुए पूछा, ‘‘देखो तो ठीक तरह से बंधा है न?’’

‘‘हां,’’ अमित ने पत्नी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आज के जूड़े में तो तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो.’’

‘‘खूबसूरत चीज हर जगह ही खूबसूरत लगती है,’’ पत्नी ने शोखी से कहा और मुसकराई, पर अमित के होंठों पर मुसकराहट न थी.

ऑक्सीमीटर: आखिर गुड्डो इतने दिनों से घर में क्यों बंद थी?

कई दिनों के बाद गुड्डो को बाजार में देख कर  बेबी ने उसे आवाज लगाई. इस के बाद गुड्डो ने बेबी को जो बताया, उस से बेबी के होश उड़ गए.

बाजार आज भी सुनसान था. 2 दुकानों को छोड़ कर… पहली लालाजी की किराने वाली और दूसरी तरुण कैमिस्ट वाले की. कोरोना काल में इन दोनों की ही चांदी थी.

कोरोना के चलते बिका हुआ माल वापस नहीं होगा, यह हर ग्राहक जानता था, फिर भी हर कोई माल ज्यादा लेने की फिराक में दिख रहा था, भले ही दवाएं ही सही.

लालाजी और तरुण को सांस लेने की भी फुरसत नहीं थी. तरुण के यहां औक्सीमीटर और लालाजी का दलिया आते ही खत्म हो जाता था. बाकी सामान का भी तकरीबन यही हाल था.

तरुण ने अपनी कैमिस्ट शौप के आगे परदे टांगने का एक प्लास्टिक का पाइप अड़ा रखा था. उस के आगे आने की हर किसी को मनाही थी. लोग कुछ दूर खड़े हो कर अपनी बारी का इंतजार करते थे.

सब के चेहरे पर मास्क चढ़ा होता था. किसीकिसी ने तो 2-2 मास्क लगा रखे होते थे. उन सभी के घर में कोई न कोई कोरोना का शिकार मरीज था.

एक दिन की बात है. तरुण की शौप पर भीड़ जमा थी. लोगों से कुछ दूरी पर कई गरीब बच्चे भी खड़े थे. भिखारी नहीं थे, पर लोगों से घर के लिए दूध, राशन, बिसकुट कुछ भी मिल जाए, मांग रहे थे.

उन्हें कोई 10 तो कोई 5 रुपए थमा देता. कोईकोई फटकार भी लगा देता, ‘‘घर पर तो हम से मरीज संभलते नहीं, इन की और सेवा करो.’’

उन बच्चों में शामिल थी 12 साल की बेबी. नहाने का कोई मतलब नहीं. उस ने मुंह तक नहीं धोया था. अगर थोड़ा बनसंवर जाती तो कोई एक रुपया न देता, इसीलिए वह सुबह उठते ही वहां आ गई थी.

सुबह के 6 बजे से ले कर 11 बजे तक लालाजी की दुकान खुलती थी, वह तब तक वहां लोगों से मांगती थी, उस के बाद तरुण कैमिस्ट के आगे जम जाती थी, जो शाम के 6 बजे तक खुलती थी. लौकडाउन जो लगा था शहर में.

बेबी बड़ी दुबलीपतली लड़की थी. सलवारसूट मानो जैसे उस के बदन पर लटका हुआ था. बाल बेतरतीब और चालढाल एकदम लाचारों जैसी, पर नजर एकदम तेज. लोगों की शक्ल देख कर भांप जाती कि कौन अपनी अंटी जल्दी ढीली करेगा. उसी के आगे ज्यादा गिड़गिड़ाती थी.

तभी बेबी की नजर अपनी बड़ी दीदी पायल की सहेली गुड्डो पर पड़ी. वह खुशी से खिल उठी और चिल्लाई, ‘‘गुड्डो दीदी, रुको तो सही…’’

गुड्डो भी बाजार में किसी काम से आई थी. मुड़ कर देखा तो हलके से मुसकरा दी. रुक कर एक दुकान के चबूतरे पर बैठ गई. बड़ी थकीथकी सी लग रही थी.

दरअसल, गुड्डो और पायल दोनों लोगों के घरों में  झाड़ूपोंछे का काम करती थीं. पायल ने तो कई घर पकड़ रखे थे, पर गुड्डो शर्माजी के घर पर परमानैंट नौकरानी थी.

अरे, वही 56 नंबर वाले शर्माजी, जो अपनी पत्नी नूतन के साथ 250 गज की कोठी में अकेले रहते हैं और उन के दोनों बेटे अमेरिका में सैटल हैं. गुड्डो उन्हें ‘पापाजी’ और ‘मम्मीजी’ बुलाती है.

‘‘दीदी, आप कई दिनों से दिखी नहीं… कहां थीं?’’ बेबी ने गुड्डो के पास धमक कर बैठते हुए पूछा. अब वह लोगों से मदद मांगना भूल गई थी.

‘‘कहीं नहीं, यहीं थी…’’ इतना बोलने में ही गुड्डो की सांस फूल गई. उस ने अपने सूखते गले को तर करने के लिए बोतल से थोड़ा पानी पीया और ढक्कन लगा कर बोतल बगल में रख दी.

बेबी ने ध्यान से देखा तो उस के होश उड़ गए. पिछले 15 दिन के भीतर ही गुड्डो के चेहरे का रंग उतर गया था. आंखों के नीचे काले गड्ढे और बदन चुसे हुए आम सा हो गया था.

दीदी तो ऐसी न थीं. जब भी उस से मिलती थीं तो हंसीमजाक करती थीं, पर अब ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने  15 साल की उम्र में बच्चा जन दिया हो.

बेबी की आंखों में उठते सवालों को सम झ कर गुड्डो ने बताया, ‘‘मु झे कोरोना हो गया था. पहले  2 दिन तो हलका बुखार और खांसी थी, फिर सांस लेने में थोड़ी दिक्कत होने लगी.

‘‘पापाजी ने जैसे मेरे लक्षण भांप लिए थे और मम्मीजी को कोने में ले जा कर धीरे से कुछ कहने लगे थे. मम्मीजी ने मु झे अजीब सी निगाहों से देखा और फिर जल्दी से पापाजी को ले कर घर से बाहर चली गईं…’’

‘‘हाय रे… कोरोना…’’ बेबी के मुंह से बस इतना ही निकला.

‘‘थोड़ी देर में मम्मीजी और पापाजी पड़ोस के सरदारजी डाक्टर को घर ले आए. उन्होंने मु झे चैक किया और इंगलिश में कुछ पापाजी को बोले.

‘‘पापाजी थोड़े चिंतित लगे और मु झ से बोले, ‘चल गुड्डो, अस्पताल…’

‘‘मैं सम झ नहीं पाई कि हलकी सी खांसी और बुखार में अस्पताल जाने की क्या जरूरत पड़ गई. पर पापाजी ने जो कह दिया, वह पत्थर की लकीर.

‘‘जैसी थी वैसी ही मैं गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी. इतने में मम्मीजी घर से भागती सी आईं, मु झे एक नया मास्क दिया और बोलीं, ‘इसे मत उतारना…’

‘‘थोड़ी ही देर में हम सरकारी अस्पताल में थे. वहां मेरा अजीब सा टैस्ट हुआ. नर्स ने मेरी नाक में एक सिलाई सी घुसा दी, तो गुदगुदी होने के साथ मैं ने छींक मार दी. पर, नर्स अपना काम कर चुकी थी.

‘‘इस के बाद पापाजी मु झे घर ले आए. तब तक मम्मीजी ने किचन के पीछे का कमरा मेरे लिए तैयार कर दिया था. फोल्डिंग चारपाई, गद्दा, चादर, तकिया, एक स्टूल, जिस पर पानी की बोतल रखी थी…’’

‘‘इतना सारा इंतजाम… क्या दीदी, कोरोना वाकई इतना खतरनाक है?’’ बेबी ने बीच में ही टोकते हुए पूछा.

‘‘मत पूछ बहन, मर कर बची हूं. अगर मम्मीजी और पापाजी…’’ इतना कहते ही गुड्डो रो पड़ी. खूब सुबकियां लीं.

बेबी भी भावुक हो गई. उस ने गुड्डो का हाथ थाम लिया.

गुड्डो थोड़ा संभली, फिर आगे बोली, ‘‘2 घंटे बाद पापाजी मेरे कमरे के बाहर आ कर खड़े हुए और दूर से ही बोले, ‘गुड्डो, अब कैसी तबीयत है?’

‘‘तब तक मेरी खांसी बढ़ गई थी और सांसें भी तेज चलने लगी थीं. दम सा घुट रहा था.

‘‘पापाजी ने एक थैली मु झे पकड़ाई और बोले, ‘जैसे बोलूं, वैसे ये दवाएं लेती रहना.’

‘‘मैं ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.’’

‘‘तो फिर दवा लेने से तुम ठीक हो गई?’’ बेबी ने सवाल दागा.

‘‘अरे, कहां… कोरोना ने तो अभी अपना असली रंग दिखाया ही नहीं था.  मेरी पूरी रात बेचैनी में कटी. लगा कि अब प्राण छूटे. सपने में गांव दिख रहा था, पर एकदम सुनसान. कोई नहीं बस मैं अकेली. चिल्लाऊं तो गले से आवाज न निकले.

‘‘अचानक मेरी नींद टूट गई. गला पानी मांग रहा था. मैं उठी तो एकदम चक्कर सा आया और मैं बिस्तर पर धड़ाम.’’

‘‘हाय मां…’’ बेबी बुदबुदाई.

‘‘सुबह उठी तो जैसे बदन में जान ही नहीं. पापाजी और मम्मीजी दूर खड़े दिखाई दिए. मेरी रुलाई फूट गई. फिर ऐसा लगा जैसे पापाजी दूर कहीं से बोल रहे हैं, ‘गुड्डो बेटी, हिम्मत कर. ले यह मशीन और अपनी उंगली पर लगा ले.’

‘‘मु झे कुछ होश नहीं था. पापाजी मेरे पास आए और किसी चीज से मेरे हाथ धोए, फिर एक छोटी सी मशीन मेरी बड़ी उंगली पर लगा दी.’’

‘‘उंगली की मशीन…? यह क्या बला है दीदी?’’ बेबी ने हैरानी से पूछा.

‘‘पता नहीं, क्या थी? चंद सैकंड में हटा कर पापाजी उस में कुछ देखने लगे, फिर मम्मीजी से कोई बात बोलने लगे.

‘‘मम्मीजी का ऐसा मायूस चेहरा मैं ने पहले कभी नहीं देखा था. वे किचन में गईं और एक कटोरी में दलिया ले आईं. मु झे देते हुए बोलीं, ‘थोड़ी देर में खा लेना. पूरा खत्म करना है.’

‘‘उस के बाद शुरू हुई असली कहानी. दोपहर को एक आदमी बड़ा सा सिलैंडर घर ले आया. उस पर कोई मशीन सी लगी थी और प्लास्टिक के एक पतले पाइप से मास्क जुड़ा था.

‘‘उस आदमी ने वह मशीन सैट की और मास्क मेरे मुंह पर लगा दिया. थोड़ी देर में मु झे लगा जैसे बदन में जान आ गई है. उस आदमी ने मेरे दाएं हाथ से ब्लड सैंपल लिया और कांच की पतली नली में भर कर ले गया.’’

‘‘खून निकाल लिया. यह कोरोना तो लोगों का खून चूस रहा है दीदी,’’ बेबी डर कर बोली.

‘‘खून क्या जान चूस लेता है. वह जो आदमी सिलैंडर लाया था न, उस ने थोड़ी देर बाद मेरी उंगली पर वही मशीन लगा दी, जो पापाजी ने लगाई थी.

‘‘फिर उस आदमी ने कुछ देखा और मेरी तरफ देख कर मुसकराया. मु झे सम झाते हुए बोला, ‘बेटी, इस सिलैंडर में औक्सीजन भरी है. कोरोना ने तेरे फेफड़ों पर हमला कर के तेरी औक्सीजन कम कर दी थी. अभी 92 पर है, जबकि होनी 94 से ज्यादा चाहिए… और यह जो छोटी सी मशीन है न, इसे औक्सीमीटर कहते हैं. औक्सीजन का लैवल नापने की डिबिया.

‘‘‘तेरे मुंह पर जो मास्क लगा है, वह तेरी औक्सीजन के लैवल को 94 से ऊपर रखेगा. अब अंकल और आंटी जैसा कहें, वही करती जाना. ठीक होना है न तु झे?’

‘‘हां…’’ मैं इतना ही बोल पाई.

‘‘उस के बाद क्या हुआ दीदी?’’ बेबी ने पूछा.

‘‘सच कहूं बेबी, मैं ने पापाजी और मम्मीजी जैसे इनसान नहीं देखे. इन  15 दिनों में उन्होंने अपनी सगी बेटी जैसी मेरी सेवा की. बेटी क्या पोती ही सम झ लो. कब क्या खाना है, कौन सी दवा लेनी है, औक्सीजन का लैवल कब चैक करना है, सब किया.

‘‘औक्सीमीटर तो जैसे मेरे भीतर नई जान फूंक देता था, जब उस में मेरा औक्सीजन लैवल 97-98 रहता था…’’

इतने में किसी ने तरुण से जोर से कहा, ‘‘तरुण भाई, जल्दी से एक औक्सीमीटर देना, एक मरीज को बहुत जरूरत है…’’

इतना सुनते ही गुड्डो उठ गई और बोली, ‘‘घर पर मम्मीजी और पापाजी चाय के लिए दूध का इंतजार कर रहे होंगे. फिर मु झे भी तो औक्सीमीटर से अपनी औक्सीजन चैक करनी है.

‘‘अभी थोड़ी कमजोरी है, पर जल्दी ही ठीक हो जाऊंगी. अपनी बहन को बोल देना कि गुड्डो अभी जिंदा है, जल्दी ही मिलेगी.’’

इतना कहते ही गुड्डो वहां से चली गई.

करकट: ताप्ती अपने घर को देखकर क्यों रोने लगी?

सुबह होते ही गांव में जैसे हाहाकार मच गया था. नदी में पानी का लैवल और बढ़ गया था जिस से गांव में पानी घुस आया था और वह लगातार बढ़ता जा रहा था. दूर नदी में पानी की धार देखते ही डर लगता था. सभी के घरों में अफरातफरी मची थी. लोग जैसे किसी अनहोनी से डरे हुए थे.

वैसे तो तकरीबन सभी के पास अपनीअपनी छोटीबड़ी नावें थीं, मगर इस भयंकर बहाव में जहाज तक के बह जाने का डर था, फिर भी जान बचाने के लिए निकलना तो था ही.

‘‘लगता है, फिर से मणिपुर बांध से पानी छोड़ा गया है…’’ लक्ष्मण बोल रहा था, ‘‘अब हमें यह जगह छोड़नी पड़ेगी.’’

‘‘तो चलो न, सोच क्या रहे हो…’’ उस की पत्नी ताप्ती जैसे पहले से तैयार बैठी थी, ‘‘लो, पहले मैं ही चावल की बोरी नाव में चढ़ा आती हूं.’’

तीनों बच्चे भी सामान की छोटीबड़ी पोटलियों को नाव पर लादने में लगे रहे. रसोई के बरतन, बालटी, कलश वगैरह नाव पर रखे जा चुके थे. कुछ सूखी लकडि़यां और धान की भूसी से भरा बोरा भी लद चुका था.

तीनों बच्चे नाव पर चढ़े पानी के साथ छपछप खेल रहे थे कि ताप्ती ने उन्हें डांटा, ‘‘तुम लोगों को कितनी बार कहा है कि पानी और आग के साथ खेल नहीं खेलते हैं.’’

‘‘हमें तैरना आता है मां…’’ बड़ा बेटा रिंकू हंसते हुए बोला, ‘‘देखना

मां, एक दिन मैं इसी नाव को खेते हुए बंगलादेश में सिलहट शहर चला जाऊंगा.’’

रिंकू की इस बात पर लक्ष्मण हंसने लगा. कभी वे दिन थे, जब वह अपने बालपन में ऐसे ही सपने पाला करता था. यह अलग बात थी कि वह उधर कभी जा नहीं पाया. कैसे जा सकता है किसी दूसरे देश में. वैसे, बराक इलाके का हर बच्चा पानी के साथ खेलतेतैरते ही तो बड़ा होता है.

अचानक तेज आवाज में होती बात से लक्ष्मण की तंद्रा टूटी. ताप्ती उस की विधवा मां से बहस कर रही थी, ‘‘तुम लोग जाओ न, मैं यहीं रह लूंगी. हम सभी एकसाथ निकल नहीं सकते. नाव भारी हो जाएगी. फिर हमारे पीछे कोई घर के छप्पर का करकट खोल ले जाएगा तो क्या होगा.

‘‘यह करकट बिलकुल नया है.

3-4 महीने ही तो हुए हैं इसे खरीदे हुए. पूरे 12,000 रुपए लग गए इस में. मैं इसे चोरों के भरोसे नहीं छोड़ सकती.’’

‘‘अरे नहीं, तुम लोग जाओ…’’ उस की सास बोल रही थी, ‘‘वहां बांध पर बच्चों को संभालने और खाना बनाने के लिए कोई तो होना चाहिए. मैं अकेली यहीं रह लूंगी. रात में पानी नहीं बढ़ा तो अब क्या बढ़ेगा. कितनी मुश्किल से पैसापैसा जोड़ कर लक्ष्मण ने यह करकट खरीदा है. अगर चोर इसे खोल ले गए, तो घर में खुले में रहना मुमकिन है क्या. धूपबारिश से बचाव कैसे होगा… मैं यहीं रहूंगी.’’

‘‘अरी मां, तुम जाओ तो सही,’’ ताप्ती अपनी सास को नाव की ओर तकरीबन धकेलते हुए बोली, ‘‘तुम बूढ़ी औरत, तुम्हारे सामने ही करकट खोल ले जाएंगे और तुम चिल्लाने के अलावा क्या कर पाओगी.

‘‘सारा गांव खाली पड़ा है. कौन आएगा बचाने? मैं कम से कम यह कटारी तो चला ही सकती हूं. कोई मेरे पास भी फटक नहीं पाएगा,’’ इतना कह कर उस ने बड़ा सा दांव निकाल कर दिखाया, तो सभी हंस पड़े.

आखिरकार लक्ष्मण अपने तीनों बच्चों और मां के संग नाव पर चढ़ गया. नाव खोल दी गई. नाव हलके से हिलोरें ले कर गहरी नदी की ओर बढ़ चली.

नदी के दूसरी तरफ ऊंचाई पर बसा शहर है, जहां लक्ष्मण कमाई करने अकसर जाता रहता है. उधर ही कहीं किसी आश्रय में कुछ दिन गुजारा करना होगा. नदी के उतरते ही वह वापस हो लेगा.

ऊपर आसमान में काले बादल फिर से डेरा जमाने की जुगत में लगे थे. अगर बारिश होने लगी तो गंभीर हालात पैदा हो जाएंगे.

नदी की लहरों से खेलतीलड़ती नाव डगमगाते हुए आगे बढ़ चली. बच्चे डरे से, कातर निगाहों से ओझल होती हुई मां को, फिर गांव को देखते रहे. छोटा बेटा तो सुबक ही पड़ा, तो उस की बहन उसे दिलासा देने लगी.

लक्ष्मण चप्पू को अपनी मजबूत बांहों में भर कर सावधानी से चला रहा था. चप्पू चलाते हुए वह चिल्लाया, ‘‘चुपचाप पड़े रहो. तुम्हारी मां बराक नदी की बहादुर बेटी है. उसे कुछ  नहीं होगा.’’

उफनती हुई बराक नदी में जैसे लक्ष्मण के सब्र और हिम्मत का इम्तिहान हो रहा था. उस की एक जरा सी गलती और लापरवाही नाव को धार में बहाने या जलसमाधि लेने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती. उसे जल्दी से उस पार पहुंचना था. नदी की लहरें जैसे उसे लीलने पर आमादा थीं. लहरों के थपेड़े उसे दिशा बदलने या उलटने की चेतावनी सी देते थे और वह अपने वजूद, अपने परिवार, अपनी नाव को सुरक्षित दिशा की ओर, सधे हाथ से खेता जा रहा था.

इस नदी को सामान्य दिनों में लक्ष्मण 20-25 मिनट में आसानी से पार कर लिया करता था. मगर वही नदी आज जब पूरी तरह भरी हुई अपने तटबंधों को पार कर गई थी, तो महासागर के समान दिख रही थी. 4 घंटे तक लगातार प्रलयंकर लहरों से लड़ते, नाव खेते हुए वह थका जा रहा था, फिर भी जैसे कोई अंदरूनी ताकत उसे आगे बढ़ते रहने को कह रही थी और अब वह शहर के एक घाट के किनारे पहुंच चुका था.

इसी के साथ हलकी बारिश भी शुरू हो चुकी थी. लक्ष्मण जल्दी से अपने परिवार और माल को समेट कर बाढ़ राहत केंद्र पहुंचा था. थकान और भूख से उस की हड्डीहड्डी हिल रही थी. बच्चों ने पोटलियों से चूड़ा और मूढ़ी निकाल फांकना शुरू कर दिया था. भोजन पता नहीं कब मिले. मिले या नहीं भी मिले. मां तो पीछे गांव में है. फिर खाना कौन बनाएगा और वह भी इस खुली जगह में? शायद राहत सामग्री बांटने वाले भोजन भी बांटें. मगर यह तो बाद की बात है. लक्ष्मण फिर उठ खड़ा हुआ. बादल छितर गए थे. बारिश रुक चुकी थी. दिन रहते वह ताप्ती को वापस ले आए तो बेहतर.

‘‘नहीं बेटा, मत जाओ…’’ बूढ़ी मां गिड़गिड़ा रही थी, ‘‘तुम बहुत थक गए हो. एक बार फिर वहां जाना और वापस आना काफी मुश्किल है. खतरा मोल मत लो, रुक जाओ बेटा.’’

‘‘अरी मां, तुम घबराती क्यों हो…’’ लक्ष्मण फीकी हंसी हंसते हुए बोला,

‘‘मैं बराक नदी का बेटा हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.’’

‘‘तुम ने कुछ खायापीया नहीं है,’’ मां मनुहार कर रही थी, ‘‘हम सभी तुम्हारे भरोसे हैं. तुम्हें कुछ हो गया तो हम भी जिंदा नहीं रह पाएंगे.’’

‘‘मां, तुम बेकार ही चिंता करती हो,’’ लक्ष्मण ने अपने बेटे के कटोरे से एक मुट्ठी मूढ़ी निकाल कर फांकते हुए बोला, ‘‘आतेजाते समय नाव खाली ही रहेगी, सो जल्दी वापस आ जाऊंगा…’’ और वह अपनी नाव के साथ दोबारा नदी में उतर पड़ा.

अब नदी में पानी का लैवल और बढ़ चुका था और बढ़ता ही जा रहा था. अनेक डूबे हुए गांव और घर दिखाई दे रहे थे. डूबे हुए घर में ताप्ती कैसे रह पाएगी, लक्ष्मण को तो जाना ही है. उस ने पतवार तेजी से चलानी शुरू कर दी. उसे रहरह कर ताप्ती का रंग बदलता अक्स दिखाई दे रहा था. मन में डर घुमड़ रहा था. पहली बार नई दुलहन के रूप में, दूसरी बार जब उस ने बड़े बेटे को जन्म दिया था, उस का मोहक रूप कितना चमक रहा था. खेत में धान लगाते और काटते, घर के छप्पर पर सब्जियों की लतर चढ़ाते वक्त उस का रूप अद्भुत होता था.

आह, उसे मौत के मुंह में कैसे छोड़ दे. उसे घर के करकट वाले छप्परों की चिंता है. जान बची, तो फिर आ जाएंगे लोहे के करकट. वैसे भी इस भयावह बाढ़ में चोरों को अपने प्राणों की परवाह नहीं होगी क्या, जो करकट खोल ले जाएंगे.

‘‘अरे बाप रे…’’ ताप्ती उसे अपने सामने पा कर हैरान थी, ‘‘तुम दिनभर बिना खाएपीए नाव चलाते रहे. शाम होने को आई है. क्या जरूरत थी जान पर खेलने की…’’

‘‘तो तुम्हें क्या करकट की रखवाली करने के लिए यहां छोड़ देता…’’ वह गुर्राया, ‘‘जल्दी चलो. नाव पर बैठो. अंधेरा होने के पहले वापस पहुंचना है.’’

सोचविचार करने और बहस की गुंजाइश न थी. ताप्ती को नाव पर बिठा कर लक्ष्मण वापस चल पड़ा. ताप्ती ने भी पतवार संभाल ली थी. नाव खेने का उस का भी अपना तजरबा था. नाव पर से अपने घर के चमकते करकट को हसरत भरी निगाहों से दूर होते वह देख रही थी. नाव अब नदी में उतर चुकी थी.

अंधेरा होने के पहले ही वे उस पार पहुंच चुके थे और इसी के साथ भयावह आंधीपानी आ चुका था. मगर बच्चे अपनी मां को सामने पा कर रो उठे.

पूरे हफ्ते मौसम खराब रहा. साथ ही, नदी का पानी पूरे उफान पर था. 8वें दिन से जब पानी उतरने लगा तो लक्ष्मण ने अपने गांव की ओर नाव का रुख किया. ताप्ती जबरदस्ती आ कर नाव में बैठ गई.

गांव में अपने घर के चमकते हुए लोहे के सफेद करकट को सहीसलामत देख वह खुशी से रो पड़ी. चोर इस बार उस के घर का करकट खोल कर नहीं ले जा सके थे.

कद: आखिर गोमा को शिंदे साहब क्यों पसंद नहीं थे

कहते हुए शिंदे साहब अपना पसीना पोंछते हुए ‘धप’ से सोफे में धंस गए. गोमा तिरछी नजरों से उन्हें एकटक देखता रहा. ‘लाल मुंह का बंदर… इस के खून में जरूर अंगरेजों का खून मिला होगा, नहीं तो ऐसा लाल भभूका मुंह नहीं हो सकता,’ गोमा सोचते हुए मुसकरा उठा.

शिंदे साहब की नजर गोमा पर पड़ी, तो उस की तिरछी नजर देख कर उन के तनबदन में आग लग गई. वे चिल्लाए, ‘‘अरे कैसा बेशर्म है तू, इतनी मार खा कर भी कोई असर नहीं हुआ?’’

शिंदे साहब को गुस्सा तो बहुत आ रहा था और इच्छा भी हो रही थी कि गोमा का खून कर दें, पर वे ऐसा नहीं कर सकते, यह बात वे दोनों जानते थे.

गोमा शराब पीता था, पर तनख्वाह मिलते ही… और वह भी 2 दिन तक. उस के बाद अगली तनख्वाह के मिलने तक शराब को मुंह नहीं लगाता था. लगाता भी कैसे? पैसे मिलते ही घर में खर्च के लिए कुछ पैसे दे कर एक बार जो पीने के लिए जाता, तो तीसरे दिन होश आने पर खुद को किसी नाले या गटर में पाता. फिर उसे साहब का और खुद का घर याद आता.

शिंदे साहब के घर पहुंचते ही हर महीने मेम साहब से पड़ने वाली नियमित डांट सुनने को मिलती कि पिछले 3 दिन से कहां रहे? यहां काम कौन करेगा? इस तरह शराब में धुत्त रहोगे तो साहब से कह कर पिटवाऊंगी.

मेम साहब मन ही मन भुनभुनाती रहतीं और गोमा चुपचाप अपना काम करता जाता मानो वे किसी और को सुना रही हों. इन के जैसे कितने ही साहब और मेम साहब के लिए गोमा काम कर चुका है. उन लोगों का गुजारा गोमा जैसे लोगों के बिना मुमकिन नहीं है.

अर्दली तो बहुत होते हैं, जिन में से आधे तो केवल भरती और गिनती के नाम पर होते हैं, गोमा जैसे पुराने और मंजे हुए तो बस 2-4 ही होते हैं, जो साहब व मेम साहब की सारी जरूरतें जानते हैं. तभी तो मेम साहब केवल धमकी दे कर रह जाती हैं.

साहब लोगों की बातें नौकर असली या नकली नशे की आड़ में ही तो उजागर कर सकते हैं. वैसे, गोमा की यह आदत भी नहीं थी कि वह साहब लोगों के बारे में इधरउधर चर्चा करे.

गोमा अपने काम से काम रखता था, इसलिए साहब या मेम साहब कैसे हैं या उन के स्वभाव के बारे में ज्यादा सोचता ही नहीं था. पर शिंदे साहब को पहली बार देखते ही उस का मन खराब सा हो गया था. उन की शक्ल से ले कर हर चीज, हर बात बनावटी और बेढंगी लगी थी.

शिंदे साहब का अजीब सा गोराभूरा रंग, कंजी आंखें, मोटे होंठ, भारीभरकम शरीर और बेवजह चिल्लाचिल्ला कर बात करने का तरीका कुछ भी अच्छा नहीं लगा था, इसीलिए उन से सामना न हो, इस बात का वह खयाल रखता था.

पर, उस दिन गोमा ने अपने पूरे होशोहवास में साहब के मुंह पर ऐसी बात कही थी क्योंकि मेम साहब उस से उलझी हुई

थीं और जब उस से सहन न हुआ, तो साहब व मेम साहब दोनों को देख कर ही बोला था.

गोमा सोचता है कि इन बड़े लोगों को रोज नियम से शाम को पीनी है, पूरे तामझाम के साथ. एक अर्दली बोतल खोलेगा, दूसरा भुने हुए काजू, पनीर के टुकड़े, नमकीन वगैरह लाता रहेगा.

2-4 अफसर अपनी बीवियों के साथ हर दिन मौजूद रहते थे.

‘‘मैडम, आप थोड़ी सी लीजिए न, फोर कंपनीज सेक.’’

‘‘न बाबा, हम को हमारा सौफ्ट ड्रिंक ही ठीक है. अपनी वाइफ को पिलाओ,’’ बड़े अफसर की बीवी अफसराना अंदाज में कहतीं.

दूसरी तरफ बड़े साहब इन की बीवी से इस तरह चोंच लड़ा रहे होते जैसे सुग्गा अपनी मादा से.

‘‘मोनाजी, आप तो मौडर्न हैं, कम से कम हमारे पैग को तो छू दीजिए,’’ कहतेकहते उन की नजरें मोनाजी के

पूरे जिस्म का सफर कर किसी ऐसे उभार पर टिक जातीं, जो उन्हें लुभावना लगता था.

गोमा मन ही मन सोच कर हंसता कि अगर कोई नया आदमी उस कमरे में आ जाए, तो उस के लिए यह पहचानना मुश्किल होगा कि कौन किस की बीवी है. सभी अपने पति को छोड़ दूसरे मर्दों से सटीं, हंसतींखिलखिलातीं, लाड़ लड़ाती मिलेंगीं. फिर मर्दों का तो क्या कहना, सारी बगिया के फूल तो उन के लिए हैं, कोई भी तोड़ लो.

शिंदे साहब गोमा पर जितना ही चिल्लाते या झल्लाते, उतना ही उन्हें हैरान करने में मजा आ रहा था. उस ने भी कोई झूठ थोड़े ही बोला था, ‘‘अपनी बीवी को संभाल नहीं पाते हैं और दुनिया वालों की बातों पर गुर्राते हैं.’’

गोमा ने तो कई बार मेम साहब और साहब के जूनियर रमेश को चोंच लड़ाते और इशारे करते देखा था. जब शिंदे साहब दौरे पर होते, तो उन दोनों की पौबारह रहती थी. एकलौते बेटे को बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा कर मिसेज शिंदे एकदम आजाद हो गई थीं.

पति के दौरे पर चले जाने के बाद तो मैदान एकदम साफ रहता. पर, एक मुसीबत तो फिर भी सिर पर होती थी. दिनभर रहने वाले अर्दली को भले ही काम न होने का कह कर विदा कर दें, पर रात को पहरे पर रहने वाला गार्ड तो 9 बजे आ धमकता था.

हालांकि रोज शाम को रमेश ‘इधर से जा रहा था, सोचा पूछ लूं कि कोई काम तो नहीं है’ कहते हुए आ जाता था. गार्ड के आते ही वे दोनों ऐसा बरताव करते, मानो चंद मिनट पहले ही मिले हों और रमेश हालचाल पूछ कर चला जाएगा.

मेम साहब बाजार का कुछ काम बता देती थीं. केवल एक चीज के लिए तो कभी भेजती नहीं थीं, लिस्ट बना कर देती थीं. आज भी एक चीज जो वे लाने को कह रही थीं, उस की ऐसी खास जरूरत नहीं थी.

गोमा ने कहा, ‘‘कुछ और चीजों का नाम लिख दीजिए, फिर चला जाऊंगा. एक चीज के पीछे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘अरे वाह, तुझे समय की फिक्र कब से होने लगी. जब पी कर 2 दिनों तक बेसुध पड़ा रहता है, तब समय का खयाल नहीं आता,’’ मेम साहब ने मुंह बनाते हुए जिस तरह कहा, गोमा अपनेआप को रोक न पाया और बोला, ‘‘पीते हैं तो अपने पैसे की, बड़े लोगों की तरह मुफ्त की नहीं.’’

‘‘ठीक है भई, तू शराब पी या कहीं पड़ा रहे, बस अब जा,’’ उन की आवाज में एक उतावलापन था, मानो गोमा को वहां से हटाना ही उन का मकसद था.

गोमा भी शब्दों के तीर छोड़ कर अब वहां से भागना ही चाह रहा था, पर मेम साहब के बरताव से मन में उलझन सी हो रही थी. गोमा को ज्यादा सोचना नहीं पड़ा, क्योंकि तभी रमेश की शानदार मोटरसाइकिल बंगले के अहाते में घुसी.

जब भी शिंदे साहब के घर कोई पार्टी होती, तो सारे इंतजाम रमेश को ही करने पड़ते थे. शिंदे साहब के हर आदेश को ‘यस सर’ कहते हुए वह इस तरह पूरा करता, मानो सिर पर अपने बौस के आदेश का बोझ नहीं, बल्कि फूलों का ताज हो.

पार्टी के दिन रमेश और मेम साहब के बीच हंसीमजाक, नैनमटक्का चलता रहता था. गोमा के अलावा और भी 3-4 अर्दली होते थे. पानी की तरह ‘ड्रिंक’ ले जाने, परोसने, स्नैक्स की प्लेटें ले जाने, चारों ओर घुमाघुमा कर सब को देने के लिए इतने नौकर तो चाहिए ही थे.

पार्टी के बीच अचानक शिंदे साहब के बौस के दिमाग में आइडिया का बल्ब जला. शाम की ‘डलनैस’ को दूर करने के लिए कोई मौडर्न ‘गेम’ खेलने का फुतूर.

‘‘अरे शिंदे, क्या पिलापिला कर ही मार डालोगे?’’

‘‘नो सर, आप कहें तो डिनर सर्व हो जाए?’’

‘‘होहो…’’ अट्टहास करते हुए बौस ने कहा, ‘‘तुम हो पूरे बेवकूफ और वही रहोगे. कभी दिल्लीमुंबई की ‘ऐलीट’ लोगों की पार्टी में शामिल होओगे,

तब समझ आएगा पार्टी का असली रंग और मजा.’’

‘‘जी सर,’’ शिंदे साहब बोले.

‘‘कुछ ‘थ्रिलिंग गेम’ हो जाए,’’ बौस ने कहा.

शिंदे साहब अपने बौस के चेहरे को उजबक की तरह ताकने लगे, कुछ देर पहले जब वे अपनी बीवी से कुछ कहने अंदर जा रहे थे और रमेश के साथ उन की प्रेमलीला देखी, तो उस से वे काफी आहत थे.

‘‘मैडम, अब आप अंदर जाइए, अच्छा नहीं लगता कि आप इस खादिम के साथ यहां रहें,’’ रमेश मेम साहब को चिढ़ाते हुए बोल रहा था.

‘‘यार रमेश, कम से कम अकेले में मुझे मैडम मत कहो,’’ शिंदे साहब की बीवी मचल कर बोलीं.

ऐसा कह कर मेम साहब हाल की तरफ जाने को पलट ही रही थीं कि शिंदे साहब पास ही दिखे.

‘‘क्या बात है डार्लिंग, थकेथके से लग रहे हो? अभी तो पार्टी पूरे शबाब पर भी नहीं आई है,’’ मेम साहब ने शिंदे साहब से पूछा.

शिंदे साहब मन ही मन बोले, ‘तुम तो हो अभी से पूरे शबाब पर,’ फिर रमेश की ओर देख कर रूखी आवाज में बोले, ‘‘गोमा या किसी और को समझा कर आप भी हाल में तशरीफ ले आइए.’’

उन की रूखी आवाज से रमेश को भला क्या फर्क पड़ता. छड़ा, कुंआरा बस मौजमस्ती चल रही है. ज्यादा से ज्यादा उस का तबादला हो जाएगा. वह तो वैसे भी कभी न कभी होना ही है.

‘‘तुम कब से गायब हो, क्या ऐसे अच्छा लगता है कि ‘होस्टेस’ अपने ‘गैस्ट्स’ का खयाल न रखे,’’ अपनी बीवी से कहते हुए शिंदे साहब की दबी आवाज में भी गुस्सा नजर आ रहा था.

‘‘गैस्ट्स के लिए तो सारा तामझाम कर रही हूं डार्लिंग, परेशान मत होइए. तुम्हारे बौस इतने खुश हो जाएंगे कि तुम भी क्या याद करोगे,’’ मेम साहब बोलीं.

उधर बौस के आदेश से थ्रिलिंग गेम ‘वाइफ स्वैपिंग’ की तैयारी में एक खूबसूरत डब्बों में सब की कारों की चाबियां डाल दी गई थीं.

गोमा साहबों और मेम साहबों के तरहतरह के चोंचले, सनकीपन और मूड से उसी तरह वाकिफ था, जिस तरह अपनी हथेली की लकीरों से. उसे किसी भी साहब या मेम साहब के लिए कोई दिली आदर न था और न ही उन से किसी तरह का डर लगता था. उस के कुछ उसूल थे, जिन का पालन वह पूरी ईमानदारी से करता था.

गोमा ने मन ही मन सोचा कि अगर उस की बीवी दूसरे आदमी के साथ इस तरह जाए, तो वह दोबारा उस का मुंह भी नहीं देखे. अगर उस का खुद का रिश्ता दूसरी औरत से हो जाए, तो उस की घरवाली भी उसे यों ही नहीं छोड़ देगी. गोमा के इसी स्वाभिमान ने तो उस के मुंह से वह कहलवाया, जो शिंदे साहब को बरदाश्त नहीं हुआ.

महीने का पहला हफ्ता था और हमेशा की तरह गोमा 3 दिन गायब रह कर चौथे दिन आया था. इस बीच रमेश को ले कर साहब और मेम साहब में तीखी नोकझोंक हुई. जब गोमा सामने आया, तो दोनों का बचाखुचा गुस्सा

उसी पर उतरा, वह भी ऐसा उतरा कि बिलकुल बेलगाम.

मेम साहब की जबान फिसलती गई, ‘‘फिर जा कर गिरा नाले में, तू नाले का कीड़ा ही बना रहेगा. किसी दिन यह शराब तुझे और तेरे घर को बरबाद कर देगी.

‘‘देखना, तेरी बीवी एक दिन तुझे छोड़ कर किसी और के साथ घर बसा लेगी. तुम्हारी जात में तो वैसे भी एक को छोड़ कर दूसरे के साथ बैठ जाना बुरा नहीं माना जाता.’’

इतना सुन कर गोमा मेम साहब के ठीक सामने आ गया और बोला, ‘‘हमारी जात? हमारी जात को कितना जानती

हैं आप? आप लोगों की ऊंची जात में होती होगी चीजों की तरह लुगाइयों की अदलाबदली. हम लोगों के घर बसाने में एक तमीज होती है. कोठे की बाई की तरह नहीं कि आज इस के साथ, कल उस के साथ और परसों तीसरे के साथ.’’

मेम साहब को तो जैसे सांप सूंघ गया. इसी बात का फायदा उठा कर गोमा फिर शुरू हो गया. लगा जैसे आज उस के मन में जो फोड़ा था, वह पक कर

फूट गया और सारा मवाद निकल रहा हो, ‘‘मैं तो महीने में 1-2 दिन ही पीता हूं. केवल इसलिए कि 2-3 दिन तक पैसे की तंगी, घर की चिंता से इतना दूर चला जाऊं कि अपनेआप को मैं खुशकिस्मत समझ सकूं.

‘‘पर, आप बड़े लोग तो रोज महंगी अंगरेजी शराब बहाते हैं अपनी खुशी, अपना फालतू पैसा दिखाने को. मैं तो शराब पी कर भी आप जैसे बड़े लोगों जैसी छोटी हरकत कभी नहीं करता…’’

तब से शिंदे साहब गोमा को पीटे जा रहे हैं, मानो बीवी का सारा गुस्सा उस पर उतार देंगे. उधर गोमा इतनी मार खा कर भी मन ही मन जीत की खुशी महसूस कर रहा था.

वह लड़की: आखिर गुमसुम क्यों थी दीपाली

दीपाली की याद आते ही आंखों के सामने एक सुंदर और हंसमुख चेहरा आ जाता है. गोल सा गोरा चेहरा, सुंदर नैननक्श, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और होंठों पर सदा रहने वाली हंसी.

असम आए कुछ ही दिन हुए थे. शहर से बाहर बनी हुई उस सरकारी कालोनी में मेरा मन नहीं लगता था. अभी आसपड़ोस में भी किसी से इतना परिचय नहीं हुआ था कि उन के यहां जा कर बैठा जा सके.

एक दोपहर आंख लगी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने कुछ खिन्न हो कर दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर और स्मार्ट सी असमी युवती खड़ी थी. हाथ में बड़ा सा बैग, आंखों पर चढ़ा धूप का चश्मा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती, वह बड़े ही अपनेपन से मुसकराती हुई भीतर की ओर बढ़ी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप नया आया है न?’’ तो मैं चौंकी फिर उस के बाद जो भी हिंदीअसमी मिश्रित वाक्य उस ने कहे वह बिलकुल भी मेरे पल्ले नहीं पड़े. लेकिन उस का व्यक्तित्व इतना मोहक था कि उस से बातें करना हमेशा अच्छा लगता था. उस की बातें सुन कर मैं ने पूछा, ‘‘आप सूट सिलती हैं?’’

‘‘हां, हां,’’ वह उत्साह से बोली तो एक सूट का कपड़ा मैं ने ला कर उसे दे दिया.

‘‘अगला वीक में देगा,’’ कह कर वह चली गई.

यही थी दीपाली से मेरी पहली मुलाकात. पहली ही मुलाकात में उस से एक अपनेपन का रिश्ता जुड़ गया. उस से मिल कर लगा कि पता नहीं कब से उसे जानती थी. यह दीपाली के व्यवहार, व्यक्तित्व का ही असर था कि पहली मुलाकात में बिना उस का नामपता पूछे और बिना रसीद मांगे हुए ही मैं ने अपना महंगा सूट उसे थमा दिया था. आज तक किसी अजनबी पर इतना विश्वास पहले नहीं किया था.

वह तो मीरा ने बाद में बताया कि उस का नाम दीपाली है और वह एक सेल्सगर्ल है. कितना सजधज कर आती है न. कालोनी की औरतों को दोगुने दाम में सामान बेच कर जाती है. मैं तो उसे दरवाजे से ही विदा कर देती हूं. दीपाली के बारे में ज्यादातर औरतों की यही राय थी.

मैं ने कभी दीपाली को मेकअप किए हुए नहीं देखा. सिर्फ एक लाल बिंदी लगाने पर भी उस का चेहरा दमकता रहता था. उस का हर वक्त खिल- खिलाना, हर किसी से बेझिझक बातें करना और व्यवहार में खुलापन कई लोगों को शायद खलता था. पर मस्तमौला सी दीपाली मुझे भा गई और जल्द ही वह भी मुझ से घुलमिल गई.

उस के स्वभाव में एक साफगोई थी. उस का मन साफ था. जितना अपनापन उस ने मुझ से पाया उस से कई गुना प्यार व स्नेह उस ने मुझे दिया भी.

‘आप इतना सिंपल क्यों रहता है?’ दीपाली अकसर मुझ से पूछती. काफी कोशिश करने पर भी मैं स्त्रीलिंगपुल्ंिलग का भेद उसे नहीं समझा पाई थी, ‘कालोनी में सब लेडीज लोग कितना मेकअप करता है, रोज क्लब में जाता है. मेरे से कितना मेकअप का सामान खरीदता है.’

अकसर लेडीज क्लब की ओर जाती महिलाओं के काफिले को अपनी बालकनी से मैं भी देखती थी. मेकअप से लिपीपुती, खुशबू के भभके छोड़ती उन औरतों को देख कर मैं सोचती कि कैसे सुबह 10 बजे तक इन का काम निबट गया होगा, खाना बन गया होगा और ये खुद कैसे तैयार हो गई होंगी.

दीपाली ने एक बार बताया था, ‘आप नहीं जानता. ये लेडीज लोग सब अच्छाअच्छा साड़ी पहन कर, मेकअप कर के क्लब चला जाता है और पीछे सारा घर गंदा पड़ा रहता है. 1 बजे आ कर जैसेतैसे खाना बना कर अपने मिस्टर लोगोें को खिलाता है. 4 नंबर वाली का बेटाबेटी मम्मी के जाने के बाद गंदी पिक्चर देखता है.’

मुझे दीपाली का इंतजार रहता था. मैं उस से बहुत ही कम सामान खरीदती फिर भी वह हमेशा आती. उसे हमारा खाना पसंद आता था और जबतब वह भी कुछ न कुछ असमी व्यंजन मेरे लिए लाती, जिस में से चावल की बनी मिठाई ‘पीठा’  मुझे खासतौर पर पसंद थी. मैं उसे कुछ हिंदी वाक्य सिखाती और कुछ असमी शब्द मैं ने भी उस से सीखे थे. अपनी मीठी आवाज में वह कभी कोई असमी गीत सुनाती तो मैं मंत्रमुग्ध हो सुनती रह जाती.

हमेशा हंसतीमुसकराती दीपाली उस दिन गुमसुम सी लगी. पूछा तो बोली, ‘जानू का तबीयत ठीक नहीं है, वह देख नहीं सकता,’ और कहतेकहते उस की आंखों में आंसू आ गए. जानू उस के बेटे का नाम था. मैं अवाक् रह गई. उस के ठहाकों के पीछे कितने आंसू छिपे थे. मेरे बच्चों को मामूली बुखार भी हो जाए तो मैं अधमरी सी हो जाती थी. बेटे की आंखों का अंधेरा जिस मां के कलेजे को हरदम कचोटता हो वह कैसे हरदम हंस सकती है.

मेरी आंखों से चुपचाप ढलक कर जब बूंदें मेरे हाथों पर गिरीं तो मैं चौंक पड़ी. मैं देर तक उस का हाथ पकड़े बैठी रही. रो कर कुछ मन हलका हुआ तो दीपाली संभली, ‘मैं कभी किसी के आगे रोता नहीं है पर आप तो मेरा अपना है न.’

मेरे बहुत आग्रह पर दीपाली एक दिन जानू को मेरे घर लाई थी. दीपाली की स्कूटी की आवाज सुन मैं बालकनी में आ गई. देखा तो दीपाली की पीठ से चिपका एक गोरा सुंदर सा लगभग 8 साल का लड़का बैठा था.

‘दीपाली, उस का हाथ पकड़ो,’ मैं चिल्लाई पर दीपाली मुसकराती हुई सीढि़यों की ओर बढ़ी. जानू रेलिंग थामे ऐसे फटाफट ऊपर चला आया जैसे सबकुछ दिख रहा हो.

‘यह कपड़ा भी अपनी पसंद का पहनता है, छू कर पहचान जाता है,’ दीपाली ने बताया.

‘जानू,’ मैं ने हाथ थाम कर पुकारा.

‘यह सुन भी नहीं पाता है ठीक से और बोल भी नहीं पाता है,’ दीपाली ने बताया.

वह बहुत प्यारा बच्चा था. देख कर कोई कह ही नहीं सकता कि उसमें इतनी कमियां हैं. जानू सोफा टटोल कर बैठ गया. वह कभी सोफे पर खड़ा हो जाता तो कभी पैर ऊपर कर के लेट जाता.

‘आप डरो मत, वह गिरेगा नहीं,’ दीपाली मुझे चिंतित देख हंसी. सचमुच सारे घर में घूमने के बाद भी जानू न गिरा न किसी चीज से टकराया.

जाते समय जानू को मैं ने गले लगाया तो वह उछल कर गोद में चढ़ गया. उस बेजबान ने मेरे प्यार को जैसे मेरे स्पर्श से महसूस कर लिया था. मेरी आंखें भर आईं. दीपाली ने उसे मेरी गोद से उतारा तो वह वैसे ही रेलिंग थामे सहजता से सीढि़यां उतर कर नीचे चला गया. दीपाली ने स्कूटी स्टार्ट की तो जा कर उस पर चढ़ गया और दोनों हाथों से मां की कमर जकड़ कर बैठ गया.

‘अब घर जा कर ही मुझे छोड़ेगा,’ दीपाली हंस कर बोली और चली गई.

मैं दीपाली के बारे में सोचने लगी. घंटे भर तक उस बच्चे को देख कर मेरा तो जैसे कलेजा ही फट गया था. हरदम उसे पास पा कर उस मां पर क्या गुजरती होगी, जिस के सीने पर इतना बोझ धरा हो. वह इतना हंस कैसे सकती है. जब दर्द लाइलाज हो तो फिर उसे चाहे हंस कर या रो कर सहना तो पड़ता ही है. दीपाली हंस कर इसे झेल रही थी. अचानक दीपाली का कद मेरी नजरों में ऊपर उठ गया.

एक दिन सुबहसुबह दीपाली आई. मेखला चादर में बहुत जंच रही थी. ‘आप हमेशा ऐसे ही अच्छी तरह तैयार हो कर क्यों नहीं आती हो?’ मैं ने प्रशंसा करते हुए कहा. इस पर दीपाली ने खुल कर ठहाका लगाया और बोली, ‘सजधज कर आएगा तो लेडीज लोग घर में नहीं घुसने देगा. उन का मिस्टर लोग मेरे को देखेगी न.’

मुझे तब मीरा की कही बात याद आई कि दीपाली के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो औरतों में ईर्ष्या जगाता था.

‘मैं भाग कर शादी किया था. मैं ऊंचा जात का था न अपना आदमी से. घर वाला लोग मानता नहीं था,’ दीपाली कभीकभी अपनी प्रेम कथा सुनाती थी.

जहां कालोनी में मेरी एकदो महिलाओं से ही मित्रता थी वहां दीपाली के साथ मेरी घनिष्ठता सब की हैरानी का सबब थी. जानू हमारे घर आता तो पड़ोसियों के लिए कौतूहल का विषय होता. एक स्थानीय असमी महिला से प्रगाढ़ता मेरे परिचितों के लिए आश्चर्यजनक बात थी.

जब दीपाली को पता चला कि हमारा ट्रांसफर हो गया है तो कई दिनों पहले से ही उस का रोना शुरू हो गया था, ‘आप चला जाएगा तो मैं क्या करेगा. आप जैसा कोई कहां मिलेगा,’ कहतेकहते वह रोने लगती. दीपाली जैसी सहृदय महिला के लिए हंसना जितना सरल था रोना भी उतना ही सहज था. दुख मुझे भी बहुत होता पर अपनी भावनाएं खुल कर जताना मेरा स्वभाव नहीं था.

आते समय दीपाली से न मिल पाने का अफसोस मुझे जिंदगी भर रहेगा. हमें सोमवार को आना था पर किन्हीं कारणवश हमें एक दिन पहले आना पड़ा. अचानक कार्यक्रम बदला. दोपहर में हमारी फ्लाइट थी. मैं सुबह से दीपाली के घर फोन करती रही. घंटी बजती  रही पर किसी ने फोन उठाया नहीं, शायद फोन खराब था. मैं जाने तक उस का इंतजार करती रही पर वह नहीं आई. भरे मन से मैं एअरपोर्ट की ओर रवाना हुई थी.

बाद में मीरा ने फोन पर बताया था कि दीपाली सोमवार को आई थी और हमारे जाने की बात सुन कर फूटफूट कर रोती रही थी. वह मुझे देने के लिए बहुत सी चीजें लाई थी, जिस में मेरा मनपसंद ‘पीठा’ भी था.

मैं ने कई बार फोन किया पर वह फोन शायद अब तक खराब पड़ा है. पत्र वह भेज नहीं सकती थी क्योंकि उसे न हिंदी लिखनी आती है न अंगरेजी और असमी भाषा मैं नहीं समझ पाती.

दीपाली का मेरी जिंदगी में एक खास मुकाम है क्योंकि उस से मैं ने हमेशा जीने की, मुसकराने की प्रेरणा पाई है. हमारे शहरों में बहुत ज्यादा दूरियां हैं पर अब भी वह मेरे दिल के बहुत करीब है और हमेशा रहेगी.

भागी हुई लड़की : छबीली के साथ क्या हुआ

सुबह का समय था. राजू सोया पड़ा था कि तभी किसी ने उसे झकझोर कर उठाया. सामने उस की मामी खड़ी थीं. मामी ने हांफते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है कि रात को छबीली घूरे के साले के साथ भाग गई.’’

राजू ने आंखें मिचमिचा कर देखा कि कहीं वह सपना तो नहीं देख रहा है. उस ने मामी से पूछा, ‘‘आप को किस ने बताया?’’ मामी बोलीं, ‘‘कौन बताएगा… पूरे गांव को पता चल गया है.’’

राजू को हैरानी हो रही थी. जब रात को वह अपनी मौसी के देवर के छत वाले कमरे में था, तो छबीली घूरे के साले कलुआ के साथ इधर से उधर भाग रही थी. तब उस ने सोचा था कि कोई काम होगा, क्योंकि गांव में रामलीला चल रही थी. उस में छबीली के पिता रावण का रोल करते थे और भाई मेघनाद का. सारा घर रामलीला देख रहा था. इतने में छबीली कलुआ के साथ नौ दो ग्यारह हो गई. लेकिन राजू की समझ में एक बात नहीं आ रही थी कि छबीली ने कलुआ में ऐसा क्या देखा, जो उस कालेकलूटे के साथ भाग गई.

छबीली गोरीचिट्टी, भरे बदन की थी. उसे देख कर कोई भी लड़का दिल दे बैठे. गोरे मुखड़े पर काली आंखें, गालों पर काला तिल, लंबी नाक उस पर गोल नथुनी. सुनहरे से बाल, जो कमर को छूते थे. फिर छबीली कलुआ के साथ क्यों भागी? राजू फटाफट बिस्तर से उठा. छबीली और कलुआ के घर गली

में थोड़ी दूरी पर थे, जो जहां हिंदुस्तानपाकिस्तान के बौर्डर जैसे हालात थे. कलुआ की बहन काली और छबीली की मां रामजनी के बीच शब्दों के गोले दागे जा रहे थे. काली कह रही थी, ‘‘अपनी बेटी को संभालो, तब मेरे भाई से कुछ कहना. जब लड़की दावत बांटती फिरे, तो लड़के खाएंगे ही. बड़ी आई कलुआ को बदनाम करने वाली.’’

इधर रामजनी का कहना था, ‘‘मेरी लड़की सीधीसादी है. उसे तो कलुआ ने बहका दिया होगा, वरना इतनी संस्कारी लड़की भाग क्यों जाती?’’ राजू को रामजनी की बात में दम लगा, क्योंकि छबीली को देख कर नहीं लगता था कि वह ऐसा कुछ कर डालेगी.

राजू तो पहले से ही गुस्सा था, ऊपर से छबीली रिश्ते में उस की मौसी लगती थी. राजू को कलुआ पर ज्यादा गुस्सा था, इस वजह से वह छबीली के घर वालों के गुट में जा मिला.

राजू ने छबीली के पिता को बताया कि रात को उस ने छबीली मौसी को कलुआ के साथ छत पर इधरउधर भागते हुए देखा था. छबीली का बाप मलूका पहले तो राजू पर गुस्सा हुआ, फिर बोला, ‘‘तू रात में नहीं बता सकता था? अगर रात में बता देता, तो इतनी नौबत ही न आती.’’

राजू बोला, ‘‘मुझे क्या पता था कि छबीली मौसी यह धमाका कर जाएंगी.’’ राजू को पता था कि कलुआ उस को उलटा पीट डालता, लेकिन मलूका की नजरों में इज्जत पाने के लिए उस ने ऐसा कहा था और ऐसा हुआ भी.

मलूका नरम पड़ कर राजू से बोला, ‘‘अच्छा, जो हुआ उसे छोड़. अब यह बता कि कलुआ छबीली को ले कर कहां गया होगा?’’ राजू ने तुक्का लगाते हुए कहा, ‘‘मैं ने सुना था कि वह किसी दोस्त के यहां जाने की बात कर रहा था.’’

लेकिन एक बात फिर भी आ लटकी कि कलुआ कौन से दोस्त के यहां गया होगा और दोस्त रहता कहां होगा? अब राजू इस बात पर अपना तुक्का नहीं लगा सकता था. इस वजह से वह चुप रहा.

सब लोग गाड़ी में बैठ कर कलुआ के गांव पहुंचे. वहां से कलुआ के एक दोस्त को पकड़ा, उसे दारू पिलाई, डरायाधमकाया, तब जा कर उस ने दोस्तों की डायरैक्टरी बता दी और घुमाने लगा दोस्तों के ठिकाने पर. एक जगह जा कर कलुआ का पता चला. एक दोस्त के कमरे में कलुआ छिपा बैठा था. छबीली उस की गोद में सिर रखे लेटी थी. दोनों अपनेअपने घर के लोगों की हालत पर सोच के घोड़े दौड़ा रहे थे. छबीली कह रही थी, ‘‘मेरी अम्मां तो मुझे सामने पा कर दो हिस्से कर डालेंगी.’’

वहीं उस की बात सुन कर कलुआ बोला, ‘‘मेरा जीजा मुझे देखे तो मेरा मुंह काले से लाल कर डालेगा.’’ तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई. दोनों बिजली के करंट लगे आदमी की तरह उठ खड़े हुए.

बाहर से आवाज आई, ‘‘दरवाजा खोलो.’’ आवाज मलूका की थी, जिसे दोनों प्यार के पंछी अच्छे से समझ गए थे.

मलूका फिर बोला, ‘‘दरवाजा खोल दो, नहीं तो तोड़ डालूंगा.’’ यह सुन कर दोनों प्रेमियों के दिल कांप उठे और फिर तभी छबीली की आंखों में गुस्से की आग जल उठी. उस ने कलुआ के दोस्त का रखा देशी कट्टा निकाल लिया और कलुआ को अपने पीछे कर दरवाजा

खोल दिया. लोग कमरे में घुसने ही वाले थे कि छबीली कट्टा तान कर बोली, ‘‘सब के सब भाग जाओ, नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगे.’’

लोगों ने यह बात सुन कर अपने कदम पीछे खींच लिए, तभी छबीली का भाई गोबर आगे बढ़ा. उस ने सोचा कि इज्जत जाने से अच्छा है जान चली जाए. वह छबीली के सामने आ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘चला गोली…’’ छबीली पर आज इश्क का भूत सवार था. उस ने कट्टे का निशाना गोबर के सीने पर लगाया और ट्रिगर दबा दिया. जैसे ही ट्रिगर दबा, लोगों ने आंखें बंद कर लीं. लेकिन यह क्या… कट्टे से गोली चली ही नहीं. होती जो चलती.

मलूका ने आगे बढ़ कर छबीली के बाल पकड़ लिए और कमरे से घसीटते हुए बाहर ले आया. कलुआ की हालत पतली हुई. गोबर ने गुस्से में आ कर कलुआ के लातें बजा दीं. लोगों ने गोबर को समझाया कि यह मर गया, तो केस हो जाएगा. लड़की मिल गई, चलो अपने घर.

सभी लोग छबीली को ले घर आ गए. छबीली को देख उस की मां रामजनी उसे चप्पल से पीटने लगीं. महल्ले की औरतों ने जैसेतैसे छबीली को छुड़ाया. सब के शांत हो जाने के बाद तय हुआ कि छबीली की शादी तुरंत कर दी जाए. सारे रिश्तेदारों को खबर कर दी गई. लेकिन मुसीबत कहां थमने वाली थी. कोई भी अच्छा लड़का उस से शादी करने को तैयार नहीं होता था.

लेकिन तभी एक रिश्तेदार ने खबर दी कि उन के महल्ले में एक लड़का है, जो छबीली से शादी कर सकता है. लेकिन लड़का मोटा था, साथ ही छबीली से ज्यादा उम्र का था. पर शादी तो करनी ही थी, दामन पर लगा दाग जो छुड़ाना था. बात पक्की हो गई. बड़ी मुश्किल से छबीली की शादी की रस्में पूरी हुईं. वह चुपचाप मंडप में बैठी रही. उसे शादी में मजा नहीं आ रहा था. उस की आंखें तो सिर्फ कलुआ की सूरत देखना चाहती थीं.

शादी निबट चुकी थी. छबीली विदा होने को हुई, मां रामजनी का दिल भर आया. दोनों मांबेटी लिपट कर खूब रोईं. मां रामजनी ने कसम दी और बोलीं, ‘‘बेटी, अब जैसा भी है, मंजूर करो. पुरानी बातें गलती समझ कर भुला डालो. शायद तुम्हारी शादी अच्छी जगह करते, लेकिन तुम्हें जमाने का हाल तो पता ही है. हम मजबूर हैं. हमें माफ करना. अब किसी को शिकायत का मौका न देना.’’

छबीली बोली, ‘‘मां, तुम्हें कभी दुख न दूंगी. अब ससुराल से केवल मर के ही वापस आऊंगी. तुम मेरी चिंता मत करना. भूल जाओ और मेरा कहासुना भी माफ करना.’’ मन के सारे दाग धुल चुके थे. राजू की आंखें भी नम थीं. सोचता था कि प्यार इनसान को कितना सुधार देता है और बिगाड़ भी सकता है. छबीली के बाप मलूका की आंखें भी बेटी को विदा होते देख नम थीं.

छबीली अपनी ससुराल चली गई. कलुआ फिर कभी उस गांव में नहीं आया. छबीली भी शायद उसे भूलती जा रही थी. आज वह एक बच्चे की मां थी. आज सबकुछ शांत सा है, जैसे कुछ हुआ ही न हो. लेकिन इतिहास की कई परतें, कई कहानियां लिए मौजूद हैं, लेकिन उन्हें कुरेदे कौन. सब अपने में मसरूफ हैं. परंतु राजू के दिमाग में यह अभी भी वैसा ही है, जैसा तब था.

मोड़ ऐसा भी: जब बहन ने ही छीन लिया शुभा का प्यार

मां मुझ से पहले ही अपने दफ्तर से आ चुकी थीं. वह रसोईघर में शायद चाय बना रही थीं. मैं अपना बैग रख कर सीधी रसोईघर में ही पहुंच गई. मां अनमनी थीं. ऐसा उन के चेहरे से साफ झलक रहा था. फिर कुछ अनचाहा घटा है, मैं ने अनुमान लगा लिया. लड़के वालों की ओर से हर बार निराशा ही उन के हाथ लगी है. मैं ने जानबूझ कर मां की उदासी का कारण न पूछा क्योंकि दुखती रग पर हाथ धरते ही वे अपना धैर्य खो बैठतीं और बाबूजी को याद कर के घंटों रोती रहतीं.

मां ने मेरी ओर बिना देखे ही चाय का प्याला आगे बढ़ा दिया, जिसे थामे मैं बरामदे में कुरसी पर आ बैठी. मां अपने कमरे में चली गई थीं. विषाद से मन भर उठा. पिछले 4 साल से मां मेरे लिए वर की खोज में लगी थीं, लेकिन अभी तक एक अदद लड़का नहीं जुटा पाई थीं कि बेटी के हाथ पीले कर संतोष की सांस लेतीं.

मां अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में नहीं थीं. अपने ब्राह्मणत्व का दर्प उन्हें किसी मोड़ पर संधि की स्थिति में ही नहीं आने देता था. मेरी अच्छीखासी नौकरी और ठीकठाक रूपरंग होते हुए भी विवाह में विलंब होता जा रहा था. जो परिवार मां को अच्छा लगता वह हमें अपनाने से इनकार कर देता और जिन को हम पसंद आते, उन्हें मां अपनी बेटी देने से इनकार कर देतीं.

शहर बंद होने के कारण मैं सड़क पर खड़ीखड़ी बेजार हो चुकी थी. कोई रिकशा, बस, आटोरिकशा आदि नहीं चल रहा था. घर से मां ने वनिता की मोपेड भी नहीं लाने दी, हालांकि वनिता का कालेज बंद था. मुझे दफ्तर पहुंचना था, कई आवश्यक काम करने थे. न जाती तो व्यर्थ ही अफसर की कोपभाजन बनती. इधरउधर देखा, कोई जानपहचान का न दिखा. घड़ी पर निगाह गई तो पूरा 1 घंटा हो गया था खड़ेखड़े. मैं सामने ही देखे जा रही थी. अचानक स्कूटर पर एक नौजवान आता दिखा. वह पास आता गया तो पहचान के चिह्न उभर आए. ‘यह तो शायद उदयन…हां, वही था. मेरे साथ कालेज में पढ़ता था, वह भी मुझे पहचान गया. स्कूटर रेंगता हुआ मेरे पास रुक गया.

‘‘उदयन,’’ मैं ने धीरे से पुकारा.

‘‘शुभा…तुम यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’’

‘‘बस स्टाप पर क्या करते हैं? दफ्तर जाने के लिए खड़ी थी, लेकिन लगता नहीं कि आज जा पाऊंगी?’’

‘‘आज कितने अरसे बाद दिखी हो तुम, शहर बंद न होता तो शायद आज भी नहीं…’’ कह कर वह हंसने लगा.

‘‘और तुम…बिलकुल सही समय पर आए हो,’’ कह कर मैं उस के पीछे बैठने का संकेत पाते ही स्कूटर पर बैठ गई. रास्ते भर उदयन और मैं कालेज से निकलने के बाद का ब्योरा एकदूसरे को देते रहे. वह बीकौम कर के अपना व्यवसाय कर रहा था और मैं एमकौम कर के नौकरी करने लगी थी. मेरा दफ्तर आ चुका था. वह मुझे उतार कर अपने रास्ते चला गया.

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गोराचिट्टा, लंबी कदकाठी के सम्मोहक व्यक्तित्व का स्वामी उदयन कितने बरसों बाद मिला था. कालेज के समय कैसा दुबलापतला सरकंडे सा था. मैं उसे भूल कर दफ्तर के काम में उलझ गई. होश में तब आई जब छुट्टी का समय हुआ. ‘अब जाऊंगी कैसे घर लौट कर?’ सोचती हुई बाहर निकल ही रही थी कि सामने गुलमोहर के पेड़ तले स्कूटर लिए उदयन खड़ा दिखाई दिया. उस ने वहीं से आवाज दी, ‘‘शुभा…’’

‘‘तुम?’’ मैं आश्चर्य में पड़ी उस तक पहुंच गई.

‘‘तुम्हें काम था कोई यहां?’’

‘‘नहीं, तुम्हें लेने आया हूं. सोचा, छोड़ तो आया लेकिन घर जाओगी कैसे?’’

मैं आभार से भर उठी थी. उस दिन के बाद तो रोज ही आनाजाना साथ होने लगा. हम साथसाथ घूमते हुए दुनिया भर की बातें करते. एक दिन उदयन घर आया तो मां को  उस का विनम्र व्यवहार और सौम्य  व्यक्तित्व प्रभावित कर गए. छोटी बहन वनिता बड़े शरमीले स्वभाव की थी, वह तो उस के सामने आती ही न थी. वह आता और मुझ से बात कर के चला जाता. मैं वनिता को चाय बना कर लाने के लिए कहती, लेकिन वह न आती.

एक बात मैं कितने ही दिनों से महसूस कर रही थी. मुझे बारबार लगता कि जैसे उदयन कुछ कहना चाहता है, लेकिन कहतेकहते जाने क्या सोच कर रुक जाता है. किसी अनकही बात को ले कर बेचैन सा वह महीनों से मेरे साथ चल रहा था.

एक दिन उदयन मुझे स्कूटर से उतार कर चलने लगा तो मैं ने ही उसे घर में बुला लिया, ‘‘अंदर आओ, एक प्याला चाय पी कर जाना.’’ वह मासूम बालक सा मेरे पीछेपीछे चला आया. मां घर में नहीं थीं और वनिता भी कालेज से नहीं आई थी. सो चाय मैं ने बनाई. चाय के दौरान, ‘शुभा एक बात कहूं’ कहतेकहते ही उसे जोर से खांसी आ गई. गले में शायद कुछ फंस गया था. वह बुरी तरह खांसने लगा. मैं दौड़ कर गिलास में पानी ले आई और गिलास उस के होंठों से लगा कर उस की पीठ सहलाने लगी. खांसी का दौर समाप्त हुआ तो वह मुसकराने की कोशिश करने लगा. आंखों में खांसी के कारण आंसू भर आए थे.

‘‘उदयन, क्या कहने जा रहे थे तुम? अरे भई, ऐसी कौन सी बात थी जिस के कारण खांसी आने लगी?’’

सुन कर वह हंसने लगा, ‘‘शुभा…मैं तुम्हारे बिना नहीं रह…’’ अधूरा वाक्य छोड़ कर नीचे देखने लगा और मैं शरमा कर गंभीर हो उठी और लाज की लाली मेरे मुख पर दौड़ गई.

‘‘उदयन, यही बात कहने के लिए तो मैं न जाने कब से सोच रही थी,’’ धीरे से कह कर मैं ने उस के प्रेम निवेदन का उत्तर दे दिया था. दोनों अपनीअपनी जगह चुप बैठे रहे थे. लग रहा था, इन वाक्यों को कहने के लिए ही हम इतने दिनों से न जाने कितनी बातें बस ऐसे ही करे जा रहे थे. एकदूसरे से दृष्टि मिला पाना कैसा दूभर लग रहा था.

शाम खुशनुमा हो उठी थी और अनुपम सुनहरी आभा बिखेरती जीवन के हर पल पर उतर रही थी. मौसम का हर दिन रंगीन हो उठा था. मैं और उदयन पखेरुओं के से पंख लगाए प्रीति के गगन पर उड़ चले थे. हम लोग एक जाति के नहीं थे, लेकिन आपस में विवाह करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे.

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झरझर बरसता सावन का महीना था. चारों ओर हरियाली नजर आ रही थी. पत्तों पर टपकती जल की बूंदें कैसी शरारती लगने लगती थीं. अकेले में गुनगुनाने को जी करता था. उदयन का साथ पा कर सारी सृष्टि इंद्रधनुषी हो उठती थी.

‘‘सोनपुर चलोगी…शुभा?’’ एक दिन उदयन ने पूछा था.

‘‘मेला दिखाने ले चलोगे?’’

‘‘हां.’’

मां हमारे साथ जा नहीं सकती थीं और अकेले उदयन के साथ मेरा जाना उन्हें मंजूर नहीं था. अत: मैं ने वनिता से अपने साथ चलने को कहा तो उस ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘पगली, घर से कालेज और कालेज से घर…यही है न तेरी दिनचर्या. बाहर निकलेगी तो मन बहल जाएगा,’’ मैं ने उसे समझा कर तैयार कर लिया था. हम तीनों साथ ही गए थे. मैं बीच में बैठी थी, उदयन और वनिता मेरे इधरउधर बैठे थे, बस की सीट पर. इस यात्रा के बीच वनिता थोड़ाबहुत खुलने लगी थी. उदयन के साथ मेले की भीड़भाड़ में हम एकदूसरे का हाथ थामे घूमते रहे थे.

उदयन लगभग रोज ही हमारे घर आता था, लेकिन अब हमारी बातों के बीच वनिता भी होती. मैं सोचती थी कि उदयन बुरा मानेगा कि हर समय छोटी बहन को साथ रखती है. इसलिए मैं ने एक दिन वनिता को किसी काम के बहाने दीपा के घर भेज दिया था, लेकिन थोड़ी देर वनिता न दिखी तो उदयन ने पूछ ही लिया, ‘‘वनिता कहां है?’’

‘‘काम से गई है, दीपा के घर,’’ मैं ने अनजान बनते हुए कह दिया. उस दिन तो वह चला गया, लेकिन अब जब भी आता, वनिता से बातें करने को आतुर रहता. यदि वह सामने न आती तो उस के कमरे में पहुंच जाता. मैं ने उदयन से शीघ्र शादी करने को कहा था, लेकिन वह कहां माना था, ‘‘अभी क्या जल्दी है शुभा, मेरा काम ठीक से जम जाने दो…’’

‘‘कब करेंगे हम लोग शादी, उदयन?’’

‘‘बस, साल डेढ़साल का समय मुझे दे दो, शुभा.’’

मैं क्या कहती, चुप हो गई…मेरी भी तरक्की होने वाली थी. उस में तबादला भी हो सकता था. सोचा, शायद दोनों के ही हित में है. अब जब भी उदयन आता, वनिता उस से खूब खुल कर बातें करती. वह मजाक करता तो वह हंस कर उस का उत्तर देती थी. धीरेधीरे दोनों भोंडे मजाकों पर उतर आए. मुझ से सुना नहीं जाता था. आखिर कहना ही पड़ा मुझे, ‘‘उदयन, अपनी सीमा मत लांघो, उस लड़की से ऐसी बातें…’’

मेरी इस बात का असर तो हुआ था उदयन पर, लेकिन साली के रिश्ते की आड़ में उस ने अपने अनर्गल बोलों को छिपा दिया था. अब वह संयत हो कर बोलता था, फिर भी कहीं न कहीं से उस का अनुचित आशय झलक ही जाता. वनिता को मेरा यह मर्यादित व्यवहार करने का सुझाव अच्छा न लगा. मैं दिन पर दिन यही महसूस कर रही थी कि वनिता उदयन की ओर अदृश्य डोर से बंधी खिंची चली जा रही है. उदयन से कहा तो वह यही बोला था, ‘‘शुभा, यह तुम्हारा व्यर्थ का भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं है जिस पर तुम्हें आपत्ति हो.’’

छुट्टी का दिन था, मां घर पर नहीं थीं. वनिता, दीपा के घर गई थी. अकेली ऊब चुकी थी मैं, सोचा कि घर की सफाई करनी चाहिए. हफ्ते भर तो व्यस्तता रहती है. मां की अलमारी साफ कर दी, फिर अपनी और फिर वनिता की. किताबें हटाईं ही थीं कि किसी पुस्तक से उदयन का फोटो मेरे पांव के पास आ गिरा. फोटो को देखते ही मेरा मन कैसी कंटीली झाड़ी में उलझ गया था कि निकालने के सब प्रयत्न व्यर्थ हो गए. लाख कोशिशों के बावजूद क्या मैं अपने मन को समझा पाई थी, पर मेरी आशंका गलत कहां थी? वनिता शाम को लौटी तो मैं ने उसे समझाने की चेष्टा की थी, ‘‘देख वनिता, क्यों उदयन के चक्कर में पड़ी है? वह शादी का वादा तो किसी और से कर चुका है.’’

जिस बहन के मुख से कभी बोल भी नहीं फूटते थे, आज वह यों दावानल उगलने लगेगी, ऐसा तो मैं ने सोचा भी नहीं था. वनिता गुस्से से फट पड़ी, ‘‘क्यों मेरे पीछे पड़ी हो दीदी, हर समय तुम इसी ताकझांक में लगी रहती हो कि मैं उदयन से बात तो नहीं कर रही हूं.’’

‘‘मैं क्यों ताकझांक करूंगी, मैं तो तुझे समझा रही हूं,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘क्या समझाना चाहती हो मुझे, बोलो?’’

क्या कहती मैं? चुप ही रही. सोचने लगी कि आज वनिता को क्या हो गया है. इस का मुख तो ‘दीदी, दीदी’ कहते थकता नहीं था, आज यह ऐसे सीधी पड़ गई.

‘‘देख वनिता, तुझे क्या मिल जाएगा उदयन को मुझ से छीन कर,’’ मैं ने सीधा प्रश्न किया था.

‘‘किस से? किस से छीन कर?’’ वह वितृष्णा से भर उठी थी, ‘‘मैं ने किसी से नहीं छीना उसे, वह मुझे मिला है. फिर तुम उदयन को क्यों नहीं रोकतीं? मैं बुलाती हूं क्या उसे?’’ उस ने तड़ाक से ये वाक्य मेरे मुख पर दे मारे. अंधे कुएं में धंसी जा रही थी मैं. मां बुलाती रहीं खाने के लिए, लेकिन मैं सुनना कहां चाहती थी कुछ… ‘‘मां, सिर में दर्द है,’’ कह कर किसी तरह उन से निजात पा गई थी, लेकिन वह मेरे बहानों को कहां अंगीकार कर पाई थीं.

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‘‘शुभा, क्या हुआ बेटी, कई दिन से तू उदास है.’’

मेरी रुलाई फूट पड़ी थी. रोती रही मैं और वे मेरा सिर दबाती रहीं. क्या कहती मां से? कैसे कहती कि मेरी छोटी बहन ने मेरे प्यार पर डाका डाला है…और क्या न्याय कर पातीं वे इस का. उन के लिए तो दोनों बेटियां बराबर थीं.

वनिता ने मेरे साथ बोलचाल बंद कर दी थी. उदयन ने भी घर आना छोड़ दिया था. हम दोनों बहनों की रस्साकशी से तंग आ कर वह किनारे हो गया था. मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. अजीब हाल था मेरा. रुग्ण सी काया और संतप्त मन लिए बस जी रही थी मैं. दफ्तर में मन नहीं लगता था और घर में वनिता का गरूर भरा चेहरा देख कर कितने अनदेखे दंश खाए थे अपने मन पर, हिसाब नहीं था मेरे पास. तनाव भरे माहौल को मां टटोलने की कोशिश करती रहतीं, लेकिन उन्हें कौन बताता.

‘‘वनिता, तू ने मुझ से बोलना क्यों बंद कर रखा है?’’ एक दिन मैं हारी हुई आवाज में बोली थी. सोचा, शायद सुलह का कोई झरोखा मन के आरपार देखने को मिल जाए, समझानेबुझाने से वनिता रास्ते पर आ जाए क्योंकि मुझे लगता था कि मैं उदयन के बिना जी नहीं पाऊंगी.

‘‘क्या करोगी मुझ से बोल कर, मैं तो उदयन को छीन ले गई न तुम से.’’

‘‘क्या झूठ कह रही हूं?’’

‘‘बिलकुल सच कहती हो, लेकिन मेरा दोष कितना है इस में, यह तुम भी जानती हो,’’ उस का सपाट सा उत्तर मिल गया मुझे.

‘‘तो तू नहीं छोड़ेगी उसे?’’ मैं ने आखिरी प्रश्न किया था.

‘‘मुझे नहीं पता मैं क्या करूंगी?’’ कहती हुई वह घर से बाहर हो गई.

मैं ने इधरउधर देखा था, लेकिन वह कहीं नजर न आई. मुझे डर लगने लगा था. दौड़ कर मैं दीपा के घर पहुंची. वहां जा कर जान में जान आई क्योंकि वनिता वहीं थी.

‘‘तुम दोनों बहनों को क्या हो गया है? पागल हो गई हो उस लड़के के पीछे,’’ दीपा क्रोध में बोल रही थी. वह मुझे समझाती रही, ‘‘देखो शुभा, उदयन वनिता को चाहने लगा है और यह भी उसे प्यार करती है. ऐसी स्थिति में तू रोक कैसे सकती है इन्हें? पगली, तू कहां तक रोकबांध लगाएगी इन पर? यदि तू उदयन से विवाह भी कर लेगी तब भी इन का प्यार नहीं मिट पाएगा बल्कि और बढ़ जाएगा. जीवन भर तुझे अवमानना ही झेलनी पड़ेगी. तू क्यों उदयन के लिए परेशान है? वह तेरे प्रति ईमानदार ही होता तो यह विकट स्थिति आती आज?’’

रात भर जैसे कोई मेरे मन के कपाट खोलता रहा कि मृग मरीचिका के पीछे कहां तक दौड़ूंगी और कब तक? उदयन मेरे लिए एक सपना था जो आंख खुलते ही विलीन हो गया, कभी न दिखने के लिए.

एक दिन मां ने कहा, ‘‘बेटी, उदयन डेढ़ साल तक शादी नहीं करना चाहता था, अब तो डेढ़ साल भी बीत गया?’’ उन्होंने अंतर्जातीय विवाह की मान्यता देने के पश्चात चिंतित स्वर में पूछा था.

‘‘मां, अब करेगा शादी…वह वादा- खिलाफी नहीं करेगा.’’

शादी की तैयारियां होने लगी थीं. मैं ने दफ्तर से कर्ज ले लिया था. मां भी बैंक से अपनी जमापूंजी निकाल लाई थीं. कार्ड छपने की बारी थी. मां ने कार्ड का विवरण तैयार कर लिया था, ‘शुभा वेड्स उदयन.’

मैं ने मां के हाथ से वह कागज ले लिया. वह निरीह सी पूछने लगीं, ‘‘क्यों, अंगरेजी के बजाय हिंदी में कार्ड छपवाएगी?’’

‘‘नहीं, मां नहीं, आप ने तनिक सी गलती कर दी है…’’ ‘वनिता वेड्स उदयन’ लिख कर वह कागज मैं ने मां को लौटा दिया.

‘‘क्या…? यह क्या?’’ मां हक्की- बक्की रह गई थीं.

‘‘हां मां, यही…यही ठीक है. उदयन और वनिता की शादी होगी. मेरी मंजिल तो अभी बहुत दूर है. घबराते नहीं मां…’’ कह कर मैं ने मां की आंखों से बहते आंसू पोंछ डाले.

स्पेनिश मौस: क्या अमेरिका में रहने वाली गीता अपनी गृहस्थी बचा पाई?

‘‘आप यह नहीं सोचना कि मैं उन की बुराई कर रही हूं, पर…पर…जानती हैं क्या है, वे जरा…सामाजिक नहीं हैं.’’

उस महिला का रुकरुक कर बोला गया वह वाक्य, सोच कर, तोल कर रखे शब्द. ऋचा चौंक गई. लगा, इस सब के पीछे हो न हो एक बवंडर है. उस ने महिला की आंखों में झांकने का प्रयत्न किया, पर आंखों में कोई भाव नहीं थे, था तो एक अपारदर्शी खालीपन.

मुझे आश्चर्य होना स्वाभाविक था. उस महिला से परिचय हुए अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और उस से यह दूसरी मुलाकात थी. अभी तो वह ‘गीताजी’ और ‘ऋचाजी’ जैसे औपचारिक संबोधनों के बीच ही गोते खा रही थी कि गीता ने अपनी सफाई देते हुए यह कहा था, ‘‘माफ करना ऋचाजी, हम आप को टैलीफोन न कर सके. बात यह है कि हम…हम कुछ व्यस्त रहे.’’

ऋचा को इस वाक्य ने नहीं चौंकाया. वह जान गई कि अमेरिका में आते ही हम भारतीय व्यस्त हो जाने के आदी हो जाते हैं. भारत में होते हैं तो हम जब इच्छा हो, उठ कर परिचितों, प्रियजनों, मित्रों, संबंधियों के घर जा धमकते हैं. वहां हमारे पास एकदूसरे के लिए समय ही समय होता है. घंटों बैठे रहते हैं, नानुकर करतेकरते भी चायजलपान चलता है क्योंकि वहां ‘न’ का छिपा अर्थ ‘हां’ होता है. किंतु यहां सब अमेरिकन ढंग से व्यस्त हो जाते हैं. टैलीफोन कर के ही किसी के घर जाते हैं और चाय की इच्छा हो तो पूछने पर ‘हां’ ही करते हैं क्योंकि आप ने ‘न’ कहा तो फिर भारतीय भी यह नहीं कहेगा, ‘‘अजी, ले लो. एक कप से क्या फर्क पड़ेगा आप की नींद को,’’ बल्कि अमेरिकन ढंग से कंधे उचका कर कहेगा, ‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ और आप बिना चाय के घर.

अमेरिका आए ऋचा को अभी एक माह ही हुआ था. घर की याद आती थी. भारत याद आता था. यहां आने पर ही पता चलता है कि हमारे जीवन में कितनी विविधता है. दैनिक जीवन को चलाने के संघर्ष में ही व्यक्ति इतना डूब जाता है कि उसे कुछ हट कर जीवन पर नजर डालने का अवसर ही नहीं मिलता. यहां जीवन की हर छोटी से छोटी सुखसुविधा उपलब्ध है और फिर भी मन यहां की एकरसता से ऊब जाता है. अजीब एकाकीपन में घिरी ऋचा को जब एक अमेरिकन परिचिता ने ‘फार्म’ पर चलने की दावत दी तो वह फूली न समाई और वहीं गीता से परिचय हुआ था.

शहर से 20-25 किलोमीटर दूर स्थित इस ‘फार्म’ पर हर रविवार शाम को ‘गुडविल’ संस्था के 20-30 लोग आते थे, मिलते थे. कुछ जलपान हो जाता था और हफ्तेभर के लिए दिमाग तरोताजा हो जाता था. यह अनौपचारिक ‘मंडल’ था जिस में विविध देशों के लोगों को आने के लिए खास प्रेरित किया जाता था. सांस्कृतिक आदानप्रदान का एक छोटा सा प्रयास था यह.

यहीं उन गोरे चेहरों में ऋचा ने यह भारतीय चेहरा देखा और उस का मन हलका हो गया. वही गेहुआं रंग, काले घने बाल, माथे पर बिंदी और साड़ी का लहराता पल्ला. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा और अनायास दोनों चेहरों पर मुसकान थिरक गई. फिर परिचय, फिर अतापता, टैलीफोन नंबर का लेनदेन और छोटीमोटी, इधरउधर की बातें. कई दिनों बाद हिंदी में बातचीत कर अच्छा लगा.

तब गीता ने कहा था, ‘‘मैं टैलीफोन करूंगी.’’

और दूसरे सप्ताह मिली तो टैलीफोन न कर सकने का कारण बतातेबताते मन में लगी काई पर से जबान फिसल गई. उस के शब्द ऋचा ने पकड़ लिए, ‘‘वे सामाजिक नहीं हैं…’’ शब्द नहीं, मर्म को छूने वाली आवाज थी शायद, जो उसे चौंका गई. सामाजिक न होना कोई अपराध नहीं, स्वभाव है. गीता के पति सामाजिक नहीं हैं. फिर?

बातचीत का दौर चल रहा था. हरीहरी घास पर रंगबिरंगे कपड़े पहने लोग. लगा वातावरण में चटकीले रंग बिखर गए थे. ऋचा भी इधरउधर घूमघूम कर बातों में उलझी थी. अच्छा लग रहा था, दुनिया का नागरिक होने का आभास. ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की एक नन्ही झलक.

यहां मलयेशिया से आया एक परिवार था, कोई ब्राजील से, ये पतिपत्नी मैक्सिकन थे और वे कोस्टारिका के. सब अपनेअपने ढंग से अंगरेजी बोल रहे थे. कई ऋचा की भारतीय सिल्क साड़ी की प्रशंसा कर रहे थे तो कई बिंदी की ओर इशारा कर पूछ रहे थे कि यह क्या है? क्या यह जन्म से ही है आदि. कुल मिला कर ऐसा समां बंधा था कि ऋचा की हफ्तेभर की थकान मिट गई थी. तभी उस की नजर अकेली खड़ी गीता पर पड़ी. उस का पति बच्चों को संभालने के बहाने भीड़ से दूर चला गया था और उन्हें गाय दिखा रहा था.

ऋचा ने सोचा, ‘सचमुच ही गीता

का पति सामाजिक नहीं है. पर फिर यहां क्यों आते हैं? शायद गीता के कहने पर. किंतु गीता भी कुछ खास हिलीमिली नहीं इन लोगों से.’

‘‘अरे, आप अकेली क्यों खड़ी हैं?’’ कहती हुई ऋचा उस के पास जा खड़ी हुई.

‘‘यों ही, हर सप्ताह ही तो यहां आते हैं. क्या बातचीत करे कोई?’’ गीता ने दार्शनिक अंदाज से कहा.

‘‘हां, हो सकता है. आप तो काफी दिनों से आ रही हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम्हारे पति को अच्छा लगता है यहां? मेरा मतलब है भीड़ में, लोगों के बीच?’’

‘‘पता नहीं. कुछ कहते नहीं. हर इतवार आते जरूर हैं.’’

‘‘ओह, शायद तुम्हारे लिए,’’ ऋचा कब आप से तुम पर उतर आई वह जान न पाई.

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‘‘मेरे लिए, शायद?’’ और गीता के होंठों पर मुसकान ठहर गई, पर होंठों का वक्र बहुत कुछ कह गया. ऋचा को लगा, कदाचित उस ने किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, अनजाने ही अपराधबोध से उस ने झट आंखें फेर लीं.

तभी गीता ने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘सच मानो, ऋचा. मैं तो यहां आना बंद ही करने वाली थी कि पिछली बार तुम मिल गईं. बड़ा सहारा सा लगा. इस बार बस, तुम्हारी वजह से आई हूं.’’

‘‘मेरी वजह से?’’

‘‘हां, सोचा दो बातें हो जाएंगी. वरना हमारे न कोई मित्र हैं, न घर आनेजाने वाले. सारा दिन घर में अकेले रह कर ऊब जाती हूं. शाम को कभी बाजार के लिए निकल जाते हैं पर अब तो इन बड़ीबड़ी दुकानों से भी मन ऊब गया है. वही चमकदमक, वही एक सी वस्तुएं, वही डब्बों में बंद सब्जियां, गत्तों के चिकने डब्बों में बंद सीरियल, चाहे कौर्नफ्लैक लो या ओटबार्न, क्या फर्क पड़ता है.’’

गीता अभी बहुत कुछ कहना चाहती थी पर अब चलने का समय हो गया था. उस के पति कार के पास खड़े थे. वह उठ खड़ी हुई. ऋचा को लगा, गीता मन को खोल कर घुटन निकाल दे तो उसे शायद राहत मिलेगी. इस परदेस में इनसान मन भी किस के सामने खोले?

वह अपनी भावुकता को छिपाती हुई बोली, ‘‘गीता, कभी मैं तुम्हारे घर आऊं तो? बुरा तो नहीं मानेंगे तुम्हारे पति?’’

‘‘नहीं. परंतु हां, वे कभी कार से लेने या छोड़ने नहीं आएंगे, जैसे आमतौर पर भारतीय करते हैं. इन से यह सामाजिक औपचारिकता नहीं निभती,’’ वह चलते- चलते बोली. फिर निकट आ गई और साड़ी का पल्ला संवारते हुए धीरे से बोली, ‘‘तभी तो नौकरी छूट गई.’’

और वह चली गई, ऋचा के शांत मन में कंकड़ फेंक कर उठने वाली लहरों के बीच ऋचा का मन कमल के पत्ते की भांति डोलने लगा.

इस परदेस में, अपने घर से, लोगों से, देश से हजारों मील दूर वैसे ही इनसान को घुटन होती है, निहायत अकेलापन लगता है. ऊपर से गीता जैसी स्त्री जिसे पति का भी सहारा न हो. कैसे जी रही होगी यह महिला?

अगली बार गीता मिली तो बहुत उदास थी. पिछले पूरे सप्ताह ऋचा अपने काम में लगी रही. गीता का ध्यान भी उसे कम ही आया. एक बार टैलीफोन पर कुछ मिनट बात हुई थी, बस. अब गीता को देख फिर से मन में प्रश्नों का बवंडर खड़ा हो गया.

इस बार गीता और अधिक खुल कर बोली. सारांश यही था कि पति नौकरी छोड़ कर बैठ गए हैं. कहते हैं भारत वापस चलेंगे. उन का यहां मन नहीं लगता.

‘‘तो ठीक है. वहां जा कर शायद ठीक हो जाएं,’’ ऋचा ने कहा.

गीता की अपारदर्शी आंखों में अचानक ही डर उभर आया.

ऋचा सिहर गई, ‘‘नहीं. ऐसा न कहो. वहां मैं और अकेली पड़ जाऊंगी. इन के सब वहां हैं. इन का पूरा मन वहीं है और मेरा यहां.’’

तब पता चला कि गीता के 2 भाई हैं जो अब इंगलैंड में ही रहते हैं, पहले यहां थे. मातापिता उन के पास हैं. बहन कनाडा में है.

‘‘हमारी शादियां होने तक तो हम सब भारत में थे. फिर एकएक कर के इधर आते गए. मैं सब से छोटी हूं. मेरी शादी के बाद मातापिता भी भाइयों के पास आ गए.’’

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गीता एक विचित्र परिस्थिति में थी. पति भारत जाना चाहते थे,वह रोकती थी. घर में क्लेश हो जाता. वे कहते कि अकेले जा कर आऊंगा तो भी गीता को मंजूर नहीं था क्योंकि उसे डर था कि मांबाप, भाईबहनों के बीच में से निकल कर वे नहीं आएंगे.

‘‘बच्चों की खातिर तो लौट आएंगे,’’ ऋचा ने समझाया.

‘‘बच्चों की खातिर? हुंह,’’ स्पष्ट था कि गीता को इस बात का भी भय था कि उन्हें बच्चों से भी लगाव नहीं है. ऋचा को अजीब लगा क्योंकि हर रविवार को बच्चों के साथ वे घंटों खेलते हैं, उन्हें प्यार से रखते हैं.

ऋचा कई बार सोचती, ‘आखिर कमी कहां रह गई है, वह तो सिर्फ गीता का दृष्टिकोण ही जान पाई है. उस के पति से बात नहीं हुई. वैसे गीता यह भी कहती है कि उस के पति बहुत योग्य व्यक्ति हैं और नामी कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं. फिर यह सब क्या है?’

अब तो जब मिलो, गीता की वही शिकायत होती. पति ने फिलहाल अकेले भारत जाने की ठानी है. 3-4 महीने में वे चले जाएंगे. तत्पश्चात बच्चों की छुट्टियां होते ही वह जाएगी और फिर सब लौट आएंगे. पिछले 2 रविवारों को ऋचा फार्म पर गई नहीं थी. तीसरे रविवार गई तो गीता मिली. वही चिंतित चेहरा.

गीता के चेहरे पर भय की रेखाएं अब पूरी तरह अंकित थीं.

‘‘उन के बिना यहां…’’ गीता का वाक्य अभी अधूरा ही था कि ऋचा बोल पड़ी.

‘‘उन से इतना लगाव है तो लड़ती क्यों हो?’’

गीता चुप रही. फिर कुछ संभल कर बोली, ‘‘हमारा जीवन तो अस्तव्यस्त हो जाएगा न. बच्चों को स्कूल पहुंचाना, हर हफ्ते की ग्रौसरी शौपिंग, और भी तो गृहस्थी के झंझट होते हैं.’’

तभी गीता की परिचिता एक अमेरिकी महिला आ कर उस से कुछ कहने लगी. गीता का रंग उड़ गया. ऋचा ने उस की ओर देखा. गीता अंगरेजी में जवाब देने के प्रयास में हकला रही थी. ऋचा ने गीता की ओर से ध्यान हटा लिया और दूर एक पेड़ की ओर ध्यानमग्न हो देखने लगी. कुछ देर बाद अमेरिकन महिला चली गई. ऋचा को पता तब चला जब गीता ने उसे झकझोरा.

‘‘तुम ऋचा, दार्शनिक बनी पेड़ ताक रही हो. मैं इधर समस्याओं से घिरी हूं.’’

ऋचा ने उस की शिकायत सुनी- अनसुनी कर दी.

‘‘गीता, यह तुम्हारी अमेरिकी सहेली है. है न?’’

‘‘हां. नहीं. सच पूछो ऋचा, तो मैं कहां दोस्ती बढ़ाऊं? कैसे? अंगरेजी बोलना भी तो नहीं आता. मांबाप ने हिंदी स्कूलों में पढ़ाया.’’

‘‘ऐसा मत कहो,’’ ऋचा ने बीच में टोका, ‘‘अपनी भाषा के स्कूल में पढ़ना कोई गुनाह नहीं.’’

‘‘पर इस से मेरा हाल क्या हुआ, देख रही हो न?’’

‘‘यह स्कूल का दोष नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘दोष तुम्हारा है. अपने को समय व परिस्थिति के मुताबिक ढाल न सकना गुनाह है. बेबसी गुनाह है. दूसरे पर अवलंबित रहना गुनाह है. यही गुनाह औरत सदियों से करती चली आ रही है और पुरुषों को दोष देती चली आ रही है,’’ ऋचा तैश में बोलती चली गई. चेहरा तमतमाया हुआ था.

‘‘तुम कहना क्या चाहती हो, ऋचा?’’

‘‘बताती हूं. सामने पेड़ देख रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन पेड़ों की टहनियों से ‘लेस’ की भांति नाजुक, हलके हरे रंग की बेल लटक रही है. है न?’’

‘‘हां. पर इन से मेरी समस्या का क्या ताल्लुक?’’

‘‘अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में ये बेलें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं…’’

‘‘सुनो, ऋचा. इस वक्त मैं न कविता के मूड में हूं, न भूगोल सीखने के,’’ गीता लगभग चिढ़ गई थी.

ऋचा के चेहरे पर हलकी मुसकराहट उभर आई. फिर अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगी, ‘‘इन बेलों को ‘स्पेनिश मौस’ कहते हैं. इन की खासीयत यह है कि ये बेलें पेड़ से चिपक कर लटकती तो हैं पर उन पर अवलंबित नहीं हैं.’’

‘‘तो मैं क्या करूं इन बेलों का?’’

‘‘तुम्हें स्पेनिश मौस बनना है.’’

‘‘मुझे? स्पेनिश मौस?’’

‘‘हां, ‘अमर बेल’ नहीं, स्पेनिश मौस. ’’

‘‘पहेलियां न बुझाओ, ऋचा,’’ गीता का कंठ क्रोध और अपनी असहाय दशा से भर आया.

‘‘गीता, तुम्हारी समस्या की जड़ है तुम्हारी आश्रित रहने की प्रवृत्ति. पति पर निर्भर रहते हुए भी तुम्हें अपना अस्तित्व स्पेनिश मौस की भांति अलग रखना है. उन के साथ रहो, प्यार से रहो, पर उन्हें बैसाखी मत बनाओ. अपने पांव पर खड़ी हो.’’

‘‘कहना आसान है…’’ गीता कड़वाहट में कुछ कहने जा रही थी. पर ऋचा ने बात काट कर अपने ढंग से पूरी की, ‘‘और करना भी.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘पहला कदम लेने भर की देर है.’’

‘‘तो पहला कदम लेना कौन सिखाएगा?’’

‘‘तुम्हारा अपना आत्मबल, उसे जगाओ.’’

‘‘कैसे जगाऊं?’’

‘‘तुम्हें अंगरेजी बोलनी आती है, जिस की यहां आवश्यकता है, बोलो?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कार चलानी आती है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यहां आए कितने वर्ष हो गए?’’

‘‘8.’’

‘‘अब तक क्यों नहीं सीखी?’’

‘‘विश्वास नहीं है अपने पर.’’

‘‘बस, यही है हमारी आम औरत की समस्या और यहीं से शुरू करना है तुम्हें. मदद मैं करूंगी,’’ ऋचा ने कहा.

गीता के चेहरे पर कुछ भाव उभरे, कुछ विलीन हो गए.

‘स्पेनिश मौस,’ वह बुदबुदाई. दूर पेड़ों पर स्पेनिश मौस के झालरनुमा गुच्छे लटक रहे थे. अनायास गीता को लगा कि अब तक उस ने नहीं जाना था कि स्पेनिश मौस की अपनी खूबसूरती है.

‘‘यह सुंदर बेल है ऋचा, है न?’’ आंखों में झिलमिलाते सपनों के बीच से वह बोली.

‘‘हां, गीता. पर स्पेनिश मौस बनना और अधिक सुंदर होगा.’’

Mother’s Day 2024 : सासुमां के सात रंग – ससुराल में नई बहू का आना

जब मैं नईनई बहू बन कर ससुराल आई तो दूसरी बहुओं की तरह मेरे मन में भी सास नाम के व्यक्तित्व के प्रति भय व शंका सी थी. सहेलियों व रिश्तेदारों की चर्चा में हर कहीं सास की हिटलरी तानाशाही का उल्लेख रहता. जब पति के घर गई तो मालूम हुआ कि मेरे पति कुछ ही दिनों बाद विदेश चले जाएंगे. नया घर, नए लोग, नया वातावरण और एकदम नया रिश्ता. मुझे तो सोच कर ही घबराहट हो रही थी.

कुछ दिनों का साथ निभा कर मेरे पति नरेन को दूर देश रवाना होना था. इसी क्षण मुझे सासुमां का पहला रंग स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ. आवश्यक रीतिरिवाज व पार्टी वगैरह के बाद सासुमां ने ऐलान किया कि आज से 2 माह के लिए बहू ऊषा और नरेन दोनों उस संस्था के मकान में रहने चले जाएंगे, जहां नरेन काम करते हैं. नरेन द्वारा आनाकानी करने पर वे दृढ़ शब्दों में बोलीं, ‘‘ऊषा को समय देना तुम्हारा पहला कर्तव्य है. आखिर तुम्हारी अनुपस्थिति में वह तुम्हारी यादें ले कर ही तो यहां शांति से रह पाएगी.’’

विदेश यात्रा के 2 दिन पूर्व हम लोग सासुमां के पास आए. 26 साल तक जो बेटा उन के तनमन का अंश बन कर रहा, उस जिगर के टुकड़े को एक अनजान लड़की को किस सहजता से उन्होंने सौंप दिया, यह सोच कर मैं अभिभूत हो उठी. नरेन को विदा कर हम लोग जब लौटे तो मेरी आंखों के आंसू अंदर ही अंदर उफन रहे थे. सोच रही थी फूटफूट कर रो लूं, पर इतने नए लोगों के बीच यह अत्यंत मुश्किल था. रास्ते के पेड़पौधों को यों ही मैं देख रही थी. अचानक मैं ने सासुमां का हाथ अपने कंधे पर महसूस किया.

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सासुमां के स्पर्श ने मेरी भावनाओं के सारे बंधन तोड़ दिए. मैं ने अपना सिर उन की गोद में रख दिया और आंसुओं को बह जाने दिया. अब मुझे कोई भय, कोई संकोच, कोई दुविधा न थी. सासुमां की ममता के रंग ने मुझे आश्वस्त कर दिया था, ‘मैं अकेली नहीं हूं. मेरे साथ मेरी मां है.’ सासुमां का दूसरा रंग मैं ने छोटे देवर की शादी में देखा. बरात विदा होने से पहले लक्ष्मीपूजन का कार्यक्रम था. वधू पक्ष द्वारा लिया गया सजासजाया हौल, साजोसामान सब उन्होंने नकार दिया और अपनी ओर से पूरा खर्च कर लक्ष्मीपूजन संपन्न किया.’’

उन के अंदर के हठ का रंग मुझे करीब 10 वर्ष बाद देखने को मिला. ससुरजी ने मकान बनाने के लिए जो योजना बनाई थी, वह सिवा सासूमां के, सब को पसंद थी. ससुरजी 4 शयनकक्षों और एक हौल वाला दोमंजिला बंगला बनवाना चाहते थे. नीचे 2-2 शयनकक्ष और रसोईघर वाले 2 फ्लैट और ऊपर 2 शयनकक्ष के साथ एक बड़ा हौल, रसोई समेत बनवाया जाए. नीचे बगीचे और गैरेज के लिए जगह रखी जाए. एक दिन ससुरजी कागजों का एक पुलिंदा लाए और बोले, ‘‘लो वसंती, तुम्हारी इच्छानुसार मकान का नक्शा बनवा कर लाया हूं. अब उठ कर मेरे साथ कुछ खापी लो.’’

सासुमां के चेहरे पर विजय की एक स्निग्ध रेखा अभर आई. इस घटना के वर्षों बाद मुझे अपनी सासुमां के सत्याग्रह का असली अर्थ समझ में आया. 4 हिस्से वाले इस घर में रहते हुए पूरे परिवार में जो सुख, शांति और अपनत्व है, उस का श्रेय सासुमां के उस सत्याग्रह व दूरदृष्टि को जाता है.

सासुमां के अंदर की ईर्ष्या का रंग तब अचानक ही उभर आता जब नानीसास हम से मिलने आतीं, हमारे लिए तरहतरह के कीमती उपहार लातीं. महंगी साड़ी सासुमां को भेंट देतीं और पूरे समय अपने डाक्टर बेटे की दौलत, व्यवसाय और प्रतिष्ठा का गुणगान करतीं. नानीमां जितने दिन रहतीं, सासुमां विचलित और अशांत रहतीं. किसी का भी दिल न दुखाने वाली सासुमां का अपनी ही मां से किया जाने वाला रूखा व्यवहार मेरी समझ से बाहर था.

एक दिन हमेशा की तरह ‘मामापुराण’ शुरू हुआ था. ‘‘अब बस भी करो अम्मा,’’ सासुमां ने रुखाई से कहा.

‘‘कमाल है,’’ नानीमां अचकचा कर बोलीं, ‘‘सगे भाई की दौलत, खुशी की तारीफ तुझ से सही नहीं जाती. देख रही हूं तुझे तो कांटा ही चुभ रहा है.’’ सासुमां ने सीधे अपनी मां की ओर तीव्र दृष्टि डाली और कड़े शब्दों में बोलीं, ‘‘सो क्यों है, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो.’’

इस घटना के बाद नानीमां जब भी हमारे घर आतीं, मामाजी की दौलत और प्रतिष्ठा के बारे में अपना मुंह बंद ही रखतीं. काफी समय बाद सासुमां के इस व्यवहार का असली कारण मुझे तब पता चला जब मेरी बेटी सुरभि का मैडिकल में दाखिला होना था. उसी समय सुधीर, मेरे बेटे, को रीजनल कालेज में प्रवेश लेना था. सुरभि और सुधीर, दोनों को बाहर छात्रावास में रख कर पढ़ाई का खर्र्च उठाना संभव नहीं था. लिहाजा, हम ने सुरभि को घर में रह कर एमएससी करने को कहा. लेकिन सासुमां ने जब सुना तो बहुत नाराज हुईं, ‘‘सुधीर के लिए सुरभि के भविष्य की बलि क्यों चढ़ा रही हो. सुधीर को स्थानीय कालेज में इंजीनियरिंग पढ़ने दो, सुरभि का खर्च मैं उठाऊंगी. आखिर मेरे जेवर किस काम आएंगे. मैं नहीं चाहती कि एक और वसंती को अपने स्वप्नों के टूटने का दुख भोगना पड़े.’’

तब मैं ने जाना कि डाक्टर मामा की खातिर ही सासुमां का डाक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया था. मेरे बेटे सुधीर की शादी के लिए 6 दिन बचे थे. घर में नाचगाने की योजना थी. सहभोज और वीडियो शूटिंग का कार्यक्रम था. अचानक ससुरजी का पैर फिसला और पैर की हड्डी टूट गई. उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. जाहिर है, ऐसे में सासुमां को ससुरजी की देखभाल के लिए अस्पताल में ही रहना था. ससुरजी की तबीयत संभलने के तीसरे दिन सासुमां घर वापस आईं और सन्नाटा व उदास माहौल देख कर बोलीं, ‘‘अरी ऊषा, यह शादी का घर है क्या? न कहीं रौनक, न कहीं उत्साह…’’

‘‘वह क्या है…’’ मैं दुविधा में बोली. ‘‘अब रहने भी दे, 2 दिन के लिए मैं घर छोड़ कर क्या गई, सब के सब एकदम सुस्त हो गए,’’ वे नाराज हो कर बोलीं. फिर नरेन से बोलीं, ‘‘तेरे पिताजी की तबीयत अब ठीक है, आज तुम दोनों भाई उन के साथ रहना. मैं कल सुबह अस्पताल आऊंगी. घर में 2-2 बहुएं हैं, 2-2 लड़कियां हैं, पर शादी का घर तो एकदम भूतघर जैसा लग रहा है. मेरे पोते की शादी में ऐसी खामोशी क्यों भला, ऐसा खुशी का मौका क्या बारबार आता है?’’

फिर क्या पूछना, उस रात ऐसी महफिल जमी कि आज तक भुलाए नहीं भूलती. देररात तक संगीतसमारोह की रौनक रही. सासुमां खुद खूब नाचीं और हर एक को उठाउठा कर हाथ पकड़ कर खूब नचाया.

सुबह हुई तो स्नान कर के वे अस्पताल के लिए चल दीं. मैं उन की ममता और स्नेह से अभिभूत थी. अपने दुख, अपनी चिंता, परेशानी को छिपा कर उन्होंने किस तरह मेरी खुशी को महत्त्व दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाती. उत्साह का वह रंग कभीकभार आज भी उन में उभर आता है. सासुमां के व्यक्तित्व के 7 रंगों में एक रंग और था और वह था, अंधविश्वास का. घर में कोई भी समस्या हो, निवारण हेतु वे सब से पहले गुरुजी के पास दौड़ी जातीं. फिर मनौती, चढ़ावा, पूजा, हवन वगैरह का दौर शुरू हो जाता.

एक बार छोटे देवर ट्रैकिंग पर गए हुए थे. प्रतिदिन वहां के समाचारों में बादल, वर्षा, तूफान का जिक्र रहता. जब वे निश्चित समय तक नहीं लौटे तो हम सभी चिंता से व्याकुल हो गए. सासुमां ने तुरंत गुरुजी की सलाह ली और दूसरे दिन से अंधेरे में स्नानध्यान कर गीले कपड़ों में मंदिर जाने लगीं.

‘‘अम्मा, इस तरह परेशानी पर परेशानी बढ़ाओगी क्या. अब तुम भी बीमार पड़ कर रहीसही कसर पूरी कर दो,’’ एक दिन नरेन बरस पड़े. अम्माजी ने शांतसहज उत्तर दिया, ‘‘भोलेनाथ की कृपा से हरेंद्र जल्दी घर वापस आएगा और रही मेरी बात, तो मुझे कुछ नहीं होगा. देखना, तेरा पोता गोद में खिलाने के बाद ही मरूंगी.’’

वक्तबेवक्त नहाने, खाने और सोने से एक दिन जब सासुमां मंदिर में ही मूर्च्छित हो गईं तो उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. 15 दिन बाद देवरजी सकुशल लौटे. आते ही सासुमां ने उन्हें गले लगा लिया और भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मेरे भोलेनाथ की कृपा से तुम मौत के मुंह से लौटे हो.’’

देवरजी अवाक उन की तरफ देखते रहे और बोले, ‘‘क्या कह रही हो अम्मा, मैं और मौत के मुंह में, कुछ समझ नहीं आ रहा है…’’ पूरी बात बताने पर वे उन पर बरस पड़े, ‘‘अम्मा, जाने कैसेकैसे लोग तुम्हारे इस अंधविश्वास का फायदा उठा कर तुम से पैसे ऐंठ लेते हैं. इस व्रतउपवास के चक्कर में तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है. मैं तो नहीं पर तुम खुद ही अपने इन अंधविश्वासों के कारण मौत के मुंह में जा रही थीं.’’

देवरजी ने बताया कि उन का ट्रैकिंग कार्यक्रम अचानक स्थगित हो गया और उन्हें वहीं से औफिस के काम से मुंबई जाना पड़ा. इस की जानकारी उन्होंने पत्र द्वारा घर भेज दी थी. पर संभवतया किसी कारण से पत्र मिला नहीं. वह दिन और आज का दिन, सासुमां ने नजर उतारना, मनौती, चढ़ावा सब छोड़ दिया है. अपनी इतनी पुरानी मान्यता तो छोड़ पाना उन की दृढ़ता का ही परिचायक था.

सासुमां में सही समय पर विरक्ति का रंग भी छलक उठा. मेरे बेटे के संपन्न ससुराल वाले अपनी बेटी को वे सब सुविधाएं देना चाहते थे, जिन की वह आदी थी. लेकिन सासुमां की इच्छानुसार हम ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. जैसेजैसे समय बीतता गया, हम ने महसूस किया कि उन सुविधाओं के अभाव में बहू को यहां समझौता करना मुश्किल हो रहा है.

हम दुविधा में थे, इधर बहू भी अशांत थी. लेकिन अम्माजी समधियाने का सामान लेने में खुद को अपमानित महसूस करती थीं. हमारी उलझन को समझ कर एक दिन वे बोलीं, ‘‘बहू, अब सीढ़ी चढ़नाउतरना मुझ से होता नहीं. मेरे रहने के लिए नीचे ही इंतजाम कर दो. तुम लोग ऊपर के दोनों हिस्सों में चले जाओ. बुढ़ापे में मोहमाया जरा कम कर लेने दो. अब मुझे घर की जवाबदारी से मुक्त करो, न सलाह मांगो, न देखभाल का जिम्मा दो.’’ तब से अब तक सासुमां अपनेआप में मगन हैं. उन्होंने अपने चारों तरफ विरक्ति की दीवार खड़ी कर ली है, पर उस विरक्ति में रूखापन नहीं है. वे आज भी उतनी ही ममतामयी और जागरूक हैं, जितनी पहले थीं.

आश्चर्य की बात तो यह है कि बहू का ज्यादा से ज्यादा समय अपनी दादीसास के साथ ही गुजरता है. वह अपनी दादीसास की सब से ज्यादा लाड़ली है. उस ने भी महसूस कर लिया है कि अपने परिवार की सुखशांति के लिए ही दादीमां खुद ही तटस्थ हो गई हैं. अपने अधिकारों को छोड़ कर वे सब के कल्याण में लगी हुई हैं.

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